भगवान महावीर और उनकी शिक्षाएँ (Lord Mahavira and his Teachings)

जैन धर्म का उद्भव और प्राचीनता छठी शताब्दी ई.पू. के संप्रदायों में सबसे प्राचीन संप्रदाय […]

भगवान महावीर और उनकी शिक्षाएँ (Lord Mahavira and his Teachings)

जैन धर्म का उद्भव और प्राचीनता

छठी शताब्दी ई.पू. के संप्रदायों में सबसे प्राचीन संप्रदाय निगंठों अथवा जैनों का था। जैन परंपरा के अनुसार इस धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। महावीर से पूर्व के तेईस तीर्थंकरों में से इतिहास प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ, 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक अस्तित्व स्वीकार करता है।

ऋषभदेव और पार्श्वनाथ

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे, किंतु पार्श्वनाथ संभवतः इस धर्म के वास्तविक संस्थापक थे। पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी के राजा अश्वसेन की पत्नी वामा (वर्मला) के गर्भ से हुआ था। उनका समय महावीर से लगभग 250 वर्ष पूर्व (लगभग 877-777 ई.पू.) माना जाता है। पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में गृह-त्याग कर संन्यासी जीवन अपनाया। उन्होंने सम्मेद शिखर (पारसनाथ पर्वत, हजारीबाग) पर 83 दिन की कठोर तपस्या के बाद कैवल्यज्ञान प्राप्त किया और 70 वर्ष तक अपने उपदेशों द्वारा जनकल्याण करते हुए उसी स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया। उनके अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा जाता था। पार्श्वनाथ के समय में निर्ग्रंथ संप्रदाय चार गणों (संघों) में सुसंगठित था।

पार्श्वनाथ वैदिक यज्ञ, कर्मकांड, देववाद, वर्णव्यवस्था, और जातिप्रथा के कटु आलोचक थे। वे प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह किसी भी जाति का हो, मोक्ष का अधिकारी मानते थे। उन्होंने नारियों को भी अपने धर्म में साध्वी या श्राविका के रूप में प्रवेश देकर मुक्ति का अवसर प्रदान किया। उन्होंने चार यमों—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह—का उपदेश दिया, जिसके कारण उनके धर्म को ‘चतुर्याम’ कहा गया। महावीर के माता-पिता भी पार्श्वनाथ की परंपरा के अनुयायी थे।

वर्धमान महावीर का जीवन

वर्धमान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान ऋषभनाथ की परंपरा में 24वें जैन तीर्थंकर थे। वे जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, अपितु इस धर्म के अंतिम तथा सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थंकर थे। महावीर का जन्म 599 ई.पू. बिहार प्रांत में विदेह क्षेत्र के अंतर्गत वैशाली (आधुनिक वैशाली) के समीपवर्ती कुंडग्राम के क्षत्रियकुल में हुआ था। इनके माता-पिता पार्श्वनाथ की परंपरा के अनुयायी थे। इनके पिता ज्ञातृवंशीय सिद्धार्थ वज्जि संघ के प्रमुख गणराज्य कुंडग्राम के राजा थे। इनकी माता का नाम प्रियकारिणी, विदेहदिन्ना या त्रिशला था, जो जैन पुराणों के अनुसार लिच्छवि गणराज्य के प्रमुख चेटक की बहन थीं।

वर्धमान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। वे जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, अपितु इस धर्म के अंतिम और सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थंकर थे। उनका जन्म 599 ई.पू. में बिहार के वैशाली के समीप कुंडपुर (कुण्डग्राम) में हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ, ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय और वज्जि संघ के एक प्रमुख गणराज्य कुंडपुर के राजा थे। उनकी माता त्रिशला (प्रियकारिणी या विदेहदिन्ना) लिच्छवि गणराज्य के प्रमुख चेटक की बहन थीं।

आचारांगसूत्र एवं कल्पसूत्र जैसे परंपरा ग्रंथों में वर्णित है कि महावीर का जीव पहले कुंडग्राम के ब्राह्मण ऋषभदत्त की पत्नी देवानंदा के गर्भ में आया था। ८३वीं रात्रि में हरिणिगमेषी ने अपने दिव्य प्रभाव से भगवान महावीर के गर्भ को देवानंदा से त्रिशला के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दिया, क्योंकि तीर्थंकर क्षत्रियकुल में ही जन्म लेते हैं। भगवतीसूत्र में इस तथ्य को भगवान महावीर के मुख से ही उद्घाटित किया जाना वर्णित है। संभवतः ब्राह्मण वर्ग की अपेक्षा क्षत्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर बल देने के लिए यह कथा रची गई। गर्भ-परिवर्तन की इस घटना का समर्थन मथुरा के एक मूर्तिखंड से होने का दावा किया जाता है, जो संदेहास्पद है।

भगवान महावीर और उनकी शिक्षाएँ (Lord Mahavira and his Teachings)
भगवान महावीर और उनकी शिक्षाएँ

एच. जैकोबी का अनुमान है कि राजा सिद्धार्थ की दो पत्नियाँ थीं—ब्राह्मणी देवानंदा तथा क्षत्राणी त्रिशला। ऋषभदत्त को देवानंदा के पति के रूप में मान्य करने की परंपरा परवर्ती है। जैकोबी के अनुसार वर्धमान को अधिक राजकीय प्रतिष्ठा देने के लिए त्रिशला के सौतेले पुत्र की अपेक्षा पुत्र के रूप में ही विख्यात कर दिया गया। किंतु जैकोबी की इस मान्यता को सबल प्रमाणों के अभाव में स्वीकार करना कठिन है। यह भी स्वीकार करना संभव नहीं है कि वर्धमान को ब्राह्मण दंपति ने सिद्धार्थ और त्रिशला को दत्तक दे दिया था।

भगवान महावीर को गर्भ में धारण करने वाली रात्रि माता त्रिशला ने चौदह शुभ स्वप्न देखे थे, जिनका विवरण कल्पसूत्र में उपलब्ध है। तीर्थंकर के गर्भावतरण पूर्व स्वप्न में गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चंद्र, सूर्य, ध्वजा, कुंभ, पद्म, सरोवर, समुद्र, विमान, रत्नराशि तथा निर्धूम अग्नि देखने की जैन परंपरा प्राचीन है। दिगंबर जैन परंपरा में इन चौदह स्वप्नों में ‘सिंहासन’ तथा ‘धरणेंद्र का महल’ जोड़कर सोलह स्वप्न माने गए हैं, साथ ही ध्वजा के स्थान पर दो मछलियाँ तथा एक के बजाय दो कुंभों की मान्यता है। जैन धर्म में मान्य इन मांगलिक प्रतीकों का आयागपट्ट पर अंकन ई.पू. द्वितीय शताब्दी से होने लगा था। वर्धमान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को मध्यरात्रि के समय उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में त्रिशला के गर्भ से होने की परंपरा सर्वमान्य है।

प्रारंभिक जीवन

जैन ग्रंथों में वर्धमान के शैशवकाल से संबंधित उपाख्यान, कथाएँ तथा चमत्कारिक घटनाओं का विवरण सुरक्षित है। कथानकों से ज्ञात होता है कि महावीर के जन्म की खुशियाँ मनुष्यों और देवताओं ने समान रूप से मनाई थीं। सिद्धार्थ-त्रिशला युगल ने नवजात पुत्र का नाम ‘वर्धमान’ रखा, क्योंकि बालक के जन्म लेते ही परिवार के धन, धान्य, कोष, भंडार, बल, वाहन, यश तथा गुण-प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि होने लगी थी। श्वेतांबर तथा दिगंबर जैन शास्त्रों में वर्धमान महावीर के अतुलबल से संबंधित अनेक विवरण संग्रहीत हैं।

वर्धमान का प्रारंभिक जीवन सुख-सुविधापूर्ण था। उनका व्यक्तित्व सुंदर तथा प्रभावशाली था तथा वे सर्वगुण संपन्न, दक्ष तथा अत्यंत कुशाग्र बुद्धियुक्त थे। राजकुमार होने के कारण इन्हें अनेक विद्याओं तथा कलाओं की शिक्षा दी गई। बड़े होने पर उनका विवाह कौडिण्य गोत्र की कन्या यशोदा से हुआ, जो या तो बसंतपुर के राजा समरवीर या कलिंग के शासक जितमित्र की पुत्री थी। इससे वर्धमान की एक पुत्री प्रियदर्शना (अणोज्जा) उत्पन्न हुई, जो उनके भांजे क्षत्रिय जामाली से विवाहित हुई। जामाली ने भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की थी, किंतु कालांतर में उसने धर्मसंघ में भेद डालकर अलग संघ प्रतिष्ठित कर लिया।

सांसारिक जीवन का त्याग

वर्धमान प्रारंभ से ही चिंतनशील प्रवृत्ति के थे। तीस वर्ष की आयु में पिता के मरणोपरांत वर्धमान ने सांसारिक जीवन त्यागकर प्रव्रज्या ग्रहण करने की सुप्त लालसा जागृत हो गई। उन्होंने पिता के उत्तराधिकारी ज्येष्ठ भ्राता नंदिवर्धन तथा अन्य कौतुंबिक लोगों की अनुमति लेकर केवल एक वस्त्र धारण करके चंद्रप्रभा नामक पालकी में सवार होकर ज्ञातृकों के खंडवन नामक उद्यान की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर वे पालकी से उतरकर एक अशोक वृक्ष के नीचे अपने समस्त आभूषणों को त्याग दिए तथा सिर के बालों को पाँच मुष्टियों में उखाड़कर निर्ग्रंथ भिक्षु का जीवन धारण कर लिया। तत्पश्चात् वर्धमान ने कठोर तप, कायाक्लेश तथा आत्महनन के माध्यम से ज्ञान-प्राप्ति की चेष्टा की।

आत्म-साधना तथा सर्वोच्च अवस्था (कैवल्य) प्राप्ति

आचारांगसूत्र में धार्मिक गाथा के रूप में साधना के उन बारह वर्षों का विशद् वर्णन है, जिसमें महावीर ने ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या की थी। साररूप में कल्पसूत्र के विवरण से भी आचारांग में वर्णित गाथा की पुष्टि होती है। दोनों ग्रंथों से पता चलता है कि केवली पद प्राप्त करने हेतु की गई इस कठोर साधना में वर्धमान को अतिशय कठिन मानवीय प्रयास करने पड़े थे। आत्म-साधना तथा विभिन्न परीषहों और उपसर्गों को सहते हुए तेरहवें वर्ष में वर्धमान को जंबुद्वीप के जम्भियग्राम के बाहर ऋजुपालिका (ऋजुबालिका) नदी के तट पर श्यामांग गृहस्थ के खेत में शाल वृक्ष के नीचे ‘कैवल्य’ (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति हुई तथा वे सुख-दुख के बंधनों से मुक्त होकर ‘केवली’ हो गए।

इस पुनीत स्थल का समीकरण मुनि कल्याणविजय ने हजारीबाग जिला अंतर्गत दामोदर नदी के निकटवर्ती जम्भियग्राम से किया है। किंतु इस ग्राम की स्थिति बिहारशरीफ के निकट स्थापित पावा तीर्थ के आसपास मानी जा सकती है। विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दुख-सुखादि, अहंकार, प्रारब्ध, कर्म तथा संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति को ‘कैवल्य’ कहते हैं। जैन परंपरा में इस सर्वोच्च अवस्था (कैवल्य) प्राप्ति के महत्त्वपूर्ण क्षण का विशद् वर्णन किया गया है।

कैवल्य प्राप्ति के उपरांत महावीर अर्हत्, केवली, जिन्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आदि संज्ञाओं के धारक हुए। अपनी समस्त इंद्रियों को जीतने के कारण वे ‘जिन्’ कहलाए। भय उत्पन्न होने वाली स्थिति में अचल रहने वाले, अपने संकल्प से तनिक मात्र भी विचलित न होने वाले, निष्कंप परीषहों तथा उपसर्गों को शांत भाव से सहन करने में समर्थ, भिक्षा-नियमों का दृढ़ता से पालन करने वाले, शोक तथा हर्ष में समभावी, सद्गुणों के आगार तथा अतुलबली होने के कारण वर्धमान को ‘महावीर’ कहा गया। सहज शारीरिक एवं बौद्धिक परिश्रम तथा शक्ति से उन्होंने तप आदि नानाविध आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर आरूढ़ होकर कठोर परिश्रम किया, अतएव वे श्रमण कहलाए। बौद्ध साहित्य में इन्हें ‘निगंठ नाटपुत्त’ (निर्ग्रंथ ज्ञातपुत्र) कहा गया है। निर्ग्रंथ इसलिए कि उन्होंने समस्त बंधनों को तोड़ दिया था, ज्ञातृपुत्र इसलिए कि वे ज्ञातृक वंशीय राजा के पुत्र थे।

केवली हो जाने के पश्चात् महावीर से लोक का कोई भी रहस्य छिपा नहीं रहा तथा वे उस काल में मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों में रहते हुए समस्त लोक तथा समस्त जीवों के संपूर्ण भावों को जानते तथा देखते हुए विचरण करने लगे थे।

मक्खलिपुत्र गोशाल से भेंट

महावीर के साधनाकाल की महत्त्वपूर्ण घटना आजीवक संप्रदाय के प्रधान मक्खलिपुत्र गोशाल से नालंदा के तंतुवायशाला में भेंट होना है। इसके बाद गोशाल छह वर्ष तक महावीर के साथ रहा, किंतु अपने नियतिवाद के सिद्धांत के कारण वह महावीर के कर्म-सिद्धांत का विरोधी हो गया तथा स्वयं आजीवक मत की स्थापना की। बी.एम. बरुआ को गोशाल के संबंध में जैन परंपरा पक्षपातपूर्ण प्रतीत होती है।

कैवल्य के पश्चात् महावीर धर्मोपदेश देकर लोगों को अपने मत में दीक्षित करते हुए इधर-उधर घूमते रहे। अपने इस भ्रमण के दौरान उन्हें अपार कष्ट सहना पड़ा। इन्हें उद्यानशाला, नगर-श्मशान, आवास स्थानों में दुष्टजनों एवं ग्रामों के रक्षापुरुषों तथा शक्तिधारी सैनिकों से, गृहस्थी के प्रलोभनों, शीत के घोर कष्ट आदि को सहना पड़ा। पश्चिम बंगाल (राड़) के मार्गरहित प्रदेश, ब्रजभूमि, वीरभूमि आदि में यात्रा करते समय उन्हें घोर कष्ट उठाना पड़ा। इन स्थानों पर लोगों ने उनसे हिंसात्मक व्यवहार किया। उन पर कुत्ते छोड़े गए तथा अपशब्द कहे गए। इन यात्राओं के दौरान महावीर ने पहला वर्षवास अस्थिक ग्राम में व्यतीत किया, तीन चातुर्मास्य चंपा तथा पष्ठियंपा में, बारह वैशाली तथा वण्यि ग्राम में, चौदह राजगृह में, छह मिथिला में, दो भद्दिका में, एक अलभिका में, एक ब्रजभूमि (पणितभूमि) में, एक श्रावस्ती में तथा एक पावापुरी में व्यतीत किए। इसी पावा (पावापुरी, जिला नालंदा) में राजा हस्तिपाल के महल में कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन 72 वर्ष की आयु में 527 ई.पू. में महावीर चतुर्विध अघाती कर्मदल का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध तथा मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए थे। जैन परंपरा में महावीर की निर्वाण-तिथि 527 ई.पू. मानी जाती है।

धर्मोपदेश तथा प्रसार-क्षेत्र

श्वेतांबर परंपरा के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर की प्रथम धर्मदेशना हेतु ऋजुबालिका नदी के तट पर समवसरण की रचना की गई थी। माना जाता है कि प्रथम धर्मदेशना से प्रभावित होकर किसी भी व्यक्ति ने सर्वविरति महाव्रत धारण नहीं किया था। किंतु इस धर्मदेशना को असफल नहीं माना जा सकता, क्योंकि महावीर ने द्वितीय समवसरण में मज्झिम पावा पहुँचकर ग्यारह विद्वान ब्राह्मणों को जैन मतावलंबी बनाने में सफलता प्राप्त की। महावीर स्वामी के इन्हीं ग्यारह प्रधान शिष्यों को ‘गणधर’ कहा गया है।

दिगंबर परंपरा के अनुसार केवलज्ञान होने पर भी भगवान महावीर ने मौनव्रत नहीं तोड़ा था तथा राजगृह में विपुलाचल पर गौतम इंद्रभूति सहित ग्यारह ब्राह्मणों को निर्ग्रंथ-धर्म में दीक्षित किया था। कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र, आवश्यकनिर्युक्ति तथा आवश्यकचूर्णि में इन गणधरों के नाम मिलते हैं—गौतम इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, आर्यव्यक्त, सुधर्मा, मंडित (मंडिकेट), मौर्यपुत्र अकंपित, अचलभ्राता, मेटार्य तथा प्रभास। ये गणधर प्रसिद्ध ब्राह्मण आचार्य थे। इन गणधरों का ब्राह्मण वर्गीय होना महत्त्वपूर्ण है। गौतम बुद्ध के भी कुछ प्रधान शिष्य ब्राह्मण थे। इससे लगता है कि इस समय ब्राह्मणों के विचारों में भी एक उत्क्रांति चल रही थी तथा संभवतः क्षत्रिय आचार्यों से प्रभावित होकर इन्होंने परंपरागत मान्यताओं को त्याग दिया, जो कर्मकांड को धर्म का मुख्य स्रोत मानती थीं। इंद्रभूति तथा सुधर्मा को छोड़कर शेष सभी का निर्वाण महावीर के जीवनकाल में ही हो गया था। ये गणधर द्वादश अंगों, चतुर्दश पूर्वों तथा समस्त गणिपिडग में पारंगत थे। इन्हीं गणों में से एक सुधर्मा भगवान महावीर के बाद जैनसंघ का अध्यक्ष (प्रधान) हुआ।

भगवान महावीर ने चंपा, वैशाली, राजगृह, श्रावस्ती, कौशांबी आदि नगरों में घूम-घूमकर अपने धर्म का प्रचार किया। राजपरिवार से संबंधित होने के कारण महावीर को धर्म-प्रचार में शासक वर्ग से पर्याप्त सहायता मिली। उनकी माता लिच्छवि नरेश चेटक की बहन थीं तथा चेटक का अनेक समकालीन शक्तिशाली शासकों के साथ वैवाहिक तथा मैत्रीपूर्ण संबंध था। फलस्वरूप गौतम बुद्ध की भाँति महावीर स्वामी को भी अपने धर्म-प्रचार में समृद्ध श्रेष्ठियों तथा व्यापारियों के अलावा अनेक राजाओं, राजकुमारों तथा मंत्रियों से सहायता मिली।

महावीर स्वामी के संघ के अनुयायी गृहस्थों में कुछ समृद्ध तथा प्रभावशाली थे। महावीर के गृहस्थ अनुयायियों में वाणिज्यग्राम निवासी आनंद तथा उनकी पत्नी शिवनंदा, चंपा के कामदेव तथा उनकी पत्नी भद्रा, चूलनप्रिय तथा उसकी पत्नी श्यामा, वाराणसी निवासी सूरदेव तथा उनकी पत्नी धन्या, काम्पिल्यपुर के चुल्लशतक तथा उसकी पत्नी पुष्पा तथा कुंडकोलित दंपति, पोलासपुर निवासी सरदलपुत्र तथा उसकी पत्नी अग्निमित्रा, राजगृह के महाशतक, नंदिनिप्रिय तथा उसकी पत्नी अश्विनी तथा सलतिप्रिय तथा उसकी पत्नी फाल्गुनी, नालंदा के निर्ग्रंथ श्रावक उपयली आदि प्रसिद्ध थे। भगवतीसूत्र में महावीर के श्रावकों में राजगृह निवासी विजय तथा सुदर्शन का भी उल्लेख है।

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार श्रेणिक, चेटक, प्रद्योत, शतानीक, उदयान, बिंबिसार, वीरजस, संजय, शंख, काशिवृद्ध आदि राजागण महावीर के अनुयायी थे। उत्तमकुमार सूत्र के अनुसार अजातशत्रु महावीर का भक्त था। जैन सूत्रों के अनुसार वह वैशाली तथा चंपा में महावीर के दर्शनार्थ जाता था। रानियों में उदयन की पत्नी पद्मावती, कौशांबी की मृगावती एवं जयंती, श्रेणिक तथा प्रद्योत की रानियाँ महावीर के संघ की श्राविकाएँ थीं। चंपा नरेश दधिवाहन की महावीर में अपार श्रद्धा थी तथा उसकी पुत्री चंदना महावीर की प्रथम भिक्षुणी थी।

वैशाली गणराज्य में महावीर स्वामी का अत्यधिक प्रभाव था। यहाँ उन्होंने अपने भ्रमणकाल के 12 वर्ष व्यतीत किए। ज्ञातृक वज्जियों के अंतर्गत होने के कारण इस संघ पर महावीर की सहानुभूति का होना स्वाभाविक था। वज्जिसंघ की विदेह आदि जातियाँ स्वाभाविक रूप से नाटपुत्त महावीर के उपदेशों से प्रभावित थीं, क्योंकि महावीर के पिता सिद्धार्थ इस क्षत्रिय संघ से संबंधित थे। मल्लों में भी महावीर के धर्म के प्रति श्रद्धा थी। क्षत्रियकुंड निवासी जामाली को ऐश्वर्यशाली तथा महावीर की बहन सुदर्शना का पुत्र तथा महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का पति वर्णित किया गया है। जामाली ने प्रियदर्शना सहित प्रव्रज्या ग्रहण की थी। पावा का मल्लराज हस्तिपाल भी उनका बड़ा आदर करता था। इन्हीं के राजप्रासाद में महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था। राजपरिवारों के अतिरिक्त साधारण वर्ग के लोग भी उनकी शिक्षाओं तथा उपदेशों के प्रति श्रद्धावान थे।

दशार्ण जनपद के शासक दशार्णभद्र के महावीर के निर्ग्रंथ संघ में दीक्षित होने के उल्लेख उपलब्ध हैं। दशार्ण के अंतर्गत मध्यप्रदेश के विदिशा के आसपास का प्रदेश माना जाता है। विदिशा में अवंतिराज प्रद्योत द्वारा जीवंतस्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठित करने के परवर्ती उल्लेख हैं। विदिशा के निकट कुंजरावत तथा स्थावर पर्वतों पर वज्रस्वामी तथा अन्य जैन श्रमणों द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करने की परंपरा जैन ग्रंथों में लोकप्रिय है।

कलिंग नरेश खर्कंडु को निर्ग्रंथ धर्म स्वीकार करने तथा अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ कर जैन श्रमण बन जाने की अनुश्रुति का उल्लेख मिलता है। हरिवंशपुराण में भी महावीर द्वारा कलिंग में जैन धर्म का प्रचार होने का वर्णन है। प्रथम शताब्दी ई.पू. के जैन शासक खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख, उसकी रानी का अभिलेख तथा श्वेतांबर परंपरा के अनुसार इस काल में जैन भिक्षु ओडिशा के समुद्री क्षेत्रों तक फैल गए थे। हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि नंदराज द्वारा कलिंग से मगध ले जाई गई जैन मूर्ति को खारवेल ने तीन सौ वर्ष बाद वापस लाया था। उदयगिरि तथा खंडगिरि की जैन गुफाएँ इसका प्रमाण हैं।

स्थविरवली के प्रमाणों से पता चलता है कि इसी काल में जैन धर्म का प्रसार मथुरा में हुआ था। यहाँ से ई.पू. काल की जैन मूर्तियाँ एवं प्रार्थना-स्थल प्राप्त हुए हैं।

महावीर स्वामी की दक्षिण भारत में यात्रा करने से संबंधित अनुश्रुतियाँ उपलब्ध हैं। अशोक के पौत्र संप्रति ने अशोक की भाँति जैन धर्म के प्रसार के लिए आंध्र तथा द्रविड़ क्षेत्र में धर्म प्रचारक भेजे थे। कालकाचार्य के कथानक से भी मालवा में ई.पू. में जैन धर्म के प्रसार का विवरण है। रुद्रदामन के जूनागढ़ लेख में भी केवलजिनों का उल्लेख है। भास्कर द्वारा रचित ‘जीवंधर चरित’ से विदित होता है कि शासक जीवंधर ने महावीर का स्वागत-सत्कार किया था। वह निर्ग्रंथ संघ में दीक्षित भी हुआ था।

महावीर के अनुयायी राजकुमारों में अतिमुक्त, पद्म, मेघ, अभय तथा श्रेणिक के राजकुमार आदि के उल्लेख मिलते हैं। महावीर स्वामी ने आर्द्रक नामक राजकुमार को जैनधर्मानुयायी बनाया था, जो कालांतर में प्रव्रज्या ग्रहण कर ‘केवली’ बना। इस आर्द्रक की पहचान अचेमेनीड सम्राट कुरुष से करना उचित नहीं लगता। संभवतः वह किसी ईरानी सामंत का पुत्र था।

जैन अनुश्रुतियों में महावीर स्वामी की राजस्थान क्षेत्र में धर्मदेशना हेतु की गई यात्रा का विवरण मिलता है। 1276 ई. के एक अभिलेख के प्रथम पद्य में भगवान महावीर के स्वयं श्रीमाल आने का वर्णन है। इसकी पुष्टि तेरहवीं शताब्दी के ग्रंथ ‘श्रीमाल महात्म्य’ से भी होती है, जिसके अनुसार श्रीमाल के ब्राह्मणों से रुष्ट होकर गौतम कश्मीर गए थे तथा वहाँ के लोग महावीर स्वामी द्वारा जैनमतानुयायी बनाए गए। श्रीमाल लौटने पर गौतम गणधर ने वैश्यों को जैनधर्मावलंबी बनाया तथा कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र, महावीरजन्मकथा सूत्र तथा अन्य ग्रंथों की रचना की। मुंगस्थल महातीर्थ के जीवंतस्वामी मंदिर में अवस्थित 1369 ई. के एक अभिलेख से पता चलता है कि भगवान महावीर स्वयं अर्बुद भूमि में पधारे थे तथा भगवान के जीवनकाल के सैंतीसवें वर्ष में गणधर केशि ने यहाँ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। यद्यपि परवर्ती होने के कारण इन विवरणों को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता, किंतु तेरहवीं शताब्दी में इस प्रदेश में जैन धर्म को प्राचीन माना जाता था। वैसे मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र संप्रति को पश्चिमी भारत में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार का श्रेय दिया जाता है।

इस प्रकार जैन परंपरा में समकालीन उत्तर भारत के अधिकांश शासकों को जैनमतानुयायी वर्णित किया गया है। जैन तथा बौद्ध दोनों अनुश्रुतियों में समकालीन राजाओं को अपने-अपने धर्म का अनुयायी प्रकट करने हेतु प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है। लगता है कि इस काल तथा परवर्ती युग के शासकों ने विभिन्न धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई थी तथा इसी का परिणाम इन पारस्परिक विरोधी अनुश्रुतियों में प्रतिबिंबित है। जो भी हो, इतना निश्चित है कि भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैन धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था तथा भगवान महावीर के युग में उनका प्रभाव आधुनिक बिहार तथा उत्तर प्रदेश के संलग्न क्षेत्रों में जनसाधारण तक विस्तृत था, यद्यपि इन क्षेत्रों के अतिरिक्त कुछ प्रदेशों के राजाओं ने भी जैन धर्म को आश्रय दिया था।

श्रमण तीर्थ/संघ

भगवान ऋषभदेव इस अवसर्पिणी कालचक्र के प्रथम तीर्थंकर थे। उन्होंने मनुष्य को कर्म की विधि तथा उसके महत्त्व से परिचित कराया तथा कर्मयुग की संस्थापना की। कर्म विज्ञान से सतयुगीन मानव को परिचित कराने के पश्चात् ऋषभदेव ने जनता को धर्म-विज्ञान से परिचित कराने के लिए महाभिनिष्क्रमण किया तथा कैवल्य पद प्राप्त कर धर्मतीर्थ की संस्थापना की। उन्होंने मानव को संदेश दिया कि धर्म ही वह अमृत तत्त्व है जो आत्मा को उसके परम स्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित करता है। धर्मामृत का पान करके आत्मा सदा-सदा के लिए जन्म तथा मृत्यु के विष से मुक्त हो जाती है।

धर्म तथा कर्म के संदर्भ में विश्व मानव के आदि संस्कारक भगवान ऋषभदेव ही थे। ऋषभदेव ने ही विश्व में प्रथम बार धर्मचक्र का प्रवर्तन कर धर्मतीर्थ के रूप में चतुर्विध संघ की संस्थापना की। इस प्रकार कालांतर में जब समाज में विकृतियों, कुप्रथाओं तथा कर्मकांडों की बहुलता के कारण धर्मतत्त्व की ज्योति मंद पड़ने लगी, तो ऋषभदेव की परंपरा के अंतिम स्वयंभू (तीर्थंकर) अनुत्तर योगी महावीर ने जैन धर्म अथवा श्रमण संघ का पुनर्संस्कार कर ज्योति को पुनः प्रज्वलित कर दिया।

भगवान महावीर ने अनंत ज्ञान तथा अनंत दर्शन से साक्षात्कार साधकर परमपद ‘कैवल्य’ प्राप्त किया। परमपद पर प्रतिष्ठित महावीर ने जन्म-मरण, आधि, व्याधि तथा उपाधि के दावानल में सुलगते जीव-जगत को देखा। उनकी आत्मा से प्रस्फुटित होकर करुणा अनंत-अनंत धाराओं में बह चली। अपने निर्ग्रंथ (गाँठरहित अर्थात् बंधनों से मुक्त) मत के प्रचार के लिए उन्होंने बिहार तथा उत्तर प्रदेश के अनेक स्थानों पर विहार (भिक्षुओं के मठ) स्थापित किए। उन्होंने जैनमत में दीक्षित करने के लिए सरल पद्धति अपनाई तथा उसमें शामिल होने के इच्छुक सभी स्त्री-पुरुषों को अपने संघ में सम्मिलित किया, चाहे वे जिस वर्ण के, जाति के हों, तथा सबके लिए अलग-अलग व्यवहार-नियम निर्धारित किए। उनके उपदेश से असंख्य मनुष्यों में सद्धर्म से जीने की प्यास जागृत हुई।

महावीर ने अपनी अद्भुत संगठन शक्ति के द्वारा गणतंत्र पद्धति—जो तत्कालीन कालखंड में भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का सर्वत्र आधार थी, के आधार पर मुनि तथा गृहस्थ धर्म की अलग-अलग व्यवस्थाएँ बाँधीं तथा मुनि (साधु), आर्यिका (साध्वियाँ), श्रावक (गृहस्थ अनुयायी) तथा श्राविका (गृहस्थिणियाँ) के आधार पर चतुर्विध तीर्थ को सुसंगठित किया। इनमें से प्रथम दो श्रमण परिव्राजकों के थे तथा अंतिम दो गृहस्थों के। उन्होंने चौदह हजार श्रमणों को नौ भागों में विभक्त कर दिया, जो ‘गण’ कहलाए। प्रत्येक गण को प्रमुख शिष्य तथा गणधर के अधीन रखा गया। प्रमुख गणधरों के अधीन पाँच सौ श्रमण ही रखे गए थे।

अंग महाजनपद की राजकुमारी तथा महावीर की प्रमुख शिष्या चंदना इनकी प्रमुख थी। श्रावकों का प्रधान शंखशतक था। श्राविकाओं की मुखिया सुलसा तथा रेवती थीं। इस प्रकार अल्प कालावधि में ही हजारों पुरुष तथा स्त्रियाँ श्रमण, श्रमणी, श्रावक तथा श्राविका के रूप में महावीर-प्रतिपादित धर्म के अनुगामी बन गए थे।

महापरिनिर्वाण

भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में पावा (पावापुरी) में राजा हस्तिपाल के महल में निर्वाण प्राप्त किया था। कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि महावीर को अमावस्या की उस रात्रि को मोक्ष प्राप्त हुआ, जब नौ मल्ल, नौ लिच्छवि तथा अठारह काशी-कोसल के गणराजा पौषधव्रत में थे। इस शुभ दिवस पर मनुष्यों ने दीप संजोए। इस रात्रि ज्ञानरूपी दिव्य प्रकाश चला गया तथा द्रव्योद्योत के द्वारा दीपमाला पर्व का प्रचलन हुआ। जैन परंपरा में महावीर की निर्वाण तिथि 527 ई.पू. मानी जाती रही है, यद्यपि इस संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं।

दिगंबर परंपरा के अनुसार महावीर अकेले प्रवास नहीं करते थे, अपितु उनके साथ श्रमण-श्रमणियाँ भी चलती थीं। उनके प्रचार की भाषा को ‘अनाक्षरी’ माना गया है, जिसे सामान्य लोग समझ नहीं सकते थे। इसी कारण गौतम दुभाषिए का कार्य संपादित कर भगवान महावीर के उपदेशों का अर्धमागधी में अनुवाद करते थे। किंतु इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि भगवान महावीर ने धर्म का प्रचार तत्कालीन क्षेत्रीय लोकभाषा में ही किया था तथा उसी भाषा में उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को आचारांग आदि बारह अंगों में संकलित किया, जो ‘द्वादशांग’ आगम के नाम से प्रसिद्ध है।

महावीर का अलौकिक व्यक्तित्व

भगवान महावीर मानव समाज के प्रमुख एवं विशिष्ट धर्माचार्य थे। प्रगतिशील मानवता के आदर्श हेतु उन्होंने स्वयं आवश्यकता की अनुभूति के द्वारा संतप्त मानव-समुदाय का न केवल मार्गदर्शन किया, अपितु आचार-संहिता का व्यवहारिक यम-नियम भी निर्धारित किया। उन्होंने पहले स्वयं आचार-संहिता का सकुशलतापूर्वक पालन किया तथा तत्पश्चात् धर्मदेशना द्वारा जन-जन में उसका प्रचार किया। महावीर प्राणिमात्र की भलाई तथा कल्याण में विश्वास करते थे। उन्होंने एक अलौकिक आदर्श प्रस्तुत कर धन, काम-वासना, शक्ति तथा वैभव के स्थान पर सहनशीलता, संयम, क्षमा, विनम्रता, दया, तप तथा उत्सर्ग के द्वारा परमसुख प्राप्त होने का पथ आलोकित किया। उद्देश्य की प्राप्ति हेतु महावीर ने मन, वचन तथा काया से अहिंसा के पालन पर जोर दिया।

अनुत्तर योगी महावीर श्रमणों में अद्वितीय बुद्धिमान, अनंत ज्ञानी तथा अनंतदर्शी थे। उन्होंने दीपक की भाँति लोक के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले धर्म का कथन किया। वे क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी समस्त मतवादियों के मतों के ज्ञाता थे। वे पृथ्वी के समान सहिष्णु, धीर तथा उदार थे। चूँकि वे सर्वबंधनों से मुक्त हो चुके थे, अतएव उन्होंने प्रत्येक वस्तु का हर सम्भव परित्याग किया।

भगवान महावीर जाति, वर्ग तथा लिंग के आधार पर व्यवहार करने के पक्षपाती नहीं थे। उन्होंने मुक्ति के द्वार मानवमात्र के लिए खोल दिए ताकि धर्मदेशना के अनुरूप आचार-पथ पर अग्रसर होकर प्रत्येक मुमुक्षु अपने जीवन का कल्याण कर सके। उनके कर्म के सिद्धांत ने सभी कार्यों के प्रति मानव को स्वयं उत्तरदायी निरूपित कर सदैव जागरूक रहने को सतत् प्रेरित किया। महावीर द्वारा प्रतिपादित मुक्ति कोई उपहार नहीं था, बल्कि मुमुक्षु के प्रयत्नों तथा साधना से उपलब्ध चरम लक्ष्य था। कर्म के सिद्धांत द्वारा उन्होंने प्राणिमात्र की चेतना जागृत करने का प्रयास किया ताकि उनके अनुयायीगण सत्य-पथ पर अग्रसर हो सकें।

भगवान महावीर धार्मिक मामलों में अत्यंत उदार थे। उन्होंने समकालीन विभिन्न मत-मतांतरों के प्रति सहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा हेतु स्याद्वाद के माध्यम से अपने अनुयायियों को प्रत्येक धर्माचार्य तथा उनके उपदेशों को समझने तथा सत्य मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया तथा धार्मिक मामलों में उदार दृष्टिकोण के द्वारा तत्कालीन तथा परवर्ती विभिन्न संप्रदायों में धार्मिक सौहार्द का वातावरण स्थापित करने का अनुपम प्रयास किया, जिसके कारण उनके अनुयायियों ने अन्य धर्माचार्यों के प्रशंसनीय विचारों के प्रति सहिष्णु भाव प्रदर्शित किया।

महावीर महामात्य थे। वे केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के धारक, महित, पूजित तथा सत्फल प्रदायी कर्तव्यरूपी संपत्ति से युक्त थे। वे महागोप भी थे, क्योंकि संसाररूपी अटवी में नष्ट, भ्रष्ट तथा विकलांग किए जाने वाले बहुत से प्राणियों का उन्होंने अपने धर्मदंड से संरक्षण एवं गोपन किया तथा स्वयं अपने हाथों से संतप्त प्राणियों को निर्वाणरूपी नौका में सुरक्षित किया। महावीर महाधर्मकथी अर्थात् धर्म के महान उपदेशक तथा महानियमक भी थे।

महावीर स्वामी जैन धर्म के संस्थापक न होकर उसके सुधारक थे। वे एक धार्मिक दार्शनिक प्रतीत होते हैं, जिन्होंने पार्श्वनाथ प्रतिपादित अव्यवस्थित धार्मिक मान्यताओं को न केवल दार्शनिक क्रमबद्धता प्रदान की, अपितु उस समय प्रचलित क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी, अज्ञानवादी आदि दार्शनिक पद्धतियों से सामंजस्य स्थापित कर अपना मौलिक सिद्धांत प्रतिपादित किया। उन्होंने परंपरागत निर्ग्रंथ मत में व्याप्त बुराइयों का परिहार कर उज्ज्वल धर्म का प्रतिपादन किया तथा पार्श्वनाथ के चतुर्याम धर्म का संस्कार कर ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत घोषित किया। अपरिग्रह पर अत्यधिक जोर देकर भगवान महावीर ने अचलकत्व के जिनकल्प आदर्श को अनुकरणीय बताया। उन्होंने निर्ग्रंथ धर्म की दार्शनिक मान्यताओं को अपने मौलिक सिद्धांतों के द्वारा तर्कपूर्ण स्वरूप प्रदान किया। चतुर्विध संघ की उत्तम व्यवस्था उनके नेतृत्व क्षमता का प्रमाण है।

महावीर की शिक्षाएँ

जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया तथा उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग-मोक्षमार्ग का नेता तीर्थप्रवर्तक ‘तीर्थंकर’ कहा गया। जैन सिद्धांत के अनुसार ‘तीर्थंकर’ नाम की एक पुण्यप्रशस्ति कर्मप्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते हैं तथा वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है कि ‘बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना’ अर्थात् बिना तीर्थंकर पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।

पार्श्वनाथ एवं महावीर की शिक्षाएँ अपने वास्तविक स्वरूप में विद्यमान नहीं हैं। जैन अनुयायी दुःखवाद, कर्म के सिद्धांत, संसार तथा पुनर्जन्म जैसे सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं। पार्श्वनाथ तथा महावीर दोनों ने वेदों की असीमित सत्ता तथा यज्ञीय कर्मकांडों का खंडन किया है। पार्श्वनाथ ने सर्वप्रथम चतुर्याम—अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह का सिद्धांत प्रस्तुत किया। पार्श्वनाथ के इस चतुर्याम का उल्लेख बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। भगवान महावीर ने अहिंसा को धर्म का मूलाधार बनाया तथा पार्श्वनाथ के चतुर्याम में पाँचवें ब्रह्मचर्य का समावेश कर पंचयाम का प्रतिपादन किया था।

महावीर के सिद्धांत सरल, व्यवहारिक तथा नैतिक थे। इन व्रतों या यमों का पालन मुनियों के लिए पूर्णरूप से महाव्रत कहलाया तथा गृहस्थों के लिए स्थूलरूप अणुव्रत। महावीर तथा उनके शिष्यों ने न केवल सत्य के स्वभाव तथा आदर्श के सैद्धांतिक पक्ष का प्रतिपादन किया, अपितु उन दोनों की उपलब्धि का व्यवहारिक एवं संयमशील मार्ग भी प्रशस्त किया।

पंचमहाव्रत

हिंसा

जैनाचार की मूलभिति अहिंसा है। कल्पसूत्र के अनुसार अहिंसा तथा कायाक्लेश त्यागते समय कीटाणुओं की हिंसा नहीं होनी चाहिए। समस्त प्रकृति जो जड़ दिखती है वह भी प्राण से युक्त है तथा जीवित हो सकती है। जैन धर्म के अनुसार समस्त प्राणी—बीज, अंकुर, पुष्प, गुफाएँ, ओस, कुहरा, ओले आदि—में सजीवता है। प्रत्येक आत्मा चाहे वह पृथ्वी-संबंधी हो, जलगत हो, कीट-पतंग हो, पशु-पक्षी हो या मानव हो, तात्त्विक दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। जैन दृष्टि का यह साम्यवाद भारतीय संस्कृति का गौरव है। इसी साम्यवाद के आधार पर जैन परंपरा ‘जीओ और जीने दो’ का उद्घोष करती है। जैन धर्म में हिंसा जीवों तक सीमित न होकर मन, वचन, कर्म तीनों क्षेत्रों में विस्तृत है। अहिंसा के पूर्ण पालन के लिए निम्नलिखित पाँच भावनाओं का पालन करना आवश्यक है—

  • ईर्यासंयम (गमनागमन संबंधी सावधानी)—ऐसे मार्ग में चलना जहाँ कीटाणु न हों।
  • भाषासंयम (वचन की अपापकता)—मधुर वाणी का प्रयोग तथा वाणी हिंसा रोकना।
  • एषणासंयम (खान-पान संबंधी सावधानी)—भोजन में जीव हिंसा रोकना।
  • आदाननिक्षेपसंयम (पात्रादि उपकरण संबंधी सावधानी)—श्रमणों द्वारा अपनी सामग्री को ठीक ढंग से रखना तथा हिंसा बचाना।
  • उत्सर्गसंयम (मानसिक विकार रहितता)—मलमूत्र त्यागते समय कीटाणुओं की हिंसा से बचना।

इन तथा इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाएँ अहिंसाव्रत को सुदृढ़ करती हैं।

सत्य

मिथ्या वचन का परित्याग ही सत्य है तथा सत्य का आदर्श सूनृत है। सूनृत से तात्पर्य ऐसे सत्य से है जो सभी के लिए प्रिय एवं हितकारी हो—‘प्रिय पथ्यं वचस्तत्सत्यं सूनृत व्रतमुच्यते।’ सत्य होने पर भी अवज्ञासूचक शब्दों का प्रयोग न करें, किंतु सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करें। इस व्रत का पालन भी मन, वचन तथा कर्म से करना चाहिए। सत्य के लिए भी पाँच उपनियम बताए गए हैं—

  • अनुबिमभाषी (वाणी विवेक)—सोच-समझकर भाषा का प्रयोग करना।
  • लोभपरिजानाति (लोभ त्याग)—लोभ की भावना जागृत होने पर मौन ग्रहण करना।
  • क्रोधपरिजानाति (क्रोध त्याग)—निर्ग्रंथ साधुओं को क्रोध आने पर मौन रहना।
  • हासपरिजानाति (हास्य त्याग)—हँसी-मजाक न करना।
  • भयपरिजानाति (भय त्याग)—निर्भीक रहना।

इस प्रकार श्रमण को क्रोधादि कषायों का त्याग कर समभाव धारण कर विवेकपूर्वक संयमित सत्याचरण करना चाहिए।

अस्तेय

श्रमण बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करता। वह बिना अनुमति के एक तिनका उठाना भी स्तेय अर्थात् चोरी समझता है। जिस प्रकार वह स्वयं अदत्तादान का सेवन नहीं करता, उसी प्रकार किसी से करवाता भी नहीं तथा करनेवालों का समर्थन भी नहीं करता। अस्तेय की दृढ़ता एवं सुरक्षा के लिए भी पाँच उपनियम बताए गए हैं—

  • बिना आज्ञा के किसी के गृह में प्रवेश न करना।
  • आचार्य आदि की आज्ञा के बिना भिक्षार्जित भोजन ग्रहण न करना।
  • बिना अनुमति किसी के घर में निवास न करना।
  • बिना गृहस्वामी की आज्ञा के उसकी वस्तु का उपयोग न करना।
  • सहधार्मिक से परिमित वस्तुओं की याचना करना।
अपरिग्रह

किसी भी वस्तु का ममत्वपूर्वक संग्रह परिग्रह कहलाता है। श्रमण न तो संग्रह करता है, न करवाता है तथा न करने वालों का समर्थन करता है। यही नहीं, वह अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता। वस्तुतः जो ममत्व का त्याग कर सकता है, वही परिग्रह का त्याग कर सकता है। संयम निर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्पतम वस्तुएँ अपने पास रखता है, उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता। परिग्रह का दूसरा नाम ग्रंथि (गाँठ) भी है। जितनी अधिक गाँठें बाँधी जाती हैं, उतना ही अधिक परिग्रह बढ़ता है। यह गाँठ जब तक नहीं खुलती, तब तक विकास का द्वार बंद रहता है। महावीर ने ग्रंथिभेदन पर अधिक जोर दिया, इसीलिए उनका नाम निर्ग्रंथ पड़ा तथा उनकी परंपरा भी निर्ग्रंथ संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। अपरिग्रह व्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं—

  • श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द के प्रति अनासक्त भाव।
  • चक्षुरेन्द्रिय के विषय रूप के प्रति अनासक्त भाव।
  • घ्राणेन्द्रिय के विषय गंध के प्रति अनासक्त भाव।
  • रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव।
  • स्पर्शेन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति अनासक्त भाव।
ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य का विधान महावीर की देन मानी जाती है। श्रमण के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है। मैथुन-त्याग को सर्वमैथुनविरमण कहा जाता है। श्रमण के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है। उसके लिए मन, वचन एवं काय से मैथुन का सेवन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का निषेध है। इसे नवकोटि ब्रह्मचर्य अथवा नवकोटिशील भी कहते हैं। वासनाओं का पूर्ण परित्याग ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के पालन के लिए निम्नोक्त पाँच उपनियमों का निर्देश दिया गया है—

  • किसी स्त्री से बात न करना।
  • स्त्री के अंगों का अवलोकन न करना।
  • नारी-संसर्ग न करना। (मक्खलि गोशाल से महावीर के बीच मतभेद में यह एक प्रमुख कारण था। आजीवक अपने भिक्षुओं को संसर्ग की अनुमति देते हैं।)
  • मात्रा का अतिक्रमण कर भोजन न करना।
  • स्त्री आदि से संबद्ध स्थान में न रहना।

गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले जैनियों के लिए भी इन्हीं व्रतों की व्यवस्था है, किंतु इनकी कठोरता में पर्याप्त कमी की गई है तथा इसलिए इन्हें ‘अणुव्रत’ कहा गया है।

त्रिरत्न

जैन धर्म में कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का विधान किया गया है (सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित्राणि मोक्षमार्ग)। यही मोक्ष का मार्ग है। मोक्ष-प्राप्ति के इन तीनों साधनों को जैन दर्शन में ‘रत्नत्रय’ की संज्ञा दी गई है— १. सम्यक् दर्शन, २. सम्यक् ज्ञान तथा ३. सम्यक् चरित्र।

सत् में विश्वास ही सम्यक् दर्शन है। सद्रूप का असंदिग्ध तथा दोषरहित ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। कर्मों के पूर्ण विनाश के बाद ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख के प्रति समभाव सम्यक् आचरण है। सम्यक् चरित्र से अभिप्राय अनासक्ति की भावना से नैतिक सदाचारमय जीवन व्यतीत करना है। इसके पालन के लिए ‘पंचमहाव्रत’ का विधान है।

शीलव्रत

शीलव्रत दैनिक जीवन की क्रियाएँ हैं जो मुख्यतः दो प्रकार की हैं—

  1. शिक्षाव्रत
  2. गुणव्रत।
शिक्षाव्रत

 शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। श्रावक (गृहस्थ) को कुछ व्रतों का बार-बार अभ्यास करना होता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा जाता है। शिक्षाव्रत के निम्न चार भाग हैं—

  • समायिक—मन, कर्म एवं वचन की पवित्रता-शुद्धता के साथ त्रस तथा स्थावर के प्रति समभाव का अभ्यास।
  • प्रोषधोपवास—उपवास रखकर तीर्थंकरों एवं देवों का ध्यान।
  • भोगोपभोगपरिमाण—आत्मतत्त्व के पोषण के लिए उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना।
  • अतिथिसंविभाग—गृह आए साधु-संतों, अतिथि आदि के निमित्त अपनी आय का एक निश्चित भाग करना।
गुणव्रत

पंचव्रतों की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचारशास्त्र में तीन गुणव्रतों की व्यवस्था की गई है—

  • अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्यवसाय आदि प्रवृत्तियों के निमित्त दिशाओं की मर्यादा निश्चित करना (दिशापरिमाण व्रत)।
  • उपभोग एवं परिभोग की मर्यादा निश्चित करना (उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत)।
  • अपने अथवा अपने कुटुंब के जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना (अनर्थधंडविरमण व्रत)। गुणव्रत से प्रधानतः अहिंसा एवं अपरिग्रह का पोषण होता है।
चारित्र

जैन धर्म में बंधन से मुक्ति के लिए पाँच चारित्रों का विधान बताया गया है—

  • सामायिक चारित्र—समभाव में रहना।
  • छेदोपस्थापन—गुरु के समीप अपने पूर्व दोषों को स्वीकार कर दीक्षा लेना।
  • परिहारविशुद्धि।
  • सूक्ष्मसंप्राय—लोभ के अंश को छोड़कर क्रोध आदि कषायों का उदय न होना।
  • यथाख्यात—सभी कषायों का निरोध होना। चारित्र की प्राप्ति मन, वचन तथा काय के संयम से होती है।
गुप्तियाँ तथा तप

जैन धर्म में तीन गुप्तियाँ स्वीकार की गई हैं—मनोगुप्ति, वचोगुप्ति एवं कायगुप्ति। इन तीनों के पालन से उन आस्रवों का त्याग हो जाता है जो कर्मों को उत्पन्न करने में सहायक होती हैं। इस चरण की प्राप्ति हेतु बाह्य एवं आभ्यंतर तप का विधान है। जो मुनि इन तपों को निश्चल एवं पूर्णरूपेण करता है, वह केवली की स्थिति में पहुँचता है।

दशलक्षण धर्म

जैनग्रंथ समवायांग में श्रमणों के दस गुणों का वर्णन है। राग-द्वेष रहित आत्मा का सहज स्वभाव क्षमा, मृदुता, सरलता, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य हैं। जैनों के अनुसार धर्म के इन दस लक्षणों एवं अंगों का पालन अति आवश्यक है।

कायाक्लेश

जैन धर्म में कायाक्लेश, तप, यातना तथा योग पर भी अत्यधिक बल दिया गया है। आत्मा को घेरने वाले भौतिक तत्त्व का दमन करने के लिए तपस्या तथा कायाक्लेश भी आवश्यक है। जैन धर्म में कायाक्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा शरीर के अंत का भी विधान है। जैन अनुश्रुति के अनुसार मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त ने मैसूर के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर इसी प्रकार मृत्यु का वरण किया था।

जैन धर्म निवृत्तिमार्गी धर्म है। इसके अनुसार संसार के समस्त सुख दुःखमूलक हैं। मनुष्य जरा तथा मृत्यु से ग्रस्त है। व्यक्ति की तृष्णा तथा इच्छाएँ आकाश के समान अनंत हैं; संपत्ति संचय के साथ उसकी इच्छाएँ बढ़ती जाती हैं। जैन धर्म दुःखों से छुटकारा पाने हेतु तृष्णाओं के त्याग पर बल देता है। कामभोग विष के समान हैं जो अंततः दुःख ही उत्पन्न करते हैं। संसार-त्याग तथा संन्यास ही व्यक्ति को सच्चे सुख की ओर ले जा सकता है।

जैन धर्म के अनुसार इस सृष्टि का कर्ता कोई ईश्वर नहीं है, किंतु संसार एक वास्तविक तत्त्व है जो अनादिकाल से विद्यमान है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते हैं तथा कर्मफल भोगते हैं। जैन धर्म में भी सांसारिक तृष्णाबंधन से मुक्ति को ‘निर्वाण’ कहा गया है। कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है। कर्मफल से छुटकारा पाकर ही मानव निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि पूर्वजन्म के संचित कर्म को समाप्त किया जाए (संवर) तथा वर्तमान जीवन में कर्मफल के संग्रह से बचा जाए (निर्जरा)।

महावीर ने वेदों की प्रामाणिकता को नहीं माना तथा वेदवाद का विरोध किया। उन्होंने वैदिक यज्ञवाद के विरुद्ध त्याग तथा संन्यासप्रधान जीवन को स्थापित किया। घोर अहिंसावादी होने के कारण रक्तिम यज्ञों तथा उनमें दी जाने वाली बलि और जटिल कर्मकांडों का विरोध करना जैन धर्म के लिए स्वाभाविक था। महावीर का मानना था कि यज्ञ में जीवों का विनाश पाप उत्पन्न करता है। अग्निप्रज्ज्वलन तथा जलमज्जन केवल बाहरी शुद्धता प्रदान कर सकते हैं। जैन मत की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह कर्तव्यों का निर्देश जातिवाद से ऊपर उठकर मनुष्यमात्र के लिए एक ही आचार-पद्धति का निर्देश देता है।

महावीर स्वामी ने जन्मना वर्णप्रथा को अस्वीकार कर दिया तथा कर्म को वर्ण तथा जाति का आधार माना। कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता है तथा कर्म से ही कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। सामाजिक धरातल पर ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों की अधिक प्रतिष्ठा पर जैन ग्रंथों में बल दिया गया है।

जैन धर्म किसी सृष्टिकर्ता ईश्वर के अस्तित्व को नहीं स्वीकार करता। विश्व जैन जीवों (चेतनाओं) एवं पुद्गलों (पदार्थों) का समुच्चय है; वे तत्त्वतः अविनाशी एवं अनंत हैं। किसी भी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती; मात्र पदार्थ में अवस्थाओं का रूपांतरण होता रहता है। जीव या आत्मा स्वेच्छानुसार एवं सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में स्वतंत्र है। उसका सुख-दुःख उसके अपने कर्मों तथा भावों पर निर्भर करता है। वह अपने ही कर्मों का फल भोगता है; फलप्रदाता कोई दूसरा नहीं है। जो कुछ कर्म हम करते हैं तथा उनके जो फल हैं, उसके बीच कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिए जाने के बाद कर्म हमारे प्रभु बन जाते हैं तथा उनके फल भोगने ही पड़ते हैं।

इस प्रकार जैन धर्म प्रतिपादित करता है कि कल्पित एवं सर्जित शक्तियों के पूजन से नहीं, अपितु त्रिरत्न (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चरित्र) के द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार संभव है; मुक्ति संभव है। मुक्ति दया का दान नहीं है; यह प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके लिए ईश्वर या परमशक्ति की सत्ता में विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

पार्श्वनाथ तथा महावीर की शिक्षाओं में अंतर

पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह के चतुर्याम का विधान किया था; महावीर ने उसमें ब्रह्मचर्य को पाँचवें व्रत के रूप में सम्मिलित कर उसे पंचयाम किया।

दूसरे, पार्श्वनाथ वस्त्रधारण के विरुद्ध नहीं थे, किंतु महावीर स्वामी ने सांसारिकता से पूर्णरूपेण अनासक्ति के लिए नग्नता को आवश्यक माना। नग्नता से कायाक्लेश तथा अपरिग्रह को प्रोत्साहन मिलता है। कालांतर में वस्त्रधारण तथा निर्वस्त्रता के आधार पर जैन धर्म श्वेतांबर तथा दिगंबर दो संप्रदायों में विभक्त हो गया। आधारतः उनके मूल सिद्धांतों में कोई भेद नहीं था तथा उनके तात्त्विक विचार समान थे।

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