पं. दीनदयाल उपाध्याय: एक परिचय (Pt. Deendayal Upadhyay: An Introduction)

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

भारत की आजादी से पहले और आजादी के बाद कई ऐसे महापुरुष हुए, जिन्होंने अपने बल पर राष्ट्र और समाज को बदलने की पूरी कोशिश की। भारत के ऐसे ही कुछ महान सपूतों में एक नाम पं. दीनदयाल उपाध्याय का भी है, जिन्होंने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व और गरिमायुक्त कृतित्व के द्वारा भारतीय जनमानस में एक नवीन चेतना और राष्ट्रीयता का संचार किया। उन्होंने भारत की सनातन संस्कृति के अनुरूप देश को ‘एकात्म मानववाद’ नामक एक समावेशित विचारधारा प्रदान की, ताकि एक मजबूत और सशक्त भारत का निर्माण किया जा सके।

दीनदयाल उपाध्याय एक कुशल अर्थचिंतक, संगठनकर्ता, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ और प्रखर वक्ता होने के साथ ही साथ साहित्यकार एवं पत्रकार भी थे। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान वे राजनीति में सक्रिय होने के साथ-साथ साहित्य से भी जुड़े थे और इस क्रम में उनके हिंदी और अंग्रेजी के अनेक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे।

पं. दीनदयाल उपाध्याय: एक परिचय (Pt. Deendayal Upadhyay: An Introduction)
पं. दीनदयाल उपाध्याय

पं. दीनदयाल उपाध्याय का आरंभिक जीवन

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के ‘नगला चंद्रभान’ (फरह, मथुरा) नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता पं. भगवती प्रसाद उपाध्याय जलेसर रोड रेलवे स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर थे। उनकी माता रामप्यारी धार्मिक प्रवृत्ति की एक साधारण गृहिणी थीं। दीनदयाल के दादा पं. हरिराम अपने समय के एक प्रख्यात ज्योतिषविद् थे।

दीनदयाल का पारिवारिक नाम ‘दीना’ था। बचपन में लोग उन्हे प्यार से दीना कहकर ही बुलाते थे। दीना के जन्म के लगभग दो वर्ष बाद उनके छोटे भाई शिवदयाल का जन्म हुआ, जिसको लोग ‘शिव’ के नाम से पुकारते थे।

पिता भगवती प्रसाद अपनी रेलवे की नौकरी होने के कारण अधिक समय घर के बाहर ही रहते थे। कभी-कभार छुट्टी मिलने पर ही घर आ पाते थे। फलतः दीनदयाल जब ढाई साल के हुए, तो उनके पिता ने दोनों भाइयों- दीना और शिवा को उनके नाना चुन्नीलाल शुक्ल के पास भेज दिया। दीना के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धानक्या (जयपुर, राजस्थान) में स्टेशन मास्टर थे, लेकिन उनका पैतृक गाँव आगरा जिले में फतेहपुर सीकरी के पास ‘गुड की मंडी’ था। ननिहाल जाने के बाद से दीनदयाल कभी अपने पैतृक गाँव नगला चंद्रभान नहीं आये।

मृत्यु का क्रूर प्रहार

 जीवन के आरंभ से ही दीनदयाल को मृत्यु के क्रूर प्रहार का सामना करना पड़ा। अभी जब वे मात्र ढाई वर्ष के थे कि तभी उन्हें मृत्यु का पहला प्रहार झेलना पड़ा। नवरात्रि की चतुर्थी को इनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय किसी के घर भोजन करने गये थे। उन्होंने जैसे ही भोजन करना आरंभ किया, वैसे ही उनकी मृत्यु हो गई। संभवतः किसी ने उनके भोजन में विष मिला दिया था। अब काल की क्रूर दृष्टि इनके परिवार पर पड़ चुकी थी।

अभी उनका परिवार दुखों से उबरने का प्रयास ही कर रहा था कि पति की मृत्यु से आहत उनकी माँ रामप्यारी भी क्षय रोग (तपेदिक) के कारण 8 अगस्त 1924 को संसार से चली गईं। उस समय दीना की उम्र केवल 7 वर्ष थी। दो वर्ष बाद 1926 में दीनदयाल के नाना चुन्नीलाल भी चल बसे। किंतु ननिहाल के लोगों ने उन्हें अकेला नहीं होने दिया और इनके मामा राधारमण शुक्ल ने इनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध किया। 1931 में पालन करने वाली मामी का भी निधन हो गया। तीन वर्ष बाद 18 नवंबर 1934 को इनके छोटे भाई शिवदयाल भी चेचक के कारण दुनिया छोड़कर चले गये। शीघ्र ही पितातुल्य मामा राधारमण जी का भी साया उठ गया। 1935 में स्नेहमयी नानी की भी मृत्यु हो गई। इस प्रकार दीनदयाल को 19 वर्ष की कम ऊम्र में ही मृत्यु के क्रूर प्रहार का भीषण आघात सहन करना पड़ा, लेकिन दीनदयाल अपने दृढ़-निश्चयी स्वभाव के कारण आगे की ओर बढते रहे।

छात्र-जीवन

दीना की माता के देहावसान के बाद इनका पालन-पोषण इनके मामा राधारमण शुक्ल ने किया जो गंगापुर (राजस्थान) रेलवे स्टेशन पर मालबाबू के रूप् में कार्यरत थे। दीनदयाल ने यहीं उनके साथ गंगापुर में अपनी छठीं तक की शिक्षा पूरी की। सातवीं कक्षा में प्रवेश के लिए उन्हें राजस्थान के कोटा शहर में भेज दिया गया, जहाँ वे छात्रावास में रहे। पंद्रह वर्ष की आयु मे जब दीनदयाल 7वीं कक्षा मे थे, तभी मामा राधारमण की मृत्यु हो गई। इसलिए सातवीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें अपने चचेरे मामा नारायण शुक्ल (राधा रमण के चचेरे भाई) के पास रामगढ जाना पड़ा, जो रामगढ के स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे। वहाँ उन्होंने आठवीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की।

आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दीनदयाल ने राजस्थान के सीकर में कल्याण’ हाईस्कूल में नवीं कक्षा में प्रवेश लिया। उन्होंने वर्ष 1935 में कल्याण हाईस्कूल, सीकर, राजस्थान से दसवीं की बोर्ड परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर विद्यालय एवं बोर्ड ने पुरस्कारस्वरूप उन्हे दो स्वर्ण पदक दिये। सीकर के महाराजा ने भी उनकी प्रतिभा के सम्मान में उन्हें 250 (दो सौ पचास) रूपये नगद पुरस्कार दिया एवं दस रुपये महीने की छात्रवृत्ति स्वीकृत कर दी।

बारहवीं की शिक्षा के लिए दीनदयाल ने पिलानी के बिड़ला इंटरमीडिएट कॉलेज में प्रवेश लिया, जहाँ उन्हें छात्रावास में रहना पड़ा। उन्होंने 1937 में इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षा में पुनः प्रथम स्थान हासिल किया। इस बार भी बोर्ड एवं विद्यालय की ओर से उन्हें दो स्वर्ण पदक मिले, साथ ही सेठ घनश्यामदास बिड़ला ने दो सौ पचास रुपये नगद पुरस्कार और बीस रुपये मासिक की छात्रवृत्ति प्रदान की।

इसके बाद स्नातक की पढ़ाई के लिए दीनदयाल ने सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया। यहाँ भी उन्हें छात्रावास में रहना पड़ा । उन्होंने 1939 में बी.ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उनकी उत्कृष्ट प्रतिभा के कारण कॉलेज से उन्हें तीस रुपए मासिक की छात्रवृत्ति मिल रही थी, जिससे वे अपनी शिक्षा पूरी कर रहे थे।

स्नातक की शिक्षा पूरी करने के बाद दीनदयाल ने अंग्रेजी से एम.ए. करने के लिए आगरा के सेंट जॉन्स कालेज में प्रवेश लिया। दीनदयाल ने आगरा में भी अपनी अनूठी मेधा और लगन का प्रदर्शन किया और 1939 में एम.ए. पूर्वार्द्ध की परीक्षा में प्रथम आये। अभी उन्होंने एम.ए. द्वितीय वर्ष के लिए प्रवेश लिया ही था कि उनकी शिक्षा में एक व्यवधान उत्पन्न हो गया। दीनदयाल की ममेरी बहन रामादेवी (मामा नारायण शुक्ल की बेटी) बीमार पड़ गईं और उसे इलाज के लिए आगरा अस्पताल में लाया गया। अब दीनदयाल अपनी बीमार ममेरी बहन की सेवा-सुश्रूषा में लग गये और एम.ए. उत्तरार्द्ध की परीक्षा नहीं दे सके। अंततः ममेरी बहन भी भगवान को प्यारी हो गई, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा।

दीनदयाल ने अपने मामा के आग्रह करने पर प्रशासनिक परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण भी हुये, लेकिन उन्होंने ब्रितानी सरकार की नौकरी करने से इनकार कर दिया। उन्होंने प्रयाग के गवर्नमेंट ट्रेनिंग कॉलेज में प्रवेश लेकर 1941 में बी.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार दीनदयाल अपनी दृढ़-इच्छाशक्ति और मेधा के बल पर मृत्यु का क्रूर प्रहार झेलते हुए भी छात्रवृत्ति के सहारे अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रदर्शन करते रहे।

दीनदयाल उपाध्याय और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों से ही समाज सेवा के प्रति समर्पित थे। जब वे 1937 में कानपुर से बी.ए. कर रहे थे, तो वहीं पहली बार अपने सहपाठी बालूजी महाशब्दे (बलवंत महासिंघे) के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आये। इसी समय उनके साथ उनके एक और सहपाठी सुंदरसिंह भंडारी भी संघ में शामिल हुए। यहीं उनको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का सान्निध्य मिला। आगरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेवा के दौरान उनका परिचय भारतरत्न नानाजी देशमुख और भाऊराव देवरस से हुआ था।

कॉलेज की शिक्षा पूर्ण करने के बाद 1942 से पूरी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जुड़कर उसके लिए कार्य करना शुरू कर दिये। उन्होंने संघ शिक्षा में प्रशिक्षण लेने के लिए नागपुर में 40 दिनों के ग्रीष्मकालीन शिविर में भाग लिया और फिर इसके प्रचारक बन गये। संघ के ‘प्रांत प्रचारक’ के रूप में उन्होंने 1955 में उत्तरप्रदेश के लखीमपुर जिले में काम किया। उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक आदर्श स्वयंसेवक माना जाता था क्योंकि उनके प्रवचन संघ की शुद्ध विचारधारा पर आधारित होते थे।

दीनदयाल और भारतीय जनसंघ

गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी) की प्रेरणा से 21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। संघ के माध्यम से ही दीनदयाल का भारतीय राजनीति में पदार्पण हुआ। इस नवगठित भारतीय जनसंघ का प्रथम अधिवेशन 1952 में कानपुर में हुआ। दीनदयाल पहले उत्तरप्रदेश शाखा के महासचिव और फिर बाद में अखिल भारतीय महासचिव के रूप में नियुक्त किये गये। जनसंघ के कानपुर अधिवेशन में 15 प्रस्ताव पारित किये गये थे, जिनमें से 7 प्रस्ताव केवल दीनदयाल उपाध्याय ने ही प्रस्तुत किये थे। इनकी कार्यकुशलता, संगठन-क्षमता और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी कहा- ‘यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जायें, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।’

किंतु 1953 में डॉ श्यामाप्रसाद की कश्मीर में रहस्यमय ढंग से मृत्यु हो गई और भारतीय जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल के कंधों पर आ गई। इसके बाद वे 1967 तक भारतीय जनसंघ के महासचिव (महामंत्री) बने रहे और जनसंघ को भारत का एक मजबूत राजनीतिक दल बनाने में लगे रहे। उन्होंने भारतीय जनसंघ के सांसद बह्मजीत सिंह की मृत्यु के बाद 1963 में उत्तर प्रदेश की जौनपुर की लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव भी लड़ा, लेकिन वे जनता को आकर्षित करने में विफल रहे और चुनाव हार गये।

1960 के दशक में कांग्रेस-विरोधी अभियान के दौरान उन्होंने मई 1964 में राममनोहर लोहिया के साथ एक सामान्य कार्यक्रम की घोषणा की थी।

दिसंबर 1967 में भारतीय जनसंघ का चौदहवाँ अधिवेशन 29 से 31 दिसंबर तक कालीकट में हुआ। इस अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष चुने गये। किंतु दुर्योग से वे मात्र 43 दिन ही जनसंघ के अध्यक्ष रह सके और 10-11 फरवरी 1968 की रात मुगलसराय के पास चलती रेलगाड़ी में उनकी हत्या हो गई। उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेता संपूर्णानंद ने उपाध्याय की ‘राजनीतिक डायरी’ की प्रस्तावना में उन्हें अपने समय के सबसे उल्लेखनीय राजनीतिक नेताओं में से एक बताया है।

पं. दीनदयाल उपाध्याय सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास करते थे। वे धोती-कुर्ता पहनते थे और इसके साथ ही सिर पर एक टोपी रखते थे।. इनकी इस वेशभूषा के कारण इनके मित्र इन्हें पंडितजी कहा करते थे। बाद में यही इनकी उपाधि हो गई और वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम से प्रसिद्ध हो गये।

सरल स्वभाव के धनी पं. दीनदयाल आजीवन ब्रह्मचारी रहे। किसी अतिशयोक्ति और प्रचार में उनकी कोई रुचि नहीं थी। वे समन्वयवादी और समझौतावादी अवश्य थे; लेकिन अपने सिद्धांतो से हटकर अथवा परिस्थिति से पराजित होकर कोई समझौता या समन्वय उन्हें स्वीकार नहीं था। भारतीय जनसंघ को एक नये पथ की ओर अग्रसर कर राजनीति के विशाल प्रांगण में खड़ा करने का श्रेय दीनदयाल उपाध्याय को ही दिया जाना चाहिए।

दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद

पं. दीनदयाल एक महान् चिंतक और प्रखर विचारक थे। उनका मानना था कि हिंदू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की सनातन संस्कृति है। वे भारत की समृद्ध सनातन संस्कृति के आधार पर देश का विकास करने के पक्षधर थे और अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई पश्चिमी अवधारणाओं को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति की सनातन विचारधारा को युग के अनुकूल प्रस्तुत करते हुए मानवतावाद को एक अलग तरीके से परिभाषित किया और देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा प्रदान की।

दीनदयाल उपाध्याय ने बंबई में 22 से 25 अप्रैल 1965 तक राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में ‘एकात्म मानववाद’ पर चार भाषण दिये थे। उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत को समाजवाद और पूँजीवाद जैसी पश्चिमी अवधारणाओं पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इससे भारत की सनातन संस्कति के विकास और उसके विस्तार में व्यवधान पड़ेगा और देश का विकास नहीं हो सकेगा। उनकी पुस्तक ‘एकात्म मानववाद’ (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजित कानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक संदर्भ दिया गया है।

दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार एकात्म मानववाद प्रत्येक मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का एक एकीकृत कार्यक्रम है। उनका विचार था कि अर्थव्यवस्था में ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष” इन चारों की पूर्ति ही होनी चाहिए। पूँजीवाद और समाजवाद केवर्ल अर्थ और काम की पूर्ति के साधन हैं, इसलिए मनुष्य धर्म और मोक्ष से विमुख होता जा रहा है।’ इस प्रकार दीनदयाल उपाध्याय का प्रयास अध्यात्म को अर्थशास्त्र से जोड़ने की थी, और इसके साथ-साथ वे व्यक्तिगत उत्थान के बजाय राष्ट्र उत्थान चाहते थे।

दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में, ‘हमारी संपूर्ण व्यवस्था का केंद्र ‘मानव’ होना चाहिए। भौतिक उपकरण मानव के सुख के साधन हैं, साध्य नहीं। पूर्ण मानव के स्थान पर एकांगी मानव का विचार जिस व्यवस्था में होता है, वह अधूरी है। हमारा आधार एकात्म मानव है, जो एकात्म समष्टियों का एक साथ प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता है। इसी के आधार पर हमें जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विकास करना होगा।’ इस प्रकार दीनदयाल उपाध्याय का प्रयास अध्यात्म को अर्थशास्त्र से जोड़ने की थी, और इसके साथ-साथ वे व्यक्तिगत उत्थान के बजाय राष्ट्र उत्थान चाहते थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस दर्शन को एक विलक्षण खोज घोषित करते हुए अपना और भारतीय जनसंघ का औपचारिक सिद्धांत घोषित कर दिया।

दीनदयाल उपाध्याय और पत्रकारिता

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दीनदयाल ने 1947 में लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’ की स्थापना की और हिंदुत्व की विचारधारा को प्रसारित करने के लिए मासिकराष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन आरंभ किया। बाद में उन्होंने साप्ताहिक ‘पांचजन्य’ और दैनिक ‘स्वदेश’ की शुरुआत की। पांचजन्य एवं स्वदेश के संपादन का कार्य दीनदयाल स्वयं करते थे। इस प्रकाशन के प्रबंध निदेशक नानाजी देशमुख थे।

जब राष्ट्रधर्म, पांचजन्य व स्वदेशी जैसे पत्रों के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरे देश में तीव्र गति से प्रचार-प्रसार होने लगा, तो कांग्रेस सरकार ने संघ पर लगाम लगाने के लिए इन समाचार पत्रों को प्रतिबंधित कर दिया। पांचजन्य पर प्रतिबंध लगाये जाने पर दीनदयाल ने अपनी सूझ-बूझ से ‘हिमालय पत्रिका’ नामक दूसरे समाचार पत्र का प्रकाशन करना आरंभ किया, जो शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया। जब सरकार ने इसे भी प्रतिबंधित कर दिया, तो उन्होंने ‘देशभक्त’ नाम से दूसरा पत्र प्रकाशित करना शुरू कर दिया। अंततः सरकार ने उन्हें पकड़ने की योजना बनाई, किंतु वह दीनदयाल को नहीं पकड़ सकी। बाद में दीनदयाल ने स्वयं को सरकार के हवाले कर दिया, जिसके विरोध में राष्ट्रीय स्यवंसेवक संघ ने सत्याग्रह किया। दीनदयाल ने स्वयं इस सत्याग्रह का शांतिपूर्वक संचालन कर अपनी नेतृत्व-क्षमता को प्रदर्शित किया। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण लेख भी लिखे, जो समय-समय पर उनके समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहे। इस तरह दीनदयाल ने पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान स्थापित किया।

दीनदयाल उपाध्याय का साहित्य-लेखन

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक स्वतंत्र विचारक और साहसी पत्रकार अलावा कुशल लेखक भी थे। उन्होंने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, स्वदेश जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संचालन करने के साथ-साथ अनेक अनेक रचनाएँ भी की और लेखन के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। उन्होंने हिंदी में नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और ‘शंकराचार्य की जीवनी’ लिखी। उन्होंने आरएसएस के संस्थापक डॉ केबी हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया।

अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनकी रचनाएँ- ‘दो योजनाएँ: वादे, अनुपालन, संभावनाएँ’ (दि टू प्लान्सः प्रॉमिजेज, परफॉरमेंस, प्रॉस्पेक्ट्स), ‘भारतीय अर्थनीति: विकास की एक दिशा’, ‘अवमूल्यन: एक महान क्षति’ (डिवैल्यूएशनः ए ग्रेट फॉल) लेखन के क्षेत्र में मील का पत्थर हैं।

एक राजनीतिक चिंतक के रूप में दीनदयाल ने ‘विश्वासघात’, ‘राजनीतिक डायरी’, ‘सिद्धांत और नीति’, ‘राष्ट्र-चिंतन’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएँ’, ‘राष्ट्र जीवन की दशा’, ‘अखंड भारत क्यों?’ ‘एकात्म मानववाद’ (इंटेगरल ह्यूमनिज्म) आदि का लेखन किया। उन्होंने विश्वासघात का लेखन ताशकंद समझौते के विरोध में किया था।

पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु

पं. दीनदयाल एक मुखर और सच्चे राष्ट्रभक्त थे। 10 फरवरी 1968 की शाम को लखनऊ से पटना जाने के लिए सियालदह एक्सप्रेस में बैठे। लेकिन 11 फरवरी को सुबह पौने चार बजे मुगलसराय के सहायक स्टेशन मास्टर को रेलवे लाइन के किनारे खंभा नं. 1276 के पास उनकी लाश होने की सूचना मिली। मृत दीनदयाल अपने हाथ में पांच रुपये का नोट पकड़े हुए थे। उन्हें आखिरी बार आधी रात के बाद जौनपुर में जीवित देखा गया था। कहा जाता है कि मुगलसराय स्टेशन के पास चलती गाड़ी में चोरों ने उनकी हत्या की थी।

पं. दीनदयाल का शव जब स्टेशन के प्लेटफार्म पर लाया गया, तो यात्रियों की भीड़ में से कोई चिल्लाया कि ‘अरे, यह तो भारतीय संघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय हैं।’ दीनदयाल की इस अकाल मृत्यु की सूचना से पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई ने भारत के इस लाल को 12 फरवरी, 1968 को श्रद्धांजलि अर्पित की।

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की जाँच से पता चला कि मुगलसराय स्टेशन में ट्रेन के प्रवेश करने से ठीक पहले दीनदयाल उपाध्याय को चोरों ने कोच से बाहर गिरा दिया था। बाद में बगल के केबिन में यात्रा कर रहे यात्री भरतलाल और उसके सहयोगी राम अवध को हत्या और चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया गया। किंतु साक्ष्यों के अभाव में दोनों हत्यारोपी बरी हो गये।

इसके बाद लगभग छः दर्जन सांसदों की माँग पर भारत सरकार ने बंबई हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने भी अपने निष्कर्षों में बताया कि दीनदयाल उपाध्याय एक चलती ट्रेन के दरवाजे के पास खड़े थे, जहाँ से उन्हें धक्का दिया गया था और एक ट्रैक्शन पोल से टकराने के कारण तुरंत उनकी मुत्यु हो गई थी। उनकी असामयिक मृत्यु मात्र चोरों की जल्दबाजी से हुई थी।

श्रद्धांजलियाँ

भारत सरकार ने दीनदयाल उपाध्याय को श्रद्धांजलि देते हुए 1978 में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया। भारत सरकार ने भारतीय बंदरगाह अधिनियम, 1908 के अंतर्गत वर्ष 2017 में गुजरात के कांदला बंदरगाह का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय बंदरगाह कर दिया। उ.प्र. सरकार के प्रस्ताव पर भारत सरकार ने 2018 में मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय कर दिया। 16 फरवरी 2020 को वाराणसी में पंडित दीनदयाल उपाध्याय मेमोरियल सेंटर खोला गया उनकी 63 फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित की गई। इस समय दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर देश और प्रदेश में अनेक जन-कल्याणकारी योजनाएँ चलाई जा रही हैं।

पं. दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर चलने वाली कुछ प्रमुख सरकारी योजनाएँ

दीनदयाल अंत्योदय योजना (DAY)

दीनदयाल अंत्योदय योजना का उद्देश्य कौशल विकास और अन्य उपायों के माध्यम से आजीविका के अवसर उपलब्ध करा कर देश में गरीबी को कम करना है। दीनदयाल अंत्योदय योजना को आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय (एच.यू.पी.ए.) के तहत शुरू किया गया था। भारत सरकार ने इस योजना के लिए 500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। वैसे यह योजना राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (एन.यू.एल.एम.) और राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एन.आर.एल.एम.) का एकीकरण है।

दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (DDU-GKY)

यह योजना ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार का एक रोजगारपरक प्रशिक्षण (स्किल ट्रेनिंग) और रोजगार से जोड़ने वाला सरकारी कार्यक्रम है। यह राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एन.आर.एल.एम.) का हिस्सा है।

भारत सरकार की इस योजना का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण युवाओं को कौशल (स्किल) की ट्रेनिंग देकर उन्हें रोजगार के लिए तैयार करना है। इसके अंतर्गत 15 से 35 वर्ष के ग्रामीण युवाओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) दिया जाता है और सफलतापूर्वक ट्रेनिग पूर्ण करने वाले युवाओं के लिए केंद्र सरकार की ओर से रोजगार की व्यवस्था की जाती है। इसके साथ ही, जो प्रशिक्षित युवा कोई स्वरोजगार करना चाहता है, उसे बिजनेस लोन के रुप में आर्थिक मदद भी की जाती है। इस योजना से न केवल बेरोजगारी कम होगी ही, बल्कि ग्रामीण युवाओं का शहर की ओर पलायन भी कम होगा।

दीनदयाल उपाध्याय कौशल योजना को DDU-GKY के नाम से भी जाना जाता है। यह योजना 2014 से चलाई जा रही है। इसके योजना के तहत 576 घंटे (3 महीने) से लेकर 2,304 घंटे (12 महीने) तक का प्रशिक्षण दिया जाता है।

दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना (DDUGJY)

दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना पूरे ग्रामीण भारत को निरंतर बिजली की आपूर्ति प्रदान करने के लिए विद्युत मंत्रालय द्वारा एक मुख्य कार्यक्रम के रूप में बनाई गई है। यह योजना नवंबर 2014 में भारत सरकार द्वारा शुरू की गई। इस योजना में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत पहले से मंजूर माइक्रोग्रिड और ऑफ ग्रिड वितरण नेटवर्क एवं ग्रामीण विद्युतीकरण परियोजना भी शामिल है।

दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना योजना के अंतर्गत गर्व पोर्टल (GRV) की शुरुआत की गई है। इस पोर्टल के माध्यम से स्मार्ट फोन या इंटरनेट के ज़रिये कोई भी नागरिक ग्रामीण विद्युतीकरण की प्रगति पर नज़र रख सकता है। इस पोर्टल पर प्रत्येक विद्युतीकृत गाँव की विस्तृत जानकारी दी गई है, जिसमें विद्युतीकरण की तारीख, स्थानीय लाइनमैन का विवरण, लगाये गये खंभों की तस्वीरें आदि को शामिल किया गया है।

जेजाकभुक्ति (बुंदेलखंड) के चंदेल

पं. दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते कार्यक्रम

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले साल में ही 16 अक्टूबर 2014 को दिल्ली के विज्ञान भवन में इस कार्यक्रम की शुरुआत की थी। इस योजना का उद्देश्य श्रमिकों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए सरकारी सहायता का विस्तार करना है, ताकि देश में औद्योगिक विकास के हेतु अनुकूल माहौल तैयार किया जा सके। इस योजना के साथ-साथ एक ‘श्रम सुविधा‘ पोर्टल, श्रम विज्ञान कार्यक्रम और भविष्य निधि जमा करने वाले सभी कर्मचारियों के लिए एक यूनिवर्सल अकाउंट नंबर जारी करने की घोषणा की गई है।

दीनदयाल उपाध्याय स्वनियोजन योजना

दीनदयाल उपाध्याय स्वनियोजन योजना 2016 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ग्रामांचलों के उन लोगों को आर्थिक सहयोग देने के लिए शुरु की है, जो स्वरोजगार यानि सेल्फ एम्प्लोयीमेंट चाहते हैं। इस योजना की सहायता से सरकार ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को ऋण के रूप में आर्थिक सहयोग करेगी, ताकि वे ग्राम अंचलों में ही अपने लिए रोजगार उत्पन्न कर सकें। इस तरह से ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को शहर जाने की आवश्यकता नहीं होगी।

राज्य सरकार की योजनाएँ

केंद्र सरकारी की प्रमुख योजनाओं के साथ ही राज्य सरकारों की कई योजनाएँ भी पं. दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर संचालित की जा रही हैं। इनमें पं. दीनदयाल ग्रामोद्योग रोजगार योजना, दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना, पं. दीनदयाल उपाध्याय स्वयं योजना, दीनदयाल उपाध्याय स्वरोजगार योजना, दीनदयाल उपाध्याय गृह-आवास (होम-स्टे) विकास योजना, दीनदयाल उपाध्याय किसान-कल्याण योजना, दीनदयाल उपाध्याय रसोई योजना, दीनदयाल उपाध्याय वरिष्ठ नागरिक तीर्थयात्रा योजना, पं. दीनदयाल उपाध्याय कैशलेस चिकित्सा योजना आदि योजनाएँ महत्वपूर्ण हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय राज्य कर्मचारी कैशलेस चिकित्सा योजना के अंतर्गत सरकारी कर्मियों, सेवानिवृत्त कर्मचारियों और उनके परिवारों के आश्रितों को प्राइवेट अस्पतालों में भी कैशलेस चिकित्सा की सुविधा मिल सकेगी।

पं. दीनदयाल उपाध्याय: एक परिचय (Pt. Deendayal Upadhyay: An Introduction)
पं. दीनदयाल उपाध्याय

दीनदयाल उपाध्याय के कुछ कथन

  • पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन-शैली दो अलग-अलग चीजें हैं। चूँकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है और हमें आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी जीवन-शैली और मूल्यों के संदर्भ में यह सच नहीं है।
  • जब अंग्रेज हम पर राज कर रहे थे, तब हमने उनके विरोध में गर्व का अनुभव किया, लेकिन हैरत की बात है कि अब जबकि अंग्रेज चले गये हैं, पश्चिमीकरण प्रगति का पर्याय बन गया है।
  • अवसरवाद ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला कर रख दिया है। स्वतंत्रता तभी सार्थक हो सकती है, जब वह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन बने।
  • धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (चार पुरुषार्थ) की लालसा मनुष्यों में जन्मजात होती है और समग्र रूप में इनकी संतुष्टि भारतीय संस्कृति का सार है।
  • पिछले 1000 वर्षों में हमने जो भी अपनाया है, फिर चाहे वह हमने उसे मजबूरन अपनाया हो या इच्छा से, हम उसे त्याग नहीं सकते हैं।
  • धर्म के मूल सिद्धांत शाश्वत और सार्वभौमिक हैं, यद्यपि उनका क्रियान्वन समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग हो सकता है।
  • जब राज्य सभी शक्तियों, राजनीतिक और आर्थिक दोनों का अधिग्रहण कर लेता है, तो इसका परिणाम धर्म का पतन होता है।
  • जीवन में विविधता और बहुलता है, लेकिन हमें सदैव उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास करना चाहिए।
  • राष्ट्रीय और मानवीय, दोनों दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोंचे।
  • बिना राष्ट्रीय पहचान के स्वंत्रता कुछ भी नहीं, और इसी की उपेक्षा भारत की समस्याओं का मूल कारण है।
  • मानव में दोनों ही प्रवृत्तियों र्हैं- एक तरफ क्रोध और लालच है तो दूसरी ओर प्रेम और बलिदान।
  • भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत समग्र रूप में देखती है।
  • अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति का आधार रही है।
  • धर्म एक बहुत व्यापक विचार है, जो समाज को बनाये रखने के सभी पहलुओं से संबंधित है।
  • नैतिकता के सिद्धांत किसी भी व्यक्ति द्वारा नहीं बनाये जाते, बल्कि उन्हें खोजा जाता है।
  • शक्ति हमारे असंयत व्यवहार में नहीं, बल्कि संयत कारवाई में निहित है।
  • विविधता में एकता भारतीय संस्कृति का आधार है।
  • धर्म के मूल सिद्धांत अनंत हैं और सार्वभौमिक हैं।
  • अंग्रेजी शब्द ‘रिलिजन’, धर्म के लिए सही शब्द नहीं है।

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