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19वीं सदी में सांस्कृतिक जागरण
अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में एक नवीन बौद्धिक लहर चली, जिसके फलस्वरूप जागृति के एक नये युग का सूत्रपात हुआ। तर्कवाद, अन्वेषणा की भावना, विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण यूरोपीय सभ्यता सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में अधिक उन्नत और प्रगतिशील हो चुकी थी। इसके विपरीत, भारत एक निश्चल, निष्प्राण और दकियानूस समाज बना हुआ था। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में जब कंपनी प्रशासन ने अपने औद्योगिक हितों एवं व्यापारिक लाभ के लिए भारतीय सामाजिक संस्थाओं में सीमित हस्तक्षेप की नीति अपनाई, तो नये-नये उभर रहे मध्यम वर्ग और शिक्षित भारतीयों ने तर्कवाद व नवचेतना के आधार पर भारत के धार्मिक और सामाजिक जीवन में सुधार की जो प्रक्रिया प्रारंभ की, उसे ‘सांस्कृतिक जागरण’ की संज्ञा दी गई है। इस सांस्कृतिक जागरण की प्रक्रिया में पुरातन मान्यताओं एवं विश्वासों पर प्रहार किये गये और विभिन्न कुरीतियों का परित्याग कर नवज्ञान एवं नवीन मान्यताओं को अपनाने पर बल दिया गया। इस सांस्कृतिक जागरण के अनेक कारण थे।
सांस्कृतिक जागरण के कारण
पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति से संपर्क
भारत में ब्रिटिश सत्ता के पैर जमने के बाद यहाँ का जनमानस पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति के संपर्क में आया। अंग्रेज जानते थे कि भारत जैसे विशाल देश में प्रशासन के सफल संचालन हेतु सभी पदों पर अंग्रेजों को नियुक्त करना अत्यंत कठिन कार्य था, फलतः वे चाहते थे कि भारतीय बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग होना चाहिए जो ब्रिटिश हितों का पक्षपोषण कर सके। दूसरे शब्दों में, वे अधिकारियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते थे, जो शारीरिक रूप से भारतीय एवं मानसिक रूप से अंग्रेज हो। किंतु अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से शिक्षित भारतीयों ने भारत की सामाजिक संरचना, धर्म, रीति-रिवाज व परंपराओं को तर्क की कसौटी पर कसना आरंभ कर दिया। बी.टी. मैककली जैसे अंग्रेजी शिक्षा के समर्थकों ने बहुत पहले ही तर्क दिया था: ‘‘अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय युवकों को विचारों की ऐसी समष्टि के संपर्क में ला दिया, जो खुलकर ऐसी अनेक बुनियादी मान्यताओं को चुनौती देती थी, जिन पर परंपरागत जीवन-मूल्यों का ताना-बना टिका हुआ था।’’ अब शिक्षित भारतीय अपने ही समाज को ऐसे चश्मे से देखने लगे, जो वैचारिक दृष्टि से बुद्धि, उपयोगिता, प्रगति और न्याय जैसी अवधारणाओं से बना हुआ था। अब एक ऐसा नागरिक समाज जन्म ले चुका था जो था तो बहुत सीमित, किंतु अपनी पहचान को एक भारतीय परंपरा के दायरे में स्थापित करते हुए अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति बहुत मुखर था।
धर्म निरपेक्षता की प्रवृत्ति
सांस्कृतिक जागरण के कारण एक नई धर्म निरपेक्षता की प्रवृत्ति ने जन्म लिया और धर्म को तर्क के दंड से मापा जाने लगा, जिसके परिणामस्वरूप धर्म की विसंगतियों को या तो छोड़ा जाने लगा या उनके लिए तर्कसंगत आधार की खोज की जाने लगी। हिंदू दर्शन के उन नेताओं ने, जो इन तत्त्वों के प्रभाव का अनुभव कर रहे थे और नवीन ज्ञान से भी परिचित हो रहे थे, सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर हिंदू समाज के बौद्धिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान का कार्य आरंभ किया। तर्क और विवेक के आधार पर राममोहन रॉय जैसे सुधारकों ने भारतीय धर्म और समाज को सुधारने का प्रयास किया और यह भी स्वीकार किया कि हमें पूरब तथा पश्चिम के उत्तम विचारों को स्वीकार कर लेना चाहिए। किंतु भारत में एक ऐसा वर्ग भी था जो किसी भी कीमत पर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति को स्वीकार करने को तैयार नहीं था और भारत की प्राचीन परंपरा और संस्कृति से आधुनिक राष्ट्रवाद की प्रेरणा लेना चाहता था। इस वर्ग के सुधारक राममोहन रॉय की तरह तर्क, विवेक एवं वैज्ञानिकता के स्थान पर प्राचीन भारत को स्वर्णयुग मानकर धर्म पर आधारित न्यायसम्मत समाज की स्थापना करना चाहते थे। इस परंपरा के प्रतिनिधि केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और रामकृष्ण परमहंस जैसे सुधारक थे।
अतीत के गौरव
भारतीयों को अतीत के गौरव का जितना ज्ञान पश्चिमी विद्वानों ने कराया, उतना शायद भारतीय विद्वानों ने नहीं। जेम्स प्रिंसेप ने 1784 में बंगाल में ‘एशियाटिक सोसायटी’ की स्थापना की, जिसके तत्त्वावधान में मैक्समूलर और विलियम जोन्स जैसे विद्वानों ने न केवल प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया, वरन् उनका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया। उन्होंने हिंदुओं के अनेक धार्मिक ग्रंथों, विशेषकर वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर बताया कि यह विश्व-संस्कृति की अमूल्य निधि हैं और इनकी बराबरी संसार के अन्य धार्मिक ग्रंथ नहीं कर सकते। पश्चिमी विद्वानों ने भारत की अनेक कलाकृतियों और संस्कृति-केंद्रों को खोजकर प्राचीन भारतीय संस्कृति की विशिष्टता को भी उद्घाटित किया, जिससे भारतीयों में अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति विश्वास की भावना पैदा हुई।
भारत में ईसाई धर्म का प्रचार
उन्नीसवी शताब्दी के आरंभ से ही भारत में ईसाई धर्म का प्रचार होने लगा था। 1813 के बाद बड़ी संख्या में ईसाई धर्म-प्रचारक भारत आये और बड़े स्तर पर भारत में लोकोपकारी कार्यों की आड़ में ईसाई धर्म का प्रचार करना आरंभ कर दिये। कंपनी बहादुर ने भी इस कार्य में धर्म-प्रचारकों की बड़ी सहायता की। जब हिंदू समाज का निचला तबका अंशतः सामाजिक विसंगतियों और अंशतः धन के लोभ में ईसाई धर्म को स्वीकार करने लगा, तो प्रबुद्ध भारतीयों को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा का ध्यान आया और उन्होंने अनुभव किया कि इस धर्म-परिवर्तन को रोकने के लिए भारतीय धर्मों, विशेषकर हिंदू धर्म और समाज-व्यवस्था में सुधार किया जाना आवश्यक है।
सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन
संस्कृत के अध्ययन और छापाखाने के प्रसार के कारण भारतवासियों ने नवीन पुस्तकों और उनके विश्लेषणों का अध्ययन किया, जिसके कारण उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति की अच्छाइयों के साथ-साथ कुप्रथाओं का भी ज्ञान हुआ। अपनी सभ्यता और संस्कृति के उत्कृष्ट तत्त्वों के ज्ञान से जहाँ एक ओर भारतीयों में आत्म-विश्वास की भावना पैदा हुई, वहीं दूसरी ओर वे अपने धर्म और संस्कृति में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास भी शुरू किये। इन सुधारों के कारण न केवल भारतीय समाज का रूप बदल गया, बल्कि भारत का आधुनिकीकरण भी संभव हुआ।
प्रेस की स्थापना और पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन
भारत में प्रेस की स्थापना और अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से भी सांस्कृतिक जागरण को बल मिला। इन समाचार-पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं में न केवल अंग्रेजों के दुर्व्यवहार की घटनाएं छपती थीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रवादियों के विचारों के साथ-साथ भारतीय धर्म और समाज की कुरीतियों के विरुद्ध लेख भी छपते थे। भारतीयों के प्रति अंग्रेज प्रशासकों का व्यवहार हीनता, शोषण एवं क्रूरता का था। समाचार-पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं ने भारतवासियों को इसका ज्ञान कराया, जिससे जनमानस में आत्म-सम्मान की सुरक्षा का भाव पैदा हुआ और वे अपने समाज और धर्म की सुरक्षा तथा उसके सुधार का प्रयत्न आरंभ किये।
शहरीकरण, आधुनिकीकरण तथा रेलों के प्रचलन के कारण भी लोगों के रहने, खाने-पीने और छुआछूत आदि के विचारों पर प्रभाव पड़ा। इन नवीन विचारों के विक्षोभ ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति में प्रसार की भावना उत्पन्न की। विज्ञान, जनतंत्र तथा राष्ट्रवाद की आधुनिक दुनिया की आवश्यकताओं के अनुसार अपने समाज को ढ़ालने की इच्छा और संकल्प लेकर विचारशील भारतीयों ने अपने पारंपरिक धर्म और समाज के सुधार का कार्य आरंभ किया।
बंगाल में सुधार आंदोलन
19वी सदी में धार्मिक सार्वभौमिकता, मानववाद एवं तर्कवाद ने सुधार आंदोलनों को वैचारिक धरातल प्रदान किया। कई बुद्धिजीवियों तथा चिंतकों ने धर्म एवं संस्कृति के परंपरागत स्वरूप को बदलने की पहल की और सत्यता, प्रासंगिकता एवं तर्कवाद के आधार पर उसे पुनर्व्याख्यायित करने पर बल दिया। उन्होंने इस बात को प्रमुखता से इंगित किया गया कि कोई भी परिवर्तन तभी उपयोगी है, जब उससे मानवीय कल्याण के उद्देश्यों की पूर्ति होती हो। सामाजिक प्रासंगिकता को तर्कवाद के रूप में मान्यता दी गई। इन धर्म-समाज सुधार आंदोलनों में मानवीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। सुधारकों ने ऐसे धार्मिक कर्मकांडों और सामाजिक मान्यताओं को अनावश्यक बताया, जो मानव कल्याण और प्रगति में बाधक थे। उन्होंने अपनी अवधारणाओं को विभिन्न वैज्ञानिक अन्वेषणों एवं वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर पुष्ट किया। अनेक अवसरों पर इन सुधारकों को धर्माचार्यों के तीव्र विरोध का सामना भी करना पड़ा, क्योंकि सभी सुधार आंदोलन मुख्यतः धार्मिक आडंबरों एवं कर्मकांडों की भर्त्सना करते थे।
राममोहन रॉय और बह्म समाज
राममोहन रॉय ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषाई प्रेस के प्रवर्तक, सामाजिक सुधार-आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नवजागरण युग के पितामह थे। बंगाल के बर्दवान जिले के राधानगर नामक गाँव के एक कट्टर ब्राह्मण परिवार में 22 मई 1774 को जन्मे राममोहन रॉय प्राच्य और पाश्चात्य चिंतन के संश्लिष्ट रूप के प्रतिनिधि थे। वे विद्वान् थे और संस्कृत, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, ग्रीक और हिब्रू सहित एक दर्जन से अधिक भाषाएं जानते थे। युवावस्था में उन्होंने वाराणसी में संस्कृत साहित्य और हिंदू दर्शन, पटना में कुरान व फारसी तथा अरबी साहित्य का अध्ययन किया था। वे जैन धर्म और भारत के अन्य धार्मिक आंदोलनों तथा पंथों से भलीभाँति परिचित थे। बाद में उन्होंने पाश्चात्य चिंतन और संस्कृति का गहन अध्ययन किया। मूल बाइबिल का अध्ययन करने के लिए उन्होंने ग्रीक और हिब्रू भाषाएँ सीखीं। उन्होंने 1809 में फारसी में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गिफ्ट टू मोनोथेसिस्ट’ (एकेश्वरवादियों का उपहार) में उन्होंने अनेक देवताओं में विश्वास के विरुद्ध और एकेश्वरवाद के पक्ष में वजनदार तर्क दिये।
राममोहन रॉय ने 1803-1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भी काम किया। वहाँ वे जॉन डिग्वी के अधीन राजस्व पदाधिकारी के रूप में दस वर्षों तक रहे। डिग्वी के संपर्क में रहने के कारण राममोहन रॉय अंग्रेजी साहित्य एवं दर्शन के पुजारी बन गये। वे 1814 में ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़कर कलकत्ता में बस गये और अपने प्रगतिशील युवा अनुयायियों के सहयोग से हिंदू धर्म को कर्मकांडों से मुक्त करने के लिए ‘आत्मीय सभा’ (1815) आरंभ किये। इस सभा के माध्यम से उन्होंने अंधविश्वासों और कुरीतियों में जकड़े हुए भारतीय समाज को झकझोरने का कार्य किया। उन्होंने विशेष रूप से मूर्तिपूजा, जाति की कट्टरता, कर्मकांड, बाल-विवाह, सतीप्रथा, पर्दाप्रथा आदि धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया। इन रिवाजों को बढ़ाने के लिए राममोहन रॉय ने पुरोहित वर्ग की निंदा की। उनकी धारणा थी कि सभी प्राचीन प्रमुख धर्मग्रंथों में एकेश्वरवाद की शिक्षा दी गई है। उन्होंने बहुदेववाद की निंदा की और बंगला में पाँच प्रमुख उपनिषदों का अनुवाद यह दिखाने के लिए किया कि प्राचीन हिंदू ग्रंथ स्वयं भी एकेश्वरवाद के प्रचारक थे।
विवेकशील दृष्टिकोण का प्रयोग
यद्यपि अपने धार्मिक विचारों के समर्थन में राममोहन रॉय ने प्राचीन विशेषज्ञों को उद्धृत किया, तथापि अंततोगत्वा उन्होंने मानवीय तर्कशक्ति का सहारा लिया जो उनके विचार से, किसी भी सिद्धांत- प्राच्य अथवा पाश्चात्य- की सच्चाई की अंतिम कसौटी है। उनकी धारणा थी कि वेदांत दर्शन मानवीय तर्कशक्ति पर आधारित है। किसी भी स्थिति में आदमी को तब पवित्र ग्रंथों, शास्त्रों और विरासत में मिली परंपराओं से हट जाने में नहीं हिचकिचाना चाहिए, जब मानवीय तर्कशक्ति का वैसा तकाजा हो और वे परंपराएँ समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही हों। राममोहन रॉय ने अपने विवेकशील दृष्टिकोण का प्रयोग केवल भारतीय धर्मों और परंपराओं तक ही सीमित नहीं रखा। उन्होंने ईसाई धर्म, विशेषकर, उसमें निहित अंध-आस्था के तत्त्वों को भी विवेक-शक्ति के अनुसार देखने पर बल दिया और 1820 में ‘प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। इसमें उन्होंने ‘न्यू टेस्टामेंट’ के नैतिक और दार्शनिक संदेश की प्रशंसा करते हुए उसकी चमत्कारिक कहानियों को अलग करने की कोशिश की। वे चाहते थे कि ईसा मसीह के उच्च नैतिक संदेश को हिंदू धर्म में समाहित कर लिया जाए। उनके इस कृत्य से ईसाई धर्म-प्रचारक उनके विरोधी बन गये।
प्राच्य और पाश्चात्य विचारों के समन्वयक
राममोहन रॉय का मानना था कि न तो भारत के भूतकाल पर आँखें मूँदकर निर्भर रहा जाए और न ही पश्चिम का अंधानुकरण किया जाए। उनका विचार था कि विवेक-बुद्धि का सहारा लेकर नये भारत को सर्वोत्तम प्राच्य और पाश्चात्य विचारों को प्राप्तकर सँजोकर रखना चाहिए। वे चाहते थे कि भारत पश्चिमी देशों से सीखे, किंतु सीखने की यह क्रिया एक बौद्धिक और सर्जनात्मक प्रक्रिया हो, जिसके द्वारा भारतीय संस्कृति और चिंतन में जान डाल दी जाए। वे हिंदू धर्म में सुधार के हिमायती थे, किंतु हिंदू धर्म के स्थान पर ईसाई धर्म लाने के विरोधी थे। उन्होंने ईसाई धर्म-प्रचारकों को हिंदू धर्म और दर्शन की अज्ञानपूर्ण आलोचनाओं का जवाब दिया, किंतु इसके साथ ही उन्होंने अन्य धर्मों के प्रति मित्रतापूर्ण दृष्टिकोण भी अपनाया। उनका विश्वास था कि मूलतः सभी धर्म एक ही संदेश देते हैं कि उनके अनुयायी भाई-भाई हैं।
सतीप्रथा के विरुद्ध आंदोलन
सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध राममोहन रॉय के आजीवन संघर्ष का उदाहरण अमानवीय सतीप्रथा के विरुद्ध उनका ऐतिहासिक आंदोलन था। उन्होंने 1818 में इस क्रूर प्रथा के खिलाफ जनमत खड़ा करने का कार्य आरंभ किया और प्राचीन धर्मग्रंथों का प्रमाण देकर सिद्ध किया कि हिंदू धर्म सतीप्रथा के विरुद्ध है। उन्होंने लोगों को तर्कशक्ति, मानवीयता और दयाभाव की दुहाई देकर आत्मदाह की इस अमानवीय प्रथा को तत्काल त्याग देने की अपील की। राधाकांत देव तथा महाराजा बालकृष्ण बहादुर जैसे रूढ़िवादी हिंदुओं के विरोध के बावजूद राममोहन रॉय के प्रयास से 1828 में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सतीप्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
बह्म समाज की स्थापना (20 अगस्त, 1829)
रामामोहन रॉय ने 20 अगस्त 1829 को ‘बह्म समाज’ नामक एक नई धार्मिक संस्था की स्थापना की। ताराचंद्र चक्रवर्ती इस समाज के प्रथम सचिव थे। इसका उद्देश्य हिंदू धर्म को स्वच्छ बनाना और एकेश्वरवाद की शिक्षा देना था। नई संस्था के दो आधार थे- तर्कशक्ति और वेद तथा उपनिषद्। बह्म समाज ने मानवीय प्रतिष्ठा पर जोर दिया, मूर्ति पूजा जैसी सामाजिक कुरीतियों की आलोचना की। 1830 में राममोहन रॉय ब्रिटेन चले गये। वे ब्रिटिश सरकार को भारतीयों की दयनीय स्थिति से अवगत कराना चाहते थे। इसी संबंध में तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर द्वितीय, जो ईस्ट इंडिया कंपनी का पेंशन-भोक्ता था, ने एक आवेदन-पत्र भी दिया था। इसी मुगल शासक ने राममोहन रॉय को ‘राजा’ की उपाधि से सम्मानित किया था। 27 सितंबर 1833 को ब्रिस्टल नगर (इंग्लैंड) में राममोहन रॉय की मृत्यु हो गई।
विधर्मी और जाति-बहिष्कृत
राममोहन रॉय को अपने निडर धार्मिक दृष्टिकोण की भारी कीमत चुकानी पड़ी। रूढ़िवादियों ने मूर्तिपूजा की आलोचना करने तथा ईसाई धर्म और इस्लाम की दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रशंसा करने के कारण राममोहन को ‘विधर्मी’ और ‘जाति-बहिष्कृत’ कहकर उनका सामाजिक बहिष्कार किया, यहाँ तक कि उनकी माँ ने भी बहिष्कार करनेवालों का ही साथ दिया। राममोहन रॉय और उनके प्रगतिशील सुधारों का विरोध करने के लिए राधाकांत देव ने 1830 में एक विरोधी समाज ‘धर्म सभा’ की स्थापना की। यद्यपि इस रूढ़िवादी संस्था ने सती प्रथा जैसी परंपराओं को समाप्त किये जाने का विरोध किया, लेकिन पाश्चात्य शिक्षा, विशेषकर बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने का समर्थन किया। बह्म समाज और धर्म सभा जैसे समाजों के कारण कलकत्ता का हिंदू समाज दो विरोधी गुटों में बँट गया। ब्रह्म समाज ने ‘संवाद-कौमुदी’ नामक पत्रिका निकाली, तो धर्म सभा ने ‘समाचार-चंद्रिका’ का प्रकाशन किया।
आधुनिक शिक्षा के प्रचारक
राममोहन रॉय आधुनिक शिक्षा के प्रारम्भिक प्रचारकों में एक थे। वे आधुनिक शिक्षा को देश में आधुनिक विचारों के प्रचार का प्रमुख साधन मानते थे। इनके समर्थन और सहयोग से 1817 में एक घड़ीसाज डेविड हेयर ने कलकत्ता में ‘हिंदू कॉलेज’ की स्थापना की। राममोहन ने अपने खर्च से कलकत्ता में 1817 से एक अंग्रेजी स्कूल चलाया जिसमें अन्य विषयों के साथ ही यांत्रिकी और वाल्तेयर के दर्शन की पढ़ाई भी होती थी। उन्होंने 1825 में एक ‘वेदांत कॉलेज’ की भी स्थापना की, जिसमें भारतीय विद्या और पाश्चात्य सामाजिक तथा भौतिक विज्ञान की पढ़ाई की सुविधाएँ उपलब्ध थीं।
बंगला भाषा के विकास में योगदान
बंगाल में बंगला को बौद्धिक संपर्क का माध्यम बनाने के लिए उन्होंने बंगला-व्याकरण पर एक पुस्तक की रचना की और अपने अनुवादों, पुस्तिकाओं तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बंगला भाषा की एक आधुनिक और सुरुचिपूर्ण शैली विकसित करने में सहायता दी। ‘बंगदूत’ उनका एक ऐसा अनोखा पत्र था जिसमें बंगला, हिंदी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था।
स्त्री-स्वतंत्रता के समर्थक
राममोहन स्त्री-स्वतंत्रता के पक्के समर्थक थे। उन्होंने महिलाओं की परवशता की निंदा की तथा इस प्रचलित विचार का विरोध किया कि महिलाएं पुरुषों से बुद्धि में या नैतिक दृष्टि से निकृष्ट हैं। उन्होंने बहुविवाह एवं विधवाओं की दयनीय स्थिति के आलोचना की। वे विधवा-विवाह तथा स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए उन्होंने माँग की कि उन्हें विरासत और संपत्ति-संबंधी अधिकार दिये जायें।
जातिप्रथा का विरोध
राममोहन रॉय भारत में राष्ट्रीय चेतना के उदय की पहली चमक का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका विश्वास था कि भारतीय धर्म और समाज से भ्रष्ट तत्त्वों को जड़-मूल से उखाड़ने की कोशिश कर और एकेश्वरवाद का वैदिक संदेश देकर वे भिन्न-भिन्न समूहों में बँटे भारतीय समाज की एकता का आधार तैयार कर रहे हैं। उन्होंने जातिप्रथा की कट्टरता का विशेषरूप से विरोध किया, जो उनके अनुसार ‘‘हमारे बीच एकता के अभाव का स्रोत रहा है।’’ उनका कहना था कि, ‘‘जातिप्रथा दोहरी कुरीति है, उसने असमानता पैदा की है और जनता को विभाजित कर उसे देशभक्ति की भावनाओं से वंचित रखा है।’’
भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत
राममोहन रॉय भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत थे। जनता के बीच वैज्ञानिक, साहित्यिक और राजनीतिक ज्ञान के प्रचार, तात्कालिक दिलचस्पी के विषयों पर जनमत तैयार करने और सरकार के सामने जनता की माँगों और शिकायतों को रखने के लिए उन्होंने बंगला, फारसी, हिंदी और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिकाएँ निकाली। उन्होंने ‘ब्रह्ममैनिकल मैग्जीन’, ‘संवाद कौमुदी’, ‘मिरात-उल-अखबार’, ‘बंगदूत’ जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। उनके जुझारू व्यक्तित्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 1821 में जब अंग्रेज जज द्वारा एक भारतीय प्रतापनारायण दास को कोड़े लगाने की सजा दी गई जिससे उसकी मृत्यु हो गई, तो राममोहन ने इस बर्बरता के खिलाफ एक लेख लिखा था।
जनांदोलन के प्रवर्तक
राममोहन रॉय राजनीतिक प्रश्नों पर जनांदोलन के प्रवर्तक थे। उन्होंने बंगाल के जमींदारों की उत्पीड़क कार्रवाइयों की निंदा की, जिनके कारण किसानों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी। उन्होंने माँग की कि वास्तविक किसानों द्वारा दिये जाने वाले अधिकतम् लगान को सदैव के लिए निश्चित कर दिया जाए जिससे वे भी 1793 के स्थायी बंदोबस्त का लाभ उठा सकें। उन्होंने ‘लखिराज’ (टैक्स फ्री) जमीन पर लगान लगाने की सरकारी नीति का विरोध किया और कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को खत्म करने तथा भारतीय वस्तुओं पर से भारी निर्यात-शुल्कों को हटाने की माँग की। इसके अलावा, उन्होंने उच्च सेवाओं के भारतीयकरण, कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से अलग करने, जूरी के द्वारा मुकदमों की सुनवाई और भारतीयों तथा यूरोपवासियों के बीच न्यायिक समानता की भी माँग की।
अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में रुचि
अंतर्राष्ट्रीयता और राष्ट्रों के बीच मुक्त सहयोग में राममोहन का पूर्ण विश्वास था। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में गहरी रुचि ली, हर जगह स्वतंत्रता, जनतंत्र और राष्ट्रीयता के आंदोलन का समर्थन किया और हर प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न और जुल्म का विरोध किया। 1821 की नेपल्स क्रांति की विफलता से वे इतने दुःखी हुये कि उन्होंने अपने सारे सामाजिक कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया था। स्पेनिश अमरीका में 1823 की क्रांति की सफलता पर उन्होंने भोज देकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी और आयरलैंड के उत्पीड़क जमींदारों की निंदा की थी। उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि अगर संसद रिफॉर्म बिल पारित करवाने असफल रही, वे ब्रिटिश साम्राज्य छोड़कर चले जायेंगे।
निःसंदेह, राममोहन रॉय उन्नीसवीं सदी के पूवार्द्ध में भारतीय आकाश के सबसे चमकीले सितारे थे, किंतु कभी-कभी अंग्रेजी शासन, अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी सभ्यता की प्रशंसा करने के कारण उनकी आलोचना भी की जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने अपनी जमींदारी को चमकाते हुए भारतीय समाज में हीनभावना भरने का कार्य किया और भारत में अंग्रेजी राज्य (गुलामी) की स्थापना तथा उसके सशक्तीकरण के लिए रास्ता तैयार किया। किंतु राममोहन रॉय के विचारों की गहनता और उनके दूरदृष्टिपूर्ण विचारों से स्पष्ट है कि इस प्रकार की आलोचनाओं का कोई आधार नहीं है।
देवेंद्रनाथ ठाकुर
राममोहन रॉय की मृत्यु के बाद 1833 में ब्रह्मसमाज आंदोलन का नेतृत्व महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर (1818-1905) ने सँभाल लिया, जिन्होंने उसे एक बेहतर सांगठनिक ढांचे और वैचारिक सुसंगति से लैस किया। देवेंद्रनाथ भारतीय विद्या की सर्वोत्तम परंपरा तथा नवीन पाश्चात्य चिंतन की उपज थे। उन्होंने राममोहन रॉय के विचारों के प्रचार के लिए 1839 में ‘तत्त्वबोधिनी सभा’ की स्थापना की। सभा ने बंगाल के बुद्धिजीवियों को विवेकशील दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया। तत्त्वबोधिनी सभा और उसके मुखपत्र ‘तत्त्वबोधिनी’ पत्रिका ने बंगला भाषा के सुव्यवस्थित अध्ययन को बढ़ावा दिया। देवेंद्रनाथ की अगुआई में ब्रह्म समाज ने सक्रिय रूप से विधवा पुनर्विवाह, बहुविवाह के उन्मूलन, नारी शिक्षा, रैयत की दशा में सुधार और आत्म-संयम के आंदोलन का समर्थन किया।
केशवचंद सेन
ब्रह्म समाज आंदोलन को कलकत्ता के पढ़े-लिखे लोगों के सीमित कुलीन वर्गों से बाहर निकालकर उसे पूर्वी बंगाल के कस्बों तक ले जाने का काम 1860 के दशक में विजयकृष्ण गोस्वामी और केशवचंद्र सेन (1838-1884) ने किया। गोस्वामी ने ब्रह्म-सिद्धांhकी खाई को पाटा, जबकि सेन ने अपना ध्यान मुख्यतः गंगा के पूर्वी मैदानों के पश्चिमी रंग में न रंगे बंगालियों की और भी बड़ी संख्या तक पहुंचाने तथा आंदोलन को बंगाल से बाहर, दूसरे भारतीय प्रांतों तक ले जाने पर केंद्रित किया।
केशवचंद सेन 1857 में ब्रह्म समाज के सदस्य बने थे। उन पर पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति तथा ईसाई धर्म का बहुत प्रभाव था। बुनियादी तौर पर केशव के अनुयायी अगर सामाजिक प्रगति और सुधार को किसी भी अन्य बात से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे, तो देवेंद्रनाथ के अनुयायी हिंदू समाज के साथ अपने जुड़ाव को बनाये रखना चाहते थे। परिणामतः जब सेन ने आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के उत्कृष्ट तत्त्वों को अपनाने की कोशिश की, तो उनका देवेंद्रनाथ ठाकुर से मतभेद हो गया। फलतः 1866 में केशवचंद्र ने ब्रह्म समाज से अलग अपना ‘भारतीय ब्रह्म समाज’ (ब्रह्म समाज ऑफ इंडिया) बना लिया, जबकि देवेंद्रनाथ के अनुयायियों ने ‘आदि (मूल) ब्रह्म समाज’ के नाम से अपनी पहचान बनाये रखने की कोशिश की।
भारतीय ब्रह्म समाज
भारतीय ब्रह्म समाज की प्रार्थनाओं में हिंदू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, चीनी, यहूदी आदि सभी धर्मों की प्रार्थनाएँ सम्मिलित थीं। केशवचंद्र सेन के नेतृत्व में भारतीय ब्रह्म समाज का पर्याप्त प्रसार और विकास हुआ। 1866 में ही इसकी बंगाल में पचास, उत्तर प्रदेश में दो एवं पंजाब व मद्रास में एक-एक शाखाएँ स्थापित हो चुकी थीं। इस समाज के सिद्धांतों के प्रसार हेतु विभिन्न भाषाओं में सैंतीस पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं।
केशवचंद्र सेन ने बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दाप्रथा, जातिप्रथा आदि बुराइयों का विरोध करते हुए स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह पर बल दिया। उन्होंने स्त्रियों व मजदूरों की दशा सुधारने के लिए 1870 में ‘भारतीय सुधार संघ’ की स्थापना की और ‘सुलभ’ नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन किया। सरकार ने 1872 में ‘ब्रह्म-विवाह कानून’ (ब्रह्मो मैरिज ऐक्ट) बनाकर ब्रह्म विवाहों को वैध ठहराया, जिनमें अंतर्जातीय और विधवा-विवाह भी शामिल थे, शर्त केवल यह थी कि विवाह करने वाला अपने आपको गैर-हिंदू घोषित करे। किंतु जब सेन ने अपनी नाबालिग पुत्री का विवाह कूचबिहार के नाबालिग राजकुमार से कर दिया, तो उनके विरोधियों ने 1878 में अपना एक अलग समाज स्थापित कर लिया। जनवरी 1881 में केशवचंद्र सेन ने अपना ‘नबो बिधान’ (नया विधान) बनाया, जिसका प्रमुख उद्देश्य सभी धर्मों की सच्चाई को जानना था।
साधारण ब्रह्म समाज
केशवचंद्र सेन से मतभेद होने के कारण 1878 में आनंदमोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री, विजयकृष्ण गोस्वामी आदि ने ‘साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। इस संस्था के प्रयास से कलकत्ता में 1880 में ‘ब्रह्म बालिका’ नामक स्कूल की स्थापना की। साधारण ब्रह्म समाज के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए ‘तत्त्व-कौमुदी’ नामक बंगला एवं ‘ब्रह्म पब्लिक ओपिनियन’ नामक अंग्रेजी समाचार-पत्र के साथ 1884 में ‘संजीवनी’ नामक साप्ताहिक-पत्र का भी प्रकाशन किया।
यद्यपि आज ब्रह्म समाज लगभग लुप्त हो चुका है, किंतु धर्म तथा समाज सुधार के क्षेत्र में इसका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। इस समाज ने धार्मिक सिद्धांतों और व्यवहारों को मानव-बुद्धि के आधार पर परखने का प्रयास किया। ब्रह्मसमाजी मूर्तिपूजा तथा अंधविश्वासपूर्ण कर्मकांडों के ही नहीं, बल्कि पूरी ब्राह्मणवादी परंपरा के विरोधी थे। इस समाज ने धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या के लिए पुरोहित वर्ग को अनावश्यक बताया। समाज का मानना था कि ‘प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार और क्षमता प्राप्त है कि वह अपनी बुद्धि की सहायता से धार्मिक ग्रंथों या सिद्धांतों में क्या उचित और क्या अनुचित है’, की जाँच कर सके। इस समाज ने प्रेस की स्वतंत्रता पर बल देकर भारतीयों में राष्ट्रीयता की एक नई भावना जाग्रत की।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर
बंगाल के एक गरीब परिवार में पैदा होनेवाले समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-1891) अपनी कर्मठता और विद्वता के बल पर 1851 में संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल हो गये। यद्यपि वे संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे, किंतु उनके मस्तिष्क के दरवाजे, पाश्चात्य चिंतन में जो कुछ सर्वोत्तम था, उसके लिए खुले थे। वस्तुतः वे भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के एक सुखद संयोग के प्रतिनिधि थे। इन सबके अलावा उनकी महानता, उनकी सच्चरित्रता और प्रखर प्रतिभा में निहित थी। उनकी धारणाओं और कार्य तथा उनके चिंतन और व्यवहार में कोई अंतर नहीं था। वे महान् मानवतावादी थे। उनमें गरीबों, अभागों और उत्पीड़ित लोगों के लिए अपार सहानुभूति थी। गरीबों के प्रति उनकी उदारता आश्चर्यजनक थी। अनुचित सरकारी हस्तक्षेप को बर्दाश्त न करने कारण उन्होंने सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया।
भारत की पद्दलित नारी जाति को ऊँचा उठाने में ईश्वरचंद्र विद्यासागर राममोहन रॉय के सुयोग्य उत्तराधिकारी सिद्ध हुए। उन्होंने 1855 में विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में शक्तिशाली आवाज उठाई और अपने इस कार्य में परंपरागत विद्या का सहारा लिया। उनके प्रयास से जल्द ही विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में एक शक्तिशाली आंदोलन शुरू हो गया। 1855 के अंतिम दिनों में बंगाल, मद्रास, बंबई, नागपुर और भारत के अन्य शहरों से सरकार को बड़ी संख्या में याचिकाएँ दी गईं, जिनमें विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए एक कानून बनाने का अनुरोध किया गया था। विद्यासागर की प्रेरणा से ही भारत की उच्च जातियों में पहला कानूनी हिंदू विधवा पुनर्विवाह कलकत्ता में 7 सितंबर 1856 को उन्हीं की देखरेख में संपन्न हुआ। देश के विभिन्न भागों में अनेक अन्य जातियों की विधवाओं को प्रचलित कानून के तहत यह अधिकार पहले से ही प्राप्त था। विद्यासागर के प्रयासों से 1855 और 1860 के बीच 25 विधवा पुनर्विवाह संपन्न हुए। उन्होंने बाल-विवाह और बहुविवाह प्रथा के विरुद्ध भी आंदोलन किये।
विद्यासागर स्त्री-शिक्षा के भी सच्चे हिमायती थे। यद्यपि लड़कियों को आधुनिक शिक्षा देने की दिशा में सबसे पहले कदम ईसाई धर्म-प्रचारकों ने उठाया, किंतु बेथुन स्कूल के सचिव के रूप में विद्यासागर नारी शिक्षा के अग्रदूतों में से थे। स्कूलों के सरकारी निरीक्षक की हैसियत से विद्यासागर ने 35 बालिका विद्यालयों की स्थापना की। बेथुन स्कूल की स्थापना 1849 में कलकत्ता में हुई। बेथुन स्कूल को विद्यार्थी प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई हुई। युवा छात्राओं के विरुद्ध नारे लगाये गये, गालियाँ दी गईं और कई बार उनके अभिभावकों का सामाजिक बहिष्कार तक किया गया। विधवा पुनर्विवाह और स्त्री-शिक्षा की वकालत करने के कारण विद्यासागर को पोंगापंथी हिंदुओं की शत्रुता का भी सामना करना पड़ा और उनकी जान लेने तक की धमकी दी गई, किंतु विद्यासागर निडर होकर अपने पथ पर चलते रहे।
आधुनिक भारत के निर्माण में विद्यासागर ने अनेक प्रकार से योगदान दिया। उन्होंने संस्कृत पढ़ाने के लिए एक नई तकनीक विकसित की और अपनी रचनाओं द्वारा आधुनिक गद्यशैली के विकास में सहायता दी। उनके द्वारा लिखी गई बंगला वर्णमाला आज भी प्रयोग की जाती है। उन्होंने संस्कृत कॉलेज के दरवाजे गैर-ब्राह्मण विद्यार्थियों के लिए खोल दिया क्योंकि वे संस्कृत के अध्ययन पर केवल ब्राह्मण जाति के तत्कालीन एकाधिकार के विरोधी थे। उन्होंने संस्कृत कॉलेज में संस्कृत के साथ-साथ पाश्चात्य चिंतन का अध्ययन आरंभ किया। यही नहीं, उन्होंने एक कॉलेज की स्थापना में भी सहयोग दिया था, जो आज उनके नाम पर है।
डेरोजियो और यंग बंगाल आंदोलन
उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम वर्षों तथा चौथे दशक के दौरान बंगाल के बुद्धिजीवियों के बीच एक गरमवादी (रैडिकल) प्रवृत्ति पैदा हुई। यह प्रवृत्ति राममोहन रॉय से अधिक आधुनिक और क्रांतिकारी थी, जिसे ‘यंग बंगाल आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन का प्रवर्तक एवं प्रेरणास्रोत एक नौजवान एंग्लो इंडियन हेनरी विवियन डेरोजियो (1809-1831) था जो 1826 से 1831 तक कलकत्ता के हिंदू कॉलेज में प्राध्यापक रहा। डेरोजियो में आश्चर्यजनक प्रतिभा थी। उसने महान् फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरणा ग्रहण की और अपने जमाने के अत्यंत क्रांतिकारी विचारों को अपनाया। उस समय इटली के एकीकरण और स्वतंत्रता आंदोलन का दौर चल रहा था और मेजिनी का ‘यंग इटली’ इटली के राष्ट्रीय एकीकरण का केंद्र-बिंदु था।
डेरोजियन’ और यंग बंगाल
डेरोजियो अत्यंत प्रतिभाशाली शिक्षक था जिसने अपनी युवावस्था के बावजूद अपने इर्द-गिर्द अनेक तेज और श्रद्धालु छात्रों को इकट्ठा कर लिया था। उसने 1828 में ‘एकेडमिक एसोसिएशन’ का गठन किया और अपने छात्रों को विवेकपूर्ण और मुक्त ढ़ंग से सोचने, मुक्ति, समानता तथा स्वतंत्रता से प्रेम करने एवं सत्य की पूजा करने के लिए प्रेरित किया। डेरोजियो को उसकी क्रांतिकारिता के कारण जब 1831 में हिंदू कॉलेज से निकाल दिया गया, तो उसने अपने विचारों के प्रसार के लिए यूरेशियनों के मुखपत्र ‘ईस्ट इंडिया’ नामक दैनिक का संपादन संभाल लिया। किंतु उसी वर्ष 26 दिसंबर को लगभग 22 वर्ष की आयु में हैजे से उसकी मौत हो गई। डेरोजियो और उसके अनुयायी, जिन्हें ‘डेरोजियन’ और ‘यंग बंगाल’ कहा जाता था, प्रचंड देशभक्त थे। उसके प्रमुख शिष्यों में कृष्णमोहन बनर्जी, रामगोपाल घोष एवं महेशचंद्र घोष थे। डेरोजियो को आधुनिक भारत का ‘प्रथम राष्ट्रवादी कवि’ माना जाता है।
डेरोजियो और उसके अनुयायी वाद-विवाद, लेखन और बौद्धिक सुगठनों के माध्यम से अपने विचारों का प्रचार करना चाहते थे। उन्होंने आत्मिक उन्नति और समाज सुधार के लिए एकेडेमिक एसोसिएशन के अवशेष पर 1838 में ‘सोसायटी फॉर द एक्वीजीशन ऑफ जनरल नॉलेज’ के साथ-साथ ‘एंग्लो-इंडियन हिंदू एसोसिएशन’, ‘बंगहित सभा’, ‘डिबेटिंग क्लब’ जैसे संगठनों की स्थापना की।
डेरोजियो के अनुयायियों ने सभी प्राचीन व जर्जर परंपराओं एवं रीति-रिवाजों का विरोध किया। उन्होंने पुरानी और हृासोन्मुख प्रथाओं, कृत्यों और रिवाजों की घोर आलोचना की। वे नारी अधिकारों तथा नारी शिक्षा के पक्के हिमायती थे। किंतु डेरोजियन किसी आंदोलन को जन्म देने में सफल नहीं हुए क्योंकि उनके विचारों के फलने-फूलने के लिए सामाजिक स्थितियां उपयुक्त नहीं थीं। उस समय समाज में कोई ऐसा वर्ग या समूह नहीं था, जो उनके प्रगतिशील विचारों का समर्थन करता। यही नहीं, वे जनता के साथ अपने आत्मीय संपर्क भी नहीं बना सके। दरअसल उनकी क्रांतिकारिता केवल किताबी बौद्धिकता थी और वे भारतीय समाज की वास्तविकता को पूरी तरह से समझने में असफल रहे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि डेरोजियो के यंग बंगाल ने उन्नीसवीं सदी के भारत में धर्म और दर्शन की सतह पर बहुत कम ही स्पष्ट या स्थायी प्रभाव छोड़ा।
फिर भी, युवा बंगाल आंदोलन ने जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों पर समाचार-पत्रों, पुस्तिकाओं और सार्वजनिक संस्थानों द्वारा शिक्षित करने की राममोहन रॉय की परंपरा को आगे बढ़ाया। उन्होंने कंपनी के चार्टर में संशोधन, प्रेस की स्वतंत्रता, विदेश स्थित ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीय मजदूरों के साथ अच्छा व्यवहार, जूरी द्वारा मुकदमों की सुनवाई, जमींदारों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से रैयतों की सुरक्षा और सरकारी नौकरियों में उच्चतर वेतनमानों के अंतर्गत भारतीयों को रोजगार देने जैसे सामान्य हित के सार्वजनिक प्रश्नों पर सार्वजनिक आंदोलन चलाये।
यंग बंगाल आंदोलन की तरह बंबई और मद्रास में भी क्रमशः ‘यंग बॉम्बे’ और ‘यंग मद्रास’ जैसे आंदोलनों की शुरूआत हुई। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने डेरोजियो के अनुयायियों को बंगाल में ‘आधुनिक सभ्यता का अग्रदूत’, ‘हमारी जाति का पिता’ कहा, जिनके सद्गुण उनके प्रति श्रद्धा पैदा करेंगे और जिनकी कमजोरियों पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया जायेगा।
इन आरंभिक सुधारकों ने अपने आधुनिक और सुधारवादी विचारों के प्रसार का माध्यम भारतीय भाषाओं के अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं को बनाया। भारतीय भाषाएँ अपनी भूमिका सफलतापूर्वक निभा सकें, इसके लिए उन्होंने प्रारम्भिक पाठ्य-पुस्तकें बनाने जैसा काम भी अपने हाथ में लिया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर और रवींद्रनाथ ठाकुर, दोनों ने बंगला की प्रारंभिक कक्षाओं के लिए पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं, जिनका प्रयोग आज भी किया जा रहा है। इस प्रकार इस नई धारा के प्रवर्तकों ने अपने विचारों और क्रिया-कलापों के माध्यम से नये भारत की रचना को निर्णायक रूप से प्रभावित किया।
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