राजराज चोल द्वितीय (Rajaraja Chola II, 1146-1173 AD)

राजराज चोल द्वितीय (Rajaraja Chola II, 1146-1173 AD)

कुलोत्तुंग चोल द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र राजराज द्वितीय 1150 ई. में चोल गद्दी पर आसीन हुआ अैर 1173 ई. तक शासन किया। कुलोत्तुंग द्वितीय ने इसे 1146 ई. में ही युवराज नियुक्त कर दिया था, यही कारण है कि इसके लेखों में इसके शासनकाल की गणना 1146 ई. से ही की गई है।

राजराज द्वितीय के लेख तिरुचिरापल्ली, तंजोर, चिंगलेपुट, दक्षिणी अर्काट, कृष्णा, गुंटूर तथा गोदावरी जिलों से मिले हैं। इसके मणिमंगलम् लेख में कहा गया है कि चेर, काकतीय, पांड्य, सिंहल तथा पल्लव के शासक इसके समक्ष साष्टांग दंडवत् करते थे, किंतु इसे अतिशयोक्ति माना जाना चाहिए।

राजराज चोल द्वितीय उपलब्धियाँ

यद्यपि राजराज द्वितीय को चोल वंश का कमजोर शासक बताया जाता है, किंतु अभिलेखों से लगता है कि इसके शासनकाल में चोल साम्राज्य की सीमा पूर्ववत् बनी रही और पश्चिमी समुद्र के साथ-साथ पूर्वी समुद्र में भी चोल नौसेनाओं का दबदबा बना रहा। राजराज द्वितीय के साम्राज्य में मदुरै, कोंगुनाडु, थिरुनेलवेली, नेल्लोर, गुंटूर, विजयवाड़ा, राजमुंदरी और कलिंग शामिल थे। राजराज द्वितीय पूर्वी गंगावाड़ी प्रांत पर भी अपना नियंत्रण बनाये रखने में सफल रहा। गंगराज्य के पूर्वी भाग और कोंगु देश में चोल सत्ता बनी हुई थी। इसके लेख तेलगु प्रदेश में द्राक्षाराम तक के समस्त वेंगी से मिले हैं, जो इस प्रदेश पर इसके अधिकार के सूचक हैं। इसके अतिरिक्त, उत्तरी श्रीलंका भी प्रायः उसके नियंत्रण में था।

राजराज चोल द्वितीय (Rajaraja Chola II, 1146-1173 AD)
राजराज चोल द्वितीय के समय चोल साम्राज्य का विस्तार
पांड्यों का उत्तराधिकार विवाद

राजराज द्वितीय के शासनकाल के आरंभ में सामान्यतः शांति बनी रही। किंतु शासन के अंतिम वर्षों में इसको पांडयों के उत्तराधिकार विवाद में उलझना पड़ गया।

कुलोत्तुंग प्रथम के समय से ही पांड्य चोल साम्राज्य के अधीन हो गये थे, फिर भी, मदुरै साम्राज्य समय-समय पर अपने अधिराज से स्ववतंत्र होने का प्रयास करता रहता था। 1169 ई. के आसपास मदुरै में पांड्य गद्दी के लिए कुलशेखर और पराक्रम पांड्य में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष शुरू हो गया। पराक्रम पांड्य ने श्रीलंका के शासक विजयबाहु से सहायता माँगी, किंतु श्रीलंका से सहायता आने के पहले ही कुलशेखर ने अपने प्रतिद्वंदी पराक्रम पांड्य को पराजित कर उसे परिवार सहित मौत के घाट उतार दिया और मदुरै पर अधिकार कर लिया।

सिंहल के सेनापति लंकापुरी तंदनायगन ने पराक्रम पांड्य की ओर से पांड्यों के विरूद्ध अपने अभियान को जारी रखा और कुलशेखर को पराजित कर मृत पराक्रम पांड्य के पुत्र वीर पांड्य को मदुरा की गद्दी पर बैठा दिया। पराजित पांड्य कुलशेखर ने चोल शासक राजराज द्वितीय से सहायता माँगी। राजराज द्वितीय ने कुलशेकर की सहायता के लिए चोल सेनापति अनन पल्लवरायन को पांड्य राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजा। चोल सेना ने वीर पांड्य और उसकी सहयोगी सिंहली सेना को पराजित कर सिंहल द्वीप पर वापस खदेड़ दिया और कुलशेखर को मदुरा की गद्दी पर बिठाया।

चोल सेना ने आगे बढ़कर पराक्रमबाहु के प्रतिद्वंद्वी श्रीवल्लभ को सिंहल की गद्दी पर बैठाने के उद्देश्य से श्रीलंका पर नौसैनिक अभियान किया और कई नगरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। यद्यपि चोल पांड्य और सिंहल का यह युद्ध 1177 ई. तक चलता रहा, किंतु इसी बीच 1173 ई. में राजराज द्वितीय की मृत्यु हो गई।

राजराज द्वितीय की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि उनके शासन के उत्तरार्ध में शांति और समृद्धि बनी रही। इस परोपकारी शासक ने उत्पादन के साथ-साथ कुशल राजस्व प्रणाली की स्थापना की और प्राकृतिक आपदाओं के समय अपनी प्रजा को राहत प्रदान किया। गंगैकोंडचोलपुरम् अभी भी चोलों का प्रमुख नगर था। इसके शासनकाल में एक दूसरे नगर आयिरत्तलि को भी महत्ता मिली।

राजराज द्वितीय कला और संस्कृति का उदार संरक्षक था। इसने अपने शासन के उत्तरार्द्ध में दरासुरम (कुंभकोणम) के प्रसिद्ध ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया, जो इसके उत्तराधिकारी राजाधिराज द्वितीय के शासनकाल के आरंभ में पूरा हुआ था। ऐरावतेश्वर मंदिर चोलकालीन का वास्तुशिल्प का चमत्कार माना जाता है।

इसके अलावा, इसने तंजौर, चिदंबरम, काँची, श्रीरंगम, तिरुचि के मंदिरों के साथ-साथ मदुरै के मंदिरों को भी कई अनुदान दिया था। कहा गया है कि वह परशुराम के देश (केरल) में मंदिरों को नियमित अनुदान देता था।

राजराज द्वितीय की तीन महारानियों- भवनमुलुडदैयाल, धरणिमुलुडदैयाल तथा उलगुडैमुक्कोक्किलान के नाम मिलते हैं। राजराज द्वितीय ने चोलेंद्र सिंह, वीरधर, वीरोदय, राजगंभीर तथा एदिरिशोल की उपाधियाँ धारण की थी। इसने अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए ‘त्रिभुवनचक्रवर्ती’ जैसी उपाधि भी धारण की थी।

मृत्यु और उत्तराधिकार

राजराज के शिलालेखों इसके शासन का अंतिम वर्ष 26 है, इसलिए इसके शासनकाल का अंतिम वर्ष 1173 माना जाता है। चूंकि राजराज का चोल सिंहासन के लिए कोई उपयुक्त प्रत्यक्ष वंशज नहीं था, इसलिए उसने विक्रम चोल के पोते राजाधिराज चोल द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेखों के अनुसार, राजाधिराज चोल द्वितीय को उत्तराधिकारी नियुक्त करने के चार साल बाद 1173 ई. में राजराज की मृत्यु हो गई थी।

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