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परमार राजवंश
परमार वंश ने 9वीं से 14वीं शताब्दी के बीच पश्चिम-मध्य भारत में मालवा, उज्जैन, आबू पर्वत और सिंधु के आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। इस राजवंश के आरंभिक शासक संभवतः मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के अधीनस्थ सामंत के रूप में शासन करते थे।
10वीं शताब्दी के परमार शासक सीयक के सबसे पुराने परमार शिलालेख गुजरात में पाये गये हैं। सीयक ने लगभग 972 ई. में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट पर अधिकार कर लिया, और परमारों को एक संप्रभु शक्ति के रूप में स्थापित किया।
सीयक के उत्तराधिकारी मुंज के समय तक वर्तमान मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र मुख्य परमार क्षेत्र बन गया था, जिसकी राजधानी धारा (अब धार) थी। मुंज के भतीजे भोज के शासनकाल में इस राजवंश का चरमोत्कर्ष हुआ और परमार राज्य उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में कोंकण तक और पश्चिम में साबरमती नदी से लेकर पूर्व में उड़ीसा तक फैल गया।
अपने पड़ोसी गुजरात के चौलुक्यों, कल्याणी के चालुक्यों, त्रिपुरी के कलचुरियों, जेजाकभुक्ति के चंदेलों और अन्य पड़ोसी राज्यों के साथ परस्पर संघर्षों के परिणामस्वरूप परमार शक्ति का कई बार उत्थान-पतन हुआ। बाद के परमार शासकों ने अपनी राजधानी को मंडप-दुर्गा (मांडू) में स्थानांतरित किया। अंतिम ज्ञात परमार नरेश महालकदेव दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में पराजित हुआ और मारा गया। किंतु अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि महालकदेव की मृत्यु के बाद भी कुछ वर्षों तक परमारों का शासन चलता रहा।
परमारों के अधीन मालवा ने अभूतपूर्व राजनीतिक और सांस्कृतिक समुन्नयन का साक्षात्कार किया। परमार नरेशों ने अनेक कवियों और विद्वानों के संरक्षण दिया और भोज जैसे कुछ परमार शासक स्वयं विद्वान् थे। यद्यपि अधिकांश परमार राजा शैवमतावलंबी थे और उन्होंने कई शिवमंदिरों का निर्माण भी करवाया था, लेकिन उन्होंने जैन विद्वानों को भी संरक्षण दिया था।
परमारों की इस मुख्य शाखा के अलावा अन्य कई शाखाओं ने भी इस क्षेत्र के विभिन्न भागों पर शासन किया। परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर 10वीं शताब्दी के अंत से 13वीं शताब्दी के अंत तक शासन करती रही। इस वंश की एक दूसरी शाखा ने वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर में 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से लेकर 12वीं शताब्दी के मध्य तक शासन किया। इसके अलावा, परमार वंश की दो शाखाओं ने जालोर और बिनमाल में भी 10वीं शताब्दी के अंतिम चरण से 12वीं शताब्दी के अंतिम चरण तक राज्य किया था।
परमार वंश के ऐतिहासिक स्रोत
परमार वंश के इतिहास-निर्माण में अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों और विदेशी यात्रियों के विवरणों से सहायता मिलती है। अभिलेखों में सबसे महत्वपूर्ण सीयक द्वितीय का हरसोल अभिलेख (948 ई.) है, जिससे परमार वंश के प्रारंभिक इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। अन्य लेखों में वाक्पति मुंज के उज्जैन अभिलेख (980 ई.), भोज के बाँसवाड़ा तथा बेतमा के अभिलेख, उदयादित्य के काल की उदयपुर प्रशस्ति, लक्ष्मदेव की नागपुर प्रशस्ति भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इनमें उदयपुर प्रशस्ति विशेष महत्वपूर्ण है, जो भिलसा के समीप उदयपुर के नीलकंठेश्वर मंदिर के एक शिलापट्ट के ऊपर उत्कीर्ण है। उदयपुर प्रशस्ति में परमार वंश के शासकों के नाम और उनकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है।
परमार वंश के इतिहास का ज्ञान विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों से भी होता है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- पद्मगुप्त परिमल द्वारा विरचित नवसाहसांकचरित। पद्मगुप्त परमार नरेश भोज और सिंधुराज का आश्रित कवि था। यद्यपि इस ग्रंथ में पद्मगुप्त ने मुख्यतः अपने आश्रयदाता राजाओं के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का ही वर्णन किया है, फिर भी, इससे परमार वंश के इतिहास से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों पर भी प्रकाश पड़ता है। जैन लेखक मेरुतुंग के प्रबंधचिंतामणि से भी परमार वंश के इतिहास, विशेषकर गुजरात के चौलुक्य शासकों के साथ उनके संबंधों की जानकारी मिलती है।
वाक्पतिमुंज तथा भोज स्वयं विद्वान् और विद्वानों के संरक्षक थे। उसके शासनकाल में लिखे गये अनेक ग्रंथों से भी तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के संबंध में सूचनाएँ मिलती हैं। इसके अतिरिक्त, मुसलमान लेखकों में अबुलफजल की ‘आइने-अकबरी’, अल्बरूनी तथा फरिश्ता के विवरण भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। मुसलमान लेखकों ने परमार शासक भोज की शक्ति एवं विद्वता की बड़ी प्रशंसा की है।
परमारों की उत्पत्ति
अग्निकुंड का मिथक: परमार वंश के परवर्ती लेखों और साहित्यिक ग्रंथों में परमारों को अग्निकुल या अग्निवंश का सदस्य बताया गया है। अग्निकुंड मिथक के अनुसार ऋषि वशिष्ठ ईक्ष्वाकुवंश के पुरोहित थे। उनकी कामधेनु नामक गाय को विश्वामित्र ने जबरन छीन लिया। वशिष्ठ ने गाय प्राप्त करने के लिए आबू पर्वत पर एक यज्ञ किया। अग्नि में डाली गई आहुति से एक धनुर्धर वीर उत्पन्न हुआ, जिसने विश्वामित्र को पराजित कर गाय को पुनः वशिष्ठ को समर्पित कर दिया। ऋषि वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर अग्निकुंड से निकले धनुर्धर वीर का नाम ‘परमार’ रखा। परमार का अर्थ है- शत्रु का नाश करने वाला। इस वीर धनुर्धर द्वारा स्थापित वंश को परमार वंश कहा गया है।
इस मिथक का उल्लेख सबसे पहले पद्मगुप्त परिमल के नवसाहसांकचरित में मिलता है। इस किंवदंती का उल्लेख इसके पहले के किसी परमार लेख या साहित्यिक ग्रंथ में नहीं मिलता है। इस समय प्रायः सभी राजवंश दैवी या वीर उत्पत्ति का दावा कर रहे थे, संभवतः इसी से प्रेरित होकर परमारों को इस किंवदंती का आविष्कार किया था। बाद में परमारों को राजपूत कुलों में से एक सिद्ध करने के लिए पृथ्वीराजरासो में अग्निकुंड की कथा का विस्तार किया गया।
परमारों की अग्निकुंड से उत्पत्ति-संबंधी मिथक के संबंध में गौरीशंकर ओझा का मत है कि चूंकि इस वंश के आदिपूर्वज धूमराज के नाम का संबंध अग्नि से था, इसी कारण विद्वानों ने इस वंश को अग्निवंशी स्वीकार कर लिया है। किंतु यह मत पूर्णतया अनुमानपरक है और इसका कोई यौक्तिक आधार नहीं है।
विदेशी उत्पत्ति: कुछ इतिहासकारों ने अग्निकुंड की पौराणिक कथा के आधार पर परमारों को विदेशी मूल का सिद्ध करने का प्रयास किया है। इन इतिहासकारों के अनुसार परमारों और अन्य अग्निवंशी राजपूतों के पूर्वज 5वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत आये थे। इन विदेशियों को अग्नि-अनुष्ठान के बाद हिंदू जाति व्यवस्था में सम्मिलित किया गया था।
किंतु इस तथ्य को स्वीकार करने का भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि अग्निकुंड की पौराणिक कथा का उल्लेख प्रारंभिक परमार युग के लेखों में नहीं मिलता है।
राष्ट्रकूटों के वंशज: डी.सी. गांगुली जैसे इतिहासकाकरों का मानना है कि परमार राष्ट्रकूटों के वंशज थे। इनके अनुसार परमार नरेश सीयक द्वितीय के हरसोल ताम्रलेख (949 ई.) में अकालवर्ष नामक एक शासक का उल्लेख है, जिसके लिए ‘तस्मिन कुले’ (उस परिवार में) शब्द का प्रयोग किया है और उसके बाद वप्पैराजा (वाक्पति) का नाम आया है। अकालवर्ष की उपाधि राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय की थी। गांगुली के अनुसार सीयक के उत्तराधिकारी वाक्पति मुंज की अमोघवर्ष, श्रीवल्लभ और पृथ्वीवल्लभ जैसी उपाधियाँ उसे राष्ट्रकूटों से संबंधित करती हैं।
आइन-ए-अकबरी के आधार पर गांगुली का मानना है कि परमारों का एक वंशज पूर्ववर्ती दक्कन से मालवा आया था। आइन-ए-अकबरी के अनुसार अग्निकुंड से उत्पन्न धनजी दक्कन से मालवा में एक राज्य स्थापित करने के लिए आया था। जब उनके वंशज पुत्रराज की मृत्यु हो गई, तो धनिकों ने परमारों के पूर्वज आदित्य पंवार को नये राजा के रूप में स्थापित किया।
किंतु गांगुली का यह अनुमान किसी ठोस प्रमाण के अभाव में स्वीकार्य नहीं है। आइन-ए-अकबरी की कथा से स्पष्ट है कि आदित्य पंवार, दकन के धनजी का वंशज न होकर संभवतः कोई स्थानीय धनिक था। संभव है कि परमार शासकों ने मालवा क्षेत्र में स्वयं को राष्ट्रकूटों का वैध उत्तराधिकारी सिद्ध करने के लिए राष्ट्रकूट उपाधियों का प्रयोग किया हो। इसके अलावा, राष्ट्रकूटों ने पृथ्वीवल्लभ जैसी उपाधियाँ भी धारण की थी, जिसका प्रयोग पूर्ववर्ती चालुक्य शासक करते थे।
इस प्रकार परमार न तो दक्कन से आये थे और न ही राष्ट्रकूटों के वंश से संबंधित थे। दशरथ शर्मा का मानना है कि परमारों ने दसवीं शताब्दी में अग्निकुल मूल का होने दावा किया था। यदि वे वास्तव में राष्ट्रकूटों के वंशज होते, तो एक पीढ़ी के भीतर ही अपने प्रतिष्ठित राजकीय मूल को नहीं भूल जाते।
मालवों के वंशज: दिनेशचंद्र सरकार का अनुमान है कि परमार मालवों के वंशज थे। किंतु प्रारंभिक परमार शासकों को मालव कहे जाने का कोई प्रमाण नहीं है। वास्तव में, परमारों को मालवा क्षेत्र पर शासन करने के बाद मालव कहा जाने लगा था।
वशिष्ठ गोत्र के ब्राह्म-क्षत्रिय: दशरथ शर्मा जैसे कुछ इतिहासकारों के अनुसार परमार मूल रूप से वशिष्ठ गोत्र के ब्राह्मण थे क्योंकि हलायुध ने, जिसे परमार मुंज का संरक्षण प्राप्त था, पिंगल-सूत्रवृत्ति में परमारों को ‘ब्रह्म-क्षत्र कुलीन’ बताया है। उदयपुर लेख में इस वंश के पहले शासक को ‘द्विजवर्गरत्न’ कहा गया है। पटनारायण मंदिर के शिलालेख में कहा गया है कि परमार वशिष्ठ गोत्र के थे। इससे लगता है कि परमार पहले ब्राह्मण थे, जो बाद में शासन करने के कारण क्षत्रियत्व को प्राप्त हुए। कई अन्य स्रोत परमारों के क्षत्रिय होने की ओर संकेत करते हैं, जैसे पिपलियानगर शिलालेख में कहा गया है कि परमारों के पूर्वज क्षत्रियों के ‘शिखा-गहने’ थे, और प्रभावकचरित के अनुसार वाक्पति का जन्म एक क्षत्रिय वंश में हुआ था। इस प्रकार स्पष्ट है कि परमार विद्वान् क्षत्रिय थे।
परमारों का मूल स्थान
अग्निकुंड मिथक के आधार पर सी.वी. वैद्य और वी.ए. स्मिथ जैसे कुछ विद्वानों का अनुमान है कि परमारों का मूल स्थान माउंट आबू था। हरसोल ताम्रलेख और आइन-ए-अकबरी के आधार पर डी.सी. गांगुली का मानना था कि वे दक्कन क्षेत्र से आये थे।
किंतु परमारों के सबसे पुराने शिलालेख सीयक द्वितीय के हैं, जो गुजरात से मिले हैं, और उस क्षेत्र में भूमि-अनुदान से संबंधित हैं। इस आधार पर माना जाता है कि परमार आरंभ में गुजरात से संबंधित थे। एक संभावना यह भी है कि प्रारंभिक परमार शासक गुर्जर-प्रतिहार आक्रमण के कारण मालवा में अपनी राजधानी धारा को छोड़कर अस्थायी रूप से गुजरात चले गये हों। नवसाहसांकचरित में कहा गया है कि परमार राजा वैरीसिम्हा ने दुश्मनों के भय से मालवा को छोड़ दिया। इसके अलावा, 945-946 ई. में गुर्जर-प्रतिहार राजा महेंद्रपाल के एक शिलालेख में कहा गया है कि उसने मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया।
परमार वंश के आरंभिक शासक
उपेंद्र अथवा कृष्णराज (800-818 ई.)
परमार वंश का संस्थापक उपेंद्र अथवा कृष्णराज (800-818 ई.) था। धारा नगरी परमार वंश की राजधानी थी। उदयपुर लेख से ज्ञात होता है कि उसने स्वयं अपने पराक्रम से राजत्व का उच्च पद प्राप्त किया था (शौयाज्जितोत्तुंगनृपत्वमाणः)।
ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि 808-812 ई. के बीच राष्ट्रकूटों ने मालवा क्षेत्र से गुर्जर-प्रतिहारों को निष्कासित कर दिया था और मालवा का लाट क्षेत्र राष्ट्रकूट राजा गोविंदा तृतीय के अधीन था। गोविंद के पुत्र अमोघवर्ष प्रथम के 871 ई. के संजन ताम्रपत्रलेख में कहा गया है कि उसके पिता ने मालवा में एक सामंत नियुक्त किया था। संभवतः यह अधीनस्थ सामंत परमार राजा उपेंद्र था।
उदयपुर प्रशस्ति से पता चलता है कि उपेंद्र के बाद कई छोटे-छोटे शासक हुए, जैसे- वैरीसिम्हा प्रथम (818-843 ई.), सीयक प्रथम (843-893 ई.), वाक्पति प्रथम (893-918 ई.) और वैरीसिम्हा द्वितीय (918-948 ई.)। किंतु इन प्रारंभिक राजाओं की ऐतिहासिकता के संबंध में इतिहासकारों के बीच विवाद है।
सी.वी. वैद्य और के.ए. नीलकंठ शास्त्री का मानना है कि परमार वंश की स्थापना 10वीं शताब्दी ईस्वी में हुई थी। वैद्य के अनुसार वैरीसिम्हा प्रथम और सीयक प्रथम जैसे राजा काल्पनिक हैं और इस राजवंश को प्राचीन सिद्ध करने के लिए ऐतिहासिक राजाओं के नाम दोहराये गये हैं।
किंतु अनेक इतिहासकारों का मानना है कि उदयपुर प्रशस्ति में वर्णित प्रारंभिक परमार शासक काल्पनिक नहीं हैं। संभवतः उदयपुर प्रशस्ति के वैरीसिम्हा प्रथम और सीयक प्रथम जैसे पूर्ववर्ती शासकों के नाम अन्य शिलालेखों में इसलिए नहीं मिलते क्योंकि ये स्वतंत्र शासक नहीं थे। इस प्रकार उदयपुर प्रशस्ति में वर्णित प्रारंभिक परमार शासक काल्पनिक नहीं हैं और परमार 9वीं शताब्दी ईस्वी में राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में मालवा पर शासन करने लगे थे।
हर्ष अथवा सीयक द्वितीय (948-974 ई.)
परमार वंश का पहला ज्ञात स्वतंत्र शासक सीयक द्वितीय है, जो वैरीसिम्हा द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके हरसोल ताम्रलेख (949 ई.) से पता चलता है कि वह राष्ट्रकूटों का अधीनस्थ सामंत था। किंतु उसी शिलालेख में सीयक के लिए ‘महाराजाधिराजपति’ की उपाधि का प्रयोग किया गया है। इससे अनुमान किया जाता है कि सीयक की अधीनता नाममात्र की थी।
सीयक द्वितीय ने गुर्जर प्रतिहारों की हृासोन्मुखी राजसत्ता से पूरा-पूरा लाभ उठाया। उसने राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में प्रतिहारों के विरूद्ध अभियानों में भाग लिया और मालवा तथा गुजरात में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। इसके बाद उसने अन्य क्षेत्रों में अपना विजय अभियान प्रारंभ किया।
योगराज की पराजय: सीयक द्वितीय के हरसोल लेख से पता चलता है कि उसने योगराज नामक किसी शत्रु को पराजित किया था। किंतु योगराज की पहचान संदिग्ध है। संभवतः वह गुजरात के चौलुक्य वंश से संबंधित रहा होगा या प्रतिहार नरेश महेंद्रपाल प्रथम का कोई सामंत रहा होगा।
हूणमंडल की विजय: नवसाहसांकचरित से ज्ञात होता है कि सीयक ने मालवा के उत्तर में शासन करने वाले हूणों को पराजित कर हूणमंडल पर अधिकार किया था। इस आक्रमण के दौरान सीयक ने हूण राजकुमारों की हत्या कर उनकी रानियों को विधवा बना दिया था। हूणमंडल से तात्पर्य मध्य प्रदेश के इंदौर के समीपवर्ती प्रदेश से है, जिसे जीतकर सीयक ने अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था।
राष्ट्रकूटों के विरुद्ध सफलता: सीयक को सबसे महत्वपूर्ण सफलता राष्ट्रकूटों के विरुद्ध मिली। कृष्णा तृतीय की मृत्यु के बाद सीयक ने 972 ई. में नर्मदा नदी के तट पर राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिग को पराजित किया और राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट तक उसका पीछा किया। राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में सीयक का एक सेनापति भी मारा गया। राष्ट्रकूट विजय के संबंध में उदयपुर प्रशस्ति में काव्यात्मक ढंग से कहा गया है कि सीयक ने ‘भयंकरता में गरुड़ की तुलना करते हुए खोट्टिग की लक्ष्मी को युद्ध में छीन लिया’। इस प्रकार सीयक ने राष्ट्रकूटों की अधीनता का जुआ उतार फेका और परमारों के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
सीयक की वर्धमान शक्ति पर जेजाकभुक्ति के चंदेलों ने अंकुश लगाया। खुजराहो लेख से पता चलता है कि चंदेल शासक यशोवर्मन् ने सीयक को पराजित किया था। उसे ‘मालवों के लिए काल के समान’ कहा गया है। ऐसा लगता है कि यशोवर्मन् के आक्रमण का उद्देश्य केवल परमारों को आतंकित करना था क्योंकि उसने परमार राज्य के किसी भाग पर अधिकार नहीं किया था।
इस प्रकार सीयक की विजय से अंततः राष्ट्रकूटों का पतन हो गया और मालवा में एक स्वतंत्र संप्रभु शक्ति के रूप में परमार शासन की स्थापना हुई जो दक्षिण में ताप्ती नदी, उत्तर में झालवर, पूर्व में भिलसा और पश्चिम में साबरमती से घिरा हुआ था। सीयक ने सम्राटोचित विरुद धारण किया। ‘पाइय-लच्छी’ नामक प्राकृत शब्दकोष का प्रणेता धनपाल सीयक द्वितीय की राजसभा में रहता था।
वाक्पति मुंज (974-995 ई.)
सीयक के दो पुत्र थे- मुंज तथा सिंधुराज। इनमें मुंज उसका दत्तक पुत्र था, लेकिन सीयक की मृत्यु के बाद वही परमार वंश की गद्दी पर बैठा। इतिहास में उसे वाक्पति मुंज तथा उत्पलराज के नाम से भी जाना जाता है। प्रबंधचिंतामणि में उसके जन्म के विषय में एक अनोखी कथा मिलती है। इसके अनुसार सीयक को बहुत दिन तक कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। संयोगवश उसे एक दिन मुंज घास में पड़ा एक नवजात शिशु मिला। सीयक उसे उठाकर घर लाया और मुंज में पड़े होने कारण उसका नाम मुंज रखा। बाद में उसकी अपनी पत्नी से सिंधुराज नामक पुत्र भी पैदा हो गया। किंतु सीयक अपने दत्तक पुत्र मुंज से पूर्ववत् स्नेह करता रहा और स्वयं उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। किंतु अनेक विद्वानों को इस कथानक की ऐतिहासिकता में संदेह हैं।
वाक्पति मुंज की उपलब्धियाँ
वाक्पति मुंज एक शक्तिशाली शासक था। राज्यारोहण के पश्चात् उसने परमार राज्य के विस्तार के लिए अनेक युद्ध किये। उदयपुर प्रशस्ति में वाक्पति मुंज की विजयों की एक पूरी सूची मिलती है।
कलचुरियों की विजय: उदयपुर प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वाक्पति मुंज ने सबसे पहले कलचुरि शासक युवराज द्वितीय को हराकर उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा था। किंतु ऐसा लगता है कि मुंज त्रिपुरी को अधिक समय तक अपने अधिकार में नहीं रख सका और उसे कलचुरि नरेश से संधि कर उसकी राजधानी वापस करना पड़ा।
हूणों के विरूद्ध सफलता: एक लेख से पता चलता है कि वाक्पति मुंज ने हूणमंडल क्षेत्र में स्थित वणिका नामक ग्राम ब्राह्मणों को दान में दिया था, जो हूण क्षेत्र पर उसकी विजय एवं अधिकार का स्पष्ट प्रमाण है। हूणमंडल क्षेत्र तोरमाण और मिहिरकुल के विशाल सम्राट् का अंतिम अवशेष था।
मेवाड़ के गुहिलों की विजय: वाक्पति मुंज ने मेवाड़ के गुहिलवंशी शासक शक्तिकुमार को पराजित कर उसकी राजधानी आघाट (उदयपुर स्थित अहर) को लूटा। राष्ट्रकूटवंशी धवल के बीजापुर लेख के अनुसार गुहिल नरेश ने भागकर धवल के दरबार में शरण ली थी। इस युद्ध में गुर्जर क्षेत्र के किसी शासक ने शक्तिकुमार की मदद की थी, किंतु वह भी मुंज द्वारा पराजित हुआ। इस पराजित नरेश की पहचान दशरथ शर्मा तथा एच.सी. राय चालुक्य नरेश मूलराज से करते हैं, जबकि मजूमदार जैसे इतिहासकारों के अनुसार वह कन्नौज के प्रतिहारों का कोई सामंत था।
चाहमानों के विरूद्ध सफलता: परमार नरेश वाक्पति मुंज का शाकम्भरी और नड्डुल के चाहमानों से भी युद्ध हुआ। उसने नड्डुल के चाहमान शासक बलिराज को हराकर उससे आबू पर्वत तथा जोधपुर के दक्षिण का भाग छीन लिया।
लाट राज्य पर आक्रमण: पश्चिम में वाक्पति ने लाट राज्य पर आक्रमण किया। इस समय लाट प्रदेश पर कल्याणी के चालुक्यों का अधिकार था, जहाँ तैलप द्वितीय का सामंत वारप्प तथा उसका पुत्र गोगीराज शासन कर रहे थे। वाक्पति मुंज ने वारप्प को पराजित किया, जिसके कारण उसका चालुक्य नरेश तैलप से संघर्ष आरंभ हो गया।
चालुक्य राज्य पर आक्रमण और मुंज की मृत्यु : प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि वाक्पति मुंज ने छः बार तैलप की सेनाओं को पराजित किया, किंतु अंत में उसने अपने मंत्री रुद्रादित्य के परामर्श की उपेक्षा करते हुए गोदावरी नदी पारकर स्वयं चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर दिया। वाक्पति चालुक्य सेनाओं द्वारा बंदी बना लिया गया और बंदीगृह में ही उसका वध कर दिया गया। तैलप ने परमार राज्य के नर्मदा नदी तक के दक्षिणी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। प्रबंधचिंतामणि के अलावा, कैथोम तथा गडग जैसे चालुक्य लेखों से भी तैलप द्वारा वाक्पति मुंज के वध की सूचना मिलती है। इस प्रकार मुंज ने 995 ई. तक राज्य किया।
मुंज की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
वाक्पति मुंजराज स्वयं उच्चकोटि का कवि था। वह विद्या और कला का उदार संरक्षक भी था। उसने भारत के विभिन्न हिस्सों से विद्वानों को मालवा में आमंत्रित किया। पद्मगुप्त, धनन्जय, धनिक, हलायुध, अमितगति जैसे विद्वान् उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे। पद्यगुप्त ने नवसाहसांकचरित और घनंजय ने दशरूपक नामक ग्रंथों का प्रणयन किया। धनिक ने दशरूपावलोक और हलायुध ने अभिधानरत्नमाला तथा मृतसंजीवनी की रचना की थी। पद्मगुप्त परिमल ने उसकी विद्वता एवं विद्या के प्रति अगाध प्रेम के संबंध में लिखा है कि ‘विक्रमादित्य के चले जाने तथा सातवाहन के अस्त हो जाने पर सरस्वती को कवियों के मित्र मुंज के यहाँ ही आश्रय प्राप्त हुआ था।’ मुंज मेरुतुग के ‘प्रबंधचिंतामणि’ नामक ग्रंथ की अनेक कथाओं का चरितनायक है।
एक महान् निर्माता के रूप में वाक्पति मुंज ने उज्जैन, धर्मपुरी, माहेश्वर आदि नगरों में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने अपनी राजधानी में ‘मुंजसागर’ नामक एक झील बनवाया और गुजरात में मुंजपुर नामक नगर बसाया। प्रतिभा बहुमुखी प्रतिभा के धनी मुंजराज ने उत्पलराज, श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष जैसी प्रसिद्ध उपाधियाँ धारण की थीं।
सिंधुराज (995-1010 ई.)
वाक्पति मुंज के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिंधुराज परमार वंश का शासक हुआ। उसने कुमारनारायण तथा साहसांक जैसी उपाधियाँ धारण की।
सिंधुराज की उपलब्धियाँ
मुंज की भाँति सिंधुराज भी महान् विजेता और साम्राज्य निर्माता था। राजा बनने के बाद उसने परमार साम्राज्य की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। इस क्रम में उसने सबसे पहले कल्याणी के चालुक्यों से अपने उन दक्षिणी क्षेत्रों को पुनः हस्तगत किया, जो मुंजराज की पराजय और वध के बाद तैलप द्वितीय ने छीन लिया था। सिंधुराज का समकालीन चालुक्य नरेश सत्याश्रय था। नवसाहसांकचरित से पता चलता है कि सिंधुराज ने कुंतलेश्वर द्वारा अधिग्रहीत अपने राज्य को तलवार के बल पर पुनः अपने अधिकार में किया। यहाँ कुंतलेश्वर से तात्पर्य सत्याश्रय से ही है।
पद्मगुप्त के नवसाहसांकचरित में सिंधुराज को कोशल, लाट, अपरांत और मुरल का विजेता बताया गया है। यहाँ कोशल में तात्पर्य दक्षिणी कोशल से है, जो वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य का रायपुर-विलासपुर क्षेत्र है। सिंधुराज ने कोशल के सोमवंशीय राजाओं को हराया था।
लाट प्रदेश गुजरात में था, जहाँ कल्याणी के चालुक्यों का सामंत गोंगीराज शासन कर रहा था। सिंधुराज ने उस पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। इसके बाद उसने अपरांत (कोंकण) शिलाहारों को अपने अधीन किया। मुरल की पहचान निश्चित नहीं है। यह राज्य संभवतः अपरांत और केरल के बीच स्थित था।
स्रोतों से ज्ञात होता है कि बस्तर राज्य के नलवंशी शासक ने वज़्र (वैरगढ़, मध्य प्रदेश) के अनार्य शासक वज़्रकुश के विरुद्ध सिंधुराज से सहायता माँगी थी, जिसके परिणामस्वरूप सिंधुराज ने विद्याधरों को साथ लेकर गोदावरी पार किया और अनार्य शासक वज़्रकुश के राज्य में जाकर उसकी हत्या कर दी। अनुग्रहीत नल शासक ने सिंधुराज के साथ अपनी कन्या शशिप्रभा का विवाह कर दिया। विद्याधर थाना जिले के शिलाहार थे, जिनका शासक अपराजित था।
उत्तर की ओर सिंधुराज ने हूणमंडल के शासक को पराजित किया। उदयपुर प्रशस्ति और नवसाहसांकचरित दोनों में हूणों का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि सिंधुराज ने हूणों का पूर्णरूपेण दमन किया। इसी समय वागड़ के परमार सामंत चंडप ने विद्रोह किया, लेकिन सिंधुराज ने उसके विद्रोह का दमन कर दिया।
सिंधुराज की असफलता
जयसिंह सूरि के कुमारपालचरित एवं वाडनगर लेख से पता चलता है कि सिंधुराज को गुजरात के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम के पुत्र चामुंडराज के हाथों पराजित होना पड़ा था। इस युद्ध में संभवतः सिंधुराज को युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी।
इस असफलता के बावजूद सिंधुराज एक योग्य शासक था, जिसने परमार वंश की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया। सिंधुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने उसकी जीवनी नवसाहसांकचरित की रचना की थी। सिंधुराज की मृत्यु संभवतः 1010 ई. के आसपास हुई थी।
परमार भोज (1010-1055 ई.)
सिंधुराज के पश्चात् उसका पुत्र भोज परमार वंश का शासक हुआ। भोज की गणना भारत के सबसे विख्यात और लोकप्रिय शासकों में की जाती है, जिसके शासनकाल में परमार राज्य राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। भोज के शासनकाल की घटनाओं की सूचना देने वाले आठ अभिलेख मिले हैं, जो 1011 ई. से 1046 ई. तक के हैं।
भोज की सैनिक उपलब्धियाँ
भोज की सैनिक उपलब्धियों की सूचना उदयपुर प्रशस्ति से मिलती है, जिसमें उसकी विजयों का अतिरंजनापूर्ण वर्णन मिलता है। भोज की प्रमुख विजयों का विवरण इस प्रकार है-
कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष: भोज परमार ने अपने चिरशत्रु चालुक्यों से मुंजराज की हार का बदला लेने के लिए त्रिपुरी के कलचुरि नरेश गांगेयदेव विक्रमादित्य और चोल शासक राजेंद्र से मित्रता की। इसके बाद उसने कल्याणी के चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय के विरूद्ध सैनिक अभियान किया।
किंतु इस अभियान में भोज की सफलता संदिग्ध है, क्योंकि चालुक्य और परमार दोनों अपनी-अपनी जीत का दावा करते हैं। संभवतः इस अभियान में आरंभ में उसे कुछ सफलता मिली थी और गोदावरी के आस-पास के क्षेत्रों पर उसका अधिकार हो गया था।
कर्णाट, लाट और कोंकण की विजय: भोज के सामंत यशोवर्मन् के कल्वन लेख में भोज को कर्णाट, लाट और कोंकण की विजय का श्रेय दिया गया है। भोज ने 1018 ई. के आसपास लाट के चालुक्य सामंत कीर्तिवर्मन् को पराजित कर आत्म-समर्पण करने के लिए बाध्य किया। संभवतः भोज ने कीर्तिवर्मन् को हटाकर यशोवर्मन् को लाट का शासक नियुक्त किया था, क्योंकि कहा गया है कि वह भोज की ओर से नासिक में 1,500 ग्रामों पर शासन कर रहा था।
लाट-विजय के बाद भोज ने 1018 ई. और 1020 ई. के बीच उत्तरी कोंकण की विजय की, जहाँ शिलाहार वंश का शासन था। मीराज लेख से सूचना मिलती है कि भोज ने कोंकण नरेश को पराजित कर उसकी सारी संपत्ति को छीन लिया था। कोंकण की विजय से चालुक्य साम्राज्य के उत्तर के गोदावरी के निकटवर्ती कुछ क्षेत्र भी भोज के अधिकार में आ गये। किंतु कोंकण पर भोज की विजय स्थायी नहीं हुई और शीघ्र ही चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने उस पर अपना अधिकार कर लिया।
उड़ीसा की विजय: उदयपुर प्रशस्ति में कहा गया है कि भोज ने उड़ीसा के इंद्ररथ नामक शासक को हराया था। आधुनिक इतिहासकार इस राजा की पहचान कलिंग के सोमवंशी राजा इंद्रनाथ से करते हैं।
इंद्ररथ का उल्लेख चोल शासक राजेंद्र के तिरुमलै लेख में भी मिलता है। विद्वानों का अनुमान है कि चोलों के सहायक के रूप में भोज ने इंद्ररथ को पराजित करने में सफलता पाई थी।
चेदि राज्य की विजय: उदयपुर प्रशस्ति तथा कल्वन लेख से पता चलता है कि भोज ने चेदि वंश के राजा को पराजित किया था। यह पराजित चेदि नरेश गांगेयदेव रहा होगा, जो भोज का समकालीन था। पहले गांगेयदेव और भोज के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे। किंतु लगता है कि प्रतिहार क्षेत्रों पर अधिकार को लेकर दोनों के बीच शत्रुता हो गई थी।
तोग्गल और तुरुष्क की विजय: उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार भोज ने तोग्गल और तुरुष्क को विजित किया था। कुछ विद्वान् इसे तुर्कों की विजय से संबद्ध करते हैं और मानते हैं कि भोज ने महमूद गजनवी के किसी सरदार को युद्ध में पराजित किया था। किंतु यह निष्कर्ष संदिग्ध हैं।
चंदेलों में संघर्ष: जब भोज के अपने राज्य को पूर्व की ओर विस्तारित करने का प्रयास किया, तो समकालीन चंदेल नरेश विद्याधर ने उसके प्रयास को विफल कर दिया। ग्वालियर तथा दूबकुंड में विद्याधर के कछवाहावंशी सामंत शासन करते थे। लगता है कि भोज को विद्याधर के सामंतों से पराजित होना पड़ा था क्योंकि एक चंदेल लेख में कहा गया है कि ‘कलचुरि चंद्र तथा भोज विद्याधर की गुरु के समान पूजा करते थे।’ ग्वालियर के कछवाहा शासक महीपाल के सासबहू लेख से भी पता चलता है कि कछवाहा सामंत कीर्तिराज ने भोज की सेनाओं को पराजित किया था। संभव है कि कीर्तिराज ने अपने स्वामी विद्याधर की सहायता से भोज को पराजित किया होगा। किंतु विद्याधर की मृत्यु के बाद जब चंदेल शक्ति निर्बल पड़ गई, तो कछवाहा सामंतों (अभिमन्यु) को परमार भोज की अधीनता स्वीकार कर लिया।
चाहमानों की विजय: मालवा के पश्चिमोत्तर में चाहमानों का राज्य था। इसलिए भोज का उनके साथ संघर्ष होना स्वाभाविक था। पृथ्वीराजविजय से पता चलता है कि भोज ने चाहमान शासक वीर्याराम को पराजित कर मार डाला और कुछ समय के लिए शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया। किंतु वीर्याराम के उत्तराधिकारी चामुंडराज ने पुनः शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में परमारों का सेनापति साढ़ मारा गया था।
चालुक्य नरेश पर आक्रमण: मेरुतुंग के प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि भोज ने चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण करने के लिए अपने जैन सेनानायक कुलचंद्र के नेतृत्व में एक सेना भेजी। उस समय भीम सिंध अभियान पर गया हुआ था। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर कुलचंद्र ने चालुक्यों की राजधानी अन्हिलवाड़ को बुरी तरह लूटा। उदयपुर प्रशस्ति में कहा गया है कि भोज ने अपने भृत्यों के माध्यम से भीम पर विजय पाई थी।
तुर्क आक्रांताओं के विरूद्ध सहयोग: मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार सोमनाथ को आक्रांत करने के बाद महमूद गजनवी ने परमदेव नामक एक हिंदू राजा के साथ संघर्ष से बचने के लिए अपना मार्ग बदल दिया था। कुछ इतिहासकार इस परमदेव की पहचान परमार भोज के रूप में करते हैं। यह भी संभावना व्यक्त की गई है कि परमार भोज ने महमूद गजनवी के विरूद्ध काबुलशाही शासक आनंदपाल की सैनिक सहायता की थी। यही नहीं, कुछ विद्वान् यह भी मानते हैं कि भोज उस गठबंधन में भी सम्मिलित था, जिसने 1043 ई. के आसपास हांसी, थानेसर और अन्य क्षेत्रों से महमूद गजनवी के राज्यपालों को निष्कासित किया था।
भोज की असफलता और मृत्यु
भोज को अपने जीवन के अंतिम दिनों में भारी असफलताओं का सामना करना पड़ा। चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने 1042 ई. के आसपास भोज की राजधानी धारा पर आक्रमण किया, जिसमें भोज को पराजित होकर अपनी राजधानी छोड़कर भागना पड़ा। चालुक्यों ने उसकी राजधानी धारा को लूटा और जला दिया। सोमेश्वर के इस विजय का उल्लेख नगाई लेख (1058 ई.) में मिलता है और इसकी पृष्टि बिल्हणकृत विक्रमांकदेवचरित से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि भोज ने भागकर अपने जीवन की रक्षा की थी।
यद्यपि चालुक्य सेना के लौट जाने के तुरंत बाद भोज ने मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया, किंतु इस पराजय से उसके राज्य की दक्षिणी सीमा गोदावरी से नर्मदा नदी हो गई।
भोज के शासनकाल के अंत में चालुक्यों तथा कलचुरियों ने उसके विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चे का गठन किया। इस संयुक्त मोर्चे का नेता कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण था। चालुक्यों तथा कलचुरियों की संयुक्त सेना ने भोज की राजधानी धारा पर आक्रमण कर दिया। मेरुतुंग के अनुसार इसी समय अवसादग्रस्त भोज की किसी बीमारी से मृत्यु (1055 ई. के लगभग) हो गई। भोज के मरते ही कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण और चालुक्य भीम की संयुक्त सेना ने धारा नगरी पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह लूटकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
भोज का साम्राज्य-विस्तार
यद्यपि भोज का अंत दुखद हुआ, फिर भी, वह अपने युग का एक पराक्रमी शासक था। उसने अपने समकालीन उत्तर तथा दक्षिण की प्रायः सभी शक्तियों से संघर्ष किया और परमार सत्ता का विस्तार किया। उदयपुर लेख में उसकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि ‘पृथु की तुलना करने वाले भोज ने कैलाश से मलय पर्वत तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक की समस्त पृथ्वी पर शासन किया। उसने अपने धनुष-बाण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को उखाड़ कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया।’
वास्तव में अपने उत्कर्ष काल में भोज का साम्राज्य उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में ऊपरी कोंकण तक और पश्चिम में साबरमती नदी से पूरब में उड़ीसा तक फैला हुआ था। यह बात अलग है कि उसकी क्षेत्रीय विजयें अल्पकालिक थीं। भोज के राज्य-प्रसार में उसके सेनानायकों- कुलचंद्र, साढ़ और सूरादित्य ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
भोज की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
भारतीय इतिहास में भोज एक विद्वान राजा के रूप में प्रतिष्ठित है, जिसने शिक्षा, साहित्य, कला और विज्ञान को संरक्षण दिया था। उसके समय में धारा नगरी विद्या एवं कला का प्रसिद्ध केंद्र बन गई थी। उसने इस नगर को विविध प्रकार से सुसज्जित किया और यहाँ अनेक महलों एवं मंदिरों का निर्माण करवाया, जिनमें सरस्वती मंदिर सबसे महत्वपूर्ण था। उसने सरस्वती मंदिर में सरस्वती की जो प्रतिमा स्थापित की थी, वह आज भी ब्रिटिश म्यूजियम लंदन में सुरक्षित है। सरस्वती मंदिर में भोज ने एक भोजशाला की स्थापना की, जो संस्कृत के अध्ययन का केंद्र था। सरस्वती मंदिर के समीप ही भोज ने एक विजय-स्तंभ स्थापित किया।
भोज ने भोजपुर नगर की स्थापना की और वहाँ भोजेश्वर मंदिर के साथ-साथ तीन बाँधों का निर्माण करवाया था। इस नगर के निकट भोज ने 250 वर्ग मील लंबी एक झील का निर्माण करवाया था, जो आज भी ‘भोजसर’ नाम से प्रसिद्ध है। यह परमारकालीन अभियांत्रिक कुशलता एवं कारीगरी का अद्भुत नमूना है। 15वीं शताब्दी में मालवा के सुल्तान हुशंगशाह ने इस झील को सुखाकर कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित कर दिया। चित्तौड़ में भोज ने त्रिभुवननारायण का मंदिर बनवाया तथा मेवाड़ के नागोद क्षेत्र में भूमिदान दिया।
भोज स्वयं विद्वान् था और उसने ‘कविराज’ की उपाधि धारण की थी। उसने ज्योतिष, व्याकरण, काव्य, वास्तु, योग आदि विविध विषयों पर ग्रंथों की रचना की। भोज की रचनाओं में सरस्वतीकृष्णभरण, श्रृंगारप्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, श्रृंगारमंजरी, भोजचंपू, युक्तिकल्पतरु, समरांगणसूत्रधार, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक आदि महत्वपूर्ण हैं। युक्तिकल्पतरू और समरांगणसूत्रधार वास्तुशास्त्र के ग्रंथ हैं। उसकी रानी अरून्धती भी एक उच्चकोटि की विदुषी थी।
भोज की राजसभा में भाष्कर भट्ट, दामोदर मिश्र और धनपाल जैसे विद्वान् रहते थे। उसकी उदारता और दानशीलता के संबंध में कहा जाता है कि वह प्रत्येक कवि को उसके प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्राएँ देता था। भोज की मृत्यु संभवतः 1055 ई. में हुई थी।
एक प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार भोज की मृत्यु से विद्या और विद्वान् दोनों ही निराश्रित हो गये थे-‘अद्यधारा निराधारा निरावलंब सरस्वती, पंडित खंडिता, सर्वे भोजराज दिवंगते’ अर्थात् भोजराज के निधन हो जाने से आज धारा नगरी निराधार हो गई है। सरस्वती बिना किसी अवलंब के हो गई है और सभी पंडित खंडित हो गये हैं।
परवर्ती परमार शासक
भोज की मृत्यु के साथ ही परमार वंश के गौरव का भी अंत हो गया। भोज के उत्तराधिकारी लगभग 1310 ई. तक स्थानीय शासकों की हैसियत से शासन करते रहे, परंतु उनके शासनकाल का कोई राजनैतिक महत्व नहीं है। परवर्ती परमार शासकों का इतिहास इस प्रकार है-
जयसिम्हा या जयसिंह प्रथम (1055-1060 ई.)
भोज की मृत्यु के बाद जयसिम्हा प्रथम 1055 ई. के आसपास परमार वंश की गद्दी पर बैठा, जो संभवतः उसका पुत्र था। जयसिम्हा का उल्लेख केवल 1055-56 ई. के मंधाता ताम्रलेख में मिलता है। इसमें उसके पूर्ववर्तियों भोज, सिंधुराज और वाक्पतिराज का उल्लेख है और जयसिम्हा की उपाधि के साथ उसका नाम ‘परमभट्टरक महाराजाधिराज परमेश्वर जयसिंहदेव’ मिलता है। किसी अन्य परमार शिलालेख में जयसिंह का उल्लेख नहीं है। उदयपुर प्रशस्ति और नागपुर प्रशस्ति में भोज के बाद राजा के रूप में भोज के भाई उदयादित्य का उल्लेख है।
ऐसा लगता है कि भोज की मृत्यु के बाद कलचुरी राजा कर्ण और चालुक्य राजा भीम प्रथम के संघ ने मालवा पर हमला किया था। ऐसी परिस्थिति में लगता है कि जयसिम्हा और उदयादित्य परमार सिंहासन के प्रतिद्वंद्वी दावेदार थे, और जयसिम्हा चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम और उसके पुत्र राजकुमार विक्रमादित्य षष्ठ की सहायता से परमार सिंहासन पर बैठा था। कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के दरबारी कवि बिल्हण लिखा है कि उनके संरक्षक ने मालवा में एक राजा का शासन को फिर से स्थापित करने में मदद की थी। यद्यपि बिल्हण ने मालवा के राजा का नाम नहीं लिया, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वह जयसिम्हा ही था।
किंतु कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर द्वितीय के सिंहासनारूढ़ होते ही स्थिति बदल गई। सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के बाद चालुक्य राजकुमारों- सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ के बीच उत्तराधिकार का युद्ध हुआ था। सोमेश्वर द्वितीय ने जयसिम्हा को विक्रमादित्य का सहयोगी माना और जयसिंह को गद्दी से हटाने के लिए कर्ण तथा कुछ अन्य राजाओं के साथ गठबंधन कर मालवा पर आक्रमण किया। युद्ध में जयसिम्हा पराजित हुआ और मारा गया।
उदयादित्य (1060-1087 ई.)
जयसिंह प्रथम के बाद भोज का भाई उदयादित्य परमार वंश का शासक हुआ। किंतु उदयपुर प्रशस्ति और नागपुर शिलालेख में भोज की मृत्यु के बाद ही उदयादित्य का परमार राजा के रूप में उल्लेख मिलता है।
उदयादित्य को प्रारंभ में कलचुरि राजा कर्ण के विरुद्ध संघर्ष में सफलता नहीं मिली, किंतु बाद में उसने मेवाड़ के गुहिलोतों, नड्डुल तथा शाकम्भरी के चाहमानों से वैवाहिक संबंध स्थापित की अपनी स्थिति सुदृढ़ की और शाकम्भरी के चाहमान नरेश विग्रहराज की सहायता से कर्ण को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त कराया।
उदयादित्य के शासनकाल के दौरान कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ ने परमार साम्राज्य पर आक्रमण किया और गोदावरी नदी के दक्षिण में क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
उदयादित्य ने भिलसा के पास उदयपुर नामक नगर बसाया और वहाँ नीलकंठेश्वर के मंदिर का निर्माण करवाया। इंदौर के एक गाँव में बहुत से जैन और हिंदू मंदिर हैं, जिनमें से अधिकांश का निर्माण संभवतः उदयादित्य ने कराया था। उदयादित्य के तीन पुत्र लक्ष्मदेव, नरवर्मन्, जगदेव और एक पुत्री श्यामलदेवी थी।
लक्ष्मदेव या लक्ष्मणदेव (1087-1092 ई.)
उदयादित्य का उत्तराधिकारी उसका बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव हुआ। किंतु कुछ इतिहासकार मानते हैं कि लक्ष्मदेव कभी राजा नहीं बना और उदयादित्य ने लक्ष्मदेव के भाई नरवर्मन् को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, क्योंकि लक्ष्मदेव का नाम जयवर्मन् द्वितीय के 1274 ई. के मंधाता ताम्रलेख में वर्णित परमार राजाओं की सूची में नहीं ह और उदयादित्य के उत्तराधिकारी के रूप में नरवर्मन् को सूचीबद्ध किया गया है।
1104-1105 ई. के नागपुर प्रशस्ति में लक्ष्मदेव को चार दिशाओं की विजय का श्रेय दिया गया है। यद्यपि इसे रघुवंश में वर्णित पौराणिक राजा रघु की विजय पर आधारित एक काव्यात्मक अतिशयोक्ति मात्र माना जाता है। फिर भी, ऐसा लगता है कि त्रिपुरी के कलचुरी अपने राजा कर्ण की मृत्यु के बाद कमजोर हो गये थे और लक्ष्मणदेव ने उसके उसके उत्तराधिकारी कलचुरि नरेश यशःकर्ण को पराजित कर मालवा के समीपवर्ती कुछ क्षेत्रों को जीत लिया था।
संभवतः उसने पालों की दुर्बलता का लाभ उठाकर बिहार तथा बंगाल में स्थित कुछ पाल क्षेत्रों पर भी आक्रमण किया था। किंतु तुरुष्कों (तुर्कों) के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिली और महमूद ने उज्जैन पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया।
नरवर्मन् (1092-1134 ई.)
लक्ष्मदेव के बाद उसका छोटा भाई नरवर्मन् राजा बना, जिसे नरवर्मादेव के नाम से भी जाना जाता है। नरवर्मन् परमार नरेश उदयादित्य का पुत्र था। उसने ‘निर्वाणनारायण’ की उपाधि धारण की थी।
कुछ परवर्ती परमार लेखों में नरवर्मन् को सभी दिशाओं में विजय का श्रेय दिया गया है, जैसे मालवा के एक खंडित शिलालेख में कहा गया है कि ‘निर्वाणनारायण’ (नरवर्मन्) ने उत्तर में हिमालय, दक्षिण में मलयाचल और पश्चिम में द्वारिका तक के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की’। किंतु ऐसे विवरण मात्र पारंपरिक काव्यात्मक अतिशयोक्ति हैं। वास्तव में, नरवर्मन् एक दुर्बल शासक था और उसे न केवल उसके कई पड़ोसियों ने हराया था, बल्कि उसे अपने अधीनस्थों के विद्रोह का भी सामना करना पड़ा था।
ऐसा लगता है कि जेजाकभुक्ति के चंदेल शासक मदनवर्मन् ने नरवर्मन् को पराजित कर मालवा के उत्तर-पूर्व के भिलसा क्षेत्र के परमार राज्य पर अधिकार कर लिया था। उसे उत्तर-पश्चिम में शाकंभरी के चाहमानों के विरूद्ध भी हार का सामना करना पड़ा था।
उत्तर-पश्चिम में नरवर्मन् को चाहमान शासकों- अजयराज तथा उसके पुत्र अर्णोराज ने पराजित किया था, क्योंकि बिजौलिया लेख में कहा गया है कि अजयराज के पुत्र अर्णोराज ने निर्वाणनारायण (नरवर्मन्) का अपमान किया था।
चालुक्यों के तलवाड़ा शिलालेख से पता चलता है कि पश्चिम में अन्हिलवाड़ के चालुक्य शासक जयसिंह सिद्धराज ने नड्डुल के चाहमानों के सहयोग से नरवर्मन् के राज्य पर कई बार आक्रमण कर पराजित किया था।
कुछ स्रोतों से पता चलता है कि चालुक्य राजा ने नरवर्मन् को कैद किया था और कुछ स्रोत बताते हैं कि नरवर्मन् का उत्तराधिकारी यशोवर्मन् कैद हुआ था। इससे लगता है कि चालुक्य-परमार युद्ध नरवर्मन् के शासनकाल में शुरू हुआ और यशोवर्मन् के शासन के दौरान समाप्त हुआ था। इस प्रकार नरवर्मन् की पराजयों के कारण परमारों की शक्ति बहुत कमजोर हो गई।
सांस्कृतिक दृष्टि से नरवर्मन् का शासनकाल महत्वपूर्ण था। वह स्वयं विद्वान् और कवि था। उसने अनेक भजनों की रचना के साथ-साथ संभवतः नागपुर प्रशस्ति की भी रचना की थी। उसने निर्माण-कार्यों में भी रुचि ली और उज्जैन के महाकाल मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। नरवर्मन् द्वारा जारी किये गये सोने, चांदी और ताँबे के सिक्के इंदौर से पाये गये हैं।
यशोवर्मन् (1134-1142 ई.)
नरवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र यशोवर्मन् हुआ। 1135 ई. के संस्कृत भाषा के उज्जैन अभिलेख में उसका उल्लेख ‘महाराजा यशोवर्मादेव’ के रूप में मिलता है। चालुक्यों के आक्रमण के कारण यशोवर्मन् अपने साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं रख सका, जिससे परमार साम्राज्य बिखरता गया। औगासी अनुदान शिलालेख से ज्ञात होता है कि 1134 ई. तक चंदेल राजा मदनवर्मन् ने परमार राज्य के पूर्वी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था।
चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने नड्डुल के चाहमान आशाराज के साथ मिलकर परमार राज्य पर आक्रमण किया और यशोवर्मन् को बंदी बना लिया। 1139 ई. के दाहोद शिलालेख में भी कहा गया है कि जयसिंह ने मालवा के राजा (परमार क्षेत्र) को कैद किया था। इस विजय के परिणामस्वरूप जयसिंह ने राजधानी धारा सहित परमार साम्राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया और महादेव को अवंति मंडल (मालवा) का राज्यपाल नियुक्त किया। 1137 ई. के गाला शिलालेख से भी सूचना मिलती है कि मालवा पर अधिकार कर जयसिंह ने ‘अवंतिनाथ’ की उपाधि धारण की थी।
1134 ई. के एक शिलालेख में यशोवर्मन् की उपाधि ‘महाराजाधिराज’ मिलती है, लेकिन 1135 ई. के एक दूसरे शिलालेख में उसे ‘महाराजा’ कहा गया है। इससे लगता है कि इस अवधि के दौरान यशोवर्मन् अपनी संप्रभुता खोकर चालुक्यों के अधीनस्थ सामंत के रूप में निचली काली सिंधु घाटी में एक छोटे-से हिस्से पर शासन करने लगा था। इस प्रकार धारा और उज्जैन 1136-1143 ई. के दौरान चालुक्यों के नियंत्रण में बने रहे।
जयवर्मन् प्रथम (1142-1155 ई.)
यशोवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जयवर्मन् हुआ, जिसे अर्जुनवर्मन् के पिपलियानगर शिलालेख में ‘अजयवर्मन्’ कहा गया है। चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज के 1138 ई. के उज्जैन शिलालेख से स्पष्ट है कि यशोवर्मन् के शासनकाल में पश्चिम के चालुक्यों ने परमार साम्राज्य के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था। परमार शक्ति को पूरब में चंदेलों और दक्षिण में चालुक्यों से भी खतरा था। फिर भी, एक अनुदान शिलालेख से ज्ञात होता है कि जयवर्मन् 1142-1143 ईस्वी के आसपास मालवा की राजधानी धारा पर पुनः अधिकार करने में सफल हो गया था।
लेकिन कुछ समय बाद ही कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल एवं होयसल शासक नरसिंहवर्मन् प्रथम ने चालुक्य नरेश जयसिंह की शक्ति को नष्ट कर मालवा पर अधिकार कर लिया और अपनी ओर से बल्लाल को मालवा का राज्यपाल नियुक्त किया। पराजित जयवर्मन् अपने दक्षिण-पूर्वी पड़ोसी त्रिपुरी के कलचुरियों के क्षेत्र के निकट भोपाल क्षेत्र में चला गया।
जयवर्मन् के बाद परमार शासकों की वंशावली स्पष्ट नहीं है, क्योंकि विभिन्न शिलालेखों में उनके उत्तराधिकारियों के संबंध में अलग-अलग सूचनाएँ मिलती हैं।
जयवर्मन् की मृत्यु के बाद परमार क्षेत्र पर बल्लाल का शासन था। बल्लाल को 1160 ई. वेरावल शिलालेख में धारा का राजा, माउंट आबू शिलालेख में मालवा का राजा और हेमचंद्र के दिव्याश्रय काव्य में अवंती का राजा बताया गया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार वह होयसलों या कल्याणी के चालुक्यों का सामंत या प्रांतपति था।
किंतु 1150 के दशक में चालुक्य जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने बल्लाल को अपदस्थ पर भिलसा तक के संपूर्ण परमार क्षेत्र पर फिर से अधिकार कर लिया और इस प्रकार मालवा गुजरात के चालुक्य राज्य का एक प्रांत बन गया।
इस दौरान लगता है कि ‘महाकुमार’ की उपाधिधारी परमार भोपाल के आसपास के क्षेत्रों में शासन कर रहे थे क्योंकि इस क्षेत्र से उनके शिलालेख पाये गये हैं। वास्तव में जयवर्मन् के समय में ही परमार भोपाल क्षेत्र में चले गये थे क्योंकि एक शिलालेख के अनुसार उसने महाद्वादशक-मंडल क्षेत्र में भूमि अनुदान दिया था। संभवतः चालुक्यों के विरूद्ध संघर्ष में 1155 ई. के आसपास जयवर्मन् की मृत्यु हो गई, और उसके बाद ‘महाकुमार’ उपाधिधारी लक्ष्मीवर्मन्, उसके पुत्र हरिश्चंद्र और फिर उसके पोते उदयवर्मन् ने भोपाल के आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। इन अर्धस्वतंत्र महाकुमारों ने अपने पैतृक परमार राज्य को पुनः प्राप्त करने का कोई प्रयत्न नहीं किया।
विंध्यवर्मन् (1175-1193 ई.)
लगभग दो दशक बाद संभवतः 1175 के आसपास जयवर्मन् का पुत्र विंध्यवर्मन परमार गद्दी पर बैठा। उसने चालुक्य राजा मूलराज द्वितीय को पराजित कर पूर्वी परमार क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया। अर्जुनवर्मन् प्रथम के एक शिलालेख से पता चलता है कि विंध्यवर्मन् ने गुजरात के राजा को हराया था।
यद्यपि विंध्यवर्मन् के समय में भी मालवा पर होयसलों और देवगिरी के यादवों के आक्रमण होते रहे और उसे चालुक्य सेनापति कुमार से पराजित होना पड़ा, फिर भी, वह अपनी मृत्यु से पहले 1192 ई. तक मालवा में परमार संप्रभुता की पुनर्स्थापना में सफल हो गया।
विंध्यवर्मन के कवि-मंत्री बिल्हण ने विष्णुस्तोत्र की रचना की, किंतु यह बिल्हण संभवतः 11वीं शताब्दी के कवि बिल्हण का पुत्र या पौत्र था। इस परमार नरेश ने जैन विद्वान् आचार्य महावीर को संरक्षण दिया था।
सुभटवर्मन् (1193-1210 ई.)
विंध्यवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र सुभटवर्मन् हुआ, जिसे सोहदा के नाम से भी जाना जाता है। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि इस समय तुर्क आक्रमणों के कारण चालुक्यों की शक्ति क्षीण हो गई थी, जिसका लाभ उठाकर सुभटवर्मन् ने 1204 ईस्वी के आसपास लाट क्षेत्र (दक्षिणी गुजरात) पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया। इसके बाद सुभटवर्मन् ने चालुक्यों को पराजित कर उनकी राजधानी अन्हिलवाड़ को आक्रांत किया और दरभावती (डभोई) पर कब्जा कर लिया। इतना ही नहीं, सुभटवर्मन् गुजरात के नगरों को लूटता हुआ और मंदिरों तथा मस्जिदों कों नष्ट करता हुआ अपनी सेना के साथ सोमनाथ तक बढ़ गया, लेकिन अंततः उसे चालुक्य नरेश भीम के सामंत लवनप्रसाद ने पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इसकी पुष्टि सोमेश्वर द्वारा रचित लवन के डभोई प्रशस्ति से भी होती है।
एक शिलालेख से सूचना मिलती है कि संभवतः यादव राजा जैतुगी ने मालवों (अर्थात परमारों) को पराजित किया था। ऐसा लगता है कि जब सुभटवर्मन् गुजरात अभियान में व्यस्त था, उसी समय यादव सेनापति सहदेव ने मालवा पर छापा मारा था या कोई सीमावर्ती झड़प हुई थी। सुभटवर्मन् ने विष्णु मंदिर को दो बाग दान दिया था।
अर्जुनवर्मन् प्रथम (1210-1218 ई.)
सुभटवर्मन् के बाद उसका पुत्र अर्जुनवर्मन् मालवा का राजा हुआ। धार प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अर्जुन ने चौलुक्य जयसिंह को पर्व पर्वत घाटी (संभवतः पावागढ़) में हराया था और उसकी पुत्री जयश्री से विवाह किया था। 14वीं सदी के लेखक मेरुतुंग ने अर्जुनवर्मन् को ‘गुजरात का विध्वंसक’ कहा है। वास्तव में अर्जुन ने जयंतसिम्हा (जयसिंह) को पराजित कर कुछ समय के लिए चौलुक्य (सोलंकी) सिंहासन पर कब्जा कर लिया। अर्जुन के 1211 ई. के पिपलियानगर अनुदान में भी जयंत पर उसकी जीत उल्लेख मिलता है।
अर्जुनवर्मन् के शासनकाल में यादव शासक सिंहण ने लाट (दक्षिणी गुजरात) पर आक्रमण किया, लेकिन अर्जुन के चाहमान सेनापति सलखानसिंह ने उसे पराजित कर दिया। बाद में, यादव राजा के सेनापति खोलेश्वर ने परमारों को लाट में हरा दिया। संभवतः किसी यादव आक्रमण के परिणामस्वरूप ही अर्जुनवर्मन् की हार और मृत्यु हुई थी।
अर्जुनवर्मन् को उसके शिलालेखों में प्रसिद्ध पूर्वज राजा भोज का पुनर्जन्म बताया गया है। उसने ‘त्रिविधवीरक्षमनि’ की उपाधि धारण की थी। वह विद्वानों का संरक्षक था, और स्वयं भी विद्वान् तथा कुशल कवि था। उसने स्वयं ‘अमरुशतक’ पर एक टीका लिखी। मदन, आशाराम जैसे विद्वान् उसके दरबार की शोभा थे। अर्जुनवर्मन् के शासनकाल में ‘पारिजातमुंज’ नामक नाटक लिखा गया, जो आज पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं है, लेकिन पाषाण-स्तंभों पर उत्कीर्ण कराये जाने के कारण उसके कुछ अंश अब भी मिलते हैं।
देवपाल (1218-1239)
अर्जुनवर्मन् के बाद देवपाल शासक हुआ, किंतु वह अर्जुनवर्मन् का पुत्र न होकर एक भोपाल क्षेत्र के ‘महाकुमार’ उपाधिधारी परमार शाखा के प्रमुख हरिश्चंद्र का पुत्र था। देवपाल के शासनकाल में भी परमारों का चालुक्यों (सोलंकी) और देवगिरी के यादवों के साथ संघर्ष चलता रहा। यादव राजा सिंहण ने लाट पर आक्रमण कर परमार सामंत संग्रामसिंह को हराया।
13वीं शताब्दी के मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने 1233-34 ई. के दौरान भिलसा पर अधिकार कर लिया। लेकिन देवपाल के पुत्र जयवर्मन् द्वितीय के 1274 ई. के शिलालेख में कहा गया है कि देवपाल ने भैलस्वामिन नगर के पास एक म्लेच्छ (मुस्लिम गवर्नर) को मार डाला। जयवर्मन् के शासनकाल का 1263 ई. का एक शिलालेख भिलसा में भी मिला है। इससे प्रतीत होता है कि देवपाल ने सल्तनत के गवर्नर को पराजित कर भिलसा पर पुनः अधिकार कर लिया था। जैन लेखक नयाचंद्र सूरी के हम्मीर महाकाव्य के अनुसार देवपाल रणथंभौर के वागभट्ट द्वारा मारा गया था।
परमार सत्ता का अंत
देवपाल का उत्तराधिकारी जैतुगिदेव (1239-1256 ई.) हुआ जिसने ‘बालनारायण’ की उपाधि धारण की। इसके शासनकाल का कोई अभिलेख नहीं मिला है। जैतुगिदेव को यादव राजा कृष्ण, दिल्ली सुल्तान बलबन और वघेला राजकुमार विशालदेव के आक्रमणों का सामना करना पड़ा।
जैतुगिदेव के उत्तराधिकारी जयवर्मन् या जयसिंह द्वितीय (1256-1274 ई.) को मंधाता ताम्रलेख (1274 ई.) में ‘जयवर्मन्’ या ‘जयसिंह’ आदि कहा गया है। जयवर्मन के कई शिलालेखों में उल्लेख है कि वह मंडप-दुर्गा (वर्तमान मांडू) में रहता था। संभवतः जयवर्मन् या उसके पूर्ववर्ती जैतुगी सामरिक सुरक्षा के कारण पारंपरिक परमार राजधानी धारा को छोड़कर मांडू तक चले गये थे।
इस समय तक दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन के सेनापति बलबन परमार क्षेत्र की उत्तरी सीमा तक पहुँच चुके थे। लगभग उसी समय जयवर्मन् को यादव राजा कृष्ण और वघेला राजा विशालदेव के आक्रमणों का सामना करना पड़ा था, जिसके कारण परमारों की शक्ति क्षीण हो गई।
जयवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र अर्जुनवर्मन् द्वितीय (1274-1283 ई.) था, जिसे अर्जुन भी कहा गया है। अर्जुन द्वितीय एक कमजोर शासक था। 1275 ई. के आसपास किसी परमार मंत्री, संभवतः गोगा ने, अर्जुन के विरूद्ध विद्रोह किया। लेखों से पता चलता है कि 1270 के दशक में देवगिरी के यादव राजा रामचंद्र ने और 1280 के दशक में रणथंभौर के चाहमान शासक हम्मीर ने मालवा पर आक्रमण किया था।
जैन कवि नयाचंद्र सूरी के हम्मीर महाकाव्य में कहा गया है कि हम्मीर ने सरसापुर के अर्जुन और धारा के भोज को हराया था। संभवतः अर्जुन द्वितीय के मंत्री गोगादेव ने परमार राजधानी धारा पर अधिकार कर नाममात्र के राजा के रूप में भोज द्वितीय (1283-1295 ई.) को सिंहासनारूढ़ किया था और अर्जुन द्वितीय राज्य के दूसरे हिस्से पर शासन कर रहा था। 16वीं सदी के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार गोगा ‘मालवा का राजा’ था।
भोज द्वितीय का उत्तराधिकारी महालकदेव (1295-1305 ई.) अंतिम ज्ञात परमार राजा है। दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने 1305 ई. में मालवा के परमार क्षेत्र पर आक्रमण किया। अमीर खुसरो के तारीख-ए अलाई से पता चलता है कि राय महलकदेव और प्रधान कोकाप्रभु (गोगा) ने खिलजी सेना का सामना किया। किंतु खुसरो के अनुसार दिल्ली की इस्लाम सेना ने परमार सेना को हरा दिया और पृथ्वी को हिंदू रक्त से सिक्त कर दिया। इस संघर्ष में गोगा और महलकदेव दोनों मारे गये।
किंतु यह निश्चित नहीं है कि मालवा पर दिल्ली की सेना ने कब अधिकार किया, क्योंकि उदयपुर के एक शिलालेख से संकेत मिलता है कि परमार वंश 1310 ई. तक कम से कम मालवा के उत्तर-पूर्वी भाग में शासन कर रहा था। 1338 ई. के एक शिलालेख से इतना अवश्य पता चलता है कि यह क्षेत्र दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के अधिकार में था।
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