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मौर्य सम्राट असोक महान्
असोक महान् की गणना प्राचीन विश्व के महानतम् शासकों में की जाती है। उसके समय में मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिंदुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण मैसूर, कर्नाटक तक और पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफगानिस्तान तक विस्तृत हो गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। वस्तुतः इतिहास में अशोक की प्रसिद्धि उसके साम्राज्य-विस्तार के कारण नहीं, वरन् धार्मिक भावना और मानवतावाद के प्रचारक के रूप में है। संभवतः वह विश्व का प्रथम सम्राट था जिसने साम्राज्यवादी युग में युद्ध की नीति का त्यागकर अपनी प्रजा का पित्रवत् कल्याण करने का सच्चे हृदय से प्रयत्न किया।
असोक के संबंध में जानकारी करने के प्रमुख साधन उसके शिलालेख तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेख हैं, जो लगभग चालीस की संख्या में भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विभिन्न स्थानों से पाये गये हैं। किंतु इन अभिलेखों से उसके प्रारंभिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है। असोक के प्रारंभिक जीवन के लिए मुख्यतः संस्कृत तथा पालि में लिखे हुए बौद्ध ग्रंथों- दिव्यावदान तथा सिंहली अनुश्रुतियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
मौर्य राजवंश : ऐतिहासिक स्रोत एवं उत्पत्ति
असोक का आरंभिक जीवन
सिंहली परंपरा में बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख मिलता है। पुत्रों में केवल तीन का उल्लेख है- सुसीम, असोक और तिष्य। सुमन या सुसीम असोक का बड़ा, किंतु सौतेला भाई था। तिष्य सहोदर और सबसे छोटा भाई था, जिसका नाम उत्तरी परंपरा में ‘वीतासोक’ या ‘विगतासोक’ भी मिलता है। ह्वेनसांग इसका नाम ‘महेंद्र’ बताता है और अन्य चीनी ग्रंथों में ‘सुदत्त’ और ‘सुगात्र’ नाम भी आये हैं। उत्तरी परंपराओं में असोक की माता का नाम ‘सुभद्रांगी’ मिलता है, जिसे चंपा के एक ब्राह्मण की रूपवती कन्या बताया गया है।
‘दिव्यावदान’ में असोक की माता ब्राह्मणी ‘पासादिका’ का उल्लेख मिलता है। दक्षिण की सिंहली परंपरा में उसकी माता का नाम ‘धर्मा’ (धम्मा) मिलता है। धर्मा को ‘अग्रमहिषी’ (अग्ग-महेसी) कहा गया है जो मोरियों के क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुई थी। रोमिला थापर के अनुसार अशोक के धम्मासोक अभिधान में माता के ‘धम्मा’ नाम की स्मृति सुरक्षित है। संभवतः इसी कारण असोक ने धम्म का आह्वान भी किया था। कुछ विद्धान् असोक को सेल्यूकस की कन्या से उत्पन्न बताते हैं।
सिंहली परंपराओं के अनुसार उज्जयिनी जाते हुए असोक ने विदिशा में एक श्रेष्ठि की पुत्री ‘देवी’ से विवाह किया था। महाबोधिवंस में उसे ‘वेदिसमहादेवी’ और ‘शाक्यानी’ या ‘शाक्यकुमारी’ कहा गया है।
‘महावंस’ व ‘दिव्यावदान’ में असोक की दो अन्य पत्नियों का नाम क्रमशः अग्रमहिषी ‘असंधिमित्रा’ व ‘तिष्यरक्षिता’ मिलता है। ‘दिव्यावदान’ में ही असोक की एक अन्य अग्रमहिषी ‘पद्मावती’ का उल्लेख मिलता है जिससे पुत्र ‘कुणाल’ (धर्मविवर्धन) उत्पन्न हुआ था। असोक के लेखों में केवल उसकी पत्नी ‘कारुवाकी’ का उल्लेख मिलता है, जो ‘तिवर’ की माता थी।
असोक की पहली पत्नी ‘देवी’ से पुत्र ‘महेंद्र’ तथा पुत्रियाँ ‘संघमित्रा’ व ‘चारुमती’ उत्पन्न हुई थीं, जिनका विवाह क्रमशः ‘अग्निब्रह्मा’ व नेपाल के ‘देवपाल’ क्षत्रिय से हुआ था।
‘राजतरंगिणी’ में असोक के एक पुत्र का नाम ‘जालौक’ मिलता है। इस प्रकार असोक ने कम से कम चार विवाह किया था और उसके चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ थीं। लेखों में दूर के चार प्रांतों के वायसराय के रूप में चार पुत्रों का उल्लेख है, जिन्हें ‘कुमार’ या ‘आर्यपुत्र’ कहा गया है।
उज्जयिनी का उपराजा (वायसराय)
असोक अपने पिता के शासनकाल में उज्जयिनी का उपराजा (वायसराय) था। बाद में जब तक्षशिला में विद्रोह हुआ, तो बिंदुसार ने उसे दबाने के लिए असोक को ही भेजा था। शासक बनने के पूर्व असोक ने खस और नेपाल की विजय भी की थी।
बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि बिंदुसार असोक को उत्तराधिकार देने का इच्छुक नहीं था। सिंहली अनुश्रुतियाँ बताती हैं कि उसने अपने निन्यान्बे भाइयों की हत्याकर राजसिंहासन प्राप्त किया था, किंतु इस कथा की ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता संदिग्ध है क्योंकि असोक के पाँचवें अभिलेख में उसके जीवित भाइयों के परिवार का उल्लेख मिलता है। अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि शासनकाल के तेरहवें वर्ष में उसके अनेक भाई-बहन जीवित थे और कुछ भाई तो विभिन्न प्रदेशों में वायसराय भी थे।
असोक का राज्याभिषेक
वस्तुतः बिंदुसार की मृत्यु के बाद असोक ने अमात्य राधागुप्त की सहायता से राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया था। उत्तरी बौद्ध परंपराओं में यह युद्ध केवल असोक और उसके भाई सुसीम के बीच बताया गया है और यही तर्कसंगत लगता है। हो सकता है कि सत्ता-संघर्ष में सुसीम का पक्ष लेने के कारण कुछ अन्य भाई भी मारे गये हों।
चीनी ग्रंथ फा-युएन-चुलिन से भी पता चलता है कि असोक ने अपने बड़े भाई सुसीम को मारकर राज्य प्राप्त किया था। वस्तुतः ई.पू. 273 में राजसिंहासन पर अधिकार करने के बाद अशोक को अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष का समय लग गया। यही कारण है कि उसका विधिवत् राज्याभिषेक राज्यारोहण के चार वर्ष बाद लगभग ई.पू. 269 में हुआ।
असोक को उसके अभिलेखों में ‘देवानांप्रिय’ (देवताओं का प्रिय) एवं ‘प्रियदर्शी’ (देखने में सुंदर) तथा ‘राजा’ आदि कहा गया है। मास्की (हैदराबाद), गुजर्रा तथा पानगुड्इया (मध्य प्रदेश) से प्राप्त लेखों में असोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। पुराणों में उसे ‘असोकवर्धन’ कहा गया है। देवानांप्रिय प्रियदर्शी आदरसूचक पद है और यही अर्थ उपयुक्त है, किंतु ‘देवानांप्रिय’ शब्द (देवप्रिय नहीं) पाणिनि के एक सूत्र के अनुसार अनादर का सूचक है। कात्यायन, पतंजलि और काशिका (650 ई.) इसे अपवाद मानते हैं, किंतु उत्तरकालीन वैयाकरण भट्टोजिदीक्षित इसका अनादरवाची अर्थ ‘मूर्ख’ करते हैं। उनके अनुसार ‘देवानांप्रिय ब्रह्मज्ञान से रहित उस पुरुष को कहते हैं जो यज्ञ और पूजा से भगवान् को प्रसन्न करने कोयत्न करता है।’ इस प्रकार एक उपाधि जो पहले आदरवाची थी, संभवतः ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण असोक महान् के प्रति अनादरसूचक बन गई।
अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष तक असोक ने मौर्य साम्राज्य की परंपरागत नीति का ही अनुसरण किया। असोक ने देश के अंदर साम्राज्य का विस्तार किया, किंतु दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार की नीति अपनाई।
कलिंग की विजय (ई.पू. 261)
अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष तक असोक ने मौर्य साम्राज्य की परंपरागत नीति का पालन करते हुए कलिंग पर विजय प्राप्त की। कलिंग का प्राचीन राज्य वर्तमान दक्षिणी उड़ीसा में स्थित था। संभवतः नंदवंश के पतन के बाद कलिंग स्वतंत्र हो गया था। प्लिनी की पुस्तक में उद्धृत मेगस्थनीज के विवरण के अनुसार चंद्रगुप्त के समय में कलिंग एक स्वतंत्र राज्य था। मगध की सीमाओं से जुड़े हुए ऐसे शक्तिशाली राज्य की स्थिति के प्रति मगध शासक उदासीन नहीं रह सकता था। सुरक्षा की दृष्टि से कलिंग को जीतना आवश्यक था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार कलिंग उस समय व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण राज्य था। दक्षिण के साथ सीधे संपर्क के लिए समुद्री और स्थल मार्ग पर मौर्यों का नियंत्रण आवश्यक था। कलिंग यदि स्वतंत्र देश रहता, तो समुद्री और स्थल मार्ग से होनेवाले व्यापार में रुकावट पड़ सकती थी, अतः कलिंग को मगध साम्राज्य में मिलाना आवश्यक था। किंतु यह उचित कारण नहीं लगता क्योंकि इस दृष्टि से तो चंद्रगुप्त के समय में ही कलिंग को मगध साम्राज्य में मिला लेना चाहिए था। कौटिल्य के विवरण से स्पष्ट है कि वह दक्षिण के साथ व्यापार को महत्त्व देता था।
अभिषेक के आठवें वर्ष अर्थात् ई.पू. 261 में असोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण कर दिया। कलिंग युद्ध तथा उसके परिणामों के संबंध में असोक के तेरहवें शिलालेख से पता चलता है कि इस युद्ध में भीषण रक्तपात और नरसंहार हुआ।
मौर्य सम्राट के शब्दों में, ‘इस युद्ध के कारण डेढ़ लाख लोग विस्थापित हो गये, एक लाख लोग मारे गये और इससे कई गुना अधिक नष्ट हो गये।’ इस प्रकार एक स्वतंत्र राज्य की स्वाधीनता का अंत हो गया और विजित कलिंग राज्य मगध साम्राज्य का एक प्रांत बना लिया गया। राजवंश का कोई राजकुमार वहाँ वायसराय नियुक्त कर दिया गया।
कलिंग में दो अधीनस्थ प्रशासनिक केंद्र स्थापित किये गये- एक उत्तरी केंद्र, जिसकी राजधानी तोसली बनाई गई और दूसरा दक्षिणी केंद्र, जिसकी राजधानी जौगढ़ बनी। अब मौर्य साम्राज्य की सीमा बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत हो गई।
भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण
असोक का हृदय-परिवर्तन
कलिंग युद्ध में हुए भीषण नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा। युद्ध की विनाशलीला से सम्राट को इतना हार्दिक कष्ट हुआ कि उसने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और दिग्विजय के स्थान पर ‘धम्म विजय’ की नीति को अपनाया। आठवें शिलालेख में, जो संभवतः कलिंग विजय के चार वर्ष बाद तैयार किया गया था, असोक ने घोषणा की कि ‘कलिंग देश में जितने आदमी मारे गये, मरे या कैद हुए उसके सौवें या हजारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओं के प्रिय को बड़े दुःख का कारण होगा।’ उसने आगे युद्ध न करने का निर्णय लिया और बाद के इक्तीस वर्ष के शासनकाल में उसने मृत्युपर्यन्त कोई लड़ाई नहीं ठानी। उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी परामर्श दिया कि वे शस्त्रों द्वारा विजय प्राप्त करने का मार्ग छोड़ दें और धर्मविजय को वास्तविक विजय समझें।’
मगध का सम्राट बनने के बाद यह असोक का प्रथम तथा अंतिम युद्ध था। इसके बाद मगध की विजयों तथा राज्य-विस्तार का वह युग समाप्त हो गया, जिसका सूत्रपात बिंबिसार की अंग-विजय के बाद हुआ था। अब एक नये युग का आरंभ हुआ। यह नया युग शांति, सामाजिक प्रगति तथा धर्मप्रचार का था, किंतु इसके साथ-साथ राजनीतिक गतिरोध व सामरिक शिथिलता भी दिखाई देने लगी। सैनिक-अभ्यास के अभाव में मगध का सामरिक आवेश और उत्साह क्षीण होने लगा। इस प्रकार सैन्य-विजय तथा दिग्विजय का युग समाप्त हुआ और आध्यात्मिक विजय तथा ‘धम्मविजय’ का युग आरंभ हुआ।’
कलिंग की प्रजा तथा कलिंग की सीमा पर रहनेवाले लोगों के प्रति कैसा व्यवहार किया जाये, इस संबंध में असोक ने तोसली और समापा के महामात्यों तथा उच्च अधिकारियों को संबोधित करते हुए दो आदेश जारी किया था जो धौली (पुरी) और जौगढ (गंजाम) नामक स्थानों पर सुरक्षित हैं। शिलालेखों के अनुसार ‘सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाये, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाये, जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए।’
सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं होना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे धम्म का पालन करें। यहाँ उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग।’
धर्म और धार्मिक नीति
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने पूर्वजों की तरह असोक भी ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। महावंस के अनुसार वह प्रतिदिन साठ हजार ब्राह्मणों को भोजन दिया करता था और अनेक देवी-देवताओं की पूजा किया करता था।
कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार असोक भगवान् शिव का उपासक था। पशुबलि में उसे कोई हिचक नहीं थी, किंतु अपने पूर्वजों की तरह वह जिज्ञासु भी था। मौर्य राज्यसभा में सभी धर्मों के विद्वान् भाग लेते थे, जैसे- ब्राह्मण, दार्शनिक, निर्ग्रंथ, आजीवक, बौद्ध तथा यूनानी दार्शनिक आदि।
दीपवंस के अनुसार अशोक अपनी धार्मिक जिज्ञासा शांत करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों के व्याख्याताओं को राज्यसभा में बुलाता था। उन्हें उपहारादि देकर सम्मानित करता था और साथ ही स्वयं भी विचारार्थ अनेक प्रश्न प्रस्तावित करता था। वह यह जानना चाहता था कि धर्म के किन ग्रंथों में सत्य है। उसे अपने सवालों के जो उत्तर मिले, उनसे वह संतुष्ट नहीं था।
सम्राट असोक महान् का मूल्यांकन
असोक और बौद्ध धर्म
सिंहली अनुश्रुतियाँ बताती हैं कि असोक को उसके शासन के चौथे वर्ष ‘निग्रोध’ नामक सात वर्षीय श्रमण भिक्षु ने बौद्धमत में दीक्षित किया था। निग्रोध असोक के बड़े भाई सुसीम (सुमन) का पुत्र था। इसके बाद मोग्गलिपुत्ततिस्स के प्रभाव से वह पूर्णरूपेण बौद्ध हो गया।
दिव्यावदान असोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय ‘उपगुप्त’ नामक बौद्ध भिक्षु को देता है। इन भिक्षुओं की शिक्षा तथा संपर्क से अशोक का झुकाव बौद्ध धर्म की ओेर बढ़ रहा था। इन अनुश्रुतियों से पता चलता है कि एक साधारण बौद्ध होने के बावजूद असोक ने कलिंग पर आक्रमण किया था। कलिंग युद्ध के नरसंहार से असोक की अंतरात्मा को इतना कष्ट पहुँचा कि इस युद्ध के बाद उसने विधिवत् बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।
असोक के शिलालेखों से भी पता चलता है कि वह कलिंग युद्ध के बाद ही धम्म में प्रवृत्त हुआ। किंतु, राज्याभिषेक से संबद्ध प्रथम लघुशिलालेख के अनुसार असोक एक वर्ष तक एक साधारण उपासक बना रहा तथा उसने धर्म के प्रचार के लिए कोई उद्योग नहीं किया।
कुछ इतिहासकारों ने ‘संघ की शरण लेने’ (संघ उपेते) का यह अर्थ लगाया है कि असोक भिक्षु का वस्त्र धारणकर संघ में प्रवेश कर गया और संघ तथा राज्य दोनों का प्रधान हो गया। किंतु इस मत से सहमत होना कठिन है। ‘संघ उपेते’ का वास्तविक अर्थ संघ में प्रविष्टि के लिए उन्मुख होना है, जिसे बौद्ध साहित्य में ‘भिक्षु गतिक’ कहा गया है।
संभवतः एक वर्ष तक साधारण उपासक रहने के बाद असोक ने सार्वजनिक रूप से अपने को संघ का अनुयायी घोषित कर दिया और इस मत-परिवर्तन की सूचना देने के लिए असोक ने अभिषेक के दसवें वर्ष संबोधि (बोधगया) की यात्रा की। इसके बाद एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक वह संघ के साथ रहा या संघ के भिक्षुओं के निकट संपर्क में रहा। इस संपर्क के फलस्वरूप वह धर्म के प्रति अत्यधिक उत्साहशील हो गया।
तेरहवें शिलालेख में ही असोक यह घोषणा करता है कि ‘इसके बाद देवताओं का प्रिय धम्म की सोत्साह परिरक्षा, सोत्साह अभिलाषा एवं सोत्साह शिक्षा करता है।’ उसने जनता में प्रचार के लिए धर्म-संबंधी उपदेश, शिलाओं एवं स्तंभों पर उत्कीर्ण करवाया जिससे धर्म की आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। वह दावा करने लगा कि धम्म की इतनी वृद्धि इसके पहले कभी नहीं हुई थी।
बौद्ध धर्म अपनाने के बाद असोक का व्यक्तित्व पूरी तरह बदल गया। उसने आखेट और विहार-यात्राओं को बंद कर दिया तथा उनके स्थान पर धम्म-यात्राओं को प्रारंभ किया। उसने गौतम बुद्ध के चरण-चिन्हों से पवित्र स्थानों की यात्राएँ की और उनकी पूजा-अर्चना की।
दिव्यावदान से पता चलता है कि अशोक ने स्थविर उपगुप्त के साथ क्रमशः लुंबिनी, कपिलवस्तु, बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर तथा श्रावस्ती व अन्य स्थानों की यात्रा की थी। संभवतः सर्वप्रथम उसने बोधगया की यात्रा की। अभिषेक के बीसवें वर्ष वह लुंबिनी गया और वहाँ एक शिला-स्तंभ खड़ा किया। भगवान् बुद्ध का जन्मस्थान होने के कारण उसने लुंबिनी ग्राम का कर 1/8 भाग लेने की घोषणा की। असोक ने नेपाल की तराई में स्थित निग्लीवा में कनकमुनि (एक पौराणिक बुद्ध) के स्तूप को संवर्द्धित एवं द्विगुणित करवाया।
असोक के उत्तराधिकारी और मौर्य साम्राज्य का पतन
अनुश्रुतियों में असोक को चौरासी हजार स्तूपों के निर्माण का श्रेय दिया गया है। सम्राट असोक को बौद्ध धर्म का प्रचार करने और स्तूपादि को निर्मित कराने की प्रेरणा धर्माचार्य उपगुप्त ने ही दी थी। जब भगवान् बुद्ध दूसरी बार मथुरा आये थे, तब उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा था कि ‘कालांतर में यहाँ उपगुप्त नाम का एक प्रसिद्ध धार्मिक विद्वान् होगा, जो उन्हीं की तरह बौद्ध धर्म का प्रचार करेगा और उसके उपदेश से अनेक भिक्षु योग्यता और पद प्राप्त करेंगे।’ इस भविष्यवाणी के अनुसार उपगुप्त ने मथुरा के एक वणिक के घर में जन्म लिया। उसका पिता सुगंधित द्रव्यों का व्यापार करता था। उपगुप्त अत्यंत रूपवान और प्रतिभाशाली था, किंतु वह किशोरावस्था में ही विरक्त होकर बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था। आनंद के शिष्य शाणकवासी ने उपगुप्त को मथुरा के नट-भट विहार में बौद्ध धर्म के सर्वास्तिवादी संप्रदाय की दीक्षा दी थी।
निःसंदेह, असोक बौद्ध धर्मानुयायी था। सभी बौद्ध ग्रंथ उसे बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हैं। उसने राज्याभिषेक से संबद्ध प्रथम लघुशिलालेख में अपने को ‘बुद्धशाक्य’ कहा है। साथ ही यह भी कहा है कि वह ढाई वर्ष तक साधारण उपासक रहा। भाब्रू (वैराट, राजस्थान) लघु शिलालेख (द्वितीय वैराट प्रज्ञापन) में असोक त्रिरत्न- बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास प्रकट करता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन एवं श्रवण करने के लिए कहता है। महावंस तथा दीपवंस के अनुसार उसने तृतीय बौद्ध संगीति बुलाई और मोग्गलिपुत्त तिस्स की सहायता से संघ में अनुशासन और एकता लाने का सफल प्रयास किया, यद्यपि यह एकता थेरवाद बौद्ध संप्रदाय तक ही सीमित थी।
असोक के समय थेरवाद संप्रदाय भी अनेक उपसंप्रदायों में विभक्त हो गया था। सारनाथ तथा साँची के लघुस्तंभ-लेख में संघभेद के विरूद्ध असोक भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों को चेतावनी देता है कि ‘जो कोई भिक्षु या भिक्षुणी संघ में फूट डालने का प्रयास करें, उन्हें श्वेत वस्त्र पहनाकर संघ से बहिष्कृत कर दिया जाये। मेरी इच्छा है कि संघ समग्र होकर चिरस्थायी बने’- (ये संघं भखति भिखु वा भिखुनि वा ओदातानिदुसानि सनंधापयितु अनावासमि वासापेतविये। इछा हि मे किंति संघे समगे चिर्लिथतीके सियाति)।
लगता है कि उस समय संघ में कुछ ऐसे लोग प्रवेश पा लिए थे जिससे संघ में अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी। संघ की सुचारु कार्यवाही के लिए ऐसे अवांछनीय तत्त्वों का संघ से निष्कासन अनिवार्य था। संघ ने असोक से सहायता की याचना की तो उसने यह कार्रवाई की। इस प्रकार की सहायता तो वह किसी भी ऐसे संस्थान को दे सकता है जो बाहरी व्यक्तियों से आक्रांत होती।
वस्तुतः असोक आजीवन उपासक ही रहा और वह भिक्षु अथवा संघ का अध्यक्ष कभी नहीं रहा। महावंस से पता चलता है कि अभिषेक के अठारहवें वर्ष असोक ने लंका के राजा के पास एक संदेश भिजवाया था कि ‘वह शाक्यपुत्र (गौतम बुद्ध) के धर्म का साधारण उपासक बन गया है।’
इस प्रकार कोई ऐसा प्रमाण नहीं है कि असोक ने संन्यास ग्रहण किया हो। सच तो यह है कि प्राचीन भारत में किसी ऐसे राजा का असंदिग्ध रूप से उल्लेख नहीं मिलता है जो एक ही समय भिक्षु भी हो और राजा के सभी विशेषाधिकारों का भी उपयोग करता रहे।
यद्यपि असोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया था और वह पूर्णरूप से आश्वस्त हो गया था कि ‘जो कुछ भगवान् बुद्ध ने कहा है, वह शब्दशः सत्य है’, किंतु वह दूसरे धर्मों और संप्रदायों के प्रति उदार तथा सहिष्णु बना रहा। सातवें शिलालेख में वह अपनी धार्मिक इच्छा व्यक्त करते हुए कहता है कि ‘सभी धर्मों को माननेवाले सभी स्थलों पर रहें क्योंकि वे सभी आत्म-संयम एवं हृदय की पवित्राता चाहते हैं।’
मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
बारहवें शिलालेख में असोक विभिन्न धर्मों के प्रति अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है कि ‘मानव को अपने धर्म का आदर और दूसरे धर्म की अकारण निंदा नहीं करनी चाहिए। ऐसा करके मानव अपने संप्रदाय की वृद्धि करता है तथा दूसरे संप्रदाय का उपकार करता है। इसके विपरीत वह अपने संप्रदाय को हानि पहुँचाता है और दूसरे संप्रदाय का अपकार करता है।…लोग एक दूसरे के धम्म को सुनें। इससे सभी संप्रदाय बहुश्रुत होंगे तथा विश्व का कल्याण होगा।’ इससे स्पष्ट है कि असोक ने जान लिया था कि विभिन्न मतों की संकीर्ण बुद्धि ही विवाद का कारण है, इसलिए सभी को उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
राजतरंगिणी से पता चलता है कि असोक ने कश्मीर में विजयेश्वर नामक शिव के मंदिर का निर्माण करवाया था जिसके भीतर दो समाधियाँ निर्मित की गई थीं। उसने अपने शिलालेखों में ब्राह्मणों, निर्ग्रंथों के साथ-साथ आजीवकों का भी उल्लेख किया है।
अपने राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष असोक ने बराबर पहाड़ी पर आजीवक संप्रदाय के भिक्षुओं के निवास के लिए दो गुफाओं का निर्माण करवा कर दान दिया था जो बौद्धेतर संप्रदायों के प्रति असोक की उदारता और सहिष्णुता के सबल प्रमाण हैं।
असोक का धम्म
संसार के इतिहास में असोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरंतर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान संभव था, अशोक के लेखों में उन्हें ‘धम्म’ कहा गया है। धम्म संस्कृत के धर्म का प्राकृत रूपांतर है, किंतु असोक ने इसका विशिष्ट अर्थ में प्रयोग किया है।
धम्म के विधायक पक्ष
दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में असोक ने धम्म के उन गुणों की गणना की है, जो धम्म का निर्माण करते हैं- ‘अपासिनवे बहुकयाने दया दाने सचे सोचये मादवे सादवे च’ अर्थात् धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।
इन गुणों को व्यवहार में लाने के लिए ब्रह्मगिरि लघुशिलालेख में कहा गया है कि- ‘अनारंभो प्राणानाम् अविहिंसाभूतानाम् मातरिपितरि सुश्रुषा थेर सुश्रुषा गुरुणाम् अपचिति मित संस्तुत नाटिकानां बहमण-समणानां। दानं संपटिपति दास-भतकम्हि सम्य प्रतिपति अपव्वयता अपभांडता’ अर्थात् प्राणियों का वध न करना, जीव-हिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, संबंधियों, ब्राह्मण तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार ही धम्म है।
ब्रह्मगिरि शिलालेख में इन गुणों के अतिरिक्त शिष्य द्वारा गुरु का आदर और अपने जाति-भाइयों के प्रति उचित व्यवहार भी ‘धम्म’ के अंतर्गत माना गया है। असोक के अनुसार यह पुरानी परंपरा (पोराण पोकति) है।
तीसरे शिलालेख में असोक ने ‘अल्प-व्यय’ तथा ‘अल्प-संग्रह’ को भी धम्म का अंग बताया है। चतुर्थ शिलालेख में असोक कहता है कि ‘धर्मानुशासन से प्राणियों में अहिंसा, जीवरक्षा, बंधुओं का आदर, ब्राह्मण-श्रमणों का सत्कार, माता-पिता की सेवा तथा वृद्धों की सेवा में वृद्धि हुई है।’
सप्तम शिलालेख में असोक संयम, चित्त-शुद्धि, कृतज्ञता, तथा दृढ़-भक्ति पर भी बल देता है। इस प्रकार असोक ने धम्म के विधेयात्मक पक्षों पर विशेष बल दिया है और इसे धर्मानुशासन के लिए आवश्यक बताया है।
आंध्र-सातवाहन राजवंश और गौतमीपुत्र सातकर्णि
धम्म के निषेधात्मक पक्ष ‘आसिनव’
असोक ने धम्म के विधायक पक्ष के साथ-साथ उसके निषेधात्मक पक्ष (आसिनव) की भी व्याख्या की है जिसके अंतर्गत कुछ ऐसे दुर्गुणों की गणना की गई है, जो मानव की आध्यात्मिक उन्नति में बाधक हैं। इन्हें ‘आसिनव’ शब्द से व्यक्त किया गया है। तीसरे शिलालेख में आसिनव ने ‘आसिनव’ को ‘पाप’ कहा है। इन्हीं आसिनव के कारण मानव सद्गुणों से विचलित हो जाता है। धम्म की प्रगति में बाधक आसिनव (पाप) हैं- ‘आसिनव गामीनि नाम अथ चंडिये निठुलिए कोधे माने इस्सा..’ अर्थात् प्रचण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईष्र्या पाप (आसिनव) के लक्षण हैं। इसलिए प्रत्येक मानव को आसिनव से बचना चाहिए।
आत्म-निरीक्षण
असोक मानवमात्र की दुर्बलताओं से परिचित था। वह जानता था कि ‘धम्म’ का पूर्ण परिपालन तभी संभव है, जब मानव उसके गुणों के साथ ही साथ ‘आसिनव’ से अपने आपको मुक्त रखे। इसके लिए असोक ने नित्य ‘आत्म-निरीक्षण’ पर बल दिया है। तृतीय स्तंभ-लेख में वह कहता है कि यह मानव का स्वभाव है कि वह सदैव अपने द्वारा किये गये अच्छे कार्यों को ही देखता है, वह यह कभी नहीं देखता कि मैंने यह पाप किया है या यह दोष मुझमें है। मानव को सदैव आत्म-निरीक्षण करते रहना चाहिए ताकि उसे अधःपतन की ओर ले जानेवाली बुराइयों का ज्ञान हो सके। मानव को सचेत रहना चाहिए कि ये मनोवेग- चण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, ईष्र्या और मान व्यक्ति को पाप की ओर न ले जाएं और उसे भ्रष्ट न करें। तभी धम्म की भावना का विकास हो सकता है।
कलिंग का महामेघवाहन वंश और खारवेल
धम्म मंगल
धम्म के पूर्ण परिपालन के लिए आसिनव से बचना तथा आत्म-निरीक्षण ही पर्याप्त नहीं था। असोक ने साधारण जनमानस में धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए धम्म की तुलना भौतिक जीवन के विभिन्न आचरणों से की है और उनमें धम्म को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है।
नवें शिलालेख में असोक ने मानव जीवन के विभिन्न अवसरों पर किये जाने वाले ‘मंगलों’ का उल्लेख किया है और उन्हें अल्पफल वाला बताया है। उसके अनुसार ‘धम्म मंगल’ महाफलवाला है। ग्यारहवें शिलालेख में ‘धम्मदान’ की तुलना सामान्य दान से की गई है तथा ‘धम्मदान’ को श्रेष्ठतर बताया गया है (नास्ति एदिशं दनं यदिशं ध्रम दनं)। ‘धम्मदान’ का आशय है- धम्म का उपदेश देना, धम्म में भाग लेना तथा अपने को धम्म से संबंधित कर लेना। इसी प्रकार असोक तेरहवें शिलालेख में ‘सैनिक विजय’ की तुलना ‘धम्म विजय’ से करता है। उसके अनुसार प्रत्येक सैनिक विजय में घृणा, हिंसा और हत्या की घटनाएँ होती हैं। इसके विपरीत धम्म विजय प्रेम, दया, मृदुता एवं उदारता आदि से अनुप्राणित होती है।
असोक के धम्म का स्वरूप
असोक के धम्म के वास्तविक स्वरूप को लेकर विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किया है। प्रसिद्ध विद्वान् फ्लीट के अनुसार असोक का ‘धम्म’ बौद्ध धर्म नहीं था क्योंकि इसमें बुद्ध का उल्लेख नहीं किया गया है। वस्तुतः इसका उद्देश्य बौद्ध या किसी अन्य संप्रदाय का प्रचार-प्रसार नहीं था। यह एक प्रकार से एक आदर्श शासक की राजकीय आज्ञाएँ थीं जिनके अनुसार उन्हें आचरण करना था।
फ्लीट के अनुसार असोक का धर्म राजधर्म था, जिसका विधान उसने अपने राजकर्मचारियों के पालनार्थ किया था। किंतु असोक का धम्म मात्र अशोक या राजदरबार की चहारदीवारी तक सीमित न रहकर विश्वजनीन बना और जन-जन के अंतर्मन में अपना अमिट प्रभाव डालने में सफल रहा, इसलिए इसे राजधर्म नहीं माना जा सकता है।
स्मिथ के अनुसार असोक ने उपदेश की शक्ति में आश्चर्यजनक श्रद्धा रखते हुए जिस ‘धम्म’ का अनवरत प्रचार-प्रसार किया, उसमें विभेदमूलक विशेषताएँ बहुत कम थीं। यह सिद्धांत आवश्यक रूप से सभी धर्मों में विद्यमान था, यद्यपि कोई संप्रदाय इसके किसी एक अंग पर ही बल देता था।
राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार असोक के लेखों में जिस धर्म के तत्त्व हैं, वह कोई धर्म विशेष नहीं है। वह एक आचरण-संहिता मात्रा है जिसमें सभी धर्मों का सार है। असोक का व्यक्तिगत धर्म बौद्ध धर्म था तथा उसने साधारण जनता के लिए जिस धर्म का विधान किया, वह वस्तुतः सभी धर्मों का सार था।
मैकफेल लिखते हैं कि असोक के उत्कीर्ण लेखों में ‘धम्म’ का अभिप्राय बौद्ध धर्म से न होकर उस सामान्य शुचिता से है, जिसका पालन अशोक अपनी समस्त प्रजा से करवाना चाहता था, चाहे वह प्रजा किसी भी धर्म को माननेवाली हो।
रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार असोक के धम्म के तत्त्व विश्वजनीन हैं और उस पर किसी धर्म-विशेष को प्रोत्साहन अथवा संरक्षण प्रदान करने का दोषारोपण नहीं किया जा सकता है।
इसके विपरीत सेनार्ट का मानना है कि असोक के लेखों में उस समय के बौद्ध धर्म का पूर्ण एवं सर्वांगीण चित्रण है जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके समय तक बौद्ध धर्म एक शुद्ध नैतिक सिद्धांत था और उसमें किसी विशेष धार्मिक सिद्धांतों की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। टामस जैसे इतिहासकार असोक के धम्म को बौद्ध धर्म नहीं स्वीकार करते, क्योंकि इसमें बौद्ध धर्म के विहित सिद्धांत, जैसे- चार आर्यसत्य, अष्टांगिक मार्ग तथा निर्वाण आदि का उल्लेख नहीं मिलता है।
भंडारकर के अनुसार असोक का धम्म एक प्रकार का उपासक बौद्ध धर्म था। यद्यपि यह सही है कि असोक बौद्ध था और उसके धम्म पर बौद्ध धर्म का कुछ प्रभाव पड़ा था, किंतु उसके ‘धम्म’ को पूर्णतया बौद्ध धर्म नहीं माना जा सकता है।
रोमिला थापर के अनुसार असोक का धम्म असोक की अपनी खोज थी। हो सकता है उसे हिंदू तथा बौद्ध चिंतन से लिया गया हो, किंतु अपने सार में यह सम्राट द्वारा पथ-प्रदर्शन का एक ऐसा प्रयास था जो व्यावहारिक और सहज होने के साथ-साथ बहुत नैतिक था। इसका उद्देश्य उन लोगों के बीच सुखद समन्वय स्थापित करना था जिनके पास दार्शनिक चिंतन में उलझने का अवकाश ही नहीं था। यदि उसकी नीति बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की पुनरावृत्ति होती तो वह इसे अवश्य स्पष्ट रूप से स्वीकार करता।
इस प्रकार असोक के धम्म के संबंध में दो प्रकार की धारणाएं हैं- एक धारणा के अनुसार असोक का धम्म बौद्ध धर्म से पूर्णतया प्रभावित था तथा उसी का परिवर्तित रूप था और दूसरी के अनुसार असोक के धम्म में सभी धर्मों का सार निहित था तथा यह एक प्रकार की आचार-संहिता थी।
डी.आर. भंडारकर का विचार है कि असोक जिस धर्म का प्रचार करता था, वह सभी धर्मों में सामान्य रूप से विद्यमान साधारण कर्त्तव्यों का संग्रह नहीं था, अपितु बौद्ध धर्म द्वारा उपासक के लिए निर्धारित धार्मिक कर्त्तव्यों का संग्रह था। अशोक ने जिस धम्म का प्रचार किया, वह बौद्ध धर्म था और इस धम्म की मूल प्रेरणा बौद्ध धर्म से मिली थी।
असोक के समय बौद्ध धर्म के दो रूप थे- एक तो भिक्षु बौद्ध धर्म और दूसरा उपासक बौद्ध धर्म। उपासक बौद्ध धर्म सामान्य गृहस्थों के लिए था और गृहस्थ होने के कारण असोक ने इसी दूसरे रूप को ग्रहण किया।
उत्तरगुप्त राजवंश (कृष्णगुप्त राजवंश)
असोक के धम्म तथा बौद्ध ग्रंथों में उल्लिखित उपासक बौद्ध धर्म के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि असोक ने धम्म के जिन गुणों का निर्देश किया है, वे पूर्ण रूप से बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय के लक्खणसुत्त चक्कवत्ती सीहनाद सुत्त, राहुलोवादसुत्त तथा धम्मपद से ली गई हैं। इन ग्रंथों में वर्णित धर्मराज के आदर्श से प्रेरित होकर ही असोक ने धम्म-विजय के आदर्श को अपनाया। लक्खणसुत्त तथा चक्कवत्ती सीहनादसुत्त में धम्मयुक्त चक्रवर्ती सम्राट के विषय में कहा गया है कि वह भौतिक तथा आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहता है। ऐसा राजा विजय से नहीं, अपितु ‘धम्म’ से विजयी होता है; वह तलवार के बजाय धम्म से विजय प्राप्त करता है; वह लोगों को अहिंसा का उपदेश देता है।असोक ने धम्म की जो परिभाषा दी है, वह राहुलोवादसुत्त से ली गई है। इस सुत्त को ‘गिहिविनय’ भी कहा गया है अर्थात् ग्रहस्थों के लिए अनुशासन-ग्रंथ। इसमें भी माता-पिता की सेवा, गुरुओं का सम्मान, मित्रों, संबंधियों, परिचितों तथा ब्राह्मणों-श्रमणों के साथ उदारता और दास-भृत्यों के साथ उचित व्यवहार करने का उपदेश दिया गया है। असोक ने धम्म पालन से प्राप्त होनेवाले जिन स्वर्गीय सुखों का का उल्लेख किया है उनका विवरण पालि ग्रंथ ‘विमानवत्थु’ में मिलता है। उपासक के लिए परम उद्देश्य स्वर्ग प्राप्त करना था, न कि निर्वाण। चक्कवत्ती (चक्रवर्ती) धम्मराज के आदर्श को अपनाते हुए असोक ने जनसाधारण के नैतिक उत्थान के लिए अपने धम्म का प्रचार किया, ताकि वे एैहिक सुख और इस जन्म के बाद पारलौकिक सुख प्राप्त कर सकें। इस प्रकार भंडारकर असोक के धम्म को ‘उपासक बौद्धधर्म’ कहते हैं। असोक सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का नैतिक पुनरुद्धार करना चाहता था और इसके लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहा। वह निःसंदेह, एक आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था और यही असोक की मौलिकता है।
असोक के धम्म के सिद्धांतों का अनुशीलन करने से कोई संदेह नहीं रह जाता कि असोक का धम्म एक सर्वसाधारण धर्म है, जिसकी मूलभूत मान्यताएँ सभी संप्रदायों में मान्य हैं और जो देश-काल की सीमाओं में आबद्ध नहीं हैं। किसी पाखंड या संप्रदाय का इससे विरोध नहीं हो सकता।
असोक ने अपने तेरहवें शिलालेख में लिखा है- ब्राह्मण, श्रमण और गृहस्थ सर्वत्र रहते हैं और धर्म के इन आचरणों का पालन करते हैं। असोक के साम्राज्य में अनेक संप्रदाय के माननेवाले थे और हो सकता है कि उनमें थोड़ा-बहुत विरोध तथा प्रतिद्वंद्विता का भाव भी रहा हो। उसने सभी संप्रदायों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सदाचार के इन नियमों पर जोर दिया। अपने बारहवें शिलालेख में असोक ने धर्म की सार-वृद्धि पर जोर दिया है, अर्थात् एक धर्म-संप्रदाय वाले दूसरे धर्म-संप्रदाय के सिद्धांतों के विषय में जानकारी प्राप्त करें, इससे धर्मसार की वृद्धि होगी।
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धम्म का उद्देश्य
तेरहवें शिलालेख और लघु शिलालेख से विदित होता है कि असोक के धर्म परिवर्तन का कलिंग युद्ध से निकट संबंध है। असोक के धम्म के संबंध में रोमिला थापर ने लिखा है कि कुछ राजनीतिक उद्देश्यों से ही असोक ने एक नये धर्म की कल्पना की तथा इसका प्रसार किया। चंद्रगुप्त मौर्य के समय शासन के केंद्रीकरण की नीति सफलतापूर्वक पूरी हो चुकी थी। कुशल अधिकारी-तंत्र, उत्तम संचार-व्यवस्था और शक्तिशाली शासक के द्वारा उस समय साम्राज्य का जितना केंद्रीकरण संभव था, वह हो चुका था। किंतु केंद्र का आधिपत्य बनाये रखने के मात्र दो उपाय थे, एक तो सैनिक शक्ति द्वारा कठोर शासन तथा राजा में देवत्व का आरोपण कर और दूसरे, सभी वर्गों से संकलित सारग्राही धर्म को अपनाकर। यह दूसरा तरीका अधिक युक्तिसंगत था क्योंकि ऐसा करने से किसी एक वर्ग का प्रभाव कम किया जा सकता था और फलतः केंद्र का प्रभाव बढ़ता। असोक पहला सम्राट था जिसने भावनात्मक एकता के महत्त्व को समझा और उसको प्राप्त करने के लिए धम्म का प्रचार किया।
इस प्रकार थापर के अनुसार असोक ने धम्म को सामाजिक उत्तरदायित्व की एक वृत्ति के रूप में देखा था। इसका उद्देश्य एक ऐसी मानसिक वृत्ति का निर्माण करना था जिसमें सामाजिक उत्तरदायित्वों को, एक व्यक्ति के दूसरे के प्रति व्यवहार को अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाए। इसमें मनुष्य की महिमा को स्वीकृति देने और समाज के कार्य-कलापों में मानवीय भावना का संचार करने का आग्रह था। सिंहासनारूढ़ होने के समय असोक बौद्ध नहीं था। बाद में ही उसकी बौद्ध धर्म में रुचि बढ़ी, क्योंकि उत्तराधिकार युद्ध के समय उसे संभवतः कट्टर समुदायों का समर्थन नहीं मिला। अतः बौद्ध धर्म को स्पष्ट रूप में समर्थन देकर उसने उन वर्गों का समर्थन प्राप्त किया, जो कट्टर नहीं थे। रोमिला थापर का अनुमान है कि बौद्ध और आजीविकों को नवोदित वैश्य वर्ग का समर्थन प्राप्त था और जनसाधारण का इन संप्रदायों से तीव्र विरोध नहीं था। इस प्रकार असोक ने धर्म को अपनाने में व्यावहारिक लाभ देखा।
इस धम्म की कल्पना का दूसरा कारण था- छोटी-छोटी राजनीतिक इकाइयों में बँटे साम्राज्य के विभिन्न वर्गों, जातियों और संस्कृतियों को एक सूत्र में बाँधना। इनके साथ-साथ विभिन्न प्रदेशों में सत्ता को दृढ़ करने के लिए यह उपयोग में लाया जा सकता था। किंतु बौद्ध अनुश्रुतियों और असोक के अभिलेखों से यह सिद्ध नहीं होता कि उसने किसी राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से धम्म का प्रचार किया था। वस्तुतः असोक सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का भौतिक तथा नैतिक कल्याण करना चाहता था और इसी उद्देश्य से उसने अपनी धम्मनीति का विधान किया।
रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों का विचार है कि असोक की धम्मनीति सफल नहीं रही। सामाजिक तनाव ज्यों के त्यों बने रहे, सांप्रदायिक संघर्ष होते रहे। किंतु इस मत से सहमत होना कठिन है क्योंकि असोक के काल में किसी सांप्रदायिक संघर्ष की सूचना नहीं है। वस्तुतः असोक की उदार धार्मिक नीति के कारण ही विशाल साम्राज्य में समरसता आई और आपसी भाईचारा का विकास हुआ। नीलकंठ शास्त्री उचित ही लिखते हैं कि अकबर के पूर्व असोक पहला शासक था जिसने भारतीय राष्ट्र की एकता की समस्या का सामना किया जिसमें उसे अकबर से अधिक सफलता प्राप्त हुई क्योंकि उसे मानव-प्रकृति का बेहतर ज्ञान था। उसने एक नया धर्म बनाने या अपने धर्म को बलात् स्वीकार कराने के स्थान पर एक सुस्थित धर्म व्यवस्था को स्वीकार किया जिससे स्वस्थ्य एवं सुव्यवस्थित विकास की आशा थी। वह सहिष्णुता के मार्ग से कभी विचलित नहीं हुआ।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि असोक की धार्मिक नीति के कारण भारत का राजनीतिक विकास अवरुद्ध हुआ, जबकि उस समय रोमन साम्राज्य के समान विशाल भारतीय साम्राज्य को स्थापित किया जा सकता था। धम्म-विजय की नीति से दिग्विजयी मौर्य सेना निष्क्रिय हो गई और विदेशी आक्रमणों का सामना नहीं कर सकी। इस नीति ने देश को भौतिक समृद्धि से विमुख कर दिया जिससे देश में राष्ट्रीयता की भावनाओं का विकास अवरुद्ध हुआ।
जो भी हो, असोक की इसी नीति के कारण अन्य देशों में भारतीयता का प्रचार संभव हो सका, घृणा के स्थान पर सहृदयता विकसित हुई, सहिष्णुता और उदारता को बल मिला तथा बर्बरता के कृत्यों से भरे हुए इतिहास को एक नई दिशा का बोध हुआ। लोकहित की दृष्टि से अशोक ही अपने समकालीन इतिहास का ऐसा शासक है जिसने मानव-मात्र की नहीं, वरन् प्राणि-मात्र की चिंता की। वस्तुतः असोक अपने काल का एकमात्र ऐसा सम्राट है, जिसकी प्रशस्ति उसके गुणों के कारण होती आई है, उसकी शक्ति के भय से नहीं।
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धम्म प्रचार के उपाय
लेखों से पता चलता है कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने के एक वर्ष बाद तक असोक एक साधारण उपासक बना रहा। इसके बाद वह संघ की शरण में आया और एक वर्ष से अधिक समय तक वह संघ के साथ रहा। इस बीच असोक ने धम्म प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया जिससे बौद्ध धर्म की आश्चर्यजनक उन्नति हुई। उसने धम्मप्रचार के लिए अपने साम्राज्य के सभी साधनों को नियोजित कर दिया। उसके द्वारा किये गये कुछ उपाय अत्यंत मौलिक थे, जैसे- अहिंसा के प्रचार के लिए अशोक ने युद्ध बंद कर दिया। जीवों का वध रोकने के लिए उसने प्रथम शिलालेख में विज्ञप्ति जारी की कि किसी यज्ञ के लिए पशुओं का वध न किया जाये। संभवतः यह निषेध मात्रा राजभवन या फिर पाटलिपुत्र के लिए ही था, समस्त साम्राज्य के लिए नहीं, क्योंकि पशु-वध को एकदम रोकना असंभव था।
असोक ने लिखा है कि राजकीय रसोई में पहले जहाँ सैकड़ों-हजारों पशु भोजन के लिए मारे जाते थे, वहाँ अब केवल तीन प्राणी, दो मोर और एक मृग मारे जाते हैं, और भविष्य में वे भी नहीं मारे जायेंगे। असोक ने यह भी घोषणा की कि ऐसे सामाजिक उत्सव नहीं होने चाहिए, जिनमें अनियंत्रित आमोद-प्रमोद हो, जैसे-सुरापान, माँस-भक्षण, मल्लयुद्ध, जानवरों की लड़ाई आदि। इनके स्थान पर असोक ने धम्म-सभाओं की व्यवस्था की जिनमें विमान, हाथी, अग्नि-स्कंध इत्यादि स्वर्ग की झाँकियाँ दिखाई जाती थी और इस प्रकार जनता में धम्म के प्रति अनुराग पैदा किया जाता था। बिहार-यात्राओं को बंद कर असोक ने उनके स्थान पर धम्म-यात्राओं को आरंभ किया जिससे सामान्य जनता में धर्म का प्रसार हुआ।
बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा
धम्म प्रचार के लिए असोक ने बिहार-यात्राओं के स्थान पर धम्म-यात्राओं को प्रारंभ किया और अनेक बौद्ध तीर्थस्थानों की यात्रा की। अपने अभिषेक के दसवें वर्ष उसने बोधगया की यात्रा की। यह उसकी पहली धम्म-यात्रा थी। इसके पूर्व वह अन्य शासकों की भाँति बिहार-यात्राओं पर जाया करता था। चौदहवें वर्ष वह नेपाल की तराई में स्थित निग्लीवा (निगाली सागर) गया और कनकमुनि बुद्ध के स्तूप को द्विगुणित करवाया। अपने अभिषेक के बीसवें वर्ष असोक बुद्ध के जन्मस्थल लुंबिनी गाँव गया, वहाँ एक शिला-स्तंभ स्थापित करवाया और बुद्ध का जन्मस्थल होने के कारण वहाँ का कर घटाकर 1/8 कर दिया। इन यात्राओं के अवसर पर असोक ब्राह्मणों और श्रमणों को दान देता था; वृद्धों को सुवर्ण दान देता था, जनपद के लोगों से धर्म संबंधी प्रश्नादि करता था। इन धर्म यात्राओं से असोक को देश के विभिन्न भागों के लोगों के संपर्क में आने का और धर्म तथा शासन के विषय में लोगों के विचारों से अवगत होने का अवसर मिला। साथ ही, इन यात्राओं से एक प्रकार से स्थानीय शासकों पर नियंत्रण भी बना रहा।
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राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति
असोक ने अपने विशाल साम्राज्य में धर्म प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के पदाधिकरियों को लगा दिया। तीसरे व सातवें स्तंभलेख से ज्ञात होता है कि उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म का प्रचार एवं उपदेश करने का आदेश दिया। ये अधिकारी प्रति पाँचवें वर्ष अपने-अपने क्षेत्रों में भ्रमण पर जाया करते थे और सामान्य प्रशासकीय कार्यों के साथ-साथ धर्म का प्रचार भी करते थे। असोक के लेखों में इसे ‘अनुसंधान’ कहा गया है।
धर्मश्रावन तथा धर्मोपदेश की व्यवस्था
धर्म प्रचार के लिए असोक ने अपने साम्राज्य में ‘धर्मश्रावन’ (धम्म सावन) तथा ‘धर्मोपदेश’ (धम्मानुसथि) की व्यवस्था की। उसके अधिकारी विभिन्न स्थानों पर घूम-घूमकर लोगों को धर्म के विषय में शिक्षा देते और राजा की ओर से की गई धर्म-संबंधी घोषणाओं से अवगत कराते थे।
धर्म-महामात्रों की नियुक्ति
अपने अभिषेक के तेरहवें वर्ष असोक ने धर्म प्रचार के लिए ‘धम्ममहामात्त’ नामक नवीन पदाधिकारियों की नियुक्ति की। पांँचवें शिलालेख में अशोक कहता है कि प्राचीनकाल में धम्ममहामात्त कभी नियुक्त नहीं हुए थे। मैंने अभिषेक के तेरहवें वर्ष धम्ममहामात्त नियुक्त किये हैं। इन अधिकारियों का कार्य विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच द्वेष-भाव को समाप्तकर धर्म की एकता पर बल देना था। इनका प्रमुख कर्तव्य धर्म की रक्षा और धर्म की वृद्धि (धम्माधिथानाये) करना बताया गया है। वे राजपरिवार के सदस्यों एवं राजा से प्राप्त धनादि को धर्म-प्रचार के कार्य में नियोजित करते थे। इस प्रकार धर्म-महामात्रों की नियुक्ति से धर्म की वृद्धि हुई।
दिव्य रूपों का प्रदर्शन
असोक पारलौकिक जीवन में विश्वास करता था। उसने प्रजा में धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए जनता के बीच उन स्वर्गिक सुखों का प्रदर्शन करवाया, जो मानव को देवत्व प्राप्त करने पर स्वर्ग में मिलते हैं। विमान, हस्ति, अग्नि-स्कंध आदि दिव्य-रूपों के प्रदर्शन किये गये। इन दिव्य-प्रदर्शनों से जहाँ एक ओर जनता का मनोरंजन होता था, वहीं दूसरी ओर पारलौकिक सुखों की लालसा से वह धर्म की ओर आकृष्ट हुई।
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लोकोपकारिता के कार्य
धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए असोक द्वारा मानव एवं पशु दोनों के कल्याण के लिए कार्य किये गये। उसने अपने राज्य में मानव एवं पशुओं के लिए चिकित्सा की अलग-अलग व्यवस्था करवाई और आवश्यक औषधियों को विदेशों से मँगवाया। सातवें स्तंभ-लेख से पता चलता है कि मानव और पशुओं को छाया देने के लिए मार्गों पर वट-वृक्षों एवं आम्रवाटिकाएँ लगवाई गईं, आधे-आधे कोस की दूरी पर कुंए खुदवाये गये, विश्रामगृह बनवाये गये और मानव तथा पशुओं के उपयोग के लिए स्थान-स्थान पर प्याउ चलाये गये। ऐसा इसलिए किया गया कि ताकि लोग धर्म के अनुसार आचरण करें।
बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तनिकाय में भी वृक्षारोपण, पुल निर्माण, कुंए खुदवाने तथा प्याउ चलवाने को पुण्य कार्य बताया गया है जिसके द्वारा मानव स्वर्गलोक को प्राप्त कर सकता है। असोक के इन लोकोपकारी कार्यों से जनमानस का धम्म की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था।
धम्म-लिपियों को खुदवाना
धर्म प्रचार के लिए असोक ने अपने सिद्धांतों को विभिन्न शिलाओं एवं स्तंभ-लेखों पर उत्कीर्ण कराया, जो उसके साम्राज्य के विभिन्न भागों में प्रसरित थे। पाषाण पर खुदे होने के कारण ये लेख स्थायी सिद्ध हुए और और आनेवाली पीढ़ी अपनी प्रजा के नैतिक व भौतिक कल्याण हेतु उनका अनुकरण कर सकी। इन लेखों में धम्मोपदेश जन-सामान्य की भाषा पालि में लिखे गये थे। निश्चित रूप से इन पाषाण-लेखों से धर्म के प्रसार में सहायता मिली होगी।
विदेशों में धर्म-प्रचारकों को भेजना
असोक ने धम्म-प्रचार के लिए विदेशों में भी प्रचारकों को भेजा। अपने दूसरे तथा तेरहवें शिलालेख में उसने उन देशों की गणना की है, जहाँ उसने अपने दूतों को भेजा था। इनमें दक्षिणी सीमा पर स्थित राज्य चोल, पांडय, सतियपुत्त, केरलपुत्त एवं ताम्रपर्णि बताये गये हैं। तेरहवें शिलालेख से पता चलता है कि उसने पाँच यवन राज्यों में अपने धर्म-प्रचारकों को भेजा था। इसी शिलालेख में अशोक बताता है कि ‘जहाँ देवताओं के प्रिय के दूत नहीं पहुँचते, वहाँ के लोग भी धर्मानुशासन, धर्म-विधान तथा धर्म-प्रचार की प्रसिद्धि सुनकर उसका अनुसरण करते हैं।’ संभवतः ऐसे स्थानों से तात्पर्य चीन एवं बर्मा से है।
रिज डेविड्स इस तथ्य को नहीं मानते कि असोक के दूत कभी यवन राज्य में गये थे। उनके अनुसार यदि असोक के धर्म-प्रचारक इन राज्यों में गये भी हों, तो भी, उन्हें वहाँ कोई सफलता नहीं मिली क्योंकि यूनानी अपने धर्म से अधिक संतुष्ट थे और इस प्रकार वे किसी भारतीय धर्म को ग्रहण नहीं कर सकते थे। असोक अपने अभिलेखों में इन राज्यों में धर्म-प्रचारक भेजने का जो दावा करता है, वह मिथ्या एवं राजकीय प्रलाप से परिपूर्ण है। यह कदापि संभव नहीं है कि एक विदेशी राजा के कहने से उन्होंने अपने देवताओं तथा अंधविश्वासों को त्याग दिया होगा। असोक के धर्म-प्रचारक केवल भारतीय सीमा में ही रहे।
किंतु असोक जैसे मानवतावादी शासक पर मिथ्याचार का आरोप लगाना उचित नहीं है। असोक का उद्देश्य अपने धर्म-प्रचारकों के माध्यम से यूनानी जनता को बौद्ध धर्म में दीक्षित करना नहीं था। वह तो वहाँ रह रहे भारतीय राजनयिकों एवं पदाधिकारियों को आदेश देना चाहता था कि वे धर्म के प्रचार का कार्य आरंभ कर दें और उन राज्यों में लोकोपयोगी कार्य, जैसे- मानव एवं पशुओं के लिए औषधालयों की स्थापना आदि करें। भारतीय इतिहास में इस बात के प्रमाण हैं कि मिनेंडर एवं हेलियोडोरस जैसे यवनों ने अपनी प्राचीन संस्कृति को त्यागकर भारतीय संस्कृति को अपना लिया था।
मिस्री नरेश टाल्मी फिलाडेल्फ ने सिकंदरिया में एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य भारतीय ग्रंथों के अनुवाद को सुरक्षित रखना था। इस प्रकार यदि असोक के धर्म-प्रचार की ख्याति सुनकर कुछ यवन बौद्ध हो गये हों, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
सिंहली अनुश्रुतियों- दीपवंस एवं महावंस के अनुसार अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में मोग्गलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। इस संगीति की समाप्ति के बाद विभिन्न देशों में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ भिक्षु भेजे गये। महावंस के अनुसार कश्मीर तथा गांधार में मज्झंतिक, यवन देश में महारक्षित, हिमालय देश में मज्झिम, अपरांतक में धर्मरक्षित, महाराष्ट्र में महाधर्मरक्षित, महिषमंडल (मैसूर अथवा मंधाता) में महादेव, बनवासी (उत्तरी कन्नड़) में रक्षित, सुवर्णभूमि में सोन तथा उत्तर और लंका में महेंद्र तथा संघमित्रा को धर्म-प्रचार के लिए भेजा गया।
लंका में बौद्ध धर्म-प्रचारकों को अधिक सफलता मिली जहाँ असोक के पुत्र महेंद्र ने वहाँ के शासक तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। तिस्स ने संभवतः इसे राजधर्म बना लिया और असोक का अनुकरण करते हुए ‘देवानाम् प्रिय’ की उपाधि धारण की।
इस प्रकार असोक ने विविध उपायों द्वारा स्वदेश और विदेश में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। असोक के प्रयासों के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर एशिया के विभिन्न भागों में फैल गया और वह अंतर्राष्ट्रीय धर्म बन गया। वस्तुतः बिना किसी राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ के धर्म के प्रचार कोयह पहला उदाहरण था और इसका दूसरा उदाहरण अभी तक इतिहास में उपस्थित नहीं हुआ है।
असोक का साम्राज्य-विस्तार
असोक के साम्राज्य की सीमा का निर्धारण उसके अभिलेखों के आधार पर किया जा सकता है। शिलालेखों तथा स्तंभलेखों के विवरण से ही नहीं, वरन् जहाँ से अभिलेख पाये गये हैं, उन स्थानों की स्थिति से भी सीमा-निर्धारण करने में सहायता मिलती है। इन अभिलेखों में जनता के लिए राजा की घोषणाएँ थीं, इसलिए वे अशोक के विभिन्न प्रांतों में आबादी के मुख्य केंद्रों में उत्कीर्ण कराये गये।
उत्तर-पश्चिम में पेशावर जिले के शाहबाजगढ़ी और हजारा जिले के मानसेहरा में असोक के शिलालेख पाये गये हैं। इसके अतिरिक्त तक्षशिला में और काबुल प्रदेश में लमगान में अशोक के लेख आरमेईक लिपि में मिलते हैं। एक शिलालेख में एंटियोकस द्वितीय थियोस को पड़ोसी राजा कहा गया है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कपिशा में असोक के स्तूप का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर-पश्चिम में अशोक के साम्राज्य की सीमा हिंदुकुश तक थी। राजतरंगिणी से पता चलता है कि कश्मीर पर असोक का अधिकार था और उसने वहाँ विजयेश्वर नामक मंदिर का निर्माण करवाया था।
कल्हण के अनुसार असोक कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक था। कालसी (देहरादून, उ.प्र.), रुम्मिनदेई तथा निग्लीवा सागर के स्तंभलेखों से सिद्ध होता है कि उत्तर में देहरादून और नेपाल की तराई का क्षेत्र असोक के साम्राज्य में सम्मिलित था। सारनाथ तथा नेपाल की वंशावलियों के प्रमाण तथा स्मारकों से यह सिद्ध होता है कि नेपाल असोक के साम्राज्य का एक अंग था। जब असोकयुवराज था, उसने खस और नेपाल प्रदेश को विजित किया था।
पूरब में बंगाल तक मौर्य साम्राज्य के विस्तृत होने की पुष्टि महास्थान अभिलेख से होती है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है और मौर्यकाल का माना जाता है। महावंस के अनुसार असोक अपने पुत्र को विदा करने के लिए ताम्रलिप्ति बंदरगाह तक आया था। ह्वेनसांग को भी ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, समतट, पूर्वी बंगाल तथा पुण्ड्रवर्धन में असोक द्वारा निर्मित स्तूप देखने को मिले थे। दिव्यावदान में कहा गया है कि असोक के समय तक बंगाल मगध साम्राज्य का ही एक अंग था। असम कदाचित् मौर्य साम्राज्य से बाहर था।
उड़ीसा और गंजाम से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तथा महाराष्ट्र तक असोक का शासन था। धौली और जौगढ़़ में असोक के शिलालेख मिले हैं, साथ ही सौराष्ट्र में जूनागढ़ और अपरान्त में बंबई के पास सोपारा नामक स्थान से भी असोक के शिलालेख पाये गये हैं।
दक्षिण में मौर्य प्रभाव के प्रसार की जो प्रक्रिया चंद्रगुप्त मौर्य के काल में आरंभ हुई थी, वह असोक के नेतृत्व में और अधिक पुष्ट हुई। लगता है कि चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो असोक की धम्म-विजय ने की थी।
वर्तमान कर्नाटक राज्य के ब्रह्मगिरि (चित्तलदुर्ग), मास्की (रायचूर), जटिंगरामेश्वर (चित्तलदुर्ग), सिद्धपुर (ब्रह्मगिरि से एक मील पश्चिम में स्थित) से असोक के लघुशिलालेख प्राप्त हुए हैं। इससे दक्षिण में कर्नाटक राज्य तक असोक का प्रत्यक्ष शासन प्रमाणित होता है। असोक के शिलालेखों में चोल, चेर, पांड्य और केरल राज्यों को स्वतंत्र सीमावर्ती राज्य बताया गया है, इससे स्पष्ट है कि सुदूर दक्षिण भारत असोक के साम्राज्य से बाहर था।
यद्यपि असोक का साम्राज्य विस्तृत था, तथापि साम्राज्य के अंतर्गत सभी प्रदेशों पर उसका सीधा शासन था। असोक के पाँचवें और तेरहवें शिलालेख में कुछ जनपदों तथा जातियों का उल्लेख किया गया है, जैसे- यवन, कांबोज, नाभक, नाभापम्ति, भोज, पितनिक, आंध्र, पुलिंद। रैप्सन का विचार है कि ये देश तथा जातियाँ असोक द्वारा जीते गये राज्य के अंतर्गत न होकर प्रभाव-क्षेत्र में थे। किंतु यह सही प्रतीत नहीं होता है क्योंकि इन प्रदेशों में असोक के धर्म-महामात्रों के नियुक्त किये जाने का उल्लेख है। रायचौधरी के अनुसार इन लोगों के साथ विजितों तथा अंतर्विजितों के बीच का व्यवहार किया जाता था। गांधार, यवन, कांबोज, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में थे। भंडारकर इन्हें काबुल तथा सिंधु के बीच स्थित मानते हैं। भोज बरार तथा कोंकण में तथा राष्ट्रिक या रठिक महाराष्ट्र में निवास करते थे। पितनिक पैठन में तथा आंध्र राज्य कृष्णा एवं गोदावरी नदियों के बीच स्थित था।
मौर्योत्तरकालीन समाज, धार्मिक जीवन, कलात्मक एवं साहित्यिक विकास
तेरहवें शिलालेख में असोकने अटवी जातियों का उल्लेख किया है, जो अपराध करते थे। उन्हें यथासंभव क्षमा करने का आश्वासन दिया गया है, किंतु साथ ही यह चेतावनी भी दी गई है कि अनुताप अर्थात् पश्चाताप में भी देवानांप्रिय का प्रभाव है। यदि ये जातियाँ कठिनाइयाँ उत्पन्न करेंगी, तो राजा में उन्हें सजा देने तथा मारने की शक्ति भी है। संभवतः यह अटवी प्रदेश बुंदेलखंड से लेकर उड़ीसा तक फैले हुए थे। यद्यपि ये अटवी जातियाँ पराजित हुई थीं, तथापि उनकी आंतरिक स्वतंत्रता को मान्यता दे दी गई थी। इस प्रकार असम और सुदूर दक्षिण को छोड़कर संपूर्ण भारतवर्ष असोक के साम्राज्य के अंतर्गत था।
वैदेशिक-संबंध
असोक की धम्म-नीति ने उसकी वैदेशिक नीति को भी प्रभावित किया। उसने पड़ोसियों के साथ शांति और सह-अस्तित्व के सिद्धांतों के आधार पर अपना संबंध स्थापित किया। असोक ने जो संपर्क स्थापित किये, वे अधिकांशतः दक्षिण एवं पश्चिम क्षेत्रों में थे और धम्म-मिशनों के माध्यम से स्थापित किये थे। इन मिशनों की तुलना आधुनिक सद्भावना-मिशनों से की जा सकती है। मिस्री नरेश टाल्मी फिलाडेल्फ ने असोक के दरबार में अपना दूत भेजा था।
तेरहवें शिलालेख में पाँच यवन राज्यों का उल्लेख मिलता है जिनके राज्यों में असोक के धर्म-प्रचारक गये थे- सीरियाई नरेश एंतियोक, मिस्री नरेश तुरमय, मेसीडोनियन शासक अंतिकिनि, मग (एपिरस) तथा अलिक सुंदर (सिरीन)। एंतियोक, सीरिया का शासक एंटियोकस द्वितीय थियोस (ई.पू. 261-246) था और तुरमय, मिस्र का शासक टाल्मी द्वितीय फिलाडेल्फ (ई.पू. 285-24) था। अंतिकिन, मेसीडोनिया का एंटिगोनाटास (ई.पू. 276-239) माना जाता है। मग से तात्पर्य सीरियाई नरेश मगस (ई.पू. 272-255) से है। अलिक सुंदर की पहचान निश्चित नहीं है। कुछ इतिहासकार इसे एपिरस का अलेक्जेंडर (ई.पू. 272-255) तथा कुछ कोरिन्थ का अलेक्जेंडर (ई.पू. 252-244) मानते हैं।
संभवतः विदेशों में असोक को उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी साम्राज्य के भीतर। फिर भी विदेशों से संपर्क के जो द्वार सिकंदर के आक्रमण के पश्चात् खुले थे, वे अब और अधिक चौड़े हो गये। सातवाँ स्तंभ अभिलेख, जो असोक के काल की आखिरी घोषणा मानी जाती है, ताम्रपर्णी, श्रीलंका के अतिरिक्त और किसी विदेशी शक्ति का उल्लेख नहीं करता।
भारत में सांप्रदायिकता का विकास
ह्वेनसांग ने चोल-पांड्य राज्यों में, जिन्हें स्वयं असोक के दूसरे व तेरहवें शिलालेख में सीमावर्ती प्रदेश बताया गया है, भी असोक द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का वर्णन किया है। परिवर्तीकालीन साहित्य में, विशेष रूप से दक्षिण में असोकराज की परंपरा काफी प्रचलित प्रतीत होती है। यह संभव है कि कलिंग में असोक की सैनिक विजय और फिर उसके पश्चात् उसकी सौहार्दपूर्ण नीति ने भोज, पत्तनिक, आंध्रों, राष्ट्रिकों, सत्तियपुत्रों एवं केरलपुत्रों जैसी शक्तियों के बीच मौर्य प्रभाव के प्रसार को बढ़ाया होगा।
अपनी वैदेशिक नीति में असोक को सर्वाधिक सफलता ताम्रपर्णी (श्रीलंका) में मिली। वहाँ का राजा तिस्स तो असोक से इतना प्रभावित था कि उसने भी ‘देवानांप्रिय’ की उपाधि ही धारण कर ली। अपने दूसरे राज्याभिषेक में उसने असोक को विशेष निमंत्रण भेजा, जिसके फलस्वरूप असोक का पुत्र महेंद्र बोधिवृक्ष की पौध लेकर गया था। यह श्रीलंका में बौद्ध धर्म का पदार्पण था।
श्रीलंका के प्राचीनतम् अभिलेख तिस्स के उत्तराधिकारी उत्तिय के काल के हैं, जो अपनी प्राकृत भाषा एवं शैली की दृष्टि से स्पष्टतः असोक के अभिलेखों से प्रभावित हैं। असोक और श्रीलंका के संबंध पारस्परिक सद्भाव, आदर-सम्मान एवं समानता पर आधारित थे, न कि साम्राज्यिक शक्ति एवं आश्रित शक्ति के पारस्परिक संबंधों पर।
इन विदेशी शक्तियों के अतिरिक्त कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं, जिनके संबंध में कुछ परंपराएँ एवं किंवदंतियाँ मिलती हैं। उदाहरणार्थ, कश्मीर संभवतः अन्य सीमावर्ती प्रदेशों की तरह ही असोक के साम्राज्य से जुड़ा था। मध्य एशिया में स्थित खोतान के राज्य के बारे में एक तिब्बती परंपरा है कि बुद्ध की मृत्यु के 250 वर्ष के बाद अर्थात् ई.पू. 236 में असोक खोतान गया था, किंतु असोकके अभिलेखों में इसका कोई उल्लेख नहीं है।
असोक के कर्मठ जीवन का अंत कब, कैसे और कहाँ हुआ, इस संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। चालीस वर्ष शासन करने के बाद लगभग ई.पू. 232 में असोक की मृत्यु हुई। तिब्बती परंपरा के अनुसार उसका देहावसान तक्षशिला में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार असोक का अंतिम कार्य भिक्षुसंघ में फूट डालने की निंदा करना था।
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