भगवान महावीर और उनकी शिक्षाएँ (Lord Mahavira and his Teachings)

भगवान महावीर

छठी शताब्दी ई.पू. के संप्रदायों में प्राचीनतम् संप्रदाय निगंठों अथवा जैनों का था। जैन परंपरानुसार इस धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। महावीरपूर्व प्रवर्तमान काल के तेईस तीर्थंकरों में से आज इतिहास प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ, 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक अस्तित्त्व स्वीकार करता है।

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे, किंतु पार्श्वनाथ संभवतः इस धर्म के वास्तविक संस्थापक थे। इनका जन्म वाराणसी के राजा अश्वसेन की पत्नी वामा (वर्मला) के उदर से हुआ था। इनका समय महावीर के 250 वर्ष पूर्व था। पार्श्वनाथ तीस वर्ष की आयु में गृह-त्याग कर संन्यासी हो गये। इन्होंने सम्मेय पर्वत (पारसनाथ पर्वत) पर 83 दिन की कठोर तपस्या के बाद कैवल्यज्ञान प्राप्त किया और 70 वर्ष तक अपने उपदेशामृत द्वारा जनकल्याण करते हुए सम्मेद शिखर (पार्श्वनाथ गिरि, हजारी बाग) पर निर्वाण प्राप्त किया। इनके अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा जाता था। पार्श्वनाथ के समय में निर्ग्रंथ संप्रदाय चार गणों (संघों) में सुसंगठित था।

पार्श्वनाथ भी वैदिक यज्ञ, कर्मकांड, देववाद, वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा के कटु आलोचक थे। वे प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष का अधिकारी मानते थे चाहे वह किसी भी जाति का हो। उन्होंने नारियों को भी अपने धर्म में साध्वी अथवा श्राविका के रूप में प्रवेश देकर मुक्ति की ओर उन्मुख होने का अवसर प्रदान किया। उन्होंने चार यम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का उपदेश दिया, इसलिए इनके धर्म को ‘चतुर्याम्’ कहा गया है। महावीर के माता-पिता भी ‘पार्श्वपत्यीय’ परंपरा के अनुयायी थे।

वर्धमान महावीर का जीवन

वर्धमान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान ऋषभनाथ की परंपरा में 24वें जैन तीर्थंकर थे। वे जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, अपितु इस धर्म के अंतिम तथा सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थंकर थे। महावीर का जन्म 599 ईसापूर्व बिहार प्रांत में विदेह क्षेत्र के अंतर्गत वैशाली (आधुनिक बनिया बसाढ़) के समीपवर्ती स्थित कुंडपुर (कुण्ंडग्राम) के क्षत्रियकुंड में हुआ था। इनके माता-पिता पार्श्वनाथ की परंपरा के अनुयायी थे। इनके पिता ज्ञातृवंशीय सिद्धार्थ वज्जि संघ के एक प्रमुख गणराज्य कुंडपुर के राजा थे। इनकी माता का नाम प्रियकारिणी, विदेहदिन्ना, त्रिशला था, जो जैन पुराणों के अनुसार लिच्छवि गणराज्य के प्रमुख चेटक की बहन थीं।

आचारांगसूत्र एवं कल्पसूत्र की परंपरा के ग्रंथों में वर्णित है कि नयसार का जीव पहले कुंडग्राम के ब्राह्मण ऋषभदत्त की पत्नी देवानंदा की कुक्षि में गर्भरूप से आया। 83वीं रात्रि में हरिणैगमेषी ने अपने दिव्य प्रभाव से भगवान महावीर के गर्भ को देवानंदा के गर्भ से त्रिशला की कुक्षि में प्रतिष्ठित कर दिया क्योंकि तीर्थंकर क्षत्रिय-कुल में ही जन्म लेते हैं। भगवती सूत्र में इस तथ्य को भगवान महावीर के मुख से ही उद्घाटित किया जाना वर्णित है। संभवतः ब्राह्मण वर्ग की अपेक्षा क्षत्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर बल देने के कारण यह कथा निर्मित की गई। गर्भ-परिवर्तन की इस घटना का समर्थन मथुरा के एक मूर्तिखंड से होने का दावा किया जाता है, जो संदेहास्पद है।

एच. जैकोबी का अनुमान है कि राजा सिद्धार्थ की दो पत्नियाँ थीं- ब्राह्मणी देवानंदा और क्षत्राणी त्रिशला। ऋषभदत्त को देवनंदा के पति के रूप में मान्य करने की परंपरा परवर्ती है। जैकोबी के अनुसार वर्धमान को अधिक राजकीय प्रतिष्ठा देने के लिए त्रिशला के सौतेले पुत्र की अपेक्षा पुत्र के रूप में ही विख्यात कर दिया गया। किंतु जैकोबी की इस मान्यता को सबल प्रमाणों के अभाव में स्वीकार करना कठिन है। यह भी स्वीकार करना संभव नहीं है कि वर्धमान को ब्राह्मण-दंपति ने सिद्धार्थ और त्रिशला को दत्तक दे दिया था।

भगवान महावीर को गर्भ में धारण करने वाली रात माता त्रिशला ने चौदह शुभ-स्वप्न देखे थे, जिनका विवरण कल्पसूत्र में उपलब्ध है। तीर्थंकर के गर्भ में अवतरण के पूर्व स्वप्न में गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चंद्र, सूर्य, ध्वजा, कुंभ, पद्म, सरोवर, समुद्र, विमान, रत्नराशि और निर्धूम अग्नि देखने की जैन परंपरा प्राचीन है। दिगम्बर जैन परंपरा में इन चौदह स्वप्नों में ‘सिंहासन’ और ‘धरणेंद्र का महल’ जोड़कर सोलह स्वप्न माने गये हैं, साथ ही ध्वजा के स्थान पर दो मछलियाँ तथा एक के बजाय दो कुंभ की मान्यता है। जैन धर्म में मान्य इन मांगलिक प्रतीकों का आयागपट्ट पर अंकन ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी में होने लगा था। वर्धमान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को मध्यरात्रि के समय उत्तर-फाल्गुनी नक्षत्र में त्रिशला कुक्षी से होने की परंपरा सर्वमान्य है।

प्रारंभिक जीवन

जैन-ग्रंथों में वर्धमान के शैशवकाल से संबंधित उपाख्यान, कथाएँ और चमत्कारिक घटनाओं का विवरण सुरक्षित है। कथानकों से ज्ञात होता है कि महावीर के जन्म की खुशियाँ मनुष्यों और देवताओं ने समान रूप से मनाई थी। सिद्धार्थ-त्रिशला युगल ने नवजात पुत्र का नाम ‘वर्धमान’ रखा क्योंकि बालक के जन्म लेते ही परिवार के धन, धान्य, कोष, भंडार, बाल, वाहन, यश और गुण-प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि होने लगी थी। श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन-शास्त्रों में वर्धमान महावीर के अतुलबल से संबंधित अनेक विवरण संग्रहीत हैं।

वर्धमान का प्रारंभिक जीवन सुख-सुविधापूर्ण था। उनका व्यक्तित्व सुंदर और प्रभावशाली था और वे सर्वगुण-संपन्न, दक्ष तथा अत्यंत कुशाग्र बुद्धियुक्त थे। राजकुमार होने के कारण इन्हें अनेक विद्याओं तथा कलाओं की शिक्षा दी गई। बड़े होने पर उनका विवाह कौडिण्य गोत्र की कन्या यशोदा से हुआ, जो या तो बसंतपुर के राजा समरवीर या कलिंग के शासक जितमित्र की पुत्री थी। इससे वर्धमान की एक पुत्री प्रियदर्शना (अणोज्जा) उत्पन्न हुई थी, जो उनके भानजे क्षत्रिय जामालि से ब्याही गई थी। जामालि ने भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की थी, परंतु कालांतर में उसने धर्मसंघ में भेद डालकर अलग संघ प्रतिष्ठित कर लिया।

सांसारिक जीवन का त्याग

वर्धमान प्रारंभ से ही चिंतनशील प्रवृ़त्त के थे। तीस वर्ष की आयु में पिता के मरणोपरांत वर्धमान की सांसारिक जीवन त्यागकर प्रव्रज्या ग्रहण करने की सुप्त लालसा जागृत हो गई। उन्होंने पिता के उत्तराधिकारी ज्येष्ठ भ्राता नंदिवर्धन तथा अन्य कौटुबिक लोगों की अनुमति लेकर से मात्र एक वस्त्र धारण करके चंद्रप्रभा नामक पालकी में सवार होकर ज्ञातृकों के खंडवन नामक उद्यान की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर वे पालकी से उतरकर एक अशोक वृक्ष के नीचे अपने समस्त आभूषणों को त्याग दिये और सिर के बालों को पाँच मुष्टियों में उखाड़ कर निर्ग्रंथ-भिक्षु का जीवन धारण कर लिया। तत्पश्चात् वर्धमान ने कठोर तप, काया-क्लेश और आत्महनन के माध्यम से ज्ञान-प्राप्ति की चेष्टा की।

आत्म-साधना और सर्वोच्चावस्था (कैवल्य) प्राप्ति

आचारांगसूत्र में धार्मिक गाथा के रूप में साधना के उन बारह वर्षों का विशद् वर्णन है, जिसमें महावीर ने ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या की थी। साररूप में कल्पसूत्र के विवरण से भी आचारांग में वर्णित गाथा की पुष्टि होती है। दोनों ही ग्रंथों से पता चलता है कि केवली पद को प्राप्त करने हेतु की गई इस कठोर साधना में वर्धमान को अतिशय कठिन मानवीय प्रयास करने पड़े थे। आत्म-साधना और विभिन्न परीषहों तथा उपसर्गों को सहते हुए तेरहवें वर्ष में वर्धमान को जम्भियगाम (जम्भियगाँव) के बाहर ऋजुपालिका (ऋतुबालुका) नदी के तट पर श्यामांग गृहस्थ के खेत में शाल वृक्ष के नीचे ‘कैवल्य’ (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति हुई और वे सुख-दुःख के बंधनों से मुक्त होकर ‘केवली’ हो गये।

इस पुनीत स्थल का समीकरण मुनि कल्याणविजय ने हजारीबाग जिला अंतर्गत दामोदर नदी के निकटवर्ती जम्भियगाँव से किया है। किंतु इस ग्राम की स्थिति बिहारशरीफ के निकट स्थापित पावा तीर्थ के आसपास मानी जा सकती है। विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दुख-सुखादि, अहंकार, प्रारब्ध, कर्म और संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति को ‘कैवल्य’ कहते हैं। जैन परंपरा में इस सर्वोच्चावस्था (कैवल्य) प्राप्ति के महत्त्वपूर्ण क्षण का विशद् वर्णन किया गया है।

कैवल्य-प्राप्ति के उपरांत महावीर अर्हत्, केवली, जिन्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आदि संज्ञाओं के धारक हुए। अपनी समस्त इंद्रियों को जीतने के कारण वे ‘जिन्’ कहलाये। भय उत्पन्न होनेवाली स्थिति में अचल रहनेवाले, अपने संकल्प से तनिक मात्र भी विचलित नहीं होनेवाले, निष्कंप परीषहों और उपसर्गों को शांत भाव से सहन करने में समर्थ, भिक्षा-नियमों का दृढ़ता से पालन करनेवाले, शोक और हर्ष में समभावी, सद्गुणों के आगार तथा अतुलबली होने के कारण वर्धमान को ‘महावीर’ कहा गया। सहज शारीरिक एवं बौद्धिक परिश्रम और शक्ति से उन्होंने तप आदि नानाविध आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर आरूढ़ होकर कठोर परिश्रम किया, एतदर्थ वे श्रमण कहलाये। बौद्ध साहित्य में इन्हें ‘निगंठ नाटपुत्त’ (निर्ग्रंथ ज्ञातपुत्र) कहा गया है। निर्ग्रंथ इसलिए कि उन्होंने समस्त बंधनों को तोड़ दिया था, ज्ञातृपुत्र इसलिए कि वे ज्ञातृक वंशीय राजा के पुत्र थे।

केवली हो जाने के पश्चात् महावीर से लोक का कोई भी रहस्य छिपा नहीं रहा और वे उस काल में मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों में रहते हुए, समस्त लोक तथा समस्त जीवों के संपूर्ण भावों को जानते और देखते हुए विचरण करने लगे थे।

मख्खलिपुत्र गोशाल से  भेंट

महावीर के साधनाकाल की महत्त्वपूर्ण घटना आजीवक संप्रदाय के प्रधान मख्खलिपुत्र गोशाल से नालंदा के तंतुवायशाला में भेंट होना है। इसके बाद गोशाल छः वर्ष तक महावीर के साथ रहा, किंतु अपने नियतिवाद के सिद्धान्ंत के कारण वह महावीर के कर्म-सिद्धांत का विरोधी हो गया और स्वयं आजीवक मत की स्थापना की। बी.एम. बरुआ को गोशाल के संबंन्ध में जैन परंपरा पक्षपातपूर्ण प्रतीत होती है।

कैवल्य के पश्चात् महावीर धर्मोपदेश देकर लोगों को अपने मत में दीक्षित करते हुए इधर-उधर घूमते रहे। अपने इस भ्रमण के दौरान उन्हें अपार कष्ट सहना पड़ा। इन्हें उद्यानशाला, नगर-श्मशान, आवास स्थानों में दुष्टजन एवं ग्रामों के रक्षा-पुरुषों तथा शक्तिधारी सैनिकों से, गृहस्थी के प्रलोभनों, शीत के घोर कष्ट आदि को सहना पड़ा। पश्चिम बंगाल (राढ़) के मार्गरहित प्रदेश, ब्रजभूमि, वीर भूमि आदि में यात्रा करते समय उन्हें घोर कष्ट उठाना पड़ा। इन स्थानों पर लोगों ने उनसे हिंसात्मक व्यवहार किया। उन पर कुत्ते छोड़े गये और अपशब्द कहे गये। इन यात्राओं के दौरान महावीर ने पहला वर्षवास अस्थिक ग्राम में व्यतीत किया, तीन चातुर्मास्य चंपा तथा पष्ठियंपा में, बारह वैशाली तथा वण्यि ग्राम में, चौदह राजगृह, छः मिथिला में, दो भद्विका में, एक अलभिका में, एक ब्रजभूमि (पणित भूमि) में, एक श्रावस्ती में तथा एक पावापुरी में व्यतीत किये। इसी पावा (पावापुरी, जिला नालंदा) में राजा हस्तिपाल के महल में कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन 72 वर्ष की आयु में 527 ई.पू. में महावीर चतुर्विध अघाती कर्म-दल का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए थे। जैन परंपरा में महावीर की निर्वाण-तिथि 527 ई.पू. मानी जाती है।

धर्मोपदेश और प्रसार-क्षेत्र

श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर की प्रथम धर्मदेशना हेतु ऋतुबालुका नदी के तट पर समवशरण की रचना की गई थी। माना जाता है कि प्रथम धर्मदेशना से प्रभावित होकर किसी भी व्यक्ति ने सर्वविरति महाव्रत धारण नहीं किया था। किंतु इस धर्मदेशना को असफल नहीं माना जा सकता है क्योंकि महावीर ने द्वितीय समवशरण में मज्झिम पावा पहुँचकर ग्यारह विद्वान ब्राह्मणों को जैन मतावलंबी बनाने में सफलता प्राप्त की। महावीर स्वामी के इन्हीं ग्यारह प्रधान शिष्यों को ‘गणधर’ कहा गया है।

दिगम्बर परंपरानुसार केवलज्ञान होने पर भी भगवान महावीर ने मौनव्रत नहीं तोड़ा था और राजगृह में विपुलाचल पर गौतम इंद्रभूति सहित ग्यारह ब्राह्मणों को निर्ग्रंथ-धर्म में दीक्षित किया था। कल्पसूत्र, आवश्यकनिर्युक्ति तथा आवश्यकचूर्णि में इन गणधरों का नाम मिलते हैं- गौतम इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, आर्यव्यक्त, सुधर्मा, मंडित (मंडिकेट), मौर्यपुत्र अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य तथा प्रभास। ये गणधर-गण प्रसिद्ध ब्राह्मण आचार्य थे। इन गणधरों का ब्राह्मण-वर्गीय होना महत्त्वपूर्ण है। गौतम बुद्ध के भी कुछ प्रधान शिष्य ब्राह्मण थे। इससे लगता है कि इस समय ब्राह्मणों के विचारों में भी एक उत्क्रांति चल रही थी और संभवतः क्षत्रिय आचार्यों से प्रभावित होकर इन्होंने परंपरागत मान्यताओं को त्याग दिया, जो कर्मकांड को धर्म का मुख्य स्रोत मानती थी। इंद्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर शेष सभी का निर्वाण महावीर के जीवन-काल में ही हो गया था। ये गणधर द्वादश अंगों, चतुर्दश पूर्वों तथा समस्त गणिपिड़ग में पारंगत थे। इन्हीं गणों में से एक सुधर्मा भगवान महावीर के बाद जैनसंघ का अध्यक्ष (प्रधान) हुआ।

भगवान् महावीर ने चंपा, वैशाली, राजगृह, श्रावस्ती, चंपा, कौशांबी आदि नगरों में घूम-घूमकर अपने धर्म का प्रचार किया। राजपरिवार से संबंधित होने के कारण महावीर को धर्म-प्रचार में शासक वर्ग से पर्याप्त सहायता मिली। उनकी माता लिच्छवि नरेश चेटक की बहन थीं और चेटक का अनेक समकालीन शक्तिशाली शासकों के साथ वैवाहिक और मैत्रीपूर्ण संबंध था। फलतः गौतम बुद्ध की भाँति महावीर स्वामी को भी अपने धर्म-प्रचार में समृद्ध श्रेष्ठियों और व्यापारियों के अलावा अनेक राजाओं, राजकुमारों और मंत्रियों से सहायता मिली।

महावीर स्वामी के संघ के अनुयायी गृहस्थों में कुछ समृद्ध और प्रभावशाली थे। महावीर के गृहस्थ अनुयायियों में वाणिज्यग्राम निवासी आनंद और उनकी पत्नी शिवनंदा, चंपा के कामदेव और उनकी पत्नी भद्रा, चूलनप्रिय और उसकी पत्नी श्यामा, वाराणसी निवासी सूरदेव और उनकी पत्नी धान्या, काम्पिल्यपुर के चुल्लशतक और उसकी पत्नी पुष्पा तथा कुंदकोलित दंपति, पोलासपुर निवासी सरदलपुत्र और उसकी पत्नी अग्निमित्रा, राजगृह के महाशतक, नंदिनिप्रिय और उसकी पत्नी अश्विनी तथा सलतिप्रिय और उसकी पत्नी फाल्गुनी, नालंदा के निर्ग्रंथ श्रावक उपालि आदि प्रसिद्ध थे। भगवतीसूत्र में महावीर के श्रावकों में राजगृह निवासी विजय और सुदर्शन का भी उल्लेख है।

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार श्रेणिक, चेटक, प्रद्योत, शतानीक, उद्दायन, वीअंगप, वीरजस, संजय, शंख, कासिवद्धण आदि राजागण महावीर के अनुयायी थे। ओवाइय सूत्र के अनुसार अजातशत्रु महावीर का भक्त था। जैन-सूत्रों के अनुसार वह वैशाली और चंपा में महावीर के दर्शनार्थ जाता था। रानियों में उदयन की पत्नी पद्मावती, कोशांबी की मृगावती एवं जयंती, श्रेणिक और प्रद्योत की रानियाँ महावीर के संघ की श्राविकाएँ थीं। चंपा नरेश दधिवाहन की महावीर में अपार श्रद्धा थी और उसकी पुत्री चंदना महावीर की प्रथम भिक्षुणी थी।

वैशाली गणराज्य में महावीर स्वामी का अत्याधिक प्रभाव था। यहाँ पर उन्होंने अपने भ्रमणकाल के 12 वर्ष व्यतीत किये। ज्ञातृक वज्जियों के ही अन्तर्गत थे, अतः इस संघ पर महावीर की सहानुभूति का होना स्वाभाविक था। वज्जिसंघ की विदेह आदि जातियाँ स्वाभाविक रूप से नातपुत्त महावीर के उपदेशों से प्रभावित थीं क्योंकि महावीर के पिता सिद्धार्थ इस क्षत्रिय संघ से संबंधित थे। मल्लों में भी महावीर के धर्म के प्रति श्रद्धा थी। क्षत्रियकुंड निवासी जामालि को ऐश्वर्यशाली और महावीर की बहन सुदर्शना का पुत्र तथा महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का पति वर्णित किया गया है। जामालि ने प्रियदर्शना सहित प्रव्रज्या ग्रहण की थी। पावा का मल्लराज हस्तिपाल भी उनका बड़ा आदर करता था। इन्हीं के राजप्रासाद में महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था। राजपरिवारों के अतिरिक्त साधारण वर्ग के लोग भी उनकी शिक्षाओं तथा उपदेशों के प्रति श्रद्धावान थे।

दशार्ण जनपद के शासक दशार्णभद्र के महावीर के निर्ग्रंथ-संघ में दीक्षित होने के उल्लेख उपलब्ध हैं। दशार्ण के अंतर्गत मध्यप्रदेश के विदिशा के आसपास का प्रदेश माना जाता है। विदिशा में अवंतिराज प्रद्योत द्वारा जीवंतस्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठित करने के परवर्ती उल्लेख हैं। विदिशा के निकट कुंजरावत और स्थावर्त पर्वतों पर वज्रस्वामी और अन्य जैन श्रमणों द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करने की परंपरा जैन ग्रन्थों में लोकप्रिय है।

कलिंग नरेश करकंडु को निर्ग्रंथ धर्म स्वीकार करने और अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ कर जैन श्रमण बन जाने की अनुश्रुति का उल्लेख मिलता है। हरिवंश पुराण में भी महावीर के द्वारा कलिंग में जैन धर्म का प्रचार होना वर्णित है। प्रथम शताब्दी ईसापूर्व के जैन शासक खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख, उसकी रानी कामंचपुरी का अभिलेख तथा श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार इस काल में जैन भिक्षु उड़ीसा के समुद्री क्षेत्रों तक फैल गये थे। हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि नंदराज द्वारा कलिंग से मगध ले जाई गई जिन् मूर्ति को वह तीन सौ वर्ष बाद वापस लाया था। उदयगिरि तथा खंडगिरि की जैन गुफाएँ इसका प्रमाण है।

स्थविरवली के प्रमाणों से पता चलता है कि इसी काल में जैन धर्म का प्रसार मथुरा में हुआ था। यहाँ से ईसापूर्व काल की जिन् मूर्तियाँ एवं प्रार्थना-स्थल प्राप्त हुए हैं।

महावीर स्वामी की दक्षिण भारत में यात्रा करने से संबंधित अनुश्रुतियाँ उपलब्ध हैं। अशोक के पौत्र संप्रति ने अशोक की तरह जैन धर्म के प्रसार के लिए आंध्र तथा द्रविड़ क्षेत्र में धर्म प्रचारक भेजे थे। कालकाचार्य के कथानक से भी माल में ईसापूर्व में जैन धर्म के प्रसार का विवरण है। रूद्रदामन के जूनागढ़ लेख में भी केवल जिनों का उल्लेख है। भास्कर द्वारा रचित ‘जीवन्धर चरित’ से विदित होता है कि शासक जीवन्धर ने महावीर का स्वागत-सत्कार किया था। वह निर्ग्रंथ-संघ में दीक्षित भी हुआ था।

महावीर के अनुयायी राजकुमारों में अतिमुक्त, पद्म, मेघ, अभय और श्रेणिक के राजकुमार आदि के उल्लेख मिलते हैं। महावीर स्वामी ने आर्द्रक नामक राजकुमार को जैनधर्मानुयायी बनाया था जो कालांतर में प्रव्रज्या ग्रहण कर ‘केवली’ बना। इस आर्द्रक की पहचान अखामनी सम्राट कुरुष से करना उचित नहीं लगता। संभवतः वह किसी ईरानी सामंत का पुत्र था।

जैन अनुश्रुतियों में महावीर स्वामी की राजस्थान क्षेत्र में धर्मदेशना हेतु की गई यात्रा का विवरण मिलता है। 1276 ईस्वी के एक अभिलेख के प्रथम पद्य में भगवान महावीर के स्वयं श्रीमाल आने का वर्णन है। इसकी पुष्टि तेरहवीं शताब्दी के ग्रंथ ‘श्रीमाल महात्म्य’ से भी होती है, जिसके अनुसार श्रीमाल के ब्राह्मणों से रुष्ट होकर गौतम कश्मीर गये थे और वहाँ के लोग महावीर स्वामी द्वारा जैनमतानुयायी बनाये गये। श्रीमाल लौटने पर गौतम गणधर ने वैश्यों को जैनधर्मावलंबी बनाया तथा कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र, महावीर जन्मसूत्र और अन्य गंथों की रचना की। मुंगस्थल महातीर्थ के जीवंत स्वामी मंदिर में अवस्थित 1369 ईस्वी के एक अभिलेख से पता चलता है कि भगवान महावीर स्वयं अर्बुद भूमि में पधारे थे तथा भगवान के जीवनकाल के सैतीसवें वर्ष में गणधर केशी ने यहाँ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। यद्यपि परवर्ती होने के कारण इन विवरणों को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है, किंतु तेरहवीं शताब्दी में इस प्रदेश में जैन धर्म को प्राचीन माना जाता था। वैसे मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र संप्रति को पश्चिमी भारत में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार का श्रेय दिया जाता है।

इस प्रकार जैन परंपरा में समकालीन उत्तर भारत के अधिकांश शासकों को जैनमतानुयायी वर्णित किया गया है। जैन और बौद्ध दोनों ही अनुश्रुतियों में समकालीन राजाओं को अपने-अपने धर्म का अनुयायी प्रकट करने हेतु प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है। लगता है, इस काल और परवर्ती युग के शासकों ने विभिन्न धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई थी और इसी का परिणाम इन पारस्परिक विरोधी अनुश्रुतियों में प्रतिबिंबित है। जो भी हो, इतना निश्चित है कि भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैन धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था और भगवान महावीर के युग में उनका प्रभाव आधुनिक बिहार तथा बंगाल एवं उत्तर प्रदेश के संबद्ध क्षेत्रों में जनसाधारण तक विस्तृत था, यद्यपि इन क्षेत्रों के अतिरिक्त कुछ प्रदेशों के राजाओं ने भी जैन धर्म को आश्रय दिया था।

श्रमण तीर्थ/संघ

भगवान ऋषभदेव इस अवसर्पिणी कालचक्र के प्रथम तीर्थंकर थे। उन्होंने मनुष्य को कर्म की विधि और उसके महत्व से परिचित कराया और कर्मयुग की संस्थापना की। कर्म विज्ञान से तत्युगीन मानव को परिचित कराने के पश्चात् ऋषभदेव ने जनता को धर्म-विज्ञान से परिचित कराने के लिए महाभिनिष्क्रमण किया और कैवल्य पद प्राप्त कर धर्मतीर्थ की संस्थाना की। उन्होंने मानव को संदेश दिया कि धर्म ही वह अमृत-तत्त्व है जो आत्मा को उसके परम स्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित करता है। धर्मामृत का पान करके आत्मा सदा-सदा के लिए जन्म और मृत्यु के विष से मुक्त बन जाता है।

धर्म और कर्म के संदर्भ में विश्व मानव के आदि संस्कर्ता भगवान ऋषभदेव ही थे। ऋषभदेव ने ही विश्व में प्रथम बार धर्मचक्र का प्रवर्तन कर धर्म-तीर्थ के रूप में चतुर्विध संघ की संस्थापना की। इस प्रकार कालांतर में जब समाज में विकृतियों, कदाग्रहों और कर्मकांडों की बहुलता के कारण धर्मतत्त्व की ज्योति मंद पड़ने लगी तो ऋषभदेव की परंपरा के अंतिम स्वयं-बुद्ध (तीर्थंकर) अनुत्तर योगी महावीर ने जैन धर्म अथवा श्रमण संघ का पुनर्संस्कार कर ज्योति को पुनः अमंद बना दिया।

भगवान महावीर ने अनंत ज्ञान और अनंत दर्शन से साक्षात्कार साधकर परमपद ‘कैवल्य’ प्राप्त किया। परमपद पर प्रतिष्ठित महावीर ने जन्म-मरण, आधि, व्याधि और उपाधि के दावानल में सुलगते जीव-जगत को देखा। उनकी आत्मा से प्रस्फुटित होकर करुणा अनंत-अनंत धाराओं में बह चली। अपने निर्ग्रंथ (गाँठरहित अर्थात् बंधनों से मुक्त) मत के प्रचार के लिए उन्होंने बिहार तथा उत्तर प्रदेश के अनेक स्थानों पर विहार (भिक्षुओं के मठ) स्थापित किया। उन्होंने जैनमत में दीक्षित करने के लिए सरल पद्धति अपनाई और उसमें शामिल होने के आकांक्षी सभी स्त्री-पुरुषों को अपने संघ में शामिल किया, चाहे वे जिस वर्ण के, जाति के हों और सबके लिए अलग-अलग व्यवहार-नियम निर्धारित किया। उनके उपदेश से असंख्य मनुष्यों में सद्धर्म से जीने की प्यास जाग्रत हुई।

महावीर ने अपनी अद्भुत संगठन शक्ति के द्वारा गणतंत्र पद्धति, जो तत्कालीन कालखंड में भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का सर्वत्र आधार थी, के आधार पर मुनि और गृहस्थ धर्म की अलग-अलग व्यवस्थाएँ बाँधी और मुनि (साधु), आर्यिका (साध्विकाएँ), श्रावक (गृहस्थ अनुयायी) व श्राविका (गृहणियाँ) के आधार पर चतुर्विध-तीर्थ को सुसंगठित किया। इनमें से प्रथम दो श्रमण परिव्राजकों के थे और अंतिम दो गृहस्थों के। इन्होंने चौदह हजार श्रमणों को नौ भागों में विभाजित कर दिया, जो ‘गण‘ कहलाये। प्रत्येक गण को प्रमुख शिष्य और गणधर के अधीन रखा गया। प्रमुख गणधरों के अधीन पाँच सौ श्रमण ही रखे गये थे।

अंग महाजनपद की राजकुमारी और महावीर की प्रमुख शिष्या चंदना इनकी प्रमुख थी। श्रावकों का प्रधान शंख शतक था। ‘श्राविकाओं की मुखिया सुलसा और रेवती थीं। इस प्रकार अल्प कालावधि में ही हजारों पुरुष और स्त्रियाँ श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका के रूप में महावीर-प्ररूपित धर्म के अनुगामी बन गये थे।

महापरिनिर्वाण

भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में पापा (पावापुरी) में राजा हस्तिपाल के महल में निर्वाण प्राप्त किया था। कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि महावीर को अमावस्या की उस रात्रि को मोक्ष प्राप्त हुआ, जब नौ मल्लों, नौ लिच्छवि, अट्ठारह काशी-कोसल के गण राजा पौषधिव्रत में थे। इस शुभ दिवस पर मनुष्यों ने दीप संजोये। इस रात ज्ञान रूपी दिव्य प्रकाश चला गया और द्रव्योद्योत के द्वारा दीपमाला पर्व का प्रचलन हुआ। जैन परंपरा में महावीर की निर्वाण तिथि 527 ईसापूर्व मानी जाती रही है, यद्यपि इस संबंध में विद्वानों में मतैव्य नहीं है।

दिगम्बर परंपरानुसार महावीर अकेले प्रवास नहीं करते थे, अपितु उनके साथ श्रमण-श्रमणियाँ भी चलती थीं। उनके प्रचार की भाषा को ‘अनाक्षरी’ माना गया है, जिसे सामान्य लोग समझ नहीं सकते थे। इसी कारण गौतम दुभाषिये का कार्य संपादित कर भगवान महावीर के उपदेशों का अर्द्धमागधी में अनुवाद करते थे। किंतु इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि भगवान महावीर ने धर्म का प्रचार तत्कालीन क्षेत्रीय लोकभाषा में ही किया था और उसी भाषा में उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों का आचारांग आदि बारह अंगों में संकलित किया, जो ‘द्वादशांग’ आगम के नाम से प्रसिद्ध है।

महावीर का अलौकिक व्यक्तित्व

भगवान महावीर मानव समाज के प्रमुख एवं विशिष्ट धर्माचार्य थे। प्रगतिशील मानवता के आदर्श हेतु उन्होंने स्वयं आवश्यकता की अनुभूति के द्वारा संतप्त मानव-समुदाय का न केवल मार्गदर्शन किया, अपितु आचार-संहिता का व्यवहारिक यम-नियम भी निर्धारित किया। उन्होंने पहले स्वयं आचार-संहिता का सक्षमतापूर्वक पालन किया और तत्पश्चात् धर्मदेशना द्धारा जन-जन में उसका प्रचार किया। महावीर प्राणिमात्र की भलाई और कल्याण में विश्वास करते थे। उन्होंने एक अलौकिक आदर्श प्रस्तुत कर धन, काम-वासना, शक्ति और वैभव के स्थान पर सहनशीलता, संयम, क्षमा, विनम्रता, दया, तप और उत्सर्ग के द्वारा परमसुख प्राप्त होने का पथ आलोकित किया। उद्देश्य की प्राप्ति हेतु महावीर ने मन, वचन और काया से अहिंसा के पालन पर जोर दिया।

अनुत्तर योगी महावीर श्रमणों में अद्वितीय बुद्धिमान, अनंत ज्ञानी और अनंतदर्शी थे। उन्होंने दीपक की भाँति लोक के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले धर्म का कथन किया। वे क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी समस्त मतवादियों के मतों के ज्ञाता थे। वे पृथ्वी के समान सहिष्णु, धीर और उदार थे। चूँकि वे सर्वबंधनों से मुक्त हो चुके थे, अतएव उन्होंने प्रत्येक वस्तु का हर सम्भव परित्याग किया।

भगवान महावीर जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर व्यवहार करने के पक्षपाती नहीं थे। उन्होंने मुक्ति के द्वार मानव-मात्र के लिए खोल दिये ताकि धर्मदेशना के अनुरूप आचार-पथ पर अग्रसर होकर प्रत्येक मुमुक्षु अपने जीवन का कल्याण कर सके। उनके कर्म के सिद्धांत ने सभी कार्यों के प्रति मानव को स्वयं उत्तरदायी निरूपित कर, सदैव जागरूक रहने को सतत् प्रेरित किया। महावीर द्वारा प्रतिपादित मुक्ति कोई उपहार नहीं था, बल्कि मुमुक्षु के प्रत्यनों और साधना से उपलब्ध चरम लक्ष्य था। कर्म के सिद्धांत द्वारा उन्होंने प्राणिमात्र की चेतना जागृत करने का प्रयास किया ताकि उनके अनुयायीगण सत्य-पथ पर अग्रसर हो सके।

भगवान महावीर धार्मिक मामलों में अत्यंत उदार थे। उन्होंने समकालीन विभिन्न मत-मतांतरों के प्रति सहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा हेतु स्याद्वाद के माध्यम से अपने अनुयायियों को प्रत्येक धर्माचार्य और उनके उपदेशों को समझने तथा सत्य मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया और धार्मिक मामलों में उदार दृष्टिकोण के द्वारा तत्कालीन और परवर्ती विभिन्न संप्रदायों में धार्मिक सौहार्दता का वातावरण स्थापित करने का अनुपम प्रयास किया, जिसके कारण उनके अनुयायियों ने अन्य धर्माचार्यों के प्रशंसनीय विचारों के प्रति सहिष्णु-भाव प्रदर्शित किया।

महावीर महामात्य थे। वे केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक, महित, पूजित तथा सत्फल प्रदायी कर्तव्यरूपी संपत्ति से युक्त थे। वे महागोप भी थे क्योंकि संसाररूपी अटवी में नष्ट, भ्रष्ट और विकलांग किए जाने वाले बहुत से प्राणियों का उन्होंने अपने धर्म-दण्ड से संरक्षण एवं गोपण किया तथा स्वयं अपने हाथों से संतप्त प्राणियों को निर्वाण-रूपी नौका में सुरक्षित किया। महावीर महाधर्मकथी अर्थात् धर्म के महान उपदेशक और महानियामक भी थे।

महावीर स्वामी जैन धर्म के संस्थापक न होकर उसके सुधारक थे। वे एक धार्मिक दार्शनिक प्रतीत होते हैं जिन्होंने पार्श्वनाथ प्रतिपादित अव्यवस्थित धार्मिक मान्यताओं को न केवल दार्शनिक क्रमबद्धता प्रदान की अपितु उस समय प्रचलित क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी, अज्ञानवादी आदि दार्शनिक पद्धतियों से सामंजस्य स्थापित कर अपना मौलिक सिद्धांत प्रतिपादित किया। उन्होंने परंपरागत निर्ग्रंथ मत में व्याप्त बुराईयों का परिहार कर उज्ज्वल धर्म का प्रतिपादन किया और पार्श्वनाथ के चतुर्याम धर्म का संस्कार कर ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत घोषित किया। अपरिग्रह पर अत्यधिक जोर देकर भगवान महावीर ने अचलकत्व के जिनकल्प आदर्श को अनुकरणीय बताया। उन्होंने निर्ग्रंथ धर्म की दार्शनिक मान्यताओं को अपने मौलिक सिद्धांतों के द्वारा तर्कपूर्ण स्वरूप प्रदान किया। चतुर्विध-संघ की उत्तम व्यवस्था उनके नेतृत्त्व-क्षमता का प्रमाण है।

महावीर की शिक्षाएँ

जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग- मोक्षमार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्तक ‘तीर्थंकर’ कहा गया। जैन सिद्धांत के अनुसार ‘तीर्थंकर’ नाम की एक पुण्य प्रशस्ति कर्म-प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते हैं और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है कि ‘बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना’ अर्थात् बिना तीर्थंकर-पुण्य नामकर्म के तत्त्वोपदेश सम्भव नहीं है।

पार्श्वनाथ एवं महावीर की शिक्षाएँ अपने वास्तविक स्वरूप में विद्यमान नहीं हैं। जैन अनुयायी दुःखवाद, कर्म के सिद्धांत, संसार तथा पुनर्जन्म जैसे सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं। पार्श्वनाथ तथा महावीर दोनों ने वेदों की असीमित सत्ता तथा यज्ञीय कर्मकांडों का खंडन किया है। पार्श्वनाथ ने सर्वप्रथम चतुर्याम्-सत्य अहिंसा अस्तेय तथा अपरिग्रह का सिद्धांत प्रस्तुत किया। पार्श्वनाथ के इस चतुर्याम् का उल्लेख बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। भगवान महावीर ने अहिंसा को धर्म का मूलाधार बनाया और पार्श्वनाथ के चतुर्याम्- सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह- के साथ पाँचवें ब्रह्मचर्य का समावेश कर पंचयाम् का प्रतिपादन किया था।

महावीर के सिद्धांत सरल, व्यवहारिक और नैतिक थे। इन व्रतों या यमों का पालन मुनियों के लिए पूर्णरूप से महाव्रत कहलाया तथा गृहस्थों के लिए स्थूलरूप-अणुव्रत। महावीर और उनके शिष्यों ने न केवल सत्य के स्वभाव और आदर्श के सैद्धांतिक पक्ष का प्रतिपादन किया, अपितु उन दोनों की उपलब्धि का व्यवहारिक एवं संयमशील मार्ग भी प्रशस्त किया।

पंचमहाव्रत
अहिंसा

जैनाचार की मूलभित्ति अहिंसा है। कल्पसूत्र के अनुसार अहिंसा और कायाक्लेश त्यागते समय कीटाणुओं की हिंसा नहीं होनी चाहिए। समस्त प्रकृति जो जड़ दिखती है वह भी प्राण से युक्त है तथा जीवित हो सकती है। जैन धर्म के अनुसार समस्त प्राणी बीज, अंकुर, पुष्प, गुफाएँ, ओंस, कुहरा, ओले आदि में सजीवता है। प्रत्येक आत्मा चाहे वह पृथ्वी-संबंधी हो, चाहे वह जलगत हो, चाहे उसका आश्रय कीट अथवा पतंग हो, चाहे वह पशु अथवा पक्षी में रहती हो, चाहे उसका निवास स्थान मानव हो, तात्त्विक दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। जैन दृष्टि का यह साम्यवाद भारतीय संस्कृति का गौरव है। इसी साम्यवाद के आधार पर जैन परंपरा ‘जीओ और जीने दो’ का उद्घोष करती है। जैन धर्म में हिेसा जीवों तक सीमित न होकर मन, वचन, कर्म तीनों क्षेत्रों में विस्तृत है। अहिंसा के पूर्ण पालन के लिए निम्नलिखित पाँच भावनाओं का पालन करना आवश्यक है-

  1. ईर्यासमिति अर्थात् गमनागमन संबंधी सावधानी, ऐसे मार्ग में चलना जहाँ कीटाणु न हों।
  2. भाषा समिति अर्थात् वचन की अपापकता, मधुर वाणी का प्रयोग करना तथा वाणी हिंसा रोकना।
  3. एषणा समिति अर्थात् खान-पान संबंधी सचेतता, भोजन में जीव हिंसा रोकना।
  4. आदान-निक्षेप समिति अर्थात् पात्रादि उपकरण संबंधी सावधानी, श्रमणों द्वारा अपनी सामग्री को ठीक ढंग से रखना तथा हिंसा को बचाना।
  5. व्युत्त्सर्ग समिति अर्थात् मानसिक विकार रहितता, मलमूत्र त्यागते समय कीटाणुओं की हिंसा से बचना।

इन तथा इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाएँ अहिंसाव्रत को सुदृढ़ करती हैं।

सत्य

मिथ्या वचन का परित्याग ही सत्य है और सत्य का आदर्श सूनृत है। सूनृत से तात्पर्य ऐसे सत्य से है जो सभी के लिए प्रिय एवं हितकारी हो- ‘प्रिय पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृत व्रतमुच्यते।’ सत्य होने पर भी अवज्ञासूचक शब्दों का प्रयोग न करें, किंतु सम्मानसूचक शब्द प्रयोग में लें। इस व्रत का पालन भी मन, वचन और कर्म से करना चाहिए। इस व्रत का पालन भी मन, वचन और कर्म से करना चाहिए। सत्य के लिए भी पाँच उपनियम बताये गये हैं-

  1. अनुबिम भाषी (वाणीविवेक) अर्थात् सोच-समझ कर भाषा का प्रयोग करना,
  2. लोभ परिजानाति (लोभत्याग) अर्थात् लोभ की भावना जागृत होने पर मौन ग्रहण करना,
  3. कोहं परिजानाति (क्रोधत्याग) अर्थात् निर्ग्रंथ साधुओं को क्रोध आने पर मौन रहने का आदेश,
  4. हास परिजानाति (हास्यत्याग) अर्थात् हँसी-मजाक न करना तथा
  5. भय परिजानाति (भयत्याग) अर्थात् निर्भीक रहना।

इस प्रकार श्रमण को क्रोधादि कषायों का त्याग कर, समभाव धारण कर व विवेकपूर्वक संयमित सत्याचरण करना चाहिए।

अस्तेय

श्रमण बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करता। वह बिना अनुमति के एक तिनका उठाना भी स्तेय अर्थात् चोरी समझता है। जिस प्रकार वह स्वयं अदत्तादान का सेवन नहीं करता, उसी प्रकार किसी से करवाता भी नहीं और करनेवालों का समर्थन भी नहीं करता है। अस्तेय की दृढ़ता एवम् सुरक्षा के लिए भी पाँच उपनियम बताए गए हैं-

  1. बिना आज्ञा के किसी के गृह में प्रवेश न करना,
  2. आचार्य आदि की आज्ञा के बिना भिक्षार्जित भोजन ग्रहण न करना,
  3. बिना अनुमति किसी के घर में निवास न करना,
  4. बिना गृहस्वामी की आज्ञा के उसकी वस्तु का उपयोग न करना तथा
  5. सहधार्मिक से परिमित वस्तुओं की याचना करना।
अपरिग्रह

किसी भी वस्तु का ममत्व-पूर्वक संग्रह परिग्रह कहलाता है। श्रमण न तो संग्रह करता है, न करवाता है और न करने वालों का समर्थन करता है। यही नहीं, वह अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता। वस्तुतः जो ममत्व का त्याग कर सकता है, वही परिग्रह का त्याग कर सकता है। संयम निर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्पतम् वस्तुएँ अपने पास रखता है उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता। परिग्रह का दूसरा नाम ग्रंथि (गाँठ) भी है। जितनी अधिक गाँठ बाँधी जाती है, उतना ही अधिक परिग्रह बढ़ता है। यह गाँठ जब तक नहीं खुलती, तब तक विकास का द्वार बंद रहता है। महावीर ने ग्रंथि-भेदन पर अधिक जोर दिया है, इसीलिए उनका नाम निर्ग्रंथ पडा़ और उनकी परंपरा भी निर्ग्रंथ संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। अपरिग्रह व्रत की पाँच भावनाएं इस प्रकार हैं-

  1. श्रौत्रेंद्रिय के विषय शब्द के प्रति अनासक्त भाव,
  2. चक्षुरिंद्रिय के विषय रूप के प्रति अनासक्त भाव,
  3. घ्राणेंद्रिय के विषय गन्ध के प्रति अनासक्त भाव,
  4. रसनेंद्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव और
  5. स्पर्शनेंद्रिय के विषय स्पर्श के प्रति अनासक्त भाव।
ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य का विधान महावीर की देन मानी जाती है। श्रमण के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है। मैथुन-त्याग को सर्व मैथुन-विरमण कहा जाता है। श्रमण के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है। उसके लिए मन, वचन एवं काय से मैथुन का सेवन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का निषेध है। इसे नवकोटि ब्रह्मचर्य अथवा नवकोटि-शील भी कहते हैं। वासनाओं का पूर्ण परित्याग ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के पालन के लिए निम्नोक्त पाँच उपनियमों का निर्देश दिया गया है-

  1. किसी स्त्री से बात न करें,
  2. स्त्री के अंगों का अवलोकन न करें,
  3. नारी-संसर्ग न करें। मख्खलि गोशाल से महावीर के बीच मतभेद में यह एक प्रमुख कारण था। आजीवक अपने भिक्षुओं को संसर्ग की अनुमति देते है।
  4. मात्रा का अतिक्रमण कर भोजन न करें तथा
  5. स्त्री आदि से सम्बद्ध स्थान में न रहें।

गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले जैनियों के लिए भी इन्हीं व्रतों की व्यवस्था है, किंतु इनकी कठोरता में पर्याप्त कमी की गई है और इसलिए इन्हें ‘अणुव्रत’ कहा गया है।

त्रिरत्न

जैन धर्म में कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का विधान किया गया है (सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चरित्राणि मोक्षमार्ग)। यही मोक्ष का मार्ग है। मोक्ष-प्राप्ति के इन तीनों साधनों को जैन दर्शन में ‘रत्न-त्रय’ की संज्ञा दी गई है- 1. सम्यक् दर्शन, 2. सम्यक् ज्ञान और 3. सम्यक् चरित्र।

सत् में विश्वास ही सम्यक् दर्शन है। सद्रूप का असंदिग्ध तथा दोषरहित ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। कर्मों के पूर्ण विनाश के बाद ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख के प्रति समभाव सम्यक् आचरण है। सम्यक् चरित्र से अभिप्राय है अनासक्ति की भावना से नैतिक सदाचारमय जीवन व्यतीत करना। इसके पालन के लिए ‘पंचमहाव्रत’ का विधान है।

शीलव्रत

शीलव्रत दैनिक जीवन की क्रियाएँ हैं जो मुख्यतः दो प्रकार की हैं- (1) शिक्षाव्रत (2) गुणव्रत।

शिक्षाव्रत

शिक्षा का अर्थ होता है अभ्यास। श्रावक (गृहस्थ) को कुछ व्रतों का बार-बार अभ्यास करना होता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा जाता है। शिक्षाव्रत के निम्न चार भाग हैं-

  1. समायिक अर्थात् मन, कर्म एवं वचन की पवित्रता-शुद्धता के साथ त्रस और स्थावर के प्रति समभाव का अभ्यास करना।
  2. प्रोषधोपवास अर्थात् उपवास रखकर तीर्थंकरों एवं देवों का ध्यान करना।
  3. भोगोय भोग परिमाणं अर्थात् आत्म-तत्त्व के पोषण के लिए उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना।
  4. अतिथि संविभाग अर्थात् गृह आये साधु-संतों, अतिथि आदि के निमित्त अपनी आय का एक निश्चित विभाग करना।
गुणव्रत

पंचव्रतों की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचार-शास्त्र में तीन गुणव्रतों की व्यवस्था की गई है-

  1. अपनी त्याग-वृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियों के निमित्त दिशाओं की मर्यादा निश्चित करना (दिशा-परिमाण व्रत),
  2. उपभोग एवं परिभोग की मर्यादा निश्चित करना (उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत) और
  3. अपने अथवा अपने कुटुंब के जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना (अनर्थदंड-विरमण व्रत)। गुणव्रत से प्रधानतया अहिंसा एवं अपरिग्रह का पोषण होता है।
चारित्र

जैन धर्म में बंधन से मुक्ति के लिए पाँच चारित्रों का भी विधान बताया हैं-

  1. सामाजिक चारित्र अर्थात् समभाव में रहना,
  2. छेदोपस्थापना अर्थात् गुरु के समीप अपने पूर्व दोषों को स्वीकार कर दीक्षा लेना,
  3. परिहार विशुद्धि,
  4. सूक्ष्म संपूराय अर्थात् लोभ के अंश को छोड़कर क्रोध आदि कषायों का उदय न होना एवं
  5. यथाख्यात् अर्थात् सभी कषायों का निरोध होना। चारित्र की प्राप्ति मन, वचन और काय के संयम से होती है।
गुप्तियाँ और तप

जैन धर्म में तीन गुप्तियाँ स्वीकार की गई हैं-मनोगुप्ति, वचोगुप्ति एवं कायगुप्ति। इन तीनों के पालन से उन आस्रवों का त्याग हो जाता है जो कर्मों को उत्पन्न करने मे सहायक होती हैं। इस चरण की प्राप्ति हेतु बाह्य एवं आभ्यंतर तप का विधान है। जो मुनि इन तपों को निश्चल एवं पूर्णरूपेण करता है वह केवली की स्थिति में पहुँचता है।

दशलक्षण धर्म

जैनग्रंथ समवायांग में श्रमणों के दस गुणों का वर्णन है। राग-द्वेष रहित आत्मा का सहज स्वभाव क्षमा, मृदुता, सरलता, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, औदासीन्य (आकिंचन्य) तथा ब्रह्मचर्य हैं। जैनों के अनुसार धर्म के इन दस लक्षणों एवं अंगों का पालन अति आवश्यक है।

काया-क्लेश

जैन धर्म में काया-क्लेश, तप, यातना और योग पर भी अत्यधिक बल दिया गया हे। आत्मा को घेरने वाले भौतिक तत्त्व का दमन करने के लिए तपस्या और काया-क्लेश भी आवश्यक है। जैन धर्म में काया-क्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा शरीर के अंत का भी विधान है। जैन अनुश्रुति के अनुसार मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त ने मैसूर के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर इसी प्रकार मृत्यु का वरण किया था।

जैन धर्म निवृत्तिमार्गी धर्म है। इसके अनुसार संसार के समस्त सुख दुःखमूलक हैं। मनुष्य जरा और मृत्यु से ग्रस्त है। व्यक्ति की तृष्णा और इच्छाएँ आकाश के समान अनंत हैं, संपत्ति संचय के साथ उसकी इच्छाएं बढ़ती जाती हैं। जैन धर्म दुःखों से छुटकारा पाने हेतु तृष्णाओं के त्याग पर बल देता है। कामभोग विष के समान हैं जो अंततः दुःख ही उत्पन्न करते हैं। संसार-त्याग तथा संन्यास ही व्यक्ति को सच्चे सुख की ओर ले जा सकता है।

जैन धर्म के अनुसार इस सृष्टि का कर्त्ता कोई ईश्वर नही है, किंतु संसार एक वास्तविक तथ्य है जो अनादिकाल से विद्यमान है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते हैं और कर्मफल भोगते हैं। जैन धर्म में भी सांसारिक तृष्णा-बंधन से मुक्ति को ‘निर्वाण’ कहा गया है। कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है। कर्मफल से छुटकारा पाकर ही मानव निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि पूर्वजन्म के संचित कर्म को समाप्त किया जाये (संवर) और वर्तमान जीवन में कर्म-फल के संग्रह से बचा जाए (निर्जरा)।

महावीर ने वेदों की प्रमाणिकता को नहीं माना और वेदवाद का विरोध किया। उन्होंने वैदिक यज्ञवाद के विरुद्ध त्याग तथा संन्यास-प्रधान जीवन को स्थापित किया। घोर अहिंसावादी होने के कारण रक्तिम् यज्ञों तथा उनमें दी जाने वाली बलि और जटिल कर्मकांडों का विरोध करना जैन धर्म के लिए स्वाभाविक ही था। महावीर का मानना था कि यज्ञ में जीवों का विनाश पाप उत्पन्न करता है। अग्नि-प्रज्ज्वलन तथा जल-मज्जन केवल बाहरी शुद्धता प्रदान कर सकते हैं। जैन मत की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह कर्त्तव्यों का निर्देश जातिवाद से ऊपर उठकर मनुष्यमात्र के लिए एक ही आचार-पद्धति का निर्देश देता है।

महावीर स्वामी ने जन्मना वर्ण-प्रथा को अस्वीकार कर दिया और कर्म को वर्ण तथा जाति का आधार माना। कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता है और कर्म से ही कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। सामाजिक धरातल पर ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों की अधिक प्रतिष्ठा पर जैन ग्रंथों में बल दिया गया है।

जैन धर्म किसी सृष्टिकर्ता ईश्वर के अस्तित्त्व को नहीं स्वीकार करता है। विश्व जिन जीवों (चेतनाओं) एवं पुद्गलों (पदार्थों) का समुच्चय है, वे तत्त्वतः अविनाशी एवं आंतरिक हैं। किसी भी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती, मात्रा पदार्थ में अवस्थाओं का रुपांतर होता रहता है। जीव या आत्मा स्वेच्छानुसार एवं सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में स्वतंत्र है। उसका सुख-दुःख उसके अपने कर्मों और भावों पर निर्भर करता है। वह अपने ही कर्मों का फल भोगता है, फल-प्रदाता कोई दूसरा नहीं है। जो कुछ कर्म हम करते हैं और उनके जो फल हैं, उसके बीच कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिए जाने के बाद कर्म हमारे प्रभु बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ते हैं।

इस प्रकार जैन धर्म प्रतिपादित करता है कि कल्पित् एवं सर्जित शक्तियों के पूजन से नहीं, अपितु त्रिरत्न् (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चरित्र) के द्वारा ही आत्म-साक्षात्कार संभव है, मुक्ति संभव है। मुक्ति दया का दान नहीं है, यह प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके लिए ईश्वर या परमशक्ति की सत्ता में विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं में अंतर

पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह के चतुर्याम का विधान किया था, महावीर ने उसमें ब्रह्मचर्य को पाँचवे व्रत के रूप में सम्मिलित कर उसे पंचयाम् कर किया।

दूसरे, पार्श्वनाथ वस्त्र-धारण के विरुद्ध नहीं थे, किंतु महावीर स्वामी ने सांसारिकता से पूर्णरूपेण अनासक्ति के लिए नग्नता को आवश्यक माना। नग्नता से काया-क्लेश तथा अपरिग्रह को प्रोत्साहन मिलता है। कालांतर में वस्त्र धारण करने तथा निर्वस्त्रता के आधार पर जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर दो संप्रदायों में विभक्त हो गया। आधारतः उनके मूल सिद्धांतों में कोई भेद नहीं था और उनके तात्त्विक विचार समान थे।

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