पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)

पेरिस शांति सम्मेलन जर्मनी के आत्म-समर्पण के बाद 11 नवंबर 1918 ई. को प्रथम विश्वयुद्ध […]

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)

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पेरिस शांति सम्मेलन

जर्मनी के आत्म-समर्पण के बाद 11 नवंबर 1918 ई. को प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद विश्व-स्तर पर शांति-स्थापना के उद्देश्य से पेरिस में शांति-सम्मेलन (1919-20 ई.) आयोजित किया गया। इसमें विजयी एवं पराजित राष्ट्रों के मध्य स्थायी समझौते, राज्यों का सीमा-निर्धारण और स्थायी शांति स्थापित करने के प्रयास किए जाने थे। चूंकि विश्वयुद्ध के दौरान विश्व की संपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो चुकी थी, इसलिए जहाँ एक ओर पराजित देश ऑस्ट्रिया, हंगरी, तुर्की एवं जर्मनी भावी व्यवस्था को लेकर आतंकित थे, वहीं दूसरी ओर विजयी मित्र राष्ट्र और उनके सहयोगी विजय के उन्माद में फूले नहीं समा रहे थे। किंतु जैसा कि ई.एच. कार ने कहा है कि इस विजय के उन्माद के नीचे चिंता के अस्पष्ट स्वर सुनाई दे रहे थे।

सम्मेलन स्थल का चयन

शांति सम्मेलन आयोजित करने के लिए पहले जेनेवा को चुना गया था, किंतु बाद में मित्र राष्ट्रों ने फ्रांस की राजधानी पेरिस में शांति-सम्मेलन का आयोजन किया। पेरिस को शांति-सम्मेलन का स्थान चुने जाने के कई कारण थे- एक तो, प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, दूसरे, युद्धविराम-संधि के लिए वार्ताएँ पेरिस में ही संपन्न हुई थीं, सर्वोच्च युद्ध परिषद के कई कार्यालय पेरिस में ही स्थित थे और चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड, यूगोस्लाविया आदि देशों की निर्वासित सरकारें भी यहीं थीं। किंतु शांति-सम्मेलन के परिणामों को देखकर लगता है कि पेरिस का चुनाव करके मित्र राष्ट्रों ने भारी भूल की, क्योंकि पूरे सम्मेलन में फ्रांसीसी जनता की बदले की भावना सम्मेलन के प्रतिनिधियों पर भारी पड़ी और उनके निर्णयों पर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ा।

सम्मेलन के प्रतिनिधि

पेरिस शांति-सम्मेलन में भाग लेने के लिए 32 राष्ट्रों को निमंत्रण दिया गया था, पराजित राष्ट्रों (जर्मनी, तुर्की, बुल्गारिया, ऑस्ट्रिया) तथा रूस को नहीं। सभी विजेता राष्ट्रों के लगभग 70 प्रतिनिधि पेरिस में एकत्रित हुए, जिनमें अमेरिका के राष्ट्रपति के अलावा 11 देशों के प्रधानमंत्री, 12 विदेशमंत्री तथा कई अन्य प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ थे। यद्यपि इस सम्मेलन में वियना की तरह सम्राटों की भीड़ तो नहीं थी, लेकिन यहाँ भी वियना जैसी ही स्थिति होने वाली थी।

सम्मेलन के ‘चार बड़े’

पेरिस शांति-सम्मेलन में मात्र चार राष्ट्रों- अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड और इटली को ही प्रमुख स्थान मिला। पहले बड़े राष्ट्रों में जापान को भी शामिल किया गया था, किंतु बाद में सम्मेलन की कार्यवाही की अध्यक्षता क्लेमेंसो को मिलने पर जापान पेरिस सम्मेलन से अलग हो गया।

वुडरो विल्सन संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति था, जो अपने चौदह सिद्धांतों के साथ पेरिस शांति-सम्मेलन में उपस्थित हुआ था। सम्मेलन में शामिल सभी लोगों में एकमात्र विल्सन ही ऐसा व्यक्ति था, जो सच्चे हृदय से स्थायी शांति स्थापित करने का इच्छुक था। जिस समय युद्ध समाप्त हुआ, संपूर्ण संसार विल्सन की ओर ऐसे देख रहा था, मानो उससे किसी चीज की याचना कर रहा हो। विल्सन का मुख्य उद्देश्य था कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों को सुलझाने के लिए राष्ट्रसंघ की स्थापना की जाए और इसके लिए उसने एक चौदहसूत्रीय सिद्धांत प्रस्तुत किया। विल्सन यह भी चाहता था कि आत्मनिर्णय के सिद्धांत को मान्यता दी जाए और जनता की इच्छानुसार सीमाओं का निर्धारण किया जाए।

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)
सम्मेलन के ‘चार बड़े’

वास्तव में, विल्सन युद्ध-पीड़ित देशों में शांति के अग्रदूत के रूप में कार्य कर रहा था, किंतु इन खूबियों के साथ-साथ उसमें कुछ चारित्रिक दोष भी थे। वह दूसरों की बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता था। यद्यपि उसे यूरोपीय राजनीति का बहुत कम ज्ञान था, फिर भी, विशेषज्ञों की राय लेना उसे पसंद नहीं था। लॉयड जॉर्ज और क्लेमेंसो दोनों विल्सन की कमजोरी को जानते थे, इसलिए उनके सामने विल्सन के आदर्शवादी सिद्धांत टिक नहीं पाए।

विल्सन का चौदहसूत्रीय सिद्धांत

विल्सन ने जिन चौदह सूत्रों के आधार पर विश्व-शांति का स्वप्न देखा था, उनका संक्षिप्त विवरण निम्न है-

  1. गोपनीय तरीके से अंतर्राष्ट्रीय समझौते नहीं किए जाएँगे, सभी संधियाँ प्रत्यक्ष और खुले रूप में की जाएँ।
  2. युद्ध तथा शांति दोनों ही स्थितियों में समुद्री-मार्गों में जहाज चलाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
  3. आंतरिक सुरक्षा के लिए जितने अस्त्र-शस्त्र पर्याप्त हों, उतने ही रखे जाएँ।
  4. उपनिवेशों की जनता की भावनाओं का सम्मान किया जाए और औपनिवेशिक दावे बिना पक्षपात के निर्णीत हों।
  5. रूस से सेनाएँ हटा ली जाएँ और उसकी स्वतंत्रता को मान्यता दी जाए।
  6. बेल्जियम को जर्मन सेना से मुक्ति दिलाई जाए और उसकी स्वतंत्रता मान्य हो।
  7. अल्सास और लोरेन के प्रदेश फ्रांस को लौटा दिए जाएँ तथा फ्रांस के सभी प्रदेशों को पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए।
  8. इटली की सीमाओं का राष्ट्रीयता के आधार पर निर्धारण किया जाए।
  9. समस्त राज्यों को व्यापार के समान अवसर प्रदान किए जाएँ।
  10. ऑस्ट्रिया तथा हंगरी में स्वायत्त शासन की स्थापना की जाए।
  11. रोमानिया, सर्बिया तथा मॉन्टेनीग्रो से सेना हटा ली जाए और सर्बिया को समुद्र तक का रास्ता दिया जाए।
  12. तुर्की अपने शासन के अंतर्गत रहने वाली सभी जातियों के प्रति समानता की नीति अपनाए और डार्डानेल्स एवं बॉस्फोरस के जलडमरूमध्य का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया जाए।
  13. पोलैंड की एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापना की जाए, उसे समुद्र तट तक स्वतंत्र मार्ग दिया जाए और उसकी राजनीतिक, आर्थिक स्वतंत्रता एवं प्रादेशिक अखंडता को मान्यता दी जाए।
  14. विश्व-शांति के लिए छोटे-बड़े सभी राष्ट्रों का एक संगठन (राष्ट्रसंघ) बनाया जाए, जिससे दोनों प्रकार के राष्ट्रों को स्वतंत्रता की गारंटी समान रूप से दी जा सके।
चौदहसूत्रीय सिद्धांत का मूल्यांकन

विश्व-शांति की कल्पना में विल्सन के चौदहसूत्रीय सिद्धांत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शांति-सम्मेलन में कई निर्णयों में इन सूत्रों का पालन नहीं किया जा सका, जैसे-निःशस्त्रीकरण केवल पराजित राष्ट्रों का किया गया। उपनिवेशों के बँटवारे में संरक्षण के सिद्धांत का भी आंशिक प्रयोग ही किया गया। कुल मिलाकर विल्सन के चौदह सिद्धांत राजनीतिक भाषण मात्र थे, और कुछ तो अपने आप में परस्पर-विरोधी भी थे। इसके बावजूद पेरिस की संधियों की कठोरता को कम करने में इन सिद्धांतों ने काफी मदद की।

ब्रिटेन का प्रधानमंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज

ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज अपनी तीक्ष्ण-बुद्धि के कारण दूसरों की चारित्रिक दुर्बलताओं को आसानी से परख लेता था और मौके पर उसका फायदा उठाता था। जॉर्ज ने 1916 ई. में ऐसे समय प्रधानमंत्री का पद सँभाला था, जब युद्ध में जर्मनी लगातार सफलताएँ प्राप्त कर रहा था। उसने म्यूनिशन वार तथा युद्ध-परिषद का गठन किया और मित्र राष्ट्रों को विजय दिलाई। जर्मनी को पराजित करने पर लॉयड जॉर्ज ने कहा था: “दूसरे लोगों ने साधारण लड़ाइयाँ जीती हैं, मैंने एक युद्ध पर विजय प्राप्त की है।” फिर भी, जर्मनी के प्रति लॉयड जॉर्ज क्लेमेंसो से उदार था, क्योंकि उसने कहा था कि जर्मनीरूपी गाय का दूध और माँस एक साथ नहीं लिया जा सकता।

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ब्रिटेन का प्रधानमंत्री डेविड लायड जार्ज

युद्ध जीतने के बाद लॉयड जॉर्ज के तीन उद्देश्य थे- पहला, नौसेना के मामले में वह जर्मनी का सर्वनाश चाहता था, दूसरे, फ्रांस शक्तिशाली न बने, ताकि यूरोपीय शक्ति-संतुलन बना रहे और तीसरे, ब्रिटेन की उन्नति के लिए लूट के माल से अधिकाधिक हिस्सा ले लिया जाए। जॉर्ज अपने उद्देश्यों में बहुत हद तक सफल भी रहा।

फ्रांस का प्रधानमंत्री जॉर्ज यूजेन बेंजामिन क्लेमेंसो

कुशल कूटनीति और दीर्घकालीन अनुभव के कारण फ्रांस का प्रधानमंत्री क्लेमेंसो सम्मेलन का सबसे प्रभावशाली नेता सिद्ध हुआ। क्लेमेंसो को सम्मेलन का शेर और वयोवृद्ध केसरी की संज्ञा भी दी गई है। उसने अपने बल पर फ्रांस को प्रथम विश्वयुद्ध में विजयी बनाया, इसलिए फ्रांस की जनता उसका आँख मूँदकर समर्थन करती थी। उसका प्रमुख उद्देश्य फ्रांस की सुरक्षा था और वह इसे हर कीमत पर पाना चाहता था। उसने लॉयड जॉर्ज और विल्सन पर छींटाकशी करते हुए कहा था : “लॉयड जॉर्ज अपने को नेपोलियन समझता है और विल्सन स्वयं को ईसा मसीह।” या “ईश्वर दस आदेश देता है तो विल्सन चौदह।”

क्लेमेंसो के मन में जर्मनी के प्रति गहरा क्षोभ था, क्योंकि उसने 1870 ई. के युद्ध में जर्मनी द्वारा फ्रांस का भारी अपमान देखा था। क्लेमेंसो के मन में जर्मनी से बदला लेने की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। वह जर्मनी को इतना कुचल देना चाहता था कि जर्मनी पुनः फ्रांस पर आक्रमण करने की हिम्मत न जुटा सके। वास्तव में क्लेमेंसो अपनी नीतियों के कारण पूरे सम्मेलन में छाया रहा और एक प्रकार से पूरे सम्मेलन को ही जीत लिया था।

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फ्रांस का प्रधानमंत्री क्लेमेंसो
इटली का विटोरियो इमैनुएल ऑरलैंडो

इटली का प्रधानमंत्री ऑरलैंडो शांति-सम्मेलन में इटली का नेतृत्वकर्ता था, जो कुशल वक्ता और विद्वान होने के साथ-साथ बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ भी था। कुछ समय बाद ऑरलैंडो सम्मेलन छोड़कर चला गया। उसके सम्मेलन छोड़ने का मुख्य कारण एड्रियाटिक के बंदरगाह फ्यूम की माँग थी, जो उसने युद्ध से पूर्व गुप्त संधियों (लंदन संधि, 1915 ई.) के तहत तय की थी।

सम्मेलन की शुरुआत

18 जनवरी 1919 ई. को सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन का उद्घाटन फ्रांस के राष्ट्रपति पॉइन्कारे ने किया। उसके बाद सर्वसम्मति से फ्रांस के प्रधानमंत्री क्लेमेंसो को सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले चार बड़े लोगों- अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन, इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज, फ्रांस से प्रधानमंत्री क्लेमेंसो और इटली से प्रधानमंत्री ऑरलैंडो- में विल्सन ही एकमात्र ऐसा था, जो वास्तव में शांति की स्थापना के लिए चिंतित था। विल्सन अपने चौदह सिद्धांतों को कार्यान्वित करने का संकल्प लेकर पेरिस पहुँचा था।

परिषदों का गठन

वियना सम्मेलन की असफलता से सीख लेते हुए इस सम्मेलन की अग्रेतर कार्यवाही के लिए दस व्यक्तियों की एक सर्वोच्च समिति गठित की गई। इस परिषद में अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली और जापान के दो-दो प्रतिनिधि शामिल थे। इसीलिए इसे ‘दस की परिषद’ भी कहा गया है। इस परिषद की बैठक का आयोजन दिन में दो बार होता था और आवश्यकता पड़ने पर विशेषज्ञों और सलाहकारों को भी बैठक में शामिल किया जाता था। किंतु बाद में दस लोगों की परिषद बड़ी प्रतीत होने लगी और वार्ता को गुप्त रखना मुश्किल हो गया। मार्च 1919 में ‘चार बड़ों की परिषद’ का गठन किया गया, जिसमें अमेरिका के वुडरो विल्सन, फ्रांस के क्लेमेंसो, इंग्लैंड के लॉयड जॉर्ज और इटली के ऑरलैंडो शामिल थे। इन चार बड़े लोगों ने 145 बंद सत्रों में मुलाकात कर सभी बड़े फैसले लिए, जिन्हें बाद में पूरी विधानसभा ने स्वीकार किया। बाद में फ्यूम की माँग पूरी न होने से नाराज होकर ऑरलैंडो सम्मेलन छोड़कर वापस चला गया, जिससे ‘चार बड़ों’ का स्थान ‘तीन बड़ों’ ने ले लिया।

अब पेरिस सम्मेलन की संपूर्ण शक्ति तीन व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित हो गई और सम्मेलन की संपूर्ण जिम्मेदारी और विश्व के भाग्य का फैसला इन्हीं महान व्यक्तियों के अधीन हो गया। इन तीनों महापुरुषों में आदर्श और विचार स्वार्थ की दृष्टि से भिन्न थे और सम्मेलन की संपूर्ण कार्यवाही क्लेमेंसो की इच्छा के अनुसार ही संचालित हुई और पराजित राष्ट्रों को अपमानजनक संधियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया।

पेरिस शांति-सम्मेलन की समस्याएँ गुप्त संधियाँ

पेरिस शांति-सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य न केवल शांति स्थापित करना था, बल्कि शांति को स्थायित्व प्रदान करने की व्यवस्था भी करनी थी। किंतु शांति-स्थापना के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा गुप्त-संधियाँ थीं, जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों के बीच की गई थीं। इन संधियों के तहत युद्ध के बाद विजित क्षेत्रों को आपस में बाँटने का विचार किया गया था।

संधि का प्रारूप

जब पेरिस में शांति-स्थापना के लिए सम्मेलन शुरू हुआ तो संधि का प्रारूप तैयार करने को लेकर अनेक बाधाएँ आईं। विश्वयुद्ध के पहले जो युद्ध होते थे, उनमें मुख्यतः दो देशों के बीच विवाद रहता था, इसलिए युद्ध की समाप्ति के बाद संधि-प्रारूप तैयार करने में कोई विशेष समस्या नहीं आती थी, क्योंकि वहाँ संधियाँ द्विपक्षीय होती थीं। किंतु प्रथम विश्वयुद्ध में पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी राष्ट्रों के नेतृत्व में लगभग संपूर्ण विश्व ने भाग लिया था। इसलिए सम्मेलन में भाग लेने वाले कुछ प्रतिनिधियों ने इस बात पर बल दिया कि संधि की शर्तें महाशक्तियों एवं सामान्य राष्ट्रों के लिए समान होनी चाहिए। किंतु विजयी राष्ट्रों के प्रतिनिधि महाशक्तियों के पक्षधर थे, इसलिए संधि का प्रारूप तैयार करना पेरिस शांति-सम्मेलन की एक बड़ी समस्या थी।

संधि प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष

पेरिस शांति-सम्मेलन में भाग लेने वाले कुछ राष्ट्रों के प्रतिनिधि संधि की शर्तों का निर्धारण गुप्त तरीके से करना चाहते थे, किंतु अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन और उनके समर्थक संधियों की गुप्तता के विरोधी थे। विल्सन का कहना था कि विश्व की राजनीतिक परिस्थितियाँ अब बदल चुकी हैं और गुप्त-संधि की कूटनीति संपूर्ण विश्व के लिए घातक होगी। विल्सन के ठोस तर्क के बावजूद संधियाँ गुप्त निर्णयों के आधार पर ही की गईं। इस दौरान कुछ देशों ने संधियों में लिए जाने वाले गुप्त निर्णयों को प्रकाशित करना शुरू कर दिया, जिससे संधियों के निर्णयों की गोपनीयता संकट में पड़ने लगी।

विल्सन के चौदहसूत्रीय सिद्धांत

विल्सन का चौदहसूत्रीय सिद्धांत भी पेरिस शांति-सम्मेलन के लिए एक बड़ी बाधा ही सिद्ध हुआ। इन्हीं चौदहसूत्रीय सिद्धांत के आधार पर ही जर्मनी ने युद्ध-विराम संधि को मान्यता दी थी। किंतु क्लेमेंसो के प्रभाव के कारण संधियों का प्रारूप गुप्त निर्णयों के आधार पर तैयार किया गया। इस प्रकार पेरिस शांति-सम्मेलन में विल्सन के आदर्शवाद पर यूरोपीय भौतिकवाद की ही विजय हुई।

राज्य-पुनर्निर्माण की समस्या

विश्वयुद्ध के पूर्व और विश्वयुद्ध के दौरान साम्राज्य-विस्तार के क्रम में कई क्षेत्र ऐसे थे, जो दो साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच विवाद के कारण बन गए थे। फिर कुछ ऐसे भी राष्ट्र थे, जो अपने संपूर्ण क्षेत्र में स्वतंत्रता चाह रहे थे, जैसे- अल्सास एवं लोरेन और पोलैंड। अल्सास और लोरेन पर फ्रांस और जर्मनी, दोनों अपने अधिकारों का दावा कर रहे थे, जबकि पोलैंड रूस, ऑस्ट्रिया और जर्मनी के बीच विभक्त हो गया था। इस प्रकार विभिन्न राष्ट्रों की सीमा निर्धारित करना और स्थायी शांति स्थापित करने के लिए राज्यों का पुनर्निर्माण करना भी पेरिस शांति-सम्मेलन की बड़ी समस्या थी।

पेरिस की शांति-संधियाँ

पराजित शक्तियों ने पेरिस के शांति-समझौतों में भाग नहीं लिया और उन्हें उन शांति-शर्तों को स्वीकार करना था, जो विजयी राष्ट्रों ने तैयार की थीं। पेरिस सम्मेलन में लीग ऑफ नेशन्स के निर्माण के साथ-साथ पराजित राष्ट्रों के साथ पाँच अलग-अलग संधियाँ की गईं। चूंकि ये सभी संधियाँ पेरिस के शांति-सम्मेलन में ही की गई थीं, इसलिए इन्हें ‘पेरिस की शांति-संधियाँ’ भी कहा जाता है-

  1. वर्साय की संधि जर्मनी के साथ, 28 जून 1919 ई.
  2. सेंट जर्मेन की संधि ऑस्ट्रिया के साथ, 10 सितंबर 1919 ई.
  3. न्यूइली की संधि बुल्गारिया के साथ, 27 नवंबर 1919 ई.
  4. ट्रियानन की संधि हंगरी के साथ, 4 जून 1920 ई.
  5. सेव्र की संधि तुर्की के साथ, 10 अगस्त 1920 ई.

इस प्रकार पेरिस शांति-सम्मेलन में इन संधियों के द्वारा शांति स्थापित करने का प्रयास किया गया, किंतु इसमें सफलता नहीं मिल सकी और इस सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी राष्ट्रों को मात्र 20 वर्षों के बाद ही एक और विश्व युद्ध से जूझना पड़ा।

वर्साय की संधि (28 जून 1919 ई.)

वैसे तो पेरिस शांति-सम्मेलन में कई संधियों एवं समझौतों के प्रारूप तैयार किए गए, किंतु उन सभी संधियों में जर्मनी के साथ की गई वर्साय की संधि का विशेष महत्त्व है। जर्मन प्रतिनिधि-मंडल 30 अप्रैल को ही विदेश मंत्री काउंट फॉन ब्रॉकडॉर्फ रांटजौ के नेतृत्व में वर्साय पहुँच गया था। प्रतिनिधियों को कँटीले तारों से घिरे ट्रियानन पैलेस होटल में ठहराया गया था। वर्साय संधि का प्रारूप 6 मई 1919 ई. को बनकर तैयार हो गया। इस संधि में 15 भाग, 440 धाराएँ और 80 हजार शब्द थे। 7 मई 1919 ई. को क्लेमेंसो ने ट्रियानन होटल में जर्मन प्रतिनिधियों के समक्ष 230 पृष्ठों का एक मसविदा प्रस्तुत किया और उस पर विचार करने के लिए मात्र दो सप्ताह का समय दिया। जर्मन प्रतिनिधियों ने 25 दिनों के गहन विचार-विमर्श के बाद 26वें दिन 443 पृष्ठों का एक विस्तृत संशोधन-प्रस्ताव मित्र राष्ट्रों को दिया। जर्मन प्रतिनिधियों की मुख्य शिकायत यह थी कि उन्होंने जिन शर्तों पर आत्म-समर्पण किया था, प्रस्तावित प्रारूप में उन सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया है और निःशस्त्रीकरण की शर्त केवल जर्मनी पर ही लागू की गई है। जर्मन राजनयिक संधि-पत्र की धारा 231 को निकाले जाने का अनुरोध कर रहे थे, जिसमें जर्मनी और उसके सहयोगियों को विश्वयुद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था।

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)
वर्साय की संधि, 28 जून 1919 ई.

मित्र राष्ट्र संधि-पत्र में कोई संशोधन करने के लिए तैयार नहीं हुए। जर्मन प्रतिनिधियों से कहा गया कि वे पाँच दिन के अंदर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर कर दें, अन्यथा युद्ध करने के लिए तैयार रहें। अतः विवश होकर जर्मन प्रतिनिधियों को संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े। वर्साय के उसी शीशमहल को संधि-पत्र पर हस्ताक्षर के लिए चयनित किया गया था, जहाँ 50 वर्ष पहले बिस्मार्क ने प्रशा के राजा को संपूर्ण जर्मनी का सम्राट घोषित किया था। जर्मन प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर करते हुए कहा था: “हमने संधि-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं…..इसलिए नहीं कि हम इसे एक संतोषजनक आलेख मानते हैं, वरन् इसलिए कि यह युद्ध बंद करने के लिए अत्यंत आवश्यक है।” वर्साय संधि की प्रमुख व्यवस्थाएँ इस प्रकार हैं-

राष्ट्रसंघ की स्थापना

वर्साय-संधि का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रावधान राष्ट्रसंघ का निर्माण एवं संगठन था। विल्सन के प्रभाव के कारण ही वर्साय की संधि के पहले भाग में ही राष्ट्रसंघ का प्रावधान रखा गया था। वर्साय संधि की पहली 26 धाराओं में राष्ट्रसंघ के ही संविधान का वर्णन है। इस संगठन का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सुरक्षा को बनाए रखना था।

सैनिक व्यवस्था

वर्साय की संधि द्वारा जर्मनी की सैन्य-शक्ति को पंगु बनाने के हर संभव प्रयास किए गए। वुडरो विल्सन के चौदहसूत्रीय कार्यक्रम में सभी देशों के लिए निःशस्त्रीकरण की दिशा में कदम उठाने का प्रावधान था, किंतु इस समय इसे जर्मनी और उसके सहयोगी देशों पर ही लागू किया गया। जर्मनी के जल, थल और वायु सेना की कुल संख्या एक लाख तक सीमित कर दी गई, जिसमें नौसेना की संख्या मात्र 15,000 रहेगी। जर्मनी की अनिवार्य सैन्य-सेवा, जो बिस्मार्क के समय लागू की गई थी, समाप्त कर दी गई।

चुंगी के अधिकारी, वन रक्षक एवं तटरक्षकों की संख्या 1912 से ज्यादा नहीं होगी। पुलिस की संख्या जनसंख्या के अनुपात पर निर्भर करेगी। जर्मनी 6 युद्धपोत, 6 हल्के क्रूजर, 12 तोपची जहाज और 12 टारपीडो नावें रख सकता था। जर्मनी न तो पनडुब्बी रख सकता था और न ही हथियारों का आयात-निर्यात कर सकता और न ही जहरीली गैसों का निर्माण व संग्रह कर सकता था। शिक्षण संस्थाएँ, विश्वविद्यालय, सेवामुक्त सैनिकों की संस्थाएँ, शिकार और भ्रमण के क्लब, सभी प्रकार के संगठन, चाहे उनके सदस्यों की आयु कुछ भी हो, किसी प्रकार के सैनिक मामलों से कोई संबंध नहीं रखेंगे। इस प्रकार जर्मनी का जिस प्रकार निःशस्त्रीकरण किया गया था, वह आधुनिक इतिहास में उल्लिखित किसी भी निःशस्त्रीकरण से अधिक कठोर था।

प्रादेशिक व्यवस्था

जिस वृहद जर्मन साम्राज्य का निर्माण बिस्मार्क ने ‘रक्त और लौह की नीति’ से किया था, वर्साय-संधि द्वारा प्रादेशिक परिवर्तन करके उसका विघटन कर दिया गया। अल्सास तथा लोरेन के प्रदेश फ्रांस को लौटा दिए गए, जो 1870-71 ई. के फ्रांस-प्रशा युद्ध के बाद जर्मनी ने फ्रांस से छीन लिए थे। फ्रांस की सुरक्षा के लिए जर्मनी के राइनलैंड में 15 वर्षों के लिए मित्र राष्ट्रों की सेना रख दी गई और राइन नदी के बाएँ तट पर 30 मील तक के स्थान (राइनलैंड) का असैनिककरण किया गया। जर्मनी को होलिगोलैंड के बंदरगाह की किलेबंदी नष्ट करनी पड़ी और उसे आश्वासन देना पड़ा कि भविष्य में वह कभी इसकी किलेबंदी नहीं करेगा।

जर्मनी के प्रसिद्ध कोयला-उत्पादक क्षेत्र सार घाटी का प्रदेश भी राष्ट्रसंघ के संरक्षण में सौंप दिया गया, किंतु कोयले की खानों का स्वामित्व फ्रांस को दिया गया। 15 वर्ष बाद जनमत-संग्रह के द्वारा उसे फ्रांस या जर्मनी को दिया जाना था। यदि सार घाटी के लोग जर्मनी के साथ रहने का निर्णय करेंगे, तो जर्मनी को निश्चित मूल्य देकर फ्रांस से खानों को पुनः खरीदना पड़ेगा।

जनमत संग्रह करके श्लेसविग का उत्तरी भाग डेनमार्क को दे दिया गया। यूपेन, मार्सनेट और माल्मेडी बेल्जियम को सौंप दिए गए। मेमेल का बंदरगाह जर्मनी से लेकर लिथुआनिया को दे दिया गया। पोलैंड का पुनः निर्माण किया गया और उसे बाल्टिक सागर तक पहुँचने का मार्ग प्रशा से होकर दिया गया। पोसेन तथा पश्चिमी प्रशा पर पोलैंड का अधिकार माना गया। इस प्रकार पूर्वी प्रशा शेष जर्मनी से अलग हो गया। डैन्ज़िग बंदरगाह को जर्मनी से अलगकर राष्ट्रसंघ के संरक्षण में सौंप दिया गया। सुदूर पूर्व में फिनलैंड को मान्यता मिल गई। जर्मनी को चेकोस्लोवाकिया के राज्य को भी मान्यता देनी पड़ी। इस प्रकार जर्मनी को 25 हजार वर्ग मील का क्षेत्र और लगभग 70 लाख की आबादी से हाथ धोना पड़ा।

आर्थिक व्यवस्था

वर्साय संधि की 231वीं धारा के द्वारा जर्मनी और उसके सहयोगी देशों को विश्वयुद्ध के लिए उत्तरदायी ठहराया गया। 5 नवंबर 1918 ई. को जब जर्मनी ने आत्म-समर्पण किया था, उसी समय मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी को बता दिया था कि उससे युद्ध का हर्जाना वसूल किया जाएगा। फ्रांस चाहता था कि जर्मनी से युद्ध का पूर्ण व्यय वसूल किया जाए, किंतु विल्सन क्षतिपूर्ति की रकम निश्चित करने के पक्ष में थे। अंततः निश्चित किया गया कि एक क्षतिपूर्ति आयोग बनाया जाए, जो मई 1921 ई. तक अपनी रिपोर्ट पेश करे। रिपोर्ट पेश होने तक जर्मनी लगभग 5 अरब डालर मित्र राष्ट्रों को दे। इसके बाद जर्मनी को कितना देना होगा, यह बाद में निर्धारित होना था। क्षतिपूर्ति के लिए जर्मनी अपने प्रत्यक्ष साधनों जैसे जलपोत, कोयला, रंग, रासायनिक उत्पादन, जीवित प्राणी तथा अन्य वस्तुएँ शत्रुओं को देने पर सहमत हो गया।

मित्र राष्ट्र जानते थे कि क्षतिपूर्ति की इतनी बड़ी रकम जर्मनी तत्काल नहीं चुका सकेगा, इसलिए जर्मनी को फ्रांस तथा इटली को अगले 10 वर्ष तक कोयला देने का, फ्रांस व बेल्जियम को घोड़े आदि पशु देने का आश्वासन देना पड़ा। 1870 के पश्चात जर्मनी जिन देशों से कलात्मक वस्तुएँ व झंडे लाया था, उन्हें वापस करना होगा। नील नहर का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर उसे सभी देशों के जहाजों के लिए खोल दिया गया।

उपनिवेश-संबंधी व्यवस्था

मित्र राष्ट्रों ने संरक्षण प्रणाली का सहारा लेकर जर्मनी के समस्त उपनिवेशों को छीनकर उसे पूर्णतः पंगु बना दिया। जर्मनी के अफ्रीकी उपनिवेश ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम व दक्षिण अफ्रीका के बीच बँट गए। सुदूर पूर्व प्रशांत में विषुवत रेखा के उत्तर के उसके उपनिवेश जापान को मिल गए, विषुवत रेखा के दक्षिण के उपनिवेश ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड को चले गए। चीन, मोरक्को, मिस्र पर जर्मनी के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए। जर्मनी के उपनिवेशों के छिन जाने से उसे तेल, रबर, सूत का कच्चा माल मिलना बंद हो गया, जिससे उसके अनेक कारखाने बंद हो गए।

न्यायिक व्यवस्था

संधि की 231वीं धारा के अनुसार ही कैसर विलियम द्वितीय पर युद्ध प्रारंभ करने का आरोप लगाकर यह निर्णय किया गया कि उस पर 5 देशों के न्यायाधीशों की अदालत में मुकदमा दर्ज किया जाए। जिन सैनिकों ने युद्ध में जर्मनी की ओर से भाग लिया था, उन पर मुकदमा चलाने का आदेश दिया गया, किंतु हॉलैंड सरकार की मित्रता के कारण कैसर विलियम द्वितीय पर मुकदमा नहीं चल सका।

वर्साय संधि का मूल्यांकन

वर्साय की संधि विश्व इतिहास की सर्वाधिक विवादित और अनोखी संधि मानी जाती है। फ्रांस के मार्शल जनरल फोश ने वर्साय संधि के संबंध में कहा था कि यह संधि-पत्र न होकर 20 वर्षों का युद्ध-स्थगन मात्र है। जनरल फोश की भविष्यवाणी सही भी साबित हुई और 20 वर्ष बाद ही संपूर्ण विश्व को द्वितीय विश्वयुद्ध की आग में जलना पड़ा। वर्साय संधि की कुछ प्रमुख विसंगतियाँ इस प्रकार हैं-

अपमानजनक और आरोपित संधि

वर्साय की संधि को अपमानजनक और ‘आरोपित संधि’ के रूप में जाना जाता है। सम्मेलन में जर्मनी को न बुलाना तो अपमान था ही, सबसे अपमानजनक बात तो यह थी कि जब हस्ताक्षर के लिए जर्मन प्रतिनिधि मंडल पेरिस आया, तो उसे एक कँटीले तारों से घिरे होटल में ठहराया गया और कैदियों जैसा व्यवहार किया गया। इसके अलावा संधि-पत्र पर हस्ताक्षर के लिए जर्मन प्रतिनिधियों के साथ क्लेमेंसो का अभद्र व्यवहार, जनता द्वारा गालियाँ, हस्ताक्षर करने जाते समय प्रतिनिधियों पर सड़े हुए फल, अंडे, ईंटें, पत्थर फेंकना आदि केवल जर्मन प्रतिनिधियों का अपमान नहीं, बल्कि पूरे जर्मनी का अपमान था। ई.एच. कार ने लिखा है कि वर्साय संधि “विजेताओं द्वारा विजितों पर लादी गई थी, आदान-प्रदान की प्रक्रिया के आधार पर परस्पर बातचीत तय नहीं हुई थी। वैसे तो युद्ध समाप्त करने वाली प्रत्येक संधि ही एक सीमा तक आरोपित शांति स्थापित करने वाली संधि होती है, क्योंकि एक पराजित राज्य अपनी पराजय के परिणामों को कभी स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करता। किंतु वर्साय की संधि में आरोप की मात्रा आधुनिक युग की किसी भी शांति-संधि की अपेक्षा अधिक स्पष्ट थी।” संधि पर हस्ताक्षर करते हुए एक जर्मन प्रतिनिधि ने कहा भी था: हमारा देश दबाव के कारण आत्म-समर्पण कर रहा है, किंतु जर्मनी यह कभी नहीं भूलेगा कि यह अन्यायपूर्ण संधि है।

प्रतिशोधयुक्त संधि

वास्तव में वर्साय संधि एक प्रतिशोधात्मक संधि थी। क्लेमेंसो ने चुनाव इस नारे के साथ जीता था : “हम कैसर को फाँसी देंगे तथा जर्मनी से युद्ध की पूरी क्षतिपूर्ति वसूल करेंगे।” मित्र राष्ट्रों की प्रतिशोधात्मक भावना के कारण विल्सन के सिद्धांतों का उचित रूप से पालन नहीं किया जा सका। दरअसल मित्र राष्ट्र घृणा और प्रतिशोध की भावना से भरे थे, वे मांस का पिंड ही नहीं चाहते थे, बल्कि जर्मनी के अर्धमृत शरीर से खून की आखिरी बूँद तक निचोड़ लेना चाहते थे।

कठोर शर्तें

वर्साय संधि की शर्तें अत्यधिक कठोर थीं। संधि का मुख्य उद्देश्य लॉयड जॉर्ज के इस कथन से स्पष्ट होता है कि इस संधि की धाराएँ मृत शहीदों के खून से लिखी गई हैं। जिन लोगों ने इस युद्ध को शुरू किया था, उन्हें पुनः ऐसा न करने की शिक्षा अवश्य देनी है। वर्साय की संधि के द्वारा जर्मनी को न केवल सैनिक दृष्टि से अपंग बना दिया गया, बल्कि उसका अंग-भंग कर उसके उपनिवेश छीन लिए गए और उसके आर्थिक संसाधनों पर दूसरे राष्ट्रों का स्वामित्व हो गया। वास्तव में संधि की शर्तें इतनी कठोर थीं कि कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र इसे सहन नहीं कर सकता था। चर्चिल ने सही कहा था कि “इसकी आर्थिक शर्तें इतनी कलंकपूर्ण तथा निर्बुद्ध थीं कि उन्होंने इसे स्पष्टतः निरर्थक बना दिया।”

एकपक्षीय निर्णय

वर्साय संधि के निर्णय पूर्णतः एकपक्षीय थे। जर्मनी को केवल संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए बुलाया गया था। निःशस्त्रीकरण का सिद्धांत केवल जर्मनी पर ही लागू किया गया, अन्य राष्ट्रों पर नहीं। जर्मनी के लिए आत्म-निर्णय का सिद्धांत भी लागू नहीं किया गया।

प्रादेशिक व्यवस्था के दोष

वर्साय संधि के प्रावधानों ने संपूर्ण यूरोप को बाल्कन की रियासतों के समान बना दिया। जिस प्रकार तुर्की साम्राज्य के टुकड़े-टुकड़े करने के उपरांत रियासतों को जन्म दिया था, उसी प्रकार जर्मनी के राज्यों को भंगकर छोटी-छोटी रियासतें बना दी गईं, जो बाद में बड़ी शक्तियों के हाथ की कठपुतली बन गईं।

सेंट जर्मेन की संधि (10 सितंबर 1919 ई.)

पेरिस के निकट सेंट जर्मेन नामक स्थान पर मित्र राष्ट्रों और उनके सहयोगियों ने ऑस्ट्रिया के साथ 10 सितंबर 1919 ई. को सेंट जर्मेन की संधि की थी, जिसे सेंट जर्मेन की संधि के नाम से जाना जाता है। इस संधि के अनुसार ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य भंग कर दिया गया। ऑस्ट्रिया ने पोलैंड, हंगरी, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी। मोराविया, बोहेमिया, साइलेशिया को मिलाकर चेकोस्लोवाकिया का निर्माण किया गया। बोस्निया, हर्जेगोविना जैसे क्षेत्रों को मिलाकर यूगोस्लाविया का गठन किया गया।

पोलैंड को गैलिशिया और रोमानिया को बुकोविना दिया गया। ऑस्ट्रिया में निवास करने वाली विभिन्न जातियों जैसे-जर्मन, पोल, रोमानियाई, इटैलियन, क्रोएट, चेक आदि को आत्म-निर्णय के सिद्धांत के अनुसार प्रदेश दिए गए। इटली को इस्ट्रिया, दक्षिणी टायरॉल, ट्रेंटो एवं डालमेशिया दिए गए। हैप्सबर्ग शासन का अंत हो गया और ऑस्ट्रिया एक छोटा-सा जनतंत्र मात्र रह गया।

सैन्य-व्यवस्था के अंतर्गत ऑस्ट्रिया की सेना की संख्या 30,000 निश्चित कर दी गई। उसकी वायु एवं नौसेना को समाप्त कर दिया गया और उसे डैन्यूब नदी में केवल तीन किश्तियाँ रखने का अधिकार दिया गया। युद्ध की क्षतिपूर्ति के संबंध में कहा गया था कि एक क्षतिपूर्ति आयोग गठित किया जाएगा और वह जो भी धनराशि निर्धारित करेगा, ऑस्ट्रिया को स्वीकार करना होगा। टेशिन का उद्योग प्रधान प्रदेश पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया में बाँट दिया गया और यह भी व्यवस्था की गई कि ऑस्ट्रिया युद्ध अपराधियों को मित्र राष्ट्रों को सौंप देगा।

इस प्रकार ऑस्ट्रिया को काट-छाँटकर सिकोड़ दिया गया और उसके अवशेषों पर छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना की गई, जिनके निर्माण में सांस्कृतिक सिद्धांतों को भुला दिया गया। ई.एच. कार के अनुसार आत्म-निर्णय के सिद्धांत का स्पष्ट रूप से उल्लंघन करने वाले दो प्रावधान इस संधि में थे- एक तो ऑस्ट्रिया और जर्मनी के संयोग का निषेध किया गया और दूसरे विशुद्ध जर्मनभाषी दक्षिणी टायरॉल को इटली को सौंप दिया गया।

न्यूइली की संधि (27 नवंबर 1919 ई.)

यह संधि बुल्गारिया और मित्र राष्ट्रों के बीच हुई थी। यूनान को थ्रेस का समुद्रतट दे दिया गया। पश्चिमी बुल्गारिया के कुछ प्रदेश युगोस्लाविया को दे दिए गए। इस संधि के अनुसार बुल्गारिया की जल सेना समाप्त कर दी गई और उसकी सेना की संख्या 20,000 तक सीमित कर दी गई। युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 35 करोड़ डालर सात किश्तों में देना था।

ट्रियानन की संधि (4 जून 1920 ई.)

यह संधि हंगरी और मित्र शक्तियों के बीच हस्ताक्षरित हुई थी। इस संधि के अनुसार ट्रांसिल्वेनिया रोमानिया को और क्रोएशिया सर्बिया को दे दिया गया। स्लोवाकिया को चेकोस्लोवाकिया में मिला दिया गया। हंगरी को ऑस्ट्रिया से अलग कर दिया गया। हंगरी की सेना 35,000 तक सीमित कर दी गई और ऑस्ट्रिया की तरह उसको भी युद्ध का हर्जाना देना था।

सेव्र की संधि (10 अगस्त 1920 ई.)

सेव्र की संधि तुर्की की भगोड़ी सरकार और मित्र शक्तियों के बीच हुई। इसके अनुसार कुर्दिस्तान को स्वतंत्र करने का आश्वासन दिया गया, अर्मेनिया को स्वतंत्र कर दिया गया और थ्रेस, एड्रियाटिक, कुछ टापू और गैलीपोली के द्वीप ग्रीस को दे दिए गए। मिस्र, मोरक्को, ट्रिपोली, सीरिया, फिलिस्तीन, अरब, मेसोपोटामिया पर तुर्की को अपने अधिकार छोड़ने पड़े। बॉस्फोरस तथा डार्डानेल्स का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। इस प्रकार तुर्की के सुल्तान के पास अनातोलिया का पहाड़ी प्रदेश और कांस्टेंटिनोपल के आसपास का क्षेत्र ही रह गया। इस प्रकार तुर्की पहले के तुर्की की एक छायामात्र रह गया और उसका अस्तित्व एशियाई राज्य अंगोरा के आसपास बचा रहा।

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)
सेव्र की संधि

सेव्र की संधि को मुस्तफा कमाल पाशा ने स्वीकार नहीं किया। उसने ग्रीस को युद्ध में पराजित कर मित्र राष्ट्रों को इस संधि पर विचार करने के लिए विवश कर दिया। अंततः मित्र राष्ट्रों ने 24 जुलाई 1923 ई. को तुर्की के साथ पुनः लोसान की संधि की। लोसान की संधि को वास्तविक अर्थों में शांति-संधि कहा जा सकता है।

लोसान की संधि (1923 ई.)

इस प्रकार पेरिस शांति-सम्मेलन में की जाने वाली संधियों में वर्साय की संधि सर्वाधिक कठोर और एक प्रकार से आरोपित संधि थी, जिस पर जर्मनी के प्रतिनिधियों ने विवश होकर हस्ताक्षर किया था। जर्मनी इस अपने राष्ट्रीय अपमान को कभी भूल नहीं सका और जब हिटलर के नेतृत्व में उसे मौका मिला, तो उसने अपने कंधे से वर्साय संधि का जुआ उतार फेंकने के लिए आक्रामक नीतियों का सहारा लिया, जिसका परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया।

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)
लोसान की संधि
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