1941 में विश्व की राजनीति में दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये। पश्चिमी यूरोप तथा अधिकांश पूर्वी यूरोप में पौलैंड, बेल्जियम, हॉलैंड, नार्वे और फ्रांस पर अधिकर कर लेने के बाद नाजी जर्मनी ने 22 जून 1941 को सोवियत संघ पर भी आक्रमण कर दिया। 7 दिसंबर 1941 को जापान ने पर्लहार्बर में एक अमरीकी समुद्री बेड़े पर आकस्मिक आक्रमण किया और जर्मनी तथा इटली की ओर से युद्ध में शामिल हो गया। उसने बड़ी तेजी से दक्षिण-पूर्व एशिया में फिलीपीन, हिंदचीन, इंडोनेशिया, मलाया और बर्मा पर अधिकार कर लिया। 8 मार्च 1942 को जब जापानी फौजों ने रंगून (वर्तमान यांगून) पर कब्जा कर लिया तो युद्ध भारत की सीमाओं तक आ पहुँचा, जिससे भारत के सीमांत क्षेत्रों पर सीधा खतरा पैदा हो गया।
भारतीय नेता, जिन्हें दिसंबर 1941 में रिहा किया गया, भारतीय सीमाओं की सुरक्षा को लेकर परेशान थे। सोवियत संघ और चीन को लेकर भी वे चिंतित थे। बहुतों को लग रहा था कि सोवियत संघ पर हिटलर के हमले ने युद्ध के चरित्र को बदल दिया है। गांधी ‘एशिया एशियाइयों के लिए है’ के जापानी नारे की निंदा कर चुके थे। अब उन्होंने भारत के लोगों से जापानी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील शुरू की। भारतीय सीमाओं की रक्षा करने तथा मित्रराष्ट्रों की सहायता करने की आतुरता में कांग्रेस कार्यसमिति ने जापानी आक्रमण की निंदा की और गांधी तथा नेहरू की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए दिसंबर के अंत में एक प्रस्ताव पारित किया कि यदि ब्रिटेन युद्ध के बाद भारत को पूर्ण स्वाधीनता का वचन दे और तुरंत ठोस रूप में सत्ता के हस्तांतरण पर राजी हो जाए तो ब्रितानी सरकार को युद्ध में सहयोग किया जा सकता है। इसी समय गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
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क्रिप्स मिशन (1942)
द्वितीय विश्व युद्ध में मित्रराष्ट्रों की स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़़ती जा रही थी। ब्रिटिश सेनाओं की दक्षिण-पूर्व एशिया में पराजय और जापानी सेना के रंगून पर अधिकार कर लेने के कारण ब्रिटिश सरकार को युद्ध-प्रयासों में भारतीयों के सक्रिय सहयोग की तत्काल आवश्यकता थी। भारत मित्रराष्ट्रों को इस शर्त पर समर्थन देने की जिद पर अड़ा था कि भारत को ठोस उत्तरदायी शासन तुरंत हस्तांतरित किया जाए और युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को पूर्ण स्वतंत्रता का आश्वासन दिया जाए।
संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट, चीन के राष्ट्रपति च्यांग काई शेक तथा ब्रिटेन के लेबर पार्टी के बहुत से सदस्य ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल पर भारत की संवैधानिक समस्या को सुलझाने के लिए दबाव डाल रहे थे ताकि संकट की इस घड़ी में भारतीयों का सहयोग मिल सके। रूजवेल्ट ने चर्चिल से कहा कि एटलांटिक चार्टर के अनुसार भारत सहित समस्त अधीन क्षेत्रों को अपनी इच्छानुसार अपनी सरकार चुनने का अधिकार दिया जायेगा। फलतः रूजवेल्ट के दबाव और जापान के बढ़ते खतरे ने ब्रिटिश सरकार को भारत की संवैधानिक समस्या का समाधान करने के लिए बाध्य किया, जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने 11 मार्च 1942 को युद्धकालीन मंत्रिमंडल के एक सदस्य स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक सद्भाव मंडल भारत भेजने की घोषणा की: ‘युद्ध मंत्रिमंडल ने भारत के विषय में एक मत होकर कुछ निर्णय किये हैं और हाउस ऑफ कामन्स के नेता सर स्टैफर्ड क्रिप्स भारत जाकर स्वयं निजी विचार-विमर्श से अपने आपको संतुष्ट कर इस निर्णय से लोगों को अवगत करायेंगे और यह निर्णय एक न्यायपूर्ण और अंतिम निर्णय होगा और अभीष्ट मन्तव्य प्राप्त कर लेगा।’’ सर स्टैफर्ड क्रिप्स को यह भी आदेश था कि वह न केवल बहुसंख्यक हिंदुओं से ही आवश्यक सहमति प्राप्त करें अपितु सबसे अधिक संख्यक, अल्पसंख्यक जाति मुसलमानों से भी सहमति प्राप्त करें।’ क्रिप्स मिशन के अध्यक्ष सर स्टैफोर्ड क्रिप्स थे, इसलिए इस मिशन को ‘क्रिप्स मिशन’ के नाम से जाना जाता है।
सर स्टैफर्ड क्रिप्स पहले लेबर पार्टी के वामपंथी सदस्य रहे और भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के पक्के समर्थक थे। चर्चिल भारत में क्रिप्स के नेतृत्व में मिशन भेजकर अमेरीका, भारत और इंग्लैंड की जनता को यह दिखाना चाहता था कि वह भारत की संवैधानिक समस्या के समाधान के लिए किंतना गंभीर है, जबकि वास्तव में वह भारत पर अपनी पकड़ को किसी भी प्रकार से ढ़ीली नहीं करना चाहता था।
क्रिप्स मिशन के मुख्य प्रस्ताव
क्रिप्स मिशन ब्रिटिश मंत्रिमंडल द्वारा तैयार किये गये एक विस्तृत योजना के साथ 23 मार्च 1942 को दिल्ली आया और घोषणा की कि भारत में ब्रिटश सरकार का उद्देश्य जितनी जल्दी संभव हो, भारत में स्वशासन की स्थापना करना है। उसने 23 मार्च 1942 को ही प्रस्तावित मसविदा कार्यकारी परिषद और भारतीय नेताओें के समक्ष रखा। इसके बाद मिशन ने लगभग तीन सप्ताह तक भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों- कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, देसी राजाओं के प्रतिनिधियों और राष्ट्रवादी मुसलमानों से विचार-विमर्श किया। कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू तथा मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को क्रिप्स मिशन से विचार-विमर्श करने और उसके प्रस्तावों के परीक्षण के लिए अधिकृत किया था। व्यापक विचार-विमर्श के बाद क्रिप्स ने 30 मार्च 1942 को अपनी योजना प्रस्तुत की, जिसमें मुख्यतः दो प्रस्ताव थे- एक युद्धोत्तर और दूसरा युद्धकालीन।
- युद्धोत्तर प्रस्ताव के अंतर्गत भारत को डोमिनियन स्टेट्स (स्वतंत्र उपनिवेश) का दर्जा देने के साथ एक भारतीय संघ की स्थापना की जानी थी, जो राष्ट्रमंडल के साथ अपने संबंधों के निर्धारण में स्वतंत्र होगा और संयुक्त राष्ट्रसंघ व अन्य अंतर्राष्ट्रीय निकायों तथा संस्थाओं में अपनी भूमिका को खुद ही निर्धारित कर करेगा।
- युद्ध की समाप्ति के बाद् नये संविधान निर्माण हेतु एक संविधान निर्मात्री परिषद् का गठन किया जायेगा, जिसके कुछ सदस्य प्रांतीय विधायिकाओं द्वारा निर्वाचित होंगे और कुछ (रियासतों का प्रतिनिधित्व करने के लिए) राजाओं द्वारा मनोनीत किये जायेंगे।
- प्रस्ताव में यह भी व्यवस्था थी कि यदि किसी प्रांत या देसी रियासत को संविधान निर्मात्री परिषद द्वारा बनाया गया नया संविधान स्वीकार्य नहीं होगा, तो वह अपने भविष्य के लिए ब्रिटेन से अलग समझौता कर सकता है या अपना पृथक् संविधान बना सकता है।
- युद्धकालीन प्रस्ताव के अंतर्गत इस दौर में भारत की प्रतिरक्षा पर ब्रिटिश सरकार का पूरा-का-पूरा नियंत्रण बना रहेगा और गवर्नर जनरल की समस्त शक्तियाँ पूर्ववत् बनी रहेंगी।
क्रिप्स मिशन का मूल्यांकन
क्रिप्स मिशन का प्रस्ताव लिनलिथगो के अगस्त-प्रस्ताव की तुलना में बेहतर और अधिक प्रगतिशील था, क्योंकि इसमें भारतीयों को न केवल वास्तविक तौर पर संविधान के निर्माण का अधिकार दिया जा रहा था, बल्कि भारत को ऐच्छिक रूप से राष्ट्रमंडल में सम्मिलित होने या अलग होने का अधिकार भी मिल रहा था। युद्ध के दौरान अंतरिम सरकार के गठन और वायसरॉय की कार्यकारी परिषद में भारतीयों के नियुक्ति की बात भी कही गई थी, किंतु क्रिप्स के सभी प्रस्तावों में कोई न कोई शर्त जोड़ दी गई थी। यही नहीं, प्रस्ताव में संविधान निर्मात्री परिषद द्वारा बनाये गये नये संविधान को अस्वीकार करने वाले प्रांतों या देसी रियासतों को अपना अलग संविधान बनाने का प्रावधान किया गया था, जो अप्रत्यक्ष रूप में भारत के विभाजन का प्रयास था।
क्रिप्स मिशन की असफलता
क्रिप्स प्रस्तावों में भारतीय हितों की पूरी तरह अनदेखी की गई थी। यही कारण है कि क्रिप्स के अनुरक्षणवादी, प्रतिक्रियाशील और सीमित प्रस्ताव का भारत के विभिन्न दलों और समूहों ने अलग-अलग आधार पर विरोध किया।
कांग्रेस की मुख्य माँग एक वास्तविक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना थी, जिसके पास सारे अधिकार सुरक्षित हों और जिसमें वायसरॉय केवल एक अध्यक्ष की हैसियत से कार्य करता हो, जबकि क्रिप्स ने डोमिनियन स्टेट्स (औपनिवेशिक राज्य) का दर्जा दिये जाने प्रस्ताव रखा था। वस्तुतः ब्रिटिश सरकार चाहती ही नहीं थी कि वास्तविक शक्ति भारतवासियों को दी जाए। वह देश की प्रतिरक्षा की जिम्मेदारी अपने हाथों में ही रखना चाहती थी और गवर्नर जनरल के वीटो के अधिकार को भी बनाये रखने के पक्ष में थी। संविधान सभा में रियासतों की जनता के बजाय शासकों द्वारा नामांकन की व्यवस्था और प्रांतों को पृथक् संविधान बनाने के विकल्प पर भी कांग्रेस को कड़ी आपत्ति थी, जो अप्रत्यक्ष रूप से भारत का विभाजन सुनिश्चित करती थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अंतरिम प्रबंध, रक्षा से संबधित योजना और प्रांतों के आत्म-निर्णय के अधिकार को अस्वीकार कर दिया। नेहरू के अनुसार क्रिप्स योजना को स्वीकार करना भारत को अनिश्चित खंडों में विभाजित करने के लिए मार्ग प्रशस्त करना था। महात्मा गांधी ने क्रिप्स प्रस्तावों पर टिप्पणी करते हुये कहा कि यह एक दिवालिया बैंक का बाद की तारीख का चेक था, जिसे स्वीकार करने के लिए वह तैयार नहीं थे। अंततः वीटो (निषेधाधिकार) के प्रश्न पर स्टैफर्ड क्रिप्स और कांग्रेसी नेताओं के बीच वार्ता टूट हो गई।
दूसरी ओर मुस्लिम लीग ने भी ‘पाकिस्तान’ की स्पष्ट घोषणा न किये जाने और एकल भारतीय संघ की व्यवस्था के कारण क्रिप्स प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। संविधान सभा के गठन का जो आधार तय किया गया था, वह उसे स्वीकार्य नहीं था तथा प्रांतों के संघ से पृथक् होने तथा अपना पृथक् संविधान बनाने की जो विधि निर्धारित की गई थी, लीग उससे भी सहमत नहीं थी। अन्य दलों ने भी प्रांतों को संघ से पृथक् होने का अधिकार दिये जाने का विरोध किया। उदारपंथी और हिंदू महासभा भी प्रांतों को संघ से पृथक् होने का अधिकार दिये जाने के विरोधी थे। सर तेज बहादुर सप्रू और श्री जयकर भी इस बंटवारे के पक्ष में नहीं थे। दलितों ने इसलिए विरोध किया क्योंकि उन्हें लगा कि विभाजन के पश्चात् उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं की कृपा पर छोड़ दिया जायेगा। इसी प्रकार पिछड़ी हुई जातियाँ भी अपने लिए संरक्षणों के न मिलने से अप्रसन्न थीं। पंजाब को भारत से अलग करने की योजना से सिख भी असंतुष्ट थे। इस प्रकार क्रिप्स मिशन भारत के किसी भी वर्ग की आकांक्षाओं को पूर्ण नहीं कर सका और क्रिप्स ब्रिटिश सरकार के प्रस्तावों की योजना वापस लेकर इंग्लैंड लौट गये।
क्रिप्स मिशन की असफलता का एक कारण यह भी था कि क्रिप्स को लचीला होने की सुविधा नहीं थी; क्योंकि उन्हें जो प्रस्ताव देकर भेजा गया था, उसका अतिक्रमण करने का अधिकार उन्हें नहीं था। किंतु क्रिप्स मिशन की असफलता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण चर्चिल का अड़ियल रवैया था। दरअसल, चर्चिल ब्रिटिश साम्राज्य की अखंडता बनाये रखने का कट्टर समर्थक था और वह कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहता था जिससे भारत अंग्रेजों के हाथ से निकल जाए। उसने स्पष्ट कह दिया था कि अटलांटिक चार्टर भारत पर लागू नहीं होता और वह प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बना है कि अंग्रेजी साम्राज्य को समाप्त कर दिया जाये। यही नहीं, चर्चिल गांधी की सूरत से भी घृणा करता था और उन्हें तिरस्कारपूर्वक ‘नंगा फकीर’ कहता था। सच तो यह है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल, विदेशमंत्री एमरी, वायसरॉय लिनलिथगो और कमांडर-इन-चीफ वेवेल चाहते ही नहीं थे कि क्रिप्स मिशन सफल हो।
इस प्रकार क्रिप्स मिशन भेजने के पीछे ब्रिटिश सरकार का एक मात्र उद्देश्य युद्ध के दौरान भारत के सभी वर्गों और दलों का सहयोग प्राप्त करना था। इस मिशन की विफलता से राष्ट्रवादी नेताओं को स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटेन अभी भी वास्तविक रूप में भारत को सत्ता हस्तांतरित करने के पक्ष में नहीं है। इसी पृष्ठभूमि में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गांधीजी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करने की योजना बनाई।
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