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भारत में संवैधानिक विकास
किसी भी शासन प्रणाली का यह प्रमुख कार्य होता है कि वह उसके शासकों के उद्देश्यों और लक्ष्यों की पूर्ति कर सके। भारत के विशाल साम्राज्य को हथिया लेने के बाद इस पर नियंत्रण करने और शासन-संचालन के लिए अंग्रेजों ने प्रशासन की एक नई प्रणाली को स्थापित किया। ब्रिटिश कंपनी का मुख्य लक्ष्य कंपनी के मुनाफे में बढ़ोत्तरी, भारत पर अधिकार को ब्रिटेन के लिए फायदेमंद बनाना और भारत पर ब्रिटिश पकड़ को मजबूत बनाये रखना था।
ईस्ट इंडिया कंपनी मूलतः एक व्यापारिक कंपनी थी, जिसका ढ़ाँचा पूर्वी देशों के व्यापार के लिए बनाया गया था। इसके सर्वोच्च अधिकारी भारत से हजारों मील दूर इंग्लैंड में रहते थे, फिर भी, इसने करोड़ों लोगों के ऊपर राजनीतिक आधिपत्य जमा लिया था। इस असामान्य स्थिति के कारण ब्रिटिश सरकार के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हो गईं, जैसे-ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके साम्राज्य का ब्रिटेन में बैठे कंपनी के अधिकारी किस तरह नियंत्रित करें? भारत स्थित अधिकारियों कर्मचारियों और सैनिकों पर कैसे अंकुश लगाया जाए? किस तरह बंगाल, मद्रास और बंबई में बिखरे हुए कंपनी के अधिकार-क्षेत्रों के लिए भारत में एक ही नियंत्रण-केंद्र स्थापित किया जाए? किस प्रकार ब्रिटेन के उभरते उद्योगपतियों को लाभकारी भारतीय व्यापार और भारत की विशाल संपत्ति में हिस्सा देकर संतुष्ट किया जाए आदि। इन समस्याओं के समाधान और ब्रिटिश राज्य तथा कंपनी के अधिकारियों के पारस्परिक संबंधों के पुनर्गठन के लिए समय-समय पर अनेक अधिनियम और अध्यादेश पारित किये गये, जिनके द्वारा भारत में संवैधानिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।
1773 का रेग्युलेटिंग ऐक्ट
रेग्युलेटिंग ऐक्ट कंपनी की गतिविधियों से संबंधित पहला महत्वपूर्ण संसदीय कानून था। कंपनी शासन के अधीन लाये गये इस ऐक्ट का उद्देश्य भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में लाना था। इसके अतिरिक्त इसका उद्देश्य कंपनी की संचालन समिति में आमूल-चूल परिवर्तन करना और कंपनी के राजनीतिक अस्तित्व को स्वीकार कर उसके व्यापारिक ढाँचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन-योग्य बनाना भी था।
रेग्युलेटिंग एक्ट पारित होने के कारण
ब्रिटिश अभिजात वर्ग की ईर्ष्या
बंगाल में द्वैध शासन के अधीन कंपनी के कर्मचारियों ने बंगाल को दिल खोलकर लूटा, जिससे समस्त प्रशासन अस्त-व्यस्त हो गया और बंगाल का पूर्ण विनाश हो गया। 1772 में वारेन हेस्टिंग्स के भारत आने के पहले तक अंग्रेज व्यापारी बंगाल से लूटे हुए सोने के थैले लेकर इंग्लैंड लौटते रहे और अपनी फिजूलखर्ची से अभिजातवर्ग के मन में ईष्र्या उत्पन्न करते रहे। पिट ज्येष्ठ ने इनको अंग्रेजी नवाबों की संज्ञा दी और आशंका व्यक्त की कि इस अपार धन से कहीं वे ब्रिटिश राजनीतिक जीवन को भ्रष्ट न कर दें। एच.एच. डाडवैल ने लिखा है: न केवल भारत में कुशासन द्वारा अंग्रेजी नाम को बट्टा लगने का भय था, अपितु यह भी भय था कि इंग्लैंड में भारतीय व्यापार में लगे लोग, जिन्हें अपार धन उपलब्ध था, भ्रष्ट संसदीय प्रणाली के कारण गृह मामलों में प्रभावशाली तथा अनुचित शक्ति प्राप्त करने में सफल न हो जायें। इसलिए इंग्लैंड में यह माँग की जाने लगी थी कि कंपनी के मामलों में संसदीय हस्तक्षेप किया जाना चाहिए।
इंग्लैंड में कंपनी की प्रशासनिक संरचना
इंग्लैंड में कंपनी के प्रशासन के दो मुख्य अंग थे- कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स तथा कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स, जो कंपनी के मामलों पर नियंत्रण रखते थे। कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स के वे सदस्य जो छः माह से अधिक समय तक 500 पौंड से अधिक के शेयरधारक होते थे, वोट देकर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स का चुनाव करते थे। निदेशक का पद बहुत महत्वपूर्ण होता था और धनवान भागीदार शेयरों को एकाधिकार में लेकर निदेशक बनने का प्रयास करते थे। मतों का यह क्रय-विक्रय और इससे संबद्ध कुकर्म ब्रिटिश जनता या सरकार से छुपे हुए नहीं थे।
कंपनी की वित्तीय स्थिति
बंगाल से दीवानी की अत्यधिक धन-वसूली की आशा में कंपनी के भागीदारों ने 1776 में लाभांश 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत और अगले वर्ष 12.5 प्रतिशत कर दिया। इतने अधिक लाभांश को देखकर अंग्रेजी सरकार ने संसद के अधिनियम द्वारा कंपनी को आज्ञा दी कि कंपनी दो वर्ष तक सरकार को 400,000 पौंड प्रतिवर्ष देगी और फिर यह अवधि 1772 तक बढ़ा दी। किंतु 1771-72 में बंगाल में सूखा पड़ जाने के कारण फसलें नष्ट हो गईं। हैदरअली से संभावित युद्ध और कंपनी के कर्मचारियों की धन-लोलुपता कंपनी की वित्तीय स्थिति डावांडोल हो गई। कंपनी ने पहले ब्रिटिश सरकार को दिये जानेवाले 400,000 पौंड सालाना से छूट माँगी जिससे कंपनी पर ऋण की मात्रा बढ़ने लगी। 1772 में कंपनी ने वास्तविक स्थिति को छुपाकर 12.5 प्रतिशत लाभांश जारी रखा, जबकि कंपनी पर 60 लाख पौंड ऋण था। कंपनी को घाटे से उबारने के लिए डाइरेक्टरों ने बैंक आफ इंग्लैंड से 10 लाख पौंड के ऋण के लिए आवेदन किया। इससे ब्रिटिश सरकार को कंपनी की वास्तविक स्थिति को जानने का अच्छा अवसर मिल गया
संसदीय जाँच समिति
नवंबर 1772 में ब्रिटिश सरकार ने कंपनी की कार्यविधि की जाँच करने के लिए दो समितियों की नियुक्ति की-एक प्रवर समिति, दूसरी गुप्त समिति। इन समितियों की जाँच में कंपनी के अधिकारियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग के कई प्रकरण सामने आये। जाँच समिति की रिपोर्ट के आधार पर भारत में कंपनी की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए 1773 में ब्रिटिश संसद ने दो अधिनियम पारित किये-पहले ऐक्ट के अनुसार कंपनी को 4 प्रतिशत की ब्याज पर 14 लाख पौंड कुछ शर्तों पर ऋण दिया गया। दूसरा अधिनियम रेग्युलेटिंग ऐक्ट था जिसके द्वारा कंपनी के कार्य को नियमित करने के लिए एक संविधान दिया गया।
रेग्युलेटिंग ऐक्ट के मुख्य प्रावधान
ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित यह एक्ट भारत के संबंध में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के लिए उठाया गया पहला कदम था। रेग्युलेटिंग ऐक्ट के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं-
कंपनी की शासकीय व्यवस्था में परिवर्तन
इस अधिनियम द्वारा कंपनी के संविधान में इंग्लैंड तथा भारत दोनों में ही परिवर्तन किये गये। इंग्लैंड में स्वामियों के अधिकरण में केवल उन्हीं लोगों को वोट देने का अधिकार दिया गया, जो चुनाव के कम से कम एक वर्ष पूर्व 1,000 पौंड के शेयरधारक रहे हों। इस प्रावधान के कारण 1246 छोटे अंशधारी मताधिकार से वंचित हो गये।
अब कोर्ट आफ डायरेक्टर्स का कार्यकाल एक वर्ष के स्थान पर चार वर्ष कर दिया गया तथा डायरेक्टरों की संख्या भी 24 निर्धारित कर दी गई, जिसमें से 25 प्रतिशत अर्थात् छः सदस्यों को प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करना था।
निदेशकों को यह आदेश हुआ कि वे भारत से प्राप्त होनेवाले वित्त-संबंधी पत्राचार की प्रतिलिपि ब्रिटिश सरकार के वित्त-विभाग को तथा सैनिक तथा असैनिक प्रशासन-संबंधी पत्राचार की प्रतिलिपि राज्य-सचिव के समक्ष प्रस्तुत करेंगे। इस प्रकार पहली बार ब्रिटिश संसद को भारतीय मामलों का नियंत्रण करने का अधिकार दिया गया, यद्यपि यह अभी अपूर्ण था।
बंगाल में गवर्नर जनरल तथा परिषद् की नियुक्ति
इस ऐक्ट द्वारा नया प्रशासनिक ढाँचा बनाया गया, जिसमें अध्यक्ष के रूप में गवर्नर जनरल तथा चार पार्षद नियुक्त किये गये। इस परिषद् में निर्णय बहुमत से होने थे और अध्यक्ष केवल मत बराबर होने की दशा में अपने निर्णायक मत का प्रयोग कर सकता था। बैठक में परिषद् के तीन सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य थी। प्रथम गवर्नर जनरल (वारेन हेस्टिंग्स) और पार्षदों-फिलिप फ्रांसिस, लेफ्टिनेंट-जनरल जॉन क्लेवरिंग, माॅनसन तथा रिचर्ड बारवेल का नाम अधिनियम में ही लिखा था। इस प्रशासन मंडल का कार्यकाल पाँच वर्ष का था। इसके पहले उन्हें केवल कोर्ट आॅफ डाइरेक्टर्स के सुझाव पर ब्रिटिश सम्राट ही हटा सकता था। भावी गवर्नर जनरल तथा पार्षदों की नियुक्तियाँ कंपनी को ही करनी थी।
वारेन हेस्टिंग्स के सुधार और नीतियाँ
सपरिषद् गवर्नर जनरल को बंगाल में फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी के सैनिक तथा असैनिक शासन का अधिकार दिया गया तथा कुछ विशेष मामलों में बंबई तथा मद्रास के दो अन्य गवर्नर भी उसके अधीन कर दिये गये। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स को भारत का प्रथम गवर्नर जनरल होने का श्रेय मिला।
सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना
रेग्युलेटिंग ऐक्ट में न्यायिक प्रशासन के लिए कलकत्ता में एक मुख्य और तीन छोटे जजोंवाले एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना का प्रस्ताव भी था। न्यायाधीशों की योग्यता के संबंध में कहा गया था कि इनके लिए इंग्लैंड तथा आयरलैंड में न्यूनतम् पाँच वर्ष तक बैरिस्टर (वकील) होना जरूरी था। इस न्यायालय का कार्य क्षेत्र बंगाल, बिहार, उड़ीसा तक था। कलकत्ता से बाहर के झगड़े यह न्यायालय तभी सुन सकता था, जब दोनों पक्ष इसके लिए सहमत हों। उच्चतम न्यायालय कंपनी तथा सम्राट की सेवा में लगे व्यक्तियों के विरुद्ध मामले की भी सुनवाई कर सकता था। इस सर्वोच्च न्यायालय को अंग्रेजी साम्य न्याय तथा देश विधि के न्यायालय, नौसेना विधि के न्यायालय तथा धार्मिक न्यायालय के रूप् में काम करना था। इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।
यह उच्चतम न्यायालय 1774 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम में स्थापित किया गया, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश सर एलीजा इम्पे और तीन छोटे न्यायाधीश- चेंबर्ज, लिमैस्टर और हाइड नियुक्त किये गये।
ब्रिटिश सरकार का कंपनी पर नियंत्रण
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट ने एक ईमानदार शासक का आधरभूत सिद्धांत निश्चित किया कि कोई भी व्यक्ति जो कंपनी के अधीन सैनिक व असैनिक पदाधिकारी हो, वह किसी भी व्यक्ति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई उपहार, दान या पारितोषिक नहीं ले सकता।
इस अधिनियम द्वारा कंपनी के अधिकारियों व कर्मचारियों के वेतन को बढ़ा दिये गये। गवर्नर जनरल को 25,000 पौंड, पार्षदों को 1,000 पौंड, मुख्य न्यायाधीश को 8,000 तथा छोटे न्यायाधीशों को 6,000 वार्षिक वेतन दिया जाना था, जो संभवतः समकालीन संसार का उच्चतम् वेतन था।
इस प्रकार 1773 के ऐक्ट के द्वारा भारत में कंपनी के कार्यों में ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप व नियंत्रण प्रारंभ हुआ और कंपनी को शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान मिला।
अधिनियम का मूल्यांकन
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट एक समझौता था, जिसमें अनेक विषयों को जानबूझ कर अस्पष्ट रखा गया था।
गवर्नर जनरल तथा परिषद् के झगड़े
गवर्नर जनरल के पास अपनी परिषद् के सदस्यों को नियंत्रित करने की शक्ति नहीं थी। वह अपनी परिषद् के सदस्यों के बहुमत के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकता था। प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स और परिषद् के सदस्यों के बीच लगातार विवाद की स्थिति बनी रही। अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल की परिषद् में निर्णय बहुमत से होना था, किंतु फ्रांसिस की अगुवाई में परिषद् के तीन सदस्य गवर्नर जनरल को भ्रष्ट समझते थे, जिससे अक्टूबर 1774 से सितंबर 1776 तक प्रशासनिक गतिरोध बना रहा। वारेन हेस्टिंग्स तो दुःखी होकर अपना त्यागपत्र तक भेज चुका था, किंतु माॅनसन की मृत्यु से स्थिति में सुधार हुआ क्योंकि नया पार्षद नियुक्त होने तक हेस्टिंग्स अपने निर्णायक मत का प्रयोग कर सकता था।
सर्वोच्च नयायालय का अस्पष्ट कार्य-क्षेत्र
अधिनियम ने न्यायालय तो स्थापित कर दिया, किंतु उसका अधिकार-क्षेत्र अस्पष्ट और त्रुटिपूर्ण था। यह स्पष्ट नहीं था कि न्यायालय भारतीय कानून का अनुसरण करेगा या फिर ब्रिटिश कानून का। न्यायाधिकरण और परिषद् के अधिकार-क्षेत्र और संबंधों को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं थी।
अन्य प्रेसीडेंसियों पर अपूर्ण नियंत्रण
इस अधिनियम द्वारा कलकत्ते में एक केंद्रीय प्राधिकरण स्थापित करने का प्रयास भी असफल रहा। बंबई तथा मद्रास की प्रांतीय सरकारों ने गवर्नर जनरल से पूछे बिना स्वयं हैदरअली और मराठों से युद्ध आरंभ कर दिया।
इस प्रकार ऐक्ट से न तो राज्य को कंपनी पर निश्चित नियंत्रण स्थापित हुआ और न ही निदेशकों को अपने कार्यकत्र्ताओं पर, न गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् पर और न ही कलकत्ता प्रेसीडेंसी को बंबई तथा मद्रास प्रेसीडेंसियों पर। फिर भी, अधिनियम इसलिए महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि अब यह मान लिया गया कि ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापारिक संस्थान नहीं, एक राजनीतिक सत्ता है। इस अधिनियम से कंपनी पर ब्रिटिश संसद के नियंत्रण की शुरूआत हुई और भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्वप्न साकार रूप लेने लगा।
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट 11 वर्ष तक चलता रहा। 1784 में इसके स्थान पर पिट का इंडिया ऐक्ट पारित किया गया। वारेन हेस्टिंग्स ही एक ऐसा गवन्रर जनरल था जिसने इस अधिनियम के अनुसार शासन किया।
1781 का संशोधित अधिनियम
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का कमियों के कारण ब्रिटिश संसद ने 1781 में दो कमेटियों की नियुक्ति की, जिसमें पहली को भारत में प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था की समीक्षा करनी थी, और दूसरी कमेटी को कर्नाटक युद्ध के कारणों का पता लगाना और सामुद्रिक तट के शासन की जाँच करना था।
कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता
संशोधनात्मक अधिनियम के प्रावधान
पहली कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1781 में ही एक संशोधनात्मक अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम के द्वारा रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की कमियों को दूर करने और सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया।
- अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि उच्चतम न्यायालय सरकारी अधिकारी के रूप में किये गये कंपनी के अधिकारियों व कर्मचारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सकता। इस प्रकार कंपनी के पदाधिकारियों को सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र से बाहर कर दिया गया।
- गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् द्वारा व्यक्तिगत या सम्मिलित रूप से बनाये गये नियमों, विनियमों या तत्संबंधी विचार-विमर्श को उच्चतम न्यायालय के न्यायिक क्षेत्राधिकार से मुक्त कर दिया गया।
- इस अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् को देशी अदालतों के फैसलों की अपीलें सुनने और प्रांतीय अदालतों के कार्य-संचालन के लिए नियम और उपनियम बनाने का अधिकार मिला।
- सपरिषद् गवर्नर जनरल अपील सुनने के संबंध में सर्वोच्च न्यायाधिकरण बनाया गया। 5,000 पौंड या उससे अधिक की धनराशि के दीवानी मुकदमों की अपील सुनने का अधिकार सम्राट और उसकी परिषद् को प्राप्त था।
- इस अधिनियम द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र को स्पष्ट कर दिया गया और कलकत्ता के सभी निवासियों पर उसकी अधिकारिता को प्रमाणित किया गया।
- ऐक्ट में यह प्रावधान किया गया कि कोई भी कानून बनाने तथा उसका क्रियान्वयन करते समय भारतीयों (हिंदुओं और मुसलमानों) के सामाजिक तथा धार्मिक रीति-रिवाजों का सम्मान किया जाए।
इस प्रकार इस अधिनियम से रेग्यूलेटिंग ऐक्ट में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये और सरकार को सुदृढ़ करने का प्रयास किया गया।
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