परवर्ती मुगल शासकों का इतिहास (History of the Later Mughal Rulers)

उत्तरकालीन मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद जिन ग्यारह मुगल सम्राटों ने भारत पर […]

परवर्ती मुगल शासकों का इतिहास (History of the Later Mughal Rulers)

उत्तरकालीन मुगल सम्राट

औरंगजेब की मृत्यु के बाद जिन ग्यारह मुगल सम्राटों ने भारत पर शासन किया, उन्हें ‘उत्तरकालीन मुगल सम्राट’ कहा जाता है। मुगल साम्राज्य अपने अभूतपूर्व विस्तार, विशाल सैन्य शक्ति, और सांस्कृतिक उपलब्धियों के बावजूद अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में अवनति की ओर बढ़ने लगा था। औरंगजेब का शासनकाल मुगलों का सांध्यकाल था, क्योंकि इस समय मुगल साम्राज्य को अनेक समस्याओं ने कमजोर करना शुरू कर दिया था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद के बावन वर्षों में आठ बादशाह दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुए, किंतु वे इतने अयोग्य और दुर्बल थे कि पतनशील साम्राज्य को संभाल नहीं सके। देश के विभिन्न भागों में देशी और विदेशी शक्तियों ने छोटे-बड़े राज्य स्थापित कर लिए। बंगाल, अवध, और दकन जैसे अनेक प्रदेश मुगल नियंत्रण से बाहर हो गए। दक्षिण में निजाम-उल-मुल्क, बंगाल में मुर्शिद कुली खाँ, और अवध में सआदत अली खाँ ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। इसी मार्ग का अनुसरण रुहेलखंड के अफगान पठानों ने भी किया।

मराठों ने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पुणे को अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना लिया। इसके बावजूद, मुगल साम्राज्य का प्रभाव इतना था कि इसका पतन धीमी गति से हुआ। अठारहवीं शताब्दी के चौथे दशक के अंत से उत्तर-पश्चिम की ओर से विदेशी आक्रमणकारियों ने साम्राज्य पर प्रहार शुरू कर दिया, और यूरोपीय व्यापारिक कंपनियाँ भी भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने लगीं। वास्तव में, 1737 में बाजीराव प्रथम और 1739 में नादिरशाह के दिल्ली पर आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य की कमजोरी को उजागर कर दिया और 1740 के बाद इसका पतन स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा।

बहादुरशाह प्रथम (1707-1712)

बहादुरशाह प्रथम दिल्ली का सातवाँ मुगल बादशाह था, जिसका मूल नाम ‘कुतुबुद्दीन मुहम्मद मुअज्जम’ था। उनका पूरा नाम ‘अबुल नासिर सैय्यद कुतुबुद्दीन मुहम्मद शाह आलम बहादुरशाह’ था। उनका जन्म 14 अक्टूबर 1643 को बुरहानपुर में हुआ था, और वे औरंगजेब के दूसरे पुत्र थे। उनकी माता नवाब बाई थीं, जो राजौरी के राजा राजू की पुत्री थीं। बहादुरशाह प्रथम को ‘शाह आलम प्रथम’ या ‘आलमशाह प्रथम’ के नाम से भी जाना जाता है।

औरंगजेब ने 1663 में बहादुरशाह प्रथम को दक्षिण के दकन और मध्य भारत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया था। 1683-84 में उन्होंने दक्षिण बंबई (वर्तमान मुंबई) में गोवा के पुर्तगाली क्षेत्रों में मराठों के खिलाफ सेना का नेतृत्व किया, किंतु पुर्तगालियों की सहायता न मिलने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। 1699 में औरंगजेब ने उन्हें काबुल (वर्तमान अफगानिस्तान) का सूबेदार नियुक्त किया।

मुगल शहजादों में उत्तराधिकार के लिए अक्सर खूनी संघर्ष होता था। औरंगजेब के सबसे महत्वाकांक्षी पुत्र अकबर ने अपने पिता के खिलाफ विद्रोह किया था और औरंगजेब की मृत्यु से बहुत पहले ही निर्वासन में उनकी मृत्यु हो गई थी। इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के समय उनके केवल तीन पुत्र जीवित थे: मुहम्मद मुअज्जम, मुहम्मद आजम और मुहम्मद कामबख्श। इनमें मुअज्जम सबसे ज्येष्ठ थे, जो पेशावर के सूबेदार थे।

औरंगजेब की मृत्यु 3 मार्च 1707 को अहमदनगर में हुई। इस सूचना के मिलते ही मुहम्मद मुअज्जम पेशावर से आगरा की ओर रवाना हुए। उन्होंने लाहौर के उत्तर में ‘पुल-ए-शाह’ नामक स्थान पर 22 अप्रैल 1707 को ‘बहादुरशाह’ के नाम से अपना राज्याभिषेक किया।

उत्तराधिकार का युद्ध

उत्तराधिकार के लिए मुअज्जम को अपने छोटे भाइयों, मुहम्मद आजम और मुहम्मद कामबख्श, से युद्ध करना पड़ा। उन्होंने बूँदी के बुधसिंह हाड़ा और अंबर के विजयसिंह कछवाहा को पहले ही अपनी ओर मिला लिया था, जिसके कारण उन्हें बड़ी संख्या में राजपूतों का समर्थन प्राप्त हुआ।

मुहम्मद मुअज्जम और मुहम्मद आजम के बीच 12 जून 1707 को सामूगढ़ के समीप ‘जाजऊ’ नामक स्थान पर उत्तराधिकार का पहला युद्ध हुआ, जिसमें मुहम्मद आजम अपने पुत्रों, बीदर बख्त और वलाजाह, के साथ मारा गया। इस प्रकार मुअज्जम 1707 में बहादुरशाह के नाम से मुगल सम्राट बने। उन्हें अपने छोटे भाई कामबख्श से भी युद्ध करना पड़ा। उन्होंने 13 जनवरी 1709 को हैदराबाद के निकट एक युद्ध में कामबख्श को पराजित किया, जिसके बाद उनकी मृत्यु हो गई।

प्रशासन और नीतियाँ

बादशाह बनते ही बहादुरशाह प्रथम ने अपने समर्थकों को नई पदवियाँ और उच्च पद प्रदान किए। मुनीम खाँ को वजीर नियुक्त किया गया, औरंगजेब के वजीर असद खाँ को ‘वकील-ए-मुतलक’ का पद दिया गया और उनके पुत्र जुल्फिकार खाँ को मीरबख्शी बनाया गया।

बहादुरशाह प्रथम एक उदार शासक थे। सिंहासनारोहण के समय उनकी आयु 63 वर्ष थी और वे सक्रिय रूप से कार्य करने में असमर्थ थे। वे भोग-विलास में लीन होकर राजकीय कार्यों के प्रति इतने लापरवाह थे कि उनकी उपाधि ‘शाह-ए-बेखबर’ पड़ गई थी।

ईरानी और तूरानी दल

उनकी दुर्बलता और निष्क्रियता के कारण मुगल दरबार में षड्यंत्र शुरू हो गए, जिसके परिणामस्वरूप अमीरों के दो दल बन गए: ईरानी दल और तूरानी दल। ईरानी दल के अमीर ‘शिया मत’ को मानते थे, जिनमें असद खाँ और उनके पुत्र जुल्फिकार खाँ शामिल थे, जबकि तूरानी दल के अमीर ‘सुन्नी मत’ के समर्थक थे, जिनमें चिनकिलिच खाँ और फिरोज गाजीउद्दीन जंग जैसे लोग शामिल थे।

राजपूतों के प्रति नीति

बहादुरशाह प्रथम ने राजपूतों के प्रति शांति और समझौते की नीति अपनाई। उन्होंने मारवाड़ के राजपूत राजा अजीतसिंह को पराजित कर उन्हें 3500 का मनसब और ‘महाराज’ की उपाधि दी। किंतु, बहादुरशाह के दक्षिण जाते ही अजीतसिंह, दुर्गादास और जयसिंह कछवाहा ने मेवाड़ के महाराज अमरसिंह के नेतृत्व में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और राजपूताना संघ का गठन किया। बहादुरशाह ने इन राजाओं से संघर्ष करने के बजाय समझौता करना उचित समझा और उन्हें मान्यता दे दी।

सिक्खों के विरुद्ध कार्यवाही

बहादुरशाह को सिक्खों के विरुद्ध कार्यवाही करनी पड़ी। सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने 1699 में ‘खालसा’ की स्थापना की थी। यद्यपि गुरु गोविंद सिंह ने उत्तराधिकार के युद्ध में बहादुरशाह का समर्थन किया था, किंतु 1708 में नांदेड़ में उनकी हत्या हो गई। इसके बाद कोई सिक्ख गुरु नहीं हुआ। गुरु गोविंद सिंह की हत्या के बाद बंदा बहादुर एक शक्तिशाली सिक्ख नेता के रूप में उभरे, जिन्होंने मुगलों के खिलाफ विद्रोह किया।

बंदा बहादुर ने पंजाब के विभिन्न हिस्सों के सिक्खों को एकजुट कर कैथल, समाना, शाहबाद, अंबाला, क्यूरी और सधौरा पर अधिकार कर लिया। उन्होंने सरहिंद के गवर्नर वजीर खाँ को पराजित कर मार डाला और स्वयं को ‘सच्चा बादशाह’ घोषित किया। उन्होंने अपना टकसाल स्थापित किया और एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना का प्रयास किया।

बहादुरशाह ने बंदा बहादुर को दंडित करने के लिए 26 जून 1710 को सधौरा में घेर लिया, किंतु बंदा लोहगढ़ के किले में भाग गए। लोहगढ़ का किला गुरु गोविंद सिंह ने अंबाला के उत्तर-पूर्व में हिमालय की तलहटी में बनवाया था। बहादुरशाह ने लोहगढ़ को घेरकर सिक्खों से कड़ा संघर्ष किया और 1711 में पुनः सरहिंद पर अधिकार कर लिया। उनकी उदारता के बावजूद वे सिक्खों को अपना मित्र नहीं बना सके और बंदा बहादुर मुगलों को परेशान करते रहे।

बुंदेलों और जाटों से मित्रता

बहादुरशाह प्रथम ने बुंदेला सरदार छत्रसाल से मेल-मिलाप किया, जिसके परिणामस्वरूप छत्रसाल मुगलों का निष्ठावान सामंत बन गया। उन्होंने जाट सरदार चूड़ामन से भी मित्रता की और चूड़ामन ने बंदा बहादुर के खिलाफ अभियान में उनका साथ दिया।

मराठों के साथ शांति के प्रयास

बहादुरशाह प्रथम ने मराठों के प्रति अस्थिर नीति अपनाई और उनके साथ शांति स्थापित करने की असफल कोशिश की। उन्होंने शिवाजी के पौत्र शाहू को, जो 1689 से मुगल दरबार में बंधक था, मुक्त कर सतारा का राजा बनाकर महाराष्ट्र जाने की अनुमति दी। शाहू एक उदार प्रशासक थे और आरंभ में उन्होंने मुगल आधिपत्य स्वीकार किया। किंतु जब शाहू ने पुणे के चितपावन ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ को पेशवा नियुक्त किया, तो उनके पुत्र बाजीराव प्रथम ने पुनः मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण शुरू कर दिया। बहादुरशाह ने मराठों को दक्षिण की ‘सरदेशमुखी’ दी थी, किंतु ‘चौथ’ वसूलने का अधिकार नहीं दिया था।

बहादुरशाह ने मीरबख्शी जुल्फिकार खाँ को दकन की सूबेदारी प्रदान कर एक ही अमीर को दो महत्त्वपूर्ण पद देने की भूल की। उनके शासनकाल में वजीर के पद का सम्मान बढ़ा, जिसके कारण इस पद को प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा बढ़ी।

उन्होंने जजिया कर की वसूली बंद कर दी, हालांकि इसे समाप्त नहीं किया। उनके शासनकाल में मंदिरों को नहीं तोड़ा गया। अपने पाँच वर्ष के संक्षिप्त शासनकाल में उन्होंने संगीत को नये सिरे से समर्थन दिया।

1711 में एक डच प्रतिनिधिमंडल जेसुआ केटेलार के नेतृत्व में मुगल दरबार में आया, जिसमें एक पुर्तगाली महिला ‘जुलियानी’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इस भूमिका के कारण उन्हें ‘बीबी फिदवा’ की उपाधि दी गई।

बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु

लाहौर में शालीमार बाग का पुनर्निर्माण कराते समय 27 फरवरी 1712 को बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। उनकी कब्र दिल्ली के मेहरौली में 13वीं शताब्दी के सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के निकट शाह आलम द्वितीय और अकबर द्वितीय के साथ मोती मस्जिद में है।

बहादुरशाह का मूल्यांकन करते हुए इतिहासकार सिडनी ओवेन ने लिखा : “यह अंतिम बादशाह था, जिसके लिए कुछ अच्छे शब्द कहे जा सकते हैं। इसके बाद मुगल साम्राज्य का तीव्र पतन, सम्राटों की राजनीतिक तुच्छता और शक्तिहीनता का द्योतक था।” वास्तव में, बहादुरशाह का शासनकाल महान मुगलों के वैभव की अंतिम झलक थी, जो इसके बाद शीघ्र समाप्त हो गई।

बहादुरशाह के बाद उत्तराधिकार का युद्ध

बहादुरशाह की मृत्यु (27 फरवरी 1712) के बाद उनके चार पुत्रों—जहाँदारशाह, अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान, और जहाँशाह के बीच 14 मार्च 1712 को उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हुआ। इस युद्ध में इतनी निर्लज्जता दिखाई गई कि बहादुरशाह का शव एक माह तक दफन नहीं हो सका।

एक ओर अजीम-उस-शान था, तो दूसरी ओर उनके अन्य तीन पुत्र (जहाँदारशाह, रफी-उस-शान और जहाँशाह) संगठित होकर युद्ध कर रहे थे। अंत में, ईरानी दल के नेता जुल्फिकार खाँ की सहायता से 29 मार्च 1712 को जहाँदारशाह मुगल बादशाह बनने में सफल रहे।

परवर्ती मुगल शासक

जहाँदारशाह (1712-1713)

जहाँदारशाह बहादुरशाह प्रथम के चार पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। उनका जन्म 9 मई 1661 को दकन में हुआ था। उनका पूरा नाम ‘मिर्जा मुईजुद्दीन जहाँदारशाह बहादुर’ था और उनकी माता का नाम ‘निजाम बाई’ था।

बहादुरशाह की मृत्यु के बाद 14 मार्च 1712 को उनके चार पुत्रों—जहाँदारशाह, अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान, और जहाँशाह के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया। इस युद्ध में जहाँदारशाह, ईरानी दल के नेता जुल्फिकार खाँ की सहायता से 29 मार्च 1712 को 51 वर्ष की आयु में ‘शहंशाह-ए-गाजी अबुल फतेह मुईजुद्दीन जहाँदारशाह बहादुर’ की उपाधि धारण कर लाहौर में सम्राट बने।

बादशाह बनते ही जहाँदारशाह ने जुल्फिकार खाँ को 10,000 का मनसब और वजीर का पद प्रदान किया। जुल्फिकार खाँ के पिता असद खाँ को 12,000 के मनसब के साथ ‘वकील-ए-मुतलक’ के पद पर बनाए रखा और उन्हें गुजरात की सूबेदारी दी गई। जुल्फिकार खाँ को दक्षिण की सूबेदारी भी दी गई।

जहाँदारशाह अयोग्य और विलासी शासक थे। उन्होंने एक नर्तकी ‘लालकुँवर’ को ‘इम्तियाज महल’ की उपाधि दी और उसके आने-जाने के समय शाही अलम और नक्कारे के उपयोग की अनुमति दी। समकालीन लेखकों के अनुसार जहाँदारशाह ने लालकुँवर के प्रेम में शाही मर्यादा को भुला दिया। इतिहासकार खाफी खाँ लिखते हैं : “नया शासनकाल चारणों, गायकों, नर्तकों और नाट्यकर्मियों के लिए बहुत अनुकूल था।” लालकुँवर शासन के कार्यों में भी हस्तक्षेप करती थी। इसीलिए इतिहासकार इरादत खाँ ने जहाँदारशाह को ‘लंपट मूर्ख’ कहा।

जहाँदारशाह के शासनकाल में प्रशासन की शक्ति जुल्फिकार खाँ के हाथों में केंद्रित थी। जुल्फिकार खाँ ने अपने प्रशासनिक दायित्व अपने नजदीकी व्यक्ति ‘सुभागचंद’ को सौंप दिए। जहाँदारशाह ने राजपूतों के प्रति मैत्रीपूर्ण नीति अपनाई, आमेर के जयसिंह को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर ‘मिर्जा राजा’ की उपाधि दी और मारवाड़ के अजीतसिंह को ‘महाराजा’ की उपाधि देकर गुजरात का शासक बनाया।

जुल्फिकार खाँ ने चूड़ामन जाट और छत्रसाल बुंदेला के साथ मित्रता की, किंतु सिक्ख नेता बंदा बहादुर के खिलाफ दमनकारी नीति जारी रखी। उन्होंने जागीरों और ओहदों की वृद्धि पर रोक लगाकर साम्राज्य की वित्तीय स्थिति सुधारने का प्रयास किया। जहाँदारशाह ने ‘जजिया’ को समाप्त कर दिया, किंतु ‘इजारा व्यवस्था’ (ठेकेदारी व्यवस्था) को प्रोत्साहन दिया। इससे सरकार को निश्चित आय तो मिली, किंतु इजारेदारों को किसानों से मनमाना राजस्व वसूलने की छूट मिल गई, जिससे किसानों का उत्पीड़न बढ़ा।

जुल्फिकार खाँ वजीर की शक्ति बढ़ाकर शक्तिशाली होना चाहते थे, जिसके कारण शाही अमीरों ने उनके खिलाफ षड्यंत्र शुरू कर दिया। जहाँदारशाह को अपदस्थ करने के लिए अजीम-उस-शान के पुत्र फर्रुखसियर ने 1712 में ‘सैयद बंधुओं’—पटना के सूबेदार हुसैन अली खाँ और उनके भाई इलाहाबाद के सहायक सूबेदार अब्दुल्ला खाँ के साथ पटना से प्रस्थान किया। सैयद बंधु उत्तरकालीन मुगल इतिहास में ‘शासक निर्माता’ के रूप में प्रसिद्ध हैं।

फर्रुखसियर ने सैयद बंधुओं की सहायता से 10 जनवरी 1713 को सामूगढ़ (आगरा) के युद्ध में जहाँदारशाह की सेना को पराजित किया। जहाँदारशाह भागकर दिल्ली में जुल्फिकार खाँ के पिता असद खाँ के यहाँ शरण लेने की कोशिश की, किंतु असद खाँ ने उन्हें दिल्ली के किले में कैद कर लिया। अंततः 12 फरवरी 1713 को असद खाँ और जुल्फिकार खाँ ने जहाँदारशाह की हत्या कर दी। इस प्रकार जहाँदारशाह तैमूर वंश का पहला बादशाह था, जो अपने नीच, क्रूर स्वभाव, मानसिक दुर्बलता और कायरता के कारण शासन करने में पूरी तरह अयोग्य सिद्ध हुआ। इतिहासकार इरादत खाँ ने लिखा : “जहाँदारशाह के शासनकाल में उल्लू बाज के घोंसले में रहता था, और कोयल का स्थान कौवे ने ले लिया था।”

फर्रुखसियर (1713-1719)

फर्रुखसियर का पूरा नाम ‘अबुल मुजफ्फरुद्दीन मुहम्मद शाह फर्रुखसियर’ था। उन्होंने 1713 से 1719 तक मुगल सम्राट के रूप में शासन किया। जहाँदारशाह ने 1712 में फर्रुखसियर के पिता अजीम-उस-शान की हत्या कर सिंहासन हथिया लिया था। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए फर्रुखसियर ने सैयद बंधुओं—अब्दुल्ला खाँ और हुसैन अली खाँ की सहायता से 10 जनवरी 1713 को सामूगढ़ के युद्ध में जहाँदारशाह को पराजित किया और उनकी हत्या कर दी। फर्रुखसियर ने 12 फरवरी 1713 को दिल्ली में प्रवेश किया और लाल किले में स्वयं को मुगल सम्राट घोषित किया। अपने छह वर्ष के शासनकाल में वे सैयद बंधुओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सके।

कृतज्ञता में फर्रुखसियर ने सैयद अब्दुल्ला खाँ बारहा को ‘कुतुब-उल-मुल्क यार-ए-वफादार जफरजंग’ की उपाधि, वजीर का पद और सात हजार का मनसब देकर मुल्तान की सूबेदारी प्रदान की। उनके छोटे भाई हुसैन अली खाँ बारहा को ‘अमीर-उल-उमरा फिरोजजंग’ की उपाधि, मीरबख्शी का पद, सात हजार का मनसब और बिहार की सूबेदारी दी गई।

फर्रुखसियर के शासनकाल में मुगलों को सिक्खों पर विजय प्राप्त हुई। सिक्ख नेता बंदा सिंह बहादुर 1708 से मुगलों के लिए परेशानी का कारण बने हुए थे। 1716 में उन्हें गुरदासपुर में पकड़ लिया गया और 19 जून 1716 को दिल्ली में उनकी हत्या कर दी गई। बंदा सिंह की क्रूर हत्या से सिक्ख समुदाय में मुगलों के प्रति आक्रोश बढ़ गया।

1715 में जॉन सरमन के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल भारत आया, जो 1717 में फर्रुखसियर के दरबार में पहुँचा। उस समय फर्रुखसियर एक जानलेवा घाव से पीड़ित थे। शिष्टमंडल में शामिल डॉक्टर हैमिल्टन ने उनका इलाज किया। इससे प्रसन्न होकर फर्रुखसियर ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापारिक रियायतें दीं, जिनमें बिना सीमा शुल्क के बंगाल के रास्ते व्यापार करने की अनुमति शामिल थी। उनके द्वारा जारी फरमान को ‘ईस्ट इंडिया कंपनी का मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है।

फर्रुखसियर जल्द ही सैयद बंधुओं से तंग आ गए और उनसे मुक्त होने की कोशिश करने लगे। उन्होंने एक षड्यंत्र रचा, किंतु सैयद बंधु उनसे अधिक चतुर थे। उन्होंने मराठों को दकन में ‘सरदेशमुखी’ और ‘चौथ’ वसूलने की अनुमति देकर अपनी ओर मिला लिया। जब फर्रुखसियर ने हुसैन अली को पराजित करने की कोशिश की, तो सैयद बंधुओं ने मराठा सैनिकों की सहायता से 28 फरवरी 1719 को फर्रुखसियर को बंदी बना लिया और रफी-उद-दरजात को बादशाह घोषित किया। अंततः 29 अप्रैल 1719 को फर्रुखसियर की हत्या कर दी गई।

फर्रुखसियर के बाद सैयद बंधुओं ने दो शहजादों—रफी-उद-दरजात और रफी-उद-दौला को सम्राट बनाया, जो अल्पकाल में मर गए। इस समय सैयद बंधु अपनी शक्ति के चरम पर थे। कोई भी मुगल सम्राट उनके प्रभाव से बच नहीं पा रहा था। अंत में उन्होंने रोशन अख्तर (मुहम्मद शाह) को 1719 में दिल्ली की गद्दी पर बैठाया।

मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ (1719-1748)

मुहम्मद शाह, जिनका बचपन का नाम रोशन अख्तर था, मुगल वंश का 14वाँ बादशाह था। सैयद बंधुओं ने जहाँशाह के इस चौथे पुत्र को रफी-उद-दौला की मृत्यु के बाद 1719 में मुगल गद्दी पर बैठाया। उन्होंने 1719 से 1748 तक शासन किया।

परवर्ती मुगल शासकों का इतिहास (History of the Later Mughal Rulers)
परवर्ती मुगल शासकों का इतिहास

मुहम्मद शाह एक अयोग्य शासक थे। वे अपना अधिकांश समय पशुओं की लड़ाई देखने, वेश्याओं और शराब में व्यतीत करते थे, जिसके कारण उन्हें ‘रंगीला’ की उपाधि मिली। सैयद बंधुओं के बढ़ते प्रभुत्व के कारण ईरानी और तूरानी अमीरों ने उन्हें समाप्त करने का षड्यंत्र रचा। इसमें ईरानी दल के नेता मुहम्मद अमीन खाँ, मुहम्मद शाह और राजमाता कुदसिया बेगम शामिल थे। 8 अक्टूबर 1720 को हैदर बेग ने हुसैन अली खाँ बारहा की छुरा घोंपकर हत्या कर दी।

अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए अब्दुल्ला खाँ ने इब्राहीम को बादशाह घोषित किया और मुहम्मद शाह के खिलाफ अभियान शुरू किया। किंतु, नवंबर 1720 में हसनपुर के युद्ध में शाही सेना ने अब्दुल्ला खाँ को पराजित कर बंदी बना लिया और बाद में उनकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार मुहम्मद शाह के शासनकाल में सैयद बंधुओं का प्रभाव पूरी तरह समाप्त हो गया।

मुहम्मद शाह 1722 में एक स्वतंत्र मुगल बादशाह के रूप में प्रतिष्ठित हुए, जो संभवतः उनके जीवन की एकमात्र उल्लेखनीय उपलब्धि थी। उनके शासनकाल में निजाम-उल-मुल्क ने दक्षिण में एक स्वतंत्र राज्य की नींव डाली। सआदत खाँ ने अवध में और मुर्शिद कुली खाँ ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लगभग स्वतंत्र राज्य स्थापित किए। गंगा और दोआब क्षेत्र में रोहिला सरदारों ने भी अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम कर ली।

मराठों ने बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मार्च 1737 में मात्र 500 घुड़सवारों के साथ दिल्ली को घेर लिया। मुहम्मद शाह बाजीराव की सेना को देखकर लाल किले में छिप गए। उन्होंने दकन के सूबेदार निजाम-उल-मुल्क को बाजीराव को रोकने का आदेश दिया। निजाम-उल-मुल्क, जिसे 1728 में बाजीराव ने पराजित किया था, बदला लेना चाहता था। उसने भोपाल के निकट बाजीराव की सेनाओं को घेर लिया, किंतु बाजीराव ने निजाम और मुगल सेनाओं को पराजित कर दिया। 1738 में भोपाल की संधि हुई, जिसके द्वारा संपूर्ण मालवा क्षेत्र मराठों को मिल गया।

परवर्ती मुगल शासकों का इतिहास (History of the Later Mughal Rulers)
परवर्ती मुगल शासकों का इतिहास

1739 में फारस के शासक नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया। हिंदुकुश को पार करते हुए उन्होंने पेशावर के सूबेदार को पराजित किया और करनाल के युद्ध में मुहम्मद शाह की सेना, जो लगभग एक लाख से अधिक थी, को हराकर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। नादिरशाह ने स्वयं को सुल्तान घोषित किया और अपने नाम का ‘खुतबा’ पढ़वाया। अपने सैनिकों की हत्या से नाराज होकर नादिरशाह ने दिल्ली में भयानक लूटपाट और कत्लेआम किया, जिसमें लगभग 40,000 लोग मारे गए और अरबों का खजाना लूट लिया गया, जिसमें ‘कोहिनूर’ हीरा और शाहजहाँ का ‘तख्त-ए-ताउस’ (मयूर सिंहासन) भी शामिल था। इस हार से मुगल साम्राज्य की शक्ति और तेजी से क्षीण हुई और भारत विदेशी शक्तियों का अखाड़ा बन गया। 1748 में मुहम्मद शाह की मृत्यु हो गई,और उनके पुत्र अहमदशाह बहादुर मुगल बादशाह बने।

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