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रामकृष्ण आंदोलन
रामकृष्ण परमहंस
रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में की थी। रामकृष्ण का जन्म 1836 में पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले के कमारप्रकुर नामक गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। उन्हें शिक्षा से विशेष लगाव नहीं था और साधुओं की संगति अधिक पसंद थी। सत्तरह वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु होने पर वे कलकत्ता आ गये। अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता के समीप दक्षिणेश्वर में रासमणि द्वारा स्थापित काली के मंदिर में पुजारी बन गये। चौबीस वर्ष की आयु में उनका विवाह पाँच वर्षीया शारदामणी (श्रद्धामनी) से हो गया। विवाह के पश्चात् बारह वर्ष तक रामकृष्ण ने काली मंदिर में कई प्रकार की तपस्याएँ की। उन्होंने भैरवी नामक संन्यासिनी से दो वर्ष तक तांत्रिक साधना एवं तोतापुरी नामक साधु से वेदांत-साधना सीखी। कहते हैं कि वैष्णव धर्म की साधना से उन्हें कृष्ण का साक्षात् दर्शन हुआ था। उन्होंने इस्लाम तथा ईसाई धर्म की भी साधना की। निरंतर साधना से वे शुद्ध एवं विरक्त हो चुके थे और अपनी पत्नी शारदामणी को भी ‘माँ’ कहकर बुलाते थे। 16 अगस्त 1886 को कैंसर से उनका देहांत हो गया।
रामकृष्ण परमहंस न कोई धर्म चलाये, न मठ बनाये और न ही नवीन धार्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किये। उनका मानना था कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति संसारिकता से दूर रहकर उपासना द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। विषय-वासना को त्यागने पर मनुष्य ईश्वर का दर्शन कर सकता है। शरीर और आत्मा को अलग-अलग बताते हुए रामकृष्ण ने कहा कि, ‘‘कामिनी, कंचन की आसक्ति यदि पूर्णरूप से नष्ट हो जाए, तो शरीर और आत्मा का पृथकत्व स्पष्ट दीखने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा नरेटी से खुलकर अलग हो जाता है, खोपरा और नरेटी दोनों अलग-अलग दिखने लगते हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा के बारे में मानना चाहिए।’’ उनका मानना था कि मूर्तिपूजा, पुनर्जन्म एवं अवतारवाद को लेकर शास्त्रार्थ करना व्यर्थ है। जो कुछ दिखता है, वह ईश्वरमय है, किंतु ईश्वर शास्त्रार्थ की शक्ति से परे है। मूर्तिपूजा का समर्थन करते हुए रामकृष्ण ने कहा कि, ‘‘जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है, वैसे ही प्रतिमा को देखते ही ईश्वर की याद आती है।’’ उनका मानना था कि अनुभूति से भी ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। इससे व्यक्ति को शांति मिलती है और उसकी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। ईश्वर की उपासना का सरल मार्ग बताते हुए रामकृष्ण ने कहा कि, ‘‘जब तुम काम करते हो, तो एक हाथ से काम करो और दूसरे हाथ से भगवान् का पाँव पकड़े रहो। जब काम समाप्त हो जाए, तो भगवान् के चरणों को दोनों हाथों से पकड़ लो।’’
रामकृष्ण की सबसे बड़ी देन अध्यात्मवाद है। उन्होंने अत्यंत सरल तरीके से उपदेश दिया कि मानव जीवन का मूल लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार है, जो अध्यात्म के द्वारा ही संभव है। उनका कहना था कि, ‘‘बिना स्पष्ट और विकाररहित बुद्धि के धर्मशास्त्रों का ज्ञान और पवित्र पुस्तकों का अध्ययन व्यर्थ है। विवेक और वैराग्य के बिना कोई भी आध्यात्मिक प्रगति असंभव है।’’ वे निराकार तथा साकार दोनों रूपों में ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे और वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण आदि को पवित्र धार्मिक ग्रंथ मानते थे। उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा वेदों व उपनिषदों के जटिल ज्ञान को सरल बनाया और हिंदुओं को उनकी संस्कृति के गौरव से परिचित करवाया।
रामकृष्ण मानव-मात्र की सेवा एवं भलाई के समर्थक थे। उन्होंने मानव जाति को यह संदेश दिया कि वह धर्म और संस्कृति के विभेदों को भूलकर, मानव-मात्र की भलाई का प्रयत्न करे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ईश्वर निवास करता है, अतः मानव-सेवा ही ईश्वर की सेवा है। उनकी सेवा-भावना मानव के प्रति दया की भावना नहीं थी, वे तो मानव को ईश्वर-स्वरूप मानकर उसकी सेवा करने में विश्वास करते थे। इसी आधार पर उनके शिष्य विवेकानंद ने आजीवन दरिद्र नारायण की सेवा की।
रामकृष्ण विविध धर्मों की एकता के समर्थक थे। उनके अनुसार विविध धर्म ईश्वर की प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हैं और सभी में सत्य है। ईश्वर एक है, लेकिन उसके विभिन्न स्वरूप हैं। व्यक्ति किसी भी मार्ग पर चलकर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार रामकृष्ण ने भौतिकवाद, संघर्ष और घृणा के युग में विश्व को अध्यात्मवाद का उपदेश देकर संसार को एकता, प्रेम और सहयोग का मार्ग दिखाया।
स्वामी विवेकानंद
पाश्चात्य जगत् में भारतीय तत्त्वज्ञान की सुगंध बिखरनेवाले युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद (मूलनाम नरेंद्रनाथ दत्त) का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में खत्रिय विश्वनाथदत्त के कुलीन परिवार में हुआ था। नरेंद्रनाथ दत्त बचपन से ही चिंतन, भक्ति, तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के एक विलक्षण संयोग थे। वे अपने शिक्षाकाल में एक प्रतिभा-संपन्न और जिज्ञासु छात्र थे और जॉन स्टुअर्ट मिल, ह्यूम, हर्बर्ट स्पेंसर एवं रूसो के दार्शनिक विचारों से बहुत प्रभावित थे। युवावस्था में पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण नरेंद्रनाथ को गहरे द्वंद्व से गुजरना पड़ा। स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद वे ब्रह्म समाज में शामिल हो गये। उनकी प्रखर बुद्धि साधना में समाधान न पाकर नास्तिक हो चली।
नरेंद्र 1881 में पहली बार रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आये और उन्होंने रामकृष्ण को अपना गुरु बना लिया। रामकृष्ण की मृत्यु के पश्चात् नरेंद्रनाथ ने 1887 में काशीपुर के निकट बारानगर में अपने गुरु के सम्मान में रामकृष्ण मठ स्थापना की और संन्यास धारण कर विवेकानंद हो गये। अपने गुरु से प्रेरित होकर यह युवा संन्यासी कषाय वस्त्र धारण कर जगत् के अंधकार में भटकते प्राणियों के उद्धार के लिए पूरे भारत की यात्रा पर निकल पड़ा। छः वर्षों के भ्रमणकाल में वह राजाओं और दलितों, दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान् यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई, जहाँ ध्यानमग्न विवेकानंद को यह ज्ञान मिला कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रुझान वाले नये भारतीय वैरागियों और सभी आत्माओं, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त-दिव्यता के जागरण से ही इस मृतप्राय देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है। वे कन्याकुमारी में थे, जब उन्हें पता चला कि अमेरिका के शिकागो में सर्वधर्म-सम्मेलन हो रहा है। वे कई कारणों से इस सम्मेलन में भाग लेना चाहते थे। वे इस अंधविश्वास को दूर करना चाहते थे कि समुद्र-यात्रा पाप है और विदेशियों के हाथ का छुआ खाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है। वे शिक्षित भारतीयों को यह भी दिखाना चाहते थे कि पाश्चात्य देशों में भारतीय संस्कृति के प्रति कितनी श्रद्धा है।
शिकागो सर्वधर्म-सम्मेलन
भारत के पुनर्निर्माण के प्रति लगाव लगाव के कारण स्वामी विवेकानंद 1893 में शिकागो सर्वधर्म-सम्मेलन भाग लेने के लिए अमेरिका गये। धर्म-परिषद् में बिना आमंत्रण के प्रवेश मिलना कठिन था, किंतु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से स्वामीजी को सम्मेलन में बोलने का अवसर मिला। 11 सितंबर 1893 के दिन उनके अलौकिक तत्त्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत् को चौंका दिया। जब उन्होंने अपने भाषण का आरंभ ‘सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका’ (अमेरिकी बहनों और भाइयों) के संबोधन के साथ किया, तो 7,000 प्रतिनिधियों ने जोरदार तालियों से उनका स्वागत किया। इसके बाद उन्होंने अपने भाषण से अमेरिका में भारतीय धर्म तथा संस्कृति की धाक जमा दी। वहाँ एकत्र लोगों को उन्होंने सभी मानवों की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। धर्म-संसद में विवेकानंद ने सहिष्णुता के पक्ष में धार्मिक हठधर्मिता को खत्म करने का आह्वान किया। ‘दि न्यूयार्क हेराल्ड’ ने लिखा था: ‘‘धर्मों की पार्लियामेंट में सबसे महान् व्यक्तित्व विवेकानंद हैं। उनका भाषण सुनलेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म-प्रचारक भेजना कितनी बेवकूफी की बात है?’’ शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन की विज्ञान शाखा के अध्यक्ष मार्विनमेरी स्नैल ने कहा था: ‘‘इस सर्वधर्म सम्मेलन का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इसने ईसाई जगत् को, विशेषतः अमेरिका के लोगों को यह पाठ सिखाया कि विश्व में दूसरे धर्म भी हैं, जो ईसाई धर्म की अपेक्षा कहीं अधिक ठोस, स्वतंत्र, विचार की दृष्टि से कहीं अधिक शक्तिशाली एवं मानवीय सौहार्द की दृष्टि से कहीं अधिक उदार तथा व्यापक हैं।’’
विवेकानंद ने अमेरिका के विभिन्न नगरों तथा लंदन और पेरिस में व्यापक व्याख्यान दिया। उन्होंने जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएँ की और वेदांत के मानवतावादी, गतिशील तथा प्रायोगिक संदेशों से हजारों लोगों को प्रभावित किया। उन्होंने घोषणा की कि सिर्फ अद्वैत वेदांत के आधार पर ही विज्ञान और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि इसके मूल में अवैयक्तिक ईश्वर की आधारभूत धारणा, सीमा के अंदर निहित अनंत और ब्रह्मांड में उपस्थित सभी वस्तुओं के पारस्परिक मौलिक संबंध की दृष्टि है। उन्होंने सभ्यता को मनुष्य में दिव्यता के प्रतिरूप के तौर पर परिभाषित किया और यह भविष्यवाणी भी की कि एक दिन पश्चिम, जीवन की अनिवार्य दिव्यता के वेदांतिक सिद्धांत की ओर आकर्षित होगा। उन्होंने कुछ समर्पित शिष्यों को अमेरिका के थाऊजैंड आइलैंड पार्क में आध्यात्मिक जीवन में प्रशिक्षित भी किया। इस प्रकार विवेकानंद इतिहास के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरंभ किया।
विवेकानंद ने मानवतावादी राहत-कार्य और समाज-कार्य को जारी रखने के लिए 1 मई 1897 में कलकत्ता में ‘रामकृष्ण मिशन’ और 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के तट पर बेलूर में प्राचीन रामकृष्ण मठ को पुनर्स्थापित किया। इस मिशन ने कई चिकित्सालयों, अनाथालयों, विद्यालयों, विधवाश्रमों एवं सेवाश्रमों को खोलकर समाज की सेवा की। विवेकानंद की इच्छानुसार उनके अंग्रेज अनुयायी कैप्टन सर्वियर और उनकी पत्नी ने हिमालय में 1899 में ‘मायावती अद्वैत आश्रम’ खोला, जो पूर्वी और पश्चिमी अनुयायियों का सम्मिलन केंद्र बन गया। विवेकानंद ने बेलूर में एक दृश्य-प्रतीक के रूप में सभी प्रमुख धर्मों के वास्तुशास्त्र के समन्वय पर आधारित रामकृष्ण मंदिर के भावी आकार की रूपरेखा भी बनाई, जो 1937 में उनके शिष्यों द्वारा पूरा किया गया।
1899 में विवेकानंद पुनः अमेरिका गये। उन्होंने न्यूयार्क, लांस एंजिल्स, सैन फ्रांसिस्को तथा कैलीफोर्निया आदि स्थानों पर वेदांत समाज की स्थापना की। उन्होंने पेरिस के धार्मिक सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया। स्वामीजी ने हिंदू धर्म एवं भारतीय संस्कृति की धाक जमाते हुए भारत में ईसाइयों के द्वारा किये जा रहे प्रयासों पर पानी फेर दिया। दूसरे शब्दों में ‘‘हिंदुत्व को जीतने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म और यूरोपियन बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था, वह विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकराकर वापस लौट गया।’’ वस्तुतः विवेकानंद का व्यक्तित्व निराश एवं निरुत्साहित भारतीयों के लिए एक स्फूर्तिवर्धक औषधि सिद्ध हुआ।
पश्चिम को योग और ध्यान से परिचित कराने वाले स्वामी विवेकानंद ने ‘योग’, ‘राजयोग’ तथा ‘ज्ञानयोग’ जैसे ग्रंथों की रचनाकर युवा जगत् को एक नई राह दिखाई, जिसका प्रभाव जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। उन्होंने अंग्रेजी में ‘प्रबुद्ध भारत’ और बंगाली में ‘प्रबोधनी’ का संपादन भी किया। जीवन के अंतिम दिन विवेकानंद ने ‘शुक्ल यजुर्वेद’ की व्याख्या की और कहा कि, ‘‘एक और विवेकानंद चाहिए यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।’’ दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों से घिरे विवेकानंद को मालूम था कि, ‘‘यह बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष की आयु भी पार नहीं करने देंगी।’’ उन्होंने 4 जुलाई 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर लिया। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।
विवेकानंद ने रामकृष्ण के संदेशों को समकालीन भारतीय समाज की आवश्यकताओं के अनुसार ढ़ालने का प्रयास किया। उनका सर्वाधिक जोर सामाजिक क्रिया पर था। उन्होंने कहा कि यदि ज्ञान कर्म से हीन है, तो व्यर्थ है। अपने गुरु की भांति उन्होंने भी सभी धर्मों की बुनियादी एकता की घोषणा की और धार्मिक बातों में संकुचित दृष्टिकोण की निंदा की। धर्म की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था: ‘‘धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवतत्त्व का विकास है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है।’’ उन्होंने धर्म को जीवन का प्राकृतिक और स्वाभाविक अंग बताया। उनके अनुसार ‘‘पूर्णता की प्राप्ति, जो धर्म द्वारा ही संभव है, मानव की एक स्वाभाविक प्रकृति है, इस कारण मानव धर्म से पृथक् नहीं हो सकता।’’ उनका मानना था कि सभी धर्मों का मूल एक जैसा है, केवल बाहरी साधनों में कुछ अंतर है। इसी आधार पर वह पूरब और पश्चिम के विचारों का आदान-प्रदान चाहते थे। विश्व में अनेक धर्मों के अस्तित्व के संबंध में उनका कहना था कि ‘‘मनुष्य सर्वत्र अन्न खाता है, किंतु अन्न से भोजन तैयार करने की विधियाँ संसार में अलग-अलग हैं। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है, किंतु अलग-अलग देशों में इसके स्वरूप अलग-अलग हैं, जबकि सभी धर्मों के लक्ष्यों में एकता है।’’ उन्होंने 1998 में लिखा था: ‘‘हमारी अपनी मातृभूमि के लिए दो महान् धर्मों- हिंदुत्व और इस्लाम का संयोग ही एकमात्र आशा है।’’
विवेकानंनद ने भारतीयों की आलोचना की कि वे शेष दुनिया से कटकर जड़ और मृतप्राय हो गये हैं। उन्होंने लिखा है: ‘‘दुनिया के सभी दूसरे राष्ट्रों से हमारे अलगाव ही हमारे पतन का कारण हैं और शेष दुनिया की धारा में समा जाना ही इसका एकमात्र समाधान है। गति जीवन का चिन्ह है।’’ उनका मानना था कि भारत की आध्यात्मिक विचारधारा तथा पश्चिमी देशों की भौतिकवादी विचारधारा में समन्वय करने से ही भारतीयों को वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है और उनकी उन्नति हो सकती है।
स्वामीजी ने जातिप्रथा तथा कर्मकांड, पूजापाठ और अंधविश्वास की निंदा की और जनता से स्वाधीनता, समानता तथा स्वतंत्र चिंतन की भावना को अपनाने का आग्रह किया। उनकी टिप्पणी थी: ‘‘हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर में न बंद हो जाएं, हम, अर्थात् हममें से अधिकांश न वेदांती हैं, न पौराणिक और न तांत्रिक। हम केवल ‘हमें मत छुओ’ के समर्थक हैं। हमारा ईश्वर भोजन के बर्तन में है और हमारा धर्म यह है कि हम पवित्र हैं, हमें छूना मत। अगर यह सब कुछ एक शताब्दी और चलता रहा, तो हममें से हर एक व्यक्ति पागलखाने में होगा।’’
विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण की तरह मानवतावादी थे। उनका कहना था: ‘‘मैं एक ही ईश्वर को मानता हूँ, सभी आत्माओं की एक आत्मा है। मेरा ईश्वर दुःखी मानव है, मेरा ईश्वर पीड़ित मानव है, मेरा ईश्वर हर जाति का निर्धन मनुष्य है।’’ ‘‘मैं उस ईश्वर में विश्वास नहीं करता, जो मुझे इस जीवन में तो रोटी न दे सके और परलोक में जाने पर स्वर्गिक सुख की गारंटी दे।’’ वे शिक्षित भारतीयों से कहते हैं, ‘‘जब तक करोड़ों व्यक्ति भूखे और अज्ञान हैं, तब तक मैं हर उस व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्चे पर शिक्षा प्राप्त करता है और उनकी कतई परवाह नहीं करता।’’ वे प्रायः कहा करते थे: ‘‘मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ, न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो गरीब हूँ और गरीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय गरीबों के लिए तड़पता हो।’’ उनका मानना था: ‘‘जब पड़ोसी भूख से मरता हो, तो मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो, तब हवन में घृत मिलाना अमानुषिक कर्म है।’’
स्वामी विवेकानंद ने सदियों से उपेक्षित दलितों व महिलाओं को शिक्षित करने और उनके उत्थान के माध्यम से देश को ऊपर उठाने का संदेश दिया। उनके अनुसार ‘‘विचार और धर्म की स्वतंत्रता जीवन, विकास तथा कल्याण की अकेली शर्त है।’’ नारी-उत्थान के संबंध में उन्होंने भारतीयों से कहा कि ‘‘यदि तुमने नारियों को ऊपर नहीं उठाया, तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई मार्ग है? संसार की सभी जातियाँ नारियों का सम्मान करके ही महान् हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी है और न कर सकेगी।’’
इस प्रकार विवेकानंद भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के जनक थे। भारत के इस युवा तूफानी साधु (साइक्लोनिक मंक ऑफ इंडिया) ने यूरोप तथा अमेरिका में भारतीय अध्यात्मवाद का प्रचार करके और पश्चिमी देशों में उसकी श्रेष्ठता को स्थापित कर भारतीयों में गौरव और आत्म-विश्वास उत्पन्न किया, जिसे सिस्टर निवेदिता ने ‘आक्रामक हिंदूवाद’ (अग्रेसिव हिंदुइज्म) कहा है। उन्होंने नवयुवकों को दासता से मुक्त होने का आह्वान किया और यह जयघोष किया कि ‘‘लंबी से लंबी रात्रि अब समाप्त हुई जान पड़ती है। हमारी यह मातृभूमि अब गहरी नींद से जाग रही है, कोई भी शक्ति उसे अब उन्नति से नहीं रोक सकती।’’ आज इस युवा संन्यासी के जन्मदिन को पूरे भारत में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
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