भारत पर तुर्क आक्रमण: महमूद गजनवी (Turk Invasion of India: Mahmud Ghaznavi)

महमूद गजनवी  के आक्रमण आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में अरबों ने […]

mahamood Gajnavi

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महमूद गजनवी  के आक्रमण

आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में अरबों ने सिंध पर आक्रमण किया, किंतु इसका कोई स्थायी परिणाम नहीं हुआ। अरबों का राज्य सिंध और मुल्तान से आगे नहीं बढ़ सका और शीघ्र ही उनकी शक्ति क्षीण हो गई। अरबों की सिंध विजय के तीन शताब्दियों पश्चात् भारत में तुर्कों के आक्रमण शुरू हुए।

तुर्कों का उदय

तुर्क मध्य एशिया की एक युद्धप्रिय जाति थी, जो चीन की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं पर निवास करती थी। कठोर घासस्थलीय पृष्ठभूमि के कारण तुर्क सहज योद्धा थे। प्रशिक्षण और अनुशासन के द्वारा उन्हें प्रथम श्रेणी के योद्धा बनाया जा सकता था। साथ ही, उन्हें किसी अन्य आवश्यक वस्तु की तरह खरीदा भी जा सकता था। ट्रांस-ऑक्सियाना और उसके आसपास के बाजारों में मध्य एशिया के घासस्थलों और मावरा-उन-नहर के उत्तर में पड़ने वाले मैदानों से पकड़कर लाए गए गुलामों की प्रचुरता थी।

तुर्क आठवीं शताब्दी से ही मावरा-उन-नहर (ट्रांस-ऑक्सियाना) क्षेत्र में घुसपैठ कर रहे थे, जो पूर्वी एशिया की प्राचीन सभ्यताओं और मध्य एशिया के मध्यवर्ती क्षेत्र था। अरब के उमय्यद शासकों (661-750 ई.) ने मध्य एशिया में इस्लाम का प्रचार किया, किंतु उनकी सेना में भर्ती मुख्यतः अरबों तक सीमित थी। 750 ई. में उमय्यदों का स्थान अब्बासियों ने ले लिया।

अब्बासी साम्राज्य नवीं शताब्दी में अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर था, जिसमें कुस्तुन्तुनिया (कॉन्स्टेंटिनोपल), मिस्र, मध्य एशिया, और अरब प्रायद्वीप शामिल थे। नवीं शताब्दी के अंत में अब्बासी खलीफाओं और ईरानी शासकों ने अपनी सुरक्षा के लिए तुर्की गुलामों को प्रहरी और अंगरक्षक के रूप में नियुक्त करना शुरू किया, जिससे सेना में अरबों का एकाधिकार समाप्त होने लगा। यह विशेष रूप से खलीफा हारून-अल-रशीद (मृत्यु 809 ई.) के शासन के बाद के दशकों में हुआ।

अब्बासी साम्राज्य और तुर्कों का महत्त्व

खलीफा अल-मुतसिम (833-842 ई.) अपने आसपास तुर्की गुलामों का एक बड़ा लश्कर रखने वाला और उसे अपनी सेनाओं का आधार बनाने वाला पहला शासक था। उसने खुरासानी सैनिकों के विरुद्ध संतुलन स्थापित करने के लिए तुर्क गुलाम सैनिकों की सेना गठित की। तुर्क सैनिकों ने अपने युद्ध कौशल से स्वयं को अरब और ईरानी सैनिकों से श्रेष्ठ सिद्ध किया और शीघ्र ही ईरानी भाषा और संस्कृति को आत्मसात कर लिया। इस प्रकार तुर्कों का न केवल इस्लामीकरण और फारसीकरण हुआ, बल्कि खलीफा में तुर्क गुलामों का राजनीतिक महत्त्व भी बढ़ा।

इसके बाद तुर्कों ने खलीफाओं को भयभीत करके ऊँचे पद प्राप्त किए। खलीफा के अनुकरण में प्रांतीय गवर्नरों ने भी तुर्की गुलाम सैनिकों की सेनाएँ संगठित कीं, जिसके फलस्वरूप प्रांतीय राज्यों में भी तुर्कों का प्रभुत्व स्थापित हुआ।

अब्बासी साम्राज्य का विघटन और स्वतंत्र राज्य

दसवीं शताब्दी में अब्बासी साम्राज्य के विघटन काल में अनेक आक्रामक और विस्तारवादी छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हुई, जैसे ताहिरी, सफ़्फ़ारी, सामानी और बूयिद वंश। ये राज्य वस्तुतः स्वतंत्र थे और केवल नाममात्र के लिए खलीफा की सत्ता स्वीकार करते थे। खलीफा का कार्य केवल उन्हें एक औपचारिक पत्र (मंशूर) देकर उनकी स्थिति को वैध बनाना था। कालांतर में इन राज्यों के शासक सुल्तान कहलाए। इनमें से अधिकांश तुर्क थे, जिन्होंने न केवल मध्य एशिया के गैर-मुस्लिम तुर्की कबीलों से युद्ध किए, बल्कि भारत में भी प्रवेश किया।

सामानी और गजनी का उदय

सामानी राजवंश (874-999 ई.) की स्थापना मध्य एशिया और खुरासान क्षेत्र में बल्ख से आए एक धर्मांतरित ईरानी कुलीन ने की थी, जो समरकंद, हेरात आदि का शासक था। सामानी वंश के शासक मूल रूप से ईरानी थे और ट्रांस-ऑक्सियाना, खुरासान तथा ईरान के कुछ क्षेत्रों पर शासन करते थे।

गजनी का उत्थान सामानी राज्य के तुर्क गुलाम सैनिक अधिकारी (गवर्नर) अल्पतिगिन ने 962 ई. में किया। गजनी वर्तमान अफगानिस्तान में काबुल से 140 किलोमीटर दूर स्थित है। अल्पतिगिन अब्बासी खलीफा के अधीन बुखारा (उज्बेकिस्तान) के सामानी शासक अबुल मलिक का गुलाम था। 961 ई. में सामानी शासक अबुल मलिक की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के विवाद में अल्पतिगिन ने अबुल मलिक के अल्पवयस्क पुत्र का पक्ष लिया, किंतु अन्य सरदारों ने अमीर के भाई सालेह को शासक चुना। महत्त्वाकांक्षी अल्पतिगिन सामानी राज्य से अपने समर्थक सैनिकों के साथ दक्षिण की ओर जबुलिस्तान (अफगानिस्तान) चला गया और 962 ई. में गजनी में स्वतंत्र तुर्की राज्य स्थापित किया, जिससे गजनवी वंश की नींव पड़ी। 963 ई. में अल्पतिगिन की मृत्यु हो गई।

यामिनी वंश की स्थापना

अल्पतिगिन के उत्तराधिकारी अबू ईशाक, बिल्क तिगिन और पीरितिगिन थे। पीरितिगिन की मृत्यु के पश्चात् अल्पतिगिन के गुलाम और दामाद सुबुक्तगिन ने 977 ई. में गजनी की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया और यामिनी वंश की स्थापना की। गजनी का नया शासक सुबुक्तगिन (977-997 ई.) एक शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी शासक था। वह अल्पतिगिन का गुलाम था और उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर अल्पतिगिन ने उसे अपना दामाद बनाया था। सुबुक्तगिन के शासनकाल से ही गजनी वंश को यामिनी वंश के नाम से भी जाना जाने लगा। उसका राज्य काबुल की निचली घाटी, सिंधु-झेलम क्षेत्र और पूर्व में भटिंडा तक फैला हुआ था।

भारत की ओर तुर्कों का प्रसार

तुर्कों ने पहली बार 977 ई. में सुबुक्तगिन के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। सुबुक्तगिन का समकालीन शासक शाही वंश का जयपाल (हस्तपाल का पुत्र) था। जयपाल का राज्य लंघमान से कश्मीर तक और सरहिंद से मुल्तान तक विस्तृत था। पेशावर भी उसके शासन के अधीन था। उसकी राजधानी वैहिंद थी, जिसे उदभांडपुर के नाम से भी जाना जाता था। अल-बिरूनी के अनुसार शाही वंश के शासक कुषाण नरेश कनिष्क के वंशज थे।

सुबुक्तगिन ने पश्चिमी क्षेत्र में बुस्त और फुशदर को जीतकर 986 ई. में जयपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों पर आक्रमण किया। भारी वर्षा और हिमपात के कारण युद्ध में जयपाल पराजित हुआ और सीमावर्ती क्षेत्रों पर सुबुक्तगिन का अधिकार हो गया। संधि के अनुसार हर्जाने के रूप में जयपाल को एक लाख दिरहम और 50 हाथी देने पड़े। परंतु लाहौर पहुँचकर जयपाल ने संधि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप 991 ई. में सुबुक्तगिन ने पुनः जयपाल पर आक्रमण किया। जयपाल ने दिल्ली, अजमेर, कालिंजर और अन्य निकटवर्ती हिंदू राजाओं से सहायता माँगी। किंतु जयपाल पराजित हुआ और दर्रा-खैबर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर सुबुक्तगिन का अधिकार हो गया, जिससे भारत पर तुर्क आक्रमण का मार्ग प्रशस्त हुआ।

997 ई. में सुबुक्तगिन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अमीर महमूद गजनी का शासक बना, जिसे इतिहास में महमूद गजनवी (997-1030 ई.) के नाम से जाना जाता है। महमूद स्वयं को ईरानी काल्पनिक नायक अफरासियाब का वंशज होने का दावा करता था। उसने न केवल तुर्कों का पूर्ण इस्लामीकरण और ईरानीकरण किया, बल्कि भारत पर अनेक आक्रमण भी किए।

तुर्कों की आक्रामकता के कारण

हाल ही में मुसलमान बने तुर्कों की आक्रामकता में वृद्धि के कई कारण थे:

सैन्यवाद का विकास:

पश्चिम और मध्य एशिया के राज्य एक-दूसरे से लड़ते रहते थे और अपना प्रभुत्व कायम करने तथा उसे बनाए रखने का प्रयास करते थे। इससे पश्चिम और मध्य एशिया में सैनिकवाद का विकास हुआ, जिसने भारत और इसके निकटवर्ती क्षेत्रों—जबुलिस्तान और अफगानिस्तान के लिए खतरा पैदा कर दिया। उस समय तक इन क्षेत्रों में इस्लाम का प्रसार नहीं हुआ था।

श्रेष्ठ घोड़े और घुड़सवारी:

तुर्कों की आक्रामकता का एक प्रमुख कारण यह था कि उनके पास विश्व के सर्वोत्तम घोड़े थे, जिन्हें कुशल योद्धा और निपुण घुड़सवार तुर्क प्रशिक्षित करते थे। भारत में प्रशिक्षित घोड़े फुर्ती और गति में मध्य एशियाई घोड़ों की बराबरी नहीं कर सकते थे और न ही भारतीय घुड़सवार तुर्की घुड़सवारों के समकक्ष थे। पश्चिम और मध्य एशिया के घटनाक्रमों ने संभवतः भारत में इन घोड़ों के आयात को भी सीमित कर दिया था।

युद्ध-सामग्री की प्रचुरता

अफगानिस्तान, विशेषकर गोर के आसपास के पर्वतों में, धातुओं, विशेष रूप से लोहे का बाहुल्य था और उस क्षेत्र के कई अन्य नगरों की तरह वहाँ युद्ध-सामग्री के उत्पादन की परंपरा थी। इस प्रकार तुर्कों को प्रचुर मात्रा में युद्ध-सामग्री और घोड़े उपलब्ध थे, जो उस काल में युद्ध के महत्त्वपूर्ण अंग थे।

गाजी भावना

पश्चिम एशिया में गैर-मुस्लिम तुर्कों में ‘गाजी’ की अवधारणा का विकास हुआ। ‘गाजी’ स्वयंसेवक इस्लाम की रक्षा और प्रसार के जोश से भरे थे। इस गाजी भावना का उपयोग पहले मावरा-उन-नहर और इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में ईरानी और तुर्क मुस्लिम शासकों ने करा-खिताई जैसे गैर-मुस्लिम तुर्कों के विरुद्ध किया। बाद में, इसका उपयोग भारत में काफिरों के विरुद्ध भी किया गया।

इक्ता पद्धति

खुरासान और ईरान में तुर्क सैन्य शक्ति की वृद्धि में ‘इक्ता’ पद्धति ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इक्ता एक भू-क्षेत्रीय अनुदान था, जो इसके अधिग्राही को किसानों से भू-राजस्व और अन्य करों की उगाही का अधिकार देता था, किंतु इक्तादारों को मौजूदा भूमि-अधिकारों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं था। इक्ता के बदले इक्तादार को एक निश्चित संख्या में सैनिक रखने पड़ते थे और सुल्तान के आदेश पर उन्हें उसकी सेवा में प्रस्तुत करना पड़ता था। यह संस्था तुर्क सुल्तानों के लिए उपयुक्त थी, क्योंकि इससे ईरानी भूस्वामियों (दहकानों) के अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं होता था और तुर्क सेनानायक सुल्तान पर पूर्णतः निर्भर रहते थे। यह गतिशील सैनिक बल तुर्क सुल्तानों के नेतृत्व में मुस्लिम शक्ति के विस्तार का प्रमुख उपकरण सिद्ध हुआ।

महमूद गजनवी (997-1030 ई.)

अमीर महमूद (997-1030 ई.) का जन्म 2 नवंबर 971 ई. में गजनी में हुआ था। राज्यारोहण के समय उसकी आयु 27 वर्ष थी। वह ‘सुल्तान’ उपाधि धारण करने वाला पहला मुस्लिम शासक था, यद्यपि उसे प्रायः ‘अमीर’ की उपाधि से संबोधित किया जाता था। महमूद के दरबारी इतिहासकार उत्बी (किताब-उल-यामिनी) के अनुसार बगदाद के खलीफा अल-कादिर बिल्लाह से प्राप्त ‘यमीन-उद-दौला’ और ‘अमीन-उल-मिल्लत’ उपाधियों से प्रेरित होकर उसने भारत पर प्रतिवर्ष आक्रमण करने की शपथ ली थी।

महमूद अपने पिता सुबुक्तगिन के साथ अनेक युद्धों में भाग ले चुका था। वह बचपन से ही भारत की अपार समृद्धि और संपन्नता के बारे में सुनता आ रहा था। वह अपने पिता के शासनकाल में शाही राजा जयपाल के राज्य से लूटी गई अपार संपत्ति देख चुका था। इसलिए वह भी भारत से अपार संपत्ति लूटना चाहता था। अनेक समकालीन और परवर्ती इतिहासकारों, जैसे उत्बी, गरदीजी, इब्न-उल-असीर और जियाउद्दीन बरनी ने इस्लाम के प्रति महमूद की सेवाओं की प्रशंसा की है और उसे श्रेष्ठ ‘मुजाहिद’ (धर्म सैनिक), आदर्श मुस्लिम शासक और गाजी के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने भारत में जिहाद किया और मंदिरों तथा मूर्तियों का विनाश किया।

किंतु महमूद का मुख्य उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना नहीं, बल्कि धन प्राप्त करना था। उसने राज्यारोहण के समय भारत पर आक्रमण की जो घोषणा की थी, वह जिहाद या धार्मिक युद्ध की घोषणा नहीं थी। यह सत्य है कि उसने अपने अभियानों में मंदिरों और मूर्तियों को बड़ी संख्या में नष्ट किया, परंतु इसका कारण यह था कि वह अपने सैनिकों में धार्मिक उन्माद पैदा करना चाहता था और अपने अभियानों को इस्लाम की सेवा के रूप में प्रस्तुत करता था।

महमूद मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। इन क्षेत्रों को जीतने और उनकी सुचारु व्यवस्था के लिए उसे एक बड़ी सेना और धन की आवश्यकता थी। अपने राज्यारोहण के तीन वर्ष बाद ही महमूद ने मुख्यतः धन प्राप्त करने और अंशतः इस्लाम के प्रचार के उद्देश्य से भारत पर आक्रमण शुरू कर दिया। शताब्दियों से भारत के मंदिरों में विशाल धन-संपत्ति संचित थी, इसलिए हिंदू मंदिर ही महमूद के आक्रमण और लूटपाट के मुख्य निशाने बने। स्मिथ ने लिखा है : “महमूद गजनवी विस्तृत क्षेत्र में कार्य करने वाला एक लुटेरा था।”

महमूद गजनवी के समय उत्तर भारत की स्थिति

महमूद गजनवी के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य भारत की अपार संपत्ति लूटना और कुछ हद तक इस्लाम का विस्तार करना था। उसने भारत में तुर्क साम्राज्य स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया। उसके आक्रमणों के समय उत्तर भारत की स्थिति निम्नलिखित थी:

मुल्तान और सिंध:

मुल्तान और सिंध में अरबों ने अपने राज्य स्थापित कर लिए थे। नवीं शताब्दी के अंत में मुल्तान का शासक फतेह दाऊद था। सिंध में अभी भी अरब शासक शासन कर रहे थे।

काबुल और पंजाब का शाही राज्य

उत्तर-पश्चिमी भाग में शाही वंश का राज्य चिनाब से हिंदूकुश तक फैला हुआ था। इस वंश ने दो शताब्दियों तक अरबों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था। तुर्क आक्रमण के समय यहाँ जयपाल शासन कर रहा था। उसकी राजधानी उदभांडपुर (सिंध के दक्षिणी किनारे पर स्थित) थी। यही राज्य तुर्क आक्रमण का पहला शिकार बना।

कश्मीर का राज्य

नवीं और दसवीं शताब्दी में कश्मीर में उत्पल राजवंश का शासन था। इस वंश के शक्तिशाली नरेश शंकरवर्मा ने अपने साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसकी मृत्यु के बाद 939 ई. में यशस्कर ने ब्राह्मणों की सहायता से राजगद्दी प्राप्त की। यशस्कर का शासनकाल शांति और समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था। उसके बाद पर्वगुप्त और फिर क्षेमगुप्त राजा हुए। अंतिम शासक के काल (980 ई.) में उनकी पत्नी दिद्दा वास्तविक शासिका थी। अंततः दिद्दा ने राजगद्दी हथिया ली और 1003 ई. तक शासन किया। दिद्दा की मृत्यु के बाद उनके भतीजे संग्रामराज ने कश्मीर में लोहार वंश की स्थापना की। इस प्रकार मुस्लिम आक्रमणों के समय कश्मीर अव्यवस्था और अराजकता का शिकार था।

कन्नौज का प्रतिहार वंश

नवीं शताब्दी में, लगभग 836 ई. में कन्नौज में प्रतिहार राजवंश की स्थापना हुई थी। इस वंश के शक्तिशाली शासक वत्सराज और उनके पुत्र नागभट्ट द्वितीय थे। इस वंश का दक्षिण के राष्ट्रकूटों और बंगाल के पालों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष चला। कालांतर में प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो गई। इस वंश के अंतिम शासक राज्यपाल के समय (1018 ई.) में महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया।

मालवा का परमार राजवंश

दसवीं शताब्दी (972 ई.) के अंतिम चरण में सीयक ने मालवा में स्वतंत्र परमार वंश की स्थापना की। प्रारंभ में इस वंश के शासक राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार करते थे। इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा मुंज (973-995 ई.) था। उसके बाद सिंधुराज और फिर भोज शासक बने, जो महमूद गजनवी के समकालीन थे।

बुंदेलखंड का चंदेल वंश

दसवीं शताब्दी में बुंदेलखंड एक शक्तिशाली राज्य था, जहाँ चंदेलों का शासन था, जो प्रारंभ में गुर्जर-प्रतिहारों के अधीन थे। स्वतंत्र चंदेल राजवंश की स्थापना हर्ष (900-925 ई.) ने की थी। धंग, गंड और विद्याधर इस वंश के प्रमुख शासक थे। महमूद गजनवी ने विद्याधर (1019-1029 ई.) के समय चंदेल राज्य पर आक्रमण किया। मुस्लिम लेखकों ने विद्याधर को तत्कालीन भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक बताया है।

त्रिपुरी का कलचुरि-चेदि वंश

चंदेल राज्य के दक्षिण में कलचुरियों का राज्य था, जिसकी राजधानी त्रिपुरी (जबलपुर, मध्य प्रदेश) में थी। इस वंश की स्थापना कोक्कल प्रथम ने की थी। उसने प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों को पराजित किया और दक्षिण-पूर्व में अरबों के प्रसार को रोका। उसके उत्तराधिकारियों ने तेरहवीं शताब्दी के अंत तक महाकोशल क्षेत्र में शासन किया। तुर्क आक्रमण के समय यह मध्य भारत का एक शक्तिशाली राज्य था।

शाकम्भरी का चौहान वंश

चौहान राज्य राजस्थान में अजमेर के उत्तर में स्थित था, जिसकी राजधानी शाकम्भरी (सांभर) थी। दसवीं शताब्दी के मध्य में इस वंश के सिंहराज ने प्रतिहारों के विरुद्ध स्वतंत्रता घोषित की। उसके उत्तराधिकारी विग्रहराज द्वितीय ने गुजरात के चालुक्यों को पराजित किया और अपने राज्य का विस्तार नर्मदा नदी तक किया। दसवीं शताब्दी के अंत में यह एक शक्तिशाली राज्य था।

गुजरात का चालुक्य राजवंश

इस वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम (974-995 ई.) था। उसने गुजरात और सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त की। उसके उत्तराधिकारी चामुंडराज (995-1022 ई.) ने धारा के परमार नरेश सिंधुराज को पराजित किया। महमूद का समकालीन चालुक्य शासक भीम प्रथम (1022-1064 ई.) था। भीम प्रथम के समय महमूद गजनवी ने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा।

बंगाल का पाल वंश

आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बंगाल में गोपाल ने पाल वंश की स्थापना की। इस वंश के प्रसिद्ध शासक धर्मपाल और देवपाल थे, जिनका प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष चला। ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में बंगाल का पालवंशी शासक महीपाल प्रथम था। इस समय महमूद पश्चिमी भारत के राज्यों को जीतने में व्यस्त था।

इसके अतिरिक्त, महमूद के आक्रमणों के समय विंध्य पर्वत के दक्षिण में कल्याणी के चालुक्य और तंजौर के चोल जैसे शक्तिशाली राज्य थे। जब चोल और चालुक्य दक्षिण में परस्पर संघर्षरत थे, उसी समय उत्तरी भारत के राज्य महमूद गजनवी के आक्रमणों का शिकार हो रहे थे। विभाजन और पारस्परिक संघर्ष की स्थिति का तुर्क आक्रमणकारियों ने पूरा लाभ उठाया।

भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण

महमूद ने भारत पर अपने आक्रमणों का सिलसिला 1000 ई. से प्रारंभ किया। सर हेनरी इलियट के अनुसार महमूद गजनवी ने भारत पर कुल 17 आक्रमण किए थे, जबकि कुछ अन्य इतिहासकार मानते हैं कि उसने केवल 12 बार आक्रमण किया था। आक्रमणों की संख्या जो भी रही हो, महमूद को अपने सभी सैनिक अभियानों में प्रायः सफलता ही मिली। महमूद के कुछ प्रमुख सैनिक अभियानों का विवरण इस प्रकार है:

पेशावर क्षेत्र का दृढ़ीकरण

महमूद गजनवी ने भारत पर पहला आक्रमण 1000 ई. में हिंदुशाही राजा जयपाल के विरुद्ध किया और कुछ सीमांत दुर्गों पर अधिकार किया। संभवतः सुबुक्तगिन की मृत्यु के बाद जयपाल ने पेशावर क्षेत्र को पुनः जीतने का प्रयास किया था। इसलिए महमूद को अपने पहले अभियान में इस क्षेत्र में आकर अपनी स्थिति सुदृढ़ करनी पड़ी।

महमूद का दूसरा अभियान

महमूद ने 1001 ई. में अपने दूसरे सैनिक अभियान में पेशावर के निकट जयपाल को पराजित कर बंदी बना लिया। महमूद ने उसकी राजधानी उदभांडपुर को लूटने के बाद अतुल संपत्ति लेकर गजनी लौट गया। जयपाल को भारी हर्जाना और 50 हाथी देकर मुक्त कराया गया। अपमानित जयपाल ने शासन का भार अपने पुत्र आनंदपाल को सौंपकर आत्मदाह कर लिया।

भटिंडा (भेरा) पर अधिकार

महमूद का तीसरा अभियान तीन वर्ष बाद 1004 ई. में हुआ। इस बार उसका उद्देश्य झेलम नदी पर स्थित भटिंडा (भेरा) नामक व्यापारिक केंद्र पर अधिकार करना था। भटिंडा का सुदृढ़ दुर्ग पश्चिमोत्तर भारत से गंगा की उपजाऊ घाटी तक पहुँचने के मार्ग में पड़ता था। महमूद ने भटिंडा के शासक विजयराय को पराजित कर उसकी हत्या कर दी और उसके राज्य पर अधिकार कर लिया।

मुल्तान पर अधिकार

अगले वर्ष 1005 ई. में महमूद ने मुल्तान पर आक्रमण किया। उत्बी के अनुसार मुल्तान का शासक अबुल फतह शिया मतावलंबी था, इसलिए सुल्तान ने अधर्म को नष्ट करने के लिए उस पर आक्रमण किया। अबुल फतह भाग गया और महमूद ने अपनी ओर से सुखपाल को वहाँ का शासक बनाया। सुखपाल जयपाल की पुत्री का पुत्र था, जिसे महमूद बंदी बनाकर गजनी ले गया था, जहाँ उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। वास्तव में, मुल्तान अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र था और महमूद उस पर अधिकार करना चाहता था।

वैहिंद का युद्ध:

1008 ई. में महमूद ने शाही जयपाल के उत्तराधिकारी आनंदपाल पर आक्रमण किया। मुल्तान पर आक्रमण के दौरान आनंदपाल ने महमूद को अपने राज्य से गुजरने नहीं दिया था। दोनों सेनाओं के मध्य वैहिंद के निकट युद्ध हुआ। फरिश्ता के अनुसार आनंदपाल ने महमूद के विरुद्ध अनेक राजपूत राजाओं से सहायता प्राप्त की, लेकिन वह पराजित हुआ और शिवालिक पहाड़ियों में भागकर नंदना को अपनी राजधानी बनाया। महमूद ने नगरकोट के प्रसिद्ध मंदिर को लूट लिया।

नारायणपुर पर आक्रमण

अगले वर्ष 1009 ई. में महमूद ने अलवर स्थित एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र नारायणपुर पर आक्रमण कर लूटपाट की और उस पर अधिकार कर लिया।

मुल्तान पर पुनः आक्रमण

मुल्तान का शासक सुखपाल इस्लाम त्यागकर स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहा था। 1010 ई. में महमूद ने मुल्तान पर पुनः आक्रमण कर उसे बंदी बना लिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया।

त्रिलोचनपाल पर आक्रमण

1013 ई. में महमूद ने आनंदपाल के उत्तराधिकारी त्रिलोचनपाल पर आक्रमण किया। शाही शासक पराजित होकर कश्मीर भाग गया।

थानेश्वर पर आक्रमण

1014 ई. में महमूद ने थानेश्वर के विरुद्ध अभियान किया। थानेश्वर का शासक भयभीत होकर भाग गया और महमूद ने मनमाने ढंग से नगर की लूटपाट की तथा प्राचीन चक्रस्वामी मंदिर को लूटकर चक्रस्वामी की मूर्ति को गजनी भेज दिया।

कश्मीर पर आक्रमण

1015 ई. में महमूद ने कश्मीर पर आक्रमण किया, जहाँ त्रिलोचनपाल ने शरण ले रखी थी। कश्मीरी सैनिकों ने घाटी में महमूद का डटकर मुकाबला किया। अंत में महमूद को असफल होकर वापस लौटना पड़ा।

मथुरा और कन्नौज पर आक्रमण

1018 ई. में महमूद ने शाही राजवंश के शासक त्रिलोचनपाल (आनंदपाल का पुत्र) को पराजित किया। उसने मथुरा नगर पर आक्रमण कर अनेक भव्य एवं प्रसिद्ध मंदिरों को लूटकर अतुल संपत्ति प्राप्त की। यहाँ से वह कन्नौज की ओर बढ़ा। कन्नौज का प्रतिहार शासक राज्यपाल भाग खड़ा हुआ और महमूद ने बड़ी आसानी से नगर पर अधिकार कर लिया। उसकी सेना ने नगर में भारी लूटपाट और कत्लेआम किया। यहाँ से भी उसे अपार संपत्ति मिली। मथुरा और कन्नौज से अतुल संपत्ति लेकर महमूद गजनी लौट गया।

कालिंजर पर आक्रमण

कन्नौज नरेश राज्यपाल के कायरतापूर्ण व्यवहार से क्षुब्ध होकर राजपूत राजाओं ने कालिंजर (बुंदेलखंड) के चंदेल नरेश विद्याधर (गंड का पुत्र) की अध्यक्षता में एक संघ बनाया। इस संघ ने कन्नौज के भगोड़े शासक राज्यपाल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी। इस संघ को भंग करने के उद्देश्य से 1019 ई. के अंत में महमूद ने पुनः गजनी से भारत की ओर प्रस्थान किया। महमूद ने चंदेल राजा विद्याधर के नेतृत्व में बने संघ को नष्ट करने के लिए 1020 ई. में विद्याधर पर आक्रमण किया। कुछ विद्वानों का मत है कि उस समय चंदेल शासक गंड था। महमूद ने ग्वालियर होते हुए कालिंजर पर आक्रमण किया। कालिंजर चंदेल राज्य का दुर्भेद्य किला था। महमूद कालिंजर को जीतने में असफल रहा और उसे वापस लौटना पड़ा।

पंजाब पर आक्रमण

महमूद ने 1020 ई. में पंजाब पर अधिकार कर अपना प्रशासन स्थापित किया ताकि पंजाब उसके लिए आधार का कार्य कर सके। शाही शक्ति नष्ट हो जाने से महमूद का कोई प्रतिरोध नहीं हुआ।

कालिंजर पर पुनः आक्रमण

लों को पूरी तरह कुचलने के उद्देश्य से महमूद ने 1022 ई. में पुनः कालिंजर पर आक्रमण किया और दुर्ग का घेरा डाल दिया। दीर्घकालीन घेरे के बाद भी वह असफल रहा और चंदेल राजा से 300 हाथी और कुछ भेंटें लेकर गजनी लौट गया।

सोमनाथ पर आक्रमण

महमूद का अंतिम महत्त्वपूर्ण अभियान सोमनाथ मंदिर के विरुद्ध 1025-26 ई. में हुआ। इस समय गुजरात का शासक भीमदेव प्रथम (1022-1064 ई.) था। सौराष्ट्र में समुद्रतट पर स्थित सोमनाथ का मंदिर अपनी पवित्रता, गौरव और अपार संपत्ति के लिए प्रसिद्ध था। महमूद इस मंदिर में एकत्रित अपार संपत्ति को लूटना चाहता था। 1025 ई. में महमूद गजनवी मुल्तान के रास्ते काठियावाड़ पहुँचा और राजधानी अन्हिलवाड़ा में जमकर लूटपाट की। काठियावाड़ के चालुक्य शासक भीमदेव प्रथम ने भयभीत होकर एक किले में शरण ली। महमूद ने मंदिर में भीषण लूटपाट की और लगभग 50 हजार पंडों और पुजारियों का वध करवा दिया। सोमनाथ की मूर्ति को टुकड़े-टुकड़े करके मस्जिदों की सीढ़ियों में चिनाई के लिए गजनी, मक्का और मदीना भेज दिया गया। यहाँ से महमूद को लगभग 20 लाख दीनार की धनराशि मिली, जिसे लेकर वह कच्छ के रण के दुर्गम रेगिस्तानी रास्ते से मुल्तान होता हुआ गजनी लौट गया। इस बीच मार्ग में जाटों ने उसकी सेना पर आक्रमण कर कुछ संपत्ति लूट ली, किंतु महमूद सकुशल गजनी पहुँच गया।

महमूद के आक्रमण से भीमदेव के राज्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा और उसने आक्रमणकारी से अपनी रक्षा की। फरिश्ता लिखता है कि भीमदेव ने तीन हजार मुसलमानों की हत्या की थी, इसलिए महमूद को भयवश अपना रास्ता बदलना पड़ा था। भीमदेव ने सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवा दिया।

जाटों के विरुद्ध अभियान

जाटों से बदला लेने के लिए महमूद ने 1027 ई. में पुनः सिंध पर आक्रमण किया, जिसमें हजारों जाट मारे गए। यह महमूद गजनवी का भारत पर अंतिम आक्रमण था। 30 अप्रैल 1030 ई. में तपेदिक (टीबी) से उसकी मृत्यु हो गई।

महमूद गजनवी के आक्रमणों का प्रभाव

महमूद गजनवी ने अपने 33 वर्षों के शासनकाल में भारत के विरुद्ध अनेक अभियान किए। यद्यपि इलियट ने इन अभियानों की संख्या सत्रह बताई है, फिर भी इस गणना का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। महमूद के अभियानों ने उसकी सैनिक कुशलता और राजपूत राजाओं की दुर्बलता को प्रमाणित कर दिया। महमूद के अभियानों के भारत पर प्रभाव के संबंध में प्रो. हबीब का मानना है कि महमूद ने जो विनाश और लूटपाट की, उसका प्रभाव अस्थायी रहा। थोड़े समय बाद भारत की उर्वर भूमि ने उन लूटे हुए प्रदेशों को पुनः समृद्ध बना दिया। महमूद की धन-लोलुपता ने जो घाव किए थे, वे भर गए, लेकिन उसने इस्लाम का जो विनाशकारी रूप प्रस्तुत किया, उससे इस्लाम की अत्यधिक हानि हुई।

राजनीतिक रूप से महमूद का स्थायी कार्य पंजाब और सीमांत क्षेत्रों पर अधिकार करना था। शाही वंश नष्ट हो गया और पंजाब को राजपूत फिर कभी मुक्त नहीं कर सके, जिसे आधार बनाकर तुर्कों ने आगामी वर्षों में आक्रमण किए। महमूद के अभियानों ने भारत में आगामी तुर्क आक्रमणों के लिए रास्ता खोल दिया।

महमूद ने समृद्धशाली नगरों की अपार संपत्ति को लूटा और नगरों का विनाश किया। भारतीय धन के उपयोग से उसने मध्य और पश्चिम एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। महमूद ने मंदिरों को नष्ट करके इस्लाम की सेवा करने का प्रचार किया और मुस्लिम विश्व में ‘गाजी’ के रूप में प्रसिद्धि पाई। पंजाब में अनेक मुस्लिम विद्वान और संत आए और लाहौर मुस्लिम विद्या और धर्म का केंद्र बन गया।

महमूद के आक्रमणों से राजपूतों की राजनीतिक, सैन्य संगठन और युद्ध प्रणाली के दोष स्पष्ट हो गए, जिसका लाभ महमूद और बाद के आक्रमणकारियों ने उठाया।

महमूद गजनवी का मूल्यांकन

महमूद गजनवी निःसंदेह एक सैनिक प्रतिभा-संपन्न महान सेनानायक था। उसने भारत, मध्य एशिया, ईरान और इराक में अनेक युद्ध लड़े और प्रायः सभी में विजय प्राप्त की। अपनी योग्यता के बल पर उसने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया, जिसमें पंजाब, सिंध, अफगानिस्तान, बल्ख, मध्य एशिया, खुरासान और इराक के क्षेत्र शामिल थे। वह पहला शासक था जिसने ‘सुल्तान’ की उपाधि धारण की। यद्यपि महमूद ने खलीफा की सत्ता को कभी मान्यता नहीं दी, फिर भी खलीफा अल-कादिर बिल्लाह ने उसे ‘अमीन-उल-मिल्लत’ और ‘यमीन-उद-दौला’ की उपाधियाँ प्रदान की थीं।

योग्यता की दृष्टि से महमूद एक महान सुल्तान था। अपने समकालीनों में वह चरित्रबल से नहीं, बल्कि सैनिक और प्रशासनिक योग्यता के कारण उच्च स्थान प्राप्त कर सका। वह एक कुशल विजेता और उच्चकोटि का सेनानायक था, जिसने गजनी के छोटे से राज्य को विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया।

भारतीय धन और कलाकारों के उपयोग से गजनी का वैभव बढ़ा और वह एक भव्य नगर बन गया। महमूद ने गजनी को कला और संस्कृति का केंद्र बनाया। उसने भव्य भवनों से गजनी को अलंकृत किया, जिनमें एक मस्जिद को ‘स्वर्ग की वधू’ कहा जाता था। उसने अपने दरबार में फिरदौसी, अंसूरी, और फारुखी जैसे विद्वानों और साहित्यकारों को आश्रय प्रदान किया। साथ ही, उसने गजनी में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की और विद्वानों को आमंत्रित किया।

महमूद के चरित्र का सबसे बड़ा दोष उसकी धन-लोलुपता थी। धन के प्रति असीम लालच उसके जीवन का सबसे बड़ा कलंक था, जिसने उसकी कार्यक्षमता और ख्याति को गहरा आघात पहुँचाया। उसमें रचनात्मक प्रतिभा का अभाव था। वह न तो अपने प्रशासन को सुसंगठित कर सका और न ही उसने स्थायी संस्थाओं का निर्माण किया, जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य लड़खड़ाकर धराशायी हो गया।

महमूद एक धर्मनिष्ठ मुसलमान था और उसने सदैव यह घोषित किया कि वह ‘गाजी’ और धर्मनिष्ठ मुजाहिद है। तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार भी उसे एक आदर्श मुस्लिम शासक मानते थे। उसने धर्म का उपयोग अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने में किया और किसी अंकुश को स्वीकार नहीं किया। किंतु हिंदुओं की दृष्टि में वह एक लुटेरा और विनाशकारी शासक था।

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