दयानंद सरस्वती और आर्य समाज (Dayanand Saraswati and Arya Samaj)

दयानंद सरस्वती और आर्य समाज

दयानंद सरस्वती (1824-1883) आधुनिक भारत के चिंतक और ‘आर्य समाज’ के संस्थापक थे। उन्होंने वेदों के प्रचार के लिए मुंबई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की। उनका ही प्रमुख नारा  था-‘वेदों की ओर लौटो’। उन्होने कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म तथा संन्यास को अपने दर्शन का आधार-स्तंभ बनाया। उन्होने सबसे पहले 1876 में ‘स्वराज्य’ का नारा दिया, जिसे बाद में तिलक ने आगे बढ़ाया। पहली जनगणना के समय दयानंद ने आगरा से देश के सभी आर्यसमाजों को यह निर्देश दिया कि ‘सभी लोग अपना धर्म ‘सनातन धर्म’ लिखवायें।

दयानंद सरस्वती का प्रारंभिक जीवन

हिंदू धर्म एवं भारतीय संस्कृति से प्रभावित आर्य समाज के प्रवर्तक दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 में गुजरात के छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा नामक गाँव में एक धनी, किंतु रूढ़िवादी ब्राह्मण अंबाशंकर तिवारी (करशनजी लालजी) के घर हुआ था। उनके माता का नाम यशोदाबाई अथवा अमृतबाई था। उनके पिता एक कर-संग्राहक थे। मूल नक्षत्र और धनु राशि में पैदा होने के कारण बाल्यावस्था में इनका नाम ‘मूलशंकर’ रखा गया। उ दयानंद सरस्वती की माता वैष्णव थीं, जबकि उनके पिता शैव मत के अनुयायी थे। आगे चलकर विद्वान बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गये।

महाशिवरात्रि को बोध

शिव के पक्के भक्त बालक मूलशंकर को उनके पिता ने महाशिवरात्रि के अवसर पर व्रत रखने को कहा। शिवरात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मंदिर में ही रुका हुआ था। सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। किंतु उन्होंने देखा कि शिव के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और बोध हुआ कि यह वह शंकर नहीं है, जिसकी कथा उसे सुनाई गई थी। इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।

दयानंद सरस्वती और आर्य समाज (Dayanand Saraswati and Arya Samaj)
दयानंद सरस्वती और आर्य समाज
गृह-त्याग और ज्ञान की खोज

अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से मूलशंकर जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिंतित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारंभ में ही करने का निर्णय किया, किंतु बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं है।

शाश्वत सत्य के अन्वेषण हेतु एवं सत्य व शिव की प्राप्ति हेतु मूलशंकर ने 1846 में 21 वर्ष की आयु में समृद्ध घर-परिवार त्याग कर गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। उन्होंने भ्रमण करते हुए कई आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमतः वे वेदांत के प्रभाव में आये और अद्वैत मत में दीक्षित हुए, जहाँ इनका नाम शुद्ध चैतन्य पड़ा। इसके पश्चात् वे स्वामी परमानंद से संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए और यहीं इनकी प्रचलित उपाधि ‘दयानंद सरस्वती’ हो गई।

यात्रा करते हुए दयानंद सरस्वती 1859 में वैदिक साहित्य के प्रख्यात विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद के पास मथुरा पहुँचे। उन्होंने विरजानंद को अपना गुरु बनाया और गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। विरजानंद ने दक्षिणा के रूप में दयानंद से माँगा: ‘‘मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।’ उन्होंने अंतिम शिक्षा दी कि मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। अपने गुरु के आदेश के अनुरूप दयानंद ने वैदिक धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने एवं वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने का आजीवन प्रयत्न किया।

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात्

महर्षि दयानंद ने अनेक स्थानों की यात्रा की। महर्षि दयानंद ने झूठे धर्मों का खंडन करने के लिए 1863 में कुंभ के अवसर पर हरिद्वार जाकर पाखंडखंडिनी पताका फहराई और मूर्ति-पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि, ‘‘यदि गंगा नहाने, सिर मुँड़ाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते।’’ वे 1872 में कलकत्ता गये और  केशवचंद्र सेन और देवेंद्रनाथ ठाकुर के संपर्क में आये। केशवचंद्र सेन के परामर्श पर उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा संस्कृत भाषा के स्थान पर हिंदी भाषा में अपने विचारों का प्रचार करना आरंभ किये, जिससे उनकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था, ‘मैं चाहता हूँ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। किंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।’

आर्य समाज की स्थापना (10 अप्रैल, 1875)

स्वामी दयानंद ने 10 अप्रैल, 1875 को बंबई में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। इस समाज ने हिंदू धर्म को ईसाइयत और इस्लाम की तरह एक ग्रंथकेंद्रित धर्म के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। वेदों को छोड़कर कोई अन्य धर्मग्रंथ प्रमाण नहीं है- इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना प्रारंभ किया और जहाँ-जहाँ वे गये प्राचीन परंपरा के पंडित और विद्वान उनसे हार मानते गये। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रंथों का भलीभाँति अध्ययन-मंथन किया था। अतएव उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे, किंतु तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिंदुओं का था।

पश्चिम का आक्रामक प्रत्युत्तर देते हुए दयानंद ने बुद्धि और विज्ञान के पश्चिमी बौद्धिक संवाद को पूरी तरह आत्मसात किया और उनका उपयोग अपने विरोधियों के विरुद्ध किया। उनका दावा था कि, ‘‘वैज्ञानिक सत्य’ केवल वेदों में थे और इसलिए इन ग्रंथों पर आधारित धर्म ईसाइयत और इस्लाम से श्रेष्ठ था।’’ इस प्रकार दयानंद ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलाई थी, उसका कोई जवाब नहीं था।।

समाज सुधार के कार्य

महर्षि दयानंद का समाज सुधार में व्यापक योगदान रहा। वेदों की सत्ता के आधार पर दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में व्याप्त मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बलि प्रथा, प्रचलित मत-मतांतर, अवतारवाद, आडंबर, अंधविश्वास आदि की आलोचना की। उनका मानना था कि स्वार्थी और अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों जैसे ग्रंथों के सहारे हिंदू धर्म को भ्रष्ट कर दिया है। उनका विश्वास था कि कोई भी व्यक्ति सत्कर्म, ब्रह्मचर्य एवं ईश्वर की उपासना का सहारा लेकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। वैदिक धर्म श्रेष्ठतम् है क्योंकि यह वेदों पर आधारित है, जो ईश्वरीय हैं। यद्यपि वेद ईश्वर-प्रेरित हैं, किंतु उनकी व्याख्या मानव-विवेक द्वारा होनी चाहिए। मृतकों के श्राद्ध का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि परलोक में मृतक की आत्मा की शांति हेतु यहाँ दान देना एवं भोजन करवाना मूर्खता है। अभिवादन के लिए प्रचलित ‘नमस्ते’ शब्द आर्य समाज की ही देन है।

दयानंद सरस्वती ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वासों और रूढियों-बुराइयों जैसे- बाल-विवाह, बहुविवाह, पर्दाप्रथा, सतीप्रथा, अशिक्षा आदि की निंदा की। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में समाज को आध्यात्म और आस्तिकता से परिचित कराया। स्वामी जी सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा तथा स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिये जाने की वकालत की और विधवा-विवाह, अंतर्जातीय विवाह और स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया। उनका मानना था कि स्त्रियों को भी वेदों का अध्ययन करने तथा यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है।

विवाह की उम्र के संबंध में स्वामी का मानना था कि लड़कों का पच्चीस वर्ष तथा लड़कियों का सोलह वर्ष की आयु से पहले विवाह नहीं करना चाहिए। वे नियोग प्रथा के भी समर्थक थे, जिसके अनुसार विधवा स्त्री अपने पति के छोटे भाई अथवा छोटा भाई न होने पर परिवार के किसी अन्य सदस्य के साथ मिलकर ‘नियोग’ द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती थी, जिससे उसे संपत्ति में अधिकार मिल जाता था।

दयानंद ने सामाजिक समानता पर जोर दिया और छुआछूत एवं जातिप्रथा का निषेध किया, किंतु इसके साथ ही उन्होंने चार वर्णों की व्यवस्था का समर्थन किया और इस तरह भारतीय सामाजिक संगठन की बुनियाद को यथावत् रखा। उन्होंने ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध करते हुए सभी जातियों को वेदों के अध्ययन का अधिकार दिया। दूसरे शब्दों में ‘‘उन्होंने पपड़ियों (सामाजिक कुरीतियों की पपड़ियाँ) को धीरे-धीरे न तोड़ करके उन्हें एक ही चोट के ध्वस्त कर देने का निश्चय किया।’’

स्वामी दयानंद सरस्वती का मुख्य लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता था। उनका मानना था कि अच्छा से अच्छा विदेशी राज्य भी स्वराज्य का मुकाबला नहीं कर सकता है। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश्’ में एक ऐसे स्वतंत्र भारत की कल्पना की, जिसमें स्वकीय संस्कृति तथा सभ्यता की अमूल्य परंपराएँ अक्षुण्ण हैं। स्वामी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं के ‘बहिष्कार’ और ‘स्वदेशी’ के उपयोग पर बल दिया। उनके दो नारों ‘भारत भारतीयों का है’ और ‘वेदों की ओर लौटो’ से भारतीयों में देशभक्ति की भावना का संचार हुआ।

हत्या के षड्यंत्र और मृत्यु

अपने उग्र विचारों के कारण स्वामी को रूढ़िवादियों के प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। उन पर पत्थर मारे गये, विष देने के प्रयत्न हुए, डुबाने की चेष्टा की गई। वास्तव में, 1863 में गुरु विरजानंद के पास अध्ययन पूर्ण होने के बाद लगभग बीस वर्षों के कार्यकाल में दयानंद सरस्वती की हत्या व अपमान के लगभग 44 प्रयास हुए, जिसमें से 17 बार विभिन्न माध्यमों से विष देकर प्राण लेने के प्रयास हुए। अंततः 30 अक्टूबर, 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय अजमेर के असप्ताल में स्वामी जी की मृत्यु हो गई। ऐसा संकेत मिलता है कि स्वामी जी की हत्या अंग्रेजी षड्यंत्र के चलते ‘नन्हीं’ नामक वेश्या ने भोजन में काँच मिलाकर की थी। इसमें जोधपुर के अस्पताल के चिकित्सक पर भी संदेह है, जिसने संभवतः इलाज के दौरान स्वामीजी को हल्का विष दिया था। उन दिनों स्वामीजी जोधपुर नरेश महाराज जसवंतसिंह के निमंत्रण पर जोधपुर गये हुए थे।

स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानंद जी अपने पीछे ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ अर्थात ‘सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ’ का सिद्धांत छोड़ गये। उनके अंतिम शब्द थे: ‘प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।’

लेखन और साहित्य

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कई धार्मिक व सामाजिक पुस्तकें अपनी जीवन काल में लिखीं। प्रारंभिक पुस्तकें संस्कृत में थीं, किंतु समय के साथ उन्होंने कई पुस्तकों को आर्यभाषा (हिंदी) में भी लिखा। हिंदी को उन्होंने ‘आर्यभाषा’ का नाम दिया था। स्वामी दयानंद ने ‘पाखंड-खंडन’ (1866), ‘अद्वैतमत का खंडन’ (1873), ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ (1876), ‘ऋग्वेद भाष्य’ (1877), ‘सत्यार्थ प्रकाश’ (1874), ‘पंचमहायज्ञ विधि’ (1875), ‘वल्लभाचार्य मत का खंडन’ (1875), गोकरुणानिधि (1881), संस्कृतवाक्यप्रबोध, व्यवहारभानु आदि पुस्तकों की रचना की।

सत्यार्थ प्रकाश’ स्वामी दयानंद की सर्वोत्तम कृति है। इसमें उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि वैदिक धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। यह ‘चौदह समुल्लासों’ में रचित है। इसके प्रथम ‘दस समुल्लासों’ में ‘सनातन वैदिक धर्म’ का प्रतिपादन है और अंतिम ‘चार समुल्लासों’ में देशी-विदेशी मत मतांतरों की समीक्षा की गई है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 27 फ़रवरी, 1883३ को उदयपुर में एक ‘स्वीकारपत्र’ प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने अपनी मृत्योपरांत 23 व्यक्तियों को ‘परोपकारिणी सभा’ की जिम्मेदारी सौंपी थी जिनमें एक महादेव गोविंद रानडे भी थे।

यद्यपि दयानंद सरस्वती का आक्रामक सुधारवाद पूर्वी और पश्चिमी भारत में हाशिये पर ही रहा, किंतु शीघ्र ही पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रांत में स्थान-स्थान पर आर्य समाज की शाखाएँ स्थापित हो गईं। इसके बाद ग्वालियर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि स्थानों पर आर्य समाज का प्रसार हुआ। 1883 में दयानंद की मृत्यु के समय तक लगभग पूरे देश में इसकी शाखाएँ फैल गईं और इसके बाद यह आंदोलन अधिकाधिक लोकप्रिय, साथ ही अधिकाधिक आक्रामक होता चला गया।

स्वामी दयानंद के बाद शिक्षा के प्रश्न को लेकर आर्य समाज दो भागों में बँट गया। एक के नेता लाला हंसराज तथा दूसरे के नेता स्वामी श्रद्धानंद (मुंशीराम) थे। लाला हंसराज पर पाश्चात्य शिक्षा का बहुत प्रभाव था। उनके प्रयत्नों से अनेक स्थानों पर डी.ए.वी. (दयानंद एंग्लो-वैदिक) के नाम से स्कूलों एवं कॉलेजों की स्थापना हुई। 1886 में लाहौर में ‘दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूल’ की स्थापना की गई, जो 1889 में ‘दयानंद एंग्लो कॉलेज’ में बदल गया। इस कॉलेज में पश्चिमी पद्धति से पठन-पाठन किया जाता था। स्वामी श्रद्धानंद (मुंशीराम) प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के समर्थक थे। उनके प्रयत्नों से 1900 में ‘गुरुकुल कांगड़ी’ नामक संस्था की स्थापना हुई, जो कालांतर में प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बन गया। डी.ए.वी. और गुरुकुल कांगड़ी दोनों ही पद्धतियों के संस्थानों ने भारतीय संस्कृति की उपलब्धियों को उजागर करने और विद्यार्थियों के मन में आत्म-गौरव की भावना भरने का काम किया।

आर्य समाज के सुधार कार्य ने समाज की बुराइयाँ खत्म करके जनता को एकताबद्ध करने का प्रयास किया, मगर उसके धार्मिक कार्य में संभवतः अचेतन रूप में ही विकासमान हिंदुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों और ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने की प्रवृत्ति भी थी। 1893 के बाद इस समाज के एक जुझारू गुट ने धर्म-परिवर्तन करने वाले हिंदुओं को शुद्ध कर पुनः हिंदू धर्म में शामिल करने और अपनी खोई हुई जमीन दोबारा पाने के लिए पंडित गुरुदत्त और पं. लेखराम के नेतृत्व में एक शुद्धि-आंदोलन आरंभ किया। 1890 के दशक में आर्य समाज जोर-शोर से ‘गोरक्षा आंदोलन’ में लग गया और इस तरह सुधारवाद से निर्णायक सीमा तक हटकर पुनरुत्थानवाद पर पहुँच गया। 1857 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो सद्भाव उपस्थित था, उसकी नींव यहीं से हिलनी आरंभ हो गई।

फिर भी, महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित अत्यन्त प्रेरणास्पद है। डॉ. भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानंद हिंदू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे। एनी बेसेंट का कहना था कि स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए’ की घोषणा की। सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानंद ने रखी थी। पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार गांधी जी राष्ट्रपिता हैं, किंतु स्वामी दयानंद राष्ट्र-पितामह हैं। लोकमान्य तिलक ने ‘स्वराज्य का प्रथम संदेश वाहक’ और सावरकर ने ‘स्वाधीनता संग्राम का प्रथम योद्धा’ कहा है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस उन्हें ‘आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता’ मानते हैं। वीर सावरकर  ने कहा  कि महर्षि दयानंद संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे। इस प्रकार महर्षि का जीवन एक धार्मिक संत का था, उनकी प्रवृत्ति सत्यान्वेषण की थी और दृष्टि वैज्ञानिक एवं प्रजातांत्रिक थी। इस निर्भीक संन्यासी के चिंतन ने पराधीन भारत की सुप्त पड़ी आध्यात्मिक स्वाभिमान एवं स्वराज्य की भावना को जगा दिया।

देव समाज (1887)

देव समाज की स्थापना 16 फरवरी, 1887 को लाहौर में शिवनारायण अग्निहोत्री ने की थी, जो परमात्मा के स्थान पर प्रकृति में विश्वास करता था। इस समाज का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि, गुरु की श्रेष्ठता की स्थापना एवं अच्छे मानवीय कार्य करना था। इस समाज ने आदर्श सामाजिक व्यवहारों, जैसे- रिश्वत न लेना, मांसाहारी भोजन एवं मद्यपान का निषेध एवं हिंसात्मक कार्यों से दूर रहने इत्यादि को अपनाने पर जोर दिया। इस समाज की शिक्षाओं को ‘देव शास्त्र’ नामक पुस्तक में संकलित किया गया है। फिरोजपुर में ‘देवसमाज गर्ल्स कॉलेज’ ने स्त्री-शिक्षा की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

ऐतिहासक पृष्ठभूमि

20 दिसंबर, 1850 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे शिवनारायण अग्निहोत्री ने सोलह वर्ष की आयु में रुड़की के थॉम्पसन कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया। 1873 में वे लाहौर गए, जहाँ उन्होंने सरकारी स्कूल में ड्राइंग मास्टर के रूप में पद सँभाला। लाहौर प्रवास के दौरान अग्निहोत्री ब्रह्म समाज में शामिल हो गये और पूरे पंजाब में एक ब्रह्म मिशनरी के रूप् में कार्य किये। 1882 में उन्होंने ब्रह्म समाज आंदोलन के लिए पूर्णकालिक काम करने के लिए अपने शिक्षण पद से इस्तीफा दे दिया।

एक ब्रह्म समाज नेता के रूप में अग्निहोत्री ने आर्य समाज आंदोलन के साथ, विशेष रूप से स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ धार्मिक विवादों में लगे रहे। 1886 में उन्होंने पंजाब ब्रह्मो समाज से त्यागपत्र देकर 1887 में अपना स्वयं का धार्मिक समूह, ‘देव समाज (दिव्य समाज) स्थापित किया।

देव समाज की स्थापना

शिवनारायण अग्निहोत्री ने फरवरी, 1887 में ब्रह्मो तर्कवाद के स्थान पर ‘देव समाज’ की स्थापना की और ब्रह्म सुधारवाद के तत्त्वों को बरकरार रखते हुए एक प्रबुद्ध आत्मा के रूप में ‘गुरु’ की अवधारणा को अपने केंद्रीय सिद्धांत के रूप में चित्रित किया।

आरंभ में देव समाज एक आस्तिक समाज था, किंतु बाद में एक सामाजिक सुधार आंदोलन के रूप में सामने आया। सामाजिक कट्टरवाद के साथ एक सख्त नैतिक संहिता का संयोजन करते हुए शिवनारायण ने शाकाहारवाद, जातियों के सामाजिक एकीकरण, महिलाओं की शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह और बाल विवाह के उन्मूलन की वकालत की। इस समाज ने बहुविवाह, व्यभिचार, और अन्य ‘अप्राकृतिक अपराधों’ को अमान्य घोषित किया और कड़ी मेहनत पर बल दिया।

यद्यपि 1892 के आरभ में शिवनारायण ने भगवान की पूजा के साथ देवत्व की स्थिति का दावा करते हुए अपनी और भगवान की दोहरी पूजा की वकालत की और दावा किया कि उन्होंने अस्तित्व के उच्चतम संभव विमान को प्राप्त कर लिया है। किंतु 1895 तक देव समाज अपनी विचारधारा में अनिवार्य रूप से नास्तिक बन गया और अग्निहोत्री ने भगवान की पूजा को अस्वीकार कर दिया तथा‘गुरु’ की पूजा पर जोर दिया।

ब्रह्म समाज और आर्य समाज की तरह देव समाज ने भी समकालीन हिंदू धर्म को अस्वीकार कर दिया। इसने जाति प्रतिबंधों को अस्वीकार कर सदस्यों को अंतर-भोजन और अंतर्जातीय विवाह का अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित किया। अग्निहोत्री ने बाल विवाह के उन्मूलन और महिलाओं के उन्नयन की बात की। उन्होंने कानून, समाज और शिक्षा में महिलाओं की समान भागीदारी की वकालत की। उन्होंने महिलाओं के संपत्ति और शिक्षा के अधिकार को बढ़ावा देकर महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए संघर्ष किया। वे भारत की महिलाओं के ज्ञान और जीवन स्तर को सुधारना चाहते थे ताकि वे समाज के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। महिलाओं की शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए देव समाज ने भारत में लड़कियों के कई स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की। देव समाज ने पंजाब के कई हिस्सों में स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की। अग्निहोत्री ने 1901 में फिरोजपुर में लड़कियों के लिए एक हाईस्कूल खोला।

देव समाज का पतन

अग्निहोत्री एक वक्ता, लेखक और पत्रकार के रूप में सक्रिय थे। उन्होंने बड़ी मात्रा में प्रचारक साहित्य का निर्माण किया। पंजाब में शिक्षित हिंदुओं के बीच उनका विशेष प्रभाव था, जो उन्हें अपने ‘गुरु’ के रूप में देखते थे। 1921 में पंजाब में देव समाज ‘विज्ञान आधारित धर्म’ के रूप में उन्नति पर था। किंतु 1929 में अग्निहोत्री की मृत्यु के बाद इसमें गिरावट आती गई, यद्यपि यह समाप्त नहीं हुआ।

राधास्वामी समाज (1861)

उत्तर भारत में आगरा (उत्तर प्रदेश) में एक बैंकर तुलसीराम ने, जिन्हें ‘सेठ शिवदयालसिंह जी महाराज’ के नाम से भी जाना जाता था, 15 फ़रवरी, 1861 को बसंत पंचमी के दिन पहली बार राधास्वामी समाज की नींव रखी।

यह आध्यात्मिक संगठन हिंदुओं के कर्मकांड, विधि-विधान का विरोध करता था। इसमें दलित और पिछड़ी जातियों के लोग भी शामिल थे। शिक्षा के क्षेत्र में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण कार्य किये। इस संस्था में गुरुभक्ति की प्रधानता रही। गुरु ही ज्ञान, सत्य और ईश्वर का अवतार है। इसके सिद्धांत थे कि इश्वर पूर्ण है और उसे योग तथा तपस्या के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस आंदोलन के अनुयायियों का दरगाह एवं अन्य धार्मिक स्थलों पर जाने में विश्वास नहीं था। वे सत्य एवं विश्वास तथा सेवा एवं प्रार्थना को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे।

शिवदयाल सिंह का जन्म 25 अगस्त, 1818 को पन्नी गली, आगरा में हुआ था। शिवदयाल बचपन से ही शब्द योग के अभ्यास में लीन रहते थे। उन्होंने किसी को अपना गुरु नहीं बनाया। सेठ शिवदयाल सिंह जी की धर्म पत्नी का नाम राधा जी था जिस कारण सेठ शिवदयाल सिंह जी को राधास्वामी कहा जाने लगा। 1861 से पूर्व राधास्वामी मत का उपदेश कुछ चुने हुए लोगों को ही दिया जाता था, किंतु राधास्वामी मत के दूसरे आचार्य की प्रार्थना पर शिवदयालसिंह ने 1861 को बसंत पंचमी के दिन राधास्वामी संप्रदाय का द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिया।

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