थेरवाद (स्थविरवाद)
बौद्ध धर्म का प्रमुख स्वरूप थेरवाद (स्थविरवाद) है। थेरवादी प्राचीन बौद्ध धर्म के पालि धर्म-ग्रंथों को प्रामाणिक मानते हैं और अपनी वंशावली को ‘अग्रजों’ (संस्कृत में ‘स्थविर’ और पालि में ‘थेर’) से जोड़ते हैं। इस मत को ‘अग्रजों का मार्ग’ या ‘प्रधानवाद’ भी कहा जाता है।
थेरवादी लोक परंपराओं का पालन और अनुसरण करते थे, और समय के साथ परंपराओं में परिवर्तन या परिवर्धन को स्वीकार नहीं करते थे। इसलिए उन्हें रूढ़िवादी कहा गया। थेरवाद में सामान्य मानव और भिक्षु की भूमिका में स्पष्ट भेद किया गया है। इनके अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति सभी के लिए संभव नहीं है। इनका प्रमुख केंद्र कश्मीर था। थेरवाद मत श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया, और लाओस में प्रचलित है। इस कारण इसे ‘दक्षिणी शाखा’ के नाम से भी जाना जाता है।

महासांघिक
बौद्ध संघ में पहला विभाजन चौथी शताब्दी ई.पू. में वैशाली की दूसरी परिषद में हुआ, जब एक समूह स्थविरवादियों (थेरवादियों) से अलग होकर महासांघिक के रूप में जाना गया। महासांघिकों ने तर्क के आधार पर यह माना कि प्रत्येक व्यक्ति में बुद्धत्व प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति होती है और समय व संयोग से सभी को बुद्धत्व की प्राप्ति हो सकती है। इनका प्रमुख केंद्र मगध था। सामान्यतः स्वीकार किया जाता है कि महासांघिक धारा ने महायान के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हीनयान
हीनयान शाखा के अनुयायी बुद्धवचन को ही प्रामाणिक मानते थे। इस संप्रदाय के सिद्धांत सादे और सरल हैं, जैसा कि गौतम बुद्ध ने उपदेश दिया था। बुद्ध को एक महापुरुष माना गया, न कि कोई अलौकिक या अवतारी सत्ता। हीनयान अनीश्वरवादी और कर्मप्रधान दर्शन है। यह मानता है कि भाग्यवाद जीवन का शत्रु है, इसलिए हीनयानियों ने स्वावलंबन पर विशेष बल दिया। इनके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त करना चाहिए।
बुद्ध ने स्वयं कहा था कि सभी पदार्थ नाशवान हैं। जीवन दुखमय और क्षणभंगुर है। इन दुखों से मुक्ति और शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए स्वयं को ही प्रयास करना होगा। हीनयान का लक्ष्य केवल अपने लिए अर्हत्व की प्राप्ति है, जिसका आधार अष्टांगिक मार्ग है। हीनयान शाखा के अनुयायियों ने बुद्ध की प्रतिमा बनाने के बजाय रिक्त स्थान या पद-चिह्नों को ही बुद्ध का प्रतीक माना।
हीनयान को ‘श्रावकयान’ भी कहा जाता है। श्रावक वह व्यक्ति है, जो जीवन के दुखों से त्रस्त होकर निर्वाण के पथ पर अग्रसर होता है। श्रावक की चार अवस्थाएँ हैं-
स्रोतापन्न: यह वह श्रावक है, जो व्यक्तित्व के विकास-क्रम के स्रोत में प्रवाहमान होता है। उसे चार प्रकार की संबोधि- बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, संघानुस्मृति और शीलानुस्मृति प्राप्त हो सकती है। इनके माध्यम से उसे बुद्ध, धर्म, संघ और शील की अनुभूति होती है। ऐसे व्यक्ति को सात जन्मों के बाद निर्वाण की प्राप्ति होती है।
सकृदागामी: यह वह अवस्था है, जिसमें स्रोतापन्न श्रावक अपने क्लेशों का विनाश कर लेता है। ऐसे व्यक्ति को एक जन्म में ही निर्वाण प्राप्त हो जाता है।
अनागामी: यह वह श्रावक है, जो वर्तमान जीवन में ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
अर्हत्: जब श्रावक को निर्वाण प्राप्त हो जाता है, तब उसे अर्हत् की संज्ञा दी जाती है।
इस प्रकार हीनयान में बौद्ध धर्म का प्राचीन रूप दिखाई देता है। इसकी मुख्य आस्था कर्म और धर्म में थी। हीनयान में बुद्ध, धम्म और संघ को अत्यधिक महत्त्व दिया गया। इस शाखा के धार्मिक ग्रंथ पालि भाषा में हैं, जो बुद्ध के समय लोकभाषा थी। हीनयान में आराधना और उपासना का अभाव होने के कारण यह जनसाधारण में उतना लोकप्रिय नहीं हुआ। यह मत म्यांमार, श्रीलंका और कंबोडिया आदि देशों में अधिक प्रचलित है।
महायान
महायान का अर्थ है ‘वृहद् यान’ या ऐसा प्रशस्त मार्ग, जिसके माध्यम से अधिक से अधिक प्राणियों को निर्वाण का सुख प्राप्त हो सके। बौद्ध धर्म की इस शाखा को एकयान, अग्रयान, बोधिसत्त्वयान और बुद्धयान के साथ-साथ ‘उत्तरी बौद्ध धर्म’ भी कहा जाता है। वर्तमान में विश्व के अधिकांश भागों में महायान मत के अनुयायी बौद्धों की संख्या अधिक है। यह चीन, तिब्बत, कोरिया और मंगोलिया आदि देशों में प्रचलित है।
महासांघिकों से ही अवांतर परिवर्तनों के बाद महायान का उदय हुआ। पहली शताब्दी ई.पू. में वैशाली की दूसरी बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को संघ से निष्कासित कर दिया था। उसी समय अलग हुए पूर्वी शाखा के भिक्षुओं ने अपना संघ बनाकर स्वयं को महासांघिक और थेरवादियों को हीनसांघिक नाम दिया, जो बाद में क्रमशः महायान और हीनयान के रूप में विकसित हुए। महायानियों का कहना है कि वास्तविक बुद्धदेशना, जो विनय और सूत्र में उपलब्ध है और धर्मता के अनुकूल है, महायान में ही निहित है।
महायान का द्वार सभी प्राणियों के लिए खुला था, यहाँ तक कि गृहस्थ भी इसके अनुयायी हो सकते थे। प्रत्येक व्यक्ति बोधिचर्या अर्थात् करुणा, मुदिता, मैत्री और उपेक्षा के आचरण द्वारा, या दान, शील, क्षांति, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा नामक छह पारमिताओं की साधना द्वारा बुद्धत्व के पथ पर अग्रसर हो सकता है। किंतु वह स्वयं बुद्ध नहीं बनना चाहता, क्योंकि उसका अकेले बुद्धत्व प्राप्त करने से कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि उसके साथी सांसारिक दुखों से मुक्त होकर निर्वाण की ओर अग्रसर न हों। वह चिंतन करता है कि उसने जो भी पुण्य अर्जित किया है, वह सभी प्राणियों की कल्याण-सिद्धि के लिए उपयोग हो।
महायान ने बुद्ध को ईश्वरतुल्य माना और बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व की अवधारणा को समाहित किया, जिसके परिणामस्वरूप बुद्ध और बोधिसत्त्वों की उपासना शुरू हुई। इस पूजा में वंदना, अर्चना, पापदेशना (अपने पापों को स्वीकार करना), पुण्यानुमोदन (सभी प्राणियों के प्रति पुण्य की भावना), बुद्धाध्येषण (सर्वदा बोधि की खोज में रहने की इच्छा), बुद्धयाचना (अपने पुण्यों के कारण सभी प्राणियों के कल्याण की कामना) और बोधि-परिणामना (पूजा की सर्वोच्च स्थिति) शामिल हैं। कालांतर में यही मूर्तिपूजा का आधार बना।
इस संसार के असंख्य लोकों के लिए अनगिनत बुद्धों की परिकल्पना की गई। प्रारंभ में बुद्धों की संख्या छह थी, जो बाद में चौबीस हुई और कालांतर में असंख्य हो गई। प्रत्येक बुद्ध के दो सहायक बोधिसत्त्व माने गए, जो संपूर्ण मानवता को सद्धर्म की ओर प्रेरित करते हैं। बोधिसत्त्वों में अवलोकितेश्वर सर्वाधिक पूजनीय हैं। महायानियों के अनुसार, जब तक सभी मनुष्यों को निर्वाण प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक वे बुद्धत्व प्राप्त नहीं करेंगे। अन्य प्रमुख बोधिसत्त्वों में मैत्रेय और मंजुश्री आदि शामिल हैं।
महायान संप्रदाय में भिक्षुओं के अतिरिक्त गृहस्थों के लिए भी सामाजिक उन्नति का मार्ग निर्धारित किया गया। इस संप्रदाय के अंतर्गत गृहस्थ जीवन अपनाकर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। गृहस्थ उपासकों के लिए निर्वाण प्राप्ति की यह व्यवस्था हीनयान में नहीं थी, यही कारण है कि महायान का अपेक्षाकृत अधिक प्रसार हुआ।
महायान मतावलंबियों का कहना था कि गृहस्थों में दान की भावना तृष्णा, भय, और चिंता को दूर करती है। इसलिए गृहस्थ को अत्यधिक दान देना चाहिए। गृहस्थ को पुत्र को शत्रु मानना चाहिए, क्योंकि वह अत्यधिक प्रेम और आकर्षण का पात्र है, जिसके कारण पिता बुद्धवचन से विमुख हो सकता है। प्रेम उचित मार्ग से विचलित कर देता है। गृहस्थ को सांसारिक वस्तुओं का त्याग करना चाहिए, ताकि मृत्यु के समय वह तृष्णारहित सुख का अनुभव कर सके।
महायान भक्तिप्रधान मत है, और इसी के प्रभाव से बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण शुरू हुआ। भरहुत, बोधगया, और साँची की कला प्रतीकात्मक थी। मूर्तिपूजा के प्रचलन के कारण प्रतीकों के स्थान पर बुद्ध और बोधिसत्त्वों की प्रतिमाएँ बनने लगीं। कनिष्क के समय में सर्वप्रथम गांधार कला शैली में बुद्ध मूर्तियाँ निर्मित हुईं। बुद्ध को योगी और भिक्षु के रूप में, जबकि बोधिसत्त्वों को राजकुमार के वेश में (वस्त्रालंकार युक्त) दर्शाया गया।
बुद्ध की प्रतिमाएँ ध्यान और बुद्धत्व प्राप्ति की अवस्था में चित्रित की गईं। महायानियों ने विश्व भर में बुद्ध की मूर्तियों और प्रार्थना के लिए स्तूपों का निर्माण किया। यूनानी, ईसाई, पारसी और अन्य धर्मावलंबी महायानियों की पूजा-पद्धति, स्तूप-रचना, संघ-व्यवस्था, रहन-सहन और पहनावे से प्रभावित थे। महायान मत के प्रमुख विचारक अश्वघोष, नागार्जुन, और असंग आदि थे।
बौद्ध संघ की स्थापना
बौद्ध धर्म में संघ ‘त्रिरत्न’ (बुद्ध, धम्म, संघ) का एक अनिवार्य अंग है। बुद्ध ने सारनाथ में अपने धर्मोपदेश के बाद पंचवर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं के साथ भिक्षु-संघ की स्थापना की। इसके बाद वाराणसी में ही यश नामक श्रेष्ठिपुत्र, उनके पाँच तरुण मित्रों- विमल, सुबाहु, पुण्णजित, और गवांपतिकृतथा उनके पचास अन्य सगं-संबंधियों को बौद्ध संघ का सदस्य बनाया गया। इन साठ भिक्षुओं से ही बौद्ध संघ का प्रारंभ हुआ। इससे पहले आजीवकों और जैनियों के संघ विद्यमान थे।
संघ में शामिल होने वाले को भिक्षु कहा जाता था, जो घर-परिवार से संबंध-विच्छेद कर सन्यासी जीवन अपनाता था, भिक्षाटन से भोजन प्राप्त करता था, और घूम-घूमकर बुद्ध के उपदेशों का प्रचार करता था। भिक्षुओं को संघ के निर्धारित नियमों का पालन करना होता था, और उल्लंघन करने पर दंड का भागी होना पड़ता था। संघ का द्वार सभी के लिए खुला था, जिसमें सभी वर्ग और जाति के लोग बिना भेदभाव के शामिल हो सकते थे। किंतु शीघ्र ही बुद्ध ने सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अल्पवयस्कों (15 वर्ष से कम आयु), चोरों, हत्यारों, ऋणी व्यक्तियों, राजा के सेवकों, दासों, और रोगियों का संघ में प्रवेश वर्जित कर दिया। प्रारंभ में स्त्रियों को संघ में प्रवेश की अनुमति नहीं थी, परंतु बाद में भिक्षुणियों को भी संघ का सदस्य बनाया गया।
बुद्ध गणतांत्रिक प्रणाली में विश्वास करते थे, और उनका जन्म भी गणराज्य में हुआ था। उन्होंने गणतांत्रिक पद्धति के आधार पर संघ का संगठन किया। वे प्राचीन जनजातीय जीवन के सिद्धांतों को संघ के लिए उपयोगी मानते थे। वर्गविहीन जनजातीय जीवन में सामाजिक एकता, आपसी भाईचारा और संपत्ति-संग्रह के प्रति अनासक्ति संघ के नियमों (विनय) में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। संघ में न कोई बड़ा था, न कोई छोटा। बुद्ध ने अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया, बल्कि धर्म और विनय को ही शास्ता माना।
बौद्ध संगीतियाँ
संगीति का अर्थ है ‘परिषद् या सभा’ अथवा संगायन। बौद्ध संगीति से तात्पर्य उस संगोष्ठी, परिषद् या सम्मेलन से है, जो बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय बाद उनके उपदेशों को संग्रहीत करने, उनका पाठ (वाचन) या संगायन करने के उद्देश्य से आयोजित की गई थीं। इन्हें प्रायः ‘धम्मसंगीति’ कहा जाता है।

प्रथम धम्म संगीति
बुद्ध के परिनिर्वाण के तीन माह बाद, 483 ई.पू. में, मगध नरेश अजातशत्रु के संरक्षण में राजगृह (आधुनिक बिहार का राजगीर) की सप्तपर्णि गुफा के द्वार पर प्रथम धम्म संगीति का आयोजन हुआ। इसकी अध्यक्षता स्थविर महाकस्सप (महाकश्यप) ने की।
इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन कर उन्हें सुत्त और विनय नामक दो पिटकों में विभाजित किया गया। चूँकि इसमें पाँच सौ अर्हत् भिक्षु शामिल थे, इसलिए इसे ‘पंचशतिका’ कहा गया। महाकस्सप के सात मास तक किए गए प्रयासों ने बौद्ध धर्म को आगामी पाँच हजार वर्षों तक बनाए रखने के योग्य बना दिया।
दूसरी धम्म संगीति
दूसरी धम्म संगीति बुद्ध के महापरिनिर्वाण के एक शताब्दी बाद, चौथी शताब्दी ई.पू. में, मगध नरेश कालाशोक के संरक्षण में वैशाली के वालुकाराम (कूटागारशाला) में हुई।
यह संगीति विनय-नियमों के मतभेदों को समाप्त करने के लिए महास्थविर रेवत की मध्यस्थता में आयोजित हुई, जिसमें 700 पूर्वी और पश्चिमी अर्हत् भिक्षुओं ने भाग लिया। स्थविरों ने विनय-विरुद्ध दस वस्तुओं को मानने वाले वज्जिपुत्तकों को संघ से निष्कासित कर दिया।
निष्कासित वज्जिपुत्तकों ने स्थविर अर्हतों के बिना पाटलिपुत्र (या कोशांबी?) में एक अन्य महासंगीति आयोजित की और महासांघिक नाम से अपना पृथक् मत चलाया। इस प्रकार बौद्ध संघ स्पष्ट रूप से दो निकायों- स्थविरवादी और महासांघिक में विभक्त हो गया। कालांतर में स्थविरवाद से सत्रह और वाद निकले, जिससे बौद्ध संघ अठारह निकायों में विभाजित हो गया।
तीसरी बौद्ध संगीति
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार, बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद, 249 ई.पू. में, मौर्य सम्राट अशोक के संरक्षण में पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध संगीति संपन्न हुई। यह संगीति स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में अशोकाराम विहार में हुई। इसमें अभिधम्म (श्रेष्ठधर्म) के एक भाग के रूप में ‘कथावत्थु’ का संकलन किया गया।
इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं का पुनर्विभाजन कर एक नया पिटक ‘अभिधम्म’ जोड़ा गया। इस प्रकार त्रिपिटक (सुत्त, विनय और अभिधम्म) को अंतिम रूप प्रदान किया गया।
इस सभा का सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भिक्षुओं को भेजना था, जिसके परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म श्रीलंका, सुवर्णभूमि, म्यांमार, थाईलैंड, लाओस और कंबोडिया आदि में फैल गया।
चतुर्थ बौद्ध संगीति
चतुर्थ बौद्ध संगीति पहली शताब्दी ई. (लगभग 78 ई.) में कनिष्क के शासनकाल में कश्मीर के कुंडलवन या जालंधर के ‘कुवन’ (तारानाथ के अनुसार) में आयोजित की गई। इसकी अध्यक्षता आचार्य वसुमित्र और उपाध्यक्षता अश्वघोष ने की। इसमें त्रिपिटक के प्रामाणिक पाठ और उसके भाष्यों पर संस्कृत में ‘महाविभाषा’ नामक विशाल ग्रंथ की रचना की गई, जिसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कर एक स्वर्ण-पिटारी में बंद किया गया और उस पर एक विशाल स्तूप बनवाया गया। इस स्तूप के स्थान की पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। इस संगीति में बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से दो शाखाओंकृहीनयान और महायानकृमें विभाजित हो गया। इसके बाद अनेक धर्म-प्रचारक मध्य एशिया, तिब्बत और चीन आदि देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने गए।
लंका द्वीप की पुस्तकारोपण संगीति
एक अन्य चतुर्थ संगीति बुद्ध के परिनिर्वाण के 450 वर्ष बाद, ताम्रपर्णि (लंका द्वीप) में वट्टगामणि अभय (103-77 ई.पू.) के शासनकाल में, महास्थविर धर्मरक्षित की अध्यक्षता में मातुल जनपद की आलोक लेन गुफा में आयोजित की गई। इसमें समस्त बुद्धवचनों को पहली बार ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया गया, इसलिए इसे ‘पुस्तकारोपण संगीति’ के नाम से भी जाना जाता है।
पाँचवीं शिलाक्षरारोपण संगीति
1871 ई. में ब्रह्मदेश (म्यांमार) के राजा मिनदोन मिन के शासनकाल में मांडले के प्रसिद्ध रज्जपुंज नगर में भदंत जागर स्थविर की अध्यक्षता में पाँचवीं बौद्ध धम्म-संगीति (थेरवादी) आयोजित की गई। इसमें त्रिपिटक को 729 संगमरमर की शिलाओं (साढ़े पाँच फीट ऊँची, साढ़े तीन फीट चौड़ी और पाँच इंच पतली) पर उत्कीर्ण किया गया। इसलिए यह संगीति ‘शिलाक्षरारोपण संगीति’ के नाम से प्रसिद्ध है।
महापाषाण शैल गुहा संगीति
बुद्ध के महापरिनिर्वाण की 2500वीं वर्षगांठ के अवसर पर 17 मई, 1954 से 24 मई, 1956 तक म्यांमार की राजधानी यांगून में श्रीमंगल स्थान पर, राजगृह की सप्तपर्णि गुफा की तरह विशेष रूप से निर्मित ‘महापाषाण शैल गुहा’ में एक बौद्ध संगीति आयोजित की गई। इसमें म्यांमार, कंबोडिया, लाओस, नेपाल, श्रीलंका, भारत, जर्मनी और थाईलैंड के भिक्षुओं ने भदंत रेवत स्थविर की अध्यक्षता में भाग लिया। इस संगीति में सभी प्रतिभागी देशों को अपनी मातृभाषा में त्रिपिटक लिपिबद्ध करने की अनुमति दी गई।
बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण
बौद्ध धर्म के विकास की प्रक्रिया इसके उद्भव काल से ही शुरू हो गई थी। बुद्ध के जीवनकाल में ही इसके अनुयायियों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। उनके महापरिनिर्वाण के बाद भी इस धर्म का तीव्र गति से विकास हुआ। अशोक और कनिष्क जैसे शासकों के संरक्षण में यह धर्म भारत के बाहर सुदूर विदेशों में फैल गया। बारहवीं शताब्दी ई. तक यह धर्म चीन, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुँच गया। बौद्ध धर्म की इस व्यापक लोकप्रियता के कई कारण थे-
नवीन अर्थव्यवस्था को समर्थन
बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण यह था कि इसने नई विकासशील अर्थव्यवस्था को समर्थन दिया। छठी शताब्दी ई.पू. लौह-तकनीक पर आधारित आर्थिक प्रगति की शताब्दी थी। इस काल में वैदिक धर्म की कई मान्यताएँ, जैसे समुद्री व्यापार, सूद और ऋण की व्यवस्थाकृनगरीय जीवन के विकास के लिए प्रतिकूल थीं। ब्राह्मण विधि-निर्माताओं ने ऋण और ब्याज की निंदा की, किंतु व्यापार के लिए ऋण लेना आवश्यक था। व्यापारियों और धनिकों को ऐसे नियमों और सिद्धांतों की आवश्यकता थी, जो व्यक्तिगत संपत्ति की सुरक्षा और संपत्ति के अधिकार को मान्यता दें। बौद्ध साहित्य में ऋण और ब्याज पर प्रतिबंध नहीं था।
बौद्ध ग्रंथों में व्यापार के लिए ऋण लेने का उल्लेख है और इसकी निंदा नहीं की गई। वैदिक परंपरा में समुद्री व्यापार को निंदित माना गया, जबकि बौद्ध साहित्य में इसे अनुकूल दृष्टिकोण से देखा गया। जैन और बौद्ध धर्म की अपरिग्रह की शिक्षा केवल भिक्षुओं के लिए थी, जबकि अस्तेय संपत्ति के अधिकार को अप्रत्यक्ष समर्थन देता था। बौद्ध संघ में ऋणी व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित करना भी इस दिशा में सहायक था। ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग के व्यापार पर प्रतिबंध था, और वैश्य वर्ग सामाजिक सम्मान में तीसरे स्थान पर था। इसलिए वैश्य वर्ग ने बौद्ध धर्म को विशेष समर्थन दिया। गया और साँची के स्तूपों में चित्रित दृश्यों से स्पष्ट है कि वैश्य वर्ग ने बौद्ध धर्म को अपनाकर और दान देकर इसे प्रोत्साहित किया।
नई कृषि-व्यवस्था के लिए पशु संरक्षण आवश्यक था, जबकि वैदिक यज्ञों में पशुबलि प्रचलित थी। बौद्ध ग्रंथों में कहा गया है कि पशुबलि के कारण लोग पुरोहितों की निंदा करते थे, और शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय उनके मत को अस्वीकार कर रहे थे। सुत्तनिपात में उल्लेख है कि इस कारण धनी ब्राह्मण भी बुद्ध, धम्म और संघ की शरण में आ रहे थे।
साम्राज्यवादी युद्धों से व्यापारियों और कृषकों को हानि होती थी। अहिंसामूलक बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ साम्राज्यवादी युद्धों और पशुबलि के विपरीत थीं, जिससे कृषक और व्यापारी दोनों को लाभ हुआ। वैदिक धर्म के आचार-विचार और गणिकाओं के प्रति दृष्टिकोण भी नगरीय जीवन के अनुकूल नहीं थे, किंतु बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ नागरिक जीवन की मान्यताओं के अनुकूल थीं। इस प्रकार, बौद्ध धर्म के सिद्धांत नई आर्थिक व्यवस्था और उपज के अधिशेष पर विकसित नगरीय जीवन के लिए उपयुक्त थे।
बौद्ध धर्म के सरल सिद्धांत
बौद्ध धर्म का उद्भव उस समय हुआ, जब वैदिक कर्मकांडों और यज्ञीय विधानों के कारण ब्राह्मण पुरोहितों का धर्म और समाज पर एकाधिकार हो गया था। साथ ही, कई परिव्राजक संप्रदाय नैतिकताविहीन मतों का प्रचार कर रहे थे, जिससे जनमानस में संशय, अराजकता, और व्याकुलता व्याप्त थी। धार्मिक और सामाजिक जीवन वर्णभेद, ऊँच-नीच और छुआछूत की विषमताओं से भरा था। इस वातावरण में बुद्ध ने न केवल वैदिक कर्मकांडों और परंपराओं का विरोध किया, बल्कि अतिवादी संप्रदायों के अव्यवस्थित मतों का खंडन भी किया। उन्होंने समाज को एक सरल और सुगम धर्म प्रदान किया, जिसमें कोई भी व्यक्ति बिना जातिभेद के निर्वाण प्राप्त कर सकता था। इस नवीन धर्म ने जनमानस में नई आशा और उत्साह का संचार किया, और समाज के सभी वर्गों ने इसे समर्थन दिया।
बौद्ध धर्म की सरलता इसके विकास में सहायक थी। यह ब्राह्मण और जैन धर्म की तुलना में अधिक सुगम था। इसमें खर्चीले यज्ञों, लालची पुरोहितों और पशुबलि की आवश्यकता नहीं थी। कोई भी व्यक्ति अपने सदाचार के द्वारा जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता था। बुद्ध का ‘मध्यम मार्ग’ जनसाधारण के लिए व्यवहारिक था।
बुद्ध का प्रभावशाली व्यक्तित्व
बौद्ध धर्म के विकास में बुद्ध के प्रभावशाली व्यक्तित्व का भी योगदान था। राजपरिवार से होने के बावजूद उन्होंने मानवता के कल्याण के लिए सांसारिक सुखों का त्याग कर सन्यासी जीवन अपनाया। जनता उनके इस त्याग से प्रभावित हुई और अनुभव किया कि बुद्ध निःस्वार्थ जनकल्याण में संलग्न हैं। बुद्ध का धर्म-प्रचार का ढंग भी प्रभावशाली था। उन्होंने तत्कालीन लोकभाषा पालि में उपदेश दिए। वे लोगों से मिलकर उनकी भाषा में संसार की निःसारता का उपदेश करते थे। अपने विचारों को तर्कपूर्ण ढंग से कहानियों, लोकोक्तियों और मुहावरों के माध्यम से प्रस्तुत करते थे। विरोधियों पर वह तर्क और प्रेम से विजय प्राप्त करते थे। अज्ञानियों को समझाने के लिए वह हास्य और व्यंग्य का भी सहारा लेते थे। उनके प्रेम और करुणा का प्रभाव ऐसा था कि अंगुलिमाल जैसे डाकू और आम्रपाली जैसी गणिकाएँ सद्धर्म की अनुयायी बन गईं।
बौद्ध धर्म का समानता का सिद्धांत
बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में इसके समानता के सिद्धांत ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसमें किसी प्रकार का भेदभाव या ऊँच-नीच की भावना नहीं थी। इसका द्वार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, स्त्रियों और चांडालों सभी के लिए खुला था। सभी जाति और वर्ण के लोग इसे अपना सकते थे।
राजकीय संरक्षण
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में राजकीय संरक्षण से भी बहुत सहायता मिली। राजकुल में जन्मे बुद्ध को कई क्षत्रिय राजाओं का समर्थन प्राप्त हुआ। उनके जीवनकाल में बिंबिसार, अजातशत्रु, प्रसेनजित और गणराज्यों के कई शासकों ने उनके सिद्धांतों को स्वीकार किया। कालांतर में अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन, और पाल शासकों ने इस धर्म को संरक्षण दिया, जिससे इसका प्रसार हुआ।

संघ और संगीतियों की भूमिका
बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में संघ का भी योगदान रहा। बुद्ध ने अपने जीवनकाल में गणतांत्रिक आधार पर बौद्ध संघ का संगठन किया था। संघ के भिक्षु नियंत्रित और सदाचारी जीवन जीते थे। उनके आदर्शमय जीवन का प्रभाव जनता पर पड़ा। संघ के सदस्य उत्साहपूर्वक बुद्ध के संदेशों का प्रचार करते थे। संघ को कई विद्वानों और व्यापारियों का सहयोग मिला, जिनके प्रयासों से बौद्ध धर्म विदेशों में फैला। नागार्जुन, वसुमित्र,और धर्मकीर्ति जैसे विद्वानों ने इसके प्रचार में सहायता की। बौद्ध संगीतियाँ भी इसके प्रसार में सहायक थीं।
बौद्ध धर्म का योगदान
बौद्ध धर्म ने भारतीय समाज, साहित्य, कला, धर्म, और दर्शन के विकास में अमिट योगदान दिया। धार्मिक क्षेत्र में इसने वेदों, पुरोहितों और यज्ञीय कर्मकांडों की सर्वोच्चता को चुनौती दी। अब कोई भी व्यक्ति बुद्ध के मध्यम मार्ग पर चलकर बुद्धत्व प्राप्त कर सकता था। इसकी अहिंसा की नीति से पशु संरक्षण को प्रोत्साहन मिला, जिससे नई कृषि प्रणाली और व्यापार के विकास में सहायता मिली।
सामाजिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच, और भेदभाव को अस्वीकार कर सभी वर्गों को समानता का अधिकार दिया। इसने स्त्रियों को भी पुरुषों के समान निर्वाण का भागी माना और संघ का द्वार उनके लिए खोला। भिक्षुओं के लिए भोजन, वस्त्र, और सदाचार के नियम बनाकर बौद्ध धर्म ने समाजवाद की कल्पना की।
बौद्ध धर्म ने भारतीय राजनीति को भी प्रभावित किया। अशोक जैसे सम्राट ने युद्ध और विजय की नीति त्याग दी। भारतीय दर्शन में बौद्ध धर्म ने अनात्मवाद, अनीश्वरवाद, कर्मवाद और पुनर्जन्म का मौलिक दर्शन प्रदान किया।
शिक्षा और साहित्य के विकास में बौद्ध धर्म की उपलब्धियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। बौद्ध विहार धार्मिक और दार्शनिक शिक्षा के केंद्र बन गए। नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों की ख्याति दूर-विदेशों तक थी, जहाँ विदेशी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
पालि और संस्कृत में धर्म के सिद्धांतों और संघ के नियमों का संकलन हुआ। बुद्ध के जन्म और जीवन से संबंधित घटनाओं को कलात्मक ढंग से लिखा गया। पालि साहित्य में तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक अवस्था का चित्रण है, जो नगर जीवन और गणतांत्रिक प्रशासनिक व्यवस्था की जानकारी का अच्छा स्रोत है।
बौद्ध धर्म के उद्भव और विकास ने भारतीय कला को गहराई से प्रभावित किया। स्थापत्य, मूर्तिकला और चित्रकला पर इसका प्रभाव पड़ा। बिहार की बराबर पहाड़ियों, नासिक, अजंता और एलोरा की गुफाओं में गुहा-मंदिरों का निर्माण बौद्ध धर्म के कारण हुआ। स्तूपों, विहारों और चैत्यों का निर्माण भी हुआ, जिनकी विशिष्ट शैली को ‘बौद्ध स्थापत्य’ कहा गया। इस कला ने मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया की कला को भी प्रभावित किया।
बौद्ध धर्म के प्रभाव से मूर्तिकला का विकास हुआ। बुद्ध की विशाल और सुंदर मूर्तियाँ धातु और पत्थर में बनाई गईं। गांधार और मथुरा की विशिष्ट शैलियों में बुद्ध की प्रतिमाएँ बनीं। बौद्ध मूर्तिकला का प्रसार मध्य एशिया में भी हुआ। अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध की सबसे ऊँची प्रतिमा थी।
चित्रकला में भी प्रगति हुई और बुद्ध के जीवन से संबंधित दृश्यों को कलात्मक ढंग से उकेरा गया। बाघ, अजंता और एलोरा की गुफाओं की चित्रकारी इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।
बौद्ध धर्म के प्रसार से भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विदेशों में प्रसार हुआ। अशोक ने इसे श्रीलंका और अन्य देशों में प्रसारित किया। कनिष्क ने इसे मध्य एशिया तक पहुँचाया।
बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रसार
कालांतर में बौद्ध धर्म चीन, जापान, दक्षिण-पूर्व एशिया, तिब्बत, और नेपाल में फैल गया। इसके विकास के साथ इन देशों से व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध स्थापित हुए। अनेक बौद्ध व्यापारी और धर्म-प्रचारक विदेशों में गए, जिसके परिणामस्वरूप सांस्कृतिक तत्वों का आदान-प्रदान हुआ।

विदेशों से भी कई विद्वान और जिज्ञासु भारत आए, जिनमें फाह्यान, ह्वेनसांग, धर्मस्वामी और लामा तारानाथ उल्लेखनीय हैं। बौद्ध धर्म से प्रभावित विदेशी शासकों ने भारत में इसके प्रसार के लिए दान दिया।










