साइमन कमीशन (Simon Commission, 1928)

फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी से जनता में कुंठा की भावना भर […]

साइमन कमीशन और नेहरू रिपोर्ट (Simon Commission and Nehru Report)

फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी से जनता में कुंठा की भावना भर गई। सांप्रदायिक तत्वों ने स्थिति का लाभ उठाते हुए अपने विचारों का प्रचार किया और 1923 के बाद देश में एक के बाद एक कई सांप्रदायिक दंगे हुए। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा सक्रिय हो उठीं। सांप्रदायिकता ने स्वराज्य पार्टी को भी विभाजित कर दिया। प्रत्युत्तरवादी (रिस्पॉन्सिविस्ट) मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय और एन.सी. केलकर ने तथाकथित हिंदू हितों की रक्षा के नाम पर नेशनलिस्ट पार्टी का गठन कर महासभा का सहयोग करने लगे। सत्ता के फेंके गए टुकड़ों को हथियाने के लिए लड़ने में मुस्लिम संप्रदायवादी भी पीछे नहीं रहे। गांधीजी ने बार-बार जोर देकर कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकता हर काल में और सभी परिस्थितियों में बनी रहनी चाहिए। उन्होंने स्थिति को सुधारने और सांप्रदायिक दंगों की दरिंदगी का प्रायश्चित करने के लिए दिल्ली में मौलाना मुहम्मद अली के घर में सितंबर 1924 में 21 दिन का उपवास भी किया, किंतु उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकी। राजनीतिक उदासीनता के इस वातावरण में गांधीजी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया, स्वराज्यवादी बँट चुके थे और सांप्रदायिकता फल-फूल रही थी। किंतु राष्ट्रीय उभार की शक्तियाँ धीरे-धीरे बढ़ रही थीं और नवंबर 1927 में जब साइमन कमीशन के गठन की घोषणा हुई, तो पुनः राष्ट्रवादी संघर्ष का एक नया चरण शुरू हुआ।

साइमन कमीशन (1928)

1919 में भारत में संवैधानिक सुधार करने के उद्देश्य से भारत शासन अधिनियम 1919 पारित किया गया था। इस अधिनियम में एक प्रावधान यह भी किया गया था कि इस अधिनियम के पारित होने के 10 वर्ष बाद एक संवैधानिक आयोग का गठन किया जाएगा, जो भारत में इस अधिनियम के अंतर्गत हुई संवैधानिक प्रगति की समीक्षा करेगा कि भारत में उत्तरदायी शासन स्थापित करने का समय आ गया है अथवा नहीं। इसी प्रावधान के अनुसार भारत में संवैधानिक व्यवस्था के कामकाज की समीक्षा के लिए 8 नवंबर 1927 को लंदन की टोरी सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में सात ब्रिटिश सांसदों का एक संवैधानिक आयोग के गठन की घोषणा की। इस आयोग के अध्यक्ष सर जॉन साइमन के नाम पर इसे ‘साइमन कमीशन’ के नाम से जाना जाता है, किंतु इसका औपचारिक नाम ‘भारतीय संवैधानिक आयोग’ था। इस प्रकार साइमन कमीशन का कार्य 1919 के अधिनियम की प्रगति की समीक्षा कर इस बात की सिफारिश करना था कि क्या भारत इस योग्य हो गया है कि यहाँ के लोगों को और संवैधानिक अधिकार दिए जाएं? और यदि दिए जाएं, तो उसका स्वरूप क्या हो?

इस समय ब्रिटेन में रूढ़िवादी दल की सरकार थी और बाल्डविन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे। समय से पूर्व साइमन कमीशन के गठन का कारण यह था कि निकट भविष्य में इंग्लैंड में आम चुनाव होने वाले थे और बाल्डविन की रूढ़िवादी सरकार (टोरी सरकार) को आशंका थी कि 1928 में होने वाले आगामी चुनावों में लेबर पार्टी चुनाव जीत सकती है। बाल्डविन की टोरी सरकार नहीं चाहती थी कि आयोग का गठन आनेवाली नई सरकार करे। इसलिए उसने तय समय से दो वर्ष पहले ही साइमन कमीशन का गठन कर दिया था। अप्रैल 1926 में भारतमंत्री ने वायसराय इरविन को लिखा था : ‘‘हम यह खतरा नहीं मोल ले सकते कि 1927 के कमीशन का मनोनयन हमारे उत्तराधिकारियों के हाथ में चला जाए।”

साइमन कमीशन तत्कालीन भारत के राज्य सचिव लॉर्ड बिरकेनहेड के दिमाग की उपज था। हाउस ऑफ कॉमन्स में उसने कहा था : ‘क्या इस पीढ़ी, दो पीढ़ियों या सौ सालों में भी ऐसी संभावना दिखाई पड़ रही है कि भारत के लोग सेना, नौसेना तथा प्रशासनिक सेवाओं का नियंत्रण संभालने की स्थिति में हो जाएंगे और उनका एक गवर्नर जनरल होगा, जो इस देश की किसी भी सत्ता के प्रति नहीं, अपितु भारतीय सरकार के प्रति उत्तरदायी होगा?’ इस कमीशन का भारतीयों ने तीखा विरोध किया क्योंकि इस आयोग में एक भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था।

साइमन कमीशन का गठन

साइमन कमीशन के सभी सातों सदस्य ब्रिटिश संसद से लिए गए थे और अंग्रेज थे। आयोग का अध्यक्ष सर जॉन साइमन ब्रिटेन की उदारवादी पार्टी से संबंधित था और उसी के नाम पर इस आयोग का नाम ‘साइमन आयोग’ पड़ा था। अन्य सदस्यों में क्लेमेंट एटली, हैरी लेवी लॉसन, एडवर्ड कैडोगन, वर्नन हार्टशॉर्न, जॉर्ज लेन फॉक्स और डोनाल्ड हॉवर्ड थे। भारतीयों को साइमन कमीशन से बाहर रखने का निर्णय लॉर्ड इर्विन के सुझावों के आधार पर लिया गया था, यद्यपि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसके पीछे लॉर्ड बिरकेनहेड का हाथ बताया है।

भारतीयों की प्रतिक्रिया

साइमन कमीशन के गठन की घोषणा से चौरीचौरा की घटना (4 फरवरी 1922) के बाद रुका हुआ राष्ट्रीय आंदोलन पुनः गतिमान हो गया। सभी वर्गों के भारतीयों ने साइमन कमीशन के गठन का तीव्र विरोध किया। भारतीयों को अपमानित करने के उद्देश्य से आयोग में किसी भी भारतीय सदस्य को नहीं लिया गया था। यह नस्लभेद का एक घिनौना उदाहरण था। इसके पीछे यह धारणा काम कर रही थी कि स्वशासन के लिए भारतीयों की योग्यता-अयोग्यता का निर्णय विदेशी करेंगे। इस प्रकार सरकार के इस कार्य को आत्म-निर्णय के सिद्धांत का उल्लंघन समझा गया और माना गया कि भारतीयों के आत्म-सम्मान को जानबूझकर चोट पहुँचाई गई है।

चूंकि साइमन कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे, इसलिए कांग्रेस ने इसे ‘श्वेत कमीशन’ कहकर इसका विरोध किया। अतः कांग्रेस ने 11 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया, जिसमें साइमन आयोग में एक भी भारतीय सदस्य न लिए जाने के कारण आयोग के बहिष्कार की घोषणा की गई। दिसंबर 1927 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मद्रास अधिवेशन एम.ए. अंसारी की अध्यक्षता में हुआ। अधिवेशन के अध्यक्ष एम.ए. अंसारी ने कहा कि भारतीय जनता का यह अधिकार है कि वह सभी संबद्ध गुटों का एक गोलमेज सम्मेलन या संसद का सम्मेलन बुलाकर अपने संविधान का निर्णय कर सके। साइमन आयोग की नियुक्ति द्वारा निश्चय ही उस दावे को नकार दिया गया है। इस प्रकार मद्रास अधिवेशन में, जिसमें गांधीजी ने भाग नहीं लिया था, कांग्रेस ने ‘हर कदम पर, हर रूप में साइमन कमीशन के बहिष्कार’ का निर्णय लिया। कांग्रेस के अलावा, तेजबहादुर सप्रू के लिबरल फेडरेशन, मुस्लिम लीग, किसान मजदूर पार्टी, फिक्की इत्यादि ने भी साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय किया। राष्ट्रवादियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए मुस्लिम लीग ने मिले-जुले चुनाव मंडलों के सिद्धांत को इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया कि मुसलमानों के लिए कुछ सीटें आरक्षित रखी जाएँ। इस प्रकार अस्थायी तौर पर ही सही, साइमन कमीशन ने देश के विभिन्न समूहों और दलों को एक बार फिर एकताबद्ध कर दिया।

किंतु हिंदू महासभा, मद्रास की जस्टिस पार्टी, पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी, भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में कुछ हरिजन संगठनों, जैसे- ऑल इंडिया अछूत फेडरेशन और मुहम्मद शफी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग के एक गुट ने साइमन कमीशन के गठन का समर्थन किया। लखनऊ के कुछ तालुकेदारों और पूँजीपतियों ने भी आयोग का समर्थन किया। इसके अलावा सेंट्रल सिख लीग ने भी साइमन कमीशन का विरोध नहीं किया था।

कमीशन का आगमन और विरोध

साइमन कमीशन ने कुल 2 बार भारत का दौरा किया। साइमन कमीशन पहली बार 3 फरवरी 1928 को बंबई पहुँचा। साइमन कमीशन के भारत पहुँचने पर एक शक्तिशाली राष्ट्रव्यापी विरोध-आंदोलन उठ खड़ा हुआ, जिससे राष्ट्रवादी उत्साह और एकता ने नई ऊँचाइयों को छू लिया। कमीशन के विरोध में अखिल भारतीय हड़ताल हुई, काले झंडे दिखाए गए और ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाए गए। ‘साइमन गो बैक’ का नारा सबसे पहले समाजवादी नौजवान यूसुफ मेहराली ने दिया था। बंबई का छात्र समुदाय काला झंडा लहराते हुए सड़कों पर निकल आया और शांतिपूर्ण जुलूस निकाले गए। के.एफ. नरीमन ने बॉम्बे यूथ लीग की विशाल जनसभा की और साइमन के साथ-साथ स्टैनली बाल्डविन, बिरकेनहेड और मैकडॉनल्ड के पुतले फूँके गए।

साइमन कमीशन जहाँ-कहीं भी गया- मद्रास, कलकत्ता (कोलकाता), लाहौर, लखनऊ, विजयवाड़ा और पूना सभी स्थानों पर विशाल जनसमूह ने साइमन का जबरदस्त विरोध किया और काले झंडे दिखाकर उसका स्वागत किया। मद्रास में साइमन कमीशन का विरोध टी. प्रकाशम के नेतृत्व में किया गया, जहाँ प्रदर्शनकारियों का पुलिस के साथ टकराव हुआ, गोली चली और एक व्यक्ति मारा गया। 19 फरवरी को साइमन के कलकत्ता पहुँचने पर भारी प्रदर्शन किया गया। 1 मार्च को कलकत्ता में ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार करने के लिए सभाएँ आयोजित की गईं। दिल्ली में आयोग के स्वागत के लिए कोई भी भारतीय नहीं गया।

लखनऊ में 28-30 नवंबर को साइमन कमीशन का विरोध करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू और गोविंद वल्लभ पंत पुलिस की लाठियों से बुरी तरह घायल हो गए। लखनऊ के कैसरबाग में ताल्लुकेदारों द्वारा साइमन कमीशन के सदस्यों के लिए आयोजित स्वागत-समारोह के दौरान खलीकुज्जमाँ ने पतंगों और गुब्बारों पर ‘साइमन वापस जाओ’ लिखकर कमीशन के सदस्यों के ऊपर आकाश में उड़ाया। इस प्रकार ‘गो बैक’ के नारों से परेशान साइमन कमीशन इंग्लैंड लौट गया।

साइमन कमीशन दूसरी बार अक्टूबर 1928 में भारत आया और 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर पहुँचा, जहाँ सचिवालय के सामने कमीशन के विरोध में प्रदर्शन का नेतृत्व शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय ने किया। नौजवान भारत सभा के जुझारू नवयुवकों ने साइमन-विरोधी सभा एवं प्रदर्शन का प्रबंध संभाला। 31 अक्टूबर 1928 को जहाँ से कमीशन के सदस्यों को निकलना था, वहाँ भीड़ ज्यादा थी। लाहौर के पुलिस अधीक्षक स्कॉट ने लाठीचार्ज का आदेश दिया और उप-अधीक्षक सॉन्डर्स जनता पर टूट पड़ा। लाहौर का आकाश सरकार-विरोधी नारों से गूँजने लगा और प्रदर्शनकारियों के सिर फूटने लगे। इस विरोध के दौरान स्कॉट ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं, जिससे वे बुरी तरह घायल हो गए। अंत में, बुरी तरह घायल ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय ने जनसभा में सिंह गर्जना की : ‘‘आज मेरे ऊपर बरसी हर एक लाठी की चोट एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।’’ अंततः इसी चोट के कारण 18 दिन बाद 17 नवंबर 1928 को लाला लाजपत राय शहीद हो गए।

लाला लाजपत राय की मृत्यु पर श्रद्धांजलि देते हुए मोतीलाल नेहरू ने उन्हें ‘प्रिंस अमंग पीस मेकर्स’ कहा था, जबकि मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि इस क्षण लाला लाजपत राय की मृत्यु भारत के लिए एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। लाला लाजपत राय की मृत्यु पर दुख प्रकट करते हुए गांधीजी ने कहा था : ‘‘भारतीय सौरमंडल का एक सितारा डूब गया है। लालाजी की मृत्यु ने एक बहुत बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है, जिसे भरना अत्यंत कठिन है। वे एक देशभक्त की तरह मरे हैं और मैं अभी भी नहीं मानता हूँ कि उनकी मृत्यु हो चुकी है, वे अभी भी जिंदा हैं।’’ लाला लाजपत राय की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए साइमन कमीशन के अध्यक्ष जॉन साइमन ने स्वयं कहा था कि एक उत्साही सामाजिक कार्यकर्ता और एक मुख्य राजनीतिक कार्यकर्ता का अवसान हो गया है।

साइमन आयोग की रिपोर्ट

साइमन कमीशन ने कुल दो बार भारत का दौरा किया। पहली बार वह फरवरी-मार्च 1928 में भारत आया, जबकि दूसरी बार अक्टूबर 1928 में। साइमन कमीशन ने मई 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी और यह रिपोर्ट 27 मई 1930 को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशित की गई। साइमन आयोग की मुख्य सिफारिशें इस प्रकार थीं-

  1. 1919 के भारत सरकार अधिनियम के तहत लागू की गई द्वैध शासन-व्यवस्था को समाप्त कर प्रांतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की जाए, किंतु केंद्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का अभी समय नहीं आया है।
  2. केंद्रीय विधानमंडल को पुनर्गठित किया जाए, जिसमें एक इकाई की भावना को छोड़कर संघीय भावना का पालन किया जाए, साथ ही इसके सदस्य परोक्ष पद्धति से प्रांतीय विधानमंडलों द्वारा चुने जाएँ।
  3. साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में उच्च न्यायालय को भारत सरकार के अधीन कर दिया जाए।
  4. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि बर्मा (वर्तमान म्यांमार) को भारत से अलग कर दिया जाए और उड़ीसा तथा सिंध को नए प्रांतों के रूप में स्थापित किया जाए।
  5. प्रांतीय विधानमंडलों में सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाए। गवर्नर व गवर्नर जनरल अल्पसंख्यक जातियों के हितों के प्रति विशेष ध्यान रखें। प्रत्येक दस वर्ष बाद पुनरीक्षण के लिए एक संवैधानिक आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था को समाप्त किया जाए और भारत के लिए एक ऐसा लचीला संविधान बनाया जाए, जो स्वयं से विकसित हो।
  6. साइमन कमीशन ने इस बात की भी सिफारिश की थी कि भारत परिषद को अभी बनाए रखा जाए, किंतु उसके अधिकारों में कमी की जाने की आवश्यकता है।
साइमन कमीशन की रिपोर्ट की समीक्षा

राजनीतिक दस्तावेज के रूप में साइमन कमीशन की रिपोर्ट कागजों का मात्र एक ऐसा पुलिंदा थी, जो शिवस्वामी अय्यर के अनुसार ‘रद्दी की टोकरी में फेंकने के लायक’ थी क्योंकि इस रिपोर्ट में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना के विषय में कोई उल्लेख नहीं किया गया था। अतः भारत के किसी राजनैतिक दल ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया। फिर भी, इसका सबसे बड़ा गुण यह था कि यह भारत की समस्याओं का एक बुद्धिमत्तापूर्ण अध्ययन था और इसने राजनैतिक पुस्तकालय को एक उच्च कोटि की रचना प्रदान की। यही कारण है कि साइमन कमीशन की कई सिफारिशें 1935 के भारत सरकार अधिनियम में लागू की गईं।

कमीशन का राष्ट्रीय आंदोलन पर प्रभाव

साइमन कमीशन का गठन अंग्रेजों की औपनिवेशिक चाल का ही एक हिस्सा था, किंतु यह दाँव उनके लिए उलटा पड़ गया। इस समय देश सांप्रदायिक दंगों की चपेट में था, भारत की एकजुटता नष्ट हो चुकी थी और गांधीजी के नेपथ्य में चले जाने से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक ठहराव-सा आ गया था। किंतु साइमन कमीशन की नियुक्ति की घोषणा ने भारत की सोई जनता को जगा दिया। इसने कांग्रेस के टिमटिमाते दीये में फिर से जान फूँक दी और इधर-उधर बिखरे हुए राजनैतिक दल एक मंच पर आ गए।

साइमन के बहिष्कार के कारण एकाएक नौजवानों के संघ और संगठन बनने लगे। इसके बहिष्कार के लिए देश के अनेक भागों में मजदूर-किसान पार्टियाँ बनीं। साइमन विरोधी आंदोलन की लहर में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस नेता के रूप में उभरे। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस ने पूरे देश का दौरा कर हजारों नौजवान सभाओं को संबोधित किया और असंख्य बैठकों की अध्यक्षता की। यह सही है कि साइमन कमीशन-विरोधी आंदोलन तात्कालिक रूप से किसी व्यापक राजनीतिक संघर्ष को जन्म नहीं दे सका। इसका कारण था कि राष्ट्रीय आंदोलन के अघोषित, किंतु सर्वमान्य नेता गांधी को विश्वास नहीं था कि संघर्ष का समय आ गया है। साइमन कमीशन के विरुद्ध अखिल भारतीय अभियान में भी गांधीजी ने स्वयं भाग न लेकर आंदोलन को केवल अपना आशीर्वाद दिया था और इसी वर्ष बारदोली में होने वाले एक किसान सत्याग्रह के साथ भी उन्होंने ऐसा ही किया था। किंतु अब जनता के उत्साह को अधिक समय तक बाँधकर रखा नहीं जा सकता था। साइमन विरोधी आंदोलन के कारण रुका हुआ क्रांतिकारी आंदोलन भी उत्तर भारत और बंगाल में फिर से उठ खड़ा होने लगा। इस प्रकार साइमन कमीशन ने भारतीय दलों को आपसी फूट एवं मतभेद की स्थिति से उबरने और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को उत्साहित करने में सहयोग दिया।

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