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परवर्ती मुगल शासक
मुगल साम्राज्य अपने अभूतपूर्व विस्तार, अपनी विशाल सैन्य-शक्ति और सांस्कृतिक उपलब्धियों के बावजूद अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में अवनति की ओर जाने लगा था। औरंगजेब का राज्यकाल मुगलों का सांध्यकाल था क्योंकि इस समय मुगल साम्राज्य को अनेक व्याधियों ने खोखला करना शुरू कर दिया था। औरंगजेब की मृत्यु के अगले बावन वर्षों में आठ बादशाह दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुए। किंतु वे इतने अयोग्य और दुर्बल थे कि गिरते साम्राज्य को सँभाल नहीं सकते थे। देश के भिन्न-भिन्न भागों में देशी और विदेशी शक्तियों ने छोटे-बड़े राज्य स्थापित कर लिये। बंगाल, अवध और दकन जैसे अनेक प्रदेश मुगल नियंत्रण से बाहर हो गये। दक्षिण में निजामुलमुल्क, बंगाल में मुर्शिदकुली खाँ और अवध में सआदतअली खाँ ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। इसी मार्ग का अनुकरण रुहेलखंड के अफगान पठानों ने भी किया।
मराठों ने भी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पूना को अपनी राजनीतिक क्रिया-कलापों का केंद्र बना लिया। इसके बाद भी, मुगल साम्राज्य का इतना प्रभाव था कि पतन की गति बहुत धीमी रही। अठारहवीं शताब्दी के चौथे दशक के अंत से उत्तर-पश्चिम की ओर से विदेशी आक्रमणकारियों ने साम्राज्य पर प्रहार करना आरंभ कर दिया और यूरोपीय व्यापारिक कंपनियाँ भी भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने लगीं। वास्तव में 1737 ई. में बाजीराव प्रथम और 1739 ई. में नादिरशाह के दिल्ली पर आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के खोखलेपन की पोल खोल दी और 1740 ई. के बाद इस साम्राज्य का पतन स्पष्ट दिखने लगा था।
उत्तरकालीन मुगल सम्राट
औरंगजेब की मृत्यु के बाद जिन ग्यारह मुगल सम्राटों ने भारत पर शासन किया, उन्हें ‘उत्तकालीन मुगल सम्राट’ कहा जाता है।
बहादुरशाह प्रथम (1709-1712 ई.)
बहादुरशाह प्रथम दिल्ली का सातवाँ मुगल बादशाह था, जिसका मूलनाम ‘कुतुब-उद्-दीन मुहम्मद मुअज्जम’ था। बहादुरशाह प्रथम का पूरा नाम ‘अबुल नासिर सैय्यद-कुतुब-उद-दीन मुहम्मद शाहआलम बहादुरशाह’ था। उसका जन्म 14 अक्टूबर, 1643 ई. को बुरहानपुर में हुआ था और वह मुगल बादशाह औरंगजेब का दूसरा पुत्र था। इसकी माता नाम नवाबबाई था, जो राजौरी के राजा राजू की पुत्री थी। बहादुरशाह प्रथम को ‘शाहआलम प्रथम’ या ‘आलमशाह प्रथम’ के नाम से भी जाना जाता है।
औरंगजेब ने 1663 ई. में बहादुरशाह प्रथम दक्षिण के दक्कन पठार क्षेत्र और मध्य भारत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया था। 1683-1684 ई. में उसने दक्षिण बंबई (वर्तमान मुंबई) में गोवा के पुर्तगाली इलाकों में मराठों के विरूद्ध सेना का नेतृत्व किया, किंतु पुर्तगालियों की सहायता न मिलने के कारण उसे पीछे हटना पड़ा था। 1699 ई. में औरंगजेब ने उसे काबुल (वर्तमान अफगानिस्तान) का सूबेदार नियुक्त किया था।
मुगल शहजादों में उत्तराधिकार के लिए अकसर खूनी संघर्ष होता था। औरंगजेब के सबसे महत्त्वाकांक्षी पुत्र अकबर ने अपने पिता के विरूद्ध विद्रोह किया था और औरंगजेब की मृत्यु से बहुत पहले ही निर्वासन में उसकी मौत हो गई थी। इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के समय उसके केवल तीन पुत्र जीवित थे- मुहम्मद मुअज्जम, मुहम्मद आजम और मुहम्मद कमबख्श। इस प्रकार औरंगजेब के जीवित पुत्रों में मुअज्जम सबसे ज्येष्ठ पुत्र था, जो पेशावर का सूबेदार था।
औरंगजेब की मृत्यु 3 मार्च, 1707 ई. को अहमदनगर में हुई। औरंगजेब की मृत्यु की सूचना मिलते ही मुहम्मद मुअज्ज़म पेशावर से आगरा की और रवाना हुआ। उसने लाहौर के उत्तर में स्थित ‘पुल-ए-शाह’ नामक स्थान पर 22 अप्रैल 1707 ई. को ‘बहादुरशाह’ के नाम से अपना राज्याभिषेक किया।
उत्तराधिकार का युद्ध
उत्तराधिकार को लेकर मुअज्जम को अपने छोटे भाइयों- मुहम्मद आजम तथा मुहम्मद कामबख्श से युद्ध करना पड़ा। बूँदी के बुधसिंह हाड़ा और अंबर के विजय कछवाहा को उसने पहले से ही अपनी ओर मिला लिया था, जिसके कारण उसे बड़ी संख्या में राजपूतों का समर्थन मिला।
मुहम्मद मुअज्जम और मुहम्मद आजम के बीच 12 जून, 1707 ई. को सामूगढ़ के समीप ‘जाजऊ’ नामक स्थान पर उत्तराधिकार का पहला युद्ध हुआ, जिसमें मुहम्मद आजम अपने पुत्रों- बीदर बख्त और वलाजाह के साथ मारा गया और मुअज्जम 1707 ई. में बहादुरशाह के नाम से मुगल सम्राट की गद्दी पर बैठा।
मुहम्मद मुअज्जम को मुगल सिंहासन के लिए अपने छोटे भाई कामबख्श से भी युद्ध करना पड़ा। उसने दूसरे भाई कामबख्श को 13 जनवरी, 1709 को हैदराबाद के निकट एक युद्ध में पराजित किया, जिसके बाद कामबख्श की मृत्यु हो गई।
बहादुरशाह प्रथम ने बादशाह बनते ही अपने समर्थकों को नई पदवियाँ तथा ऊँचा पद प्रदान किया। मुनीम खाँ को वजीर नियुक्त किया, औरंगजेब के वजीर असद खाँ को ‘वकील-ए-मुतलक’ का पद दिया और उसके बेटे जुल्फिकार खाँ को मीरबख्शी बनाया।
बहादुरशाह प्रथम एक उदार मुगल बादशाह था। सिंहासनारोहण के समय उसकी आयु 63 वर्ष थी और वह सक्रिय रूप से कार्य नहीं कर सकता था। वह भोग-विलास में लीन होकर राजकीय कार्यों के प्रति इतना लापरवाह हो गया था कि उसकी उपाधि ही ‘शाहे बेखबर’ हो गई थी।
ईरानी दल और तूरानी दल
बहादुरशाह प्रथम की दुर्बलता और निष्क्रियता के कारण मुगल दरबार में षड्यंत्र होने लगे, जिसके कारण अमीरों के दो दल बन गये थे- ईरानी दल और तूरानी दल। ईरानी दल के अमीर ‘शिया मत’ को मानते थे, जिसमें असद खाँ और उसके बेटे जुल्फिकार खाँ जैसे अमीर थे, जबकि तूरानी दल के अमीर ‘सुन्नी मत’ के समर्थक थे, जिसमें ‘चिनकिलिच खाँ और फिरोज गाजीउद्दीन जंग जैसे लोग सम्मिलित थे।
राजपूतों के प्रति नीति
बहादुरशाह प्रथम ने राजपूतों के प्रति शांति और समझौते की नीति अपनाई। उसने मारवाड़ के राजपूत राजा अजीतसिंह को पराजित कर उसे 3500 का मनसब और ‘महाराज’ की उपाधि दी, किंतु बहादुरशाह के दक्षिण जाते ही अजीतसिंह, दुर्गादास और जयसिंह कछवाहा ने मेवाड़ के महाराज अमरजीतसिंह के नेतृत्व में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और राजपूताना संघ का गठन कर लिया। किंतु बहादुरशाह प्रथम ने इन राजाओं से संघर्ष करने के बजाय समझौता करना उचित समझा और उसने इन शासकों को मान्यता दे दी।
सिक्खों के विरुद्ध कार्यवाही
बहादुरशाह को सिक्खों के विरुद्ध कार्यवाही करनी पड़ी। सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु गोविंदसिंह ने 1699 ई. में ‘खालसा’ की स्थापना की थी। यद्यपि गुरु गोविंदसिंह ने उत्तराधिकार के युद्ध में बहादुरशाह प्रथम का समर्थन किया था, किंतु 1708 ई. में नांदेड़ में उनकी हत्या हो गई और इसके बाद कोई सिक्ख गुरु नहीं हुआ। गुरु गोविंदसिंह की हत्या के बाद एक शक्तिशाली सिक्ख नेता के रूप में बंदाबहादुर का उदय हुआ, जिसने मुगल सम्राटों की नाक में दम कर दिया।
बंदा बहादुर ने पंजाब के विभिन्न हिस्सों के सिक्खों को एकजुट कर मुगलों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और कैथल, समाना, शाहबाद, अंबाला, क्यूरी और सधौरा पर अधिकार कर लिया। उसने सरहिंद के गर्वनर वजीर खाँ को पराजित कर मार डाला और उसने स्वयं को ‘सच्चा बादशाह’ घोषित किया। बंदा बहादुर ने अपना टकसाल स्थापित किया और एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया।
बहादुरशाह प्रथम ने बंदाबहादुर को दंडित करने के लिए 26 जून, 1710 को सधौरा में घेर लिया, किंतु बंदा लोहागढ़ के किले में भाग गया। लोहगढ़ का किला गुरु गोविंद सिंह ने अंबाला के उत्तर-पूर्व में हिमालय की तराई में बनवाया था। बहादुरशाह ने लोहागढ़ को घेरकर सिक्खों से कड़ा संघर्ष किया और 1711 ई. में पुनः सरहिंद पर अधिकर कर लिया। इस प्रकार अपनी उदारता के बावजूद बहादुरशाह सिक्खों को अपना मित्र नहीं बना सका और बंदाबहादुर मुगलों को तंग करता रहा।
बुंदेलों और जाटों से मित्रता
बहादुरशाह प्रथम ने बुंदेला सरदार ‘छत्रसाल’ से मेल-मिलाप किया, जिसके परिणामस्वरूप छत्रसाल मुगलों का एक निष्ठावान सामंत बन गया। बादशाह बहादुरशाह ने जाट सरदार चूड़ामन से भी मित्रता कर ली और चूड़ामन ने बंदाबहादुर के विरूद्ध अभियान में बादशाह का साथ दिया।
मराठों के साथ भी शांति के प्रयास
बहादुरशाह प्रथम से मराठों के प्रति अस्थिर नीति अपनाई और उनके साथ शांति स्थापित करने की असफल कोशिश की। उसने शिवाजी के पौत्र शाहू को, जो 1689 ई. से ही मुगल दरबार में बंधक था, मुक्त कर दिया और सतारा का राजा बनाकर महाराष्ट्र जाने की अनुमति दे दी। शाहू एक उदार प्रशासक था और आरंभ में उसने मुगल आधिपत्य स्वीकार कर लिया, किंतु जब शाहू ने पुणे के चितपावन ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ को पेशवा के रूप में नियुक्त किया, तो उसके पुत्र बाजीराव प्रथम ने पुनः मुगल क्षेत्र पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। वास्तव में, बहादुरशाह प्रथम ने मराठों को दक्षिण की ‘सरदेशमुखी’ तो दे दी थी, किंतु उसने ‘चौथ’ वसूलने का अधिकार नहीं दिया था।
बहादुरशाह प्रथम ने मीरबख्शी के पद पर आसीन जुल्फिकार खाँ को दक्कन की सूबेदारी प्रदान कर एक ही अमीर को एक साथ दो महत्त्वपूर्ण पद प्रदान करने की गलती की। उसके समय में ही वजीर के पद के सम्मान में वृद्धि हुई, जिसके कारण वजीर का पद प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा बढ़ी।
बहादुरशाह ने जजिया कर को समाप्त नहीं किया, किंतु उसने इसकी वसूली बंद कर दी। इसके शासनकाल के दौरान मंदिरों को भी नहीं तोडा गया। अपने पाँच वर्ष के संक्षिप्त शासनकाल के दौरान बहादुरशाह ने संगीत को नये सिरे से समर्थन दिया।
बहादुरशाह प्रथम के के शासनकाल में 1711 ई. में एक डच प्रतिनिधि शिष्टमंडल जेसुआ केटेलार के नेतृत्व में मुगल दरबार में आया था, जिसमें एक पुर्तगाली महिला ‘जुलियानी’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उसकी इस भूमिका के कारण उसे ‘बीबी फिदवा’ की उपाधि दी गई थी।
बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु
लाहौर में शालीमार बाग का पुनर्निर्माण कराते समय 27 फरवरी, 1712 ई. को बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। उसकी कब्र मेहरौली में 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध सूफी संत कुतबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के निकट शाहआलम द्वितीय और अकबर द्वितीय के साथ मोती मस्जिद में है।
बहादुरशाह का मूल्यांकन करते हुए सिडनी ओवन ने लिखा है कि, ‘यह अंतिम बादशाह था जिसके लिए कुछ अच्छे शब्द कहे जा सकते हैं। इसके पश्चात् मुगल सामाज्य का तीव्रगामी और पूर्ण पतन मुगल सम्राटों की राजनैतिक तुच्छता और शक्तिहीनता का द्योतक था।’ वास्तव में बहादुरशाह का शासनकाल महान मुगलों के वैभव की अंतिम झलक थी, जो उसके पश्चात् शीघ्रता से समाप्त हो गई।
बहादुरशाह के बाद उत्तराधिकार का युद्ध
बहादुरशाह की मृत्यु (27 फरवरी, 1712 ई.) के बाद उसके चार पुत्रों- जहाँदारशाह, अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान और जहाँशाह में 14 मार्च, 1712 ई. को उत्तराधिकार के लिए युद्ध आरंभ हो गया। उत्तराधिकार के लिए उसके पुत्रों ने इतनी निर्लज्जता दिखाई कि बहादुरशाह का शव एक माह तक दफन नहीं किया जा सका।
बहादुरशाह के पुत्रों के उत्तराधिकार युद्ध में एक ओर उसका पुत्र अजीम-उस-शान था, तो दूसरी ओर उसके अन्य तीन पुत्र (जहाँदारशाह, रफी-उस-शान और जहाँशाह) संगठित होकर युद्ध कर रहे थे। अंत में, दरबार में ईरानी दल के नेता जुल्फिकार खाँ की सहायता से 29 मार्च, 1712 ई. को जहाँदारशाह मुगल बादशाह बनने में सफल रहा।
जहाँदारशाह (1712 ई.-1713 ई.)
जहाँदारशाह बहादुरशाह प्रथम के चार पुत्रों में से सबसे ज्येष्ठ था, जिसका जन्म 9 मई, 1661 ई. को दकन में हुआ था। उसका पूरा नाम ‘मिर्जा मुईज- उद्-दीन जहाँदारशाह बहादुर’ था और उसकी माता का नाम ‘निजामबाई’ था।
बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु के बाद 14 मार्च, 1712 ई. को उसके चारों पुत्रों-जहाँदारशाह, अजीम-उस-शान, रफ़ी-उस-शान एवं जहाँशाह में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया। इसमें एक ओर बहादुरशाह का पुत्र अजीम-उस-शान था, तो दूसरी ओर उसके अन्य तीन पुत्र (जहाँदारशाह, रफी-उस-शान और जहाँशाह) संगठित होकर युद्ध कर रहे थे।
अंत में, दरबार में ईरानी दल के नेता जुल्फिकार खाँ की सहायता से जहाँदारशाह को सफलता मिली। उसने 51 वर्ष की आयु में 29 मार्च, 1712 ई. को ‘शहंशाह-ए- गाजी अबुल फतेह मुईज-उद्-दीन जहाँदारशाह बहादुर’ उपाधि धारण कर लाहौर में अपना राज्याभिषेक करवाया।
बादशाह बनते ही जहाँदारशाह ने जुल्फिकार खाँ को 10 हजार का मनसब और प्रधानमंत्री (वजीर) के पद से पुरस्कृत किया। जुल्फिकार खाँ के पिता असद खाँ को 12 हजार के मनसब से सम्मानित किया गया और उसे ‘वकीले मुतलक’ के पद पर बना रहने दिया गया। इसके अलावा, असद खाँ को गुजरात और उसके पुत्र जुल्फिकार खाँ को दक्षिण की सूबेदारी भी दी गई।
जहाँदारशाह अयोग्य एवं विलासी प्रकृति का शासक था। उसने एक नाचनेवाली ‘लालकुँवर’ को ‘इम्तियाज महल’ की पदवी से सम्मानित किया और उसके आने-जाने के समय शाही अलम एवं नक्कारे के प्रयोग की अनुमति दे दी। समकालीन लेखकों के विवरणों से लगता है कि जहाँदारशाह ने लालकुँवर के प्रेम में शाही रीति-रिवाज और मर्यादा को भुला दिया था। जहाँदारशाह के शासनकाल के बारे में इतिहासकार खाफी ख़ाँ लिखता है कि, ‘नया शासनकाल चारणों और गायकों, नर्तकों एवं नाट्यकर्मियों के समस्त वर्गों के लिए बहुत अनुकूल था।’ वास्तव में, लालकुँवर बादशाह की अनुमति से शासन के कार्यों में भी हस्तक्षेप करती थी। संभवतः इसीलिए इतिहासकार ‘इरादत खाँ ने जहाँदारशाह को ‘लंपट मूर्ख’ कहा है।
जहाँदारशाह के शासनकाल में प्रशासन की शक्ति पूरी तरह जुल्फिकार खाँ के हाथों में केंद्रित थी। जुल्फिकार खाँ ने अपने सारे प्रशासनिक दायित्व अपने एक नजदीकी व्यक्ति ‘सुभगचंद्र’ के हाथों में सौंप दिया था। जहाँदारशाह ने दरबार में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने और साम्राज्य की सुरक्षा के लिए राजपूतों के प्रति मैत्रीपूर्ण नीति अपनाई। उसने आमेर के जयसिंह को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर ‘मिर्जा राजा’ की उपाधि दी और मारवाड़ के अजीतसिंह को ‘महाराजा’ की पदवी देकर गुजरात का शासक बनाया।
जुल्फिकार खाँ ने चूड़ामन जाट और छत्रसाल बुंदेला के साथ भी मित्रता का हाथ बढ़ाया, किंतु सिक्ख नेता बंदा बहादुर के विरुद्ध उसने दमन की कार्यवाही को जारी रखा।
जुल्फिकार खाँ ने जागीरों और ओहदों की वृद्धि पर रोक लगाकार साम्राज्य की वित्तीय स्थिति को सुधारने का प्रयास किया। जहाँदारशाह ने ‘जजिया’ को समाप्त कर दिया, किंतु उसने ‘इजारा व्यवस्था’ (ठेकेदारी व्यवस्था) को प्रोत्साहन दिया। इससे राज्य सरकार को एक निश्चित मुद्रा-राशि मिलना निश्चित हो गया, किंतु इजारेदारों को किसानों से मनमाना राजस्व वसूलने की छूट मिल गई, जिससे किसानों का उत्पीड़न बढ़ा और उनकी स्थिति दयनीय हो गई।
जुल्फिकार खाँ वज़ीर की शक्ति में वृद्धि करके शक्तिशाली होना चाहता था, इसलिए शाही अमीरों ने उसके विरुद्ध षड्यंत्र करना प्रारंभ कर दिया।
जहाँदारशाह को उपदस्थ करने के लिए अजीम-उस-शान के पुत्र फर्रुखसियर ने 1712 ई. में ‘सैयदबंधु’ पटना के सूबेदार हुसैनअली खाँ और उसके बड़े भाई इलाहाबाद के सहायक सूबेदार अब्दुल्ला खाँ के साथ पटना से प्रस्थान किया। हुसैनअली खाँ और अब्दुल्ला खाँ, जिन्हें ‘सैयदबंधु’ के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर मुग़लकालीन भारतीय इतिहास में ‘शासक निर्माता’ के रूप में प्रसिद्ध हैं।
फर्रुखसियर ने सैयदबंधुओं- अब्दुल्ला खाँ और हुसैनअली खाँ की सहायता से 10 जनवरी, 1713 को सामूगढ़ (आगरा) के युद्ध में जहाँदारशाह की सेना को बुरी तरह पराजित किया। जहाँदारशाह ने भागकर दिल्ली में जुल्फिकार खाँ के पिता असद खाँ के यहाँ शरण ली, किंतु असद खाँ ने इसे दिल्ली के किले में कैद कर लिया। बाद में, 12 फ़रवरी, 1713 को असद ख़ाँ और जुल्फिकार खाँ ने जहाँदारशाह की हत्या कर दी।
इस प्रकार जहाँदारशाह तैमूर के राजवंश का पहला बादशाह था जो अपने नीच, क्रूर स्वभाव, मानसिक दुर्बलता और कायरता के कारण शासन करने में नितांत अयोग्य सिद्ध हुआ। एक समकालीन इतिहासकार इरादत ख़ाँ ने जहाँदारशाह के शासनकाल के विषय में लिखा है कि जहाँदारशाह के शासनकाल में उल्लू, बाज के घोंसले में रहता था और कोयल का स्थान कौवे ने ले लिया था।
फर्रुखसियर (1713 ई.-1719 ई.)
फर्रुखसियर का पूरा नाम ‘अब्बुल मुजफ्फरुद्दीन मुहम्मदशाह फर्रुखसियर’ था। मुगल बादशाह के रूप में उसने 1713 से 1719 ई. तक हिंदुस्तान पर शासन किया।
मुगल सम्राट जहाँदरशाह ने 1712 ई. फर्रुखसियर के पिता अजीम-ओ-शान की हत्या करके सिंहासन पर अधिकार किया था। अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए फर्रुखसियर ने सैयद बंधुओं की सहायता से जहाँदरशाह को 10 जनवरी, 1713 ई. को सामूगढ के युद्ध में पराजित किया और उसकी हत्या कर दी। फर्रुखसियर ने 12 फरवरी, 1713 ई. को दिल्ली में प्रवेश किया और लालकिले में अपने आपको मुगल साम्राट घोषित किया। अपने 6 वर्ष के कार्यकाल में फर्रुखसियर सैयद बंधुओं के चंगुल से स्वतंत्र नहीं हो सका।
कृतज्ञ फर्रुखसियर ने सैयद अब्दुल्ला खाँ बारहा को ‘कुतुब-उल-मुल्क यारे वफादार जफरजंग’ की पदवी, वजीर का पद और सात हजार के मनसब के साथ मुल्तान की सूबेदारी से पुरस्कृत किया। उसके छोटे भाई हुसैनअली खाँ बारहा को ‘अमीर-उल-उमरा फिरोजजंग’ की पदवी और मीरबख्शी के पद से सम्मानित किया गया। इसके अलावा, उसे सात हजार का मनसब और बिहार की सूबेदारी भी दी गई।
फर्रुखसियर के काल में मुगलों को सिक्खों के ऊपर विजय मिली। सिक्खों का नेता बंदासिंह बहादुर ने 1708 ई. से ही मुगलों के नाक में दम कर रखा था, किंतु 1716 ई. में बंदासिंह बहादुर को गुरुदासपुर के स्थान पर पकड़ लिया गया और 19 जून, 1716 ई. को दिल्ली में उसका कत्ल कर दिया गया। बंदासिंह बहादुर की नृशंस हत्या से पूरे सिक्ख समुदाय में मुगलों के विरुद्ध आक्रोश पैदा हो गया।
1715 ई. में एक शिष्टमंडल जॉन सरमन की नेतृत्व में भारत आया। यह शिष्टमंडल मुग़ल शासक फर्रुखसियर की दरबार में 1717 ई. में पहुँचा। उस समय फर्रुखसियर जानलेवा घाव से पीड़ित था। इस शिष्टमंडल में हैमिल्टन नामक डॉक्टर था, जिसने फर्रखसियर का इलाज किया था। इससे खुश होकर फर्रुखसियर ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार-संबंधी बहुत-सी रियायतें दीं, जिसमें बिना सीमा-शुल्क दिये बंगाल के रास्ते से व्यापार करना भी शामिल था। फर्रुखसियर द्वारा जारी किये गये फरमान को ‘ईस्ट इंडिया कंपनी का मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है।
बादशाह फर्रुखसियर शीघ्र ही सैयद बंधुओं से तंग आ गया और उनसे मुक्त होने का प्रयास करने लगा। इसके लिए उसने एक षड्यंत्र रचा और सैयद बंधुओं को रास्ते से हटाने का प्रयास किया। किंतु सैयद बंधु मुगल सम्राट से अधिक चालाक थे और उन्होंने मराठों को दकन में ‘सरदेशमुखी’ और ‘चौथ’ वसूलने की अनुमति देकर अपनी ओर मिला लिया। जब फर्रुखसियर ने हुसैनअली को पराजित करने की कोशिश की, तो सैयद बंधुओं ने मराठा सैनिकों की सहायता से फर्रुखसियर को बंदी बना लिया। अंततः 28 फरवरी, 1719 ई. को रफी-उद्-दरजात को बादशाह घोषित किया गया और 29 अप्रैल, 1719 ई. को फर्रुखसियर की हत्या कर दी गई।
फर्रुखसियर के बाद सैयद बंधुओं ने दो शहजादों- रफी-उद्-दरजात और रफी-उद्-दौला को मुगल सम्राट बनाया, जो अल्पकाल में मर गये। इस समय सैयद बंधु अपनी शक्ति के चरम शिखर पर थे। कोई भी मुगल सम्राट सैयदबंधु के चंगुल से बच नहीं पा रहा था। अंत में, सैयद बंधुओं ने रोशन अख्तर (मुहम्मदशाह) को 1719 ई. में दिल्ली की मुगल गद्दी पर बैठाया।
मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ (1719 से 1748 ई.)
मुहम्मदशाह रोशन अख्तर मुग़ल वंश का 14वाँ बादशाह था। इसके बचपन का नाम ‘रोशन अख्तर’ था। सैयद बंधुओं ने जहाँशाह के इस चौथे पुत्र ‘रोशन अख्तर’ को रफ़ी-उद्-दौला की मृत्यु के बाद मुगल गद्दी पर बैठाया। इसने 1719 से 1748 ई. तक मुग़ल साम्राज्य पर शासन किया।
मुहम्मदशाह एक अयोग्य शासक था। वह अपना अधिकांश समय पशुओं की लड़ाई देखने और वेश्याओं तथा शराब के साथ गुजारता था। इसलिए उसे ‘रंगीला’ के उपनाम से भी जाना जाता था।
मुगल दरबार में सैय्यद बंधुओं के बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण ईरानी और तूरानी दल के अमीरों ने उन्हें समाप्त करने का षड्यंत्र किया। इस षड्यंत्र में ईरानी दल का नेता मुहम्मद अमीन ख़ाँ, बादशाह मुहम्मदशाह तथा राजमाता कुदसिया बेगम शामिल थीं। फलतः तूरानी अमीरों के नेतृत्व में 8 अक्टूबर, 1720 ई. को हैदर बेग ने छुरा घोपकर हुसैनअली खाँ बारहा का वध कर दिया।
अपने भाई का बदला लेने के लिए अब्दुल्ला ख़ाँ ने इब्राहीम को बादशाह घोषित किया और सेना के साथ मुहम्मदशाह के विरुद्ध अभियान किया। किंतु नवंबर, 1720 ई. में हसनपुर के स्थान पर शाही सेना ने अब्दुल्ला ख़ाँ बारहा को पराजित कर बंदी बना लिया और बाद में विष देकर उसकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार मुहम्मदशाह के शासनकाल में सैयद बंधुओं का पूरी तरह से अंत हो गया।
मुहम्मदशाह 1722 ई. में एक स्वतंत्र मुगल बादशाह के रूप में प्रतिष्ठित हुआ, जो संभवतः उसके जीवन की एकमात्र सफलता थी। मुहम्मदशाह के समय में ही निजाम-उल-मुल्क ने दक्षिण में एक स्वतंत्र राज्य की नींव डाली। इसी समय सआदत खाँ ने अवध में और मुर्शिदकुली खाँ ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के प्रांतों में लगभग स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इसके अतिरिक्त, इसके शासनकाल में गंगा तथा दोआब क्षेत्र में रोहिला सरदारों ने भी अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी।
बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठों ने मार्च, 1737 ई. में मात्र 500 घुड़सवार सैनिकों के साथ दिल्ली को घेर लिया और मुहम्मदशाह बाजीराव की सेना को देखकर लाल किले में छुप गया। मुहम्मदशाह ने दक्कन के सूबेदार निजाम-उल-मुल्क को बाजीराव को पुणे से पहले ही रोकने के लिए कहा। निजाम-उल-मुल्क, जिसे 1728 ई. में बाजीराव प्रथम ने पराजित किया था, बाजीराव से बदला लेना चाहता था। उसने भोपाल के निकट बाजीराव की सेनाओं को घेर लिया, किंतु बाजीराव ने निजाम और मुगल सेनाओं को पराजित किया और 1738 ई. में भोपाल की संधि हुई। इस संधि से संपूर्ण मालवा क्षेत्र बाजीराव प्रथम को मिल गया, जो मराठों के लिए बड़ी सफलता थी।
फारस के शासक नादिरशाह ने 1739 ई. में भारत की ओर प्रस्थान किया और हिंदुकुश को पार करते हुए पेशावर के सूबेदार को पराजित कर भारत में आ गया। नादिरशाह ने 1739 ई. करनाल के युद्ध में मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की सेना को, जो लगभग 100000 से भी अधिक की थी, पराजित कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसने दिल्ली में स्वयं को सुल्तान घोषित किया और अपने नाम का ‘खुदबा’ पढवाया। अपने सैनिकों की हत्या से नाराज होकर नादिरशाह ने दिल्ली में भयानक लूटपाट और कत्लेआम किया। इस कत्लेआम और लूटपाट में लगभग 40,000 से भी अधिक लोग मारे और अरबों का खजाना लूट लिया गया, जिसमें ‘कोहिनूर’ हीरा और शाहजहाँ द्वारा बनवाया गया ‘तख्त-ए-ताउस’ (मयूर सिंहासन) भी शामिल था। इस हार से मुगल सम्राट शक्तिहीन हो गया, मुगल साम्राज्य के पतन की गति तेज हो गई और भारत विदेशी शक्तियों का अखाड़ा बन गया। अंत में, 1748 ई. में उसकी मौत हो गई और उसका पुत्र अहमदशाह बहादुर मुगल बादशाह बना।
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