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भारत में मजदूर आंदोलन
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब आधुनिक उद्योग धीरे-धीरे शुरू हो रहा था और रेलवे, पोस्ट आफिस, कोयला खनन, चाय बागान और टेलीग्राफ जैसी सेवाओं का विकास हो रहा था, उस समय आधुनिक मजदूर वर्ग का उदय हुआ। किंतु इस वर्ग की वृद्धि पर्याप्त धीमी थी। जैसे-जैसे बागानों, आधुनिक कल-कारखानों, खनिज उद्योगों, आवागमन के साधनों आदि में वृद्धि हुई, वैसे-वैसे इस वर्ग की संख्या में भी वृद्धि हुई।
भारत में पहली कपड़ा मिल 1853 में कावसजी नानाभाई ने बंबई में शुरू की, और पहली जूट मिल 1855 में रिशरा बंगाल में स्थापित की गई। 1879 में भारत में 56 सूती कपड़ा मिलें थीं, जिनमें लगभग 43,000 लोग काम करते थे। 1882 में 20 जूट मिलें थीं जो अधिकतर बंगाल में थीं और उनमें लगभग 20,000 लोग काम करते थे। 1905 तक भारत में 206 सूती मिलें हो गई थीं जिनमें करीब 1,96,000 मजदूर काम करते थे।
पटसन उद्योग में 1979-80 में 27,494 मजदूर काम करते थे, जिनकी संख्या 1906 में 1,54,962 हो गई। कोयला खान उद्योग में 1906 में करीब 1,00000 लोगों को रोजगार मिला हुआ था। इसी प्रकार चाय उद्योग में भी बहुत से मजदूर काम करने लगे थे। जनगणना के आँकड़ों के अनुसार 1911 में 30.3 करोड़ की जनसंख्या में संगठित उद्योग के मजदूरों की संख्या 21 लाख थीरू 1911 और 1921 के बीच इसमें लगभग 5.75 लाख मजदूरों की वृद्धि हुई।
भारतीय मजदूर वर्ग
भारतीय मजदूर वर्ग मुख्यतः उन किसानों और हस्त-शिल्पकारों से निर्मित हुआ जो शोषणकारी औपनिवेशिक नीतियों से दरिद्र हो गये थे और अब मजदूरी कमाने लगे थे। यूरोप के विपरीत भारत में मजदूरों के भर्ती की कोई व्यवस्था नहीं थी।
असम के चाय बागानों के लिए कुलियों की भर्ती हो या फिजी, मारिशस, नटाल और वेस्टइंडीज भेजे जानेवाले प्रवासी भारतीय मजदूर हों, इनकी भर्ती अनुबंधपत्र की पद्धति द्वारा की जाती थी जो मजदूरी से अधिक दासता के निकट थी। खदानों, रेलवे और कारखानों में भर्ती सिद्धांततः तो निःशुल्क थी, किंतु यह भर्ती ठेकेदारों के माध्यम से होती थी जिनकी बट्टे की माँग का बोझ भी मजदूरों पर ही पड़ता था।
पूर्वी भारत के बागानों एव खदानों के लिए मजदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और मद्रास प्रेसीडेंसी से आते थे। इस प्रकार कलकत्ता के आद्योगिक क्षेत्र का मजदूर वर्ग मुख्यतः गैर-बंगाली था। इसके विपरीत अहमदाबाद और बंबई के कारखाने मजदूरों की भर्ती आसपास के क्षेत्रों से ही करते थे- अहमदाबाद के मजदूर गुजरात से एवं बंबई के मजदूर महाराष्ट्र के पृष्ठ क्षेत्र (विशेषकर कोंकण के रत्नागिरी जिले) से आते थे।
मजदूरों की आरंभिक कठिनाइयाँ
इंग्लैंड तथा शेष संसार में औद्योगीकरण के प्रारंभिक चरण में मजदूर वर्ग को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, भारतीय मजदूर वर्ग भी उसी प्रकार के शोषण और कठिनाइयों के शिकार था। कारखानों में स्त्रियों एवं बालकों के काम करने पर जो नाममात्र की रोक 1881 एवं 1891 के (मुख्यतः बंबई के कपड़ा उद्योग के प्रतिद्वंद्वी लंकाशायर को लाभ पहुंचाने के लिए बनाये गये) फैक्टरी अधिनियमों के अंतर्गत लगाई गई थी, उनका भी पालन कदाचित् ही होता था। 15, 16 यहाँ तक कि 18 घंटे प्रतिदिन काम लेना आम बात थी।
मजदूरों के जीवन-यापन और कार्य के हालात इतने निम्न स्तर के थे कि सरकारी और गैर-सरकारी दोनों प्रकार के लेखकों ने इसकी चर्चा की है। जाँच-पड़ताल से पता चलता है कि भारत के अधिकांश मजदूर एक शिलिंग प्रतिदिन से अधिक नहीं कमाते थे। 1938 में जेनेवा में हुए इंटरनेशनल लेबर कान्फ्रेंस में भारतीय मजदूरों के प्रतिनिधि एस.पी. परुलेकर ने अपने भाषण में कहा था कि ‘‘भारत में अधिकांश मजदूरों को जो मजदूरी मिलती है, वह इसके लिए भी काफी नहीं कि उन्हें जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ उपलब्ध करा सके।….बीमारी, बेरोजगार, बुढ़ापा और मृत्यु के विरुद्ध भारत के मजदूरों को कोई सुरक्षा नहीं प्राप्त है।’’
वास्तव में जितनी कम मजदूरी उन्हें मिलती थी, उससे वे अपने और अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ थे। इसलिए उनमें से अधिकांश ऋणग्रस्त थे। ह्विटले कमीशन ने भी अपने निष्कर्ष में कहा था कि ‘‘अधिकांश औद्योगिक केंद्रों में दो तिहाई परिवार और व्यक्ति कर्ज में हैं।’’
खान मजदूरों के जीवन और श्रम की हालतें खासतौर पर बुरी थीं। बागानों में अधिकांश यूरोपीय लोगों की मिल्कियत थीं और वहाँ के मजदूरों को शायद सबसे कम मजदूरी मिलती थी। आसाम घाटी के चाय बागानों में बसे मर्द मजदूरों की औसत माहवारी आमदनी कुल सात रुपया तीन आने थी, औरतों और बच्चों की क्रमशः पाँच रुपये चौदह आने और चार रुपया चार आना थी।
मजदूरों की बेहतरी के आरंभिक प्रयास
मजदूरों के जीवन और श्रम की बुरी शर्तों के कारण उनकी हालत सुधारने के लिए कुछ आरंभिक प्रयास भी किये गये थे। ब्रह्मसमाजी समाज-सुधारक शशिपद बनर्जी ने कलकत्ता के बड़ानगर नामक उपनगर में बंगाली पटसन मजदूरों के लिए 1870 में एक मजदूर क्लब स्थापित किया और मजदूरों को शिक्षित करने के लिए 1874 में ‘भारत श्रमजीवी’ नामक मासिक पत्रिका निकाली। उनका उद्देश्य श्रमिकों में मितव्ययिता, संयम एवं स्वयं-सहायता के विक्टोरियायुगीन नैतिक गुणों को विकसित करना था।
1878 में सोराबजी शपूर्जी बंगाली ने मजदूरों को कार्य की बेहतर दशाएँ उपलब्ध कराने के लिए बंबई की विधान परिषद् में एक विधेयक रखने का प्रयास किया। 1880 के दशक में द्वारकानाथ गांगुली जैसे बंगाली बुद्धिजीवी नेताओं ने चाय बागानों के दास-श्रमिकों जैसी दशाओं के विरुद्ध आंदोलन चलाया। कलकत्ता के औद्योगिक क्षेत्र में सर्वप्रथम एक श्रम संगठन ‘मुहम्मडन एसोसिएशन आफ कांकीनारा’ का उल्लेख मिलता है, जिसकी स्थापना 1895 में हुई थी। यह संस्था मस्जिदों का जीर्णोद्धार करने तथा अपने सदस्यों को खैरात और बीमारी में सहायता करने के लिए धनराशि जुटाती थी।
बंबई में 1880 में नारायण मेघाजी लोखंडे, जो फुले के सहयोगी थे, ने ‘दीनबंधु’ नामक एक अंग्रेजी-मराठी साप्ताहिक पत्रिका आरंभ की। उन्होंने 1884 में श्रम के घंटों में कमी की माँग के लिए मजदूरों की सभाओं का आयोजन किया और 1890 में ‘बाम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन’ का संगठन किया। फिर भी, यह कोई ट्रेड यूनियन नहीं थी। केवल एक कार्यालय बनाकर लोखंडे उसमें बैठने लगे थे, और अपने पास आनेवाले मजदूरों को निःशुल्क सलाह दिया करते थे।
दरअसल इन आरंभिक प्रयासों का मूलरूप समाज सेवा का था और ये संगठित मजदूर वर्ग के आंदोलनों की शुरूआत का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। इसके अलावा, तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से इन समाजसेवी लोगों का कोई ताल्लुक नहीं था।
मजदूर वर्ग में राष्ट्रीय एवं वर्गीय चेतना का विकास
भारतीय मजदूर वर्ग में राष्ट्रीय और वर्गीय चेतना प्रबुद्ध वर्ग, शिक्षित मध्यम वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बाद आई। इसका कारण था कि मजदूर वर्ग सांस्कृतिक तौर पर पिछड़ा हुआ वर्ग था, लगभग निरक्षर। अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन, जाति और समुदायगत विभेद, धार्मिक अंधविश्वास और जीवन के प्रति भाग्यवादी दृष्टिकोण के कारण ये प्रवासी मजदूर शहरी औद्योगिक बस्तियों में धार्मिक समूहों और जातियों के रूप में विभाजित रहते थे।
कार्यस्थलों पर भी किसी उद्योग के विभिन्न विभाग पूरी तरह विशेष धार्मिक समुदायों या सामाजिक समूहों द्वारा संचालित होते थे। अक्सर अच्छी नौकरियाँ ऊँची जातियों के लोग पाते थे, जबकि निचली जातियों और अछूतों के हिस्से में कम वेतनवाली और जोखिमभरी नौकरियाँ आती थीं। फलतः अपरिपक्व मजदूरों के प्रतिरोध वर्ग की स्पष्ट पहचान के स्थान पर प्रायः एक प्रकार की सामुदायिक चेतना का रूप धारण कर लेते थे।
फिर भी, कभी-कभी मजदूर अपने ही ढंग से पूँजीपतियों और औपनिवेशिक सत्ता के दमनपूर्ण व्यवहार, काम की अमानवीय परिस्थितियों, कम वेतन और महँगाई भत्ते में बढ़ोत्तरी को लेकर संघर्ष करने का प्रयास करते रहते थे। मजदूर संघर्ष के इतिहास में 1877 की एक हड़ताल का जिक्र है जो मजदूरी की दर को लेकर नागपुर के एंप्रेस मिल्स में हुई थी। 1882 और 1890 के बीच बंबई और मद्रास में 25 महत्त्वपूर्ण हड़तालें दर्ज की गई थीं। 1892-93 और 1901 के बीच बंबई में अनेक बड़ी हड़तालों का उल्लेख मिलता है।
1890 के दशक के दौरान कलकता के जूट मिलों में भी कार्यस्थल-संबंधी नये अनुशासन, बकरीद जैसे त्यौहारों पर छुट्टी देने से इनकार और ऐसे प्रतिबंधों को लागू कराने के लिए राज्य के सक्रिय हस्तक्षेप के कारण अनेक हड़तालें हुई थीं। इसके अलावा बंबई, कलकत्ता, अहमदबाद, सूरत, मद्रास, वर्धा आदि स्थानों पर सूती मिलों, चाय बागानों तथा रेलवे में भी हड़तालें हुईं।
मजदूर कभी-कभी वर्गीय एकजुटता को बढ़ावा देने के लिए अपने अनौपचारिक संबंधों का तथा मस्जिद या गुरुद्वारा जैसी धार्मिक संस्थाओं का उपयोग करते थे और कभी-कभी टकराव के कारण गिरते मनोबल को दोबारा बढ़ाने के लिए धार्मिक मुहावरों और नारों का सहारा लेते थे।
यद्यपि मजदूरों की प्रवृत्ति अपने क्षेत्र, जाति, रक्त-संबंध अथवा धर्म के संकीर्ण संबंधों का सहारा लेने की होती थी, किंतु हर जगह धर्म या संप्रदाय ही महत्त्वपूर्ण नहीं होता था, बल्कि उसके पीछे कुछ अन्य कारण होते थे, जैसे- कानपुर में 1900 में जो उथल-पुथल हुई, वह 1898 के बंबई या कलकत्ता के उथल-पुथल की तरह प्लेग-संबंधी कानूनों को लागू करने के कारण हुई थी, जिनसे निजता के धार्मिक आचार-विचार प्रभावित होते थे। 1913 के मछली बाजार के दंगे में खास शिकायत एक हस्तक्षेपकारी राजसत्ता के विरुद्ध रही।
आरंभिक राष्ट्रवादी और मजदूर वर्ग
भारत में मजदूर वर्ग को आरंभ से ही दो परस्पर विरोधी तत्वों- औपनिवेशिक शासन और विदेशी एवं भारतीय पूँजीपतियों के शोषण का सामना करना पड़ा। आरंभिक राष्ट्रवादी, विशेषकर उदारपंथी बुद्धिजीवी मजदूरों की माँगों के प्रति उदासीन थे और ब्रिटिश उद्योगों तथा भारतीय उद्योगों में कार्यरत मजदूरों को अलग-अलग मानते थे। इसके कई कारण थे।
एक तो, अभी साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन शैशवावस्था में था और राष्ट्रवादी नेता किसी भी हालत में नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चलाया जानेवाला आंदोलन कमजोर हो या भारतीय जनता भीतर से किसी भी तरह विभाजित हो।
दादाभाई नौरोजी ने कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन (1886) में ही यह बात स्पष्ट कर दी थी कि ‘‘कांग्रेस को उन सवालों तक ही सीमित रखना चाहिए जिनमें पूरे राष्ट्र की भागीदारी हो तथा सामाजिक सुधारों विभिन्न वर्गों के पारस्परिक समायोजन का कार्य कांग्रेस की उपसमितियों के हवाले कर देना चाहिए।’’
दूसरे, राष्ट्रवादी नेता तीव्र उद्योगीकरण को देश की गरीबी और अधोगति को दूर करने की एकमात्र औषधि मानते थे और इसलिए वे ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे जिससे उद्योगीकरण की प्रक्रिया में कोई व्यवधान आये। लंकाशायर कैपिटल्स को भारतीय उत्पादकों की कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था और भारत में उनके उत्पादनों का बाजार सिकुड़ता जा रहा था।
राष्ट्रवादी इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे कि सरकार ने ब्रिटिश उत्पादकों (लंकाशायर कैप्टिलस) के हितों की रक्षा के लिए ही 1881 तथा 1891 के कारखाना कानून द्वारा काम के घंटों और अन्य सेवा-शर्तों को तय किया है क्योंकि इन कानूनों से भारत में मजदूरों के काम के घंटे तय कर दिये जाते और इस तरह भारतीय उत्पादकों की बाजार में पहले से बढ़ी हुई प्रतिस्पर्धा की ताकत कम हो जाती।
लेकिन उस समय भी एक अखबार ‘मरहठा’, जो जी.एस. अगरकर के प्रभाव में था, ने मजदूरों की माँगों का समर्थन किया और मिल-मालिकों से मजदूरों को रियायतें देने के लिए कहा था, किंतु राष्ट्रीय आंदोलन में यह प्रवृत्ति अत्यंत क्षीण थी।
ब्रिटिश उद्योगों में काम करनेवाले मजदूरों को समर्थन देने में आरंभिक राष्ट्रवादियों ने कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। राष्ट्रवादी अखबारों ने असम में चाय-बागानों के मजदूरों के पक्ष में यूरोपीय बागान-मालिकों के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाया।
मजदूर वर्ग की पहली बड़ी हड़ताल 1899 में ब्रिटिश स्वामित्व और प्रबंध से चलनेवाली ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर (जी.आई.पी.) रेलवे में हुई। तिलक के ‘मरहठा’ एवं ‘केसरी’ जैसे अखबारों ने इस हड़ताल का खुलकर समर्थन किया। बंबई तथा बंगाल में फिरोजशाह मेहता, डी.ई. वाचा और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसे अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने बंबई और बंगाल में मजदूरों के समर्थन में जनसभाएँ की और चंदा इकट्ठा किये।
बीसवीं सदी के आरंभ में मजदूर आंदोलन
बीसवीं सदी के आरंभ में 1903-08 में ‘एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ बंगाल अंडर एंड्रयू फ्रेजर’ शीर्षक से एक सर्वेक्षण हुआ था, जिसमें ‘औद्योगिक असंतोष’ को उन पाँच वर्षों की अवधि का ‘महत्त्वपूर्ण लक्षण’ बताया गया और ‘पेशेवर आंदोलनकारियों’ की भूमिका को एक नितांत नवीन संवृत्ति कहा गया था।
श्वेतों के स्वामित्ववाले उद्यमों में कीमतों की वृद्धि के साथ ही प्रायः नस्ली अपमानों के कारण होनेवाली हड़तालों को राष्ट्रवादियों की ओर से समाचारपत्रों में पर्याप्त सहानुभूति मिलने लगी थी। विपिन पाल एवं जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर जैसे राष्ट्रवादी बुद्धिजीवी शक्तिशाली पूँजीपतियों से भारतीय मजदूरों के हितों की रक्षा करने के लिए नियम-कानून बनाये जाने की माँग करने लगे थे। कई नेताओं ने स्थायी ट्रेड यूनियनों, हड़तालों, कानूनी मदद, कोष एकत्र करने जैसे अभियानों में उत्साहपूर्वक अपने को झोंक दिया।
अग्रणी श्रमिक नेताओं के रूप में चार बड़े नेताओं- अश्विनीकुमार बनर्जी, प्रभातकुसुम राय चौधरी, एथेनेसियस अपूर्वकुमार घोष और चौथे प्रेमतोष बोस के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। सितंबर 1905 में हावड़ा में बर्न कंपनी के 247 बंगाली बाबुओं ने कार्य-संबंधी एक नये अधिनियम के विरोध में, जिसे वे अपमानजनक समझते थे, बर्हिगमन किया तो समस्त स्वदेशी-समर्थक जनता ने उनका स्वागत किया। अगले ही महीने कलकत्ता के ट्रामों की हड़ताल हुई जिसका समाधान घोष और बनर्जी के प्रयासों से हुआ।
16 अक्टूबर 1905 को जिस दिन बंगाल का विभाजन हुआ, उस दिन बंगाल के मजदूर वर्ग ने आंदोलन के समर्थन में हड़ताल की। कुछ जूट मिलों में काम करनेवाले मजदूर, प्रेसों, फैक्टरियों के कामगार तथा रेलों में काम करनेवाले कुलियों ने काम नहीं किया। सरकारी छापाखानों में एक उग्र हड़ताल के बीच 21 अक्टूबर 1905 को ‘प्रिंटर्स यूनियन’ नामक मजदूर संघ की स्थापना हुई। अक्टूबर 1905 में फीनिक्स मिल में होनेवाली हड़ताल को कुचलने के लिए स्वयं पुलिस आयुक्त को आना पड़ा था।
जुलाई 1906 में ईस्ट इंडियन रेलवे के बाबुओं की हड़ताल के फलस्वरूप ‘रेलवेमेंस यूनियन’ की स्थापना हुई। ए.सी. बनर्जी 1906 में ही बजबज में ‘इंडियन मिल हैंड्स’ यूनियन बनाने का प्रयास कर रहे थे। 1905 और 1908 के बीच पटसन कारखानों में प्रायः हड़तालें होती रहीं, जिनसे विभिन्न समयों में 37 में से 18 कारखानें प्रभावित हुए।
तमिलनाडु के तूतीकोरिन में फरवरी-मार्च 1908 में विदेशी स्वामित्व वाली एक सूती मिल में सुब्रह्मण्यम शिव ने हड़ताल का अभियान चलाया। पंजाब में रावलपिंडी में हथियार-गोदाम तथा रेलवे के इंजीनियरिंग विभाग के मजदूरों ने हड़ताल की।
संभवतः स्वदेशी आंदोलन के इस चरण की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इस चरण में मजदूर वर्ग आर्थिक माँगों को लेकर असंगठित और स्वतःसफूर्त हड़ताल करने की स्थिति से ऊपर उठकर आर्थिक मु्दों पर राष्ट्रवादी नेताओं के समर्थन से संगठित हड़ताल की अवस्था में पहुँच गया था और व्यापक राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होने लगा था।
जब 22 जुलाई 1908 को तिलक को सजा हुई तब मूलाजी जेठा बाजार में कपड़े की दुकानों पर काम करनेवालों ने छः दिनों की हड़ताल (तिलक की कैद के प्रत्येक वर्ष के लिए एक दिन की हड़ताल) का आह्वान किया। 28 जुलाई तक भारी हड़ताल रही जिसने अपने चरम दिनों में 85 में से 76 कपड़ा मिलों के साथ ही परेल की रेलवे वर्कशाप को भी प्रभावित किया। पुलिस और सेना ने बार-बार गोलियाँ चलाई, जिसमें सरकारी रिपोर्टों के अनुसार 16 लोग मारे गये और 43 घायल हुए।
लेनिन ने श्रमिकों की बढ़ती हुई राजनैतिक चेतना के प्रतीक के रूप में इसका अभिनंदन किया था। 1908 की गर्मियों के बाद श्रमिक आंदोलन में राष्ट्रवादियों की रुचि अचानक कम हो गई और फिर पूर्णतः समाप्त हो गई और यह रुचि 1919-22 के पहले फिर से उत्पन्न नहीं हुई।
संगठित श्रमिक संघों का विकास
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत में श्रमिक संघों और संगठित मजदूर संघर्षों का विकास हुआ। इस काल के मजदूरों के जुझारूपन के संबंध में ह्वीटले कमीशन की रिपोर्ट से पता चलता है कि 1918-19 की सर्दियों के पहले भारतीय उद्योग में शायद ही कभी हड़ताल हुई…….संगठन और नेतृत्व के अभाव में और जीवन के प्रति निष्क्रिय दृष्टिकोण के कारण औद्योगिक श्रमिकों में अधिकांश का विचार था कि वापस गाँव चले जाना औद्योगिक जीवन की कठिनाइयों का एकमात्र विकल्प है। युद्ध के बाद उस स्थिति में शीघ्र परिवर्तन हुए। 1918-19 के जाड़े में कुछ महत्त्वपूर्ण हड़तालें हुईं, दूसरे साल के जाड़े में हड़तालों की संख्या और बढ़ी और 1920-21 के जाड़े में संगठित उद्योग में औद्योगिक हड़तालें आम हो गईं।
इस श्रमिक-असंतोष के अनेक कारण थे। विश्वयुद्ध के दौरान बड़ी संख्या में उद्योगों का विकास हुआ, जिसके साथ ही मजदूर वर्ग की संख्या में भारी वृद्धि हुई। संगठित उद्योगों एवं बागानों में जहाँ 1911 में कामगारों की संख्या 21,05,824 थी, वहीं 1921 में बढ़कर 26,81,125 हो गई थी। यह युद्ध के तुरंत बाद का समय था जब कीमतों में भारी वृद्धि हो गई थी और मजदूरी की दरें ज्यों की त्यों कम बनी हुई थीं, जबकि मालिक अंधाधुंध मुनाफे कमा रहे थे।
इसके अलावा, कम उपज, 1918-19 के वर्षों में देश के अधिकांश भागों में अभाव की स्थिति, इलफ्लुएंजा की महामारी और कारीगरों की बेरोजगारी से भी मजदूर रुष्ट और क्षुब्ध थे। किंतु युद्ध के बाद इस मजदूर असंतोष के केवल आर्थिक कारण ही नहीं थे। सर्वाधिक दूरगामी प्रभाव पड़ा था आस्ट्रिया, टर्की और अन्य देशों की जनतांत्रिक क्रांतियों और 1917 की बोल्शेविक क्रांति का, जिसने भारतीय मजदूरों में एक नवीन चेतना का संचार किया था।
भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन
वस्तुतः युद्ध एवं युद्ध के तुरंत बाद के समय में ही भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन का आरंभ हुआ। इसके पूर्व भी मजदूरों के हितों के लिए कुछ संगठनों की स्थापना के प्रयास किये गये थे। ‘अमलगमेटिड सोसाइटी आफ रेलवे सर्वेंट्स’ की स्थापना 1893 में हुई थी, लेकिन रेलवे के उच्च अफसर और प्रायः एंग्लो-इंडियन ही इसके सदस्य होते थे। बीसवीं सदी के पहले दशक में कलकत्ता में ‘प्रिंटर्स यूनियन’ (1905), ‘रेलवे मेंस यूनियन’ (1906), बंबई में ‘पोस्टल यूनियन’ (1907) और एस.के. बोले की ‘कामगार हितवर्धक सभा’ (1909) जैसे मजदूर संघों की स्थापना की गई थी। किंतु इनकी संख्या कम थी, और इनका सैद्धांतिक या कार्यक्रम-संबंधी कोई आधार नहीं था। इसलिए ये संगठित मजदूर संघों के आंदोलनों का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।
‘मद्रास लेबर यूनियन’ पहला मजदूर संगठन था जिसकी एक बाकायदा सदस्य-सूची थी और जिसमें सदस्यता शुल्क लिया जाता था। इसकी स्थापना अप्रैल 1918 में हुई थी। इसके संस्थापक थे- जी. रामानजुल नायडु और चेल्वेपति चेट्टी, जो एनी बेसेंट के ‘न्यू इंडिया’ से संबद्ध थे और इसके अध्यक्ष बेसेंट के सहयोगी बी.पी. वाडिया थे। अहमदाबाद में गांधीजी ने ‘अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन’ (1918) का गठन किया, जो संभवतः उस समय की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन थी। 1920 में ट्रेड यूनियनों की बाढ़-सी आ गई और नवंबर 1920 तक यूनियनों की दर्ज संख्या 125 के आसपास पहुँच चुकी थी।
आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस
किंतु भारतीय मजदूर संघ के इतिहास में बंबई में ‘आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (ए.आई.टी.यू.सी., एटक) की स्थापना एक युगांतकारी घटना है। इसकी स्थापना अक्टूबर 1920 में एन.एम. जोशी, लाला लाजपतराय, जोसेफ बप्तिस्ता और दीवान चमनलाल के प्रयास से हुई जिससे मजदूर संघ आंदोलन को पहली बार एक अखिल भारतीय आधार मिला। इसका उद्देश्य था : ‘‘देश के सारे प्रांतों में मजदूरों के सारे संगठनों के कार्यों को समन्वित करना और आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मसलों पर भारतीय मजदूर के हितों को प्रश्रय देना।’’ नवंबर 1920 में एटक के पहले अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में लाला लाजपतराय ने ‘हर हालत में अपने मजदूरों को संगठित’ करने और उन्हें ‘वर्गचेतन’ बनाने पर जोर दिया।
लाजपतराय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूँजीवाद को साम्राज्यवाद से जोड़कर देखा और साम्राज्यवाद एवं सैन्यवाद को पूँजीवाद की ‘जुड़वाँ संतानें’ बताया। इसी तरह एटक के दूसरे सम्मेलन में स्वराज के पक्ष मे एक प्रस्ताव पेश करते हुए दीवान चमनलाल ने संकेत किया था कि यह स्वराज्य पूँजीपतियों के लिए नहीं, मजदूरों के लिए होगा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गया अधिवेशन (1922) में सर्वसम्मति से एटक की स्थापना का स्वागत किया गया और कांग्रेस से मजदूरों को संबद्ध करने के लिए एक समिति बनाई गई ताकि मजदूरों और किसानों को स्वराज्य के आदर्श से जोड़ा जा सके।
लाला लाजपतराय के अलावा उस समय के कुछ बड़े राष्ट्रवादी नेता भी एटक से जुड़े हुए थे, जैसे- चितरंजन दास, सी.एफ. एंड्रयूज, जे.एम. सेनगुप्त, सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू और सत्यमूर्ति, किंतु गांधीजी और उनकी ‘अहमदाबाद मजदूर महाजन सभा’ ने इससे कभी नाता नहीं जोड़ा। यही कारण है कि 1920 के दशक में एटक से संबद्ध ट्रेड यूनियनों की संख्या बढ़ी, लेकिन उसका राष्ट्रीय नेतृत्व ‘अधिकतर काल्पनिक’ ही रहा, सिवाय 1929 के जब उसके साम्यवादी अधिग्रहण का खतरा पैदा हुआ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मजदूर आंदोलन
विश्वयुद्ध के बाद बदली हुई परिस्थिति के प्रति मजदूर वर्ग ने अत्यंत शानदार तरीके से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। यद्यपि हड़तालों का दौर 1919 के अंत में आरंभ हुआ, किंतु मार्च 1918 में गांधीजी के नेतृत्व मे अहमदाबाद की हड़ताल एवं जनवरी 1919 की बंबई की कपड़ा मिलों की बड़ी हड़ताल को हड़तालों का अग्रदूत माना जा सकता है। सी.एन. वाडिया की सेंचुरी मिल के कामगारों ने मजदूरी में 25 प्रतिशत वृद्धि और बोनस के रूप में एक माह के वेतन की माँग को लेकर 31 दिसंबर 1918 को हड़ताल कर दी।
शीघ्र ही कपड़ा मिलों का समूचा कामगार वर्ग अर्थात् 1,00,000 से अधिक लोग सड़कों पर निकल आये और सभी 83 मिलें बंद हो गईं। यह हड़ताल व्यापारिक कार्यालयों के बाबुओं, रायल इंडियन मेरीन के गोदी-मजदूरों एवं परेल के रेलवे इंजीनियरिंग कामगारों तक फैल गई। इसके बाद बंबई, कानपुर, कलकत्ता, शोलापुर, जमशेदपुर, मद्रास और अहमदाबाद जैसे विभिन्न औद्योगिक केंद्रों में लगातार कई हड़तालें हुईं।
पंजाब में दमन और गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद 1919 में अहमदाबाद में 51 सरकारी भवनों में आग लगा दी गई, रेलों को पटरी से उतारा गया तथा टेलीफोन के तार काट दिये गये। उपद्रवकारियों में मुख्यतः कपड़ा मिलों के कामगार सम्मिलित थे। मार्शल ला के अंतर्गत की गई कार्रवाई मे सरकारी अनुमान के अनुसार 28 लोग मारे गये और 123 घायल हुए। मजदूरों के आंदोलन के कारण कलकत्ता और बंबई भी हिल गये। 1919 और 1920 में पश्चिमोत्तर रेलवे की हड़तालें भी कांग्रेस के आंदोलन से प्रेरित थीं। इससे पता चलता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में मजदूर वर्ग का भी प्रवेश हो चुका था।
हड़तालों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़कर मजदूरों ने अपने उन संघर्षों को वैधता दिलाने का प्रयास किया, जिनमें पार्टी के रूप में कांग्रेस की रुचि कम हो गई थी। इन हड़तालों के आयोजन के लिए कांग्रेसी नेता शायद ही कभी जिम्मेदार रहे होंगे। बंगाल में 1918 और 1921 के बीच हुई हड़तालों में से केवल 19.6 प्रतिशत हड़तालों में ही कोई ‘बाहरी’ तत्त्व शामिल था, बाकी हड़तालें मजदूरों की अपनी पहल पर हुईं।
1920 के उत्तरार्ध में केवल बंगाल में ही 110 हड़तालें हुईं। प्रायः ट्रेड यूनियनें हड़तालों से पहले बनने के स्थान पर हड़तालों के बाद संगठति होती थीं और इनका स्वरूप अल्पकालीन हड़ताल समितियों का होता था। फिर भी, उनकी संख्या श्रमिक संगठनों के इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात करने वाली थी- बंगाल सरकार की एक गुप्त रिपोर्ट में कहा गया था कि 1920 में अपेक्षाकृत स्थायी ‘लेबर यूनियनों और एसोसिएशनों’ की संख्या 40 थी, 1921 में 55, और 1922 में 75, जबकि 1926 में बंबई में सक्रिय 53 यूनियनों में सात ही ऐसी थीं जिनका गठन 1920 के पूर्व हुआ था, लेकिन 1920 और 1923 के बीच कम से कम 29 यूनियनों का गठन हुआ था।
मजदूरों की हड़तालें
1921 के दौरान लगता है कि मजदूर सचमुच उपद्रव पर उतारू हो गये थे। इस अवधि में 376 हड़तालें हुईं जिनमें 6,00,351 कामगार सम्मिलित हुए और 69,94,426 कार्य-दिवसों की हानि हुई। 1921 में बंगाल के पटसन कारखानों में 137 हड़तालें हुईं जिनमें 1,86,479 कामगार सम्मिलित हुए। असम के चाय बागानों, असम-बंगाल रेलवे की हड़तालों, और मई 1921 में चाँदपुर के स्टीमर कर्मचारियों की हड़ताल का भी इस आंदोलन से सीधा संबंध था। मई 1921 में चारगोला के कुलियों ने ‘गांधी महाराज की जय’ के नारे लगाते हुए पारिश्रमिक में भारी वृद्धि की माँग की। इसके बाद लगभग 8,000 मजदूरों (कुल मजदूरों के 52 प्रतिशत) ने यह कहते हुए बंगाल छोड़ दिया कि यह गांधीजी की आज्ञा है। दिसंबर 1921 में एटक के झरिया अधिवेशन में बड़ी संख्या में मजदूरों ने भाग लिया।
अहमदाबाद में असहयोग आंदोलन के बादवाले दिनों में कपड़ा मिलों में हर माह कम से कम एक हड़ताल हुई और कुछ हड़तालें तो काफी अतिवादी माँगों के आधार पर की गईं। पश्चिमी भारत के कपड़ा मिलों की तरह कलकत्ता के जूट मिलों में भी इस दौर में अभूतपूर्व श्रमिक असंतोष देखा गया- 1920 में 119 तो 1921 में 137 हड़तालें हुईं।
नवंबर 1921 में प्रिंस आफ वेल्स के भारत के दौरे के समय कांग्रेस ने बहिष्कार का आह्वान किया और मजदूरों ने संपूर्ण देश में हड़ताल करके इसका उत्तर दिया। बंबई की सूती कपड़ों की फैक्ट्रियाँ बंद रहीं और लगभग 1,40,000 मजदूर सड़कों और गलियों में निकल पड़े, दंगा किये और उन पारसियों और ब्रिटिश लोगों पर आक्रमण किये जो वेल्स के राजकुमार के स्वागत के लिए गये थे। मद्रास में बिन्नी द्वारा संचालित सूती मिलों में हड़ताली मजदूरों ने असहयोगवादियों को अपना नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया।
अकसर मजदूरों की इन कार्रवाइयों को स्वतःसफूर्त कहा जाता है, क्योंकि इनमें न तो कोई केंद्रीय नेतृत्व था और न हड़तालियों में कोई समन्वय। कोई कार्यक्रम या संगठन भी नहीं था, यानी यह मजदूर वर्ग के विद्रोह जैसी कोई चीज थी। लेकिन मजूदूर वर्ग की इस ‘स्वतःस्फूर्त’ कार्रवाई ने जब कभी अनुकूल वातावरण पैदा किया, तो कांग्रेस ने उसे केवल अपने आंदोलन से जोड़ने के लिए उसमें हस्तक्षेप किया।
वास्तव में इस समय तक कांग्रेस का बड़े पूँजीपतियों से संबंध भी विकसित हो चुका था, इसलिए श्रमिक मोर्चे पर कांग्रेस वहीं मुखर हो सकती थी, जहाँ सवाल यूरोपीय पूँजीपतियों का होता था, जैसे- रेलों, जूट मिलों या चाय बागानों में। भारतीय पूँजीपति जहाँ प्रभावित होते थे, वहाँ उसने संयमकारी नीति अपनाई, जैसे ब्योमकेश चक्रवर्ती और एस.एन. हलधर जैसे कांग्रेसी नेताओं द्वारा स्थापित ‘जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन’ ने फरवरी 1920 की हड़ताल के दौरान टाटा के मजदूरों को प्रेरणा देने के बजाय नियंत्रक का ही कार्य किया।
सितंबर 1922 में होनेवाली टाटा उद्योग की हड़ताल भी लगभग पूरी तरह मजदूर वर्ग के स्वतःसफूर्त दबाव के कारण हुई थी, लेकिन यूनियन ने अपनी मान्यता के लिए इसका उपयोग किया और मजदूरों की चिंता नहीं की।
मजदूरों से अकसर राष्ट्र के भविष्य के लिए आज की जरूरतों को कुरबान करने को कहा जाता था और भारतीय उद्योगों को प्रभावित करनेवाली उनकी हड़ताल के बारे में समझाया जाता था कि इससे विदेशी आर्थिक प्रभुत्व और मजबूत हो सकता है। मजदूरों की तकलीफें तो स्वराज्य बाद दूर की जानेवाली थीं।
गांधीजी का भी कहना था कि अहिंसक असहयोग आंदोलन की योजना में हड़तालों के लिए कोई स्थान नहीं है। हम भारत में कोई राजनीतिक हड़ताल नहीं चाहते…..समस्त उच्छृंखल और गड़बड़ी फैलनेवाले तत्वों पर नियंत्रण करना चाहिए।….हमारा लक्ष्य पूँजी और पूँजीपतियों को नष्ट करना नहीं है, अपितु पूँजी और श्रम के बीच के संबंधों को नियमित करना है। हम पूँजी को अपने पक्ष में प्रयुक्त करना चाहते हैं। सहानुभूतिपूर्ण हड़तालों को बढ़ावा देना भूल होगी।
4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा कांड के कारण असहयोग आंदोलन के स्थगन से एक बार फिर मजदूर आंदोलन में शिथिलता आई और यह शुद्ध रूप से आर्थिक माँगों के लिए संघर्ष की ओर लौट गया।
1922-27 के दौरान मजदूर आंदोलन में प्रथम दृष्टि में निश्चित ही गिरावट दिखाई देती है। शाही श्रम आयोग की गणना के अनुसार 1921 में 376 हड़तालें हुई थीं, लेकिन 1924-27 के दौरान औसतन यह 130 हड़तालें प्रतिवर्ष ही रह गई थीं। एटक की सदस्य-संख्या में वृद्धि हुई और जनवरी 1925 में 83 यूनियनें इससे संबद्ध थीं, किंतु इसके सम्मेलनों में 1921 के झरिया सम्मेलन जैसा जोश और आम भागीदारी नहीं थी।
यद्यपि इन वर्षों में हड़तालें कम हुईं, किंतु वे अधिक लंबी और मिल-मालिकों के व्यवहार के कारण अधिक कटुतापूर्ण होने लगी थीं। अहमदाबाद में अप्रैल 1923 में मजदूरी में 20 प्रतिशत कटौती को लेकर होनेवाली भारी हड़ताल के दौरान 64 में से 56 मिलें बंद हो गई थीं। गांधीजी जेल में थे, वरना 1925 में उन्होंने अहमदाबाद के मजदूरों को समझाया था कि व्यापार में मंदी के समय वे अपने मालिकों को सांसत में न डालें, ‘‘स्वामिभक्त सेवक तो बिना वेतन के भी अपने स्वामियों की सेवा करते हैं।’’
1926 में पहली बार ट्रेड यूनियनों को कुछ कानूनी संरक्षण एक ऐसे अधिनियम द्वारा मिला जो अन्यथा श्रमिक हितों के अत्यंत विपरीत था। इसमें अपंजीकृत यूनियनों द्वारा चंदा एकत्रित करना अवैध था, यूनियनों की कार्यकारिणी में 50 से अधिक बाह्य तत्वों की उपस्थिति पर रोक थी, और यूनियन के पैसे को नागरिक या राजनीतिक ध्येयों के लिए व्यय करने पर प्रतिबंध था। यह संभवतः 1919 के कानून के अंतर्गत विधायिकाओं में मजदूर वर्ग को प्रतिनिधित्व दिये जाने की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ, इसलिए यह हदय-परिर्वत कम, श्रमिकों को ‘सीमित रखने के विचार’ पर अमल अधिक था।
बंबई के कपड़ा मिलों में 1928 की आम हड़ताल के बाद और पूरे 1930 के दशक के दौरान सरकार ने ट्रेड यूनियनों और मजदूर वर्ग की कर्रवाइयों के प्रति केवल शुद्ध शत्रुता का प्रदर्शन किया।
मजदूर आंदोलन में उभार
1927 में निश्चित रूप से मजदूर आंदोलन में उभार आना शुरू हुआ, जब 202 लाख कार्यदिवसों का नुकसान हुआ और कुछ ऐसे नये केंद्र उभरे जिनका नेतृत्व कहीं अधिक जुझारू होता जा रहा था।
नवंबर 1927 में एटक द्वारा साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए आयोजित प्रदर्शनों में बहुत से मजदूर अपने झंडे, अपने नारे और अपने नेतृत्व के साथ शामिल हुए थे। जहाँ बाम्बे टैक्सटाइल लेबर यूनियन, जिसका पंजीकरण 1926 में हुआ था और जो नये कानून के अंतर्गत पंजीकृत होनेवाली पहली यूनियन थी, एन.एम. जोशी जैसे उदार मानवतावादी के नेतृत्व में कार्य कर रही थी, वहीं बंबई की मिलों में 1923 से ए.ए. अल्वे और जी.आर. कास्ले जैसे दो जुझारू भूतपूर्व मजदूरों के नेतृत्व में गिरनी कामगार महामंडल के रूप में एक आधारभूत आंदोलन अपनी जड़े जमाने में लगा था।
इस समय मजदूर आंदोलन स्वयं पर लादी जानेवाली बाधाओं के खिलाफ चलने का प्रयास कर रहा था। पहले की ही भाँति 1922-23 में बकिंघम कर्नाटक मिल्स में चार हड़तालें और हुईं और 1923 में बकिंघम पर ही सिंगारवेलु द्वारा आयोजित सभा में पहला मई दिवस मनाया गया। 1925 में नार्थ वेस्ट रेलवे में अप्रैल से जून तक चलनेवाली भारी हड़ताल को लाहौर से निकाले गये एक जुलूस ने अविस्मरणीय बना दिया, जिसमें कामगार अपने ही खून से लाल किये हुए झंडे लेकर चल रहे थे। लेकिन सबसे बड़ी हड़तालें बंबई की कपड़ा-मिलों में हुईं।
जनवरी-मार्च 1924 में 1500 कामगारों ने बंद किये जा रहे बोनस के विरुद्ध हड़ताल की तो बपतिस्ता और एन.एम. जोशी ने मजदूरों को हड़ताल वापस लेने की सलाह दी, किंतु मजदूर पुलिस दमन और गोलियों के सामने भी दो माह तक डटे रहे और राष्ट्रीय आंदोलन से उन्हें कोई सहायता नहीं मिली। फिर भी, बंबई की कपड़ा मिलों के मजदूर अपनी संघर्षशीलता एवं सगठन के चलते कलकत्ता में गोरों के स्वामित्ववाली पटसन मिलों की तुलना में अपनी मजदूरी काफी अधिक बढ़वाने में सफल रहे थे।
मजदूर आंदोलन और साम्यवादी
बीसवीं सदी के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में (1925-1927) भारत में समाजवादी और साम्यवादी विचारों के प्रसार के कारण मजदूर वर्ग में बड़ी तेजी से राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ और देश के अलग-अलग भागों में विभिन्न कम्युनिस्ट दल अपने को ‘वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी’ यकामगार-किसान पार्टीद्ध के रूप में संगठित किये।
1925-26 में बंगाल में ‘लेबर स्वराज पार्टी’ का गठन हुआ, जिसका नाम शीघ्र ही बदलकर ‘किसान-मजदूर पार्टी’ कर दिया गया। शीघ्र ही अनुशीलन समिति के कुछ समूह भी इसमें शामिल हो गये।
पंजाब में जनवरी 1927 में गदर पार्टी के पुराने नेता संतोखसिंह की ‘किरती’ पत्रिका के इर्द-गिर्द सोहनसिह जोश के नेतृत्व में ‘किरती किसान पार्टी’ का गठन हुआ। बंबई में भी जनवरी 1927 में एक मजदूर किसान पार्टी की स्थापना की गई जिसके संस्थापक एस.एस. मिराजकर, के.एन. जोगलेकर और एस.वी. घाटे थे।
1929 में जूट मिलों की हड़ताल ने ‘बंगाल जूट वर्कर्स यूनियन’ को और 1937 की हड़ताल ने ‘बंगाल चटकल मजदूर यूनियन’ को जन्म दिया। कामगार-किसान पार्टी कांग्रेस के अंदर ही वामपंथी गुट के रूप मे काम करती थी और इसने जल्दी ही प्रांतीय और अखिल भारतीय स्तरों पर कांग्रेस के अंदर काफी लोकप्रियता और शक्ति हासिल कर ली।
बंगाल और बंबई में रेलवे मजदूरों, जूट मिलों, नगरपालिकाओं, कागज मिलों आदि में काम करनेवालों के बीच साम्यवादियों का प्रभाव तेजी से फैलने लगा था। फरवरी और सितंबर 1927 में खड़गपुर रेलवे वर्कशाप के कर्मचारियों की हड़ताल में कम्युनिस्ट काफी सक्रिय रहे थे। कम्युनिस्ट नेतृत्ववाली मजदूर किसान पार्टी के कार्यकत्र्ताओं ने 1928 में कलकत्ता नगर निगम के सफाई कर्मचारियों की हड़ताल में और बंगाल एवं बावरिया की जूट मिलों में होनेवाली हड़तालों में प्रमुख भूमिका निभाई थी।
1926 के बाद से बंबई की कपड़ा मिलों के कामगारों के बीच भी कम्युनिस्टों का प्रभाव तेजी से बढ़ा। कम्युनिस्टों के नेतृत्ववाली गिरनी कामगार यूनियन की सदस्य संख्या 1928 के अंत तक 324 से बढ़कर 54,000 हो गई। मद्रास की बर्मा आयल कंपनी के मजदूर भी कम्युनिस्टों के प्रभाव क्षेत्र में आये। 1928 के अंत में चिंतित सरकार ने यह रिपोर्ट देनी शुरू की कि, ‘‘मुश्किल से कोई जनसेवा या उद्योग बचा होगा जिसमें पूरी तरह अथवा आंशिक रूप से कम्युनिज्म का प्रभाव न पहुँचा हो, ऐसा कम्युनिज्म जिसने समूचे देश को प्रभावित किया था।’’
साम्यवादियों के प्रति मजदूर वर्ग का यह समर्थन सिर्फ पूँजीपति वर्ग और राजसत्ता के प्रति उनके साझा विरोध के कारण ही नहीं पैदा हुआ। इन साम्यवादी ट्रेड यूनियनों ने हड़तालों के लिए प्रायः सामुदायिक संबंधों और अनौपचारिक सामाजिक ताने-बाने का भी प्रयोग किया, जैसे कानपुर मे 1930 के दशक में ‘कानपुर मजदूर सभा’ के उदीयमान कम्युनिस्ट नेतृत्व ने कांग्रेस और आर्यसमाज द्वारा विमुख कर दिये गये मुसलमान मजदूरों पर खासतौर पर ध्यान केंद्रित किया। अहमदाबाद में भी साम्यवादी प्रभाव वाले मिल-मजदूर संघ को गांधीवादी यूनियन से असंतुष्ट हुए मुस्लिम मजदूरों का समर्थन मिला। इस तरह इन साम्यवादी यूनियनों ने हड़तालों के आयोजन के लिए अकसर धार्मिक संबंधों का उपयोग किया।
हड़तालें और तालाबंदियाँ
1928-29 में 203 हड़तालें और तालाबंदियाँ हुईं, जिससे 5,06,851 कामगार प्रभावित हुए और 3,16,47,404 कार्य-दिवसों की हानि हुई। जुलाई 1928 में साथ इंडियन रेलवे में एक छोटी किंतु उग्र हड़ताल हुई, जिसे सरकार ने जोरदार दमन द्वारा समाप्त कर दिया। दिसंबर 1928 में कलकत्ता के कामगार वर्ग ने राजनीति में अपनी भागीदारी और राजनीतिक प्रौढ़ता का शानदार प्रदर्शन किया।
1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पंडाल पर लगभग दो घंटे तक 30,000 मजदूरों का कब्जा रहा, वहाँ उन्होंने भारत की पूर्ण स्वाधीनता के और एक श्रम-कल्याण योजना के प्रस्ताव को पारित किया। किंतु सबसे प्रसिद्ध हड़ताल थी बंबई के कपड़ा मिल-मजदरों की, जो लाल बावटा गिरनी कामगार यूनियन के नेतृत्व में अप्रैल से सितंबर 1928 तक छः माह तक चली।
गिरनी कामगार यूनियन की सबसे बड़ी शक्ति थी इसकी चुनी हुई गिरनी (मिल) समितियाँ। अप्रैल 1929 में ऐसी 42 समितियाँ काम कर रही थीं। अपने सफलतम् काल में गिरनी कामगार यूनियन में 60,000 सदस्य थे, जबकि एन.एम. जोशी के नेतृत्ववाली प्रतिद्वंद्वी यूनियन में केवल 9,800 सदस्य थे, यहाँ तक कि सुस्थापित गांधीवादी अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसासिएशन में भी केवल 27,000 सदस्य थे।
मजदूर वर्ग में बढ़ती हुई उग्रता और राजनीति में उनकी सक्रियता, खासतौर से राष्ट्रवादियों और वामपंथियों के बीच बढ़ती हुई निकटता के कारण पूँजीपतियों और सरकार, दोनों की ओर से प्रत्याक्रमण होना अवश्यसंभावी था। बंबई में जानबूझकर पठानों को हड़ताल तोड़ने के काम पर लगाया गया, जिसके परिणामस्वरूप फरवरी 1929 में एक बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ।
गैर-ब्राह्मणमंत्री भास्करराव जादव ने कपड़ा-मजदूरों के बीच ब्राह्मण-विरोधी भावनाएँ भड़काने का प्रयास किया। अप्रैल 1929 में सरकार ने औद्योगिक विवाद कानून (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स ऐक्ट) जैसे दमनकारी कानून बनाकर उन सभी हड़तालों पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया, जो ‘किसी सांप्रदायिक विवाद में प्रगति के अलावा किसी अन्य उद्देश्य से अथवा सरकार को बाध्य करने और समाज को मुसीबत में डालने के इरादे से की जाती हों।’
मेरठ षड्यंत्र केस
इसके साथ ही 20 मार्च 1929 में एक झटके में ही मजदूर आंदोलन के 32 सक्रिय नेताओं को गिरफ्तार कर उन पर ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ का मुकदमा चलाया गया। किंतु मेरठ का मुकदमा (Meerut Conspiracy Case) मजदूरों की संघर्षशीलता को तत्काल दबा नहीं सका। जब वाडिया ने बड़े स्तर पर कामगारों को बर्खास्त करने का प्रयास किया तो गिरनी कामगार ने अप्रैल-अगस्त 1929 में एक दूसरी आम हड़ताल की, किंतु इस हड़ताल को जरूरत से अधिक खींचा गया और इसकी पराजय ने गिरनी कामगार यूनियन को बहुत कमजोर कर दिया।
पटसन कारखानों में पहली हड़ताल जुलाई-अगस्त 1929 में हुई। इसका संचालन बंगाल जूट वर्कर्स यूनियन ने किया था, जिस पर अधिकांशतः कम्युनिस्टों का नियंत्रण था। इस हड़ताल ने मालिकों द्वारा काम के घंटों को 56 से बढ़ाकर 60 घंटे प्रति सप्ताह करने के प्रयास को विफल कर दिया।
1930 तक आते-आते एटक में, जो एक विभिन्न विचारधाराओंवाला बड़ा संगठन बन चुका था, बिखराव हो गया। 1929 में रायल कमीशन आफ लेबर के बहिष्कार और जिनेवा के इंटरनेशनल कान्फरेंस में प्रतिनिधित्व के सवाल पर दिसंबर 1929 के नागपुर अधिवेशन में एन.एम. जोशी का उदारवादी समूह एटक (ए.आई.टी.यू.सी.) से अलग हो गया और उसने ‘आल इंडिया ट्रेड यूनियन फेडरेशन’ की स्थापना की जबकि इसके बाद बचे-खुचे अधिवेशन की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की।
बाद में, 1931 में कलकत्ता अधिवेशन में रणदिबे और देशपांडे जैसे कम्युनिस्टों ने एटक से अलग होकर ‘लाल ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ का गठन कर लिया। किंतु मजदूरों का जुझारूपन कम नहीं हुआ और 1929-30 के दौरान सूती मिलों, जूट मिलों और जी.पी.आई. रेलवे में आम हड़तालों की एक दूसरी लहर चली।
कलकत्ता में सविनय अवज्ञा के ठीक पहले अप्रैल 1930 में एक युवक कम्युनिस्ट अब्दुल मोमिन ने गाड़ीवालों की एक अत्यंत सफल हड़ताल का नेतृत्व किया। किंतु 1930 में मजदूर आंदोलन में तेजी से उतार आने लगा। इसका कारण केवल सरकार की आक्रामक नीति ही नहीं थी, बल्कि कम्युनिस्टों की रणनीति में एक बड़ा परिवर्तन भी था।
1928 में काॅमिन्टर्न के आदेश के बाद कांग्रेस से संबंध तोड़ लेने के फैसले से साम्यवादी राष्ट्रीय आंदोलन में अलग-थलग पड़ गये और मजदूर वर्ग पर उनकी पकड़ ढीली हो गई। गिरनी कामगार यूनियन की संख्या, जो दिसंबर 1928 में 54,000 थी, 1929 के अंत तक घटकर 800 रह गई।
सविनय अवज्ञा आंदोलन और मजदूरों की कार्रवाइयाँ
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने 1929 में बाकर अली मिर्जा की देखरेख में एक श्रमिक अनुसंधान विभाग की स्थापना की, लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने गोलमुड़ी टिन प्लेट हड़ताल का संचालन बड़े खराब ढ़ंग से किया। श्रमिकों में कांग्रेस की रुचि सदैव ढुलमुल और सीमित रही थी और अब जबकि सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गांधीवादी नेतृत्व फिर से पैर जमा चुका था, उसका आम हड़ताल जैसे हथियार का प्रयोग करने का कोई इरादा नहीं था, जिसे वह अत्यंत विभाजक और खतरनाक मानता था।
आर्थिक परिस्थिति भी मजदूर आंदोलन के प्रतिकूल होती जा रही थी। मंदी के कारण बेरोजगारी में वृद्धि हुई थी और कीमतें घटी थीं, जिससे कामगारों की मालिकों के साथ सौदेबाजी की क्षमता कमजोर पड़ गई थी।
कांग्रेस की उदासीनता के बावजूद सविनय अवज्ञा आंदोलन के पहले चरण में प्रायः देश भर में मजदूरों ने हिस्सा लिया। 6 अप्रैल को जिस दिन गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा, जी.आई.पी. रेलवे यूनियन के कर्मचारियों ने एक नये तरह का सत्याग्रह शुरू किया।
उत्तर बंबई के बाहरी इलाके के स्टेशनों पर उनके झुंड पहुँचते थे और अपने सामने लाल झंडा लगाकर रेलवे लाइन पर लेट जाते थे। रेलवे लाइन को साफ करने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी। आंदोलन के दौरान कराची के गोदी मजदूरों, कलकत्ता के परिवहन और मिल-मजदूरों तथा मद्रास के चुलाई मिल-मजदूरों ने बड़ी बहादुरी से संघर्ष किया।
महाराष्ट्र के औद्योगिक नगर शोलापुर में गांधीजी के गिरफ्तार होने की खबर पाकर कपड़ा-मिलों के मजदूरों ने 7 मई को हड़ताल कर दी। भीड़ ने शराब की दुकानों, पुलिस चौकियों, न्यायालयों, नगर निगम के भवन और रेलवे स्टेशन पर हमला किया। कस्बे में राष्ट्रीय झंडा फहराया गया और कुछ दिनों के लिए विद्रोहियों ने प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। 16 मई के बाद मार्शल ला लगाकर ही स्थिति को नियंत्रित किया जा सका।
कुछ मजदूरों को फाँसी दी गई और कुछ को लंबी सजाएँ सुनाई गईं। जब कांग्रेस की कार्यकारिणी ने 6 जुलाई को ‘गांधी दिवस’ घोषित किया, तो उस दिन हड़ताल में लगभग 50,000 लोगों ने भाग लिया। इनमें बड़ी संख्या में उन नौ फैक्टरियों के मजदूर भी थे जिन्होंने अपने औजार रख दिये थे। यह सब इसके बावजूद हुआ कि ग्यारहसूत्रीय माँगपत्र में और कांग्रेस की आम नीति में मजदूर वर्ग की विशिष्ट शिकायतों की पूर्ण अवहेलना की गई थी, और अपनी नई अति-वामपंथी नीति के कारण कम्युनिस्ट भी सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रायः अलग ही रहे।
असहयोग आंदोलन के विपरीत सविनय अवज्ञा के साथ किसी बड़े मजदूर आंदोलन का आरंभ नहीं हुआ। जून 1930 की एक अन्यथा घबड़ाहटपूर्ण सरकारी रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘‘बंबई शहर की स्थिति के संबंध में सर्वाधिक संतोष का विषय यह है कि अब तक मिलों के कामगार अप्रभावित हैं…..कार्यकर्ता पिछले वर्ष की हड़ताल के परिणाम भूले नहीं हैं।’’ दरअसल गांधीजी मजदूरों के स्वतंत्र जुझारूपन को पसंद नहीं करते थे। उनको एटक से बड़ी चिढ़ थी। उन्होंने अहमदाबाद यूनियन को, जो हमेशा उनका वफादार रही, इस संगठन में कभी शामिल नहीं होने दिया। उनका तर्क था, ‘‘राजनीतिक उद्देश्यों के लिए मजदूरों की हड़तालों का उपयोग करना भारी भूल’’ होगी।
गांधीजी 1918 से ही पूँजी और श्रम के सामंजस्यपूर्ण संबंधों का दर्शन विकसित करते आ रहे थे। इसीलिए 1920 के असहयोग प्रस्ताव में विदेशी एजेंटों द्वारा मजदूरों के शोषण की बात तो की गई, लेकिन इसका जिक्र नहीं किया गया कि भारतीय मालिक भी ऐसे ही अत्याचार करते आ रहे थे। उनका कहना था कि ‘‘हम पूँजी या पूँजीपतियों को नष्ट करने के प्रयास नहीं करते, बल्कि पूँजी और श्रम के संबंधों का नियमन करना चाहते है।’’ 1929 में नेहरू का भी यही विचार था। उन्होंने एटक के अध्यक्ष के रूप में लोगों को याद दिलाया था कि कांग्रेस ‘‘एक श्रमिक संगठन नहीं है, बल्कि हर तरह के लोगों का एक बड़ा संगठन है।
यद्यपि कांग्रेस के समाजवादी नेता मजदूरों के प्रति सहानुभूति रखते थे, किंतु सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करनेवाला एक छतरी संगठन बने रहने की विवशता कांग्रेस को मजदूर वर्ग से गहराई से जोड़ने से रोकती थी। फलतः 1932-34 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दूसरे चरण में मजदूरों ने भाग नहीं लिया।
श्रमिक संघ आंदोलन का पुनरुत्थान
1933 और 1934 के दौरान मजदूर आंदोलन का पुनरुत्थान हुआ और तीसरे दशक के अंत की भाँति, कम्युनिस्ट गतिविधियों से घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा। मेरठ की गिरफ्तारियाँ और 1929 एवं 1931 में बार-बार होने वाले विभाजनों ने ट्रेड यूनियन आंदोलन को अत्यंत क्षीण कर दिया था। 1920 के पश्चात् हड़तालों की संख्या 1932 में न्यूनतम रही थी, किंतु अगले वर्ष से वह फिर बढ़ने लगी। 1934 में 159 हड़तालें हुईं, जिनमें 2,20,808 मजदूरों ने भाग लिया और 47,75,559 कार्य-दिवसों का नुकसान हुआ। छँटनी, नवीनीकरण एवं पारिश्रमिक में कटौती के माध्यम से अंग्रेज और भारतीय मिल-मालिकों ने समान रूप से मंदी का भार मजदूरों पर डालने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए बंबई की कपड़ा मिलों में जुलाई 1926 की तुलना में दिसंबर 1933 में दैनिक पारिश्रमिक में 16.94 प्रतिशत की कमी आई थी।
1934 के बाद नवजागरित श्रमिक संघर्षशीलता एवं कम्युनिस्ट और ट्रेड यूनियन घटकों के बीच पुनर्मिलन के संकेत मिलने लगे थे। कम्युनिस्टों और राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में 1934 में शोलापुर में (फरवरी-मई) तथा नागपुर (मई-जुलाई) में बड़ी हड़तालें हुईं। इस समय परिस्थितियाँ भी ट्रेड यूनियन संघर्षों के लिए कुछ अनुकूल हो गई थीं। 1934 में मंदी में आंशिक कमी आई थी और रोजगार के आँकड़ों में वृद्धि हो रही थी।
1935 में पटसन कारखानों में 14,247 नये मजदूर भर्ती किये गये थे और अगले वर्ष 1931 में लागू कार्य के समय को समाप्त करके सप्ताह में 52 घंटों का कार्य बहाल कर दिया गया था। किंतु असंतोष पहले से अधिक तीव्र हो चला था क्योंकि गोरे और भारतीय, दोनों ही पूँजीपति पिछले वर्षों में मजदूरी में की गई कटौती को बहाल रखना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप 1935-36 में कलकत्ता की केशोराम काटन मिल्स व पटसन कारखानों, अहमदाबाद व कानपुर की कपड़ा मिलों तथा बंगाल-नागपुर रेलवे में महत्त्वपूर्ण हड़तालें हुईं।
इस बीच अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने 1929 और 1931 में होने वाले विभाजनों को सफलतापूर्वक पाट लिया। अप्रैल 1935 में कांसपा नेताओं के प्रयास से कम्युनिस्टों की रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस पुनः एटक में शामिल हो गई जिस पर अब एम.एन. राय के अनुयायियों और कुछ समाजवादियों का नियंत्रण था। कुछ महीने बाद एक संयुक्त श्रमिक मोर्चे की स्थापना की गई। आगे चलकर 1938 में नेशनल फेडरेशन आॅफ ट्रेड यूनियन भी एटक में मिल गई, किंतु गांधीजी के प्रभाववाला अहमदाबाद लेबर एसोसिएशन अब भी अलग बना रहा।
1937 की कांग्रेसी सरकारें और मजदूर आंदोलन
1937 में प्रांतीय चुनावों में कुछ केंद्रों को छोड़कर एटक ने कांग्रेस के प्रत्याशियों का समर्थन किया। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में यह घोषणा की थी कि कांग्रेस मजदूरों के झगड़े को निपटाने के लिए कदम उठायेगी और उनके यूनियन बनाने तथा हड़ताल करने के अधिकार की सुरक्षा के लिए कारगर उपाय करेगी। चुनाव बाद विभिन्न प्रांतों में कांग्रेसी सरकारों के गठन और कई मंत्रियों के मजदूर-समर्थक दृष्टिकोण के कारण मजदूर संगठनों को बढ़ावा मिला।
1937 की तुलना में 1938 में ट्रेड यूनियनों की सदस्य संख्या में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी और एटक और नरमदलीय नेशनल फेडरेशन आफ ट्रेड यूनियन (एन.एफ.टी.यू.) के साथ आने से मजदूर-एकता भी बढ़ी थी। मजदूर वर्ग को एकजुट करने के लिए कुछ कांग्रेसी प्रयास भी किये गये, जैसे- 1938 में वल्लभभाई पटेल, राजेंद्रप्रसाद एवं कृपलानी जैसे नेताओं ने हिंदुस्तान मजदूर संघ की स्थापना किया। फलतः 1937 और 1939 के मध्य ट्रेड यूनियनों की संख्या 271 से 562 तक पहुँच गई और इनकी सदस्य संख्या 2,61,047 से बढ़कर 3,99,159 हो गई।
कांग्रेसी सरकारों के गठन से मजदूरों की संघर्षशीलता और जुझारूपन में भी पर्याप्त वृद्धि हुई जिसके कारण 1937-38 के दौरान पूरे देश में हड़तालों की लहर फैल गई। इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण हड़ताल कानपुर के मजदूरों की थी, जो 55 दिन तक चली और जिसमें 40,000 मजदूर सम्मिलित हुए थे। किंतु बंबई, मद्रास और संयुक्त प्रांत जैसे प्रांतों मे कांग्रेसी सरकारें औद्योगिक असंतोष को नियंत्रित करने के लिए बलप्रयोग की नीतियाँ अपनाती रहीं। अपनी समाजवादी रूझान के लिए प्रसिद्ध नेहरू ने 1937 में कानपुर की कपड़ा मिल हड़ताल के दौरान मजदूरों के निकाले जाने की निंदा की, लेकिन साथ ही अपना काम ठीक से न करनेवाले मजदूर को बर्खास्त करने के बारे में मिल-मालिक के अधिकार का समर्थन भी किये।
नवंबर 1937 में अहमदाबाद की कपड़ा मिलों की हड़ताल से पता चलता है कि गांधीवाद के इस पुराने गढ़ में भी कुछ सीमा तक कम्युनिस्टों की पैठ बन चुकी थीं। जब मजदूरों ने वेतन कटौती और छँटनी के खिलाफ एक के बाद एक कई हड़तालें की, तो पूँजीपतियों को घबड़ाहट होने लगी और कांग्रेसी नेतृत्व गहरी चिंता में पड़ गया। कांग्रेसी सरकारों द्वारा अपनाया गया मजदूर-समर्थक दृष्टिकोण शीघ्र ही पूँजीपतियों के भारी दबाव का शिकार हो गया।
नवंबर 1938 में बंबई का ‘ट्रेड्स डिस्प्यूट्स ऐक्ट’ (औद्योगिक विवाद कानून) के पारित होने से कांग्रेस का मजदूर-विरोधी घिनौना चेहरा पूरी तरह खुलकर सामने आ गया। इस कानून के अनुसार अनिवार्य मध्यस्थता, गैर-कानूनी हड़तालों के लिए छः महीने की जेल और ट्रेड यूनियनों के लिए पंजीकरण के नये नियमों की व्यवस्था थी।
कांग्रेस को छोड़ सभी पार्टियों ने इस कानून की निंदा की और मजदूरों ने बंबई में एक आम हड़ताल से विधेयक के पारित होने का स्वागत किया। 6 नवंबर को बंबई में होनेवाली विरोध सभा में 80,000 लोगों ने भाग लिया, जिसे डांगे, इंदुलाल याज्ञनिक और आंबेडकर ने संबोधित किया था। पंजीकरण-संबंधी धाराओं को छोड़कर, नेहरू को, कुल मिलाकर बाॅम्बे एक्ट ‘अच्छा’ ही लगा था।
बंगाल जैसे एक प्रांत में कांग्रेसी नेताओं ने 1937 में पटसन कारखानों की आम हड़ताल का समर्थन किया, क्योंकि यह उनके लिए फजलुल हक मंत्रिमंडल को बदनाम करने और इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन के ‘गोरे मालिकों’ पर चोट करने का अच्छा अवसर था। नेहरू ने तो यहाँ तक कहा था कि ‘‘यह हमारे स्वतत्रंता आंदोलन का एक अंग है।’’
1939 में डिग्बोई की ब्रिटिश स्वामित्ववाली असम आयल कंपनी में होनेवाली हड़ताल के समय कांग्रेस ने श्रमिकों से कुछ सहानुभूति जरूर दिखाई, किंतु व्यर्थ रही और अक्टूबर में कांग्रेस सरकार ने हड़ताल को कुचलने के लिए भारत रक्षा कानून का खुलकर प्रयोग होने दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध और मजदूर आंदोलन
द्वितीय विश्वयुद्ध 3 सितंबर 1939 को आरंभ हुआ और बंबई के मजदूर वर्ग ने युद्ध के विरोध में 2 अक्टूबर 1939 को सर्वप्रथम समूचे विश्व में हड़ताल का आयोजन किया। इस हड़ताल में लगभग 90,000 मजदूरों ने भाग लिया। युद्ध के प्रयासों में किसी भी प्रकार के विघ्न को रोकने की इच्छुक सरकार द्वारा भयंकर दमन के बावजूद पूरे देश में आर्थिक मुद्दों को लेकर कई हड़तालें हुईं। 1940 में बंबई के सूती-मिल मजदूरों ने, डिग्बोई के तेल-मजदूरों ने, धनबाद और झरिया के कोयला-मजदूरों ने, जमशेदपुर के लोहा-मजदूरों ने और कई अनेक उद्योग-धंधों में मजदूरों की हड़तालें हुईं।
किंतु 1941 में जब जर्मनी ने ‘समाजवादियों की पितृभूमि’ सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया तो साम्यवादियों ने विश्वयुद्ध को ‘लोकयुद्ध’ घोषित कर दिया। उन्होंने मजदूर वर्ग का आह्वान किया कि वे फासीवाद को मिटाने के लिए मित्रराष्ट्रों के युद्ध-प्रयासों का समर्थन करे। किंतु ‘लोकयुद्ध’ के पक्ष में साम्यवादी जन-समर्थन जुटाने में असफल रहे। पहले मजदूरों और साम्यवादियों की निकटता का कारण बहुत हद तक औपनिवेशिक राजसता का विरोध था। लेकिन उनकी भूमिका अब बदल गई थी, उनका सूरज भी अब ढलने लगा। 1941 में एम.एन. राॅय ने सरकार-समर्थक ‘इंडियन फेडरेशन आफ लेबर’ का गठन किया, जो आगे चलकर 1948 में ‘हिंद मजदूर सभा’ में विलीन हो गई।
अगस्त 1942 को गांधीजी द्वारा शुरू किये ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन से साम्यवादियों ने स्वयं को अलग कर लिया था, फिर भी 9 अगस्त को गांधीजी तथा दूसरे नेताओं की गिरफ्तारी के तत्काल बाद ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के समर्थन में मजदूरों ने देश भर में- बंबई, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, नागपुर, अहमदाबाद, जमशेदपुर, मद्रास, इंदौर और बंगलौर आदि स्थानों पर हड़तालें की। हड़तालियों के इस नारे के साथ टाटा स्टील प्लांट 13 दिन तक बंद रहा कि वे तब तक दोबारा काम नहीं करेंगे, जब तक देश में राष्ट्रीय सरकार नहीं बन जाती। अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में साढ़े तीन महीने तक हड़ताल चलती रही जिसे बाद में ‘भारत का स्तालिनग्राद’ की संज्ञा दी गई।
1940 के दशक में कुछ ट्रेड यूनियनें पुनः साम्यवादियों के नियंत्रण में आ गईं। एटक ने भी अपनी शक्ति दुगुनी कर ली थी-1942 और 1944 के बीच इसकी सदस्य संख्या ढाई लाख से बढ़कर पाँच लाख हो गई थी। फिर भी, यह उनकी बढ़ती लोकप्रियता का सूचक नहीं था, क्योंकि बहुत थोड़े मजदूर ही उन यूनियनों में शामिल थे। बाद में 1952 में साम्यवादी नेता इद्रजीत गुप्ता ने स्वीकर किया कि जूट मिलों के लगभग 95 प्रतिशत मजदूर अभी भी यूनियनों से बाहर थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1945-47 में मजदूर आंदोलन की गतिविधियों में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। युद्धोत्तरकालीन राष्ट्रीय विप्लवों में बड़ी संख्या में मजदूरों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों के मुकदमे के विरुद्ध आयोजित सभाओं और प्रदर्शनों में मजदूरों की व्यापक भागीदारी रही। 1945 की समाप्ति तक बंबई और कलकत्ता के बंदरगाहों के मजदूरों ने इंडोनेशिया भेजे जानेवाले रसद को जहाजों पर लादने से इनकार कर दिया क्योंकि इससे दक्षिण-पूर्व एशिया के राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम का दमन होता।
औपनिवेशिक शासन के अंतिम वर्षों में भी मजदूरों ने सेना, डाकखाना, रेलवे एवं अन्य प्रतिष्ठानों में आयोजित हड़तालों में सक्रिय भूमिका निभाई। 1946 में शाही नौसना के जहाजियों के विद्रोह के साथ बंबई के मजदूरों ने जिस एकजुटता का प्रदर्शन किया, वह वास्तव में बेमिसाल था। कांग्रेस और लीग के विरोध के बावजूद 22 फरवरी को 3,00,000 लोगों ने बंबई में अपने औजारों को हाथ नहीं लगाया, लगभग सभी मिलें बंद हो गईं और सड़कों पर हिंसक झड़पें हुईं जिनमें लगभग 228 नागरिक मारे गये थे और 1,046 घायल हुए थे।
वस्तुतः 1946 में हड़तालों की लहर पहले के सभी मानदंडों को पार कर गई थी। इस वर्ष 1,629 बार काम रोका गया, जिससे 19,41,948 मजदूर प्रभावित हुए और 1,27,17,762 श्रम-दिवसों की क्षति हुई। उद्योगों के अलावा मजदूरों ने डाक-तार विभाग, दक्षिण भारतीय रेलवे और पश्चिमोत्तर रेलवे में भी हड़तालें की। उनमें से डाक-तार विभाग के कर्मचारियों की अखिल भारतीय हड़ताल सबसे अधिक प्रसिद्ध है। कांग्रेस नेतृत्व ने कामगारों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता और कर्त्तव्य-पालन में उनकी लापरवाही की निंदा की, जबकि कांग्रेसी नेता स्वयं संधि-वार्ताओं और मंत्रिमंडल के गठन में लगे हुए थे।
मजदूर वर्ग के इस जुझारूपन का कारण निकट भविष्य में मिलनेवाली आजादी थी क्योंकि अन्य वर्गों की तरह मजदूरों को भी लगता था कि स्वतंत्रता मिलने पर उनके सारे कष्ट दूर हो जायेंगे। किंतु यह कहना सही नहीं है कि मजदूर, उपनिवेशी सत्ता, पूँजीपति वर्ग और राष्ट्रवाद से अपने संबंध को समझने में असमर्थ थे।
वास्तव में शिक्षित मध्यमवर्गीय राजनीतिज्ञों द्वारा संचालित राष्ट्रवादी या वामपंथी राजनीति के प्रति वे न तो संवेदनहीन थे और न उनसे दूर रहे, लेकिन उनका समर्थन सशर्त था। जिस प्रकार भारतीय लोकतंत्र, अशिक्षा और भ्रष्टाचार के कारण अभी भी बैशाखियों पर खड़ा है, ठीक उसी तरह मजदूर आंदोलन भी है। आज भी अनेक अंधी-गलियों में प्रकाश की प्रतीक्षा है।
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