समुद्रगुप्त (Samudragupta)

‘पराक्रमांक’ समुद्रगुप्त चंद्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न उनका […]

समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (Samudragupta Prakramank')

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‘पराक्रमांक’ समुद्रगुप्त

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न उनका पुत्र (महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तपुत्रस्य लिच्छविदौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज श्रीसमुद्रगुप्तस्य) ‘पराक्रमांक’ समुद्रगुप्त गुप्त राजसिंहासन पर आसीन हुआ, जिसे प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में गिना जाता है। उसका शासनकाल भारतीय इतिहास में राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उत्कर्ष का काल माना जाता है। विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न यह सम्राट कुशल योद्धा, प्रवीण सेनापति, सफल संगठनकर्ता, काव्यप्रेमी तथा कला और संस्कृति का प्रखर संरक्षक था। यद्यपि गुप्त साम्राज्य की स्थापना का श्रेय उसके पिता चंद्रगुप्त प्रथम को है, किंतु इसके संवर्धन और विस्तार का वास्तविक कार्य समुद्रगुप्त ने ही संपन्न किया।

मत्स्य-न्याय के समकालीन वातावरण का अंत, प्रबल प्रतिद्वंद्वियों का उन्मूलन और अहंकारी शक्तियों का मानमर्दन करते हुए उसने अपने पिता द्वारा सौंपी गई वसुधा के सफल संरक्षण का कठिन दायित्व निभाया और एक तेजस्वी सम्राट का नवीन आदर्श प्रस्तुत किया। यह सम्राट एक ओर ‘सर्वराजोच्छेता’ था, तो दूसरी ओर ‘शास्त्रतत्त्वार्थभर्ता’ भी था।

ऐतिहासिक स्रोत

प्रयाग-प्रशस्ति

समुद्रगुप्त के व्यक्तित्व और कृतित्व का समुचित विवरण हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है। महादंडनायक ध्रुवभूति का पुत्र हरिषेण समुद्रगुप्त का कुमारामात्य और संधिविग्रहिक था। इस प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, और साम्राज्य-विस्तार की जानकारी प्राप्त होती है। यह अभिलेख मूल रूप से कौशांबी में था, जिस पर मौर्य सम्राट अशोक ने अपना लेख उत्कीर्ण करवाया था। संभवतः इसे मुगल काल में इलाहाबाद के किले में लाया गया। इस स्तंभ पर जहाँगीर के काल का भी लेख मिलता है।

अशोक और जहाँगीर के लेखों के बीच समुद्रगुप्त का लेख प्राप्त होता है। यह लेख संस्कृत भाषा की चंपू शैली में है। प्रशस्ति का पूर्वार्ध पद्य और उत्तरार्ध गद्य में लिखा गया है। पूर्वार्ध के आठ श्लोकों में केवल तीसरा और चौथा श्लोक पूर्ण रूप से उपलब्ध हैं, अन्य श्लोक आधे-अधूरे हैं। तीसरे श्लोक में समुद्रगुप्त के विद्या-व्यसन और चौथे श्लोक में उनके युवराज चुने जाने का वर्णन है। प्रशस्ति के उत्तरार्ध में उनके आर्यावर्त, आटविक राज्यों, दक्षिणापथ अभियान तथा सीमांत राज्यों और विदेशी शक्तियों द्वारा उनकी अधीनता स्वीकार करने का विवरण है।

प्रयाग-प्रशस्ति में कोई तिथि नहीं है। इसकी शैली के आधार पर फ्लीट ने संभावना व्यक्त की थी कि यह लेख समुद्रगुप्त के किसी उत्तराधिकारी ने उत्कीर्ण करवाया होगा। किंतु लेख में समुद्रगुप्त के अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं है, जिससे प्रतीत होता है कि यह लेख यज्ञ के संपादन से पहले उत्कीर्ण करवाया गया था। चूंकि अभिलेख अतिशयोक्तिपूर्ण और चाटुकारिता की शैली में है, इसलिए इसका उपयोग सावधानीपूर्वक करना आवश्यक है।

एरण का लेख

समुद्रगुप्त का एक खंडित लेख एरण (सागर, मध्य प्रदेश) से भी प्राप्त हुआ है, जो संभवतः किसी सामंत द्वारा उत्कीर्ण करवाया गया था। इस लेख में समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से श्रेष्ठ दानी कहा गया है, जो प्रसन्न होने पर कुबेर और रुष्ट होने पर यमराज के समान था। लेख से पता चलता है कि ऐरिकिण प्रदेश (एरण) उसका भोगनगर था। संभवतः समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिण भारतीय अभियान के दौरान एरण को अपना सैनिक केंद्र बनाया था।

गया एवं नालंदा के ताम्रपत्र लेख

इसके अतिरिक्त, गया और नालंदा से दो ताम्रपत्र लेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें समुद्रगुप्त का नाम और उसकी उपलब्धियों का उल्लेख है। किंतु फ्लीट और दिनेशचंद्र सरकार जैसे इतिहासकार इन लेखों को जाली मानते हैं। नालंदा के ताम्रपत्र लेख को रमेशचंद्र मजूमदार समुद्रगुप्त की मौलिक मुद्रा मानने का आग्रह करते हैं, किंतु कुछ विद्वान इसे भी कूटरचित मानते हैं।

मुद्रा-साक्ष्य

समुद्रगुप्त की छह प्रकार की स्वर्ण मुद्राएँ मिली हैं, जिन्हें गरुड़, धनुर्धर, परशु, अश्वमेध, व्याघ्रनिहंता, और वीणावादन प्रकार के नाम से जाना जाता है। इन मुद्राओं से उनकी अभिरुचि और शासनकाल की घटनाओं की जानकारी मिलती है। इनमें से गरुड़, धनुर्धर, और परशु जैसी मुद्राएँ उनके सैनिक जीवन से संबंधित प्रतीत होती हैं।

उत्तराधिकार युद्ध और राज्यारोहण

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि चंद्रगुप्त प्रथम के अनेक पुत्रों में समुद्रगुप्त सबसे योग्य और प्रतिभाशाली था। लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था। चंद्रगुप्त ने उसे अपना उत्तराधिकारी चुना और इस निर्णय को राज्यसभा में सभी सभ्यों के समक्ष घोषित किया। इस अवसर पर प्रसन्नता के कारण उनका सारा शरीर रोमांचित हो उठा था और आँखों में आंसू छलक आए थे। उन्होंने समुद्रगुप्त को गले लगाया और कहा : “तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।” इस निर्णय से राज्यसभा में उपस्थित सभी सभ्य प्रसन्न हुए, किंतु अन्य राजकुमारों (तुल्यकुलजों) के मुख मलिन हो गए। चंद्रगुप्त द्वारा समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी नियुक्त करने के निर्णय से संभवतः उनके अन्य पुत्र प्रसन्न नहीं थे।

‘काच’ का विद्रोह

रैप्सन और फादर हेरास का मत है कि राज्याभिषेक के बाद समुद्रगुप्त के भाइयों ने ‘काच’ के नेतृत्व में उनके विरुद्ध विद्रोह किया। काच नामक कुछ स्वर्ण सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिनके मुख भाग पर राजा की आकृति और मुद्रालेख “काचो गामवजित्य दिवं कर्मभिरुत्तमैर्जयति” (काच पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है) उत्कीर्ण है तथा पृष्ठ भाग पर “सर्वराजोच्छेता” (समस्त राजाओं का उन्मूलन करने वाला) उपाधि अंकित है। रैप्सन और फादर हेरास का अनुमान है कि काच चंद्रगुप्त का बड़ा पुत्र था, जिसने उनकी मृत्यु के बाद सिंहासन पर अधिकार कर लिया। गुप्तकाल के अन्य स्वर्ण सिक्कों की तुलना में काच के सिक्कों में सोने की मात्रा बहुत कम है, जिससे प्रतीत होता है कि भाइयों के इस संघर्ष से राज्यकोष पर बुरा प्रभाव पड़ा और काच को अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम करनी पड़ी। किंतु काच अधिक समय तक शासन नहीं कर सका और समुद्रगुप्त ने शीघ्र ही पाटलिपुत्र के सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

काच के सिक्के

किंतु इस उत्तराधिकार युद्ध का समर्थन किसी अन्य स्रोत से नहीं होता। ‘काच’ नामक गुप्त शासक की सत्ता को मानने का आधार केवल वे सिक्के हैं, जिन पर उनका नाम ‘सर्वराजोच्छेता’ विशेषण के साथ अंकित है। गुप्तवंश के इतिहास में ‘सर्वराजोच्छेता’ उपाधि केवल समुद्रगुप्त के लिए प्रयुक्त हुई है, और अनेक विद्वानों का मत है कि काच समुद्रगुप्त का ही दूसरा नाम था। एलन के अनुसार काच वास्तव में समुद्रगुप्त का मूल नाम था, किंतु दिग्विजय के बाद जब वह ‘आसमुद्राक्षितीश’ बना, तब उसने काच के स्थान पर ‘समुद्रगुप्त’ नाम धारण किया। काच नामक सिक्कों का मुद्रालेख “काचो गामवजित्य दिवं कर्मभिरुत्तमैर्जयति” समुद्रगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों पर उत्कीर्ण मुद्रालेख “राजाधिराजो पृथ्वीं विजित्य दिवं जयति” से मिलता-जुलता है।

समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (Samudragupta Prakramank')
काच के सिक्के

प्रयाग-प्रशस्ति में भी कहा गया है कि “संपूर्ण पृथ्वी को जीतने के कारण उसकी कीर्ति भूमंडल में विचरण करती हुई इंद्रलोक में पहुँच गई थी” (सर्वपृथ्वीविजय जनितोदयव्याप्त निखलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति भवनगमनावाप्त)। इससे प्रतीत होता है कि काच नामक सिक्के स्वयं समुद्रगुप्त के ही हैं। आर.पी. त्रिपाठी का सुझाव है कि ‘तुल्यकुलज’ का अर्थ गुप्तवंशीय राजकुमारों से नहीं, बल्कि अन्य समान राजवंशों के राजकुमारों से है, जो समुद्रगुप्त जैसे शक्तिशाली शासक के सिंहासनारोहण से अपने विजित होने के भय से दुखी थे। अतः इससे उत्तराधिकार युद्ध का निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए। यदि ऐसा हुआ भी, तो समुद्रगुप्त ने अपने पराक्रम से विद्रोहियों को शांत कर दिया था।

वाकाटक लेखों में समुद्रगुप्त के लिए ‘तत्पादपरिगृहीत’ शब्द प्रयुक्त है, जिससे स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त ने अनेक राजकुमारों में से अपने पुत्र समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। रमेशचंद्र मजूमदार का अनुमान है कि समुद्रगुप्त का राज्याभिषेक कर चंद्रगुप्त ने संन्यास ग्रहण कर लिया था।

समुद्रगुप्त का धरणि-बंध अभियान

गृह-कलह से निवृत्त होकर राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर समुद्रगुप्त ने दिग्विजय की महती योजना बनाई, जिसका उद्देश्य प्रयाग-प्रशस्ति के शब्दों में ‘धरणिबंध’ (धरती को बांधना) था। इस दिग्विजय अभियान का विवरण इलाहाबाद की प्रयाग-प्रशस्ति पर उत्कीर्ण है। प्रशस्ति के अनुसार वह विविध युद्ध-कलाओं का मर्मज्ञ था और सैकड़ों लड़ाइयों में उसने भाग लिया था (विविधसमरशतावरण दक्षस्य)। उसकी मुद्राओं पर उसे अनेक युद्धों में विजय-प्राप्ति के लिए प्रख्यात (समरशतविततविजयो) बताया गया है। यह ‘पराक्रमांक’ (पराक्रम के लिए प्रसिद्ध) नरेश परशु, बाण, शंकु, शक्ति, तोमर, भिंदिपाल, नाराच और वैतस्तिक आदि अनेक शस्त्रों के प्रयोग में निपुण था। अपने बाहुबल पर भरोसा करने वाले (स्वभुजबलपराक्रमैक बंधोः) इस ‘सर्वराजोच्छेता’ सम्राट को शत्रुओं का मानमर्दन करने वाला (जितरिपु), अजेय (अजितः), अद्वितीय योद्धा (अप्रतिरथः), अतुलनीय पराक्रमी (अप्रतिवार्य्यवीर्य्य), पृथ्वी को जीतने वाला (विजित्य क्षितिं), प्रतिद्वंद्वी राजपुत्रों का विजेता (राजजेता), अपने पराक्रम द्वारा अनेक नरेशों को पराजित करने वाला (स्वभुजविजितानेकनरपतिः) तथा स्वर्गलोक को जीतने की महत्वाकांक्षा से युक्त (दिवं जयति) बताया गया है।

प्रथम आर्यावर्त अभियान

समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान सम्राट था। उसने अपने प्रथम आर्यावर्त अभियान में उत्तर भारत के तीन राजाओं को पराजित कर अपने अधीन किया, जिनका नामोल्लेख प्रयाग-प्रशस्ति की तेरहवीं-चौदहवीं पंक्ति में मिलता है। इन राजाओं के नाम इस प्रकार हैं- अच्युत, नागसेन और कोतकुलज।

अच्युत

अच्युत अहिछत्र का शासक था, जिसकी पहचान बरेली के आधुनिक रामनगर से की जाती है। इस क्षेत्र से अच्युत नामक मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। इनकी बनावट नागवंशी मुद्राओं से मिलती-जुलती है, जिससे यह नागवंशी शासक प्रतीत होता है। इससे स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त के समय में अहिछत्र में नागवंश की कोई महत्त्वपूर्ण शाखा शासन कर रही थी।

नागसेन

नागसेन भी नागवंशी शासक था, जिसकी पहचान हर्षचरित में उल्लिखित ‘नागसेन’ से की जाती है। इसकी राजधानी पद्मावती थी। पद्मावती की पहचान ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में स्थित आधुनिक ‘पद्म-पवाया’ से की जाती है। इस स्थान से नाग-मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भी नागवंश की कोई शाखा शासन कर रही थी। काशीप्रसाद जायसवाल इसे मथुरा का शासक मानते हैं।

अच्युत और नागसेन संभवतः भारशिव के नागवंश से संबंधित थे। यद्यपि भारशिव नागों की शक्ति का पहले ही पतन हो चुका था, किंतु कुछ क्षेत्रों में इनके छोटे-छोटे शासक अब भी शासन कर रहे थे। पराक्रमी समुद्रगुप्त ने ‘धरणिबंध’ के उच्च आदर्श को प्राप्त करने के लिए इन नागवंशी शासकों को पराजित कर उत्तर भारत में अपनी सत्ता को सुदृढ़ आधार प्रदान किया और अपनी राजकीय मुद्राओं पर गरुड़ के चित्र को अंकित कराना प्रारंभ किया।

कोतकुलज

कोतकुल में उत्पन्न इस शासक का नाम प्रयाग-प्रशस्ति में मिट गया है और केवल ‘ग’ अक्षर शेष है। दिनेशचंद्र सरकार जैसे विद्वानों का अनुमान है कि यह ‘गणपतिनाग’ हो सकता है, जिसका उल्लेख प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में है।

काशीप्रसाद जायसवाल भ्रमवश ‘कोतकुल’ की पहचान कौमुदीमहोत्सव में उल्लिखित मगधवंश के ‘कल्याणवर्मा’ से करते हैं। ‘कोत’ नामक कुछ मुद्राएँ पंजाब और दिल्ली से प्राप्त हुई हैं, जिससे प्रतीत होता है कि इस राजकुल का शासन संभवतः इसी प्रदेश में था। रमेशचंद्र मजूमदार के अनुसार कोतकुल शासक कन्नौज (पुष्पपुर) का शासक था।

काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि आर्यावर्त के तीनों राजाओं ने एक संयुक्त संघ बना लिया था और इस संघ को समुद्रगुप्त ने कौशांबी में पराजित किया था। सत्यता जो भी हो, समुद्रगुप्त ने अपने बाहुबल द्वारा इन तीनों राजाओं को जीतकर अपने अधीन कर लिया। इस युद्ध को ‘आर्यावर्त का प्रथम युद्ध’ कहा जाता है। मनुस्मृति में पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र तक और विंध्याचल तथा हिमालय पर्वतों के बीच स्थित भूभाग को ‘आर्यावर्त’ कहा गया है।

समुद्रगुप्त का दक्षिणापथ अभियान

प्रयाग-प्रशस्ति में प्रथम आर्यावर्त अभियान के पश्चात समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान का उल्लेख मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि उत्तर भारत में अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर समुद्रगुप्त ने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया और ऐरिकिण प्रदेश (एरण) को सैनिक गतिविधियों का केंद्र बनाकर दक्षिणापथ विजय की योजना बनाई। अपने दक्षिणापथ अभियान में समुद्रगुप्त ने कुल बारह शासकों को पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। दक्षिणापथ के पराजित बारह राज्यों और उनके राजाओं का नाम प्रयाग-प्रशस्ति की उन्नीसवीं और बीसवीं पंक्तियों में मिलता है, जिनका विवरण निम्नलिखित है:

समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (Samudragupta Prakramank')
समुद्रगुप्त का दक्षिणापथ अभियान
कोशल का महेंद्र

कोशल से तात्पर्य दक्षिण कोशल से है, जिसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के बिलासपुर, रायपुर और संभलपुर के क्षेत्र शामिल थे। संभवतः गंजाम का कुछ भाग भी इसमें सम्मिलित था। इसकी राजधानी श्रीपुर की पहचान रायपुर के उत्तर-पूर्व में स्थित सिरपुर से की जाती है।

अच्युत और नागसेन की पराजय के बाद दक्षिण कोशल से उत्तर के सभी क्षेत्र गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत थे। दक्षिण की ओर विजय-यात्रा करते हुए सबसे पहले दक्षिण कोशल का स्वतंत्र राज्य ही पड़ता था। महेंद्र को पराजित करने से उड़ीसा में समुद्रगुप्त के प्रभाव का सूत्रपात हुआ। इससे पता चलता है कि वह अपने दक्षिणापथ अभियान में उड़ीसा से होकर पूर्वी घाट की ओर बढ़ा था।

महाकांतार का व्याघ्रराज

कोशल के दक्षिण-पूर्व में महाकांतार (जंगली प्रदेश) था। रमेशचंद्र मजूमदार ने महाकांतार को उड़ीसा में स्थित जयपुर नामक वनमय प्रदेश से समीकृत किया है, जिसे प्राचीन अभिलेखों में ‘महावन’ कहा गया है। हेमचंद्र रायचौधरी ने महाकांतार की पहचान कांतार से की है, जो वैनगंगा और पूर्वी कोशल के बीच स्थित था, जहाँ आजकल गोंडवाना का सघन जंगल है।

फ्लीट और दिनेशचंद्र सरकार ने व्याघ्रराज की पहचान ‘व्याघ्रदेव’ से की है, जो वाकाटक महाराज पृथ्वीषेण का सामंत था। मिराशी का अनुमान है कि नचना और गंज के लेखों का व्याघ्रदेव वाकाटक महाराज पृथ्वीषेण द्वितीय का मांडलिक रहा होगा। भंडारकर व्याघ्रदेव की पहचान उच्चकल्पवंशी (बुंदेलखंड के जसो और अजयगढ़ के राजवंश) व्याघ्र से करते हैं, जो जयनाथ का पिता था और जिसका नामोल्लेख शर्वनाथ के खोह अभिलेख में है।

कोराल का मंटराज

बर्नेट और रायचौधरी के अनुसार कोराल से तात्पर्य दक्षिण भारत के करोड़ नामक किसी आधुनिक ग्राम से है। कुछ विद्वान इस स्थान को उड़ीसा के गंजाम जिले में स्थित आधुनिक कोलाड़ से समीकृत करते हैं। उदयनारायण राय के अनुसार इसका तात्पर्य आधुनिक कोड़ाल से है, जो गंजाम जिले में ही स्थित है। वस्तुतः कोराल राज्य दक्षिणी मध्य प्रदेश के सोनपुर क्षेत्र के आसपास स्थित था।

पिष्टपुर का महेंद्रगिरि

इस स्थान की पहचान गोदावरी जिले में स्थित वर्तमान पीठापुरम से की जाती है, जो प्राचीन काल में ‘पिष्टपुर’ कहलाता था। इसका नामोल्लेख पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख में भी हुआ है (पिष्टं पिष्टपुरं येन जातं दुर्गमदुर्गमम्)। पिष्टपुरी का उल्लेख महाराज संक्षोभ के खोह ताम्रपट्ट (गुप्त संवत् 209) में भी मिलता है, जो किसी स्थानीय देवी का नाम प्रतीत होता है।

कोट्टूर का स्वामिदत्त

कोट्टूर की पहचान गंजाम जिले के आधुनिक कोठूर से की जा सकती है। सैलेतोर इसे बेलारी जिले के गुडलिगी तालुका (पश्चिमी घाट) के वर्तमान कोट्टूर से समीकृत करते हैं। जी. रामदास के अनुसार कोट्टूर महेंद्रगिरि स्थान का नाम है, जिसका तात्पर्य पूर्वी घाट की पहाड़ियों से है। इसलिए इससे किसी शासक का भाव निकालना उचित नहीं है। स्वामिदत्त दो राज्यों का शासक था। एक की राजधानी पिष्टपुर और दूसरे की राजधानी पूर्वी घाट के निकट कोट्टूर में थी। समुद्रगुप्त द्वारा दक्षिणापथ में पराजित किए गए राजाओं की संख्या बारह नहीं, ग्यारह मानना चाहिए, किंतु इस निष्कर्ष से सहमत होना कठिन है।

एरण्डपल्ल का दमन

फ्लीट ने इसकी पहचान खानदेश में स्थित एरण्डोल के साथ की है और जुबो डुब्रील ने इसे उड़ीसा के समुद्रतट पर स्थित एरण्डपल्ली माना है। इसका उल्लेख कलिंग नरेश देवेंद्रवर्मा के ‘सिद्धांतम्’ के ताम्रलेखों में हुआ है। एरण्डपल्ल की पहचान कलिंग के दक्षिण विजगापट्टम में स्थित एँडपिल्ली से की जानी चाहिए।

काँची का विष्णुगोप

काँची से तात्पर्य दक्षिण भारत के कांजीवरम से है। काँची दक्षिण भारत का प्रसिद्ध नगर था, जहाँ पल्लवों की राजधानी थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस नगर की प्रशंसा की है। विष्णुगोप पल्लववंशी सम्राट प्रतीत होता है। आंध्र प्रदेश के पूर्वी जिलों और कलिंग को जीतकर समुद्रगुप्त ने अपने अधीन कर लिया।

अवमुक्त का नीलराज

काशीप्रसाद जायसवाल ने इसकी पहचान हाथीगुम्फा लेख में उल्लिखित अवराज से की है, जिसकी राजधानी पिथुंड थी। रायचौधरी के अनुसार नीलराज नीलपल्ली की याद दिलाता है, जो गोदावरी जिले के समुद्रतट पर स्थित एक प्राचीन बंदरगाह था। ब्रह्मपुराण में गोदावरी तट पर स्थित अविमुक्त क्षेत्र का उल्लेख मिलता है। प्रयाग-प्रशस्ति का अवमुक्त कभी-कभी इसी स्थान का स्मरण दिलाता है। किंतु प्रतीत होता है कि यह राज्य काँची के समीप ही स्थित था।

वेंगी का हस्तिवर्मन

वेंगी की पहचान वेगी या पेद्दि-वेगी से की जाती है। यह राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित था। वेंगी नाम की नगरी इस क्षेत्र में आज भी विद्यमान है। हस्तिवर्मन शालंकायनवंशी नरेश हस्तिवर्मा प्रथम प्रतीत होता है, जिसके अभिलेख पेद्दि-वेगी से मिले हैं। शालंकायन राजवंश दक्षिण भारत का एक महत्त्वपूर्ण राजकुल था, जिसे टॉल्मी ने ‘सलकेनोई’ कहा है।

पाल्लक का उग्रसेन

यह स्थान संभवतः आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में था। वहां का पलक्कड़ नामक स्थान पल्लव राज्य का एक विशिष्ट केंद्र था। डुब्रील, दिनेशचंद्र सरकार और हेमचंद्र रायचौधरी प्रयाग-प्रशस्ति के पाल्लक को पलक्कड़ से समीकृत करते हैं। कुछ इतिहासकार इसकी पहचान आधुनिक पालकोल्लू से करते हैं, जो गोदावरी नदी के मुहाने के निकट स्थित है।

देवराष्ट्र का कुबेर

कुछ विद्वान इसे सतारा जिले में मानते हैं और कुछ विजगापट्टम जिले में। विजगापट्टम से प्राप्त एक ताम्रलेख में एलामांची का उल्लेख मिलता है। इस लेख के अनुसार यह स्थान देवराष्ट्र क्षेत्र में स्थित था। एलामांची की पहचान आंध्र प्रदेश में स्थित आधुनिक एलमांचिली से की जाती है और अधिकांश इतिहासकार देवराष्ट्र का समीकरण इसी एलमांचिली क्षेत्र से करते हैं।

कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि काँची, वेंगी और अवमुक्त राज्यों के शासक पल्लव वंश के थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने संभवतः संयुक्त रूप से एक ही युद्ध में पराजित किया था, क्योंकि देवराष्ट्र का क्षेत्र दक्षिण से उत्तर की ओर लौटते हुए मार्ग में पड़ता था।

कुस्थलपुर का धनंजय

कुछ इतिहासकारों ने भ्रमवश इसका समीकरण कुस्थलपुर से कर दिया था, जो द्वारकापुरी का एक अन्य नाम था। आयंगर के अनुसार कुस्थलपुर से तात्पर्य कुशस्थली नदी के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों से है। वस्तुतः यह राज्य उत्तरी आर्काट जिले में स्थित था। इसकी स्मृति कुट्टलूर के रूप में आज भी सुरक्षित है।

समुद्रगुप्त की दक्षिण नीति

इस प्रकार समुद्रगुप्त सफलतापूर्वक विजय-यात्रा करता हुआ सुदूर दक्षिण में काँची तक पहुँच गया। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि इन नरेशों को पराजित करने के बाद समुद्रगुप्त ने उनका मूलोच्छेद नहीं किया और उन्हें कृपापूर्वक स्वतंत्र कर दिया था (सर्वदक्षिणापथ राजग्रहणमोक्षानुग्रह)। इससे प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त इन दक्षिणी राजाओं से भेंट-उपहार आदि प्राप्त करके संतुष्ट हो गया था। संभवतः इसीलिए समुद्रगुप्त को ‘अनेक उन्मूलित राजवंशों को पुनः प्रतिष्ठित करने वाला’ कहा गया है (अनेकभ्रष्ट राज्योत्सन्न राजवंशप्रतिष्ठापनोद्भूत निखिलभुवनविचरणाशांतयशस)। समुद्रगुप्त की इस दक्षिण विजय की तुलना रघुवंश में वर्णित महाराज रघु की ‘धर्मविजय’ से की जा सकती है:

ग्रहीत प्रतिमुक्तस्य स च धर्मविजयीनृपः।

श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम्।।

संभवतः समुद्रगुप्त को इस अभियान में आने वाली विविध भौगोलिक कठिनाइयों से यह अनुभव हो गया था कि सुदूर दक्षिण के इन क्षेत्रों पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से नियंत्रण करना संभव नहीं होगा, इसलिए उसने विजित दक्षिणी राज्यों को लौटा दिया और उनकी सहानुभूति प्राप्त की।

कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि समुद्रगुप्त ने पहले उड़ीसा स्थित राज्यों को पराजित किया। पूर्वी दकन की विजय करता हुआ जब वह कृष्णा अथवा कावेरी नदी तक बढ़ आया, तो विष्णुगोप के नेतृत्व में पूर्वी घाट के राजाओं के एक संयुक्त दल ने उसे कोल्लेर झील के तट पर पराजित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप वह उड़ीसा के तटवर्ती भागों में की गई विजयों का परित्याग कर अपनी राजधानी लौट आया। किंतु यह विचार एक कल्पना मात्र है।

प्रयाग-प्रशस्ति से स्पष्ट है कि वह पूर्वी घाट के नरेशों को पराजित करता हुआ पल्लवों की राजधानी काँची तक पहुँच गया था। यह उसकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता थी कि उसने केंद्रीय दकन और पश्चिमी घाट की ओर अभियान नहीं किया, क्योंकि ऐसा करने पर उसे वाकाटकों और शकों की शक्ति का सामना करना पड़ता, जो तत्कालीन परिस्थितियों में आत्मघाती सिद्ध होता। फिर भी, प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ अभियान में वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण के सामंत व्याघ्रदेव को पराजित किया था। एरण लेख से स्पष्ट है कि ऐरिकिण प्रदेश पर समुद्रगुप्त का अधिकार था। संभव है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिणापथ के राज्यों को पराजित करता हुआ काँची पहुंचा हो, तो उसे आर्यावर्त के नौ नरेशों के विद्रोह की सूचना मिली हो और उसे अपना दक्षिणापथ अभियान छोड़कर वापस लौटना पड़ा हो।

काशीप्रसाद जायसवाल का अनुमान है कि दक्षिणापथ के बारह राज्य दो दलों में संगठित थे। प्रथम दल में कोट्टूर के स्वामिदत्त और एरण्डपल्ल के दमन थे, जिनका नेता कोराल का मंटराज था। दूसरे दल में शेष नौ राज्यों के नरेश शामिल थे, जिनका प्रधान नेता काँची का पल्लव नरेश विष्णुगोप था।

आर.एन. दंडेकर का कहना है कि दक्षिण के सभी बारह नरेश समुद्रगुप्त के विरुद्ध एक ही दल में संगठित थे और समुद्रगुप्त ने इस संगठित मोर्चे को कोलेयर-कासर के तट पर हराया था। प्रयाग-प्रशस्ति में इस स्थान को कोराल कहा गया है, किंतु दक्षिणापथ के राज्य आधुनिक रायपुर से लेकर काँची तक के विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए थे, इसलिए इन दूरस्थ क्षेत्रों का एक या दो दलों में संगठित होना तत्कालीन परिस्थितियों में संभव नहीं लगता। वस्तुतः समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के नरेशों को एक या दो युद्धों में नहीं, बल्कि अलग-अलग कई युद्धों में पराजित किया होगा।

इतिहासकारों का अनुमान है कि समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक रहा होगा। वस्तुतः दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक संपर्क के कारण पूर्वी घाट के राज्य आर्थिक दृष्टि से अधिक संपन्न और समृद्ध थे। कुबेर और धनंजय जैसे नाम उनकी संपन्नता के ही सूचक हैं। इस अभियान के द्वारा समुद्रगुप्त ने पूर्वी घाट के संपन्न शासकों से अपार धन-संपत्ति प्राप्त की होगी।

द्वितीय आर्यावर्त अभियान

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि दक्षिणापथ अभियान से लौटकर समुद्रगुप्त को उत्तर भारत में पुनः एक सैनिक अभियान करना पड़ा, जिसे ‘द्वितीय आर्यावर्त अभियान’ कहा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिण भारत में अपनी विजय-यात्रा में व्यस्त था, उत्तरी भारत (आर्यावर्त) के अधीनस्थ राजाओं ने विद्रोह कर दिया और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अपने द्वितीय आर्यावर्त अभियान में समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के नौ राज्यों को न केवल अपने अधीन किया, अपितु उनका समूलोच्छेद कर दिया। प्रशस्ति में इस नीति को ‘प्रसभोद्धरण’ कहा गया है, जो ‘ग्रहणमोक्षानुग्रह’ की नीति के प्रतिकूल थी। इस प्रकार जड़ से उखाड़े गए राजाओं का नाम प्रयाग-प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में मिलता है- रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नंदि और बलवर्मा।

रुद्रदेव

के.एन. दीक्षित, काशीप्रसाद जायसवाल और वासुदेव विष्णु मिराशी के अनुसार यह वाकाटक वंश का प्रसिद्ध शासक रुद्रसेन प्रथम था। किंतु प्रयाग-प्रशस्ति से स्पष्ट है कि रुद्रदेव आर्यावर्त का शासक था, जबकि रुद्रसेन दक्षिणापथ का। दिनेशचंद्र सरकार इसका समीकरण शक-क्षत्रप रुद्रदामन द्वितीय या उसके पुत्र रुद्रदामन तृतीय से करते हैं। ‘रुद्र’ नामक कुछ मुद्राएँ कौशांबी से प्राप्त हुई हैं, जो लिपि के आधार पर चतुर्थ शताब्दी ई. की प्रतीत होती हैं। प्रयाग-प्रशस्ति के रुद्रदेव का समीकरण इस कौशांबी नरेश से किया जा सकता है।

मतिल

मत्तिल अंकित एक मुद्रा बुलंदशहर से मिली है, जिसे कुछ विद्वान मतिल की मुद्रा मानते हैं। इस आधार पर वह आधुनिक बुलंदशहर के आसपास का शासक प्रतीत होता है।

नागदत्त

दिनेशचंद्र सरकार इसे उत्तरी बंगाल का शासक मानते हैं। किंतु वह कांतिपुरी का कोई नागवंशी शासक था। संभवतः समुद्रगुप्त की राजमहिषी दत्तदेवी इसी नागदत्त की बहन थी।

चंद्रवर्मा

यह पश्चिमी बंगाल के आधुनिक बांकुड़ा जिले के आसपास शासन करता था। बांकुड़ा के निकट सुसुनिया पहाड़ी की एक चट्टान पर उत्कीर्ण शिलालेख में चंद्रवर्मा नामक नरेश का नामोल्लेख मिलता है, जो सिंहवर्मा का पुत्र और पुष्करण नामक स्थान का स्वामी था। पुष्करण का समीकरण बांकुड़ा जिले के पोखरन से किया जा सकता है।

गणपतिनाग

भंडारकर के अनुसार गणपतिनाग विदिशा के प्रसिद्ध नाग राजवंश से संबंधित था। गणपतिनाग के कुछ सिक्के बेसनगर से भी उपलब्ध हुए हैं, किंतु इस नरेश की मुद्राएँ विदिशा की अपेक्षा मथुरा से अधिक मिली हैं, जिससे प्रतीत होता है कि उसने अपनी राजधानी विदिशा से मथुरा स्थानांतरित कर दी थी।

नागसेन

पद्मावती के इस नागवंशी शासक को समुद्रगुप्त ने अपने प्रथम आर्यावर्त अभियान में पराजित किया था, जो कालांतर में स्वतंत्र हो गया था। समुद्रगुप्त ने पुनः आक्रमण कर इसका समूलोन्मूलन कर इसके राज्य को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।

अच्युत

इस शासक को भी समुद्रगुप्त ने प्रथम आर्यावर्त युद्ध में पराजित किया था। किंतु प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त की व्यस्तता का लाभ उठाकर यह भी स्वतंत्र हो गया था। यही कारण है कि आर्यावर्त की दूसरी सूची में इसका नाम पुनः मिलता है। समुद्रगुप्त ने इसका उन्मूलन कर इसे अपने राज्य में मिला लिया।

नंदि

संभवतः नंदि का संबंध पद्मावती के नागवंश से था।

बलवर्मा

आर.एन. दंडेकर के अनुसार यह असम का शासक था, जो हर्ष के समकालीन कामरूप नरेश भास्करवर्मा का दसवां पूर्वज था। किंतु प्रयाग-प्रशस्ति में कामरूप को प्रत्यंत राज्य बताया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार बलवर्मा कोतकुलज नृपति था, जिसे प्रथम आर्यावर्त अभियान में समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। संभवतः बलवर्मा मौखरियों का कोई पूर्वज था।

रैप्सन ने समुद्रगुप्त द्वारा पराजित आर्यावर्त के नौ नरेशों की पहचान पुराणों में वर्णित नवनागों से की है, जो पद्मावती, कांतिपुरी और मथुरा में शासन करते थे:

नव नागस्तु भोक्ष्यन्ति पुरीं चम्पावतीं नृपाः।

मथुरां च पुरीं रम्यां नागाः भोक्ष्यन्ति सप्त वै।।

उनके अनुसार इन सभी नाग नरेशों ने समुद्रगुप्त के विरुद्ध एक मोर्चा बना लिया था और एक तुमुल युद्ध में उसने इन्हें पराजित किया। किंतु राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण इस प्रकार के संयुक्त मोर्चे के गठन की संभावना नहीं लगती।

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि आर्यावर्त नरेशों को जीतने के कारण समुद्रगुप्त की महानता बहुत बढ़ गई। प्रशस्ति की भाषा से प्रतीत होता है कि उसने ‘सर्वराजोच्छेता’ नीति का पालन करते हुए इन सभी राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। समुद्रगुप्त की इस नीति की तुलना हेमचंद्र रायचौधरी ने कौटिल्य के ‘असुर-विजय’ से की है। समुद्रगुप्त की इन विजयों के परिणामस्वरूप उसका राज्य पूरब में बंगाल के बांकुड़ा जिले से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक तथा हिमालय से लेकर विंध्य तक विस्तृत हो गया था।

समुद्रगुप्त की आटविक राज्यों की विजय

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार शासकों को आटविक शक्तियों को अपना सहयोगी और सहायक बनाने का प्रयास करना चाहिए। आटविक सेनाएँ युद्ध के लिए बहुत उपयोगी होती थीं। प्रयाग-प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने प्राचीन मौर्य नीति का प्रयोग करते हुए आटविक राज्यों के शासकों को अपना दास बना लिया था (परिचारिकीकृत सर्वाटविकराजस्य)। फ्लीट के अनुसार ये आटविक राज्य उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर (डभाल) तक फैले हुए थे। समुद्रगुप्त की आटविक विजय का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि उसके साम्राज्य में आधुनिक जबलपुर और इसके आसपास के क्षेत्र शामिल हो गए और उसने ‘हिमवद्विन्ध्यकुण्डला’ के आदर्श को पूर्ण किया। संभवतः इन आटविक राज्यों पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने व्याघ्रनिहंता प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन किया और ‘व्याघ्र-पराक्रम’ की उपाधि धारण की थी।

सीमांत राज्यों की विजय

प्रयाग-प्रशस्ति की बाईसवीं पंक्ति में कुछ प्रत्यंत शक्तियों का नामोल्लेख मिलता है, जिन्होंने समुद्रगुप्त के आर्यावर्त और दक्षिणापथ के अभियानों से भयभीत होकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। ऐसे सीमांत राज्य दो प्रकार के थे- पहली श्रेणी में पाँच प्रत्यंत राज्य थे, जो उत्तरी और उत्तरी-पूर्वी सीमा पर विद्यमान थे। दूसरी श्रेणी में मालव, अर्जुनायन, यौधेय जैसे नौ गणराज्य थे, जो पंजाब, मालवा, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ भागों में फैले हुए थे। इन राज्यों ने स्वयं समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। करद बनकर रहने वाले प्रत्यंत राज्यों के नाम हैं- समतट, डवाक, कामरूप, कर्तृपुर, और नेपाल।

समतट

हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार समतट का तात्पर्य बंगाल के पूर्वी समुद्रतट से है। सुधाकर चट्टोपाध्याय के अनुसार इसका अर्थ गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के बीच की भूमि से है। वस्तुतः इसका तात्पर्य दक्षिण-पूर्वी बंगाल से है।

डवाक

फ्लीट के अनुसार यह आधुनिक ढाका का प्राचीन नाम था। के.एल. बरुआ इसकी पहचान असम राज्य के नोगांव जिले में स्थित डबोक से करते हैं।

कामरूप

कामरूप से तात्पर्य असम से है। समुद्रगुप्त का समकालीन कामरूप शासक पुष्यवर्मा रहा होगा, जो हर्षकालीन भास्करवर्मा का पूर्वज था।

कर्तृपुर

फ्लीट ने इसकी पहचान जालंधर जिले के कर्तारपुर से की है। अधिकांश इतिहासकार इसकी पहचान उत्तराखंड के कतुरियाराज से करते हैं।

नेपाल

प्राचीन नेपाल आधुनिक गंडक और कोसी नदियों के बीच स्थित था। समुद्रगुप्त के समय नेपाल में लिच्छवि वंश का शासन था। यह राज्य वैशाली के लिच्छवि राज्य से पृथक था।

नौ गणराज्य

सीमांत (प्रत्यंत) राज्यों की दूसरी श्रेणी में नौ गणराज्य थे, जो समुद्रगुप्त के साम्राज्य की पश्चिमी और उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे। समुद्रगुप्तकालीन गणराज्यों का विवरण निम्नलिखित है- मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक और खरपरिक।

मालव

मालव एक प्राचीन गणराज्य था, जिसका प्रथम उल्लेख पाणिनि के अष्टाध्यायी में मिलता है। यूनानी लेखकों ने मालवों को ‘मल्लोई’ कहा है, जो सिकंदर के आक्रमण के समय पंजाब में कहीं शासन करते थे। मजूमदार के अनुसार समुद्रगुप्त के समय में वे मेवाड़, टोंक और राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग पर शासन कर रहे थे। मंदसौर अभिलेखों में मालव संवत का प्रचुर प्रयोग मिलता है, जिससे प्रतीत होता है कि मंदसौर से इस गण का विशेष संबंध था।

अर्जुनायन

इस गणराज्य के लोग भरतपुर और पूर्वी राजपूताना के बीच कहीं जयपुर के आसपास शासन करते थे।

यौधेय

इस गण की मुद्राएँ सहारनपुर से मुल्तान तक के क्षेत्र से मिली हैं, जिन पर ‘यौधेयगणस्य जयः’ लेख उत्कीर्ण है। विजयगढ़ लेख से प्रतीत होता है कि इनका राज्य किसी समय आधुनिक भरतपुर तक फैला हुआ था। संभवतः यह गणराज्य सतलज नदी के तटवर्ती क्षेत्र जोहियावाड़ के आसपास शासन करता था।

मद्रक

प्राचीन काल में इस गणराज्य के लोग रावी और चेनाब नदियों की मध्यवर्ती भूमि (मद्र देश) में शासन करते थे। संभवतः मालव आदि गणों की भांति इस गण के लोग भी दक्षिण अथवा दक्षिण-पूर्व में स्थानांतरित हो गए थे। समुद्रगुप्त के समय में इनका शासन-क्षेत्र स्पष्ट नहीं है।

आभीर

समुद्रगुप्त के समय में यह गणराज्य भिलसा और झांसी के बीच शासन करता था और इनकी राजधानी संभवतः आधुनिक अहिरवाड़ा में विद्यमान थी। यह स्थान प्राचीन आभीरबाट का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रार्जुन

इस गणराज्य के लोग मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में शासन कर रहे थे।

सनकानीक

इस गणराज्य के लोग आधुनिक भिलसा में शासन करते थे। चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि के वैष्णव गुहालेख (गुप्त संवत् 82) से पता चलता है कि सनकानीक महाराज भिलसा में गुप्तों की अधीनता स्वीकार करता था। संभवतः विष्णुदास समुद्रगुप्त का समकालीन सनकानीक महाराज था।

काक

काक गणराज्य का उल्लेख महाभारत में है। काक लोग संभवतः आधुनिक सांची में शासन करते थे। वहां से प्राप्त कुछ लेखों के अनुसार इसका प्राचीन नाम काकबाट अथवा काकनादबाट था।

खरपरिक

प्रयाग-प्रशस्ति के खरपरिकों की पहचान बतीहागढ़ के लेख में उल्लिखित खरपर (खर्पर) जाति से की जाती है। लेख के प्राप्ति-स्थान से प्रतीत होता है कि खरपरिक लोग दमोह (मध्य प्रदेश) में शासन करते थे। संभवतः खरपरिक शैव मतावलंबी थे और शिवगणों की भांति खर्पर धारण कर युद्ध करते थे (खर्परपाणयः)।

समुद्रगुप्त की सीमांत नीति

प्रयाग-प्रशस्ति की बाईसवीं-तेईसवीं पंक्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने इन सीमांत राज्यों को अपने अधीन कर इनके शासकों को सभी प्रकार के कर देने (सर्वकरदान), अपनी आज्ञा का पालन करने (आज्ञाकरण) और विशिष्ट अवसरों पर राजधानी में स्वयं उपस्थित होकर गुप्त-सम्राट को प्रणाम करने (प्रणामागमन) के लिए बाध्य किया था। इससे प्रतीत होता है कि इन गणराज्यों ने सम्राट के प्रचंड शासन (परितोषित प्रचण्डशासनस्य) को स्वीकार कर अपनी पृथक सत्ता बनाए रखना ही हितकर समझा।

इन सीमांत राज्यों की विजय के बाद समुद्रगुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदियों तक विस्तृत हो गया था। अल्तेकर का अनुमान है कि महत्वाकांक्षी समुद्रगुप्त के सैन्य-अभियानों के कारण गणराज्यों को बड़ा धक्का लगा। संभवतः कुछ गणराज्यों का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। किंतु चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि लेख से प्रतीत होता है कि अधीनस्थ राज्यों के रूप में गणराज्यों की सत्ता समुद्रगुप्त के बाद भी विद्यमान थी।

विदेशी शक्तियाँ

प्रयाग-प्रशस्ति की तेईसवीं पंक्ति में कुछ विदेशी शक्तियों- देवपुत्रषाहि षाहानुषाहि, शक-मुरुंड, सिंहलद्वीप और सर्वद्वीपवासी का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने समुद्रगुप्त को आत्मसंनिवेदन, कन्याओं का उपहार और गरुड़ मुद्रा से अंकित उसके आदेश को अपने-अपने शासन-क्षेत्रों में प्रचलित करना स्वीकार कर लिया था (आत्मनिवेदन कन्योपायनदान गरुत्मदंक स्वविषयभुक्ति शासन याचनाद्युपायसेवा)।

देवपुत्रषाहि षाहानुषाहि

इससे तात्पर्य उत्तर कुषाणों से है। ए.एस. अल्तेकर के अनुसार समुद्रगुप्त के समय उत्तर कुषाण नरेश किदार था, जो पुरुषपुर (पेशावर) में शासन करता था। वह पहले ससैनियन नरेश शापुर द्वितीय की अधीनता स्वीकार करता था। संभवतः किदार कुषाण ससैनियन नरेश की अधीनता से मुक्त होना चाहता था, इसलिए उसने समुद्रगुप्त के दरबार में अपना दूतमंडल भेजा था। रमेशचंद्र मजूमदार के अनुसार उत्तर-पश्चिम भारत में गडहर नरेश भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करता था, क्योंकि उसकी एक मुद्रा पर ‘समुद्र’ उत्कीर्ण है।

शक

शक उस समय पश्चिम भारत में शासन कर रहे थे। अल्तेकर के अनुसार समुद्रगुप्तकालीन महाक्षत्रप रुद्रसेन तृतीय था।

मुरुंड

टॉल्मी के भूगोल से पता चलता है कि मुरुंड लोग गुप्तों के अभ्युदय से पूर्व गंगा की ऊपरी घाटी में शासन करते थे। चीनी स्रोतों में इन्हें ‘मेउलुन’ कहा गया है। इनका राज्य गंगा नदी के मुहाने से सात हजार ली (लगभग 1200 मील) की दूरी पर स्थित था। यह स्थान कन्नौज हो सकता है। हेमचंद्र के अभिधानचिंतामणि ग्रंथ के अनुसार मुरुंडों का एक राज्य लम्पाक (आधुनिक लघमन) में स्थित था। संभवतः लघमन के मुरुंडों के साथ समुद्रगुप्त का कोई राजनीतिक संबंध था।

सिंहलद्वीप

सिंहलद्वीप से तात्पर्य श्रीलंका से है। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के समकालीन श्रीलंका के शासक मेघवर्ण (चि-मि-किआ-मो-पो) ने बौद्ध यात्रियों की सुविधा के लिए बोधिवृक्ष के उत्तर की दिशा में एक सुंदर बौद्ध मठ बनवाया था। इस कार्य की अनुमति प्राप्त करने के लिए सिंहल नरेश ने उपहारों सहित अपना दूतमंडल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा था। ह्वेनसांग की यात्रा के समय यहाँ एक हजार से अधिक बौद्ध भिक्षु निवास करते थे।

सर्वद्वीपवासी

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि सिंहल के अतिरिक्त कुछ अन्य द्वीपों के वासियों (सर्वद्वीपवासिभिः) ने भी समुद्रगुप्त को बहुमूल्य उपहार आदि दिए थे। कुछ इतिहासकार सर्वद्वीप से तात्पर्य वायु पुराण में उल्लिखित अठारह पूर्वी द्वीपों से मानते हैं।

इस प्रकार सिंहल, शक, मुरुंड और कुषाण आदि विदेशी शक्तियों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी। किंतु हरिषेण ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि इन शक्तियों के साथ समुद्रगुप्त का कोई प्रत्यक्ष युद्ध हुआ था अथवा केवल कूटनीतिक संबंध थे। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि ये शासक आत्म-निवेदन, कन्योपायन और भेंट-उपहार आदि के द्वारा महाप्रतापी गुप्त सम्राट को संतुष्ट रखते थे और उसके कोप से बचे रहते थे।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य-विस्तार

अपनी विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त एक विशाल साम्राज्य का स्वामी हो गया। पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में असम तक और दक्षिण में सिंहल (लंका) द्वीप से लेकर उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद तक समुद्रगुप्त की तूती बोलती थी। आर्यावर्त के क्षेत्र उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे; दक्षिणापथ के शासक उसकी अनुग्रह से अपनी सत्ता बचाए हुए थे; सीमांत-क्षेत्रों के राज्य और गणराज्य उसे नियमित रूप से कर भुगतान करते थे और पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियाँ व दूरस्थ राजा भेंट-उपहार आदि समर्पित कर उसके साथ मैत्री-संबंध स्थापित किए हुए थे। प्रयाग-प्रशस्ति में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि ‘पृथ्वीभर में कोई उसका प्रतिरथ (विरुद्ध खड़ा होने वाला) नहीं था, संपूर्ण पृथ्वी को उसने एक प्रकार से अपने बाहुबल से बांध रखा था (बाहुवीर्यप्रसरण धरणिबंधस्य)। वस्तुतः समुद्रगुप्त के शासनकाल में सदियों के राजनीतिक विकेंद्रीकरण और विदेशी शक्तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त एक बार पुनः नैतिक, बौद्धिक और भौतिक उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था।

समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (Samudragupta Prakramank')
समुद्रगुप्त का साम्राज्य-विस्तार

समुद्रगुप्त की प्रशासकीय व्यवस्था

समुद्रगुप्त एक नीति-निपुण शासक था। उसके शासन-प्रबंध के संबंध में अधिक जानकारी नहीं है। संभवतः साम्राज्य का केंद्रीय भाग उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में था। प्रयाग-प्रशस्ति में उसके कुछ पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं:

संधिविग्रहिक: यह संधि और युद्ध का मंत्री होता था। समुद्रगुप्त का संधिविग्रहिक हरिषेण था, जिसने प्रयाग-प्रशस्ति की रचना की थी।

खाद्यटपाकिक: यह राजकीय भोजनशाला का अध्यक्ष होता था। इस पद पर ध्रुवभूति नामक पदाधिकारी नियुक्त था।

कुमारामात्य: ये उच्च श्रेणी के पदाधिकारी होते थे, जो अपनी योग्यता के बल पर उच्च से उच्च पद प्राप्त कर सकते थे। गुप्त लेखों में विषयपति, राज्यपाल, सेनापति, मंत्री आदि सभी को कुमारामात्य कहा गया है।

महादंडनायक: दिनेशचंद्र सरकार के अनुसार यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी और फौजदारी का न्यायाधीश था। अल्तेकर के अनुसार यह सेना का उच्च पदाधिकारी होता था।

समुद्रगुप्त को युद्धों में व्यस्त रहने के कारण शासन-व्यवस्था का स्वरूप निर्धारण करने का अधिक अवसर नहीं मिला। प्रयाग-प्रशस्ति में ‘भुक्ति’ और ‘विषय’ शब्दों के प्रयोग से प्रतीत होता है कि साम्राज्य का विभाजन प्रांतों और जिलों में किया गया था।

अश्वमेध यज्ञ

संपूर्ण भारत में एकछत्र अबाधित शासन स्थापित कर और धरणिबंध के आदर्श को पूर्ण कर समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया और ‘पराक्रमांक’ की उपाधि धारण की। प्रयाग-प्रशस्ति में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता, जिससे प्रतीत होता है कि इस यज्ञ का संपादन प्रशस्ति के लिखे जाने के बाद हुआ था। स्कंदगुप्त के भितरी लेख में समुद्रगुप्त को ‘चिरोत्सन्नाश्वमेधहर्त्तुः’ (चिरकाल से परित्यक्त अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला) और प्रभावतीगुप्ता के पूना ताम्रलेख में ‘अनेकाश्वमेधयाजिन्’ (अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला) कहा गया है।

अश्वमेध-यज्ञ के उपलक्ष्य में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन किया होगा। इन मुद्राओं के पुरोभाग पर यज्ञ-यूप में बंधे अश्वमेध अश्व का अंकन है और पृष्ठ भाग पर सम्राट की उपाधि ‘अश्वमेध-पराक्रमः’ मिलती है, जो उसके अश्वमेध यज्ञ करने का प्रमाण है। रैप्सन का अनुमान है कि समुद्रगुप्त ने संभवतः कुछ राजकीय मुहरों पर भी अश्वमेध-यज्ञ से संबंधित दृश्य अंकित करवाए थे। मिट्टी की ऐसी एक मुहर ब्रिटिश संग्रहालय में है, जिस पर अश्वमेध का अश्व यज्ञ-यूप में बंधा है और ऊपर ‘पराक्रमः’ लेख अंकित है। यह मुहर समुद्रगुप्त की ‘अश्वमेध-पराक्रमः’ उपाधि का स्मरण कराती है। प्रयाग-प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इन अश्वमेध यज्ञों के अवसर पर वह कृपणों, दीनों, अनाथों और निर्बल लोगों की सहायता कर उनके उद्धार का प्रयास करता था।

समुद्रगुप्त की मुद्राएँ

समुद्रगुप्त एक प्रतिभा-संपन्न सम्राट था, जिसने अपने पिता द्वारा प्रवर्तित गुप्त मुद्रा-कला को संवर्धित करते हुए छह प्रकार की स्वर्ण-मुद्राओं का प्रचलन करवाया। इन मुद्राओं से समुद्रगुप्त की व्यक्तिगत अभिरुचि और उसके शासनकाल की घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। उसके द्वारा प्रवर्तित छह प्रकार की मुद्राओं का विवरण निम्नलिखित है:

धनुर्धर प्रकार

धनुर्धर प्रकार की मुद्राओं के पुरोभाग पर सम्राट युद्ध की पोशाक में धनुष-बाण लिए खड़ा है तथा मुद्रालेख ‘अजेय राजा पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ (अप्रतिरथो विजित्य क्षितिं सुचरितैः दिव जयति) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि ‘अप्रतिरथः’ अंकित है।

समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (Samudragupta Prakramank')
समुद्रगुप्त की मुद्राएँ
परशु प्रकार

इस प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर परशु लिए राजा का चित्र तथा मुद्रालेख ‘कृतांत परशु राजा राजाओं का विजेता तथा अजेय है’ (कृतांतपरशुर्जयतयजित राजजेताजितः) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर देवी की आकृति और उसकी उपाधि ‘कृतांत परशु’ अंकित है।

व्याघ्रनिहंता प्रकार

इन मुद्राओं के पुरोभाग पर एक सिंह का आखेट करते हुए समुद्रगुप्त की आकृति तथा उसकी उपाधि ‘व्याघ्रपराक्रमः’ अंकित है। पृष्ठ भाग पर मकरवाहिनी गंगा की आकृति के साथ ‘राजा समुद्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है। ये सिक्के सर्वाटविकराजविजय से संबंधित प्रतीत होते हैं।

वीणावादन प्रकार

इस प्रकार की मुद्राओं के पुरोभाग पर वीणा बजाते हुए राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘महाराजाधिराजश्रीसमुद्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर कार्नकोपिया लिए हुए लक्ष्मी की आकृति अंकित है। इससे प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त संगीत और कविता का भी प्रेमी था।

गरुड़ प्रकार

इन मुद्राओं के पुरोभाग पर राजा की अलंकृत आकृति के समक्ष गरुड़ध्वज तथा मुद्रालेख ‘सैकड़ों युद्धों का विजेता तथा शत्रुओं का मानमर्दन करने वाला अजेय राजा स्वर्ग को जीतता है’ (समरशत वितत विजयोजित रिपुरजितो दिवं जयति) अंकित है। पृष्ठ भाग पर सिंहासनासीन लक्ष्मी का चित्र और ‘पराक्रमः’ शब्द उत्कीर्ण है। इस वर्ग की मुद्राएँ सर्वाधिक प्रचलित थीं।

अश्वमेध प्रकार

समुद्रगुप्त ने ‘धरणिबंध’ के उपलक्ष्य में अश्वमेध प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन किया था। इन मुद्राओं के पुरोभाग पर यज्ञ-यूप में बंधे अश्व का चित्र तथा मुद्रालेख ‘राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोक की विजय करता है’ (राजाधिराजो पृथ्वी विजित्य दिवं जयत्या गृहीत वाजिमेधः) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर राजमहिषी दत्तदेवी की आकृति के साथ-साथ सम्राट की उपाधि ‘अश्वमेध-पराक्रमः’ मिलती है।

समुद्रगुप्त का चरित्र और व्यक्तित्व

समुद्रगुप्त एक दूरदर्शी और पराक्रमी सम्राट था। इसने आर्यावर्त के राजाओं का उन्मूलन और सुदूर दक्षिण के राज्यों की विजय कर अपनी उत्कृष्ट सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया। उसकी मुद्राओं पर कृतांत-परशु, सर्वराजोच्छेता, व्याघ्र-पराक्रमः और अश्वमेध-पराक्रमः जैसी भारी-भरकम उपाधियाँ मिलती हैं, जो उसके व्यक्तित्व और कृतित्व का दर्पण हैं। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार उसमें सैकड़ों युद्धों में विजय प्राप्त करने की अपूर्व क्षमता थी; अपनी भुजाओं से अर्जित पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम बंधु था; परशु, बाण, शंकु, शक्ति आदि अस्त्रों-शस्त्रों के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था। उसने अपने विजय अभियान में विभिन्न राज्यों के साथ एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न न्यायोचित नीतियों का आश्रय लिया, जो उसकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का परिचायक है। प्रयाग-प्रशस्ति में उसे ‘देव’ (लोकधाम्नो देवस्य) कहा गया है। वह उसी सीमा तक मनुष्य था, जहाँ तक वह लौकिक क्रियाओं का अनुसरण करता था। प्रयाग-प्रशस्ति में इस अचिंत्य पुरुष की तुलना कुबेर, वरुण, इंद्र और यमराज जैसे देवताओं से की गई है, तो एरण लेख में पृथु, रघु आदि नरेशों से। वह पराक्रम, शक्ति और विनम्रता जैसे सद्गुणों का भंडार था। उसकी सैनिक योग्यता से प्रभावित होकर ही इतिहासकार स्मिथ ने उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ की संज्ञा दी है।

समुद्रगुप्त कवि और संगीतज्ञ भी था। वह उच्च कोटि का विद्वान और विद्या का उदार संरक्षक था। महादंडनायक ध्रुवभूति के पुत्र संधिविग्रहिक हरिषेण ने उनके वैयक्तिक गुणों और चरित्र के संबंध में प्रयाग-प्रशस्ति में लिखा है कि ‘उनका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उनके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का कोई विरोध नहीं था। उन्होंने अनेक काव्यों की रचना करके ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी (विद्वज्जनोपजीव्यानेक काव्यक्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराजशब्दस्य)।’ यद्यपि समुद्रगुप्त की किसी रचना का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है, किंतु वामन के काव्यालंकारसूत्र से पता चलता है कि उनका एक अन्य नाम ‘चंद्रप्रकाश’ भी था। संभवतः वे प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबंधु के आश्रयदाता थे।

वह महान सम्राट संगीत और वीणा-वादन में निपुण थे। अपनी मुद्राओं पर वे वीणा बजाते हुए अंकित हैं। प्रयाग-प्रशस्ति में कहा गया है कि गांधर्व विद्या में उनकी प्रवीणता इतनी थी कि उन्होंने देवताओं के स्वामी इंद्र के आचार्य कश्यप, तुम्बुरु, और नारद जैसे गंधर्वों को भी लज्जित कर दिया था।

समुद्रगुप्त उदार, दानशील, असहायों और अनाथों के आश्रयदाता थे। वह सज्जनों के उद्धारक और दुर्जनों के संहारक थे। उनकी नीति थी कि साधु का उदय हो और असाधु का प्रलय। प्रसन्न होने पर वह कुबेर और क्रुद्ध होने पर यमराज के समान थे (धनान्तकतुष्टिकोप तुल्यः)। उनके यश से तीनों लोक पवित्र होते थे। उनका हृदय इतना कोमल था कि भक्ति और समर्पण से वे वश में हो जाते थे। प्रशस्ति में कहा गया है कि उनकी उदारता के कारण ‘श्रेष्ठ काव्य (सरस्वती) और लक्ष्मी का शाश्वत विरोध सदा के लिए समाप्त हो गया था।’ इस प्रकार एक ओर वे मृदुहृदय और अनुकंपावान थे, तो दूसरी ओर कृतांत-परशु जैसे प्रचंड भी थे।

समुद्रगुप्त धर्मनिष्ठ सम्राट थे और वैदिक मार्ग के अनुयायी थे। उन्हें धर्म की प्राचीर (धर्मप्राचीरबंधः) कहा गया है। गया ताम्रपत्र में उनकी उपाधि ‘परमभागवत’ मिलती है। वे विविध सुंदर आचरणों और बहुमुखी प्रतिभा से युक्त सम्राट थे। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार विश्व में ऐसा कौन-सा गुण था जो उनमें नहीं था (कोनुसाद्योऽस्य न स्याद् गुणमति)। रमेशचंद्र मजूमदार ने सही लिखा है कि ‘लगभग पाँच शताब्दियों के राजनीतिक विकेंद्रण और विदेशी आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः बौद्धिक और भौतिक उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था।’

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