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भारत में स्वदेशी आंदोलन
गरमपंथी राजनीति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति बंगाल विभाजन-विरोधी स्वदेशी आंदोलन में हुई, जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। इस आंदोलन का दायरा काफी बड़ा था और आधे दशक के इस सशक्त आंदोलन में वे तमाम राजनीतिक संघर्ष दिखाई पड़े, जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अगले 75 वर्षों में आनेवाले थे। उदारतावाद से लेकर राजनीतिक उग्रवाद, क्रांतिकारी से लेकर प्रारंभिक समाजवादी विचारधारा, अदालती लड़ाई व जनसभाओं में भाषणबाजी से लेकर बहिष्कार, प्रतिरोध और यहाँ तक कि हड़ताल, व्यापक जनांदोलन छेड़ने की कोशिश से लेकर व्यक्तिगत रूप से सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन छेड़ने जैसी सभी चीजें इस आंदोलन में दिखाई पड़ीं। यह आंदोलन केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं था, शिक्षा, कला, साहित्य, संगीत, विज्ञान, उद्योग व अन्य क्षेत्रों को भी इस आंदोलन ने प्रभावित किया।
स्वदेशी का अर्थ
‘स्वदेशी’ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण आंदोलन, सफल रणनीति व दर्शन का था। स्वदेशी का अर्थ है- अपने देश का। इस रणनीति का उद्देश्य था- ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना, भारत में निर्मित माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना और भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना। यह ब्रितानी हुकूमत को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया एक सशक्त माध्यम था। अरबिंद घोष, रवींद्रनाथ ठाकुर, वीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आंदोलन के मुख्य उद्घोषक थे। कालांतर में यही स्वदेशी आंदोलन गांधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन का भी केंद्र-बिंदु बना। गांधीजी ने स्वदेशी को ‘स्वराज की आत्मा’ बताया है।
स्वदेशी आंदोलन का इतिहास
स्वदेशी आंदोलन विशेषकर उस आंदोलन को कहते हैं जो बंग-भंग के विरोध में न केवल बंगाल अपितु पूरे ब्रिटिश भारत में चला गया था। इसका मुख्य उद्देश्य अपने देश की वस्तु को अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना था। भारत में स्वदेशी का नारा सबसे पहले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1872 ई. में ‘वंगदर्शन’ के विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था: ‘‘जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन-ब-दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है।’’
इसके बाद भोलानाथ चंद्र ने 1874 में शंभुचंद्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित ‘मुखर्जीज मैग्जीन’ में स्वदेशी का नारा दिया था। उन्होंने लिखा था: ‘‘आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही संभव है।
स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि
बंगाल का विभाजन
व्यापक रूप से स्वदेशी आंदोलन का जन्म 1905 में बंगाल-विभाजन के विरोध में हुआ, जिसे लाॅर्ड कर्जन ने इस प्रांत में राजनीतिक विरोध को नष्ट करने के लिए किया था। विजय और अधिग्रहण से नये-नये क्षेत्रों की प्राप्ति के कारण, एक प्रशासनिक इकाई के रूप में बंगाल प्रेसीडेंसी का आकार बढ़ता जा रहा था। यह प्रेसीडेंसी वास्तव में भारी भरकम थी और इसलिए उड़ीसा में 1866 में अकाल के समय से ही बंगाल के विभाजन की आवश्यकता पर बहस होती आ रही थी। 1874 में 30 लाख की आबादीवाला असम अलग कर दिया गया और सिलहट, ग्वालपाड़ा और कछार जैसे तीन बंगलाभाषी क्षेत्र भी उसमें जोड़ दिये गये। इस चरण में बंगाल को कमजोर करने के बजाय असम के हितों की रक्षा करना नीतिगत निर्णय के पीछे अधिक महत्त्वपूर्ण दिखाई पड़ता था। उसके बाद उसका एक व्यावहारिक प्रशासनिक इकाई बनाना अंग्रेजों के ध्यान का केंद्र बन गया। 1892 में प्रस्ताव किया गया कि पूरी चटगाँव कमिश्नरी असम में डाल दी जाए। 1896 में असम के तत्कालीन चीफ कमिश्नर विलियम वार्ड ने फिर से ढाका और मैमनसिंह जिलों के हस्तांतरण का प्रस्ताव किया, ताकि असम सिविल सेवा के एक अलग काडर के साथ एक लेफ्टीनेंट गवर्नरवाला प्रांत बन सके, किंतु उस समय इस योजना को स्वीकार नहीं किया गया। 1897 में केवल लुशाई की पहाडि़यों को हस्तांतरित किया गया और बाकी योजना बस्ते में बंद कर दी गई।
बंगाल-विभाजन के निहितार्थ
प्रशासनिक आवश्यकता
भारत आने पर लार्ड कर्जन जब 1900 में असम की यात्रा पर गया, तो बंगाल-विभाजन की योजना फिर से जीवित हो गई, क्योंकि असम-बंगाल रेलवे पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए चाय-बागानों के यूरोपीय मालिकों ने कलकत्ता से कम दूरी पर एक पत्तन की माँग की। 1901 में बंगाल के विभाजन की आवश्यकता अधिक तात्कालिक महसूस की गई क्योंकि उस साल की जनगणना में पता चला कि बंगाल की जनसंख्या 7.85 करोड़ हो चुकी थी।
28 मार्च, 1903 की एक टिप्पणी में बंगाल के नये लेफ्टीनेंट-गवर्नर एंड्रयू फ्रेजर ने वार्ड के प्रस्ताव को पुनः उठाया जिसे कर्जन ने भारत में भूमि के पुनर्वितरण-संबंधी एक योजना में 1 जून 1903 को स्वीकार कर लिया। जनता के सामने इसे उचित रूप से प्रस्तुत करने के लिए संशोधित किया गया, और गृह-सचिव रिजले के 3 दिसंबर, 1903 के पत्र में इसे पहली बार प्रकाशित किया गया। रिजले ने इस स्थानांतरण योजना का पक्ष लिया कि इससे बंगाल सरकार का अत्यधिक प्रशासनिक बोझ कम होगा, इससे असम की समस्या भी हल होगी, जो सिविल सेवा के अलग काॅडर के साथ लेफ्टीनेंट गवर्नरवाला प्रांत बन जायेगा, इससे भारी व्यापारिक लाभ होंगे, क्योंकि चाय बागानों और तेल व कोयला उद्योगों के हितों की रक्षा होगी, असम के बागान मालिकों को चटगाँव पत्तन के रास्ते एक सस्ता समुद्री मार्ग प्राप्त होगा, तथा असम बंगाल रेलवे एक ही प्रशासन के अंतर्गत आयेगी, जो पूर्वोत्तर भारत के आर्थिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण थी। इस प्रकार ‘प्रशासनिक सुविधा’ कोई अमूर्त या निष्पक्ष वस्तु नहीं थी, बल्कि अंग्रेज अधिकारियों और अंग्रेज व्यापारियों की सुविधा से इसका घनिष्ठ संबंध था।
राष्ट्रीय चेतना पर प्रहार
दिसंबर, 1903 और 19 जुलाई, 1905 की औपचारिक घोषणा के बीच एक स्थानांतरण योजना को फ्रेजर, रिजले और कर्जन ने पूर्ण-विभाजन में बदल दिया, जिसमें अंततः पूर्वी बंगाल और असम के प्रांत में असम के अतिरिक्त चटगाँव, ढाका और राजशाही डिवीजन, हिल टिपरा और माल्दा भी सम्मिलित किये गये। यद्यपि सार्वजनिक तौर पर सरकार ने इस बँटवारे को प्रशासनिक अवश्यकता बताया, किंतु सरकारी विवरणों, टिप्पणियों एवं निजी पत्रों से पता चलता है कि कर्जन ने भारतीय राष्ट्रीयता की जुझारू चेतना पर आघात करने के उद्देश्य से इस विभाजन की योजना बनाई थी। भारत सरकार के तत्कालीन गृह-सचिव रिजले ने अपने 7 फरवरी, 1904 के नोट में यह बात स्पष्ट कर दी थी कि ‘अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है, विभाजित होने से यह कमजोर हो जायेगी।….हमारा मुख्य उद्देश्य बंगाल का बँटवारा करना है, जिससे हमारे दुश्मन बँट जायें, कमजोर पड़ जायें।’
बंगाली आबादी का बँटवारा
बंगाल-विभाजन का उद्देश्य केवल यही नहीं था कि बंगाल को दो प्रशासनिक इकाइयों में बाँटकर उसके प्रभाव को कम कर दिया जाये। अंग्रेजी हुकूमत का मकसद मूल बंगाल में बंगालियों की आबादी कमकर उन्हें अल्पसंख्यक बनाना था। मूल बंगाल में एक करोड़ 70 लाख बंगाली और तीन करोड़ 70 लाख उडि़या व हिंदीभाषी लोगों को रखने की योजना थी। इससे बंगाली भद्रलोक का लगभग पूर्णवर्गीय शासन नष्ट होता अर्थात् भूस्वामी, साहूकार, पेशेवर और बाबू वर्गों का शासन, जो अधिकतर तीन ऊँची जातियों- ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्य जातियों के थे। शिक्षा और रोजगार पर उनका एकाधिकार था, इतना कि दूसरे सभी समुदाय इनसे लगभग पूरी तरह बाहर थे, और यही उनकी राजनीतिक शक्ति का मुख्य स्रोत था। लार्ड कर्जन के शब्दों में ‘‘अंग्रेजी सरकार का यह प्रयास कलकत्ता को सिंहासनच्युत् करना था, बंगाली आबादी का बँटवारा करना था, एक ऐसे केंद्र को समाप्त करना था, जहाँ से बंगाल व पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का संचालन होता था, साजिशें रचीं जाती थीं।’’ उसका पक्का विश्वास था कि ‘‘हमारे (बंग-भंग) प्रस्ताव के राजनीतिक लाभ की सबसे अच्छी गारंटी उस पर कांग्रेस की नापसंदगी है।’’
सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन
बंगाल-विभाजन में धार्मिक आधार पर विभाजन भी अंतर्निहित था। उन्नीसवीं सदी के अंत से ही अंग्रेज कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए मुस्लिम सांप्रदायिकता को भड़काने का काम शुरू कर दिये थे। अब एक बार फिर अंग्रेजों ने राष्ट्रीयता का गला घोंटने और हिंदू-मुसलमानों में फूट डालने के लिए मुस्लिम प्रधान बंगाल को अलगकर उसे शेष बंगाल के विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश की। पूर्वी बंगाल में मुसलमानों और पश्चिमी बंगाल में हिंदुओं की प्रधानता थी, जबकि मध्य बंगाल में दोनों समुदायों के बीच एक संतुलन था। यह मुस्लिम आबादी बेहद ग्रामीण चरित्रवाली थी और उनमें लगभग 90 प्रतिशत लोग खेतिहर और मामूली चाकर समूहों के थे।
ढाका में फरवरी, 1904 में दिये गये भाषण में कर्जन ने स्पष्ट कहा था कि ‘‘बंगाल-विभाजन में मेरा उद्देश्य प्रशासनिक सुविधाभर देखना नहीं है, मैं एक मुस्लिम प्रांत बनाना चाहता हूँ, जहाँ इस्लाम के अनुयायियों का बोलबाला होगा।……विभाजन से पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को वह एकता प्राप्त होगी, जो मुसलमान बादशाहों और सूबेदारों के राज के बाद उन्हें कभी नसीब नहीं हुई थी।’’
विभाजन की योजना के आखिरी मसौदे में भी, जिसे सितंबर, 1904 में तैयार किया गया, इस बात पर जोर दिया गया था कि नये प्रांत का मुख्यालय ढाका, जहाँ एक करोड़ 80 लाख मुसलमान और एक करोड़ 20 लाख हिंदू होंगे, कालक्रम में ऐसी प्रांतीय राजधानी बनेगा, जिसमें मुसलमानों के हित प्रधान होंगे और उनका जबरदस्त प्रतिनिधित्व होगा। यही कारण है कि पूर्वी बंगाल के मुसलमान धीरे-धीरे विभाजन की योजना के पक्ष में आ गये।
इस प्रकार बंगाल-विभाजन की योजना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बढ़ती हुई शक्ति पर सुनियोजित आक्रमण थी। कर्जन के उत्तराधिकारी मिंटो पहले विभाजन के विरोधी थे, किंतु बाद में उन्होंने भी स्वीकार किया कि ‘केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से ही देखें तो बंगाल का विभाजन जरूरी था, प्रशासनिक कठिनाइयों को तो अलग कर दीजिए।’ भारतीय राष्ट्रवादी अंग्रेजों की इस कुटिल चाल समझते थे, इसलिए वे एक साथ इसके विरोध में उठ खड़े हुए, जिससे विभाजन-विरोधी स्वदेशी आंदोलन शुरू हो गया।
बंगाली एकजुटता
बंगाल-विभाजन की योजना ने बंगालियों को बाँटने और कमजोर करने के बजाय उनको और भी एकजुट कर दिया शायद कर्जन को पता नहीं था कि उभरती हुई बंगाली पहचान ने, जो संकीर्ण हितबद्ध समूहों, वर्गों और क्षेत्रीय बाधाओं से भी ऊपर उठ चुकी थी, पहले से अधिक भौगोलिक गतिशीलता, उन्नीसवीं सदी में एक साहित्यिक भाषा के क्रमिक विकास और क्षेत्रीय समाचारपत्रों जैसे संचार के आधुनिक साधनों के द्वारा क्षैतिज एकजुटता के लिए पहले ही एक शक्तिशाली तत्त्व पैदा कर रखा था। 1890 के दशक के अकालों और महामारियों ने दैव-विहित ब्रिटिश साम्राज्य में पहलेवाली आस्था को चूर कर दिया था।
शिक्षित बंगालियों के लिए कम होते अवसरों और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में साल-दर-साल खराब होते फसल के कारण बढ़ते दामों ने मध्य वर्गों का जीवन दूभर कर दिया था। ऐसे मोड़ पर विभाजन ने बंगाली समाज को तोड़ने के बजाय एक ‘स्वदेशी गठबंधन’ को जन्म दिया, इसके लिए उसने कलकत्ता के नेताओं और पूर्वी बंगाल में उनके अनुयायियों की राजनीतिक एकता को और पुष्ट किया, जो बंगाली समाज के राजनीतिक ढाँचे में एक क्रांति से कम नहीं था।
विभाजन-विरोधी आंदोलन का आरंभ
विभाजन की योजना का विरोध दिसंबर, 1903 से पारंपरिक नरमदलीय उपायों- आवेदन, ज्ञापन, भाषण, जन-सभाओं और प्रेस आदि के माध्यम से आरंभ हो गया था और पूरे बंगाल में, विशेषकर ढाका, मेमनसिंह, चटगाँव में विभाजन-विरोधी बैठकें होने लगी थीं। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, कृष्णकुमार मित्र, पृथ्वीशचंद्र राय जैसे नेताओं ने ‘बंगाली’, ‘हितवादी’ एवं ‘संजीवनी’ जैसे अखबारों व पत्रिकाओं के द्वारा विभाजन के विरुद्ध जनमत तैयार करने का प्रयास किया। मार्च 1904 और फरवरी 1905 में कलकत्ता के टाउनहाल में कई बड़ी-बड़ी विरोध-सभाएँ हुईं और भारत सरकार तथा गृह-सचिव के नाम विरोध-याचिकाएँ भेजी गईं। उस समय कर्जन ने गृह-सचिव को लिखा था कि ‘‘यदि हमने इस विरोध को अभी नहीं दबाया तो हम बंगाल को कभी विभाजित नहीं कर पायेंगे। विरोध को न दबा पाने का मतलब यह होगा कि तुम पहले से ही मजबूत एक ताकत को और भी मजबूत बनाने का मौका दोगे, एक ऐसी ताकत को, जो भविष्य में हमारे लिए और भी संकट पैदा करेगी।
स्वदेशी आंदोलन की घोषणा
भारतीयों के विरोध को अनदेखा करते हुए 19 जुलाई, 1905 को बंगाल-विभाजन के निर्णय की घोषणा की गई तो विभाजन-विरोधी आंदोलन अधिक व्यापक, मजबूत और संगठित हो गया। आंदोलन का आरंभिक उद्देश्य विभाजन को रद्द कराना था, किंतु जल्दी ही वह एक अधिक व्यापक आधारवाला आंदोलन बन गया, जिसे ‘स्वदेशी आंदोलन’ कहते हैं और जिसने व्यापक राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों को उठाया।
विभाजन की घोषणा के तुरंत बाद दिनाजपुर, पबना, फरीदपुर, ढाका, वीरभूमि, बारीसाल व अन्य कस्बों में विरोध-सभाएँ आयोजित की गईं और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की शपथ ली गई। अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार की सलाह सर्वप्रथम कृष्णकुमार मित्र की साप्ताहिक पत्रिका ‘संजीवनी’ के 13 जुलाई, 1905 के अंक में दी गई थी। कलकत्ता में भी छात्रों ने अनेक विरोध बैठकें की। कलकत्ता के टाउनहाल में 7 अगस्त की एक ऐतिहासिक विराट जनसभा में बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया गया और स्वदेशी आंदोलन की विधिवत् घोषणा की गई। इस आंदोलन में बंगाल के सभी वर्गों, धर्मों तथा जातियों के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अनेक नरमपंथी नेता देश में घूम-घूमकर लोगों से मैनचेस्टर के कपड़े और लिवरपुल के नमक के बहिष्कार की अपील करने लगे।
स्वदेशी आंदोलन की प्रगति
जब पहली सितंबर को सरकार ने घोषणा की कि विभाजन 16 अक्टूबर 1905 को प्रभावी होगा, तो बहिष्कार आंदोलन और भी तेज हो गया। हर रोज विरोध-बैठकें होने लगीं और विदेशी माल के बहिष्कार का नारा बुलंद होने लगा।
28 सितंबर 1905 को पितृ-विर्सजन के दिन कालीघाट के मंदिर में एक विराट पूजा हुई, जिसमें देवी-देवताओं की पूजा से पहले मातृभूमि की पूजा की गई। लोगों ने नंगे पैर जुलूसों में भाग लिया तथा विदेशी माल के बहिष्कार की सौगंध खाई। इसका परिणाम हुआ कि अगस्त 1905 की तुलना में सितंबर 1906 में कलकत्ता कस्टम कलक्टर के अनुसार सूती थानों के आयात में 22 प्रतिशत, सूत की लच्छी और सूत में 44 प्रतिशत, नमक में 11 प्रतिशत, सिगरेटों में 55 प्रतिशत, और जूतों एवं बूटों में 48 प्रतिशत की कमी हो गई थी। 16 अक्टूबर 1905 का दिन, जिस दिन विभाजन लागू किया गया, पूरे बंगाल में ‘शोक दिवस’ के रूप में मनाया गया।
घरों में चूल्हे तक नहीं जले, लोगों ने उपवास रखा और कलकत्ता में हड़तालें हुईं, जुलूस निकाले गये, जगह-जगह सभाएँ हुईं और सुबह-सुबह नंगे पैर चलकर लोगों ने गंगा-स्नान किये। कलकत्ता की सड़कें ‘वंदेमातरम’ के नारों से गूँज उठीं। इसी अवसर पर रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रसिद्ध गीत ‘आमार सोनार बंगला’ लिखा, जिसे सड़कों पर चलनेवाली भीड़ गाती थी।
बंगालियों और बंगाल की एकता के प्रतीक के रूप में रंग-बिरंगी राखियों का आदान-प्रदान हुआ और इस कार्यक्रम में 50,000 से भी अधिक लोगों ने भाग लिया। आनंदमोहन बोस और सुरेंद्रनाथ बनर्जी दो विशाल जनसभाओं को संबोधित किये जिसमें 50 से 75 हजार लोग इकट्ठा हुए। बंगाल की अटूट एकता के प्रतीक के रूप में आनंदमोहन बोस ने फेडरेशन हाल की नींव डाली।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बनारस अधिवेशन (1905) की अध्यक्षता करते हुए गोखले ने बंगाल में स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन को समर्थन दिया। किंतु तिलक, विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपतराय और अरबिंद घोष जैसे गरमपंथी नेताओं के समर्थक केवल स्वदेशी और बहिष्कार से ही संतुष्ट नहीं थे, बल्कि वे इसे एक जनांदोलन का रूप देना चाहते थे। अब उनका लक्ष्य विभाजन की निरस्ति नहीं, बल्कि ‘स्वराज्य’ हो गया था।
कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस का लक्ष्य ब्रिटेन या उसके उपनिवेशों की तरह भारत में अपनी सरकार का गठन करना घोषित किया, किंतु कांग्रेस के उदारवादी और उग्रवादी समूहों में आंदोलन की गति और संघर्ष के तौर-तरीकों को लेकर मतभेद चलता रहा, जिसके कारण 1907 में सूरत का ‘बदनाम’ विभाजन हो गया।
बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा
बंगाल विभाजन के विरुद्ध प्रारंभ आंदोलन ने बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा को भारतीय जनता का राष्ट्रवादी अस्त्र बना दिया। इस समय चीन में भी अमरीकी माल के विरुद्ध बहिष्कार का आंदोलन चल रहा था। इसकी प्रेरणा से भी बहिष्कार की भावना और उग्र हुई। स्थान-स्थान पर विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और स्वदेशी माल की बिक्री के लिए स्वदेशी स्टोर खोले गये। इसका परिणाम हुआ कि भारत में ब्रिटिश माल की खपत अत्यंत कम हो गई और स्वदेशी मालों की बिक्री एकाएक बढ़ गई।
बहिष्कार और स्वदेशी आंदोलन को एक सफल आंदोलन बनाने का श्रेय छात्रों और नौजवानों को था। ब्रिटिश सरकार ने कार्लाइल (बंगाल सरकार के कार्यवाहक मुख्य सचिव) सर्कुलर जारीकर विद्यार्थियों को धमकी दी कि उन्हें दी जानेवाली सरकारी सहायता बंद की दी जायेगी, तो आंदोलनकारियों ने एक एंटी-सर्कलर सोसायटी बनाकर छात्रों को संगठित करने तथा स्वदेशी आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना प्रारंभ कर दिया। 11 नवंबर 1905 को कलकत्ता के ‘कालेज स्क्वायर’ में लगभग 10,000 छात्रों की एक सभा हुई। इसी प्रकार 16 नवंबर को भी एक ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ, जिसमें राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार तथा विस्तार की योजना स्वीकार की गई थी। सरकारी शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार के साथ ही राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना का आंदोलन उठ खड़ा हुआ। अगस्त 1906 में ‘बंगाल नेशनल कालेज एंड स्कूल’ की स्थापना के बाद राष्ट्रीय शिक्षा का आंदोलन आगे बढ़ा। इस कालेज को सुबोध मलिक ने 9 नवंबर को एक लाख रुपये की बड़ी राशि का दान देकर इस आंदोलन को बड़ा प्रोत्साहन दिया।
ब्रिटिश सरकार की दमनात्मक कार्रवाई के बावजूद स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन को व्यापक सफलता मिली। तिलक ने पूरे देश में, विशेषकर, बंबई और पुणे में इस आंदोलन का प्रचार किया। बंबई में तिलक के साथ परांजपे, तिलक की पुत्री श्रीमती केलकर और एक अन्य महिला श्रीमती जोशी इस आंदोलन के प्रचार एवं विस्तार में सक्रिय थीं।
बंगाल में विपिन पाल, अरबिंद घोष तथा ब्रह्मबांधव उपाध्याय और मद्रास में सुब्रह्मण्यम अय्यर, चिदंबरम पिल्लई, पी. आनंद चारलू और टी.एम. नायर जैसे लोग इस आंदोलन को संचालित कर रहे थे।
उत्तरी भारत में रावलपिंडी, काँगड़ा, मुल्तान और हरिद्वार में स्वदेशी आंदोलन ने खूब जोर पकड़ा। पंजाब में जयपाल, राम गंगाराम, अजीतसिंह, लाला लाजपतराय तथा आर्यसमाज के चंद्रिका दत्त और मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) जैसे लागों ने इस आंदोलन का प्रचार किया। दिल्ली में इस आंदोलन का नेतृत्व सैयद हैदर रजा ने किया।
जन-समर्थन के साधन
जन-सभाएँ और प्रदर्शन
विभाजन-विरोधी आंदोलन के दौरान जनसभाएँ और प्रदर्शन जनमत तैयार करने के सशक्त माध्यम थे। बड़े-बड़े शहरों से लेकर जिलों, कस्बों, तालुकों, गाँवों में जनसभाओं के आयोजन से जनता में राजनीतिक चेतना को जागृत करने का प्रयास किया गया। स्वदेशी के प्रचार के लिए पारंपरिक त्यौहारों, धार्मिक मेलों, लोक परंपराओं, लोक संगीत, लोक-नाट्य परंपराओं जैसे माध्यमों का भी सहारा लिया गया।
धार्मिक पुनरुत्थानवाद
जनता तक पहुँचने और उसकी लामबंदी के लिए अरबिंद घोष जैसे नेताओं ने धार्मिक पुनरुत्थानवाद का सहारा लिया क्योंकि आशा की जाती थी कि हिंदू धर्म पूरे राष्ट्र के लिए एकता का सूत्र बनेगा। मई 1906 में उग्रवादी नेताओं ने प्रतिमा-पूजा के साथ-साथ गणपति महोत्सव और शिवाजी जयंती के माध्यम से स्वदेशी आंदोलन का प्रचार-प्रसार किया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी स्वदेशी-प्रतिज्ञाओं की पद्धति को मंदिरों में प्रयोग करनेवाले पहले व्यक्ति थे। स्वदेशी के स्वयंसेवकों के लिए भगवत्गीता आध्यात्मिक प्रेरणा की स्रोत थी और जनता को लामबंद करने के लिए हिंदू प्रतीकों, खासकर शाक्त के बिंब का उपयोग किया गया।
समितियाँ अथवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन
जनता की लामबंदी का एक सशक्त माध्यम समितियाँ अथवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक जैसे संगठन भी थे। यद्यपि इन संगठनों की तुलना आरंभिक क्रांतिकारी समितियों से की जाती है, लेकिन 1908 तक अधिकांश समितियाँ खुले संगठन हुआ करती थीं जो विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में लगी रहती थीं, जैसे अपने सदस्यों को शारीरिक एवं नैतिक प्रशिक्षण देना, अकाल, महामारी जैसी दैवी-आपदा या धार्मिक उत्सवों के समय सामाजिक कार्य करना, विभिन्न रूपों में स्वदेशी का संदेश फैलाना, हस्तकलाओं, विद्यालयों, मध्यस्थ कचहरियों एवं ग्राम सभाओं का संगठन करना आदि। 1907 में पुलिस ने 19 समितियों के होने की रिपोर्ट दी थी, जिनमें स्वदेश बांधव, ब्रती, ढाका अनुशीलन, सुहृद और साधना समितियाँ प्रमुख थीं।
कलकत्ता की ‘एंटी-सर्कलुर सोसायटी’ अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रख्यात थी जिसमें कई महत्त्वपूर्ण मुसलमान नेता थे, जैसे-लियाकत हुसैन, अबुल हुसैन, दीदारबख्श और अब्दुल गफूर। किंतु सबसे प्रसिद्ध थी अश्विनीकुमार दत्त के नेतृत्व वाली बारीसाल की स्वदेश बांधव समिति, जिसकी 159 शाखाएँ पूरे जिले के दूर-दराज इलाकों में फैली थीं। अगस्त 1906 तक बारीसाल समिति ने 89 पंच-अदालतों के जरिये 523 विवादों का निपटारा किया था। ढाका अनुशीलन समिति, बारीसाल समिति के ठीक विपरीत थी, जिसकी स्थापना पुलिनदास ने की थी। किंतु इन समितियों की सदस्यता कभी शिक्षित भद्रलोक की कतारों से आगे नहीं बढ़ी और सवर्ण कुलीनों ने अकसर अपने बल का प्रयोग करके निचली जातियों के किसानों को विमुख किया। 1908-09 की अवधि में दमन के पहले चक्र में खुली समितियाँ या तो समाप्त हो गईं या गुप्त क्रांतिकारी समितियाँ बन गईं।
हड़तालों का आयोजन
स्वदेशी समर्थकों का जनता की लामबंदी एक अन्य ढंग मजदूरों की हड़तालों का आयोजन करना था, खासकर विदेशी मालिकोंवाली कंपनियों में। बंबई के कामगारों से संपर्क करना कलकत्त़ा की तुलना मे सरल था, क्योंकि कलकत्ता के कामगार अधिकांश गैर-बंगाली थे, जबकि 1911 में बंबई के कामगारों में 49.16 प्रतिशत तिलक के जिले रत्नागिरी के ही थे।
1908 में जब ‘केसरी’ में छपे लेख के लिए सरकार ने तिलक पर मुकदमा चलाया और उन्हें छः साल की सजा मिली, तो श्रमिकों ने भारी पैमाने पर प्रदर्शन किये। बंगाल में गरमपंथी राष्ट्रवादी केवल राष्ट्रवादी श्रमिकों में ही अपनी पैठ बना सके जबकि उत्तर भारतीय मजदूरों का तथा बागानों और खदानों के मजदूरों का भी, विशाल समूह ऐसे राष्ट्रवादी समूहों से दूर रहा। 1908 की गर्मियों के बाद श्रमिक आंदोलन में राष्ट्रवादियों की रूचि कम हो गई और पूर्णतः समाप्त हो गई और फिर 1919-22 के पहले नहीं उत्पन्न हुई।
स्वदेशी आंदोलन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
बंगाल के स्वदेशी आंदोलन में मुख्यतः चार प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं- सुस्थापित नरमदलीय प्रवृत्ति, रचनात्मक स्वदेशी, राजनीतिक उग्रवाद और क्रांतिकारी राष्ट्रवाद। इन प्रवृत्तियों को कालों में बाँटना संभव नहीं है, क्योंकि ये सभी प्रवृत्तियाँ इस काल में कम या अधिक मात्रा में साथ-साथ उपस्थित थीं।
नरमपंथी 1903 में विभाजन की योजना की घोषणा के बाद से ही उसकी आलोचना करने लगे थे और प्रार्थना-पत्रों, ज्ञापनों और जनसभाओं के माध्यम से उस योजना को संशोधित कराने का प्रयास कर रहे थे। किंतु जब वे सफल नहीं हुए और 1905 में विभाजन की योजना की घोषणा कर दी गई तो उन लोगों ने एक संकीर्ण आंदोलन को व्यापकतर स्वदेशी आंदोलन में बदलने की पहल की। वे पहली बार अपनी परंपरागत राजनीतिक विधियों से आगे बढ़कर अंग्रेजी मालों और संस्थाओं के बहिष्कार का आह्वान किये।
इस सुस्थापित नरमदलीय प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में एक नई प्रवृति का जन्म हुआ, जिसमें निरर्थक और अपमानजनक ‘भिखमंगी’ नीतियों को त्यागकर स्वावलंबन, गाँव स्तर पर संगठन तथा विदेशी मालों और संस्थाओं के स्वदेशी विकल्प के विकास के लिए रचनात्मक कार्यों पर जोर दिया गया। दरअसल बंगाल के गरमपंथी रचनात्मक कार्यक्रम की ओर अधिक झुके हुए थे, जिसमें दैनिक उपभोग की वस्तुओं का निर्माण, राष्ट्रीय शिक्षा, पंचायती अदालतों और ग्राम संगठनों के प्रयास शामिल थे।
प्रदर्शनियों और दुकानों के जरिये स्वदेशी मालों की बिक्री के प्रयास 1890 के दशक से ही किये जाने लगे थे। ‘बंगाल केमिकल्स’ का आरंभ 1893 में स्वदेशी उद्यम के रूप में हुआ था और फिर 1901 में चीनी मिट्टी की वस्तुओं के उत्पादन के लिए एक और कारखाना खोला गया था। सतीशचंद्र मुखर्जी के ‘भागवत चतुष्पदी’ (1895), ‘डान’ पत्रिका एवं ‘डान सोसायटी’ (1902-07), ब्रह्मबांधव उपाध्याय के ‘सारस्वत आयतन’ (1902) और रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘शांति निकेतन आश्रम’ (1901) के साथ राष्ट्रीय शिक्षा के आंदोलन आरंभ हो चुके थे।
1905 तक इस गरमपंथी रचनात्मक प्रवृति में भी दो प्रमुख धाराएँ दिखाई देने लगी थीं- अराजनीतिक रचनात्मक स्वदेशी, जिसमें आत्म-विकास के प्रयासों पर भारी जोर दिया जाता था और राजनीतिक गरमपंथ, जिसमें सविनय अवज्ञा पर जोर दिया जाता था। राजनीतिक आंदोलन के आरंभ से पहले अराजनीतिक रचनात्मक कार्यक्रमों पर पर बल दिया जा रहा था। रवींद्रनाथ ठाकुर ने 1904 में अपने दिये गये भाषण ‘स्वदेशी समाज’ में जो आत्म-शक्ति का रचनात्मक कार्यक्रम सामने रखा था, वह जुलाई 1905 के बाद पूरे बंगाल का मूल-मंत्र बन गया। अब कपड़ा कारखानों और हथकरघों, माचिस और साबुन के कारखानों तथा चमड़ा के कारखानों जैसे स्वदेशी उद्यम हर जगह खड़े होने लगे।
किंतु 1906 के आसपास ही आंदोलन नया मोड़ लेने लगा, जब राजनीतिक उग्रवाद बंगाल के उत्साही शिक्षित युवकों को आकर्षित करने लगा। अब अरबिंद घोष, विपिनचंद्र पाल और ब्रह्मबांधव उपाध्याय जैसे उग्र राष्ट्रवादी नेता मानने लगे थे कि स्वतंत्रता के बिना राष्ट्रीय जीवन का कोई पुनर्जीवन संभव नहीं है। उन्होंने जनता के सामने अनेक विचार, योजना और तरीके रखे, ताकि व्यापक जनांदोलन के जरिये राजनीतिक स्वाधीनता का लक्ष्य हासिल किया जा सके।
इस चरण में विभाजन-विरोधी आंदोलन के कार्यक्रम में चार बातें शामिल थीं- अंग्रेजी वस्तुओं और संस्थाओं का बहिष्कार, उनके स्वदेशी विकल्पों का विकास, अन्यायपूर्ण कानूनों का उल्लंघन और ब्रिटिश दमन के कारण आवश्यकता पड़ने पर हिंसक आंदोलन। यह एक प्रकार से गांधीजी के आंदोलन के पूर्वाभ्यास था जिसमें केवल उनका ‘अहिंसा’ पर दिया जानेवाला जोर शामिल नहीं था।
स्वदेशी आंदोलन की विशेषताएँ
आत्म-निर्भरता और स्वावलंबन
स्वदेशी आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता थी कि इसने आत्म-निर्भरता और स्वावलंबन का नारा दिया। आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि सरकार के खिलाफ संघर्ष चलाने के लिए जनता में स्वावलंबन की भावना भरना बहुत आवश्यक है। स्वावलंबन व आत्मनिर्भरता का प्रश्न राष्ट्रीय स्वाभिमान, आदर और आत्मविश्वास के साथ जुड़ा था।
रचनात्मक कार्य
आर्थिक व सामाजिक पुनरुत्थान के लिए गाँवों में रचनात्मक कार्य शुरू किये गये ताकि जनता में यह चेतना पैदा की जा सके कि अपनी प्रगति के लिए वे स्वयं आगे आयें। रचनात्मक कार्यों में सामाजिक सुधार लागू करना तथा जाति-प्रभुत्व, बाल-विवाह, दहेज, शराबखोरी जैसी सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ना शामिल था। आत्मनिर्भरता के लिए अनेक स्वदेशी कल-कारखानें और विद्यालय स्थापित किये गये।
राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों की स्थापना
साहित्यिक, तकनीकी और शारीरिक शिक्षा देने के लिए राष्ट्रवादियों ने अनेक राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना की। टैगोर के शांतिनिकेतन की तर्ज पर कलकत्ता में ‘बंगाल नेशलन कालेज’ की स्थापना की गई और अरबिंद घोष बड़ौदा रियासत की 750 रुपये मासिक की नौकरी छोड़कर 75 रुपये मासिक पर इस कॉलेज के प्रिंसीपल बने। 15 अगस्त 1906 को एक ‘राष्ट्रीय शिक्षा परिषद्’ का गठन हुआ। परिषद् का उद्देश्य था: ‘‘राष्ट्रीय नियंत्रण के तहत जनता को इस तरह की साहित्यिक, वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा देना, जो राष्ट्रीय जीवनधारा से जुड़ी हो।’’ तकनीकी शिक्षा के लिए ‘बंगाल इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की गई। जोगेंद्रचंद्र घोष ने 1904 में ही एक समिति की स्थापना की थी ताकि चंदा इकट्ठा कर विद्यार्थियों को तकनीकी प्रशिक्षण हेतु जापान भेजा जा सके। शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय देसी भाषाएँ बनीं, ताकि शिक्षा की रोशनी घर-घर पहुँच सके। बहुत थोड़े समय में ही पूरे देश में अनेक राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना हो गई। 1909 तक बंबई प्रांत में माध्यमिक नेशनल स्कूल तथा पूना में समर्थ विद्यालय और महाराष्ट्र विद्यालय, बशर में एक नेशनल स्कूल, मसूलीपट्टम में एक मारल नेशनल कालेज और राजमुंदरी में एक माध्यमिक स्कूल तथा संयुक्त प्रांत में अयोध्यानाथ नेशनल हाईस्कूल स्थापित हो चुका था।
पारंपरिक दस्तकारियों को प्रोत्साहन
स्वदेशी के रूझान ने हथकरघा, रेशम की बुनाई और कुछ अन्य पारंपरिक दस्तकारियों में नवजीवन का संचार किया। लगभग इसी समय अनेक स्वदेशी कपड़ा मिलें, साबुन, माचिस के कारखाने, चर्म उद्योग, हैंडलूम के उद्यम, बैंक और बीमा कंपनियाँ अस्तित्व में आईं। भारतीय वस्त्र उद्योग को सहायता देने के लिए राष्ट्रीय कोष में रकम एकत्रित की गई। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने एक सार्वजनिक सभा में 70 हजार रुपये इकट्ठा किये, जिससे वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन मिला। अगस्त, 1906 में ‘दि बंगलक्ष्मी काटन मिल्स’ की स्थापना बड़ी धूमधाम से हुई। चीनी मिट्टी के कारखाने (कलकत्ता पाटरी वर्क्स 1906), क्रोम टेनिंग, दियासलाई उद्योग एवं सिगरेट बनाने के पर्याप्त सफल उद्यम भी आरंभ हुए। आचार्य बी.सी. राय ने प्रसिद्ध बंगाल केमिकल स्वदेशी स्टोर्स की स्थापना की। महान् कवि रवींद्रनाथ ठाकुर तक ने एक स्वदेशी स्टोर खुलवाने में सहायता की।
सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
स्वदेशी आंदोलन को जन्म देनेवाले बंगाल की उपलब्ध्यिों में देशभक्ति के गीतों के भंडार एवं अन्य महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भी शामिल हैं। राष्ट्रवादी कविता, गद्य और पत्रकारिता का विकास हुआ। बंगला साहित्य, विशेषकर काव्य के लिए तो यह स्वर्णकाल था। इस समय रवींद्रनाथ टैगोर, रजनीकांत सेन, द्विजेंद्रलाल राय, मुकुंद दास, सैयद अबू मुहम्मद आदि ने जो गीत लिखे, वे बंगाल में आज तक गाये जाते हैं। टैगोर ने इसी समय ‘आमार सोनार बंगला’ (मेरा सोने का बंगाल) नामक गीत लिखा, जो 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान बना। तमाम लोककथाएँ लिखी गईं जिनमें दक्षिणारंजन मित्र मजूमदार की लिखी हुई ‘ठाकुरमार झुली’ (दादी माँ की कथाएँ) आज भी बंगाली बच्चों को आह्लादित करती है।
कला एवं विज्ञान
कला के क्षेत्र में अवनींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय कला पर पाश्चात्य आधिपत्य को तोड़ा और मुगलों, राजपूतों की समृद्ध स्वदेशी पारंपरिक कलाओं व अजंता की चित्रकला से प्रेरणा लेकर स्वदेशी चित्रकारी शुरु की। 1906 में स्थापित ‘इंडियन सोसायटी आफ ओरियंटल आर्ट्स’ (भारतीय प्राच्यकला संस्था) की पहली छात्रवृत्ति भारतीय कला के मर्मज्ञ नंदलाल बोस को मिली। विज्ञान के क्षेत्र में जगदीशचंद्र बोस, प्रफुल्लचंद्र राय आदि की सफलताएँ और वैज्ञानिक खोजों ने स्वदेशी आंदोलन को बल प्रदान किया। इसके अलावा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद भी स्वदेशी आंदोलन की महत्त्वपूर्ण थाती है जिसका जादू उग्र शिक्षित युवाओं के मन-मस्तिष्क पर पीढ़ी से भी अधिक समय तक बना रहा।
स्वदेशी आंदोलन में विभिन्न वर्गों की भूमिका
युवाओं और विद्यार्थियों की भूमिका
स्वदेशी आंदोलन के बहुआयामी कार्यक्रमों और गतिविधियों के कारण राष्ट्रीय आंदोलन का सामाजिक दायरे में काफी फैलाव हुआ और पहली बार समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा सक्रिय राष्ट्रवादी राजनीति से जुड़ा। यद्यपि सरकार ने घरना देनेवाले विद्यार्थियों को डराने के लिए कार्लाइल सर्कुलर जैसे कदम उठाये, जिसमें धमकी दी गई थी कि राष्ट्रवादी शिक्षा-संस्थानों को अनुदानों, छात्रवृत्तियों एवं विश्वविद्यालय की संबद्धता से वंचित कर दिया जायेगा, फिर भी बंगाल के युवकों और विद्यार्थियों ने विदेशी कपड़ा बेचनेवाली दुकानों के आगे धरना देने, स्वदेशी का प्रयोग और उसका प्रचार करने में सक्रिय भूमिका निभाई।
चूंकि राष्ट्रीय शिक्षा में नौकरियों के अवसर नगण्य थे, अतः यह विद्यार्थी समुदाय को आकर्षित करने में असफल रही। कुछ बर्षों बाद राष्ट्रीय शिक्षा के नाम पर केवल बंगाल नेशनल कॉलेज, एक बंगाल तकनीकी संस्था और सबसे महत्त्वपूर्ण थे पश्चिमी बंगाल और बिहार में एक दर्जन के लगभग और इससे कहीं अधिक संख्या में पूर्वी बंगाल के जिलों के राष्ट्रीय विद्यालय, जिनमें बड़ी संख्या में मुसलमान और निम्न जाति के नामशूद्र पढ़ते थे। किंतु अंत में पूर्वी बंगाल में सोनारंग राष्ट्रीय विद्यालय (ढाका) जैसे कुछ गिने-चुने विद्यालय ही बचे रहे जो वस्तुतः क्रांतिकारियों की भर्ती के केंद्र थे।
महिलाओं की भागीदारी
स्वदेशी आंदोलन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। स्वदेशी और बहिष्कार के इस आंदोलन में पहली बार महिलाओं ने घर से बाहर निकलकर धरनों और प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। इसके बाद तो वे राष्ट्रीय आंदोलन में बराबर सक्रिय रहीं।
मजदूरों की भागीदारी
स्वदेशी आंदोलन के दौरान पहली बार मजदूरों की आर्थिक कठिनाइयों को राजनीतिक स्तर पर उठाया गया और ईस्टर्न रेलवे और क्लाइव जूट मिल में मजदूरों ने हड़ताल की। किंतु स्वदेशी के कर्ता-धर्ता केवल राष्ट्रवादी मजदूरों में ही, जो प्रायः विदेशी मालिकों की कंपनियों में काम करते थे, अपनी पैठ बना सके और हिंदुस्तानी (उत्तर भारतीय) मजदूरों का और बागान मजदूरों का भी विशाल समूह ऐसे राष्ट्रवादी प्रयासों से अछूता रहा।
किसानों में राष्ट्रीयता की चेतना का संचार
कहा जाता है कि यह आंदोलन किसानों, विशेषकर निचले तबके के किसानों को भी अपने साथ जोड़ने में असफल रहा। केवल बारीसाल इसका अपवाद माना जाता है। फिर भी, स्वदेशी आंदोलन ने छिटपुट जगहों पर जो थोड़े-बहुत किसानों को आंदोलन के लिए तैयार किया या उनमें राजनीतिक चेतना जगाई, वह आप में आंदोलन की बहुत बड़ी सफलता थी, क्योंकि स्वदेशी आंदोलन वास्तव में भारत में आधुनिक राजनीति की शुरूआत थी। स्वदेशी आंदोलन की बैठकों, जनसभाओं, पद-यात्राओं, प्रदर्शनों आदि के माध्यम से किसानों का एक बड़ा हिस्सा आधुनिक राजनीतिक विचारधारा से परिचित हुआ।
मुसलमानों की सहभागिता
स्वदेशी आंदोलन में अनेक प्रमुख मुसलमानों ने भाग लिया, जिनमें वकील अब्दुर्रसूल, आंदोलनकारी लियाकत हुसैन और व्यापारी गजनवी प्रमुख थे। किंतु स्वदेशी आंदोलन की धार्मिक पुनरुत्थानवादी राजनीति ने बहुसंख्यक मुसलमानों, विशेषकर मध्य और उच्च वर्गों के खेतिहर मुसलमानों को पराया बना दिया।
आंदोलन की समाप्ति के कारण
सरकारी दमन -नीति
1908 के मध्य तक आते-आते स्वदेशी आंदोलन समाप्त हो गया। इसके कई कारण थे। एक तो, ब्रिटिश सरकार आंदोलन के खतरे को भाँप गई थी और उसने इसका निर्ममतापूर्वक दमन करना शुरू कर दिया। सार्वजनिक सभाओं, प्रदर्शनों और प्रेस पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया गया। आंदोलन के समर्थक छात्रों को स्कूलों और कॉलेजों से निकाला जाने लगा और सरकारी नौकरियों के दरवाजे इनके लिए बंद किये जाने लगे। अनेकों छात्र गिरफ्तार किये गये, उन पर जुर्माने लगाये गये और कभी-कभार तो पुलिस द्वारा बेरहमी से पीटे भी गये।
कांग्रेस पार्टी में आपसी मतभेद
दूसरा कारण था कांग्रेस पार्टी में आपसी मतभेद। 1907 के कांग्रेस-विभाजन ने स्वदेशी आंदोलन को बहुत क्षति पहुँचाई। यद्यपि स्वदेशी आंदोलन बंगाल के बाहर तक फैल गया था, किंतु बंगाल को छोड़कर देश का बाकी हिस्सा आधुनिक राजनीतिक विचारधारा व संघर्ष को अपनाने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। ब्रिटिश सरकर ने इसका फायदा उठाकर 1907-1908 के बीच बंगाल के नौ बड़े नेताओं को निर्वासित कर दिया, जिनमें अश्वनीकुमार दत्त और कृष्णकुमार मित्र भी शामिल थे। तिलक को 24 जून 1908 को ‘केसरी’ में प्रकाशित दो लेखों के लिए छः वर्ष की सजा दी गई। पंजाब के अजीतसिंह और लाजपतराय निर्वासित कर दिये गये और मद्रास के चिदंबरम पिल्लै एवं आंध्र के हरिसर्वोत्तम राव गिरफ्तार कर लिये गये। सरकारी दमन और गरमपंथी नेताओं की गिरफ्तारी ने स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन की कमर तोड़ दी। रही-सही कसर विपिनचंद्र पाल और अरबिंद घोष ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर पूरी कर दी। इस प्रकार पूरा आंदोलन एकाएक नेतृत्वविहीन हो गया।
प्रभावी संगठन का अभाव
तीसरे, स्वदेशी आंदोलन का कोई प्रभावी संगठन नहीं था। यद्यपि इस आंदोलन ने अहिंसक आंदोलन, जेल भरो आंदोलन, सामाजिक सुधार, गाँवों में रचनात्मक कार्य आदि अनेक गांधीवादी तरीकों को अपनाया, किंतु संगठन के अभाव में आंदोलन इन तरीकों को कोई अनुशासित केंद्रीय दिशा नहीं दे सका। फलतः इन तमाम तरीकों को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका, जैसा कि बाद में गांधीजी ने किया।
आंदोलन का पुनरुत्थानवादी चरित्र
चौथे, स्वदेशी आंदोलन में धार्मिक चरित्रवाले पारंपरिक रीति-रिवाजों और संस्थाओं का सहारा लेना भी नुकसानदेह साबित हुआ। राष्ट्रीय शिक्षा की योजनाओं में प्रबल पुनरुत्थानवादी तत्त्व होता था, और बहिष्कार को पारंपरिक जातिगत आज्ञाओं के द्वारा लागू करने का प्रयास किया जाता था। गरमपंथी नेताओं द्वारा प्रतिमा-पूजा के साथ शिवाजी उत्सव मनाने, वंदेमातरम्, संध्या और युगांतर जैसी पत्रिकाओं के आक्रामक हिंदुत्व के प्रचार के कारण बंगाल के बहुसंख्यक मुसलमान और निचली जातियों के नामशूद्र और किसान स्वदेशी आंदोलन से दूर रहे और कुछ तो सांप्रदायिक राजनीति के शिकार हो गये। यद्यपि संजीवनी और प्रवासी जैसी ब्रह्मसमाजी पत्रिकाएँ पोंगापंथ की आलोचना करती थीं और कृष्णकुमार की ‘एंटी-सर्कलर सोसायटी’ ने अपने अनेक मुसलमानों कार्यकर्ताओं और शुभचिंतकों की भावना का आदर करते हुए शिवाजी उत्सव का बहिष्कार किया था।
अंग्रेजों की सांप्रदायिक नीति
बंगाल की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था भी सांप्रदायिकता के विकास में सहायक हुई क्योंकि बंगाल के अधिकतर भूस्वामी हिंदू थे और मुसलमान खेतिहर मजदूर। जब आंदोलन अपने चरम पर था, तभी पूर्वी बंगाल में मैमनसिंह जिले के ईश्वरगंज (मई 1906), कोमिला (मार्च 1907) में और जमालपुर, दीवानगंज और बक्शीगंज (अप्रैल-मई 1907) में सांप्रदायिक दंगे हुए। दंगाइयों के लक्ष्य थे हिंदू जमींदार और महाजन, जिनमें से कुछ ने हाल ही में हिंदू मूर्तियों के रखरखाव के लिए ‘ईश्वरवृत्ति’ उगाहना आरंभ किया था। कई स्थानों पर ऋण-पत्र फाड़ डाले गये और कहीं-कहीं तो दंगों ने ‘गरीबों द्वारा अमीरों के माल की आम लूट’ का रूप धारण कर लिया था।
1908 के मध्य में स्वदेशी आंदोलन खत्म हो गया। 1907 के ‘बदनाम’ विभाजन से एक ओर कांग्रेस कमजोर और अप्रभावी बन चुकी थी, तो दूसरी ओर उग्रपंथी राजनीति भी किसी नये राजनीतिक संगठन का रूप नहीं ले सकी। अंततः 1908 तक राजनीतिक उग्रवाद का अवसान हो गया, लेकिन उसने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के उदय के लिए रास्ता बना दिया। फलतः स्वदेशी आंदोलन ने जिन नौजवानों को राष्ट्रीयता और सामूहिक राजनीतिक संघर्ष का पाठ पढ़ाया, वे निराश और क्षुब्ध होकर अपने-अपने ढ़ंग से क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। संभवतः 1911 में बंगाल-विभाजन की निरस्ति का एक कारण क्रांतिकारी गतिविधियाँ भी थीं।
इस प्रकार स्वदेशी आंदोलन की समाप्ति के साथ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के एक युग का अंत हो गया। किंतु स्वदेशी आंदोलन को पूर्णतया असफल नहीं कहा सकता है। इसने समाज के उस बड़े तबके में राष्ट्रीयता की चेतना का संचार किया, जो उससे पहले राष्ट्रीयता के बारे में अनभिज्ञ था, जैसे विद्यार्थी, किसान और मजदूर। यह आंदोलन औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध पहला सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन था, जिसने राष्ट्रीय चेतना को नई दिशा प्रदान की और भावी राष्ट्रीय आंदोलन का बीजारोपण कर दिया।
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