वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings, 1772-1785)

वारेन हेस्टिंग्स: भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल क्लाइव 1767 ई. में इंग्लैंड वापस चला गया और […]

वारेन हेस्टिंग्स के सुधार और नीतियाँ (Reforms and Policies of Warren Hastings)

वारेन हेस्टिंग्स: भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल

क्लाइव 1767 ई. में इंग्लैंड वापस चला गया और 1772 ई. में एक अंग्रेज राजनीतिज्ञ वारेन हेस्टिंग्स फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी (बंगाल) का प्रथम गवर्नर नियुक्त किया गया, जो भारत का प्रथम वास्तविक गवर्नर-जनरल रहा।

1767 से 1772 के बीच के पाँच वर्षों में वेरेलस्ट और कार्टियर ने भारत में प्रशासन का संचालन किया। दोनों ही साधारण योग्यता के प्रशासक थे और प्रशासन को सुव्यवस्थित करना उनके वश की बात नहीं थी। इन पाँच वर्षों के दौरान क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली के दोष स्पष्ट दिखाई देने लगे थे। समस्त आंतरिक व्यापार पर कंपनी के कर्मचारियों का एकाधिकार था जो मनमाने मूल्य पर वस्तुओं को खरीदते और बेचते थे। इससे भारतीय जुलाहों की दशा बहुत खराब हो गई थी। उन्हें उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाता था, कभी-कभी उन्हें पीटा भी जाता था और योग्य जुलाहों के अँगूठे तक कटवा लिए जाते थे।

वेरेलस्ट (1767-1769 ई.) ने मालगुजारी वसूलने के लिए आमिलों को सालाना ठेके देने की नीति शुरू की, जिससे कृषकों की दशा दयनीय हो गई। बहुत-से किसान अपनी जमीनें बंजर छोड़ दिए या जंगलों में भाग गए। नवाब तथा कंपनी के अधिकारियों की अधिकाधिक धन बटोरने की आकांक्षा ने बंगाल को पूरी तरह कंगाल कर दिया था। इसी समय 1769-70 ई. में बंगाल में ऐसा भीषण अकाल पड़ा कि लोग अपनी क्षुधा-पूर्ति के लिए लाशें तक खाने लगे थे जबकि कंपनी के कर्मचारी चावल की कालाबाजारी में लगे रहे।

1767 ई. में भारत में अंग्रेजों की स्थिति

बंगाल के बाहर की राजनीतिक स्थिति भी क्लाइव के जाने के बाद बदल गई थी। मराठे पानीपत की अपनी पराजय से उबर चुके थे और अब वे उत्तरी भारत के क्षेत्रों में छापे मारने लगे थे। मुगल सम्राट उनकी संरक्षण में इलाहाबाद से दिल्ली चला गया था। अवध के नवाब के साथ जो मैत्री-संबंध स्थापित था, वह शिथिल पड़ गया था।

कार्टियर के कार्यकाल (1769-72 ई.) की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी- प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध। दक्षिण भारत में एक सैनिक हैदर अली ने 1761 ई. में मैसूर राज्य पर अधिकार कर लिया था। मैसूर की विस्तारवादी नीति से भयभीत होकर अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम और मराठों से मिलकर हैदर अली के विरुद्ध एक त्रिगुट बनाया था, लेकिन हैदर इस त्रिगुट को तोड़ने में सफल रहा। हैदर अली ने कर्नाटक पर आक्रमण किया और वह मद्रास पहुँच गया। अंततः कंपनी को 1769 ई. में हैदर अली से संधि करनी पड़ी और आवश्यकता के समय हैदर को सैनिक सहायता देने का वादा करना पड़ा। जब 1771-72 ई. में पेशवा माधवराव ने हैदर अली पर आक्रमण किया, तो 1769 ई. की संधि के अनुसार मद्रास सरकार ने हैदर की कोई सहायता नहीं की जिससे हैदर अली अंग्रेजों से नाराज हो गया।

वारेन हेस्टिंग्स का प्रारंभिक जीवन

वारेन हेस्टिंग्स का जन्म 6 दिसंबर 1732 ई. में इंग्लैंड के ऑक्सफोर्डशायर में एक गरीब पादरी के घर हुआ था। वह 1750 ई. में अठारह वर्ष की आयु में पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के एक क्लर्क (लिपिक) के रूप में कलकत्ता आया था और अपनी कार्यकुशलता के कारण 1761-64 ई. तक कासिम बाजार का अध्यक्ष रहा था। 1764 ई. में कंपनी की सेवा से त्यागपत्र देकर वह इंग्लैंड चला गया था। वह 1768 ई. में मद्रास परिषद् का सदस्य बनकर पुनः भारत आया और 1772 ई. में कार्टियर के इंग्लैंड जाने के बाद बंगाल का गवर्नर नियुक्त हुआ। 1773 ई. के रेगुलेटिंग एक्ट के द्वारा उसे 1774 ई. में बंगाल का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया।

वारेन हेस्टिंग्स ने दो वर्ष तक (1772-1774 ई.) बंगाल के गवर्नर के रूप में कार्य किया। इस दौरान उसके द्वारा उठाए गए सुधारात्मक कदमों से कंपनी की शक्ति बहुत बढ़ गई। 1774 से 1785 ई. तक जब वह रेगुलेटिंग एक्ट के अंतर्गत बंगाल में फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी का गवर्नर-जनरल रहा और मद्रास एवं बंबई के ब्रिटिश प्रदेश भी गवर्नर-जनरल के अधीन आ गए थे।

वारेन हेस्टिंग्स की समस्याएँ

वारेन हेस्टिंग्स के समक्ष आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की चुनौतियाँ थीं। गवर्नर बनने के बाद हेस्टिंग्स के लिए द्वैध शासन सबसे बड़ी चुनौती थी। क्लाइव द्वारा स्थापित इस दोहरी शासन प्रणाली के कारण बंगाल में अशांति और अराजकता फैल गई थी। लगान की ठेका पद्धति ने कृषि को नष्ट कर दिया था। कंपनी का खजाना खाली हो गया था और उसे ब्रिटिश सरकार से 10 लाख पौंड का ऋण लेना पड़ा था। दूसरी ओर कंपनी के कर्मचारी अनुचित उपायों से दिन-प्रतिदिन धनवान होकर इंग्लैंड लौट रहे थे। वारेन ने बड़ी दृढ़ता से इन समस्याओं का सामना किया और नवस्थापित अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा करने में सफल रहा।

इसके अलावा, मराठे पानीपत की हार से उबर चुके थे और पुनः उत्तर भारत में उनकी गतिविधियाँ बढ़ गई थीं। दिल्ली का सम्राट शाह आलम अंग्रेजों का संरक्षण छोड़कर मराठों (सिंधिया) के संरक्षण में दिल्ली चला गया था। दक्षिण में हैदर अली कंपनी से प्रतिशोध लेने की योजना बना रहा था। इस समय वारेन हेस्टिंग्स को इंग्लैंड से भी सहायता मिलने की आशा नहीं थी क्योंकि इंग्लैंड अमेरिकी उपनिवेशों के साथ युद्ध में फँसा था।

इस विषम परिस्थिति में भी हेस्टिंग्स ने कंपनी के हितों को सुरक्षित बनाए रखने के लिए नैतिक-अनैतिक हरसंभव प्रयास किया। उसने अवध के नवाब शुजा-उद-दौला से बनारस की संधि कर अवध पर अपना नियंत्रण स्थापित किया और वहाँ की बेगमों से जबरन धन वसूल किया। उसके समय में ही रुहेला युद्ध (1774 ई.), प्रथम मराठा युद्ध (1775-82 ई.) तथा मैसूर का द्वितीय युद्ध (1780-84 ई.) भी लड़ा गया।

शाह आलम से संबंध

क्लाइव ने कड़ा और इलाहाबाद के जिले मुगल सम्राट शाह आलम के निवास के लिए दिए थे और संधि के अनुसार कंपनी 26 लाख वार्षिक शाह आलम को दीवानी के बदले में देती थी, जो 1769 ई. से नहीं दी गई थी। मुगल सम्राट शाह आलम को अंग्रेजों की नीयत पर संदेह होने लगा था।

इस समय मराठों ने अपने योग्य और अनुभवी नेता महादजी सिंधिया तथा जसवंत राव होल्कर के नेतृत्व में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। राजस्थान, आगरा के आसपास के जाटों तथा दोआब के रुहेलों को हराकर फरवरी 1771 ई. में उन्होंने दिल्ली जीत ली थी। उन्होंने मुगल सम्राट शाह आलम को अपने संरक्षण में लेकर दिल्ली के सिंहासन पर बिठा दिया। इसके उपलक्ष्य में सम्राट ने कड़ा और इलाहाबाद के जिले मराठों को सौंप दिए। वारेन हेस्टिंग्स ने इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी आर्थिक समस्या को हल करने का प्रयास किया। उसने शाह आलम को दी जाने वाली 26 लाख रुपये वार्षिक की पेंशन बंद कर दी और बाद में कड़ा तथा इलाहाबाद के जिले शाह आलम से छीनकर 50 लाख रुपये में अवध के नवाब शुजा-उद-दौला को बेच दिया।

कुछ इतिहासकार वारेन हेस्टिंग्स के इस व्यवहार को अनुचित और अनैतिक मानते हैं। किंतु वारेन हेस्टिंग्स का तर्क था कि ये जिले शाह आलम को अंग्रेजी संरक्षण में रहने के लिए मिले थे और जब वह मराठों के संरक्षण में चला गया, तो इन जिलों पर उसका कोई अधिकार नहीं रह गया था।

अवध से संबंध

क्लाइव ने अवध को मध्यवर्ती राज्य के रूप में स्थापित किया था। नवाब बिना धन दिए प्रतिवर्ष कंपनी से सैनिक सहायता ले रहा था जिससे कंपनी पर अनावश्यक वित्तीय बोझ पड़ रहा था। वारेन हेस्टिंग्स को लगा कि यदि अवध से संबंधों की पुनः समीक्षा नहीं की गई तो वह मराठों के साथ चला जाएगा अथवा मराठों से मिलकर रुहेलखंड को बाँट लेगा। अवध का नवाब भी कंपनी से रुष्ट था और फ्रांसीसी अधिकारी जेंटिल के द्वारा अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित कर रहा था। 1768 ई. में वेरेलस्ट ने नवाब के साथ फैजाबाद की (पहली) संधि की थी कि नवाब 35,000 से अधिक सैनिक नहीं रखेगा। किंतु अब वेरेलस्ट के विपरीत वारेन हेस्टिंग्स अवध को शक्तिशाली बनाना चाहता था।

हेस्टिंग्स ने 1773 ई. में स्वयं बनारस जाकर अवध के नवाब शुजा-उद-दौला से बनारस की संधि की। उसने 50 लाख रुपये के बदले इलाहाबाद और कड़ा के जिले नवाब को दे दिए। नवाब ने आवश्यकता पड़ने पर एक ब्रिगेड के लिए 30,000 रुपये मासिक के स्थान पर कंपनी को 2,10,000 रुपये देना स्वीकार किया। हेस्टिंग्स ने चेतसिंह को बनारस का जमींदार मान लिया और नवाब को बनारस की जमींदारियों से 20 लाख की जगह 22 लाख रुपये कर वसूलने की अनुमति दे दी। नवाब ने अपनी राजधानी में ब्रिटिश रेजिडेंट रखना स्वीकार कर लिया। हेस्टिंग्स ने मौखिक रूप से शुजा को रुहेलों के विरुद्ध सैनिक सहायता देने का वादा किया, लेकिन इसके बदले नवाब को 40 लाख रुपये और देने पड़े। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स ने न केवल शुजा और मराठों के बीच मित्रता की संभावना को समाप्त कर अवध पर नियंत्रण कर लिया बल्कि कंपनी की आर्थिक समस्या भी हल हो गई।

रुहेला युद्ध

अवध के उत्तर-पश्चिम में हिमालय की तलहटी में रुहेलखंड क्षेत्र था। रुहेलों और अवध के नवाब दोनों को मराठों के आक्रमण का भय था। इसलिए रुहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ ने 17 जून 1772 ई. को अवध के नवाब से एक समझौता किया कि मराठा आक्रमण होने की स्थिति में नवाब उसकी सैनिक सहायता करेगा और इसके बदले में रहमत खाँ नवाब को 40 लाख रुपये देगा।

1773 ई. में मराठों ने रुहेलखंड पर आक्रमण कर दिया। जब मराठों का सामना करने के लिए कंपनी और नवाब की सेनाएँ पहुँचीं तो पेशवा माधवराव की मृत्यु के कारण मराठा सेनाएँ वापस महाराष्ट्र लौट गईं। इस प्रकार युद्ध नहीं हुआ, लेकिन नवाब ने रहमत खाँ से 40 लाख रुपये की माँग की। रहमत खाँ का तर्क था कि जब युद्ध हुआ ही नहीं, तो 40 लाख रुपये देने का कोई सवाल ही नहीं उठता।

नवाब ने रुपये की वसूली के लिए फरवरी 1774 ई. में हेस्टिंग्स से बात की। हेस्टिंग्स इस समय आर्थिक संकट में था, इसलिए उसने नवाब से सौदा कर लिया कि अंग्रेजी सेना नवाब को रुहेलखंड जीतने में सहायता करेगी और नवाब इसके बदले में 50 लाख रुपये देगा। फलस्वरूप नवाब ने कंपनी की सेना की सहायता से अप्रैल 1774 ई. में रुहेलखंड पर आक्रमण किया और मीरनकटरा के निर्णायक युद्ध में हाफिज रहमत खाँ को पराजित कर मार डाला। रुहेलखंड अवध में मिला लिया गया और 20,000 रुहेलों को देश से निष्कासित कर दिया गया।

हेस्टिंग्स की रुहेलों के प्रति की गई कार्रवाई की व्यापक निंदा हुई और उस पर चले महाभियोग में यह भी एक आरोप था। रुहेलों ने अंग्रेजों का कुछ नहीं बिगाड़ा था, बावजूद इसके कंपनी की सेना का अन्यायपूर्ण प्रयोग किया गया। 1786 ई. में संसद में बर्क, मैकाले और मिल ने हेस्टिंग्स की कटु आलोचना करते हुए कहा कि कंपनी के सैनिकों के सामने रुहेला-ग्राम लूटे गए, बच्चे मार डाले गए तथा स्त्रियों के साथ बलात्कार किए गए। आखिर रुहेलों ने अंग्रेजों का क्या बिगाड़ा था जो हेस्टिंग्स ने शांतिप्रिय रुहेलों पर आक्रमण करने के लिए नवाब को अंग्रेजी सेना किराए पर दे दी।

वारेन हेस्टिंग्स के पक्ष में सर जॉन स्ट्रेची और पेंड्रेल मून के तर्क बिल्कुल हास्यास्पद हैं कि रुहेलों का शासन नवाब के शासन से अधिक क्रूर और उत्पीड़क था। सच तो यह है कि रुहेलों के खिलाफ हमला सैद्धांतिक रूप से गलत था और यह कार्य केवल धन-लिप्सा से किया गया था।

नंदकुमार का मुकदमा और फाँसी

नंदकुमार एक बंगाली जमींदार था। प्लासी युद्ध के पूर्व और मीर जाफर के शासनकाल में उसने अंग्रेजों की बड़ी सेवा की थी। 1764 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसे बर्दवान का मुख्य राजस्व अधिकारी नियुक्त किया था।

नंदकुमार के मुकदमे तथा फाँसी के संबंध में कहा गया है कि नंदकुमार हेस्टिंग्स और उसकी परिषद् के झगड़ों का शिकार हुआ और सुप्रीम कोर्ट के जज इम्पे ने हेस्टिंग्स के प्रभाव में आकर उसे मृत्युदंड दिया था।

नंदकुमार ने 1775 ई. में हेस्टिंग्स पर आरोप लगाया कि उसने अल्पवयस्क नवाब मुबारक-उद-दौला का संरक्षक बनाने के लिए मीर जाफर की विधवा मुन्नी बेगम से 3.5 लाख रुपये घूस लिया था। परिषद् ने इस आरोप की सत्यता की जाँच करनी चाही, लेकिन हेस्टिंग्स ने आरोप का खंडन करते हुए कहा कि परिषद् को उसकी जाँच करने का कोई अधिकार नहीं है और परिषद् की बैठक भंग कर दी।

दूसरी ओर वारेन हेस्टिंग्स और उसके सहयोगियों ने नंदकुमार पर जालसाजी के झूठे मुकदमे बना दिए। 19 अप्रैल को कमालुद्दीन ने कहा कि नंदकुमार ने उस पर दबाव डालकर वारेन हेस्टिंग्स और बारवेल के विरुद्ध प्रार्थनापत्र पर हस्ताक्षर करवाए थे। इसी प्रकार कलकत्ता के एक व्यापारी मोहनलाल ने कहा कि नंदकुमार ने दिवंगत बुलाकीदास के रत्नों को जालसाजी करके हड़प लिया है। 6 मई 1775 ई. को नंदकुमार को बंदी बना लिया गया और कलकत्ता के सर्वाेच्च न्यायालय ने जालसाजी के मुकदमे में अंग्रेजी जूरी की सहायता से बहुमत के निर्णय से उसे फाँसी पर लटका दिया।

आलोचकों ने नंदकुमार के मुकदमे और उसकी फाँसी की सजा को ‘न्यायिक हत्या’ की संज्ञा दी है, जिसे वारेन हेस्टिंग्स ने न्यायाधीश इम्पे की सहायता से अंजाम दिया था ताकि उसके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच न हो सके। जे.एफ. स्टीफन का मानना है कि इसमें वारेन हेस्टिंग्स का कोई हाथ नहीं था और नंदकुमार पर जालसाजी का आरोप एक आकस्मिक घटना थी। पी.ई. रॉबर्ट्स इसे ‘न्यायिक भूल’ बताते हैं। जो भी हो, इसमें नंदकुमार के साथ समुचित न्याय नहीं हुआ और यह वारेन हेस्टिंग्स के चरित्र पर एक काला धब्बा है।

बनारस के राजा चेतसिंह के साथ दुर्व्यवहार

बनारस का राजा चेतसिंह पहले अवध के नवाब की अधीनता में था जो शुजा-उद-दौला की मृत्यु के बाद 1775 ई. में फैजाबाद संधि के द्वारा कंपनी के अधीन हो गया था और नवाब को दिए जाने वाले 22 लाख रुपये का सालाना नजराना कंपनी को देना स्वीकार किया था। इसके बदले में कंपनी ने वचन दिया था कि यदि राजा यह धनराशि नियमित देता रहा तो कंपनी अतिरिक्त धन की माँग नहीं करेगी और किसी को भी राजा के अधिकार में दखल देने अथवा उसके देश की शांति-भंग करने की इजाजत नहीं देगी।

1778 ई. में कंपनी जब फ्रांसीसियों के साथ युद्धरत थी और मैसूर तथा मराठों से भी उसकी तनातनी चल रही थी, तो वारेन हेस्टिंग्स ने चेतसिंह से 5 लाख रुपये का एक विशेष अंशदान युद्धकर के रूप में माँगा। राजा ने विरोध करते हुए भी धन दे दिया। 1779 ई. में यह माँग फिर दोहराई गई और 2 लाख जुर्माने के साथ फौजी कार्रवाई की धमकी भी दी गई। जब 1780 ई. में तीसरी बार माँग की गई तो चेतसिंह ने 2 लाख रुपये व्यक्तिगत उपहार (घूस) के रूप में हेस्टिंग्स को इस उम्मीद के साथ भेजा कि उससे अतिरिक्त धन नहीं माँगा जाएगा। हेस्टिंग्स ने यह धनराशि तो स्वीकार कर ली, किंतु उसने 5 लाख रुपये और 2,000 घुड़सवारों की अतिरिक्त माँग कर दी। राजा ने क्षमा-याचना कर 500 घुड़सवारों और 500 तोपचीदारों का प्रबंध कर गवर्नर-जनरल को सूचित कर दिया।

हेस्टिंग्स ने इसे अवज्ञा मानकर चेतसिंह पर 50 लाख रुपये जुर्माना कर दिया और सेना लेकर उसे दंड देने के लिए स्वयं बनारस पहुँच गया। राजा ने बक्सर के स्थान पर उसका स्वागत किया और अपनी पगड़ी उसके पाँव पर रख दी। गवर्नर-जनरल ने राजा को बंदी बना लिया जिससे क्रुद्ध होकर चेतसिंह के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। हेस्टिंग्स अपनी जान बचा कर चुनार भागा और वहाँ से एक कुमुक लाकर बनारस पर फिर से अधिकार कर लिया और चेतसिंह के महल को सिपाहियों से लुटवाया। किंतु चेतसिंह ग्वालियर भाग गया।

हेस्टिंग्स ने चेतसिंह को पदच्युत कर उसके भतीजे महीप नारायण को इस शर्त पर राजा बनाया कि वह 40 लाख रुपये वार्षिक कंपनी को देता रहेगा। राजा के लिए यह रकम बहुत बड़ा बोझ थी और इससे उसकी आर्थिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

हेस्टिंग्स का चेतसिंह के प्रति बर्ताव अन्यायपूर्ण था क्योंकि हेस्टिंग्स को राजा से अतिरिक्त धन माँगने का कोई अधिकार नहीं था। हेस्टिंग्स ने तर्क दिया था कि मराठा युद्ध के कारण कंपनी भीषण आर्थिक संकट में थी, इसलिए उसे यह उपाय अपनाना पड़ा। हेस्टिंग्स के समर्थकों का कहना था कि चेतसिंह केवल जमींदार था और 22.5 लाख रुपये भूमिकर ही था, शुल्क नहीं। इसलिए चेतसिंह को युद्धकर देना चाहिए था। किंतु यह सभी तर्क निराधार हैं क्योंकि 1775 ई. की संधि में यह स्पष्ट उल्लिखित था कि उससे 22.5 लाख रुपये के अलावा कोई और राशि नहीं माँगी जाएगी। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स का समस्त आचरण अनुचित, निष्ठुर तथा प्रतिशोध की भावना से प्रेरित था।

अवध की बेगमों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार

अवध की बेगमें, नवाब आसफ-उद-दौला की माँ और दादी थीं। इन बेगमों को 2 करोड़ रुपये और जागीर मिली थी। अवध की गद्दी पर बैठने के बाद आसफ-उद-दौला ने 1775 ई. में कंपनी के साथ फैजाबाद की संधि की थी, जिसके अनुसार उसने अवध में ब्रिटिश सेना रखने के बदले एक बड़ी धनराशि देना स्वीकार किया था। अवध का प्रशासन भ्रष्ट और कमजोर था, इसलिए नवाब पर कंपनी का 15 लाख रुपये बकाया चढ़ गया था।

1781 ई. तक मैसूर, मराठों तथा चेतसिंह से हुई लड़ाइयों के कारण कंपनी की वित्तीय स्थिति खराब हो गई थी। इसलिए गवर्नर-जनरल हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से बकाया रकम के लिए दबाव डाला। नवाब ने भुगतान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि अगर अंग्रेज उसकी सहायता करें तो वह अपनी दादी और नानी से धन प्राप्त करके उन्हें दे सकता है। अवध की बेगमें आसफ-उद-दौला को 5,60,000 पौंड की धनराशि पहले ही 1775 और 1776 ई. में दे चुकी थीं। वारेन हेस्टिंग्स के विरोध के बावजूद कलकत्ता परिषद् ने बेगमों को आश्वासन दिया था कि भविष्य में उनसे कोई माँग नहीं की जाएगी।

हेस्टिंग्स अवध की बेगमों से नाराज था, क्योंकि 1775 ई. में उन्होंने परिषद् में उसके विरोधियों का समर्थन प्राप्त किया था। जब 1781 ई. में अवध के नवाब ने बेगमों के धन की माँग की, तो उसे बेगमों से बदला लेने का बहाना मिल गया। वारेन हेस्टिंग्स के निर्देश पर ब्रिटिश रेजिडेंट ब्रिस्टो ने अवध की बेगमों के साथ इतना बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया कि उनकी दुर्दशा देखकर स्वयं नवाब भी विचलित होने लगा। अंततः बेगमों को बाध्य होकर 105 लाख रुपये देना पड़ा।

अल्फ्रेड लायल ने वारेन हेस्टिंग्स के इस आचरण की कठोर निंदा की है और कहा है कि स्त्रियों और हिजड़ों से रुपये ऐंठने के ख्याल से ब्रिटिश अफसरों की निगरानी में शारीरिक सख्तियों का बरता जाना एक अधम कार्य था। हेस्टिंग्स ने अपने बचाव में कहा कि खजाना बेगमों का नहीं, बल्कि राज्य का था और अंग्रेजी राज्य की रक्षा के लिए धन की नितांत आवश्यकता थी। उसका यह भी कहना था कि बेगमें चेतसिंह से मिलकर षड्यंत्र कर रही थीं और कलकत्ता परिषद् द्वारा दी गई गारंटी समाप्त हो गई थी।

वास्तव में, हेस्टिंग्स ने बेगमों के विरुद्ध द्वेषवश कार्रवाई की थी। मैकाले भी स्वीकार करता है कि हेस्टिंग्स ने बेगमों के साथ जो दुर्व्यवहार किया, उसका बचाव नहीं किया जा सकता है। किंतु यह आश्चर्यजनक है कि लॉर्ड्स ने हेस्टिंग्स को बेगमों पर अत्याचार करने के आरोप से दोषमुक्त कर दिया।

वारेन हेस्टिंग्स की मराठा और मैसूर नीति

हेस्टिंग्स की नीति का मुख्य उद्देश्य बंगाल प्रांत की सुरक्षा को सुदृढ़ करना था और वह विस्तारवादी नीति अपनाकर कंपनी की कठिनाइयों को बढ़ाने के पक्ष में कदापि नहीं था। इसके बावजूद उसे परिस्थितिवश दक्षिण भारत में दो युद्धों में उलझना पड़ा। एक युद्ध मद्रास सरकार की महत्त्वाकांक्षा के कारण मराठों से करना पड़ा जो 1775 से 1782 ई. तक चला और दूसरा युद्ध मैसूर से हुआ जो 1780 से 1784 ई. तक चला। इन युद्धों से कंपनी को कोई आर्थिक लाभ तो नहीं हुआ, लेकिन कंपनी की वित्तीय स्थिति खराब अवश्य हो गई।

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782 ई.)

वारेन हेस्टिंग्स ने अवध से संधि करके प्रसिद्धि प्राप्त कर ली, तो मद्रास परिषद् ने कर्नाटक तथा उत्तरी सरकार के क्षेत्रों पर अपना प्रभाव सुदृढ़ कर लिया। बंबई की परिषद् सालसेट, बेसिन और थाणे पर अधिकार करके बंबई की सुरक्षा करना चाहती थी, किंतु मराठों के भय से वह ऐसा नहीं कर पा रही थी। तभी मराठों के आंतरिक झगड़ों से अंग्रेजों को एक अवसर मिल गया।

पेशवा माधवराव की मृत्यु (1772 ई.) तथा पेशवा नारायणराव की हत्या (1773 ई.) के बाद महाराष्ट्र में आंतरिक झगड़े आरंभ हो गए। नारायण राव के चाचा रघुनाथ राव ने नारायण राव के मरणोपरांत जन्मे पुत्र माधवराव नारायण के विरुद्ध कंपनी की सहायता माँगी। बंबई की सरकार ने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए रघुनाथ राव से सूरत की संधि (1775 ई.) कर ली। बंबई परिषद् को लगा कि कठपुतली रघुनाथ राव के द्वारा बंगाल के इतिहास को दोहराया जा सकेगा। सूरत की संधि के अनुसार रघुनाथ राव को सैनिक सहायता देकर पूना में पेशवा की गद्दी पर बिठाना था और उसके बदले में कंपनी को सालसेट तथा बेसिन मिलने थे। इसके लिए बंबई सरकार ने संचालकों से सीधी अनुमति ले ली।

कंपनी की सहायता लेकर रघुनाथ राव पूना की ओर बढ़ा तथा मई 1775 ई. में अडास के स्थान पर एक अनिर्णायक युद्ध हुआ। कलकत्ता परिषद् को सूरत संधि की प्रति युद्ध आरंभ होने पर मिली। हेस्टिंग्स युद्ध के पक्ष में नहीं था, इसलिए कलकत्ता परिषद् ने सूरत की संधि को अस्वीकार कर दिया और पूना दरबार से मार्च 1776 ई. में पुरंदर की संधि कर ली। लेकिन यह संधि व्यर्थ रही क्योंकि बंबई की सरकार तथा संचालकों ने इसे स्वीकार नहीं किया।

यद्यपि रेगुलेटिंग एक्ट में युद्ध तथा शांति के मामलों में बंबई तथा मद्रास की सरकारों को बंगाल में स्थित केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में कर दिया गया था, परंतु तात्कालिक आवश्यकता पड़ने पर संचालकों से सीधी आज्ञा प्राप्त कर लेने पर वे गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् की अनुमति के बिना कार्य कर सकती थीं। इन युद्धों में हेस्टिंग्स या उसकी परिषद् से अनुमति नहीं ली गई थी, लेकिन कंपनी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हेस्टिंग्स को इन युद्धों को स्वीकार करना पड़ा।

1775 ई. में अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हो जाने के कारण अंग्रेज और फ्रांसीसी पुनः एक-दूसरे के विरोधी हो गए। पूना दरबार में फ्रांसीसी प्रभाव की आशंका से हेस्टिंग्स ने अपनी नीति बदल दी और गॉडर्ड के नेतृत्व में एक सेना बंबई की सेना की सहायता के लिए भेज दी। बंबई परिषद् ने लंदन से प्रोत्साहित होकर सूरत की संधि को पुनर्जीवित कर दिया। किंतु बंबई की अंग्रेजी सेना बड़गाँव स्थान पर पेशवा की सेना से हार गई और उसे जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव की संधि करनी पड़ी। संधि के अनुसार अंग्रेजों ने 1773 ई. के बाद जीते गए सभी प्रदेशों को लौटाने का वादा किया। उधर वारेन हेस्टिंग्स ने युद्ध जारी रखा। उसने एक सेना सिंधिया के आगरा-ग्वालियर क्षेत्र पर तथा दूसरी सेना पूना पर आक्रमण करने के लिए भेजी। पूना भेजी गई सेना जनरल गॉडर्ड के नेतृत्व में अहमदाबाद, गुजरात को रौंदते हुए बड़ौदा पहुँच गई। अंग्रेजों का सामना करने के लिए पूना सरकार के प्रमुख नाना फड़नवीस ने निजाम, हैदर अली और नागपुर के भोंसले को मिलाकर एक गुट बना लिया। गॉडर्ड ने गायकवाड़ को अपनी ओर मिला लिया, किंतु वह पूना पर अधिकार नहीं कर सका और लौट गया।

मध्य भारत में महादजी सिंधिया ने अंग्रेजों से घोर युद्ध किया। हेस्टिंग्स को लगा कि वह मराठों को पराजित नहीं कर सकता, इसलिए सिंधिया की मध्यस्थता में अंग्रेजों और मराठों के बीच मई 1782 ई. में सालबाई की संधि हो गई। इस संधि के अनुसार दोनों ने एक-दूसरे के विजित क्षेत्र लौटा दिए, केवल सालसेट और एलीफैंटा द्वीप अंग्रेजों के पास रह गए। अंग्रेजों ने रघुनाथ राव का साथ छोड़ दिया और माधवराव नारायण को पेशवा स्वीकार कर लिया। रघोबा को पेंशन दे दी गई। इस संधि से युद्ध के पूर्व की स्थिति स्थापित हो गई, किंतु कंपनी को भारी वित्तीय क्षति उठानी पड़ी।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)

मैसूर का हैदर अली 1771 ई. से ही अंग्रेजों से नाराज था। इसका कारण यह था कि अंग्रेजों ने हैदर अली को मराठा-आक्रमण के समय उसकी सहायता का वचन दिया था। किंतु जब 1771 ई. में मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने अपना वादा नहीं निभाया था।

आंग्ल-मैसूर युद्ध का तात्कालिक कारण यह था कि बंबई सरकार ने 1779 ई. में मैसूर राज्य के बंदरगाह माही पर अधिकार कर लिया। वारेन हेस्टिंग्स का तर्क था कि माहीे के द्वारा हैदर अली को फ्रांसीसी सहायता मिल सकती थी। इससे हैदर अली बहुत रुष्ट हुआ और वह नाना फड़नवीस के अंग्रेज-विरोधी गुट में शामिल हो गया।

हैदर अली ने जुलाई 1780 ई. में दो अंग्रेजी सेनाओं को पराजित करके अर्काेट को जीत लिया। इसके बाद उसने हेक्टर मुनरो की सेना को हर दिया। इससे मद्रास सरकार के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया और कंपनी की साख अपने न्यूनतम स्तर पर पहुँच गई। कलकत्ता से हेस्टिंग्स ने हैदर अली के विरुद्ध सेनाएँ भेजीं। सर आयर कूट के अधीन अंग्रेजी सेना ने हैदर अली को पोर्टाेनोवो, पोलिलूर तथा सोलिंगपुर में कई स्थानों पर पराजित किया, लेकिन उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के सौभाग्य से दिसंबर 1782 ई. में हैदर अली की मृत्यु हो गई।

हैदर के बेटे टीपू सुल्तान ने युद्ध को जारी रखा। उसने जनरल मैथ्यू को पराजित किया। जुलाई 1783 ई. में इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य पेरिस की संधि से जब अमेरिकी युद्ध समाप्त हो गया, तो मद्रास के गवर्नर लॉर्ड मैकार्टनी के प्रयास से मार्च 1784 ई. में अंग्रेजों और टीपू के बीच मंगलौर की संधि हो गई और दोनों ने एक-दूसरे के विजित प्रदेश लौटा दिए। इस प्रकार आंग्ल-मैसूर युद्ध से भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए जो गंभीर संकट उत्पन्न हुआ था, वह वारेन हेस्टिंग्स की दूरदर्शिता से टल गया।

वारेन हेस्टिंग्स पर महाभियोग

गवर्नर-जनरल के रूप में वारेन हेस्टिंग्स की दो कारणों से बड़ी बदनामी हुई थी-एक, बनारस के राजा चेतसिंह से अकारण अधिक रुपयों की माँग करने और उसे हटाकर उसके भतीजे को बनारस की नवाबी देने के कारण एवं दूसरे, अवध की बेगमों को शारीरिक यंत्रणा देकर उनका खजाना लूटने के कारण। जब पिट्स के इंडिया एक्ट के विरोध में अपने पद से इस्तीफा देकर वारेन हेस्टिंग्स फरवरी 1785 ई. में इंग्लैंड पहुँचा तो कॉमन सभा के सदस्य एडमंड बर्क ने उसके ऊपर महाभियोग लगाया। प्रारंभ में हेस्टिंग्स के ऊपर ग्यारह आरोप लगाए गए थे, लेकिन बाद में इनकी संख्या बढ़कर बाईस हो गई थी।

ब्रिटिश संसद में महाभियोग की कार्यवाही सात वर्षों तक (1788 से 1795 ई.) चली। महाभियोग में न्यायोचित कार्यवाही की संभावना नहीं थी और अंत में वही हुआ भी। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट ने माना कि चेतसिंह के मामले में हेस्टिंग्स का व्यवहार क्रूर, अनुचित और दमनकारी था, लेकिन 23 अप्रैल 1795 ई. को हेस्टिंग्स को सभी आरोपों से ससम्मान बरी कर दिया गया।

वारेन हेस्टिंग्स का मूल्यांकन

वारेन हेस्टिंग्स का व्यक्तित्व तथा कृतित्व विवादास्पद रहा है। एक ओर उसे योग्य, प्रतिभावान तथा साहसी प्रशासक के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसने संकट के समय भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा की थी, तो दूसरी ओर एक वर्ग उसे निष्ठुर, अत्याचारी, भ्रष्ट और अनैतिक शासक मानता है, जिसके कार्यों ने इंग्लैंड की राष्ट्रीय अस्मिता को आघात पहुँचाया और मानवता को शर्मसार किया।

हेस्टिंग्स क्लाइव की ही भाँति व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट और लालची था। महाभियोग में उसके आर्थिक भ्रष्टाचार पर विस्तृत बहस हुई थी। उसने 2 लाख रुपये चेतसिंह से तथा 10 लाख रुपये नवाब से घूस लिया। मून के अनुसार उसने लगभग 30 लाख रुपये घूस अथवा उपहार के रूप में लिया था। उसने नियुक्तियों तथा ठेके देने में घोर अनियमितताएँ की थीं और संचालकों के संबंधियों तथा अपने प्रिय पात्रों को अनुचित लाभ पहुँचाया था। हेस्टिंग्स ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के प्रधान सूलिवन के पुत्र को अफीम का ठेका दिया, जो उसने 40,000 पौंड में बेच दिया। इसी प्रकार उसने बहुत सी अधिकारियों की भर्ती की, जिससे असैनिक प्रशासन का व्यय 1776 ई. के 251,533 पौंड से बढ़कर 1784 ई. में 927,945 पौंड हो गया था।

हेस्टिंग्स में मानवता या नैतिकता नाम की कोई भावना ही नहीं थी। मैकाले ने उसके बारे में लिखा है: ‘‘न्याय के नियम, मानवता की भावनाएँ, तथा संधियों में लिखे वचन इत्यादि का उसके लिए कोई महत्त्व नहीं था, चाहे वे तात्कालिक राजनीतिक हितों के विरुद्ध ही हों। उसका नियम केवल एक ही था, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। वह अपने पीछे बंगाल, बनारस तथा अवध में दुःख, उजाड़ तथा अकालों की लंबी कड़ियाँ छोड़ गया।’’ इसके विपरीत, डेविड का विचार है कि भारत में ब्रिटिश शासन की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए हेस्टिंग्स ने जो कार्य किए, उनकी प्रशंसा करनी चाहिए। उसने भारत में बिखरे ब्रिटिश साम्राज्य को एक शक्ति बना दिया, जो अन्य सभी राज्यों से अधिक शक्तिशाली हो गया। डोडवेल का भी मानना है कि हेस्टिंग्स की महानता को कभी पूरी मान्यता नहीं मिल सकी। इसके अनुसार यदि बर्क को महाभियोग चलाना था, तो यह अपने पुराने शत्रु लॉर्ड नॉर्थ पर चलाना चाहिए था, जो रेगुलेटिंग एक्ट का प्रवर्तक था, न कि उस पर जो इस एक्ट का शिकार हुआ। अल्फ्रेड लायल ने भी हेस्टिंग्स की प्रशासनिक प्रतिभा की प्रशंसा की है क्योंकि जिस समय अंग्रेजों को अपने शेष उपनिवेशों में विद्रोहों का सामना करना पड़ रहा था, वहीं भारत में कठिनाइयों के होते हुए भी कंपनी की स्थिति अच्छी बनी रही।

यद्यपि हेस्टिंग्स ने भारत को लूटा, किंतु उसने भारत को समृद्ध भी बनाया। उसने प्राचीन विद्या और साहित्य को संरक्षण दिया। उसने चार्ल्स विल्किन्स के गीता के प्रथम अनुवाद की प्रस्तावना लिखी। उसकी प्रेरणा से प्राचीन भारतीय पुस्तकों का अध्ययन शुरू हुआ। विल्किन्स ने फारसी तथा बांग्ला मुद्रण के लिए ढलाई के अक्षरों का आविष्कार किया और हितोपदेश का भी अंग्रेजी अनुवाद किया।

इस प्रकार अंग्रेजों की दृष्टि में हेस्टिंग्स एक महान साम्राज्य निर्माता था। भारतीयों की दृष्टि में वह धनलोलुप और अत्याचारी था, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की लूट-खसोट, अत्याचार और विश्वासघात की परंपराओं को मजबूत किया। वी.ए. स्मिथ का मत तर्कसंगत लगता है कि उसके थोड़े से दोष उस राजनीतिज्ञ के दोष थे, जिस पर सहसा ही संकट आ पड़ा हो और कठिन उलझनों में कभी-कभी मानवीय समझ में भूल-चूक हो जानी स्वाभाविक थी। वैसे भी साम्राज्य बनाने वालों से पूर्णतया नैतिक आचरण की आशा भी करना ठीक नहीं है, क्योंकि साम्राज्य कभी बिना पाप के नहीं बनते हैं।

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