यूरोप में प्रति धर्म सुधार आंदोलन  (The Counter Reformation in Europe)

यूरोप में प्रति धर्मसुधार आंदोलन

16वीं शताब्दी के विद्रोहात्मक धर्म-सुधार के कारण नवीन प्रोटेस्टेंट धर्म के प्रसार से चिंतित होकर कैथोलिक धर्म के अनुयायियों ने कैथोलिक चर्च व पोपशाही की शक्ति व अधिकारों को सुरक्षित करने और उनकी सत्ता को पुनः सुदृढ़ बनाने के लिए कैथोलिक धर्म में अनेक सुधार किये, जिसे ‘धर्म-सुधार-विरोधी आंदोलन’ या ‘प्रतिवादी धर्म-सुधार आंदोलन’ कहा गया है। यह आंदोलन ट्रेंट नामक नगर में चर्च की 19वीं विश्वसभा (1545-1563 v) से, जिसमें चर्च के नये संगठन के अतिरिक्त विशेष रूप में साधारण पुरोहितों के शिक्षण का प्रबंध किया गया, इसका आरंभ होकर तीसवर्षीय युद्ध की समाप्ति तक (1648 ई.) चलता रहा। इस प्रति धर्म-सुधार आंदोलन का उद्देश्य कैथोलिक चर्च में पवित्रता और उसके ऊँचे आदर्शों को पुनः स्थापित करना था।

यूरोप में प्रति धर्म सुधार आंदोलन  (The Counter Reformation in Europe)
1600 ई. में यूरोप की धार्मिक स्थिति

प्रोटेस्टेंटवाद को रोकने के उपाय

लूथर और काल्विन के विरोध के बहुत पहले ही कुछ निष्ठावान रोमन कैथोलिकों ने कैथोलिक चर्च में सुधार की माँग की थी। स्पेन में 16वीं शताब्दी के अंत में कार्डिनल जिम्मेंस ने पादरियों में दृढ़-अनुशासन लागू करके और विधर्मियों के विरुद्ध संघर्ष करके एक प्रत्याशित प्रोटेस्टेंट विद्रोह को रोक दिया था। लेकिन, यूरोप के अन्य देशों में इस तरह के सुधार की कोशिश पहले नहीं की गई। अब जब एक के बाद एक राज्य प्रोटेस्टेंट बनते जा रहे थे, तो कुछ सशक्त उपायों की आवश्यकता महसूस की गई।

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ट्रेंट की सभा के आयोजक पोप पॉल तृतीय

प्रोटेस्टेंटवाद के प्रवाह को रोकने के लिए दो तरह के प्रत्युपाय सुझाये गये। वेनिस के उदारवादी कार्डिनल कोंटारेनी ने समझौता और मेल-मिलाप का सुझाव दिया। दूसरा सुझाव नेपल्स के कार्डिनल जियान पियत्रो कैराफा की ओर से आया। कैराफा का मानना था कि प्रोटेस्टेंटवाद से समझौते की आवश्यकता नहीं है, बल्कि चर्च के अंदर व्याप्त भ्रष्ट आचरणों को रोका जाना चाहिए। उसने कहा कि प्रोटेस्टेंट विधर्मी हैं और जब तक वे पोप के प्रति अपनी सर्वोच्च भक्ति समर्पित नहीं करते हैं, तब तक उनके साथ कोई समझौता नहीं किया जायेगा। अंततः इसी विचारधारा की जीत हुई और जियान पियत्रो कैराफा पाल चतुर्थ (1555-1559 ई.) के नाम से कैथोलिक चर्च का पोप बना।

ट्रेंट की धर्म सभा  (दिसंबर 1545-1563 ई.)

पोप पाॅल तृतीय के समर्थकों के इच्छानुसार जर्मनी में सम्राट चार्ल्स पंचम ने चर्च में सुधार के लिए दिसंबर 1545 ई. में उत्तरी इटली के ट्रेंट नगर में धर्म सभा आयोजित की। ट्रेंट की यह सभा कुछ अंतराल के साथ 1545 से 1563 ई. तक चलती रही। इस सभा में चर्च के प्रकांड विद्वानों ने भाग लिया। इस सभा का आयोजन इसलिए किया गया था कि चर्च के दोषों को दूर किया जाये, मतभेदों को दूर करके प्रोटेस्टेंट लोगों को पुनः चर्च में लाने का प्रयास किया जाये और चर्च में एकता स्थापित की जाये। इस सभा का उद्देश्य यह भी था कि चर्च के सिद्धांतों की स्पष्ट व्याख्या की जाये और अनुशासन तथा नैतिकता को स्थापित किया जाये। सभा में प्रोटेस्टेंट संप्रदाय के नेताओं को भी आमंत्रित किया गया था, किंतु उन्होंने सभा में भाग लेने से इनकार कर दिया। इस प्रकार यह सभा केवल कैथोलिक चर्च की सभा रह गई और इसका उद्देश्य कैथोलिक चर्च में सुधार करना रह गया। ट्रेंट की सभा में कैथोलिक चर्च में सुधार के लिए दो तरह के निर्णय लिये गये- सिद्धांतगत निर्णय और सुधार-संबंधी निर्णय।

सिद्धांतगत निर्णय

ट्रेंट की सभा में चर्च के मूल सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं स्वीकार किया गया। लैटिन भाषा में लिखी बाइबिल ही मान्य की गई। स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि बाइबिल की व्याख्या का अधिकार सिर्फ चर्च को है। मुक्ति के लिए लूथर के श्रद्धा और आस्था के सिद्धांत को गलत माना गया और सप्त संस्कारों की उत्पत्ति ईसा से बताकर उसे अनिवार्य बताया गया। प्रोटेस्टेंट व्याख्याओं की निंदा की गई, चमत्कार में आस्था व्यक्त की गई और ‘लास्ट सपर’ के सिद्धांत की पुष्टि की गई। पोप को चर्च का सर्वोच्च अधिकारी और सर्वमान्य व्याख्याता स्वीकार किया गया।

सुधार-संबंधी निर्णय

चर्च में अनुशासन बनाये रखने के लिए चर्च के पदों की बिक्री समाप्त कर दी गई, अधिकारियों को निर्देश दिया गया था कि वे अपने कार्यक्षेत्र में रहकर आदर्श जीवन बिताते हुए सुविधाजीवी होने से बचें। पादरियों की उपयुक्त शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया गया। धर्म की भाषा लैटिन ही रही, लेकिन लोकभाषाओं का प्रयोग करने की भी आज्ञा दी गई। क्षमा-पत्रों की बिक्री रोक दी गई और संस्कार-संबंधी कार्यों के लिए पादरियों के आर्थिक लाभ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब एक अधिकारी एक ही कार्य कर सकता था। ऐसी पुस्तकों की एक सूची बनाई गई जो पूर्णतः या अंशतः चर्च विरोधी थी। कुछ पुस्तकों को पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया और कुछ का अंश निकाल कर पढ़ने योग्य समझा गया। इस प्रकार ट्रेंट की सभा के निर्णयों का कैथोलिक चर्च के पुनर्गठन और प्रति धर्म-सुधार में महत्वपूर्ण योगदान रहा।

जेसुइट संघ और इग्नेशियस लोयला

कैथोलिक धर्म में सुधार के लिए धर्म सभाओं के प्रस्ताव और निर्णय ही पर्याप्त नहीं थे, बल्कि उन्हें कार्यान्वित करने के लिए धार्मिक संगठनों की भी आवश्यकता थी। फलतः सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध में अनेक धार्मिक संघ स्थापित किये गये। इन धार्मिक संगठनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली जीसस संघ (जेसुइट संघ) था।

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जीसस संघ (जेसुइट संघ) का संस्थापक इग्नेशियस लोयला

जीसस संघ (जेसुइट संघ) का संस्थापक इग्नेशियस लोयला (1491-1556 ई.) था। इग्नेशियस लोयला (St Ignatius of Loyola) स्पेन का एक सैनिक था जो 1521 में नवार के युद्ध में घायल होकर लंगड़ा हो गया था। उसने कैथोलिक भिक्षु के वस्त्र धारणकर ज्ञान-संचय के लिए सात वर्ष तक पेरिस विश्वविद्यालय में साहित्य, दर्शन शास्त्र और धर्म-शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। यहीं चर्च को नये सिरे से संगठित करने के लिए उसने 1534 ई. में सेंट मेरी के गिरजाघर में अपने साथियों के साथ ‘सोसायटी ऑफ जेसस’ की स्थापना की थी। इस सोसायटी के सदस्य जेसुइट कहलाने लगे।

सोसायटी ऑफ जेसस का उद्देश्य कैथोलिक चर्च और ईसाई धर्म की सेवा करना, कैथोलिक धर्म का प्रचार करना तथा अपरिग्रह, बह्यचर्य और पवित्रता से जीवन व्यतीत करना था। सोसायटी ऑफ जेसस का पूरा संगठन सैनिक आधार पर था। इसका प्रमुख जनरल कहा जाता था, जो वह जीवनभर के लिए नियुक्त होता था। हर सदस्य कठोर अनुशासन में बँधा हुआ था। वही व्यक्ति इस संस्था का सदस्य बन सकता था, जिसने अपने सारे भौतिक नाते-रिश्तों को तोड़ लिया हो। हर सदस्य को दीनता, पवित्रता, आज्ञापालन और पोप के प्रति समर्थन की शपथ लेनी पड़ती थी। इस संस्था में एक अंतर्निहित आक्रमकता थी क्योंकि लोयला जानता था कि चर्च के जीवन-मरण का प्रश्न है। वह अपने अनुयायियों को केवल पवित्र जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि चर्च की रक्षा और प्रसार के लिए तैयार करता था। जेसुइट समाज के सदस्यों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन और उत्प्रेरण के लिए लोयला ने ‘स्पीरिचुअल एक्सरसाइजेज’ की रचना की।

इग्नेशियस लोयला और उसके साथी फ्रांसिस जेवियर की श्रद्धा, भक्ति और निस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर पोप पाल तृतीय ने 1540 ई. में इस जेसुइट संघ को स्वीकृति-पत्र देकर इसे कैथोलिक चर्च का सक्रिय संघ मान लिया। अकबर के शासनकाल में जेसुइट पादरी धर्म प्रचार के लिए भारत आये थे और फ्रांसिस जेवियर तो अकबर के दरबार में रहा था। जेसुइट पादरियों के प्रयास से सत्तरहवीं सदी के मध्य तक इटली, फ्रांस, स्पेन, पोलैंड, नीदरलैंड, दक्षिणी जर्मनी, हंगरी आदि देशों में कैथोलिक धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो गया।

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धार्मिक न्यायालय (इनक्वीजिशन)

प्रोटेस्टेंट धर्म की प्रगति को अवरूद्ध करने के लिए जेसुइट पादरियों और चर्च के अधिकारियों के विशेष सहयोग से विभिन्न देशों में इन्क्वीजिशन नामक धार्मिक न्यायालय स्थापित किये गये। इनकी स्थापना और गतिविधियों में जेसुइट पादरियों और धर्माधिकारियों का विशेष हाथ रहा। इस विशिष्ट धार्मिक न्यायालय को 1552 ई. में पोप पाल तृतीय ने रोम में पुनर्जीवित किया। यह न्यायालय नास्तिकों को ढूँढ निकालने, उनको कठोरतम दंड देने, कैथोलिक चर्च के सिद्धांतों को बलपूर्वक लागू करने, कैथोलिक धर्म के विरोधियों को निर्ममता से कुचलने के लिए, दूसरे देशों से धर्म के मुकदमों में अपीलें सुनने आदि के कार्य करता था। प्रोटेस्टेंटों के विरुद्ध इस न्यायालय ने बड़ी संख्या में मृत्युदंड और जीवित जला देने की सजाएँ दीं।

इस प्रकार 16वीं शताब्दी के मध्य तक रोमन कैथोलिक सुधार आंदोलन काफी आगे बढ़ गया, जिससे चर्च में नया उत्साह पैदा हुआ और प्रोटेस्टेंटों के विरुद्ध प्रत्याक्रमण शुरू किये गये। इस रणनीति ने न केवल आधे ईसाई जगत को रोमन कैथोलिकों के लिए सुरक्षित रखा, बल्कि प्रोटेस्टेंटवाद को पीछे की ओर भी धकेल दिया।

प्रति धर्मसुधार आंदोलन में शासकों की भूमिका

सोलहवीं शताब्दी में स्पेन दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक शक्ति माना जाता था। वह कट्टर रोमन कैथोलिक था। वह पश्चिमी ईसाई जगत में स्पेन की शक्ति और वैभव द्वारा रोमन कैथोलिक चर्च की सत्ता पुनः स्थापित करना अपने जीवन का उद्देश्य मानता था। इसलिए प्रोटेस्टेंटों के विरुद्ध रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा शुरू किये प्रत्याक्रमण में सबसे अधिक सहायक स्पेन का शासक फिलिप द्वितीय (1556-98 ई.) था। रोमन कैथोलिकों के पक्ष में फिलिप द्वितीय ने नीदरलैंड, इंग्लैंड और फ्रांस में प्रोटेस्टेंटों के विरुद्ध स्पेन की सारी-शक्ति लगा दी।

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प्रति धर्म सुधार आंदोलन
नीदरलैंड में प्रति धर्म-सुधार

नीदरलैंड के दक्षिणी (बेलजियम) प्रांतों में रोमन कैथोलिक चर्च का ही बोलबाला था, किंतु उत्तरी (डच) प्रांतों मे काल्विनवाद का जोर था। फिलिप द्वितीय ने डच प्रोटेस्टेंटवाद को समाप्त करने के लिए कड़ा कदम उठाया। उसने विधर्मिता के विरुद्ध कानून लागू करने के लिए इनक्यूजिशन लागू किया गया और बारह नये रोमन कैथोलिक बिशप के पदों का सृजन किया। 1566 ई. में नीदरलैंड के 400 प्रमुख कुलीनों ने अपनी माँगों की तालिका लुई फिलिप के सामने प्रस्तुत किया। जब उनकी कोई माँग नहीं मानी गई तो प्रोटेस्टेंटों ने रोमन कैथोलिक चर्च का रूप बिगाड़ना आरंभ किया। इस पर फिलिप ने अल्वा के ड्युक के नेतृत्व में दस हजार स्पेनी सैनिक नीदरलैंड के दमन के लिए भेजा। छह साल तक आतंक का राज्य कायम रहा है और हजारों डच मारे गये। परंतु डचों ने डरने के बदले हथियार उठा लिया। विलियम आफ आरेंज के नेतृत्व में डचों ने स्पेनी संचार और व्यापार पर आक्रमण करना शुरू किया। 1580 ई. में डचों ने पूर्वी द्वीपसमूह में पुर्तगाली साम्राज्य पर कब्जा कर लिया जो फिलिप द्वितीय के कब्जे में था।

उत्तरी प्रोटेस्टेंट राज्यों की बढ़ती हुई शक्ति से डरकर दक्षिणी दस रोमन प्रांतों ने स्पेन का संरक्षण स्वीकार किया। किंतु, सात काल्विनवादी उत्तरी प्रांतों ने अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखा। 1584 ई. में विलियम ऑफ आरेंज की हत्या हो गई। अंत में फिलिप की मृत्यु के ग्यारह साल बाद 1609 ई. में स्पेन ने बारह वर्ष के लिए युद्ध-स्थगन का प्रस्ताव स्वीकार किया और 1648 ई. में स्पेन ने डच नीदरलैंड की पूर्ण स्वतंत्रता को मान्यता दे दी। इस प्रकार, नीदरलैंड में फिलिप द्वितीय का धर्मयुद्ध अंशतः सफल रहा।

इंग्लैंड में प्रति धर्मसुधार

धर्मयुद्ध के क्षेत्र में फिलिप द्वितीय का सबसे शानदार प्रयास रोमन कैथोलिक चर्च के अंदर इंग्लैंड को लाने का प्रयास था। उसने इंग्लैंड की रोमन कैथोलिक रानी मेरी ट्यूडर से विवाह किया। परंतु इस विवाह ने और इंग्लिश प्रोटेस्टेंटों की हत्या ने न केवल महारानी को, बल्कि रोमन कैथोलिक चर्च को भी, इंग्लैंड की जनता की नजरों से गिरा दिया। फिर यह शादी रोमन कैथोलिक उत्तराधिकारी पैदा नहीं कर सकी। 1558 ई. में जब मेरी ट्यूडर की मृत्यु हो गई, तो फिलिप ने इंग्लैंड में अपने प्रभाव को बनाये रखने के लिए मेरी की उत्तराधिकारी एलिजाबेथ से विवाह करने का प्रयास किया। किंतु एलिजाबेथ दूरदर्शी और देशभक्त थी। इसलिए उसने चालाकी से फिलिप द्वितीय के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

अपनी योजना को असफल होते देख फिलिप ने एलिजाबेथ की हत्या का षड्यंत्र किया। एलिजाबेथ के बाद इंग्लैंड की गद्दी की दूसरी दावेदार रोमन कैथोलिक मेरी स्कॉट (1542-1587 ई.) थी, जो स्कॉटलैंड की राजकुमारी थी और फ्रांस में ब्याही गई थी। 1560 ई. में अपने पति फ्रांसिस की मृत्यु के बाद निःसंतान मेरी स्कॉटलैंड लौट आई।

मेरी स्वयं कैथोलिक थी और उसकी जनता प्रोटेस्टेंट। चालाक मेरी ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए 1565 ई. में अंग्रेज डार्नले से विवाह किया। मेरी ने डार्नले को राजा के अधिकार नहीं दिये और सचिव रिजिओ से प्यार करने लगी। जब डार्नले ने रिजिओ की हत्या करवा दी तो मेरी ने 1567 ई. में डार्नले की हत्या करवाकर बाथवेल से विवाह कर लिया। इन घटनाओं के कारण स्कॉटलैंड की काल्विनवादी जनता ने मेरी के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और मेरी को बंदी बना लिया। धूर्त मेरी ने अपनी सुंदरता का लाभ उठाते हुए जेलर जार्ज डगलस को अपने प्रेमपाश में बाँधने का नाटक किया और जेल से भाग निकली। मेरी भागकर इंग्लैंड पहुँची और एलिजाबेथ की सहायता माँगी। दूरदर्शी और बुद्धिमान शासिका एलिजाबेथ ने मेरी को नजरबंद कर दिया। बाद में जब एलिजाबेथ को पता चला कि फिलिप द्वितीय द्वारा उसकी हत्या की साजिश में मेरी स्कॉट भी शामिल थी, तो 8 फरवरी 1587 ई. को मेरी स्कॉट (स्टुअर्ट) को फाँसी दे दी गई।

इस बीच एलिजाबेथ डच प्रोटेस्टेंट-विरोधियों की मदद करती रही और अंग्रेज समुद्री लुटेरों को स्पेनी जहाजों को लूटने के लिए प्रोत्साहित करती रही। जब फिलिप द्वितीय को मेरी स्टुअर्ट की फाँसी का समाचार मिला, तो उसने अपने अजेय जहाजी बेड़े की सहायता से इंग्लैंड को जीतने का निर्णय लिया। परंतु 8 अगस्त 1588 ई. में इग्लैंड ने स्पेनी आर्मडा को ध्वस्त कर दिया। स्पेनी आर्मडा की पराजय के फलस्वरूप समुद्र पर इंग्लैंड का दबदबा कायम हो गया और इंग्लैंड से प्रोटेस्टेंटवाद को समाप्त करने का फिलिप द्वितीय का मंसूबा असफल हो गया।

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