आधुनिक काल की पूर्व संध्या पर रूस
आधुनिक काल की पूर्व संध्या पर रूस एक सुदृढ़ केंद्रीय शक्ति से रहित था और वह आंतरिक सामंतीय संघर्षों, डेनमार्क, नॉर्वे द्वारा रूस पर आक्रमणों एवं तातारों की विजय के कारण एक कमजोर एवं प्रभावहीन राज्य था। यूरोप के सुदूर उत्तर-पूर्व में स्थित यह राज्य शुरू में यूरोपीय राजनीति और संस्कृति के संदर्भ में नगण्य था। सोलहवीं सदी के आरंभ में रूरिक वंश के इवान महान् (1462-1505 ई.) ने रूस की यथास्थिति को समाप्त किया। उसने सर्वप्रथम रूस पर आक्रमण करने वाले तातार प्रमुख का अंत किया एवं मस्कोवी निरंकुश साम्राज्य की स्थापना की।

इवान महान् द्वारा मंगोल-तातारियों को निष्कासित किए जाने के कारण रूस का संपर्क पश्चिमी यूरोप से टूट-सा गया, यद्यपि उसने पश्चिमी यूरोप के देशों से संबंध बनाने का अथक प्रयास किया। उसने रूस को पूर्वी यूरोप के ईसाई साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करते हुए अंतिम रोमन सम्राट कांस्टेंटाइन ग्यारहवें की भतीजी से विवाह कर ‘जार’ की उपाधि धारण की, जिसका रूसी भाषा में अर्थ है—सर्वोच्च सत्ताधारी स्वतंत्र शासक। इवान महान् ने 1462 ई. से 1505 ई. तक शासन किया।
इवान महान् के पश्चात् इवान भयंकर (1547-1584 ई.) ने जारशाही की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि के साथ ही रूसी सीमा का विस्तार किया। लेकिन सोलहवीं शताब्दी में जब पुनर्जागरण की लहरें पश्चिमी यूरोप में नई चेतना प्रवाहित कर रही थीं, रूस इन परिवर्तनों से अछूता रहा। यूरोप के अन्य देशों से रूस का कोई विशेष संबंध नहीं था, इसलिए यूरोप के इतिहास में इसका कुछ महत्त्व भी नहीं था।
इवान भयंकर की मृत्यु (1584 ई.) के पश्चात् रूरिक वंश का अंत हो गया। इसके बाद 1613 ई. तक रूस में गृहयुद्ध और अराजकता की स्थिति बनी रही। इस दौरान पोलैंड और स्वीडेन रूस को हड़पने की योजनाएँ बनाते और कार्यान्वित करते रहे। 1613 ई. में अराजकता का अंत करने के उद्देश्य से राष्ट्रभक्त सामंतों ने आपसी सहमति से सोलह वर्षीय माइकेल रोमानोव को रूस के जार पद पर नियुक्त किया। इस राजवंश का शासन रूसी क्रांति (1917 ई.) तक चलता रहा। रोमानोव वंश के तीन सौ वर्षों के शासन में ही रूस प्रशांत महासागर और कालासागर तक पहुँच कर दुनिया का सबसे बड़ा देश हो गया। वास्तव में रूस को इस महानता की ओर ले जाने का श्रेय पीटर महान् को जाता है।

पीटर महान् (1682-1725 ई.)
रूस के आधुनिकीकरण का श्रेय पीटर को ही दिया जाता है, जिसने रूस को एक प्रमुख यूरोपीय शक्ति में बदल दिया। पीटर प्रथम को प्रायः पीटर महान् के नाम से जाना जाता है। पीटर प्रथम 1682 ई. से रूस का जार बना और 1721 से 1725 ई. में अपनी मृत्यु तक रूस का पहला सम्राट था। उसने पहले 1696 ई. तक अपने बड़े सौतेले भाई इवान के साथ संयुक्त रूप से शासन किया।
पीटर प्रथम ने सफल युद्धों के द्वारा अजोव और बाल्टिक सागर में बंदरगाहों पर कब्जा किया, शाही रूसी नौसेना की नींव रखी, बाल्टिक में निर्विरोध स्वीडिश वर्चस्व को समाप्त कर दिया और एक साम्राज्य में रूस के विस्तार की शुरुआत की। उसने एक सांस्कृतिक क्रांति का नेतृत्व किया, जिसने कुछ परंपरावादी और मध्यकालीन सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं को आधुनिक, वैज्ञानिक, पश्चिमीकृत और ज्ञानोदय पर आधारित व्यवस्थाओं से बदल दिया। उसने सेंट पीटर्सबर्ग नगर की भी स्थापना की, जो 1918 ई. तक रूस की राजधानी रहा। उसने महान् उत्तरी युद्ध में विजय के बाद, 1721 ई. में ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की। उसने 1724 में पहला रूसी विश्वविद्यालय सेंट पीटर्सबर्ग स्टेट विश्वविद्यालय स्थापित किया था। दूसरा, मॉस्को स्टेट विश्वविद्यालय उसकी मृत्यु के 30 साल बाद, उसकी पुत्री एलिजाबेथ के शासन काल में स्थापित किया गया था।
रोमानोव राजवंश के पीटर महान् को आधुनिक रूस का जन्मदाता या निर्माता कहा जाता है। उसका जन्म 9 जून 1672 ई. को मॉस्को में हुआ था। उसके पिता का नाम अलेक्सिस था। उसे समकालीन साहित्य, व्याकरण, भूगोल और गणित का कोई विशेष ज्ञान नहीं था, लेकिन यूरोपीय कला, विधान, राजतंत्रात्मक शासन पद्धति, यूरोपीय सैन्य संगठन व प्रशिक्षण के प्रति उसमें अत्यधिक रुचि थी। उसमें असाधारण कार्यक्षमता व संकल्प शक्ति थी, इसके साथ-साथ उसमें प्रतिशोधात्मक प्रवृत्ति, निर्दयता और क्रोध भी असीमित रूप से भरा हुआ था।
पीटर महान् अपने बड़े भाई इवान के साथ 1682 ई. में रूस के सिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ। चूंकि दोनों अभी अवयस्क थे, इसलिए शासन की वास्तविक शक्ति उसकी बड़ी बहन सोफिया के हाथों में थी। 1689 ई. में सत्रह वर्ष का होते ही पीटर ने अपनी बहन को धार्मिक मठ में भेज दिया और बीमार बड़े भाई को निकम्मा समझ कर शासन की वास्तविक शक्ति अपने हाथों में ले ली। कुछ महीनों बाद जब इवान की मृत्यु हो गई तो वह निर्द्वंद्व हो कर अपने ढंग से रूस का शासन करने के लिए स्वतंत्र हो गया।
पीटर की समस्याएँ
पीटर महान् जिस रूस की गद्दी पर बैठा था, वह केवल भौगोलिक दृष्टि से यूरोपीय था। इसके अतिरिक्त रूस का सब कुछ एशियाई देशों की तरह था। पश्चिमी यूरोप से ईसाई धर्म के नाम पर संबंध तो था, लेकिन स्थानीय प्रभाव के कारण रूस का ईसाई धर्म (ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च) भी भिन्न और अधिक संकीर्ण हो चुका था। रूस की सीमाएँ विस्तृत तो थीं, लेकिन वह चारों तरफ से बंद जैसा था। उत्तर की सीमाओं पर नौ महीने बर्फ जमी रहती थी। दक्षिण में तुर्की और फारस के कारण मार्ग अवरुद्ध थे। पूर्व में भयानक जंगल थे। पश्चिम में पोलैंड और स्वीडेन के महत्वाकांक्षी शासकों की गिद्ध दृष्टि रूस पर लगी रहती थी।
पीटर का उद्देश्य
पीटर महान् जानता था कि एक शक्तिशाली और निरंकुश राजतंत्र के द्वारा ही रूस को एक सुगठित और सुदृढ़ राष्ट्र बनाया जा सकता है। वह रूस की प्रतिष्ठा को यूरोप के राष्ट्रों के बीच स्थापित करना चाहता था। इसलिए उसने न केवल यूरोप के देशों के साथ रूस का निकटतम संबंध स्थापित करने की कोशिश की, बल्कि रूसी रहन-सहन, वेशभूषा और रीति-रिवाजों का भी पश्चिमीकरण करने का प्रयास किया। रूस की घुटन समाप्त करने के लिए पीटर ने रूस की सीमाओं को पश्चिम में बाल्टिक सागर और दक्षिण में कालासागर तक पहुँचाने का प्रयास किया, जिसे ‘गर्म पानी की तलाश नीति’) कहा जाता है। इस प्रकार पीटर महान् की नीति के मुख्यतः तीन उद्देश्य थे—एक तो निरंकुश राजतंत्र की स्थापना, दूसरे पाश्चात्यीकरण और तीसरे पश्चिम तथा दक्षिण में रूस का विस्तार, ताकि रूस को खुली हवा मिल सके।
पीटर की आंतरिक नीति
निरंकुश राजतंत्र की स्थापना
पीटर महान् (Peter the Great) फ्रांस के लुई चौदहवें की तरह रूस में भी स्वेच्छाचारी निरंकुश तंत्र स्थापित करना चाहता था। लेकिन निरंकुश राजतंत्र की स्थापना के रास्ते में तीन बड़ी बाधाएँ थीं—स्ट्रेल्सी नामक अंगरक्षकों का दल, बोयर्स नामक सामंतों की सभा और रूसी चर्च। जार के अंगरक्षक ‘स्ट्रेल्सी’ और सामंतों की सभा ‘बोयर्स’ राजनीति के आधार स्तंभ थे। रूसी चर्च के धार्मिक प्रधान का, जिसे ‘पैट्रिआर्क’ कहा जाता था, धर्म में ही नहीं, रूसी जीवन के हर क्षेत्र में प्रभाव था।
स्ट्रेल्सी का दमन
पीटर महान् (Peter the Great) यूरोप का अनुकरण कर रूस का पश्चिमीकरण चाहता था, लेकिन उससे वह स्वयं अनभिज्ञ था। इसलिए पीटर ने छद्म वेश में यूरोपीय देशों का भ्रमण किया और वहाँ के रीति-रिवाज, रहन-सहन और संस्कृति को निकट से देखा। इसी बीच पीटर जब ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में था, तो उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठा कर राजधानी मॉस्को में ‘स्ट्रेल्सी’ नामक अंगरक्षकों ने विद्रोह कर दिया। इन विद्रोहियों का मुख्य उद्देश्य पीटर के स्थान पर उसकी बहन सोफिया के संरक्षण में उसके अल्पवयस्क पुत्र एलेक्सिस को सिंहासन पर बैठाना था। विद्रोह की सूचना मिलते ही पीटर अपनी यात्रा समाप्त कर तूफान की तरह वापस रूस पहुँच गया और विद्रोहियों का बड़ी निर्ममता से दमन करना आरंभ किया। उसने लगभग 5,000 विद्रोहियों के सिर कटवा दिए और लगभग 2,000 विद्रोहियों को फाँसी पर लटकवा दिया। स्ट्रेल्सी भंग कर दी गई और उसके स्थान पर यूरोपीय ढंग की एक स्थायी सेना गठित की गई। इस प्रकार पीटर ने सुधारों के मार्ग की पहली बड़ी बाधा को पार कर लिया।
बोयर्स की समाप्ति
पीटर महान् के रास्ते की दूसरी बाधा ‘बोयर्स’ नामक रूसी सामंतों की सभा थी। रूसी सामंत अत्यंत रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी थे, जो पीटर के सुधारवादी और यूरोपीयकरण की नीति से असंतुष्ट थे। पीटर जानता था कि शक्तिशाली सामंतों को नष्ट किए बिना सुधारवादी कार्यक्रमों को लागू करना संभव नहीं होगा। फलतः पीटर ने रूसी सामंतों की पार्लियामेंट समाप्त कर दी। किसी तरह की कोई प्रतिनिधि सभा नहीं रह गई। सामंतों पर उसे विश्वास नहीं था, इसलिए उसने एक ‘नया सामंत’ वर्ग पैदा किया। स्वामिभक्त लोगों को हर तरह का प्रोत्साहन दिया गया। अंत में ये नए सामंत रूस के प्रारंभिक मध्य वर्ग सिद्ध हुए। इन्हीं लोगों की मदद से पीटर ने रूस को विभिन्न प्रांतों में बाँट कर शासन किया।
रूसी चर्च पर नियंत्रण
पीटर महान् के सामने तीसरी बड़ी बाधा रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी रूसी चर्च था। 1697 ई. के विद्रोह व षड्यंत्र में रूसी चर्च के पदाधिकारियों ने भी भाग लिया था। पीटर नेपोलियन की तरह रूसी चर्च को निरंकुश जारशाही का साधन और माध्यम बनाना चाहता था। यद्यपि उसने रूसी चर्च के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन किया, लेकिन जब 1700 ई. में रूसी धर्माध्यक्ष (पैट्रिआर्क) की मृत्यु हो गई तो उसने उसका दूसरा उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं होने दिया। धार्मिक कार्यों के लिए एक सर्वोच्च समिति (सिनोड) का गठन हुआ। इस प्रकार इंग्लैंड की तरह रूस में भी शासक धार्मिक मामलों में भी देश का प्रधान हो गया।
प्रशासनिक सुधार
प्रशासन के क्षेत्र में पीटर ने स्वीडेन के नमूने पर एक नौकरशाही का निर्माण किया। प्रशासन के निरीक्षण के लिए उसने एक सीनेट की स्थापना की, जिसके सदस्य जार द्वारा नियुक्त किए जाते थे। सीनेट का अधिकार क्षेत्र विस्तृत था, लेकिन उसे विधि-निर्माण का अधिकार नहीं था।
पीटर महान् का उद्देश्य था रूस को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अनेक प्रयास किए और कृषकों को प्रोत्साहन दिया। देश के आर्थिक विकास के लिए पीटर ने व्यापार-वाणिज्य तथा उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन दिया, जिससे उद्योगों का विकास हुआ। इसके अलावा, कुछ सरकारी उद्योग भी शुरू किए गए, जिससे धीरे-धीरे एक नया मध्य वर्ग पनपने लगा।
स्थायी सेना का गठन
पीटर महान् ने अपनी समस्याओं से निपटने के लिए यूरोपीय नमूने पर एक शक्तिशाली, योग्य और राजभक्त स्थायी सेना का गठन किया, जिसमें किसानों के हृष्ट-पुष्ट लड़के भी भर्ती किए गए। सैनिकों के लिए यूनिफॉर्म की व्यवस्था की गई, जर्मनी का अनुसरण कर के सेना एवं नौसेना में वृद्धि की गई, उसे अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित किया और नए ढंग की शिक्षा की व्यवस्था की गई। सैनिकों और अफसरों को राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति का प्रशिक्षण देने का प्रबंध किया गया। पीटर के प्रयास से सेना और नौसेना का अभूतपूर्व विस्तार हुआ और यही सेना पीटर के सुधारों और उद्देश्यों के सफल क्रियान्वयन में मुख्य रूप से सहायक हुई। इस प्रकार पीटर ने अपने पहले उद्देश्य एकतंत्रीकरण में पूरी तरह सफलता प्राप्त की।
रूस का पश्चिमीकरण
पीटर महान् रूस का कायाकल्प कर उसका पश्चिमीकरण करना चाहता था। उसने रूसी समाज को यूरोपीय शिक्षा पद्धति से शिक्षा देने की ओर विशेष ध्यान दिया। सर्वसाधारण के लिए तो नहीं, लेकिन समाज के उच्च वर्गों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी गई और सभी के लिए एक विदेशी भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य कर दिया गया। अनेक स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खोले गए, एक संग्रहालय भी स्थापित किया गया। दूसरी भाषाओं की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का रूसी अनुवाद हुआ। पहली बार विज्ञान में रुचि ली गई। मॉस्को में ‘नौकायन विद्यालय’ की स्थापना की गई और गणित का अध्यापन रूस में पहली बार इसी विद्यालय में आरंभ हुआ। पीटर के ही काल में पहली बार रूस में ‘समाचार-पत्र’ का प्रकाशन आरंभ हुआ और ‘सार्वजनिक थिएटर’ खोला गया। यही नहीं, पीटर ने 1724 ई. में राजधानी में एक ‘विज्ञान अकादमी’ की स्थापना का निर्देश भी दिया था, जो उसकी मृत्यु के बाद पूरा किया गया। उसने रूस में ‘जूलियन संवत्’ चलाया और पुराने रूसी संवत का अंत कर दिया।
पीटर महान् ने सभ्यता के क्षेत्र में पिछड़े हुए रूस को प्रगतिशील और आधुनिक बनाने के लिए पश्चिमी यूरोप के देशों की रहन-सहन और संस्कृति की अंधाधुंध नकल की। पीटर ने अपनी यात्रा के दौरान जिन चीजों को आधुनिकता का प्रतीक समझा था, वे रूस में लागू की जाने लगीं। रूसी लोग दाढ़ी रखते थे, स्त्रियाँ परदे में रहती थीं और लोग हुक्का पीते थे। पीटर ने प्रचलित वेशभूषा और रहन-सहन का कायाकल्प करने के लिए कई विज्ञप्तियाँ जारी कीं। उसने रूसियों को दाढ़ी रखने पर पाबंदी लगा दी और इसका उल्लंघन करने पर जुर्माना देना पड़ता था। पीटर महान् ने परदा प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया और रूसी स्त्रियों को अपनी इच्छानुसार शादी करने की छूट दी। उसने तंबाकू और सिगरेट का प्रयोग अनिवार्य कर दिया। पीटर ने अपने दरबारियों को लंबा रूसी चोगा के स्थान पर छोटे यूरोपीय वस्त्र पहनना अनिवार्य कर दिया। वर्साय की तरह दरबार में नाच-रंग, मनोरंजन फ्रांसीसी ढर्रे पर शुरू किए गए।
पश्चिम के प्रति उसके मोह के कारण पीटर को मॉस्को बहुत अलग-थलग लगता था। पश्चिम से दूरी कम करने के लिए उसने बाल्टिक तट पर दलदलों के बीच पीटर्सबर्ग (लेनिनग्राद) नामक पश्चिमी ढंग की एकदम नई राजधानी बसाई। इस प्रकार पीटर महान् के दो उद्देश्य—एकतंत्र की स्थापना और पाश्चात्यीकरण, काफी हद तक पूरे हो गए। तीसरे उद्देश्य पश्चिम और दक्षिण में विस्तार के लिए उसे युद्ध करने पड़े।

पीटर की विदेश नीति
‘खुली खिड़की’ या ‘गर्म पानी की तलाश की नीति’
रूस की सबसे बड़ी समस्या थी—स्थायी सामुद्रिक मार्गों का अभाव। रूस के पास कोई ऐसा बंदरगाह नहीं था, जो वर्ष भर काम आ सके। रूस के पास केवल आर्केंजेल का बंदरगाह था और वह भी साल के अधिकांश महीनों में बर्फ से ढका रहता था। पीटर महान् का कहना था कि “पश्चिम के साथ स्वतंत्रतापूर्वक और सरलता से मिलने-जुलने के लिए यह आवश्यक है कि रूस कहीं एक खिड़की खोले, तभी उसमें बाहर से प्रकाश आ सकेगा” अर्थात् रूस के पास यूरोपीय समुद्रों में स्थित एक ऐसा बंदरगाह होना चाहिए, जो पूरे वर्ष जहाजों के उपयोग में आ सके। इसलिए पीटर महान् की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य रूस के लिए पश्चिम की ओर ‘खुली खिड़की’ या समुद्र तट प्राप्त करना था। पीटर महान् की इस नीति को इतिहास में ‘खुली खिड़की प्राप्त करने की नीति’ या ‘गर्म पानी की तलाश की नीति’ आदि नाम दिए गए हैं।
पीटर के खुली खिड़की प्राप्त करने के रास्ते में स्वीडेन और तुर्की दो भयंकर अवरोध थे। यदि वह बाल्टिक सागर की ओर बढ़ता तो उसे स्वीडेन से युद्ध करना पड़ता और यदि वह कालासागर की ओर बढ़ता तो उसे तुर्की से युद्ध करना पड़ता।
तुर्की से युद्ध
कालासागर के आसपास तुर्कों का प्रभुत्व था, लेकिन वे इस समय पतनोन्मुख थे। उनका पवित्र रोमन साम्राज्य से युद्ध चल रहा था। पीटर महान् ने इसे उपयुक्त समय समझा और उसने बिना औचित्य ढूंढ़े 1695 ई. में तुर्की पर आक्रमण कर दिया और कालासागर के उत्तर में स्थित अजोव बंदरगाह पर अधिकार कर लिया। रूस को जैसे बाहरी हवा में साँस लेने का अवसर मिल गया।
स्वीडेन से युद्ध
पीटर महान् के लिए अजोव पर्याप्त नहीं था, क्योंकि कालासागर और भूमध्य सागर को जोड़ने वाले संकरे जलमार्गों पर अब भी तुर्कों का अधिकार था। रूसी नौसेना आसानी से भूमध्य सागर में नहीं जा सकती थी। अब पीटर ने पश्चिम में बाल्टिक तट पर ध्यान दिया। यह कार्य मुश्किल था, क्योंकि स्वीडेन बाल्टिक सागर को स्वीडिश झील समझ कर उस पर अधिकार करना चाहता था। यद्यपि गस्टावस एडॉल्फस के समय से ही स्वीडेन एक सैनिक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था, लेकिन स्वीडिश शासकों ने अपनी महत्वाकांक्षा के कारण अपने पड़ोसियों को नाराज कर रखा था।
नार्वा का युद्ध
जब चार्ल्स XII स्वीडेन का शासक हुआ तो उसकी बाल्यावस्था का लाभ उठा कर रूस ने स्वीडेन के विरुद्ध डेनमार्क और पोलैंड के साथ एक संघ बना लिया। पीटर महान् ने स्वीडेन के शासक चार्ल्स XII से खुली खिड़की के लिए अनुरोध किया, लेकिन चार्ल्स XII ने पीटर के अनुरोध को अस्वीकार कर रूस की राजधानी मॉस्को पर आक्रमण कर दिया और नार्वा के युद्ध में पीटर को बुरी तरह पराजित किया और पीटर को पीछे लौटना पड़ा।
पोल्टावा का युद्ध
चार्ल्स XII में असाधारण शौर्य था, लेकिन वह अपरिपक्व था। वह अपनी विजय को स्थायी बनाने के स्थान पर इधर-उधर निरंतर युद्धों में उलझा रहा। दूसरी ओर पीटर महान् ने बड़े धैर्य और परिश्रम से रूसी सेना का पुनः संगठन किया और पश्चिम की ओर खिसकता गया। 1703 ई. में उसने ‘पीटर्सबर्ग’ नामक नगर की नींव रखी, क्योंकि उसे नार्वा का बदला लेना था। पीटर ने पूरी तरह तैयारी कर 1709 ई. में पोल्टावा के युद्ध में चार्ल्स को बुरी तरह हराया और उसे भाग कर तुर्की में शरण लेने पर विवश कर दिया। पोल्टावा ने उत्तरी यूरोप के भाग्य का निर्णय कर दिया। स्वीडेन के स्थान पर रूस ‘उत्तर की महान शक्ति’ के रूप में प्रतिष्ठित हो गया।

निस्टाड की संधि
पुनः चार्ल्स ने अपने खोए हुए प्रदेशों को पाने के लिए 1718 ई. में नॉर्वे पर आक्रमण किया, लेकिन इस युद्ध में चार्ल्स मारा गया। 1721 ई. में ‘निस्टाड की संधि’ ने इस युद्ध का अंत किया। निस्टाड की संधि द्वारा बाल्टिक सागर के पूर्वी तट का अधिकांश भाग रूस को मिल गया। अब रूस को दक्षिण और पश्चिम में रास्ते मिल गए थे। पीटर महान् (Peter the Great) का तीसरा उद्देश्य भी अंशतः पूरा हो चुका था।
पीटर महान् का मूल्यांकन
पीटर महान् के शासन के अंतिम दिनों में प्रतिक्रियावादियों ने पीटर के पुत्र एलेक्सिस को सामने कर के पीटर पर प्रहार किया। पीटर ने एलेक्सिस को बहुत समझाने का प्रयास किया, लेकिन वह नहीं माना। अंततः पीटर ने एलेक्सिस को गिरफ्तार करवा लिया और उसे इतना सताया गया कि जेल ही में उसकी मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकार पीटर के उद्देश्य की प्रशंसा करते हैं, लेकिन उसकी नृशंसता की निंदा करते हैं। इसीलिए उसे एक ‘बर्बर प्रतिभा’ (बारबरस जीनियस) कहते हैं।
पीटर महान् का सबसे बड़ा गुण था उसकी निरंतर सीख कर बेहतर होने की लगन। स्वीडेन के मुकाबले में जब वह युद्धरत था, तब कहता था: “मैं जानता हूँ कि स्वीडिश हमें हरा देंगे, लेकिन अंत में वे हमें जीतना सिखा देंगे” और यही हुआ भी। स्वीडेन से हार कर भी अंत में वह जीता और जीत कर भी उसने पराजित स्वीडेन से बहुत कुछ सीखा। यह उसकी प्रतिभा थी कि उसने अपने जीवन काल ही में रूस को आधुनिक सभ्यता के मार्ग पर प्रशस्त कर दिया था।
पीटर ने फ्रांस को आदर्श मान कर निरंकुशता की स्थापना की। रूस को संगठित करने और आधुनिक बनाने के लिए विघटनकारी शक्तियों का दमन आवश्यक था। यद्यपि रूस के पश्चिमीकरण के संबंध में वेशभूषा या तंबाकू खाने-पीने जैसे कार्य सतही थे, लेकिन इससे एक प्रकार की मानसिकता बनाने में मदद मिली। रूस फौरन आधुनिक तो नहीं हो गया, लेकिन ऐसी परंपराएँ विरोध के बावजूद बनने लगीं, जिनके आधार पर आधुनिक रूस खड़ा है।
पीटर अपनी साम्राज्यवादी नीति के द्वारा पीटर बाल्टिक तक पहुँचने में सफल हो गया। व्यापार एवं वाणिज्य के विकास के लिए उसकी खुली खिड़की की नीति प्रशंसनीय थी। कालासागर के अजोव बंदरगाह पर उसका कब्जा स्थायी नहीं हो सका। 1725 ई. में पीटर महान् का निधन हो गया, लेकिन उसने उत्तराधिकारियों को रास्ता दिखा दिया। इतिहासकार हेज ने लिखा है कि “रूस के सैन्यवादी शासन का निर्माण, रूसी चर्च की स्वतंत्रता व सत्ता का अंत, रूसी समाज का कायाकल्प, रूसी रहन-सहन, व्यवहार एवं परंपराओं का यूरोपीयकरण, सुदृढ़, निरंकुश जारशाही की स्थापना, साम्राज्यवादी विस्तार इत्यादि कार्यों का श्रेय पीटर महान् को ही प्राप्त है।”
पीटर महान् के उत्तराधिकारी (1725 ई.-1762 ई.)
पीटर महान् की मृत्यु (1725 ई.) के बाद कभी-कभी लगता था कि पीटर के किए-धरे पर पानी फिर जाएगा, क्योंकि रूढ़िवादी शक्तियाँ बराबर रूस में पुरानी व्यवस्था लागू करने का प्रयास कर रही थीं। पीटर महान् की महारानी कैथरीन प्रथम ने 1725 ई. से 1727 ई. तक शासन किया। उसके पश्चात् पीटर महान् के पौत्र पीटर द्वितीय ने 1727 ई. से 1730 ई. तक शासन किया। पीटर द्वितीय के बाद पीटर महान् के भाई इवान की पुत्री जरीना ऐन सिंहासनारूढ़ हुई। उसने 1730 ई. से 1740 ई. तक शासन किया। 1740 ई. से 1741 ई. तक जरीना ऐन का पुत्र इवान VI रूस का जार हुआ। जब 1741 ई. में पीटर महान् की छोटी पुत्री एलिजाबेथ सम्राज्ञी (जरीना) बनी तो रूस ने यूरोपीय राजनीति में और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू की। लेकिन अभी भी रूस का भविष्य अनिश्चित था। सुधारों की गति रुक गई थी। रूस का विस्तार भी नहीं हो रहा था।
1762 ई. में एलिजाबेथ की मृत्यु के पश्चात् पीटर III गद्दी पर बैठा, लेकिन वह अधिक समय तक शासन नहीं कर सका। शीघ्र ही उसकी पत्नी कैथरीन द्वितीय ने उसके विरुद्ध षड्यंत्र कर के उसे जेल में डाल दिया और 1762 ई. में रूस की शासिका बन गई।
कैथरीन द्वितीय (1762-1796 ई.)
कैथरीन द्वितीय का जन्म 2 मई 1729 ई. में जर्मनी की एक छोटी-सी रियासत के शासक क्रिश्चियन ऑगस्टस के घर हुआ था। कैथरीन का प्रारंभिक नाम ‘सोफिया’ था। 1745 ई. में सोफिया का विवाह जरीना ऐन के पुत्र पीटर III से हुआ, जो रूस का उत्तराधिकारी था। जब सोफिया ब्याह कर रूस आई तो वह रूसी भाषा और आचार-व्यवहार से पूरी तरह अपरिचित थी। लेकिन इस असाधारण महिला ने शीघ्र ही रूसी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज और परंपराओं के अनुरूप स्वयं को ढाल कर अपना रूसीकरण कर लिया। लेकिन सोफिया अपने पति से अच्छे संबंध नहीं रख सकी।
1762 ई. में पीटर III रूस का जार बन गया। पीटर से लोग असंतुष्ट थे। महत्वाकांक्षी कैथरीन ने षड्यंत्र कर के पीटर को पद त्याग करने के लिए मजबूर कर दिया। कुछ ही दिनों बाद उसकी हत्या हो गई। कहा जाता है कि कैथरीन ने हत्या नहीं करवाई थी, लेकिन जब हत्यारों को सजा नहीं मिली तो यह स्पष्ट हो गया कि परोक्ष ही सही वह उसकी जिम्मेदार अवश्य थी।
इस प्रकार 1762 ई. में सोफिया जरीना (सम्राज्ञी) से ‘कैथरीन’ हो गई। यद्यपि कैथरीन ने जीवन में किसी नैतिकता की परवाह नहीं की। फिर भी, उसने रूस को इतना बदल दिया कि इतिहासकार उसे महान कहने में नहीं हिचकते।
कैथरीन की आंतरिक नीति
पीटर की पाश्चात्यीकरण की नीति से रूस अभी पूरी तरह बदला नहीं था। कैथरीन पश्चिमी यूरोप से आई थी और अब वही रूस की शासिका थी। इसलिए कैथरीन ने पीटर की पाश्चात्यीकरण की नीति को पूरी तरह कार्यान्वित करने का संकल्प लिया।
सत्ता का केंद्रीयकरण
कैथरीन ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सबसे पहले सत्ता का केंद्रीयकरण किया और राज्य की समस्त शक्तियाँ अपने हाथों में केंद्रित कर ली। कैथरीन का निरंकुश तंत्र नौकरशाही पर आधारित था। उसने मंत्रियों और सामंतों के अधिकारों को अत्यंत सीमित कर दिया। सारे निर्णय वह स्वयं लेती थी और मंत्री भी उसके कर्मचारी मात्र होते थे। वह राजभक्त और चापलूस सामंतों में से केंद्रीय और प्रांतीय प्रशासन के लिए कर्मचारियों का चुनाव करती थी। वह अपने कर्मचारी स्वयं नियुक्त करती थी और किसी तरह की कोई प्रतिनिधि सभा का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करती थी। पीटर ने चर्च को कमजोर कर दिया था। कैथरीन ने चर्च की संपत्ति राज्य को दे दी। अब धर्म के अधिकारी जीवन-यापन के लिए राज्य पर आश्रित हो गए।
प्रांतीय विभाजन, अदालतें, और विधि आयोग
कैथरीन ने अपने प्रशासन के सफल संचालन के लिए पूरे देश को 50 प्रांतों में विभाजित किया और प्रत्येक प्रांत को सर्किलों में बाँट कर गवर्नरों और उप-गवर्नरों की नियुक्ति की। उन्हें किसी प्रकार की कोई स्वतंत्रता नहीं थी और वे केवल राजधानी से आई आज्ञाओं का पालन करते थे। प्रत्येक प्रांत और जिलों में दो प्रकार की अदालतें स्थापित की गईं। प्रथम प्रकार की अदालतें सामंतों के लिए थीं और दूसरी प्रकार की अदालतें सामान्य जनता के लिए थीं। कैथरीन ने 1767 ई. में एक ‘विधि आयोग’ का गठन किया, जिसमें 564 सदस्य थे।
दार्शनिकों से संबंध
एक प्रबुद्ध निरंकुश शासक के रूप में कैथरीन II ने फ्रेडरिक की तरह फ्रांसीसी लेखकों और दार्शनिकों से संबंध बनाने का प्रयास किया। उसने वोल्टेयर की प्रशंसा में पत्र लिखे और दिदरो को अपने पुत्र का शिक्षक बनने के लिए आमंत्रित किया। उसने भी फ्रेंच भाषा को अधिक महत्त्व दिया और परिवार के राजकुमारों को विदेशों में भेज कर पश्चिमी देशों की प्रगति से परिचित करवाया।
विद्यालयों और अकादमियों की स्थापना
कैथरीन अत्यंत प्रदर्शन प्रिय थी और दिखावे में विश्वास करती थी। उसने रूसी नगरों का सुंदरीकरण करवाया और पश्चिमी देशों से कलाकृतियाँ मँगवा कर महलों और संग्रहालयों को सजवाया। रूसी दरबार वर्साय की तर्ज पर नृत्य, संगीत और उत्सवों का अड्डा बन गया। कैथरीन लेखकों को प्रोत्साहित कर के अपनी प्रशंसा में कविताएँ लिखवाती थी। यद्यपि उसने रूस में अनेक विद्यालयों और अकादमियों की स्थापना की, लेकिन कैथरीन के ये सभी कार्य केवल यूरोपीय जनता की नजर में अपने गौरव को स्थापित करने के प्रयास मात्र थे।
जनहित के कार्य
कैथरीन II ने जनहित के भी कुछ कार्य किए। उसने कृषि की उन्नति के लिए रूसी वैज्ञानिकों को इंग्लैंड भेजा और जनता के अंधविश्वास को दूर करने के लिए स्वयं चेचक के टीके लगवाए। न्याय व्यवस्था को भी थोड़ा उदार बनाया गया और कठोर सजाएँ कम हुईं। वास्तव में कैथरीन की आंतरिक नीति का एकमात्र आधार था निरंकुश शासन बनाए रखना। लेकिन वह प्रदर्शन में भी विश्वास रखती थी। इसलिए उसने ऐसे कार्य भी किए जो पश्चिम में हो रहे थे। कैथरीन की जनहित में उसकी कोई विशेष रुचि नहीं थी, वह केवल उतना सुधार करना चाहती थी, जिससे प्रजा उसकी प्रशंसा करे और गुलाम भी बनी रहे। 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति से वह भयभीत हो गई थी और शासन के अंतिम दिनों में उसका शासन और प्रतिक्रियावादी हो गया था।
कैथरीन II ने रूस की कुल जनसंख्या में आधे से भी अधिक कृषि दासों के लिए कोई काम नहीं किया और भू-दासों का शोषण जारी रहा। फलतः 1773 ई. में उराल प्रदेश एवं वोल्गा घाटी में निवास करने वाले भू-दासों ने पुगाचोव के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।
कैथरीन की विदेश नीति
पीटर की भाँति कैथरीन ने एक शक्तिशाली और आक्रामक विदेश नीति अपनाई। पीटर ने स्वीडेन को पराजित कर रूस के रास्ते से हटा दिया था। लेकिन पोलैंड और तुर्की बचे थे। वैसे भी, बाल्टिक तक पहुँच कर रूस का उद्देश्य अभी पूरा नहीं हुआ था। उसे तो बारहों महीने खुला रहने वाला कालासागर में बंदरगाह चाहिए था। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए कैथरीन ने अपनी सारी शक्ति और कूटनीति लगा दी।
कैथरीन जानती थी कि रूस के तीनों प्रतिद्वंद्वी पड़ोसियों—स्वीडेन, पोलैंड और तुर्की का मित्र फ्रांस है। इसलिए उसने पश्चिमी देशों से सीधे निपटने के बजाय कूटनीति का सहारा लिया और 1781 ई. में ऑस्ट्रिया के फ्रेडरिक से मित्रता कर उसका समर्थन प्राप्त कर लिया।
तुर्की से युद्ध
रूस के दक्षिणी विस्तार के मार्ग में तुर्की सबसे बड़ी बाधा था। रूस की सेनाओं ने तेजी से क्रीमिया में प्रवेश किया और तुर्की की सेना को बुरी तरह पराजित कर अजोव पर कब्जा कर लिया। रूसी सेनाएँ डेन्यूब नदी तक बढ़ती चली गईं और रोमानिया तक रूस के कब्जे में आ गया। अंततः 1774 ई. में ‘कुचुक-कैनार्जी’ की संधि हो गई।
‘कुचुक-कैनार्जी’ की संधि द्वारा कालासागर का उत्तरी तट रूस को मिल गया। पश्चिमी तट तुर्की को वापस दे दिया गया। कालासागर में रूसी जहाजों को यातायात की स्वतंत्रता मिल गई। वे अब तुर्क बंदरगाहों का भी इस्तेमाल कर सकते थे। इसके अलावा, रूस को तुर्की साम्राज्य के ईसाइयों का संरक्षक मान लिया गया, जो कालांतर में तुर्की के लिए बहुत घातक साबित हुआ, क्योंकि बाद में ईसाइयों का पक्ष लेने के बहाने रूस ने कई बार तुर्की में हस्तक्षेप किया।
कुछ ही दिनों बाद कैथरीन ने ऑस्ट्रिया के जोसेफ से संधि कर ली और 1787 ई. में जोसेफ के साथ कालासागर क्षेत्र का दौरा किया। कैथरीन और जोसेफ के दौरे से आशंकित हो कर तुर्की ने स्वयं रूस से युद्ध मोल ले लिया। तुर्की फिर पराजित हुआ और 1792 ई. में पहली संधि के पूरक स्वरूप एक और संधि द्वारा नीस्टर नदी को रूस और तुर्की के बीच की सीमा मान लिया गया।
इस प्रकार रूस को कालासागर क्षेत्र में ‘खुली खिड़की’ मिल गई और उसे भूमध्य सागर की ओर से दुनिया तक पहुँचने का एक और ‘द्वार’ मिल गया। पीटर ने रूस को उत्तरी यूरोप में सर्वोपरि बनाया था, कैथरीन ने उसे पूर्व की महान शक्ति बना दिया। अब पूरे बाल्कन प्रायद्वीप का ईसाई बहुल प्रदेश रूस को अपना संरक्षक मानने लगा।
पोलैंड का विभाजन
पोलैंड तीन महत्वाकांक्षी शासकों—कैथरीन, मारिया थेरेसा और फ्रेडरिक से घिरा हुआ एक असंगठित राज्य था। यद्यपि आपस में इनके हित टकराते थे, लेकिन लूट का माल बाँटने की स्थिति में इन तीनों ने अद्भुत सहमति दिखाई।
पोलैंड एक समृद्ध खेतिहर देश था। सत्रहवीं शताब्दी में वहाँ एक संगठित और शक्तिशाली राज्य था। लेकिन पोलैंड की आंतरिक कमजोरियाँ उसे ले डूबीं। वहाँ निर्वाचित राजतंत्र की परंपरा थी। सामंत लोग निरंतर दाँव-पेंच में लगे रहते थे। राजा की कोई शक्ति नहीं थी। इस सामंती समाज में न धार्मिक एकता थी, न भाषागत। कैथोलिक और पोलिश भाषी बहुसंख्यक थे, लेकिन अभी राष्ट्रीयता की भावना नहीं पनप पाई थी। ऐसे में पोलैंड एक परंपरागत सीमा में बँधा छोटी-छोटी रियासतों और ईर्ष्यालु सामंतों का समूह मात्र था।
1764 ई. में कैथरीन और फ्रेडरिक ने मिल कर कैथरीन के कृपापात्र स्टैनिस्लास को पोलैंड का राजा बनाया था। फ्रांस और ऑस्ट्रिया विरोध कर के भी कुछ नहीं कर पाए थे। लेकिन पोलैंड में अंदर ही अंदर गुट बनने लगे थे। कैथोलिक लोग एक ओर थे, तो अन्य लोग दूसरी ओर। अंततः पोलैंड में गृहयुद्ध छिड़ गया।
पोलैंड का पहला विभाजन (1772 ई.)
कैथरीन ने 1770-1771 ई. में प्रशा के शासक फ्रेडरिक महान् के साथ मिल कर पोलैंड के विभाजन के बारे में वार्ता की। 1772 ई. में कैथरीन, फ्रेडरिक और मारिया थेरेसा ने मिल कर पोलैंड का पहला विभाजन किया। बँटवारे में ड्यूना और नीपर नदियों के पूर्व का सारा क्षेत्र रूस ने ले लिया। डेंजिंग के बंदरगाह के अतिरिक्त सारा पश्चिमी प्रदेश फ्रेडरिक को मिला और क्राको नगर को छोड़ कर सारा गैलिशिया ऑस्ट्रिया के हिस्से में आया। इस प्रकार पोलैंड का एक चौथाई क्षेत्रफल और जनसंख्या का पाँचवाँ भाग दूसरों के कब्जे में चला गया।
पोलैंड का दूसरा विभाजन (1793 ई.)
पोलैंड के पहले विभाजन से वहाँ के सामंतों की आँखें खुल गईं। उन्होंने संगठित हो कर विदेशी शासन का विरोध करने का प्रयास किया। कैथरीन पोलैंड पर घात लगाए बैठी ही थी। इसी बीच फ्रेडरिक और मारिया थेरेसा की मृत्यु हो गई। 1789 ई. में फ्रांसीसी क्रांति की अफरा-तफरी का लाभ उठा कर कैथरीन) ने प्रशा से मिल कर पोलैंड का दूसरा विभाजन कर लिया। ऑस्ट्रिया पश्चिम में व्यस्त था, इसलिए उसे भागीदार भी नहीं बनाया गया। इस विभाजन में कैथरीन ने प्रशा को डेंजिंग और पोसेन जैसे नगर दे कर पूरा पूर्वी पोलैंड हड़प लिया। इस विश्वासघात से ऑस्ट्रिया बहुत नाराज हुआ, लेकिन लूट का क्या, जिसने फायदा उठा लिया, उठा लिया।
पोलैंड का तीसरा विभाजन (1795 ई.)
अब पोलैंड की जनता ने विदेशी शासन के विरुद्ध कोश्यूस्को के नेतृत्व में एक प्रकार का जन-विद्रोह शुरू कर दिया। दूरदर्शी कैथरीन ने ऑस्ट्रिया और प्रशा को अपनी योजना में पूरी तरह शामिल कर लिया और बड़ी क्रूरता के साथ पोलिश विद्रोह का दमन किया।
1795 ई. में रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया ने मिल कर पोलैंड का तीसरा विभाजन किया, जिसमें ऑस्ट्रिया को विश्चुला नदी की घाटी का दक्षिणी भाग और प्रशा को उत्तरी भाग मिल गया। रूस को ड्यूमा नदी के निचले भाग का क्षेत्र तथा गैलिशिया का शेष भाग भी मिल गया। अब यूरोप के नक्शे से पोलैंड नाम के देश का अस्तित्व मिट गया। पोलिश जनता विभिन्न राज्यों में विभाजित हो कर अपनी पितृभूमि की याद संजोए संघर्ष करती रही। अंततः प्रथम महायुद्ध के बाद वर्साय की संधि द्वारा एक बार फिर पोलैंड का प्रादुर्भाव हुआ।
कैथरीन का मूल्यांकन
एक बार कैथरीन ने कहा था : “मैं निर्धन की तरह रूस आई थी। मुझे रूस ने धन-धान्य दे कर सम्मानित किया। मैंने भी रूस को अजोव, यूक्रेन और क्रीमिया दे कर ऋण से मुक्ति पा ली है।” यह सच था कि वह रूस में एक छोटी-सी रियासत से ब्याह कर आई थी। जरीना के रूप में रूसी जनता ने उसे असाधारण सम्मान व प्रेम दिया और इस ऋण को उसने रूस की सीमाओं का विस्तार कर के चुका दिया था। गद्दी पर बैठने के कुछ ही दिनों बाद उसने घोषणा की थी: “रूस एक यूरोपीय राज्य है” और इस घोषणा को चरितार्थ करने में उसने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
कैथरीन को उसके देश के सामंतों ने ‘महान’ कह कर सम्मानित किया था। महानता के गुणों से वह भले ही संपन्न न रही हो, लेकिन उसने अपने देश को स्थायी महानता प्रदान की। पीटर ने रूस को यूरोपीय शक्ति बनाया था, कैथरीन ने उसे ‘महाशक्ति’ बना दिया।
कैथरीन अपने व्यक्तिगत जीवन में घोर अनैतिक थी, लेकिन उसने इंग्लैंड की एलिजाबेथ की तरह सारे देश का सहयोग प्राप्त किया। उसने रूस का आर्थिक आधार मजबूत करने की कोई विशेष कोशिश नहीं की और जनहित के कार्य भी केवल बड़े नगरों में किए। चूंकि वह दिखावे में ज्यादा विश्वास करती थी, इसलिए उसने कभी सर्वसाधारण के लिए शिक्षा का प्रबंध नहीं किया और उसने नगरों में भी जो प्रबंध किया, वह केवल दिखावे के लिए था। एक बार उसने मॉस्को के गवर्नर से कहा था: “मैं स्कूल रूस के लिए नहीं, यूरोप के लिए खोलती हूँ ताकि वहाँ का जनमत हमारे पक्ष में रहे। जिस दिन हमारे किसान प्रबुद्ध होना चाहेंगे, उस दिन न तुम रहोगे न मैं।” यह पाखंड और दूरदर्शिता दोनों का प्रमाण है। यूरोप में अपना सम्मान बनाए रखने के लिए वह कुछ भी कर सकती थी। लेकिन वह यह भी जानती थी कि एक प्रबुद्ध जनता तानाशाहों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब रूस की जनता वास्तव में जागरूक हुई तो रूस से जारशाही का अंत हो गया।
कैथरीन जन्मजात शासिका थी। एक शासक के गुण उसमें कूट-कूट कर भरे हुए थे। उसने समय के अनुसार अपना रूसीकरण कर लिया और जब जरूरत पड़ी तो पूरे रूस का यूरोपीयकरण करने लगी। यह सही है कि उसके सुधार नगरों तक सीमित रहे और अधिकांश रूसी जनता अपने पुराने ढर्रे पर चलती रही, लेकिन यह भी सही है कि उसने गरीब और बेहाल जनता को भी अपना प्रशंसक बनाए रखा। उसका सबसे बड़ा गुण था समय की पहचान, और सबसे बड़ी उपलब्धि थी समय के अनुसार कूटनीति और युद्ध के सहारे रूस का विस्तार। रूस पीटर का ऋणी है, लेकिन कैथरीन ने पीटर के कार्यों को पूरा न किया होता तो शायद रूस इतनी जल्दी महाशक्ति नहीं बन पाता।










