वायसरॉय वेवेल की 24 अगस्त की घोषणा के अनुसार 2 सितंबर 1946 ई. को नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ और बाद में, मुस्लिम लीग भी अंतरिम सरकार में शामिल हो गई, यद्यपि उसने कैबिनेट मिशन के किसी भी, अल्पकालीन या दीर्घकालीन, प्रावधान को स्वीकार नहीं किया था। किंतु सरकार में शामिल मुस्लिम लीग के मंत्रियों की सरकार-भंजक कार्यशैली से स्पष्ट हो गया कि उनका उद्देश्य किसी भी तरह पृथक् पाकिस्तान का निर्माण करना था। अंततः जब नेहरू और उनके मत्रिमंडल ने अपना नामांकन वापस लेने की धमकी दी तो लीग ने संविधान सभा को भंग करने की माँग कर दी। 16 अगस्त की प्रत्यक्ष कार्यवाही के बाद होनेवाले सांप्रदायिक दंगों से देश की स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। कलकत्ता के बाद नोआखली, अहमदाबाद, बिहार व गढ़मुक्तेश्वर सहित देश के अन्य भागों में भयंकर दंगे होने लगे थे और ब्रिटिश सरकार इन दंगों को रोकने में पूरी तरह विफल रही थी। इस प्रकार सांप्रदायिक हिंसा ने कानून और व्यवस्था को बनाये रखने में ब्रिटिश राज की नंपुसकता को उजागर कर दिया था।
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एटली की घोषणा
फरवरी 1947 ई. तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सांप्रदायिक तनाव चरम पर पहुँच गया था और पूरा देश भयंकर दंगे और अराजकता की चपेट में था। इस समय तक भारत में न तो अंतरिम सरकार सही ढ़ंग से काम कर सकी और न ही संवैधानिक सभा के बारे में कोई आम सहमति बन सकी थी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 20 फरवरी 1947 ई. को ब्रिटिश संसद में भारत-संबंधी एक ऐतिहासिक घोषणा की, जिसे ‘एटली की घोषणा’ के नाम से जाना जाता है। इस घोषणा में कहा गया था: ‘‘भारतीय राजनैतिक दलों के आपसी मतभेद संविधान सभा के कार्य में योजनाबद्ध रूप से बाधा डालते हैं, जिससे वह भिन्न-भिन्न संप्रदायों का पूर्णरूपेण प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। इससे देश में अनिश्चितता फैलती है और इसे अधिक समय तक सहन नहीं किया जायेगा।’’ एटली ने आगे यह भी स्पष्ट किया कि सम्राट की सरकार 30 जून 1948 ई. तक प्रभुसत्ता भारतीयों के हाथों में सौंप देगी और रियासतों की स्थिति तब तय होगी जब अंतिम हस्तांतरण तिथि निर्धारित की जायेगी। यदि लीग संविधान सभा का बहिष्कार जारी रखेगी, तो हमें सोचना होगा कि ब्रिटिश प्रदेशों की केंद्रीय प्रभुसत्ता निश्चित तिथि तक किसको सौंपी जाए, केंद्रीय सरकार को या प्रदेशों में कार्य कर रही प्रांतीय सरकारों को अथवा कोई और मार्ग, जो कि उचित हो और भारतीय लोगों के हित में हो। यद्यपि एटली की भारत छोड़ने संबंधी घोषणा की रूढ़िवादी दल ने संसद में भारी आलोचना की, लेकिन अंततः वह स्वीकृत हो गई। वस्तुतः एटली की सरकार को उम्मीद थी कि सत्ता-हस्तांतरण के लिए तिथि निर्धारित करने पर भारत के राजनीतिक दल मुख्य समस्या के समाधान हेतु सहमत हो जायेंगे।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सत्ता हस्तांतरण की जून 1948 ई. की तिथि निर्धारित करके कांग्रेस को भारत की स्वतंत्रता का विष्वास दिला दिया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि अंग्रेज़ों के उत्तराधिकारी के रूप में भारत में सत्ता किसके हाथ में होगी। मुस्लिम लीग को प्रसन्न करने हेतु यह वक्तव्य जान-बूझकर अस्पष्ट रखा गया था कि ब्रिटिश सत्ता का हस्तांतरण भारत में स्थापित किसी एक अथवा एक से अधिक सरकारों को किया जा सकता है। मुस्लिम लीग ने एटली की घोषणा का यह अर्थ निकाला कि यदि वह जून 1948 ई. तक संविधान सभा का बहिष्कार करती रहेगी तो संविधान का निर्माण नहीं हो सकेगा और इंग्लैंड की सरकार विवश होकर उन प्रांतों को सत्ता सौंप देगी, जहाँ मुसलमानों का बहुमत है और इस तरह सरकार पाकिस्तान देने के लिए तैयार हो जायेगी। इस प्रकार 20 फरवरी 1947 ई. की ब्रिटिश प्रधानमंत्री की घोषणा भारतीय राजनीति के संदर्भ में पाकिस्तान के लिए किसी न किसी रूप में खुली छूट थी।
एटली की इस घोषणा के बाद मुस्लिम लीग ने भारत-विभाजन के लिए प्रचंड आंदोलन छेड़ दिया। उसने कलकत्ता, असम, पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में निर्लज्ज रूप से उत्पात करना शुरू कर दिया। हिंदू और मुस्लिम संप्रदायवादी जघन्य हत्याओं और क्रूरता के द्वारा एक-दूसरे का मुकाबला करने लगे। न्यूनतम् मानव-मूल्यों का इस तरह उल्लंघन होने और सत्य-अहिंसा को ताक पर रखा जाते देखकर गांधीजी ने दंगे रोकने के लिए पूर्वी बंगाल और बिहार की पदयात्रा की। लीग ने उन मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों में जहाँ लीग की सरकारें नहीं थीं, अराजकता फैलाकर लीग की सरकार बनाने का प्रयास किया। वह पंजाब में सफल भी हो गई और संयुक्त मंत्रिमंडल को त्यागपत्र देना पड़ा, किंतु असम तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में असफल रही। गांधी तथा दूसरे राष्ट्रवादी नेता सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और भावनाओं से जूझते रहे, किंतु असफल रहे। घृणा और आतंक के इस वातावरण से स्पष्ट हो गया कि अब भारतीय एकता को बनाये रखना संभव नहीं है। इतिहास की बिडंबना थी कि ब्रिटिश शासकों ने जिस मुस्लिम लीग और जिन्ना को अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए बढ़ावा दिया था, अब उन्हीं पर उनका कोई वश नहीं रह गया था।
लॉर्ड माउंटबेटन का आगमन
ब्रिटेन की मजदूर दल की सरकार ने एक बार फिर समझौते द्वारा समाधान को सर्वोच्च महत्त्व दिया और ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने अपनी 20 फरवरी 1947 ई. की घोषणा के क्रम में सत्ता-हस्तांतरण के लिए वेवेल के स्थान पर लुईस माउंटबेटन को 4 मार्च 1947 ई. को भारत का वायसरॉय नियुक्त किया। माउंटबेटन इसके पूर्व द्वितीय महायुद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया स्थित ब्रिटिश नौसैनिक बेड़े के मुख्य कमांडर रह चुके थे और भविष्य में भी ब्रिटिश नौसैनिक अधिकारी के रूप में कार्य करना चाहते थे। जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने 16 दिसंबर 1946 ई. को माउंटबेटन को भारत के वायसरॉय का पद स्वीकार करने को कहा, तो उसने बड़ी हिचकिचाहट से प्रधानमंत्री एटली के निर्णय को स्वीकार किया और लगभग तीन महीने तक भारत के मामलों और सत्ता-हस्तांतरण की बारीकियों को समझा था।
सैंतालीस वर्षीय लॉर्ड माउंटबेटन ने 24 मार्च 1947 ई. को जब भारत के वायसरॉय का उत्तरदायित्व सँभाला, तो वे इस बात से बहुत खुश थे कि उन्हें लगभग दिव्य-शक्तियों से नवाजा गया है। उनके उद्गार थे: ‘‘मैंने महसूस किया कि मुझे दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी बना दिया गया है।’’ भारत आने के बाद उसने स्वयं निर्णय लिये और भारत के प्रमुख राजनेताओं का विश्वास जीतने का प्रयास किया। फिर भी, ब्रिटिश सरकार की नीतियों के अनुसार कार्य करना उसकी मजबूरी थी क्योंकि पदभार ग्रहण करते समय उनको ब्रिटिश सरकार की ओर से स्पष्ट दिशा निर्देश दिये गये थे और यह अपेक्षा की गई थी कि वह सरकार की नीतियों के अनुरूप ही कार्य करेंगे।
माउंटबेटन का प्रारंभिक लक्ष्य कैबिनेट मिशन योजना के आधार पर एकजुट भारत के लिए समाधान खोजना था। माउंटबेटन के भारत आने के समय तक भारत की अखंडता बनाये रखने अथवा विभाजन दोनों ही विकल्पों पर विचार चल रहा था। संभवतः इस समय ब्रिटेन भारत को खंडित करने के पक्ष में नहीं था। 1947 ई. में ब्रिटेन की इस नीति-परिवर्तन के कई कारण थे। एक तो ब्रिटेन के मजदूर दल की सबसे निकटतम् भारतीय पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस थी; दूसरे, ब्रिटेन ने एक बिखरे उपमहाद्वीप को एक एकल राजनीतिक क्षेत्र बना दिया था, जिसे अंग्रेज बड़े गर्व से अपने साम्राज्य की सबसे उत्कृष्ट सृजनात्मक उपलब्धि बताते थे और वे नहीं चाहते थे कि उनकी वापसी के समय उसमें दरार पड़े। तीसरे, उस समय उत्तर-पश्चिम सीमा से थोड़ी ही दूर पर अंग्रेजी राज का पारंपरिक हौवा सोवियत संघ बैठा था। ब्रिटेन को पता था कि यदि साम्यवाद के खिलाफ दक्षिण एशिया के दरवाजों को मजबूती के साथ बंद करना है, तो इसके लिए संयुक्त भारत की मजबूत चहारदीवारी चाहिए। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की मंशा थी कि वह संयुक्त एवं मैत्रीभाव वाले अखंड भारत को सत्ता हस्तांतरित करे और राष्ट्रमंडल की सुरक्षा हेतु भारत को सक्रिय साझेदार बनाये। ब्रिटेन का मानना था कि विभाजित भारत से राष्ट्रमंडल की शक्ति क्षीण होगी और ब्रिटिश सर्वोच्चता की उसकी नीति प्रभावित होगी। माउंटबेटन का भी मानना था कि राष्ट्रमंडल के अंतर्गत भारत एक राज्य बना रहे, तो विश्व में प्रतिष्ठा और रणनीति, दोनों ही दृष्टियों से यूनाइटेड किंगडम के लिए यह बड़े गौरव की बात होगी।
भारत आकर माउंटबेटन ने 24 मार्च से 15 अप्रैल तक विभिन्न राजनैतिक दलों और नेताओं से तात्कालिक समस्याओं पर व्यापक विचार-विमर्श किया और प्रांतों के गवर्नरों की एक सभा बुलाई। कांग्रेस के नेहरू और पटेल माउंटबेटन से कई बार मिले। गांधी की माउंटबेटन से पहली मुलाकत 31 मार्च 1947 ई. को हुई, जबकि जिन्ना तथा वायसरॉय पहली बार 6 अप्रैल 1947 ई. को मिले। इसके अलावा माउंटबेटन ने कांग्रेस के मौलाना आजाद, जे.बी. कृपलानी, कृष्ण मेनन तथा मुस्लिम लीग के सचिव लियाकत अली खाँ से भेंट की। उन्होंने सिख प्रतिनिधियों में बलदेव सिंह, मास्टर तारासिंह और अन्य सिख नेताओं के अतिरिक्त बीकानेर तथा भोपाल की रियासतों के राजाओं से भी लंबी वार्ताएँ की। डेढ महीने से कम समय में ही माउंटबेटन ने कुल मिलाकर 133 साक्षात्कार किये। भारत की वास्तविक स्थिति का मूल्यांकन करते हुए वायसरॉय ने लिखा: ‘‘हम एक ज्वालामुखी पर बैठे हैं, जिसका विस्फोट इस पर निर्भर करेगा कि हम सत्ता हस्तांतरण करने का निर्णय किस प्रकार लेते हैं।’’
भारतीय उपमहाद्वीप के भविष्य की योजना बनाने में कांग्रेस शीघ्र ही माउंटबेटन की सहयोगी बन गई और नेहरू वायसरॉय और उनकी पत्नी के अंतरंग मित्र बन गये। किंतु मुस्लिम लीग, जो कभी अंग्रेजी राज का नीतिगत साधन हुआ करती थी, अब एक प्रमुख बाधा थी और उसका साक्षात् रूप जिन्ना थे। जिन्ना ने माउंटबेटन को स्पष्ट बता दिया: ‘‘विभाजन अनिवार्य है। हम उन हिंदुओं पर विश्वास नहीं कर सकते।…..जब आप चले जायेंगे, हम सदैव के लिए उनकी कृपा पर आधारित हो जायेंगे और तब हमारे लिए कोई स्थान नहीं बचेगा, हमारा दमन किया जायेगा और यह बहुत भयानक होगा।’’ वायसरॉय ने कहा था: ‘‘मुझे इस बात पर घमंड था कि मैं लोगों को सही व उचित कार्य करने के लिए तैयार कर सकता हूँ।…..लेकिन जिन्ना के मामले में कुछ भी करना संभव नहीं था।’’ अब माउंटबेटन को जिन्ना एक ‘पागल’, ‘घटिया आदमी’ और ‘मनोरोगी’ लगने लगे।
माउंटबेटन ने सभी राजनीतिक दलों और प्रमुख नेताओं से बातचीत के बाद निष्कर्ष निकाला कि कांग्रेस और लीग के बीच का गतिरोध दूर करना संभव नहीं है और शक्ति-हस्तांतरण का कार्य जून 1948 तक नहीं रोका जा सकता, बल्कि यह कार्य 1947 ई. के अंत तक ही हो जाना चाहिए। माउंटबेटन ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि भारत की भौगोलिक एकता को कायम रखना संभव नहीं है क्योंकि मुस्लिम लीग और जिन्ना पाकिस्तान के अतिरिक्त किसी भी विकल्प पर सहमत नहीं होंगे। कांग्रेसी अखंडता का झंडा उठाये हुए थे, लेकिन जिन्ना पाकिस्तान की जिद पकड़े हुए थे और सांप्रदायिक दंगों के कारण कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ चुकी थी। प्रशासनिक सेवा और सैनिक दलों के अधिकांश अधिकारी सांप्रदायिक गुटों में बँट चुके थे।
माउंटबेटन के भारत आने के पहले ही ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस दोनों यह स्वीकार करने लगे थे कि किसी-न-किसी प्रकार से जिन्ना की माँग को स्वीकार करने के अलावा उनके सम्मुख और कोई विकल्प नहीं है। माउंटबेटन ने बड़ी आसानी से पहले पटेल और नेहरू को देश के बँटवारे के पक्ष में कर लिया। माउंटबेटन की पत्नी ने नेहरू को समझाया कि मुस्लिम लीग और कांग्रेस में पारस्परिक सहयोग संभव नहीं है, इसलिए पाकिस्तान को स्वीकार कर, शेष भारत को संगठित और शक्तिशाली बनाना ही उचित है। विभाजन का विरोध करते हुए अबुलकलाम आजाद ने गांधी से कहा: ‘‘मैं बँटवारे के खिलाफ रहा हूँ और अब भी हूँ। बँटवारे के खिलाफ जितना मैं आज हूँ उतना पहले कभी नहीं था। मुझे यह देखकर अफसोस है कि नेहरू और पटेल ने हार मान ली है। यदि आप (गांधी) भी इसे स्वीकार कर लेते हैं, तो मुझे डर है कि हिंदुस्तान का सर्वनाश हो जायेगा।’’ गांधी का कहना था: ‘‘भारत का विभाजन मेरी लाश पर होगा। जब तक मैं जिंदा हूँ, भारत के दो टुकड़े नहीं होने दूँगा। यथासंभव मैं कांग्रेस को भी भारत का बँटवारा स्वीकार नहीं करने दूँगा।’’ 2 अप्रैल को गांधीजी ने माउंटबेटन से लॉर्ड माउंटबेटन को सुझाव दिया था कि आप जिन्ना को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें, कम से कम इससे देश का विभाजन तो रुक जायेगा, लेकिन गांधी के इस सुझाव का जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने कड़ा विरोध किया था। वस्तुतः इस समय तक कांग्रेस में गांधीजी का प्रभाव काफी घट चुका था और उनके सैद्धांतिक दृष्टिकोण के प्रति उनके सहयोगी उदासीन होते जा रहे थे। बड़े पैमाने पर खून-खराबा और सांप्रदायिक दंगों का अंदेशा सामने था। अंततः परिस्थितियों के दबाव में गांधी ने भी दुखी मन से विभाजन स्वीकार कर लिया।
डिकी बर्ड प्लान या बाल्कन योजना
माउंटबेटन ने पहले कांग्रेस के नेताओं को मानसिक रूप से विभाजन के लिए तैयार किया। इसके बाद उन्होंने हेस्टिंग्स इस्माय, जॉर्ज ऐबल सहायता से कैबिनेट मिशन की व्यवस्था के स्थान पर ‘डिकी बर्ड प्लान’ तैयार करवाया। 15-16 अप्रैल 1947 ई. को इस्माय ने इस योजना को दिल्ली के प्रांतीय गवर्नरों के सामने प्रस्तुत किया। इसलिए इस योजना को ‘इस्माय योजना’ के नाम से भी जाना जाता है। डिकी बर्ड प्लान के अनुसार देश के सभी प्रांतों को स्वतंत्र उत्तराधिकारी राज्य बनाया जाना था। फिर उन्हें यह चुनने का अधिकार दिया जाना था कि वे संविधान सभा का हिस्सा बनें या स्वतंत्र रहें। माउंटबेटन ने इस योजना के बारे में भारतीय नेताओं को केवल औपचारिक तौर पर सूचना दी और लंदन चले गये। मई 1947 ई. में उन्होंने शिमला में जवाहरलाल नेहरू के सामने पूरी योजना रखी। जवाहरलाल नेहरू ने डिकी बर्ड प्लान का कड़ा विरोध किया और उसे ‘बाल्कन योजना’ बताते हुए कहा कि इससे देश कई टुकड़ों में बँट जायेगा। इसलिए इसे ‘बाल्कन प्लान’ भी कहते हैं।
नेहरू की चिंताओं के कारण वायसरॉय के सचिवालय में उच्च पद पर कार्यरत वी.पी. मेनन ने समझौते का दूसरा रास्ता निकाला: ‘‘देश स्वाधीन तो होगा, लेकिन एक नहीं रहेगा; भारत का विभाजन होगा और भारत के साथ पाकिस्तान नामक एक नया राज्य भी स्थापित होगा।’’ माउंटबेटन जानते थे कि पाकिस्तान बनाने की योजना उचित नहीं है और न ही इससे सांप्रदायिकता की समस्या को दूर किया जा सकता है, फिर भी उन्होंने विभाजन का निर्णय लिया।
माउंटबेटन योजना (3 जून 1947 ई.)
विभाजन की योजना पर बातचीत करने के लिए लॉर्ड माउंटबेटन 18 मई 1947 ई. को लंदन गये और ब्रिटिश सरकार की सहमति लेकर 31 मई को वापस आये। कांग्रेस और लीग के नेताओं की सहमति से माउंटबेटन ने 3 जून 1947 ई. को रेडियो के माध्यम से भारत-विभाजन की अपनी योजना को देश के सम्मुख प्रस्तुत किया, जो इतिहास में ‘3 जून योजना’ या ‘माउंटबेटन योजना’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस योजना के द्वारा मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों को संतुष्ट करने का प्रयास किया गया था, जिसमें स्वतंत्रता, विभाजन, संप्रभुता और दोनों देशों के अपने-अपने संविधान बनाने के अधिकार के सिद्धांत शामिल थे।
वायसरॉय के संबोधन के बाद जवाहरलाल ने रेडियो के माध्यम से देशवासियों को विभाजन को स्वीकार करने की भावुक अपील की: ‘‘इन प्रस्तावों को आपके अनुमोदन हेतु रखते हुए मेरे मन में किसी प्रकार की प्रसन्नता नहीं हो रही है, यद्यपि मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि यही उचित मार्ग है।’’ विभाजन को स्वीकार करने की अपील करने के बाद नेहरू ने देशवासियों को यह विश्वास दिलाया कि भारत से कुछ क्षेत्रों के अलग हो जाने के बाद भी देश में उसी प्रकार की निरंतरता बनी रहेगी जो पहले से विद्यमान है।
माउंटबेटन योजना के प्रमुख प्रावधान
- वर्तमान परिस्थितियों में भारत के विभाजन से ही समस्या सुलझ सकती है। अतः भारत को दो राज्यों- भारतीय संघ और पाकिस्तान में विभाजित किया जायेगा।
- पश्चिमी पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत, सिंध तथा बलूचिस्तान, पूर्वी बंगाल तथा असम का मुस्लिम बहुल सिलहट क्षेत्र, एक नये स्वतंत्र राज्य के रूप में स्वतंत्र होंगे, जिनका नाम ‘पाकिस्तान’ होगा। ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में बने रहना इनकी अपनी इच्छा पर निर्भर होगा।
- संविधान सभा द्वारा पारित संविधान भारत के उन भागों में लागू नहीं होगा, जो इसे मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
- बंगाल, पंजाब एवं असम में विधानमंडलों के अधिवेशन दो भागों में किये जायेंगे। एक भाग में उन जिलों के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगें, जहाँ मुसलमानों की बहुलता है और दूसरे में उन जिलों के प्रतिनिधि भाग लेंगें, जहाँ मुसलमान अल्पसंख्या में है। दोनों यह निर्णय स्वयं लेंगे कि उन्हें भारत में रहना है या पाकिस्तान में। सिंध की प्रांतीय सभा को भी विशेष बैठक में ऐसा ही निर्णय करना था।
- बंगाल और पंजाब की प्रांतीय सभाओं की बैठक दो भागों में होनी थी, एक मुस्लिम बहुसंख्यक भाग का और दूसरा शेष प्रांत के प्रतिनिधियों का। प्रांतीय सभाओं के ये दोनों भाग पृथक्-पृथक् बैठकें करके यह निश्चित करेंगे कि प्रांतों का बँटवारा हो अथवा नहीं। यदि किसी एक भाग का साधारण बहुमत बँटवारे के पक्ष में मत देता है, तो बँटवारे का प्रबंध किया जायेगा। बँटवारे की स्थिति में एक सीमा आयोग का भी प्रावधान किया गया था, ताकि सीमाएँ निश्चित की जा सकें।
- उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में जनमत-संग्रह द्वारा यह पता लगाया जायेगा कि वे भारत या पाकिस्तान, किसमें रहना चाहते हैं?
- असम के सिलहट जिले में जनमत-संग्रह कराया जायेगा कि वह असम में रहेगा अथवा पूर्वी बंगाल में शामिल होगा।
- पंजाब, बंगाल व असम के विभाजन के लिए एक सीमा आयोग का गठन किया जायेगा जो उक्त प्रांतों की सीमा निश्चित करेगा।
- देसी रियासतों से भी 15 अगस्त 1947 ई. से ब्रिटिश सर्वोच्चता समाप्त हो जायेगी और वे भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते हैं या स्वतंत्र रह सकते हैं। अंत में, यह भी कहा गया था: ‘‘महामहिम की सरकार इसी वर्ष एक विधेयक पारित करेगी ताकि एक अथवा दो प्राधिकरणों को स्वतंत्रता के आधार पर सत्ता सौंपी जा सके।’’
माउंटबेटन योजना की स्वीकृति
माउंटबेटन योजना को मन से या बेमन से प्रायः सभी दलों ने स्वीकार कर लिया। मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना पहले तो ‘अस्त-व्यस्त और लगड़ा पाकिस्तान’ को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, किंतु जब यह धमकी दी गई कि यदि वह इस योजना को स्वीकार नहीं करेंगे तो पाकिस्तान का विचार ही समाप्त हो जायेगा, तो वह मान गये और 10 जून 1947 ई. को नई दिल्ली में मुस्लिम लीग की कौंसिल ने माउंटबेटन योजना को भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया। लीग की बैठक में उपस्थित 400 सदस्यों में से केवल दस सदस्यों ने उसका विरोध किया।
कांग्रेस महासमिति ने 3 जून की माउंटबेटन योजना की अंतिम रूप से पुष्टि के लिए दिल्ली में 14-15 जून 1947 ई. को बैठक की। 14 जून 1947 ई. को गोविंदवल्लभ पंत ने विभाजन की योजना की पुष्टि करते हुए कहा: ‘‘आज हमें पाकिस्तान या आत्महत्या में से एक को चुनना है। देश की स्वतंत्रता और मुक्ति पाने का यही एक मात्र रास्ता है। इससे भारत में एक शक्तिशाली संघ की स्थापना होगी।’’ पटेल और नेहरू ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। विभाजन के प्रश्न पर नेहरू ने स्पष्टीकरण दिया कि कांग्रेस ने बहुत पहले से ही किसी भी क्षेत्र के आत्मनिर्णय के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था। वल्लभभाई पटेल का भी कहना था कि माउंटबेटन के प्रस्तावों को स्वीकार करने का अर्थ यह होगा कि कांग्रेस शेष भारत में शांति और व्यवस्था स्थापित करके भारत को विकास के मार्ग पर ले जायेगी। कांग्रेस के पुरुषोत्तमदास टंडन, मौलाना आजाद, मौलाना हफीजुर्रहमान, सिंध कांग्रेस के नेता चौथराम गिडवानी तथा पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष डॉ. किचलू ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। अंत में, गांधीजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्यों से विभाजन को अनिवार्य मानकर उसका अनुमोदन करने की अपील की। गांधी के हस्तक्षेप के बावजूद कांग्रेस कार्य समिति का प्रस्ताव अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (ए.आई.सी.सी.) में सर्वसम्मति से पास नहीं हो सका और 161 सदस्यों ने या तो प्रस्ताव के विरोध में वोट दिया या वे तटस्थ रहे। कांग्रेस द्वारा माउंटबेटन योजना को स्वीकार कर लेने के बाद पश्चिमोत्तर प्रांत के सीमांत गांधी अब्दुल गफ्फार खाँ ने कहा: ‘‘कांग्रेस ने उन्हें भेड़ियों के आगे डाल दिया।’’ उन्होंने माँग की कि अलग पठानिस्तान या पख्तुनिस्तान की स्थापना के बारे में भी सीमांत का जनमत-संग्रह करवाया जाए, किंतु माउंटबेटन ने इसे मानने से इनकार कर दिया। सिखों ने भी इसे बेमन से स्वीकार कर लिया।
माउंटबेटन योजना का क्रियान्वयन
कांग्रेस और मुस्लिम लीग की स्वीकृति के बाद माउंटबेटन योजना बिना किसी विलंब के लागू कर दी गई। ब्रिटिश सरकार के नीति-निर्माताओं ने भारत के भविष्य का निर्णय वायसरॉय और वी.पी. मेनन जैसे सहयोगियों की सलाह के अनुसार किया। वायसरॉय माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरित करने की पूर्व निर्धारित तिथि 30 जून 1948 ई. को बदलकर यह निर्णय किया कि सत्ता-हस्तांतरण की पूरी प्रक्रिया पहले की घोषित तिथि के दस महीने पहले 15 अगस्त, 1947 ई. तक पूरी कर ली जाय। इसके पीछे माउंटबेटन का तर्क था कि सत्ता-हस्तांतरण और भारत-विभाजन में विलंब करने से स्थिति अनियंत्रित हो सकती थी। इसलिए वह भारतीय राजनीतिक दलों को कम-से-कम समय देने के पक्ष में था।
भारत-विभाजन और सत्ता-हस्तांतरण से जुड़ी समस्याओं पर विचार करने और इनका समाधान तलाश करने के उद्देश्य से एक उच्चाधिकार प्राप्त विभाजन समिति का गठन किया गया। माउंटबेटन की अध्यक्षता में गठित इस समिति में कांग्रेस और मुसलिम लीग के दो-दो प्रतिनिधि थे। कांग्रेस की ओर से वल्लभभाई पटेल तथा राजेंद्र प्रसाद और लीग की ओर से लियाकत अली तथा अब्दुर रब निश्तर प्रतिनिधि नियुक्त किये गये।
माउंटबेटन योजना के अनुसार बंगाल और पंजाब की विधानसभाओं के अधिवेशन दो अलग-अलग भागों में किये गये। बंगाल और पंजाब के अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों ने विभाजन के पक्ष में मतदान किया। इन प्रांतों का विभाजन करके इनकी सीमाओं के निर्धारण का कार्य एक ब्रिटिश वकील रेडक्लिफ को सौंपा गया। लीग ने सांप्रदायिकता का नारा लगाते हुए धर्म के आधार व फर्जी वोट डलवाकर पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला करवाया। सिंध, बलूचिस्तान तथा असम के सिलहट जिले ने पाकिस्तान में सम्मिलित होने का फैसला किया।
अगले दस सप्ताह में विभाजन और सत्ता-हस्तांतरण से जुड़े अनेक प्रश्नों का निर्णय किया गया। भारत और पाकिस्तान का अलग-अलग प्रशासन चलाने के लिए परिसंपत्तियों का बँटवारा किया गया। भावी प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े प्रश्नों पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सुझावों पर माउंटबेटन ने निर्णय किये। सेनाओं का विभाजन दो चरणों में किया गया। पहले चरण में सांप्रदायिक आधार पर सेना का विभाजन हुआ और दूसरे चरण में सैनिकों और सेना के अधिकारियों की राय के अनुसार भावी भारत और पाकिस्तान की सेनाओं की संख्या और अन्य सैनिक उपकरणों आदि का बँटवारा किया गया। अंडमान और निकोबार द्वीपसमूहों पर कुछ ब्रिटिश राजनीतिज्ञ और मोहम्मद अली जिन्ना नजर गड़ाये थे, लेकिन अंततः इन द्वीपों को भारत को सौंपने का फैसला हुआ।
कांग्रेस ने विभाजन क्यों स्वीकार किया?
मुस्लिम लीग तो किसी भी कीमत पर पाकिस्तान के लिए अड़ी हुई थी और ब्रिटिश सरकार को भी अपने ही बनाये जाल में फँसकर उसकी माँग को स्वीकार करना पड़ा, किंतु एक बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न अकसर उठाया जाता है कि भारत की एकात्मकता को दुर्जेय मानने वाली कांग्रेस ने भारत-विभाजन की 3 जून की माउंटबेटन योजना को क्यों स्वीकार किया? आरंभ में विभाजन का विरोध करते हुए गांधीजी ने कहा था कि मेरी पूरी आत्मा इस विचार के विरुद्ध विद्रोह करती है कि हिंदू और मुसलमान दो विरोधी मत और संस्कृतियाँ हैं। फिर गांधीजी ने विभाजन को अपनी मौन स्वीकृति क्यों दे दी?
इस संबंध में साम्यवादियों और गांधीवादियों, दोनों का मानना है कि नेहरू और पटेल ने विभाजन को इसलिए स्वीकार किया क्योंकि सत्ता का इंतजार उनके लिए असह्य हो रहा था। इसके लिए उन्होंने गांधी के सलाह की भी उपेक्षा कर दी जिससे वे इतने मर्माहत हुए कि उनकी और जीने की इच्छा ही खत्म हो गई। फिर भी, उन्होंने सांप्रदायिक घृणा का अकेले मुकाबला करने का प्रयास किया, जिसके कारण माउंटबेटन ने उन्हें ‘वनमैन बाउंड्रीफोर्स’ कहा था।
1947 ई. में नेहरू, पटेल और गांधी के सामने विभाजन को स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं था। 3 जून की घोषणा को स्वीकार करने के बाद नेहरू ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था: ‘कांग्रेस को इसे इस कारण स्वीकार करना पड़ा क्योंकि इसके अलावा उसके सम्मुख और कोई विकल्प नहीं था।’ वास्तव में, जिस प्रकार का राष्ट्रवाद कांग्रेस ने विकसित किया था, वह इतना दुर्बल था कि वह मुस्लिम राष्ट्रवाद के नाम पर शुरू हुए अलगाववाद का सफल प्रतिरोध नहीं कर सका। एक तो कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ी संख्या में मुसलमानों को अपनी ओर खींच नहीं सकी थी। दूसरे, वह समय-समय पर मुस्लिम लीग को रियायतें देती गई जिससे सांप्रदायिक शक्तियाँ कमजोर होने के बजाय और दृढ़ होती गईं। लीग की सफलता से प्रभावित होकर और ज्यादा मुसलमान उसकी ओर आकर्षित होते चले गये।
कांग्रेस तो 1946 ई. में ही हार चुकी थी, जब चुनावों में लीग को 90 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे, लेकिन 16 अगस्त 1946 ई. के ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के हादसे के बाद जब कलकत्ता और रावलपिंडी की सड़कों पर तथा नोआखली और बिहार के गाँवों में सांप्रदायिक दंगे होने लगे, तो उसने अपनी पराजय भी स्वीकार कर ली। जून 1947 ई. तक कांग्रेसी नेता मानने लगे थे कि अब अखंड भारत की एकात्मकता को बनाये रखना संभव नहीं है और सत्ता के तत्काल हस्तांतरण से ही इस सांप्रदायिक उन्माद को रोका जा सकता है। अंतरिम सरकार में भी गृहयुद्ध जैसी स्थिति थी, गवर्नर लीग का साथ दे रहे थे, प्रांतीय सरकारें निष्क्रिय थीं और कहीं-कहीं तो दंगों में शामिल भी थीं। नेहरू ने देखा कि जब अंतरिम सरकार दंगों को नहीं रोक नहीं पा रही है, तो इसमें बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। सत्ता-हस्तांतरण से कम से कम एक ऐसी सरकार तो बनेंगी, जो इस पर नियंत्रण कर सकेगी।
जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार पटेल द्वारा माउंटबेटन योजना को स्वीकार करने का एक कारण यह भी था कि इससे भारत के विखंडीकरण की आशंका नहीं थी, क्योंकि इसमें प्रांतों और रियासतों को अलग से स्वतंत्रता देने की बात नहीं थी। यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि यदि रियासतें अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखतीं, तो भारत की एकता के लिए वे पाकिस्तान से भी बड़ा खतरा सिद्ध होतीं।
कांग्रेस ने विभाजन इसलिए भी स्वीकार कर लिया कि ब्रिटिश सरकार की शर्तों को लगातार अस्वीकार करने से भारत की स्वतंत्रता की तिथि टल सकती थी क्योंकि माउंटबेटन ने यह स्पष्ट कर दिया था कि सांप्रदायिक रक्तपात और उपद्रवों के कारण अंग्रेजों को भारत में रुकना पड़ सकता था। कांग्रेस को आशंका थी कि एक बार यदि अंग्रेजों की भारत से वापसी टल गई, तो फिर भविष्य में दूसरे प्रकार के राजनीतिक संकट उठ खड़े हो जायेंगे। संभवतः यही कारण है कि गांधीजी के सिद्धांतों पर अमल करने की बजाय कांग्रेसी नेताओं ने स्वतंत्रता प्राप्त करने को अधिक महत्त्व दिया और समय तथा परिस्थिति के अनुसार ऐसा करना आवश्यक भी था।
1947 ई. में कांग्रेस द्वारा विभाजन को स्वीकार करना मुस्लिम लीग की एक संप्रभु मुस्लिम राज्य के तर्क को बार-बार स्वीकार करने की प्रक्रिया का अंतिम चरण था। 1942 ई. में क्रिप्स मिशन के समय ही मुस्लिम-बहुल प्रांतों की स्वायत्तता स्वीकार कर ली गई थी। गांधीजी ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए 1944 ई. में जिन्ना से अपनी वाताओं के दौरान मुस्लिम-बहुल प्रांतों के आत्म-निर्णय के अधिकार को भी मान लिया था। जून 1946 ई. में कांग्रेस ने इस संभावना को स्वीकार कर लिया था कि मुस्लिम-बहुल प्रांत, जो कैबिनेट मिशन योजना में ‘ग्रुप बी’ और ‘ग्रुप सी’ में रखे गये थे, अपनी अलग संविधान सभा बना सकते हैं। यद्यपि कांग्रेस ने अनिवार्य समूहीकरण का विरोध किया और कहा कि उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत तथा असम को यह अधिकार होना चाहिए कि वे चाहें तो अपने ग्रुप में शामिल न हों, लेकिन जब दिसंबर में ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने समूहीकरण को अनिवार्य बताया, तो कांग्रेस ने उसका विरोध नहीं किया।
कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से विभाजन की बात मार्च 1947 ई. में ही स्वीकार कर ली थी, जब कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रस्ताव किया था कि यदि देश का बँटवारा होता है, तो पंजाब और बंगाल का बँटवारा भी होना चाहिए। इस प्रकार कांग्रेस एक ओर संविधान सभा को संप्रभुता पर जोर दे रही थी ओर दूसरी ओर उसने अनिवार्य समूहीकरण स्वीकार कर लिया तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को पाकिस्तान का अंग मान लिया था।
एक ओर कांग्रेसी नेता सांप्रदायिक दंगों को न रोक पाने के कारण विभाजन को स्वीकार भी कर रहे थे, तो दूसरी ओर हिंसा के आगे आत्म-समर्पण न करने का दम भी भर रहे थे। नेहरू के ही शब्द थे: ‘हम हत्या से हाथ मिलाने नहीं जा रहे हैं और न उसे देश की नीति तय करने की इजाजत ही देंगे।’ गांधीजी ने भी बड़ी दृढ़ता से वायसरॉय से कहा था: ‘यदि भारत खून से नहाता है, तो यही होगा।’ वह अकसर कहा करते थे कि हिंसा के आगे आत्म-समर्पण करने से अराजकता बेहतर है। सच तो यह है कि कांग्रेस सांप्रदायिकता की तीव्रता का सही आकलन नहीं कर सकी। वह यह समझ ही नहीं पाई कि 1940 के दशक के मध्य वाली सांप्रदायिकता 1920 या 1930 के दशक की सांप्रदायिकता से बिल्कुल अलग थी। अब सांप्रदायिकता ब्रिटिश सरकार की बैशाखी को छोड़कर न केवल अपने पाँव पर खड़ी हो चुकी थी, बल्कि अपने भूतपूर्व संरक्षकों की अवज्ञा भी करने लगी थी।
विभाजन की घोषणा के बाद भी बहुत लोग विभाजन की वास्तविकता को स्वीकार करने के बजाय इसे अस्थायी मानकर चल रहे थे। कांग्रेस उम्मीद कर रही थी कि एक बार जब अंग्रेज चले जायेंगे, तो भारतीय अपना मतभेद सुलझा लेंगे। गांधी और नेहरू जैसे तमाम नेताओं को विश्वास था कि जब सांप्रदायिक उन्माद खत्म होगा, तो भारत और पाकिस्तान एक हो जायेंगे। गांधीजी तो अकसर कहते थे कि यदि लोगों ने हृदय से विभाजन को स्वीकार नहीं किया, तो पाकिस्तान ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकेगा।
कांग्रेस के नेताओं की एक धारणा यह भी थी कि विभाजन शांतिपूर्ण होगा। अगस्त 1946 ई. से ही दंगों की बाढ़ आई हुई थी, फिर भी, यह आशा की जा रही थी कि जब पाकिस्तान की माँग स्वीकार कर ली जायेगी, तो लड़ने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं। किसी को अंदाजा ही नहीं था कि विभाजन के पहले स्थिति जितनी भयानक थी, विभाजन के बाद और भी भयंकर हो जायेगी।
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