स्वराज पार्टी ( मार्च 1923)
फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद कांग्रेस जन-आंदोलन का एक और दौर शुरू करने की स्थिति में नहीं थी। फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन के स्थगन और मार्च में गांधीजी की गिरफ्तारी से राष्ट्रीय आंदोलन में संगठन टूटने लगा। मार्च 1923 तक कांग्रेस की सदस्य संख्या 1,06,046 रह गई थी। जून 1922 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी ने भावी कार्यक्रम निश्चित करने के लिए सविनय अवज्ञा जाँच समिति की स्थापना की। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी के सदस्योंकृअंसारी, राजगोपालाचारी और कस्तूरी रंगा अयंगरकृने गाँवों में गांधीवादी रचनात्मक कार्य करने के पक्ष में वकालत की। चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, विट्ठलभाई पटेल और हकीम अजमल खाँ ने कौंसिलों में भाग लेने और संविधान को अंदर से तोड़ने के पक्ष में वकालत की।
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गया अधिवेशन (दिसंबर 1922) के अध्यक्ष चितरंजन दास थे। चितरंजन दास ने विधान परिषदों में प्रवेश की बात कही और सुझाव दिया कि कांग्रेस को 1919 के सुधार अधिनियम के अंतर्गत होने वाले 1923 के आम चुनावों में भाग लेना चाहिए। गया अधिवेशन से दो माह पहले देहरादून में संयुक्त प्रांत के प्रादेशिक सम्मेलन में दास ने अपना प्रसिद्ध सूत्र दिया था कि ‘स्वराज जन-सामान्य के लिए होना चाहिए, केवल भद्रलोक के लिए नहीं।’

कांग्रेस के वल्लभभाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी और राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों ने परिषदों में प्रवेश का प्रस्ताव विरोध किया गया अधिवेशन (दिसंबर 1922) में परिषदों में प्रवेश का प्रस्ताव 890 के मुकाबले 1,740 मतों से नामंजूर हो गया। सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया।

स्वराज पार्टी की स्थापना
चितरंजन दास ने मोतीलाल नेहरू, हकीम अजमल खाँ, विट्ठलभाई पटेल, मदनमोहन मालवीय और जयकर को लेकर मार्च 1923 में नई पार्टी ‘कांग्रेस-खिलाफत स्वराज पार्टी’ की स्थापना की, जिसे ‘स्वराज पार्टी’ के नाम से जाना जाता है। सी.आर. दास स्वराज पार्टी के अध्यक्ष तथा मोतीलाल नेहरू सचिव चुने गए।
स्वराज पार्टी ने कांग्रेस के कार्यक्रम को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया, सिवाय एक बात को छोड़कर कि यह पार्टी परिषदों के चुनाव में भाग लेगी। विधान परिषदों में भाग लेने वाले चितरंजन दास के समर्थकों को ‘परिवर्तनवादी’ तथा परिषदों का बहिष्कार करने वाले तथा गांधीवादी दल के गैर-परिवर्तनवादियों को ‘अपरिवर्तनवादी’ कहा गया है।
स्वराज पार्टी ने घोषणा की कि वह विधान परिषद में स्वदेशी सरकार के गठन की माँग उठाएगी और यदि यह माँग नहीं मानी गई, तो पार्टी के सभी निर्वाचित सदस्य एकजुट होकर विधान परिषद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करेंगे। अपरिवर्तनवादी चाहते थे कि विधान परिषदों से बाहर रहकर रचनात्मक कार्यों के माध्यम से देश की जनता को धीरे-धीरे जन-संघर्ष के लिए तैयार किया जाए। सितंबर 1923 के कांग्रेस के विशेष दिल्ली अधिवेशन और दिसंबर 1923 के नियमित काकीनाडा अधिवेशन में एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार कांग्रेसी चुनाव में खड़े हो सकते थे।
इसी समय एक अखिल भारतीय खादी बोर्ड की स्थापना की गई। 5 फरवरी 1924 को गांधीजी जेल से रिहा किए गए। जून 1924 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अहमदाबाद अधिवेशन में गांधीजी ने कांग्रेस की सदस्यता के लिए कताई को न्यूनतम अर्हता निर्धारित करने, कौंसिलों में जाने वालों को पदों से हटाए जाने और बंगाल में हुई क्रांतिकारी घटना की निंदा करने का प्रस्ताव रखा।
पहले दो प्रस्ताव अस्वीकृत हो गए, लेकिन गोपीनाथ शाह की निंदा के प्रस्ताव का सी.आर. दास और अधिकांश बंगाली प्रतिनिधियों ने विरोध किया और यह 70 के मुकाबले केवल 78 मतों से ही स्वीकृत हो सका। गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ के 3 जुलाई 1924 के अंक में लिखा कि वह ‘पराजित और अपमानित हुए हैं।’
गांधीजी ने स्वराजी नेता चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू से एक समझौता किया, जिसके अंतर्गत स्वराजी कांग्रेस संगठन के अभिन्न सदस्य रहते हुए कौंसिलों में कार्य कर सकते थे। पट्टाभि सीतारमैया के शब्दों में ‘कौंसिल प्रवेश और बहिष्कार के सवाल पर देशबंधु दास और मोतीलालजी के सामने यह गांधी का आत्मसमर्पण था।’
स्वराज पार्टी का मुख्य उद्देश्य था- विधानमंडलों का चुनाव लड़ना व परिषदों में प्रवेश करके सरकारी कार्यों में बाधा उत्पन्न करना, बजट का विरोध करना, प्रशासन की बुराइयों की निंदा करना, अवांछनीय विधेयकों को पारित न होने देना, पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता और शीघ्रातिशीघ्र डोमिनियन स्टेट्स प्राप्त करना, ताकि सरकार स्वराज देने के लिए विवश हो जाए।
चितरंजन दास के अनुसार ‘हम उस व्यवस्था को नष्ट करना व उससे मुक्त होना चाहते हैं जो हमारे लिए हितकर नहीं है और न हो सकती है।’ 14 अक्टूबर 1923 को जारी अपने चुनाव घोषणा-पत्र में स्वराजवादियों ने साम्राज्यवाद के विरोध को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाया।
स्वराजवादियों के घोषणा-पत्र में कहा गया था: ‘‘भारत पर अंग्रेजी हुकूमत का मकसद इंग्लैंड के स्वार्थी हितों की पूर्ति करना है…. अंग्रेजों का असली मकसद भारत के असीमित संसाधनों का शोषण करना और भारतीय जनता को ब्रिटेन का ताबेदार बनाकर रखना है।’’ घोषणा-पत्र में यह संकल्प किया गया था कि स्वराजी विधान परिषद में संघर्ष करेंगे और पाखंडी सरकार की कलई खोलेंगे।
स्वराजवादियों की प्रमुख उपलब्धियाँ
नवंबर 1923 में केंद्रीय विधान सभा के चुनाव हुए। स्वराज पार्टी ने केंद्रीय विधानमंडल के चुनाव में भाग लेने वाली 101 सीटों में से 42 सीटें जीत लीं। स्वराज पार्टी को मध्य प्रांत में पूर्ण बहुमत मिला। बंगाल में स्वराज दल के प्रत्याशी बी.सी. राय ने दिग्गज नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी को बुरी तरह हराया।
स्वराज पार्टी ने 85 आम हिंदू और मुसलमान सीटों में से 47 सीटें जीतने में सफल रही, जिनमें 21 मुसलमान निर्वाचन क्षेत्र भी सम्मिलित थे। बंगाल में स्वराज पार्टी की विजय का श्रेय सी.आर. दास के प्रभावी नेतृत्व को था। सी.आर. दास के बंगाल पैक्ट (दिसंबर 1923) में स्वराज मिलने पर मुसलमानों को 55 प्रतिशत प्रशासकीय पद, मुसलमानों को मस्जिदों के सामने बाजा न बजाने और बकरीद के अवसर पर गोकुशी में हस्तक्षेप न करने का वादा किया गया था।
सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में स्वराजवादियों ने एक साझा राजनीतिक मोर्चा बनाया। स्वशासन के मुद्दे को लेकर स्वराजियों ने द्वैध शासन का भंडाफोड़ किया कि यह कोई वास्तविक संवैधानिक सुधार नहीं है।
8 फरवरी 1924 में केंद्रीय परिषद में स्वराजियों ने सरकार से माँग की कि ‘यह परिषद् गवर्नर जनरल की भारत के लिए उत्तरदायी सरकार स्थापित करने की दृष्टि से 1919 के अधिनियम में परिवर्तन करने की सलाह देती है और आगाह करती है कि निकट भविष्य में भारत के लिए एक संविधान बनाने के लिए, जिसमें भारत की अल्पसंख्यक जातियों और उनके हितों का ध्यान रखा जाए, भारत के प्रतिनिधियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाए।’
25 अक्टूबर 1924 को सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर अनेक स्वराजवादियों, क्रांतिकारियों व कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा: ‘‘अगर मैं जरूरत की इस घड़ी में स्वराजवादियों का साथ नहीं देता हूँ तो यह देश के साथ घोखा होगा।’’
6 नवंबर 1924 को गांधीजी ने स्वराजियों और उनके विरोधियों के बीच की खाई को पाट दिया। चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू और गांधीजी ने एक संयुक्त बयान जारी किया कि ‘‘कांग्रेस के नेतृत्व में स्वराजी नेता कांग्रेस के एक अभिन्न अंग के रूप में विधानमंडलों में अपना काम करते रहेंगे।’’ 1925 में गांधीजी ने कांग्रेस का संपूर्ण संगठनात्मक दायित्व स्वराजियों के हाथ सौंपकर अपने विचारों को कार्यान्वित करने के लिए अलग से एक अखिल भारतीय चरखा संघ स्थापित करने का निश्चय किया। 1924 से 1926 के मध्य स्वराज पार्टी ने बजट को अस्वीकृत कर सरकारी अधिनियम का विरोध किया।
स्वराजियों ने अपना सिद्धांत बना लिया था कि जब तक शिकायतों को दूर नहीं किया जाएगा, तब तक कोई वित्तीय विधेयक पारित नहीं होने दिया जाएगा। गवर्नर जनरल को अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर वित्तीय प्रस्तावों को पारित कराना पड़ा। राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों की सरकारी आलोचना पर सी.एस. रंगा अय्यर का कहना था कि ‘सरकारी अधिकारी खुद अपराधी हैं, हत्यारे हैं। ये वे लोग हैं, जो स्वतंत्रता को प्यार करने वाली जनता की स्वतंत्रता की हत्या कर रहे हैं।’
स्वराजियों ने 1924 में ली कमीशन को, जिसकी स्थापना सरकारी नौकरियों में जातीय उच्चता को बनाए रखने के लिए की गई थी, स्वीकृत नहीं होने दिया।
प्रांतीय परिषदों में भी स्वराज पार्टी के सदस्यों ने सरकार के लिए प्रशासन चलाना मुश्किल कर दिया। मध्य प्रांत और बंगाल में गवर्नरों को विधेयकों को पारित करने के लिए बार-बार अपनी प्रमाणपत्र की शक्ति का प्रयोग करने पर बाध्य होना पड़ा।
बंगाल में पूर्ण बहुमत होने के कारण चितरंजन दास को मंत्री पद के लिए आमंत्रित किया गया, किंतु पार्टी की नीतियों के कारण उन्होंने इस पद को अस्वीकार कर दिया। मार्च 1925 में राष्ट्रवादी नेता विट्ठलभाई पटेल अखिल भारतीय विधान सभा के अध्यक्ष (स्पीकर) बने।
सरकार ने 1919 के सुधारों की जाँच के लिए गृह सदस्य अलेक्जेंडर मुडिमैन की अध्यक्षता में 12 सदस्यीय समिति का गठन किया। 1925 में सरकार ने जब मुडिमैन समिति की रिपोर्ट को केंद्रीय विधान सभा में प्रस्तुत किया, तो मोतीलाल नेहरू ने द्वैध शासन को अयोग्य सिद्ध करके इस रिपोर्ट के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करवाया। सरकार को भारत की भावी संवैधानिक स्थिति के विषय में जाँच करने के लिए एक समिति (साइमन कमीशन) नियुक्त करने की घोषणा की।
जून 1925 में चितरंजन दास के निधन से स्वराज पार्टी धीरे-धीरे कमजोर होने लगी। स्वराजवादियों को उदारवादियों से, गरमपंथी स्वराजियों को नरमपंथी स्वराजियों से और हिंदुओं को मुसलमानों से अलग करने की सरकारी नीतियाँ अब रंग लाने लगी थीं। बंगाल में बहुसंख्यक स्वराजियों ने जमींदारों, जिनमें अधिकांश हिंदू थे, के विरुद्ध काश्तकारों की माँगों का समर्थन नहीं किया, जिससे काश्तकार नाराज हो गए, जिनमें बहुसंख्यक मुसलमान थे।
सत्ता में भागीदारी व सांप्रदायिकता के मुद्दे पर स्वराज पार्टी भी विभाजित हो गई। मोतीलाल नेहरू के पुराने प्रतिद्वंद्वी प्रत्युत्तरवादी (रिस्पॉन्सिविस्ट) मदनमोहन मालवीय ने लाला लाजपत राय और एन.सी. केलकर जैसे लोगों के साथ मिलकर हिंदू हितों की रक्षा के नाम पर 1925 में एक स्वतंत्र कांग्रेस पार्टी ‘नेशनलिस्ट पार्टी’ की स्थापना की।
सबसे पहले मध्य प्रांत में स्वराज पार्टी के परिषद सदस्य एस.बी. ताम्बे अक्टूबर 1925 में गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद में मंत्री बने। 1925 में बी.जे. पटेल ने केंद्रीय परिषद के अध्यक्ष का पद स्वीकार किया। सी.आर. दास स्वयं मई 1925 में फरीदपुर सम्मेलन में कैदियों की रिहाई एवं संवैधानिक सुधारों की बातचीत के बदले सहयोग देने के पक्ष में आने लगे थे।
बंगाल में सी.आर. दास की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के लिए कड़ा संघर्ष हुआ, जिसमें जी.एम. सेनगुप्त ने 1927 में वीरेंद्र सस्माल को पराजित किया। 1926 के चुनावों में स्वराजी मद्रास के अतिरिक्त सभी स्थानों पर हिंदू महासभा और जवाबी सहयोग के पक्षधरों के संयुक्त मोर्चे के आगे पराजित हो गए।
स्वराजवादियों की उपलब्धियों का मूल्यांकन
स्वराजवादी संसद के भीतर अपने लड़ाकू संघर्ष को संसद के बाहर चल रहे राजनीतिक संघर्ष से जोड़ने में भी विफल रहे। टकराववादी विचारधारा के कारण वे अपने सहयोगी घटकों का भी हमेशा और हर अवसर पर सहयोग नहीं ले सके। स्वराज पार्टी को जनसाधारण का भी समर्थन नहीं मिला, क्योंकि यह पार्टी प्रारंभ से ही पूँजीपति वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करती आ रही थी।
चितरंजन दास ने नए कार्यक्रम में मजदूरों और किसानों के संगठन की आवश्यकता पर जोर दिया था, किंतु इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। स्वराजी अपनी पार्टी में घुसपैठ कर रहे सांप्रदायिक तत्वों को रोकने में भी असफल रहे। स्वराज पार्टी ने अपने आकर्षक कार्यक्रमों द्वारा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दी और भारतीय जनता में उत्साह का संचार किया।
अपने संघर्ष के दौरान स्वराजवादी कभी भी औपनिवेशिक सत्ता के बहकावे में नहीं आए और न ही उसका सहयोग किया। स्वराजी राजनीतिज्ञों और भारतीय व्यापारी समुदायों के बीच अच्छे संबंधों का विकास हुआ। 1924 में सरकार ने टाटा के इस्पात उद्योग को संरक्षण प्रदान किया। स्वराजवादियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने समय से पहले ही साइमन कमीशन का गठन किया और कुछ समय बाद द्वैध शासन को समाप्त कर दिया।
अपरिवर्तनवादी
अपरिवर्तनवादियों के रचनात्मक कार्य
स्वराजी विधानमंडलों में साम्राज्यवादी शासन का प्रतिरोध करने में व्यस्त थे, तो अपरिवर्तनवादी शांति के साथ रचनात्मक कार्यों में लगे थे। अपरिवर्तनवादियों ने पूरे देश में सैकड़ों आश्रम स्थापित किए, जहाँ चरखा और खादी को प्रोत्साहित किया जाता था। अपरिवर्तनवादियों ने सैकड़ों राष्ट्रीय स्कूल और कालेज स्थापित किए, जिनमें युवक-युवतियों को उपनिवेश-विरोधी विचारधारा में प्रशिक्षित किया जाता था।
अपरिवर्तनवादियों ने अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष, शराब एवं विदेशी कपड़ों का बहिष्कार तथा बाढ़-पीड़ितों की सहायता करने जैसे कार्यक्रम भी चलाए गए। स्वराजवादियों एवं अपरिवर्तनवादियों की विचारधारा तथा कार्यशैली भिन्न-भिन्न थी, लेकिन उनके बीच कोई बुनियादी मतभेद नहीं था। नागपुर के कुछ क्षेत्रों में कांग्रेसी झंडे के प्रयोग पर लगाए गए स्थानीय प्रतिबंध का विरोध करने के लिए 1923 के मध्य में झंडा सत्याग्रह किया गया।
गुरु का बाग सत्याग्रह (अगस्त 1922 से अप्रैल 1923)
गुरु का बाग सत्याग्रह का आरंभ अपदस्थ महंत और नवगठित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के बीच विवादास्पद भूमि पर एक पेड़ काटने पर शुरू हुआ था। पंजाब के नए गवर्नर मालकम हेली ने 1925 में सिख गुरुद्वारों एंड श्राइंस एक्ट द्वारा विवाद को समाप्त करवाया था।
1924 में बंगाल में स्थानीय मुद्दे को लेकर स्वामी विश्वानंद ने एक भ्रष्ट महंत के विरुद्ध ‘तारकेश्वर आंदोलन’ चलाया। सितंबर 1923 में बरसाड के प्रत्येक वयस्क पर 2 रुपया 7 आने का डकैती कर लगाया गया। 7 फरवरी 1924 को सरकार ने डकैती कर को रद्द कर दिया।
वैकम सत्याग्रह
वैकम सत्याग्रह मंदिर-प्रवेश का पहला आंदोलन था। वैकम सत्याग्रह निम्नजातीय इझवाओं और अछूतों द्वारा गांधीवादी तरीके से त्रावणकोर के एक मंदिर के निकट की सड़कों के उपयोग के बारे में अपने अधिकारों को मनवाने के लिए किया गया था। वैकम सत्याग्रह का नेतृत्व इझवा कांग्रेसी नेता टी.के. माधवन तथा के. कल्प्पन और के.पी. केशव मेनन जैसे नायर कांग्रेसी नेताओं ने किया।
गांधीजी ने वैकम सत्याग्रह में ईसाइयों को दूर रहने के लिए कहा। मार्च 1925 में गांधीजी वैकम गए, किंतु 20 महीने बाद सरकार ने अछूतों के लिए अलग सड़कों का निर्माण करवा दिया था।










