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परांतक चोल प्रथम (907- 955 ई.)
आदित्य प्रथम की मृत्यु के अनंतर 907 ई. में इसका पुत्र परांतक चोल प्रथम चोल राजसिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ, जिसने 955 ई. तक शासन किया। दक्षिण भारत में चोल शक्ति की स्थापना का वास्तविक श्रेय परांतक प्रथम को प्राप्त है। संभवतः पल्लवों की अधीनता में उरैयूर तथा तंजौर पर शासन कर रहे थे। आदित्य प्रथम (871-907 ई.) ने चोल साम्राज्य को उत्तर में एक ओर कालहस्ति से लेकर दक्षिण में कावेरी तक विस्तृत किया, जो उसके पुत्र परांतक प्रथम को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। परांतक चोल प्रथम ने अपने मित्रों की मदद से अनेक सैन्याभियानों का सफल नेतृत्व किया।
परांतक प्रथम की उपलब्धियाँ
राष्ट्रकूट आक्रमण का प्रतिरोध
अपने शासन के प्रारंभ में ही परांतक प्रथम को राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के आक्रमण का सामना करना पड़ा। वास्तव में, आदित्य प्रथम का ज्येष्ठ पुत्र परांतक प्रथम एक चेर पत्नी से उत्पन्न हुआ था, जबकि कनिष्ठ पुत्र कन्नरदेव राष्ट्रकूट रानी की संतान था। आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद, राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय अपने दौहित्र कन्नरदेव को चोल राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित करना चाहता था। 907 ई. में परांतक प्रथम के राज्यारोहण से निराश होकर कृष्ण द्वितीय ने अपने मित्र बाणों के साथ 916 ई. के लगभग चोल देश पर आक्रमण किया। तिरुवल्लम् के भयंकर युद्ध में बड़ी संख्या में राष्ट्रकूट सैनिक मारे गये और राष्ट्रकूट सेना को पीछे हटना पड़ा। अंततः परांतक प्रथम की चोल सेना ने आगे बढ़कर राष्ट्रकूटों पर आक्रमण किया और कृष्ण द्वितीय को पराजित कर कन्नरदेव को चोल सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने की योजना को विफल कर दिया। वीरराजेंद्र के कन्याकुमारी लेख के अनुसार परांतक प्रथम ने अजेय कृष्णराज को पराजित कर ‘वीरचोल’ की उपाधि धारण की थी-
यज्जिगायविजयोपमद्युतिः कृष्णराजमजितन्नराधिपैः
भूरिविक्रमविवद्धितद्युतिर्व्वीरचोल इतितेन कीर्त्त्यते।।
पांड्यों के विरुद्ध संघर्ष
परांतक चोल प्रथम के मुख्य शत्रु पांड्य थे। सिंहासनारूढ़ होते ही परांतक प्रथम ने पांड्य राज्य पर आक्रमण किया और अपने समकालीन पांड्य शासक मारवर्मन राजसिंह को पराजित कर ‘मदुरैकोंड’ (मदुरै का अधिकार करने वाला) की उपाधि धारण की। परांतक प्रथम की इस उपलब्धि की पुष्टि सिंहली इतिवृत्त महावंश से भी होती है। महावंश से पता चलता है कि पराजित पांड्य शासक राजसिंह द्वितीय ने अनुराधपुर के कस्सप पंचम से मदद माँगी। कस्सप ने पांड्य शासक की सहायता के लिए अपने सेनापति सक्क के नेतृत्व में एक सैन्य-दल भेजा, जो जल मार्ग से पांड्य देश पहुँचा। किंतु परांतक प्रथम ने वेल्लोर के युद्ध में पांड्य तथा सिंहल की संयुक्त सेना को पराजित कर किया।
उदयेंदिरम् अनुदानपत्रों से भी पता चलता है कि परांतक चोल की सेना ने एक युद्ध में पांड्य राजा को, जो हाथियों, घोड़ों और पैदल सैनिकों की विशाल सेना का नेतृत्व कर रहा था, कुचल दिया और एक युद्ध में लंका से आई सेना को, जिसमें बड़े-बड़े शूरवीर थे, पराजित कर दिया और ‘संग्रामराघव’ की उपाधि धारण की। इस बीच प्लेग से सेनापति सक्क की मृत्यु हो गई और सिंहल की सेना वापस चली गई। संभवतः राजसिंह भी श्रीलंका भाग गया। परांतक के शासनकाल के बारहवें वर्ष के लेखों से लगता है कि चोलों और पांड्यों के बीच यह युद्ध 915 ई. के आसपास वेल्लूर में लड़ा गया था। इस प्रकार परांतक प्रथम ने पूरे पांड्य देश पर अधिकार कर लिया।
परांतक प्रथम ने 920 ई. के आसपास मदुरा पर तीसरी बार आक्रमण किया। किंतु चोलों से पराजित होकर पांड्य नरेश राजसिंह श्रीलंका भाग गया और सिंहल नरेश से पुनः सहायता माँगी। यद्यपि सिंहल का शासक राजसिंह की सहायता का इच्छुक था, किंतु वह व्यक्तिगत कठिनाइयों के कारण राजसिंह की मदद नहीं कर सका। अंततः निराश होकर राजसिंह अपना राजमुकुट और दूसरी कीमती वस्तुएँ सिंहल में छोड़कर केरल चला आया। तिरुवालंगाडु पत्रों से भी पता चलता है कि पांड्य नरेश सिंहल से केरल में अपने ननिहाल आ गया था क्योंकि उसकी माता वानवन महादेवी केरल की राजकुमारी थी।
सिंहल के विरुद्ध असफलता
अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद परांतक प्रथम ने मदुरा में अपना विधिवत् अभिषेक कराने का निर्णय किया। इस अवसर पर वह पांड्य राजवंश के राजचिन्ह को धारण करना चाहता था, जिन्हें राजसिंह ने सिंहल नरेश के पास छोड़ दिया था। चोल नरेश ने एक दूत भेजकर श्रीलंका के शासक उदय चतुर्थ (945-53 ई.) से राजमुकुट और अन्य वस्तुओं की माँग की, किंतु सिंहल के शासक ने उन्हें लौटाने से इनकार कर दिया। फलतः चोल नरेश ने अपने शासनकाल के अंत में, श्रीलंका पर आक्रमण किया। चोल आक्रमण के दौरान सिंहल सेनापति मारा गया, किंतु सिंहल नरेश राजमुकुट एवं अन्य वस्तुओं के साथ रोहण की पहाड़ियों में जाकर छिप गया और इस प्रकार प्रारंभिक सफलता के बावजूद परांतक प्रथम की सेनाओं को सिंहल से खाली हाथ लौटना पड़ा।
चोल परांतक प्रथम की पांड्यों तथा सिंहलों के विरुद्ध अभियानों में उसके कई मित्रों ने सहयोग किया था, जैसे- केरल पलुवेट्टरैयर और कोंडुबालूर के वेलोर सरदार। परांतक प्रथम के शासनकाल के आरंभिक वर्षों के लेखों से ज्ञात होता है कि उसके पुत्र अरिकुलकेशरी का विवाह कोडूंबलूरवंशीय तेन्नवन इलंगोवेलार की पुत्री पुडिआडिच्च पिडारि के साथ हुआ था, जिससे ज्ञात होता है कि दोनों राजवंशों में मधुर संबंध था।
बाणों से संघर्ष
पांड्यों तथा सिंहलों से निपटने के बाद परांतक प्रथम ने पांड्यों और राष्ट्रकूटों के सहयोगी बाणों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया। उदयेंदिरम् ताम्रपत्रों से पता चलता है कि परांतक ने दो बाण शासकों को पराजित कर उनके सहयोगी बैदुम्बों का उन्मूलन किया। इसकी पुष्टि शोलिंगपुर लेख से होती है, जिसके अनुसार गंग शासक पृथ्वीपति द्वितीय ने बाणों के विरुद्ध परांतक प्रथम की सहायता करके ‘बाणाधिराज’ की उपाधि प्राप्त की थी। परांतक प्रथम ने 909 ई. से 916 ई. के बीच किसी समय बाणों का उन्मूलन किया होगा। संभवतः पराजित बाण शासक विक्रमादित्य द्वितीय और विजयादित्य तृतीय थे, जिन्हें राष्ट्रकूटों का संरक्षण प्राप्त था।
बैदुम्बों से युद्ध
उदयेंदिरम् ताम्रपत्रों के अनुसार बाणों के साथ युद्ध में परांतक प्रथम ने वैदुम्बों को भी पराजित किया था। वैदुम्ब तेलगु थे और 9वीं शताब्दी ईस्वी में बाणों की अधीनता में रेणाण्णु पर शासन कर रहे थे। वैदुम्बों ने चोलों के विरुद्ध राष्ट्रकूटों और बाणों की सहायता की थी, जिसके कारण उन्हें चोलों का कोपभाजन बनना पड़ा। परांतक प्रथम द्वारा पराजित वैदुम्ब शासक की स्पष्ट पहचान नहीं हो सकी है। कृष्ण तृतीय के लेखों में वैदुम्ब महाराज शंदयन तिरुवयन तथा तिरुवयन श्रीकंठ का नाम मिलता है। इससे लगता है कि परांतक प्रथम द्वारा पराजित वैदुम्ब शासक शंदयन तिरुवयन अथवा उसका निकटस्थ उत्तराधिकारी रहा होगा। परांतक प्रथम से पराजित होने से बाद वैदुम्ब शासक ने राष्ट्रकूटों की शरण ली, किंतु कालांतर में उन्हें चोलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। यह युद्ध भी संभवतः 915 ई. के लगभग हुआ था।
शित्पुलनाडु के विरुद्ध अभियान
तिरुवोर्रियूर के दो लेखों से संकेत मिलता है कि परांतक चोल ने शित्पुलि के विरुद्ध सैन्याभियान किया था, जो पूर्वी चालुक्य राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित था। लेख के अनुसार परांतक प्रथम के सामंत मारन परमेश्वर ने, जिसका संबंध शिरुकुलत्तर वंश से था, शिल्पुलिनाडु को उखाड़ फेंका और नेल्लूर को जीत लिया। वापस लौटते समय उसने तिरुवोर्रियूर में महादेव की पूजा की और भूमिदान दिया। चार वर्ष बाद इस भूमि को लगान से मुक्त कर दिया गया था। संभवतः परांतक चोल प्रथम का यह अभियान वेंगी के चालुक्य नरेश भीम द्वितीय के विरुद्ध था। किंतु तिरुवोर्रियूर के उत्तर से परांतक प्रथम का कोई लेख नहीं मिला है। इससे लगता है कि इस अभियान से चोलों को कोई स्थायी लाभ नहीं हुआ।
राष्ट्रकूटों के विरुद्ध सुरक्षात्मक उपाय
अपनी विजयों के द्वारा परांतक प्रथम उत्तर में पेण्णार से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक के विस्तृत क्षेत्र का स्वामी बन गया। पश्चिम में गंगों और चेरों के राज्य स्थित थे। 940 ई. में परांतक प्रथम के योग्य एवं विश्वसनीय गंग सामंत बाणाधिराज पृथ्वीपति की मृत्यु हो गई और उसके पुत्र विक्कियण्ण का उसके जीवनकाल में ही देहांत हो गया था। फलतः पृथ्वीपति की मृत्यु के बाद बुतुग द्वितीय गंग राजगद्दी पर बैठा, जो राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय का बहनोई था। बाण और वैदुम्ब पहले से ही चोलों के विरूद्ध राष्ट्रकूटों के सहयोगी थे। इस समय राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय परांतक प्रथम को हानि पहुँचाने की स्थिति में था। राष्ट्रकूटों के संभावित आक्रमण से बचने के लिए परांतक प्रथम ने अपने पुत्र राजादित्य को एक विशाल सेना के साथ तिरुमुनैप्पाडि नाडु में नियुक्त कर दिया।
राष्ट्रकूट आक्रमण और परांतक की पराजय
यद्यपि परांतक प्रथम ने राष्ट्रकूटों के भावी आक्रमण से निपटने के लिए कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की थी, किंतु अंततः कृष्ण तृतीय ने बाणों, वैदुम्बों, गंगों और नोलम्बों के सहयोग से परांतक प्रथम के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया और परांतक की सारी व्यवस्था धरी रह गई।
परांतक ने कृष्ण तृतीय को रोकने के लिए अपने पुत्र राजादित्य के अधीन एक सेना भेजी। उत्तरी अर्काट के तक्कोलम् में 949 ई. में चोल-राष्ट्रकूट सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें चोल पराजित हुए और हाथी पर बैठा राजकुमार राजादित्य युद्ध के मैदान में मारा गया। शोलपुरम् तथा सिद्धलिंगमदम् लेखों से भी कृष्ण तृतीय के तोंडैमंडलम् विजय की सूचना मिलती है। बुतुग द्वितीय के आतकूर लेख से ज्ञात होता है कि इस युद्ध में गंग बुतुग द्वितीय ने राजादित्य को ही अपना लक्ष्य बनाया और हाथी के हौदे में ही उसे मार दिया। इस घटना की पुष्टि चोल लेखों से भी होती है। लीडेन दानपत्रों से पता चलता है कि राजादित्य ने कृष्णराज पर चारों ओर से बाणों की वर्षाकर उसे हतप्रभ कर दिया, किंतु एक विशाल हाथी पर सवार स्वयं शत्रु के बाण से मारा गया। इससे स्पष्ट है कि कृष्ण तृतीय के साथ संघर्ष में चोल राजकुमार राजादित्य मारा गया और तोंडैमंडलम् प्रदेश चोलों के हाथ से निकल गया। यद्यपि पांडिचेरी से दक्षिण राष्ट्रकूटों का कोई लेख नहीं मिला है, किंतु लगता है कि चोल साम्राज्य के सुदूर दक्षिण के भाग परांतक प्रथम की अधीनता से मुक्त हो गये।
परांतक चोल प्रथम का मूल्यांकन
परांतक प्रथम एक योग्य एवं पराक्रमी शासक था। उसने अपने बाहुबल के द्वारा चोल राज्य को एक विशाल साम्राज्य में बदलने का प्रयास किया, किंतु साम्राज्यवादी राष्ट्रकूटों से उसे पराजित होना पड़ा। किंतु अपने 45 वर्षों के दीर्घकालीन शासन के दौरान परांतक ने चोल राज्य को एक सुदृढ़ आधार दिया, जिसके फलस्वरूप उसके उत्तराधिकारियों के काल में यह राज्य अपने विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच गया।
एक योग्य प्रशासक और प्रजा हितकारी शासक के रूप में परांतक प्रथम ने राज्य के आर्थिक विकास के लिए हरसंभव प्रयास किया। एक शिलालेख के अनुसार उसने स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहित करने और ग्राम सभाओं के संचालन के लिए नियम निर्धारित किये थे। करंदै ताम्रलेखों से पता चलता है कि उसने कृषि के विकास के लिए कई नहरों की खुदवाई करवाई थी।
परांतक चोल प्रथम ने परकेशरिवर्मा, वीरनारायण, वीरकीर्ति, वीरचोल, विक्रमचोल, इरुमादीचोल, देवेंद्र चक्रवर्ती, पंडितवत्सल, कुंजरमल्ल, शूरशूलामणि (वीरों के शिखा-रत्न) जैसी उपाधियाँ धारण की थी, जो उसके पराक्रम के साथ-साथ उसके विद्यानुराग का भी सूचक हैं।
परांतक चोल प्रथम शिव का अनुयायी था, किंतु वह सभी धर्मों के प्रति उदार था। उसके काल में चोल मंदिरों के निर्माण की वास्तविक परंपरा का आरंभ हुआ। उसने स्वयं कई मंदिरों का निर्माण करवाया और मंदिरों को दान करने के लिए युद्ध में लूटे गये धन का भी उपयोग किया। कहा जाता है कि उसने चिदंबरम् के शिवमंदिर को सोने की छत से ढक दिया था। लेखों से पता चलता है कि उसने हेमगर्भ तथा अनेक तुलाभार दान संपादित किया था और ब्रह्मदेय दिया था। परांतक प्रथम के 39वें वर्ष में उसकी बहू महादेवदिगल, जो राजादित्य की पत्नी थी, ने राजादित्येश्वर के मंदिर में एक दीपक दान किया था।
अभिलेखों में परांतक प्रथम की कम से कम ग्यारह रानियों के नाम मिलते हैं। उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कोक्किलान थी, जिससे परांतक का ज्येष्ठपुत्र राजादित्य पैदा हुआ था, जो तक्कोलम् के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ था। एक दूसरी रानी केरल की राजकुमारी थी। इसकी दो पुत्रियाँ भी थीं, जिनमें से एक वीरमादेवी गोविंद वल्लवरैयर के साथ ब्याही गई थी और दूसरी अनुपमा का विवाह कोडंबालूर के सरदार से हुआ था।
राजादित्य के अतिरिक्त, परांतक चोल प्रथम के चार अन्य पुत्रों- गंडरादित्य, अरिकुलकेशरी, उत्तमशीलि तथा अरिंडिगै अथवा अरिंजय के संबंध में जानकारी मिलती है। यद्यपि 955 ई. में परांतक प्रथम की मृत्यु के बाद से लेकर राजराज चोल प्रथम के राज्यारोहण (985 ई.) तक का चोल इतिहास अस्पष्ट और अस्त-व्यस्त है और इस अवधि में चोलों के वंशानुक्रम, तिथि एवं घटनाक्रम का स्पष्ट ज्ञान नहीं है। फिर भी, इतिहासकारों का अनुमान है कि परांतक चोल प्रथम के बाद उसका दूसरा पुत्र गंडरादित्य चोल सिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ था।
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