भारत में प्रागैतिहासिक संस्कृतियाँ
मानव सभ्यता का विकास अकस्मात् अथवा त्वरित नहीं, वरन् क्रमिक और मंद गति से हुआ तथा इसे विकास की आधुनिक अवस्था तक पहुँचने के लिए कई चरणों से गुजरना पड़ा है। सभ्यता के विकास की इस दीर्घकालीन अवधि को तीन कालों में विभाजित किया गया है—प्रागैतिहासिक काल, आद्यैतिहासिक काल एवं ऐतिहासिक काल।
‘प्रागैतिहास’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग उन्नीसवीं शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में विल्सन ने किया। ‘प्रागैतिहासिक’ शब्द ऐसे काल को ध्वनित करता है जिसका आविर्भाव मानव-जैसे प्राणियों के साथ एवं अंत ऐतिहासिक काल के आगमन के पूर्व हुआ था। इस काल के मानव को लेखन-कला का ज्ञान नहीं था। दूसरे शब्दों में, ‘प्रागैतिहास’ वह काल है जिसके अध्ययन के लिए लिखित स्रोत नहीं हैं और ऐसे प्राचीन समाज एवं संस्कृति के अध्ययन के लिए पुरातत्त्व ही एकमात्र साधन है।
‘आद्य या प्राक्-इतिहास’ काल वह है जिसके अध्ययन के लिए लिखित स्रोत तो उपलब्ध हैं, किंतु उन लिखित स्रोतों की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है। हड़प्पा सभ्यता और वैदिक संस्कृति को इस काल के अंतर्गत रखा जाता है। वह काल जिसके अध्ययन के लिए लेखों और अभिलेखों के रूप में लिखित स्रोत उपलब्ध हैं, ‘ऐतिहासिक काल’ कहलाता है।
महाकल्प
पृथ्वी की भू-वैज्ञानिक समय-सारिणी को महाकल्पों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक महाकल्प अनेक कल्पों में विभाजित है और प्रत्येक कल्प को अनेक युगों में बाँटा गया है। आज हम जिस भूवैज्ञानिक महाकल्प में रह रहे हैं, यह पृथ्वी का अंतिम महाकल्प नूतनजीव महाकल्प (सिनोज़ोइक) है। यह लगभग 66 मिलियन वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था, जब पृथ्वी के विभिन्न भू-भागों ने वर्तमान स्वरूप प्राप्त किया। इस महाकल्प के पूर्व पृथ्वी के सभी महाद्वीप एक-दूसरे से जुड़े हुए थे और एक विशाल भूभाग के रूप में थे, जिसे ‘पैंजिया’ कहा जाता है। नूतनजीव महाकल्प को दो कल्पों में बाँटा गया है—तृतीयक (पेलियोजीन) और चतुर्थक (नियोजीन)। तृतीयक कल्प को पाँच युगों में विभाजित किया गया है—
- पुरानूतन युग (पेलियोजीन: ~66-58 मिलियन वर्ष पूर्व)
- आदिनूतन युग (~58-33 मिलियन वर्ष पूर्व)
- अल्पनूतन युग (~33-23 मिलियन वर्ष पूर्व)
- मध्यनूतन युग (~23-5 मिलियन वर्ष पूर्व)
- अतिनूतन युग (~5-0.0118 मिलियन वर्ष पूर्व)
मानव जीवन का क्रमिक विकास
आदिमानव/नर-वानर का क्रमिक विकास लगभग 7 मिलियन वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था। द्विपादिता का विकास मध्यनूतन युग में हुआ, जिससे आस्ट्रेलोपिथेकस की उत्पत्ति संभव हुई। होमो शाखा का विकास अतिनूतन युग के दौरान हुआ और लगभग 2.5 मिलियन वर्ष पूर्व आदिमानव ने अपनी बुद्धि क्षमता के आधार पर औजारों का निर्माण कर अपना सांस्कृतिक जीवन आरंभ किया।
उपकरण-निर्माण में अधिक विकास चतुर्थक कल्प के बाद के काल में हुआ। चतुर्थक कल्प वर्तमान भूवैज्ञानिक महाकल्प नूतनजीव का उपविभाग है। यह कल्प दो भूवैज्ञानिक युगों में विभाजित है—प्लाइस्टोसीन (अत्यंत नूतन युग: ~2.58 मिलियन से 11,700 वर्ष पूर्व तक) और होलोसीन (न्यूनतम युग: 11,700 वर्ष पूर्व से वर्तमान तक)।

अत्यंत नूतन युग के दौरान संपूर्ण विश्व के तापमान में कमी आई, जिसके परिणामस्वरूप हिमयुगों की श्रृंखला का आगमन हुआ। लगभग 2.58 मिलियन वर्ष पूर्व से 11,700 वर्ष पूर्व तक पृथ्वी पर चार प्रमुख हिमावर्तन (ग्लेशिएशन) हुए। 11,700 वर्ष पूर्व अंतिम हिमयुग समाप्त हो गया। इसके बाद होलोसीन युग का आगमन हुआ। अत्यंत नूतन युग के दौरान आदिमानव का जैविक रूप से विकास हो रहा था और अब वह सांस्कृतिक अनुकूलन के लिए तैयार था। इस दौरान पाषाण-उपकरणों की तकनीक में भी परिवर्तन और सुधार हुआ।
पाषाण काल
पृथ्वी पर मानव सभ्यता का आरंभिक काल प्रागैतिहासिक काल के नाम से अभिहित किया जाता है, जो मानव के सांस्कृतिक विकास के एक बड़े हिस्से को समेटता है। 1833 ई. में फ्रांसीसी पुरातत्त्ववेत्ता पॉल टेरिएल ने ‘पीरियड एंड-हिस्टोरिक’ शब्द का प्रयोग किया था। आज यह शब्द सिमटकर अंग्रेजी में प्रीहिस्ट्री और हिंदी में प्रागैतिहासिक काल हो गया है। आरंभिक मानव के समक्ष दो कठिन समस्याएँ थीं—एक तो भोजन की व्यवस्था करना और दूसरी जानवरों से स्वयं की रक्षा करना। मानव ने भोजन के लिए शिकार करने, जंगली फलों और कंदों को तोड़ने-खोदने एवं जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए नदी उपत्यकाओं में सर्वसुलभ पाषाण-खंडों का प्रयोग किया। सभ्यता के प्रारंभिक चरण में मानव (होमो सेपियंस सेपियंस) पत्थर का औजार बनाता था, क्योंकि पत्थर उसे सरलता से उपलब्ध था। प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने के लिए पुरातात्विक स्रोत के रूप में पाषाण उपकरण ही सर्वाधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। पाषाण-उपकरणों की प्रधानता और उन पर मानव की निर्भरता के कारण इस आरंभिक काल को ‘पाषाण काल’ कहा जाता है।
भारत में पाषाणकालीन संस्कृति का अनुसंधान सर्वप्रथम 1863 ई. में प्रारंभ हुआ, जब राबर्ट ब्रूस फुट ने—जिन्हें भारतीय प्रागैतिहास के पिता कहा जाता है—मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के निकट पल्लवरम नामक स्थान से पुरापाषाण काल के एक हस्त-कुठार की खोज की। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक मद्रास (चेन्नई), बंबई (मुंबई), मध्य प्रदेश, ओडिशा, बिहार और उत्तर प्रदेश के स्थलों तथा मैसूर, हैदराबाद, रीवा, तलचर आदि से भी प्रागैतिहासिक संस्कृति के अनेक स्थल प्रकाश में आए। 1935 ई. में डी. टेक्कार्ड एवं पैटरसन के निर्देशन में येल-कैंब्रिज अभियान दल ने शिवालिक की पोतवार पठारी भाग का सर्वेक्षण किया और वहाँ कई पुरापाषाणकालीन उपकरण प्राप्त किए।
मानव द्वारा प्रस्तर-उपकरणों के प्रयोग की एक लंबी श्रृंखला है। अनगढ़ पत्थर के औजारों से लेकर परिष्कृत पाषाण-उपकरणों में मानव की विकसित होती बुद्धि-क्षमता सहज ही प्रतिबिंबित होती है। मानव-सभ्यता के इस काल को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया गया है और प्रत्येक काल अपनी विशिष्टताओं एवं उपकरण बनाने की तकनीक में होने वाले क्रमिक विकास को सूचित करता है—
- पुरापाषाण काल (Palaeolithic Age)
- मध्यपाषाण काल (Mesolithic Age)
- नवपाषाण काल (Neolithic Age)
पुरापाषाण काल में मानव ने जहाँ भारी एवं विषम औजारों के शल्क (फ्लेक) का उपयोग किया, वहीं मध्यपाषाण काल में सूक्ष्म पाषाण-उपकरणों की शुरुआत हुई। नवपाषाण काल की अर्थव्यवस्था का आधारभूत तत्त्व खाद्य-उत्पादन एवं पशुओं को पालतू बनाने की जानकारी भी रहा। इसी काल में पहली बार मृद्भांडों के साक्ष्य मिलते हैं।
पुरापाषाण काल
पुरापाषाणकालीन संस्कृति का विकास अत्यंत नूतन युग (प्लाइस्टोसीन) में हुआ। पुरापाषाण काल को ‘पैलियोलिथिक एज’ कहा जाता है, जो यूनानी भाषा के ‘पैलियोस’ (पुराना) एवं ‘लिथोस’ (पत्थर) के शब्दों से मिलकर बना है। पुरापाषाण काल के शल्क निकाले गए पाषाण-उपकरण भारत के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में मिले हैं। इस काल के उपकरण एक प्रकार के सख्त पत्थर क्वार्टजाइट से बने हैं, इसलिए भारत में पुरापाषाणकालीन मानव को ‘क्वार्टजाइट मानव’ कहा जाता है। पाषाण-उपकरणों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि इनका काल लगभग 5 लाख से 10,000 ई.पू. के आसपास रहा होगा।

पाषाणकालीन संस्कृति
भारत में पुरापाषाणकालीन मानव के अवशेष नहीं मिले हैं, किंतु दिसंबर 1982 ई. में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में नर्मदा नदी घाटी में स्थित हथनौरा नामक स्थल से एक मानव खोपड़ी (मस्तिष्क) का जीवाश्म प्राप्त हुआ है, जिससे भारतीय प्रागैतिहासिक संस्कृति को समझने में सहायता मिली है। नृवैज्ञानिकों ने इस मस्तिष्क को होमो इरेक्टस समूह का बताया है, जबकि कुछ इसे होमो सेपियंस का साक्ष्य मानते हैं। यद्यपि इस नर्मदा मानव की तिथि और समय ज्ञात नहीं है, फिर भी इसे निम्न पुरापाषाणकालीन मानव का साक्ष्य माना जा सकता है, क्योंकि यह खोपड़ी उस काल के उपकरणों के साथ उत्खनन में मिली है। महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान की खुदाई में मिले अवशेषों से अनुमान किया गया है कि इस पृथ्वी पर मनुष्य की उपस्थिति लगभग 1.4 मिलियन वर्ष पुरानी है। मोटे तौर पर भारत में मानव का अस्तित्व पंजाब में सिंधु और झेलम नदियों के बीच लगभग ५ लाख वर्ष पूर्व रहा होगा।
गोल पत्थरों से बने प्रस्तर-उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं। सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ्लेक प्रणाली द्वारा बने औजार मुख्य रूप से मद्रास (चेन्नई) में पाए गए हैं। इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, मिर्जापुर एवं बेलन घाटी (प्रयागराज) में मिले हैं।
मध्य प्रदेश के भीमबेतका में मिली पर्वत-गुफाएँ एवं शैलाश्रय (गुफा चित्रकारी) भी महत्त्वपूर्ण हैं। संभवतः पुरापाषाणकालीन मानव नीग्रो नस्ल का था, जैसे कि वर्तमान में अंडमान द्वीप के लोग हैं। नीग्रो नस्ल के मानव का कद छोटा होता है, बाल घुंघराले, त्वचा का रंग काला और नाक चपटी होती है।
पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले प्रस्तर-उपकरणों के औजार-प्रौद्योगिकी एवं जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर इस काल को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है—
- निम्न पुरापाषाण काल (Lower Palaeolithic Period)
- मध्य पुरापाषाण काल (Middle Palaeolithic Period)
- उच्च पुरापाषाण काल (Upper Palaeolithic Period)
6. निम्न पुरापाषाण काल
पुरापाषाणकालीन मानव ने सर्वाधिक समय निम्न पुरापाषाण काल में बिताया। इस कालखंड का समय लगभग 5 लाख वर्ष पूर्व से 1 लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। पुरापाषाण काल में उपकरण बनाने के लिए कच्चे माल के रूप में विभिन्न प्रकार के पत्थर, जैसे—क्वार्टजाइट, चर्ट, क्वार्ट्ज और बेसाल्ट आदि का प्रयोग किया जाता था। इस काल के उपकरणों में मुख्यतः हस्त-कुठार (हैंड-एक्स), खंडक-उपकरण (चॉपिंग टूल्स), विदारणियाँ (क्लीवर) और गड़ासे (चॉपर) आदि सम्मिलित हैं। निम्न पुरापाषाणकालीन उपकरण सिंधु, सरस्वती, ब्रह्मपुत्र और गंगा के मैदानों को छोड़कर संपूर्ण भारत के बहुत बड़े भाग से पाए गए हैं।
निम्न पुरापाषाण काल के प्रमुख स्थल
निम्न पुरापाषाण काल के कुछ महत्त्वपूर्ण स्थल हैं—कश्मीर में पहलगाम, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में बेलन घाटी, मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में भीमबेतका और आदमगढ़, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में नेवासा, कर्नाटक के गुलबर्गा में हुंशगी तथा तमिलनाडु का अट्टिरमपक्कम। इस काल का मानव आस्ट्रेलोपिथेकस था जो गुफाओं से परिचित था, किंतु आग से अनभिज्ञ था।

मध्य पुरापाषाण काल
इस काल की खोज एच.डी. सांकालिया ने की थी। इसका समय एक लाख से 40 हजार वर्ष पूर्व के लगभग माना जाता है। इस काल का मानव नियंडर्थल माना जाता है। इस काल के मानव ने क्वार्टजाइट के स्थान पर अधिकतर उपकरण फ्लिंट, चर्ट, जैस्पर जैसे चमकीले पत्थरों का प्रयोग किया। शल्क उपकरण उद्योग पुरापाषाणकालीन उपकरण तकनीक की विशेषता है। इस तकनीक के अंतर्गत बुटिकाश्म (पेबल) पर चोट करके उससे शल्क निकाले जाते हैं। फलकों की अधिकता के कारण इस काल की संस्कृति को फलक संस्कृति कहा जाता है। इस काल के उपकरणों में छोटे और मध्यम आकार की हस्त-कुठार, विदारणी (क्लीवर) तथा विभिन्न प्रकार की खुरचनी (स्क्रैपर), बेधक (बोरर) और चाकू प्रमुख हैं।
इस काल के उपकरणों में आकार-प्रकार तथा कच्चे माल की उपलब्धता के आधार पर क्षेत्रीय भिन्नता देखने को मिलती है। जिन स्थलों पर मध्य पुरापाषाणकालीन उपकरण निम्न पुरापाषाणकालीन उपकरणों से विकसित हुए हैं, ऐसे स्थलों में मानव-निवास की निरंतरता देखने को मिलती है।
मध्य पुरापाषाणकालीन स्थल
मध्य पुरापाषाणकालीन उपकरण मध्य भारत, दक्कन, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा ओडिशा से पाए गए हैं। इस काल के कुछ महत्त्वपूर्ण स्थल हैं—भीमबेतका, नेवासा, पुष्कर, ऊपरी सिंधु की रोहिणी पहाड़ियाँ, नर्मदा के किनारे समानापुर आदि। मध्य पुरापाषाण काल क्रमिक रूप से उच्च पुरापाषाण काल के रूप में विकसित हुआ।
उच्च पुरापाषाण काल
भारत में इस काल को उत्तर पुरापाषाण काल या सूक्ष्म-पाषाण काल भी कहा जाता है। इसका समय 40 हजार वर्ष पूर्व से 10 हजार ई.पू. के लगभग माना जाता है। इस काल का मानव संभवतः होमो सेपियंस था। आधुनिक मानव का उदय इसी काल में हुआ। इस काल के सूक्ष्म पाषाण-उपकरण कुछ परिष्कृत पत्थरों, जैसे—चर्ट, चैल्सेडनी, क्रिस्टल, जैस्पर, कार्नेलियन, एगेट आदि से बनाए गए हैं। कोर से सावधानीपूर्वक निकाले गए समानांतर सिरोंवाले ब्लेड इस काल के उपकरणों की विशेषता हैं। ब्लेड तकनीक से उपकरणों का निर्माण किए जाने के कारण इस काल को ‘ब्लेड संस्कृति’ भी कहा जाता है।
ब्लेड पतले और संकरे आकार का फलक था, जिसके दोनों किनारे एक समान होते थे, किंतु चौड़ाई लंबाई की दुगुनी होती थी। शल्कों और फलकों (ब्लेड) पर बने उपकरणों में परिष्कृत और छोटे आकार के बेधक (पॉइंट्स), खुरचनी (स्क्रैपर) तथा तक्षणी (ब्यूरिन) आदि सम्मिलित हैं। इसके अलावा कुछ नए प्रकार के उपकरण भी अस्तित्व में आने लगे, जैसे—त्रिकोण, समलंब, तीरों के नोक, अर्द्धचंद्राकार आदि। साक्ष्यों से लगता है कि संयुक्त उपकरणों का विकास इसी सांस्कृतिक चरण से आरंभ हो गया था। उच्च पुरापाषाणकालीन उपकरण राजस्थान, गंगा व बेलन घाटी के भागों से, मध्य तथा पश्चिम भारत, गुजरात, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से प्राप्त हुए हैं।
प्रसार-क्षेत्र एवं उपकरण प्ररूप
कश्मीर घाटी से लेकर प्रायद्वीपीय भारत में फैली पुरापाषाणीय संस्कृति की विभिन्न बस्तियों में पर्यावरण एवं उपकरण-तकनीक-संबंधी उल्लेखनीय अंतर पाए जाते हैं। उत्तर भारत में पंजाब में नदी-वेदिकाओं के तट पर पत्थर के टुकड़ों को उपकरणों के रूप में प्रयुक्त किया गया, जबकि दक्षिण भारत के मानव ने बड़े पत्थरों को गढ़कर हस्त-कुठार एवं अन्य उपकरणों का रूप प्रदान किया।

कश्मीर घाटी
1928 ई. में पुरातत्त्वविद् वाडिया ने इस क्षेत्र से पाषाण-उपकरण प्राप्त किए। 1939 ई. तक पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) के केवल एक भाग से पुरापाषाणकालीन संस्कृतियों के तीन-चार स्तर प्राप्त हुए थे। इन चार स्तरों का नाम सिंधु नदी की एक सहायक नदी सोहन या सोन नदी के नाम पर प्राक्-सोहन, आरंभिक सोहन, उत्तर सोहन तथा विकसित सोहन नाम दिया गया। इन स्तरों पर मुख्यतः खंडक उपकरण, शल्क उपकरण तथा फलक या ब्लेड उद्योग के उपकरण प्राप्त हुए हैं। उपकरणों के अन्य वर्गों के नाम उन उपकरणों की कार्यात्मक शैली या तकनीक के आधार पर दिए गए हैं। ये उपकरण मानव की बौद्धिक क्षमता और मानसिक विकास को प्रतिबिंबित करते हैं। सोहन घाटी से हस्त-कुठार और खंडक उपकरण प्राप्त हुए हैं और इनके मुख्य स्थल हैं—अदियाला, बलवाल और चौंतरा।
1935 ई. में डी. टेक्कार्ड एवं पैटरसन के नेतृत्व में येल-कैंब्रिज अभियान दल ने कश्मीर से लेकर दक्षिणी पाकिस्तान में विस्तृत नमक-श्रृंखला का सर्वेक्षण किया और सिंधु तथा सोहन नदियों की भू-वैज्ञानिक संरचना का संबंध कश्मीर घाटी में अत्यंत नूतन युग में हिमानियों के जमने एवं पिघलने की प्रक्रिया से जोड़ा। द्वितीय हिमयुग के दौरान कश्मीर घाटी में पोतवार पठार पर भारी वर्षा हुई, जिसमें पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े नदी के वेग में बह आए और उन पर सतह का निर्माण हुआ, जिसे ‘बोल्डर कोंग्लोमेरेट’ कहा गया। मानव की सर्वप्रथम उपस्थिति सिंधु और सोहन के सबसे ऊपर की सतह बोल्डर कोंग्लोमेरेट में मानी जाती है। इस स्तर में बड़े-बड़े शल्क (चॉपर), क्वार्टजाइट के खंडित पेबल आदि हैं। इनमें से कुछ पत्थर के टुकड़ों को उपकरणों के रूप में पहचाना गया है, जो पुरापाषाणकालीन मानव के प्रथम निर्माण हैं।
सोहन उद्योग के उपकरण खंडित पेबल और शल्क के रूप में नदी-वेदिकाओं (टेरेस) में सिंधु और सोहन की वर्तमान सतह से क्रमशः 125 मीटर और 65 मीटर की ऊँचाई पर पाए गए हैं। नदी, झील या समुद्र के किनारे के साथ नीचे की तरफ बने क्षेत्र को ‘वेदिका’ (टेरेस) कहते हैं। जलवायुवीय परिवर्तन के कारण वेदिका का निर्माण होता है। वेदिका जितनी ऊँची होती है, उतनी ही पुरानी होती है। अंतर्हिमानी युग के दौरान कश्मीर घाटी और पंजाब के मैदानों की जलवायु में परिवर्तन हुआ, जिससे सिंधु और सोहन नदी में अनेक वेदिकाओं का निर्माण हुआ।
द्वितीय हिमावर्तन काल में बनी वेदिका के उपकरणों को ‘आरंभिक सोहन’ कहा गया है, जिसमें हस्त-कुठार जैसे कोर तथा शल्क दोनों प्रकार के उपकरण हैं। हस्त-कुठार ऐसा प्रस्तर-उपकरण था जिसमें कई फलक निकालकर एक तरफ धार बनाकर हस्त-कुठार का रूप दिया जाता था।
तृतीय हिमावर्तन काल में सोहन नदी की दूसरी वेदिका का निर्माण हुआ। इस समय के उपकरण अपेक्षाकृत परिष्कृत हैं। यहाँ भी फलक उपकरणों की प्रधानता है, किंतु इस स्तर से ब्लेड भी प्राप्त हुए हैं। 1932 ई. में कर्नल टूटी ने रावीपिंडी से ब्लेड प्रकार के अपेक्षाकृत छोटे उपकरणों की खोज की। उत्तरकालीन सोहन उद्योग के उपकरण चौंतरा से प्राप्त हुए हैं। चौंतरा को उत्तर एवं दक्षिण की परंपराओं का मिलन-स्थल कहा गया है, क्योंकि यहाँ से सोहन संस्कृति के आरंभिक फलक उपकरण और दक्षिण भारत की हस्त-कुठार परंपरा के उपकरण भी मिलते हैं। यद्यपि दोनों प्रकार के उपकरण एक ही स्तर के जमाव से मिले हैं, किंतु ये उसी स्तर पर अलग-अलग स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
प्रायद्वीपीय भारत
इस क्षेत्र के अंतर्गत गंगा के मैदानों का दक्षिणी भाग आता है, जो हस्त-कुठार संस्कृति का गढ़ माना जाता है। सर्वप्रथम इस संस्कृति के उपकरण मद्रास (चेन्नई) में पाए गए, इसलिए इन्हें ‘मद्रास-कुठार उपकरण’ भी कहा जाता है। 1863 ई. में राबर्ट ब्रूस फुट ने पल्लवरम से हस्त-कुठार प्राप्त किया था। हाल के शोधों से सिद्ध हो गया है कि मद्रासी परंपरा की हस्त-कुठार संस्कृति लगभग पूरे भारत के विभिन्न क्षेत्रों—आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, चेन्नई, मैसूर, महाराष्ट्र, गुजरात, पूर्वी राजस्थान, उत्तर प्रदेश के पठार क्षेत्र, पश्चिम बंगाल, सिंधु, कश्मीर, असम तथा आंध्र प्रदेश के तटीय प्रदेशों, तमिलनाडु और केरल आदि में फैली थी।
प्रारंभिक पाषाण काल में मानव की उपस्थिति नदी के आसपास तथा नदी घाटी से थोड़ी दूरी तक ही सीमित थी। हस्त-कुठार और अन्य उपकरण सर्वप्रथम पश्चिमी पंजाब में मिले हैं, जो द्वितीय अंतर्हिमानी युग के थे। प्रायद्वीपीय भारत में ये नर्मदा के निक्षेप से प्राप्त हुए हैं, जो लेटराइट मिट्टी के थे। इन निक्षेपों में लुप्त हो चुके जानवर, जैसे—जंगली हाथी, जंगली घोड़े तथा जंगली दरियाई घोड़े आदि के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।
प्रायद्वीपीय भारत में प्रारंभिक पाषाण काल के जो उपकरण मिले हैं, उनमें पेबल से बने हस्त-कुठार, गड़ासे और खंडक-उपकरण, विदारणियाँ, बुटिकाश्म के अतिरिक्त हत्थे के साथ बने उपकरण, दो धार वाले उपकरण तथा चोंचदार उपकरण भी शामिल हैं, जो काटने और बेधने के लिए प्रयुक्त किए जाते थे। कर्नाटक के घाटप्रभा नदी घाटी में बटमदुरै से एशूलियन संस्कृति (विशेष प्रकार के हस्त-कुठार जो फ्रांस में पाए गए थे) के हस्त-कुठार बड़ी मात्रा में मिले हैं। अनगावडी और बगलकोट घाटप्रभा के दो महत्त्वपूर्ण स्थल हैं, जहाँ से प्रारंभिक और मध्य पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। अट्टिरमपक्कम और गुडियम (तमिलनाडु) से हस्त-कुठार, शल्क, ब्लेड और खुरचनी जैसे उपकरण प्राप्त किए गए हैं। नर्मदा और गोदावरी घाटी से कुछ ऐसे जानवरों के अवशेष पाए गए हैं, जो मानव द्वारा शिकार किए गए जानवरों के हैं। स्पष्ट है कि इस काल में मानव की जीवन-शैली शिकार और खाद्य-संग्रह पर आधारित थी।
पुरापाषाणकालीन संस्कृति
जानवरों के अवशेष पुरापाषाण काल के मानव के खान-पान और जीवन-शैली के विषय में अधिक जानकारी प्रदान करते हैं। इस काल में मानव का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। आग और कृषि से अनभिज्ञ पुरापाषाणकालीन मानव खानाबदोश जीवन जीता था और शिकार के लिए पूरी तरह पाषाण-उपकरणों पर आश्रित था। इसलिए यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में जाना जाता है। चयनित शिकार का इस काल में कोई साक्ष्य नहीं मिला है। कुछ स्थानों पर कुछ विशेष जानवरों के अवशेष अधिक मात्रा में मिले हैं, किंतु इसका कारण उस क्षेत्र-विशेष में उनकी अधिक संख्या हो सकती है या उनका सरलता से शिकार किया जाना हो सकता है। पौधों और जानवरों के मांस पर आधारित शिकारी खाद्य-संग्राहकों का खान-पान आर्द्र और शुष्क मौसम के अनुसार बदलता रहता था।

चट्टानों पर की गई चित्रकारी, जो कहीं-कहीं पत्थरों को खोदकर की गई है, से भी प्रारंभिक मानव की जीवन-शैली और सामाजिक जीवन के विषय में जानकारी मिलती है।
उच्च पुरापाषाण काल की प्रारंभिक चित्रकारी के नमूने मध्य प्रदेश के भीमबेतका से मिले हैं। भीमबेतका से प्राप्त चट्टान पर की गई चित्रकारी शिकार की सफलता के लिए किए गए कर्मकांडों का हिस्सा है। इन चित्रों में हरा और गाढ़ा लाल रंग भरा गया है और इनमें मुख्यतः हाथी, शेर, गैंडा और वराह को चित्रित किया गया है। इन चित्रों में शिकारी गतिविधियों को दर्शाया गया है। चित्रों से पता चलता है कि इस काल में मानव छोटे-छोटे समूहों में रहता था तथा उसका जीवन पौधों और जानवरों से मिलने वाले संसाधनों पर आधारित था। राजस्थान के बागोर से प्राप्त एक त्रिकोण आकार के पत्थर की व्याख्या मादा उर्वरता के रूप में की गई है।

अभी पारिवारिक जीवन का विकास नहीं हुआ था। मानव गुफाओं में उसी प्रकार रहता था, जैसे संघो (उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान) या कुर्नूल (आंध्र प्रदेश) में मानव चट्टानों से बने आश्रय-स्थलों में रहता था। इस प्रकार के अनेक साक्ष्य मध्य प्रदेश के भीमबेतका तथा भारत के अन्य स्थानों से भी प्राप्त हुए हैं। मानव-बस्तियाँ अधिकतर घने जंगलों और पानी के स्रोतों के निकट होती थीं। कुल मिलाकर पुरापाषाणकालीन मानव केवल उपभोक्ता था, अभी उत्पादक नहीं बन सका था।
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