प्राचीन भारत में कलिंग राज्य : खारवेल
प्राचीन भारत में कलिंग एक समृद्ध राज्य था। प्राचीन कलिंग के राज्य क्षेत्र के अंतर्गत पुरी और गंजाम जिलों का कुछ भाग, उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम के कुछ प्रदेश तथा दक्षिण भारत के आधुनिक तेलुगु भाषा-भाषी प्रांत के कुछ क्षेत्र सम्मिलित थे। कलिंग देश के निवासी स्वतंत्रता प्रेमी थे। यही कारण है कि अशोक उन पर आसानी से प्रभुत्व नहीं जमा सका। अशोक की मृत्यु के उपरांत जब साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और उसके प्रांत साम्राज्य से अलग होकर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे, तब कलिंग ने भी अपनी स्वतंत्रता का जयघोष कर दिया।
भुवनेश्वर (पुरी जनपद) के समीप उदयगिरि पहाड़ी की जैन गुफाओं में मिले हाथीगुम्फा अभिलेख से कलिंग के चेदि राजवंश के इतिहास का ज्ञान होता है। यह वंश अपने को प्राचीन चेदि नरेश वसु की संतति (वसु-उपरिचर) कहता है।
चेदि भारत की प्राचीन जाति थी, जो छठी शताब्दी ई.पू. में बुंदेलखंड के समीपवर्ती प्रदेशों में शासन करती थी। संभवतः इसी चेदि वंश की एक शाखा कलिंग गई और वहाँ एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। मौर्य सम्राट अशोक ने भीषण युद्ध के पश्चात् कलिंग को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। लगता है कि मौर्य साम्राज्य की शक्ति के शिथिल होने पर जब मगध साम्राज्य के अनेक सुदूरवर्ती प्रदेश मौर्य सम्राटों की अधीनता से मुक्त होने लगे, तो कलिंग का राज्य भी स्वतंत्र हो गया।
ऐतिहासिक स्रोत
कलिंग और उसके इतिहास के संबंध में अष्टाध्यायी, महाभारत, पुराण, रामायण, कालिदासकृत रघुवंश महाकाव्य, दंडी के दशकुमारचरित, जातक, जैन ग्रंथ उत्तराध्ययनसूत्र, टॉलमी के भूगोल और अशोक के लेखों से महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। कलिंग राज खारवेल द्वारा प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण कराए गए सत्रह पंक्तियों वाले तिथिविहीन हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल के बचपन, शिक्षा, राज्याभिषेक तथा राजा होने के बाद से उसके शासनकाल के तेरह वर्षों की घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन मिलता है।

कलिंग में चेदि राजवंश की स्थापना संभवतः महामेघवाहन ने की थी, इसलिए इस वंश को ‘महामेघवाहन वंश’ भी कहते हैं। इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल ने मेघवंशीय राजाओं को चेदि वंश का माना है। महामेघवाहन और खारवेल के बीच का इतिहास स्पष्ट नहीं है। उदयगिरि पहाड़ी की मंचपुरी गुफा के एक लेख में महाराज वक्रदेव नामक महामेघवाहन शासक का उल्लेख मिलता है, जो संभवतः कलिंग के चेदि राजवंश का दूसरा शासक और खारवेल का पिता था। महामेघवाहन की तीसरी पीढ़ी में खारवेल उत्पन्न हुआ, जो इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली और ख्यातिनामा शासक था।
कलिंग नरेश खारवेल
खारवेल की गणना संपूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में की जाती है। वह कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में शासन करने वाले महामेघवाहन वंश का सबसे महान तथा प्रख्यात सम्राट था। हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार 15 वर्ष की आयु तक खारवेल ने राजोचित विद्याएँ सीखीं। उसका शरीर स्वस्थ और वर्ण गौर था। उसे लेख, मुद्रा, गणना, व्यवहार, विधि तथा दूसरी विद्याओं की शिक्षा दी गई और वह सभी विद्याओं में पारंगत हो गया। 15 वर्ष की आयु में वह युवराज बना और 9 वर्ष तक प्रशासनिक कार्यों में भाग लिया। चौबीस वर्ष की अवस्था में उसका राज्याभिषेक हुआ और वह सिंहासन पर बैठा। राजा बनने पर उसने ‘कलिंगाधिपति’ और ‘कलिंग चक्रवर्ती’ की उपाधियाँ धारण कीं। उसका विवाह ललक हठिसिंह राजा की कन्या से हुआ था, जो उसकी प्रधान महिषी बनी।
खारवेल की उपलब्धियाँ
निर्माण कार्य
राज्यभार ग्रहण करने के प्रथम वर्ष में खारवेल ने अपनी राजधानी कलिंग नगरी में निर्माण कार्य करवाया। उसने तूफान में नष्ट हुए गोपुरों, प्राचीरों तथा तोरणों की मरम्मत करवाई तथा नगर का पुनर्संस्कार कर सुसज्जित किया। उसने सोपानयुक्त शीतल जल वाले तड़ागों तथा उद्यानों का निर्माण करवाया। कलिंग नरेश ने इन कार्यों में पाँच लाख मुद्राएँ व्यय कर अपनी प्रजा का मनोरंजन किया। अपने इन लोकहितकारी कार्यों से उसे अपनी प्रजा में व्यापक लोकप्रियता मिली और राजधानी में उसकी स्थिति सुदृढ़ हो गई।
दिग्विजय की व्यापक योजना
अपनी स्थिति सुदृढ़ कर खारवेल ने दिग्विजय की व्यापक योजना बनाई। अपने शासन के दूसरे वर्ष उसने सातकर्णि (सातवाहन नरेश) की शक्ति की उपेक्षा करते हुए पश्चिम विजय के लिए अपनी विशाल सेना भेजी और कश्यप क्षत्रियों के सहयोग से कण्वेणा नदी पर स्थित मुसिक नगर (ऋषिक नगर) को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया। कण्वेणा की पहचान कुछ इतिहासकार वैनगंगा (महाराष्ट्र की एक छोटी नदी) तथा उसकी सहायक नदी कन्हन से करते हैं, लेकिन काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार कण्वेणा को आधुनिक कृष्णा नदी तथा मुसिक नगर को कृष्णा तथा मूसी के संगम पर स्थित मानना चाहिए। सातकर्णि सातवाहन राजा था और आंध्र प्रदेश में उसका स्वतंत्र राज्य विद्यमान था। मौर्यों की अधीनता से मुक्त होकर जो प्रदेश स्वतंत्र हो गए थे, आंध्र भी उनमें से एक था।
लगता है कि खारवेल का यह सैन्य अभियान एक धावा मात्र था, क्योंकि लेख के वर्णन से लगता है कि खारवेल तथा सातकर्णि की सेनाओं में कोई प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं हुआ था। संभवतः दोनों में मैत्री संबंध थे और कुछ विद्वानों के अनुसार खारवेल सातकर्णि के विरुद्ध नहीं, बल्कि रक्षा हेतु गया था तथा उसने वापस लौटकर उत्सव आदि का आयोजन करवाया था। लेख से पता चलता है कि राज्यारोहण के तीसरे वर्ष उसने अपनी राजधानी में संगीत, वाद्य, नृत्य, नाटक आदि के अभिनय द्वारा भारी उत्सव मनाया।
पश्चिम की ओर आक्रमण
अपने शासन के चौथे वर्ष में खारवेल ने एक बार फिर पश्चिम की ओर आक्रमण किया और भोजकों तथा राष्ट्रिकों (रठिकों) को अपने अधीन किया। भोजकों की स्थिति बरार के क्षेत्र में थी और राष्ट्रिकों की पूर्वी खानदेश व अहमदनगर में। प्राचीन अंधक-वृष्णियों के समान राष्ट्रिक-भोजक संभवतः ऐसे क्षत्रिय कुल थे, जिनके अपने गणराज्य थे। ये गणराज्य संभवतः सातवाहनों की अधीनता स्वीकार करते थे। लेख के अनुसार उसने विद्याधरों के क्षेत्र में निवास किया। संभवतः विद्याधरों के क्षेत्र में जैनियों का कोई तीर्थस्थल था, जिस पर राष्ट्रिकों तथा भोजकों ने अधिकार कर लिया था और खारवेल ने इस पवित्र स्थान की रक्षा के लिए राष्ट्रिकों और भोजकों को पराजित कर उनका रत्न व धन छीन लिया तथा अपने चरणों की वंदना करवाई। अशोक के लेखों में भी राष्ट्रिकों और भोजकों का उल्लेख है, जो मौर्यों के अधीन थे। सातवाहन शासकों से भी इनके मैत्रीपूर्ण संबंध थे। सातकर्णि प्रथम की पत्नी महारठी वंश की कन्या थी।
सिंचाई और यातायात की सुविधा
अपने शासन के पाँचवें वर्ष में खारवेल ने नंद राज द्वारा खुदवाई गई तनसुलि नहर को अपनी राजधानी से जोड़ दिया, जिससे उसकी प्रजा को सिंचाई और यातायात की सुविधा मिली। यह नंद शासक मगध का महापद्मनंद था या कलिंग का कोई स्थानीय शासक, यह स्पष्ट नहीं है।
प्रजाहित के कार्य
छठे वर्ष खारवेल ने एक लाख मुद्राएँ व्यय करके अपनी प्रजा को सुखी रखने के लिए अनेक कार्य किए। उसने गाँवों तथा नगरों के निवासियों पर अनुग्रह करके सभी प्रकार के करों को माफ कर दिया। सातवें वर्ष का विवरण संदिग्ध है। संभवतः इसी वर्ष उसने ललक हठिसिंह की कन्या से अपना विवाह किया तथा राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था।
अपने शासन के आठवें वर्ष में खारवेल ने उत्तर भारत में सैनिक अभियान किया। उसकी सेना ने मगध पर आक्रमण कर बराबर पहाड़ी पर स्थित गोरथगिरि के दुर्ग को ध्वस्त किया और राजगृह को घेर लिया। खारवेल के इस अभियान से एक यवन राज ‘दिमित’ भयभीत होकर मथुरा भाग गया। इस दिमित की पहचान निश्चित नहीं है, लेकिन इसकी पहचान हिंद-यवन शासक डेमेट्रियस से की जा सकती है।
राज्यारोहण के नवें वर्ष खारवेल ने अपनी सैनिक विजयों के उपलक्ष्य में प्राची नगर के दोनों किनारों पर लगभग 38 लाख मुद्राओं की लागत से ‘महाविजय प्रासाद’ नामक एक भव्य महल बनवाया तथा ब्राह्मणों को सोने का कल्पवृक्ष, अश्व, गज, रथ आदि भेंट किए। दसवें वर्ष उसने पुनः पृथ्वी विजय हेतु भारतवर्ष (गंगा की घाटी) पर आक्रमण किया, लेकिन कोई विशेष सफलता नहीं मिली।
दक्षिण भारत की ओर अभियान
ग्यारहवें वर्ष खारवेल ने दक्षिण भारत की ओर ध्यान दिया। उसकी सेना ने पिथुंड नामक प्राचीन नगर को ध्वस्त कर आगे दक्षिण की ओर जाकर तमिल संघ का भेदन किया (भेदति तमिर-देश-संगहतं)। लगता है कि खारवेल का सामना करने के लिए दक्षिण के तमिल राजाओं ने किसी संघ का निर्माण कर लिया था, जिसे खारवेल ने नष्ट कर दिया। लेख के अनुसार खारवेल ने पिथुंड नगर को नष्ट कर एक बड़े कृषि फार्म में परिवर्तित कर दिया और गदहों से हल चलवाया था। इस नगर की पहचान मसुलीपट्टम के निकट स्थित पिटुंड्र नामक स्थान से की जा सकती है, जिसका उल्लेख टॉलमी ने किया है। सुदूर दक्षिण में विजय करता हुआ खारवेल पांड्य राज्य तक पहुँच गया। इसी वर्ष खारवेल ने तेरह सौ वर्ष पुरानी जैन प्रतिमा के साथ एक जुलूस निकाला।
दो सैनिक अभियान
बारहवें वर्ष खारवेल ने दो सैनिक अभियान किए—एक उत्तर भारत में और दूसरा दक्षिण भारत में। खारवेल ने सबसे पहले उत्तरापथ पर आक्रमण कर मगध नरेश को पराभूत कर अपने चरणों की वंदना करवाई और अपने घोड़ों तथा हाथियों को गंगा में स्नान करवाया। इसके बाद वह तीन शताब्दियों पूर्व नंद राज द्वारा कलिंग से ले जाई गई प्रथम जैन प्रतिमा के साथ अतुल संपत्ति लेकर अपनी राजधानी लौट आया। उत्तर भारत से प्राप्त धन से उसने भुवनेश्वर में एक भव्य मंदिर बनवाया, जिसका उल्लेख ओडिशा से प्राप्त ब्रह्मांड पुराण की एक हस्तलिखित प्रति में भी है।
मगध के जिस राजा को खारवेल ने अपने चरणों पर गिरने के लिए विवश किया था, अनेक इतिहासकारों के अनुसार उसका नाम बृहस्पतिमित्र था। काशीप्रसाद जायसवाल ने हाथीगुम्फा शिलालेख में उल्लिखित मगध के राजा के नाम को बृहस्पतिमित्र मानकर उसे पुष्यमित्र शुंग का पर्यायवाची माना है और यह प्रतिपादित किया है कि कलिंग राज खारवेल ने शुंग वंशी पुष्यमित्र पर आक्रमण कर उसे पराजित किया था। लेकिन अनेक विद्वान् हाथीगुम्फा में आए नाम को न तो बृहस्पतिमित्र मानने को तैयार हैं और न ही पुष्यमित्र के साथ समीकृत करने को। जो भी हो, इतना निश्चित है कि खारवेल ने उत्तरापथ पर आक्रमण करते हुए मगध की भी विजय की थी और वहाँ के राजा को अपने सम्मुख झुकने के लिए विवश किया था।
अंतिम सैन्य अभियान
खारवेल का अंतिम सैन्य अभियान बारहवें वर्ष में ही सुदूर दक्षिण के पांड्य राजाओं के विरुद्ध हुआ। पांड्य नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और हाथी, घोड़े, हीरे तथा जवाहरात उपहार में दिए। खारवेल अतुल संपत्ति लेकर राजधानी लौट आया। उसकी चतुर्दिक विजयों के कारण उसकी रानी के अभिलेख में उसे ‘चक्रवर्ती’ कहा गया है।
अपने शासन के तेरहवें वर्ष में खारवेल ने आश्रयहीन धर्मोपदेशक जैन अर्हतों के निवास के लिए कुमारी पर्वत (उदयगिरि-खंडगिरि पहाड़ी) पर गुहा-विहारों का निर्माण करवाया।

धर्म एवं धार्मिक नीति
खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था और संभवतः उसके समय में कलिंग की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान महावीर के धर्म को अपना चुकी थी। उसने जैन भिक्षुओं के निर्वाह के लिए प्रभूत दान दिया और उनके आवास के लिए आरामदायक गुफाओं का निर्माण करवाया। उसने भिक्षु आवासों का विवरण सुरक्षित रखने के लिए ही हाथीगुम्फा लेख को उत्कीर्ण करवाया था। यही नहीं, खारवेल ने पाभार नामक स्थान पर तपस्वियों आदि के लिए स्तंभों का निर्माण भी करवाया था।
खारवेल जैन धर्मानुयायी होकर भी अन्य धर्मों के प्रति श्रद्धालु था। हाथीगुम्फा लेख से पता चलता है कि उसने सभी देवताओं के मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया था तथा वह सभी संप्रदायों का समान आदर करता था (सब पासंड पूजक सब देवायतन संकारक)। उसने पंडितों की एक विराट् सभा का भी आयोजन किया था। संभवतः यही कारण है कि खारवेल को शांति एवं समृद्धि का सम्राट, भिक्षु सम्राट एवं धर्मराज के रूप में जाना जाता है।
लोकोपकारी कार्य
खारवेल एक प्रजावत्सल लोकोपकारी शासक था, जो प्रजा के कल्याण के लिए धन के व्यय की चिंता नहीं करता था। उसने प्रजा की भलाई के लिए 300 वर्ष पहले नंद राज द्वारा बनवाई गई तनसुलि नहर को राजधानी से जोड़ा और नगर तथा गाँवों की प्रजा को कर से मुक्त कर दिया। वह जनता के मनोरंजन के लिए समय-समय पर नृत्य और संगीत के समारोहों का आयोजन करता था।
हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार राजा खारवेल कला, साहित्य, गणित और सामाजिक विज्ञान का भी ज्ञाता था। हाथीगुम्फा लेख पालि प्राकृत भाषा में है, जिससे लगता है कि पालि उड़िया लोगों की मूल भाषा रही होगी। कला के संरक्षक के रूप में उसकी बड़ी ख्याति थी और उसने अपनी राजधानी में नृत्य और नाट्य कला को प्रोत्साहन दिया। उदयगिरि में रानी गुफा तथा खंडगिरि में अनंत गुफा की गुफाओं में उत्कीर्ण चित्र चित्रकला की दृष्टि से उच्च कोटि के हैं।

खारवेल की भवन निर्माण में विशेष रुचि थी। उसने राजा होते ही अपनी राजधानी को प्राचीरों, तोरणों, तड़ागों और उद्यानों से अलंकृत करवाया तथा ‘महाविजय प्रासाद’ नामक भव्य राजभवन बनवाया, जो उसके स्थापत्य प्रेम का प्रमाण है। उदयगिरि में 19 तथा खंडगिरि में 16 गुहा-विहारों का निर्माण श्रमण संप्रदायों के प्रति उसकी अटूट श्रद्धा का परिचायक है।
खारवेल का तिथि निर्धारण
खारवेल ने कुल तेरह वर्ष शासन किया। लेकिन उसका काल निर्धारण आज भी विवादग्रस्त है। हाथीगुम्फा लेख के आधार पर कुछ विद्वान् उसे ई.पू. दूसरी शताब्दी में रखते हैं और कुछ ई.पू. की प्रथम शताब्दी में। काशीप्रसाद जायसवाल ने हाथीगुम्फा शिलालेख में खारवेल के समकालीन मगध राज बहसतिमित को पुष्यमित्र और खारवेल के आक्रमण के समय भयभीत होकर मध्य देश से मथुरा भागने वाले यवन राज ‘दिमित’ को यवन शासक डेमेट्रियस मानकर यह प्रतिपादित किया था कि खारवेल पुष्यमित्र शुंग और यवन राज डेमेट्रियस का समकालीन था।
किंतु अनेक इतिहासकार इस समीकरण को संदिग्ध मानते हैं और हाथीगुम्फा लेख की लिपि के आधार पर खारवेल का समय ई.पू. पहली शताब्दी में मानते हैं। लेख की छठी पंक्ति के अनुसार खारवेल ने नंद राज द्वारा तीन सौ वर्ष पूर्व बनवाई गई तनसुलि नहर को अपनी राजधानी से जोड़ा था। ई.पू. पहली शताब्दी के समर्थक इतिहासकार लेख के नंद राज की पहचान मगध के नंद शासक महापद्मनंद से करते हैं और खारवेल को ई.पू. पहली शताब्दी में रखते हैं। इस विषय पर और अधिक शोध की आवश्यकता है। खारवेल के पश्चात् चेदि राजवंश के संबंध में कोई निश्चित सूचना नहीं मिलती। संभवतः उसकी मृत्यु के बाद ही उसका शक्तिशाली साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।
खारवेल का मूल्यांकन
इस प्रकार खारवेल ने एक महान् सेनानायक के रूप में न केवल मगध को पराजित कर अपने चरणों की वंदना करवाई और यवनों को भयभीत किया, अपितु ‘तमिल संघ’ का भेदन कर सुदूर दक्षिण के पांड्यों से मुक्तामणियों का उपहार प्राप्त किया और ‘कलिंगाधिपति’ की उपाधि धारण की। वह एक महान् विजेता और लोकोपकारी शासक होने के साथ-साथ धर्म सहिष्णु कलाप्रेमी सम्राट भी था। वह स्वयं विद्वान् (राजर्षि) था और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल को अप्रतिहत वाहिनी, बल चक्रधर, प्रवृत्त चक्र, आर्य महाराज, लेम राज, वृद्ध राज, धर्म राज तथा महाविजय राज कहा गया है, जिससे स्पष्ट है कि उसमें राज विजयी और धर्म विजयी शासक के गुणों का अद्भुत समन्वय था। वस्तुतः अपने कृतित्व और व्यक्तित्व के द्वारा खारवेल ने कलिंग के गौरव को उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया










