सांप्रदायिकता के विकास के विभिन्न चरण
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को सांप्रदायिकता के विकास से गहरा आघात पहुँचा। ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के समय से ही अंग्रेज मुसलमानों को अपना शत्रु मानते थे। उन्हें लगता था कि ब्रिटिश राज के विस्तार और स्थायित्व के लिए मुसलमानों को दबाए रखना आवश्यक है। कहा जाता है कि 1792 का बंगाल का स्थायी बंदोबस्त मुसलमानों के दमन और हिंदुओं के समर्थन के लिए लागू किया गया था, जिसने हिंदू कर-संग्रहकों को भूमि का स्वामी बना दिया।
प्रारंभिक स्थिति
ब्रिटिश शासन से पहले कई शताब्दियों तक भारत पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा। अधिकांश भारतीय मुसलमान इस्लाम स्वीकार करने वाले हिंदुओं की संतान थे। शताब्दियों तक सहवास के कारण हिंदुओं और मुसलमानों के रहन-सहन और रीति-रिवाजों में काफी समानता आ गई थी। यद्यपि कभी-कभी दोनों समुदायों में मनमुटाव हो जाता था, फिर भी उन्होंने सहयोग और सह-अस्तित्व का आदर्श स्थापित किया था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदुओं और मुसलमानों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। इस विद्रोह के मुख्य नेता मुसलमान थे, और विद्रोही सिपाहियों ने बहादुरशाह ‘जफर’ को भारत का सम्राट घोषित किया था।
1857 के बाद ब्रिटिश नीति
अंग्रेजों को लगता था कि 1857 का विद्रोह मुसलमानों द्वारा अपनी सत्ता पुनः स्थापित करने का प्रयास था। विद्रोह के दमन के बाद ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों से विशेष रूप से बदला लिया। 1858 की घोषणा में कहा गया था कि सार्वजनिक पदों पर नियुक्ति में जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा, लेकिन व्यवहार में मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से वंचित रखा गया और उनकी शिक्षा व आर्थिक स्थिति को कमजोर किया गया। उच्च पद यूरोपियनों को और निम्न पद हिंदुओं को दिए गए, जबकि मुसलमानों को सरकारी सेवाओं से लगभग बाहर रखा गया। उदाहरण के लिए, 1851 और 1862 के बीच मध्य हाईकोर्ट के 240 वकीलों में केवल एक मुसलमान था। 1871 में बंगाल के 2141 राजपत्रित अधिकारियों में 1338 यूरोपियन, 711 हिंदू और केवल 92 मुसलमान थे।
सांप्रदायिक राजनीति का आरंभ (1871-1906)
1870 के दशक से ब्रिटिश नीति में परिवर्तन हुआ और आंग्ल-मुस्लिम मित्रता की नींव पड़ी। सर विलियम हंटर ने 1871 में अपनी पुस्तक ‘The Indian Musalmans’ में आंग्ल-मुस्लिम मित्रता की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने लिखा कि भारतीय मुसलमान ब्रिटिश शासन में आर्थिक रूप से कमजोर हो चुके हैं और उन्हें शांत और संतुष्ट करके ब्रिटिश सत्ता के समर्थक बनाया जा सकता है। ब्रिटिश सरकार ने ‘बाँटो और राज करो’ की नीति के तहत मुस्लिम सांप्रदायिकता को प्रोत्साहित किया। पहले बंगाली वर्चस्व के नाम पर प्रांतवाद को बढ़ावा दिया गया, फिर जातिप्रथा का उपयोग कर गैर-ब्राह्मण जातियों को ब्राह्मणों और निम्न जातियों को उच्च जातियों के खिलाफ भड़काया गया। संयुक्त प्रांत और बिहार में उर्दू-हिंदी विवाद को भी सांप्रदायिक रंग दिया गया।
सर सैयद अहमद खाँ की भूमिका
मुस्लिम सांप्रदायिकता के विकास में सर सैयद अहमद खाँ की महत्वपूर्ण भूमिका रही। शुरू में उनका दृष्टिकोण बुद्धिमत्तापूर्ण और सुधारवादी था, लेकिन बाद में यह सांप्रदायिक हो गया। उन्होंने मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अलीगढ़ कॉलेज (मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज) की स्थापना की। 1880 के दशक में उन्होंने औपनिवेशिक शासन का समर्थन शुरू किया और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए विशेष व्यवहार की माँग की। उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन से मुसलमानों को दूर रखने के लिए मुस्लिम शिक्षा सम्मेलन (1887), इंडियन पैट्रियॉटिक एसोसिएशन और मोहम्मडन-एंग्लो ओरिएंटल डिफेंस एसोसिएशन (1893) जैसे संगठनों की स्थापना की। सैयद अहमद खाँ ने घोषणा की कि यदि मुसलमान ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार रहें, तो सरकार उन्हें नौकरियों और अन्य रियायतों के रूप में पुरस्कृत करेगी। अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य बैक के प्रभाव में वे यह कहने लगे कि हिंदू बहुसंख्यक हैं, और ब्रिटिश शासन के कमजोर होने पर मुसलमानों पर हिंदुओं का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा।
हिंदूवादी सांप्रदायिकता का विकास
870 के दशक से हिंदू जमींदार, सूदखोर और मध्यवर्गीय पेशेवर लोग मुस्लिम-विरोधी भावनाएँ भड़काने लगे। आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन ने हिंदू सांप्रदायिकता की नींव रखी। संयुक्त प्रांत और बिहार में हिंदी-उर्दू विवाद को सांप्रदायिक रंग दिया गया, जिसमें हिंदी को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित किया गया। 1890 के दशक में आर्य समाज ने गो-हत्या विरोधी अभियान चलाया, जो मुख्य रूप से मुसलमानों के खिलाफ था। हिंदू सांप्रदायिक नेताओं ने विधायिकाओं और सरकारी नौकरियों में हिंदुओं के लिए विशेष सीटों की माँग शुरू की।
बंगाल विभाजन और सांप्रदायिकता
1905 में लॉर्ड कर्जन ने ‘बाँटो और राज करो’ की नीति के तहत बंगाल का विभाजन किया। पूर्वी बंगाल में, जहाँ हिंदू संपन्न और शिक्षित थे, जबकि मुसलमान अधिकतर निर्धन किसान थे, कर्जन की नीतियों ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया। कर्जन ने मुसलमानों को आश्वासन दिया कि विभाजन उनके कल्याण के लिए है, लेकिन वास्तव में इसका उद्देश्य बंगाली राष्ट्रवाद को कमजोर करना और मुसलमानों को राजभक्ति का पुरस्कार देना था।
मुस्लिम लीग की स्थापना (1906)
बंग-भंग विरोधी आंदोलन से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने अभिजातवर्गीय मुसलमानों को एक राजनीतिक संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। वायसराय लॉर्ड मिंटो ने अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य आर्चीबाल्ड को पत्र लिखकर मुसलमानों का एक शिष्टमंडल भेजने को कहा, जो अपने लिए विशेष अधिकारों की माँग करे। 1 अक्टूबर 1906 को आगा खाँ के नेतृत्व में 35 मुस्लिम नेताओं ने शिमला में मिंटो से मुलाकात की और विधानसभाओं, स्थानीय संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में विशेष प्रतिनिधित्व की माँग की। मिंटो ने इन माँगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया। इसके बाद 30 दिसंबर 1906 को ढाका में नवाब सलीमुल्ला खाँ, नवाब मोहसिन-उल-मुल्क और नवाब बकार-उल-मुल्क ने ‘आल इंडिया मुस्लिम लीग’ की स्थापना की। इसका उद्देश्य मुस्लिम शिक्षित वर्ग को कांग्रेस से दूर रखना और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना था। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया और पृथक निर्वाचक मंडलों की माँग की।
पृथक निर्वाचन और मार्ले-मिंटो सुधार (1909)
1909 के मार्ले-मिंटो सुधारों ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल और विशेष प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की। इसके तहत मुस्लिम मतदाताओं के लिए अलग चुनाव क्षेत्र बनाए गए, जहाँ केवल मुस्लिम उम्मीदवार खड़े हो सकते थे और केवल मुसलमान मत दे सकते थे। भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने इसे “घातक विष का बीज” बताया। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1910 में इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पृथक निर्वाचन का विरोध किया, इसे “भारत की राजनीति में बुरी नीयत से प्रविष्ट विषैला तत्व” कहकर। इस समय राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद (अल-हिलाल के माध्यम से) और मौलाना मुहम्मद अली, हकीम अजमल खाँ, हसन इमाम, और मजहरुल हक ने अहरार आंदोलन के जरिए राष्ट्रीय विचारों को बढ़ावा दिया।
लखनऊ समझौता (1916)
1910 के दशक में मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच निकटता बढ़ी। 1912 में जिन्ना मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बने। 1916 में तिलक और जिन्ना के प्रयासों से लखनऊ समझौता हुआ, जिसमें लीग ने स्वशासन की माँग का समर्थन किया और कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन को स्वीकार किया। यह समझौता प्रगतिशील था, लेकिन कांग्रेस का सांप्रदायिक माँगों को स्वीकार करना दीर्घकाल में हानिकारक सिद्ध हुआ।
हिंदू-मुस्लिम एकता (1919-1922)
रॉलेट एक्ट विरोधी आंदोलन, खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता चरम पर थी। स्वामी सहजानंद ने जामा मस्जिद से भाषण दिया, और डॉ. सैफुद्दीन किचलू को स्वर्ण मंदिर की चाबियाँ सौंपी गईं। जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद, कश्मीर और खुदाई खिदमतगार ने कांग्रेस के साथ असहयोग आंदोलन में भाग लिया। हालांकि, खिलाफत आंदोलन की धार्मिक प्रकृति को धर्मनिरपेक्ष चेतना में बदलने में राष्ट्रवादी नेतृत्व विफल रहा, और यह एकता अस्थायी सिद्ध हुई।
सांप्रदायिकता का पुनरुत्थान और दंगे (1920 के दशक)
1920 के दशक में सांप्रदायिकता का उभार हुआ। मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों (1919) ने मताधिकार का विस्तार किया, लेकिन पृथक निर्वाचक मंडल बरकरार रखे गए। 1922 के चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन के स्थगन से हिंदू-मुस्लिम एकता कमजोर हुई। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा (1915 में स्थापित) पुनः सक्रिय हो गए। 1923 में हिंदू महासभा ने शुद्धि और हिंदू आत्मरक्षा जत्थों का गठन शुरू किया। आर्य समाज ने मलकान राजपूतों, गूजरों और बनियों को पुनः हिंदू बनाने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया। जवाब में मुसलमानों ने तबलीग और तंजीम आंदोलन शुरू किए। 1924 में कोहट दंगे में 155 लोग मारे गए। 1922-1927 के बीच 112 बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए, जिनमें गोकशी और मस्जिदों के सामने बाजा बजाने जैसे मुद्दे प्रमुख थे।
साइमन कमीशन और नेहरू रिपोर्ट (1927-1929)
साइमन कमीशन के बहिष्कार के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता के आसार दिखे। 1927 में दिल्ली में जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम नेताओं ने ‘दिल्ली प्रस्ताव’ पेश किया, जिसमें सिंध को अलग राज्य, केंद्रीय विधायिका में 33% से अधिक प्रतिनिधित्व, और पंजाब-बंगाल में आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व की माँग थी। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। 1928 की नेहरू रिपोर्ट को मुस्लिम सांप्रदायिक नेताओं, हिंदू महासभा और सिख लीग ने विरोध किया। जिन्ना ने इसे “हिंदू हितों का दस्तावेज” बताया और “हिंदू-मुस्लिम अलग रास्ते” का नारा दिया। 1929 में जिन्ना ने 14 सूत्रीय माँग-पत्र प्रस्तुत किया, जिसे भी अस्वीकार कर दिया गया।
1930 के दशक में सांप्रदायिकता
लंदन के गोलमेज सम्मेलनों (1930-1932) ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया। 1932 के सांप्रदायिक निर्णय ने मुसलमानों, सिखों और अछूतों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था की। यह 1909 के सिद्धांत पर आधारित था। कांग्रेस ने इसका विरोध किया, लेकिन 1916 के लखनऊ समझौते में वह पहले ही पृथक निर्वाचन को स्वीकार कर चुकी थी। सांप्रदायिक संगठनों को जमींदारों और सामंतों का समर्थन मिला, और वे कांग्रेस का विरोध करने लगे।
मुस्लिम राष्ट्रीयता और पाकिस्तान की अवधारणा
1930 में इकबाल ने मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में चार मुस्लिम-बहुल प्रांतों (पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध, बलूचिस्तान) को मिलाकर एक ‘इस्लामिक राज’ की बात की। 1934 में चौधरी रहमत अली ने ‘पाकिस्तान’ की अवधारणा प्रस्तुत की। शुरू में जिन्ना ने इसका मजाक उड़ाया, लेकिन बाद में इसे स्वीकार किया।
1937 के प्रांतीय चुनाव और उग्रवादी सांप्रदायिकता
937 के चुनावों में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा का प्रदर्शन कमजोर रहा। मुस्लिम लीग ने 483 में से केवल 109 सीटें जीतीं, और हिंदू महासभा भी असफल रही। कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन से इनकार कर दिया, जिससे जिन्ना ने कांग्रेस पर ‘हिंदूराज’ स्थापित करने का आरोप लगाया। इसके बाद जिन्ना ने मुस्लिम लीग को जनाधारित संगठन बनाने के लिए विभिन्न मुस्लिम दलों को इसमें शामिल किया। 1939 तक लीग की सदस्यता लाखों तक पहुँच गई। हिंदू महासभा और आरएसएस ने भी उग्र सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया। सावरकर ने ‘हिंदू राष्ट्र’ और गोलवलकर ने हिंदू संस्कृति को अपनाने की बात की।
द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और द्वितीय विश्वयुद्
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने पर कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया, जबकि मुस्लिम लीग ने ‘मुक्ति दिवस’ मनाया। ब्रिटिश सरकार ने लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रवक्ता माना। 1940 के लाहौर अधिवेशन में लीग ने अलग राष्ट्र की माँग को सैद्धांतिक मंजूरी दी। जिन्ना ने हिंदुओं और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र माना और ‘पाकिस्तान’ की अवधारणा को स्वीकार किया। 1946 में प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के दौरान दंगों ने भय का माहौल बनाया। अंततः 3 जून 1947 की माउंटबेटन योजना के आधार पर 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का गठन हुआ।
मूल्यांकन
राष्ट्रीय आंदोलन ने सांप्रदायिकता का विरोध किया, लेकिन इसे पूरी तरह रोकने में असफल रहा। राष्ट्रवादी नेताओं ने सांप्रदायिक नेताओं से बातचीत पर अधिक भरोसा किया, लेकिन सांप्रदायिकता को संतुष्ट करना संभव नहीं था। इसके बजाय, एक कठोर वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष की आवश्यकता थी, जिसमें राष्ट्रवादी नेतृत्व असफल रहा। परिणामस्वरूप, देश को विभाजन का दंश झेलना पड़ा।










