परवर्ती गुप्त शासक
स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद गुप्त राजवंश का सूरज अस्ताचल की ओर बढ़ने लगा। यद्यपि स्कंदगुप्त के बाद गुप्त शासकों के नाम अभिलेखों और मुद्राओं से ज्ञात होते हैं, किंतु उनके उत्तराधिकार का क्रम असंदिग्ध रूप से निर्धारित करना कठिन है।
पुरुगुप्त
आधिकारिक वंशावली में कुमारगुप्त के बाद पुरुगुप्त का नाम मिलता है, किंतु स्कंदगुप्त का नाम नहीं है। संभवतः स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद पुरुगुप्त सम्राट बना। वे स्कंदगुप्त के सौतेले भाई और कुमारगुप्त की पट्टमहादेवी अनंतदेवी के पुत्र थे। पुरुगुप्त वृद्धावस्था में सिंहासन पर बैठा, जिसके कारण उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर वाकाटक नरेश नरेंद्रसेन ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। एक शिलालेख से पता चलता है कि नरेंद्रसेन ने अपने वंश की डूबी हुई शक्ति का पुनरुद्धार किया था। इस प्रकार स्कंदगुप्त के दुर्बल भाई पुरुगुप्त के शासनकाल में वाकाटक राज्य पुनः स्वतंत्र हो गया। परमार्थकृत वसुबंधुजीवनवृत्त के अनुसार पुरुगुप्त बौद्ध धर्म का अनुयायी था। संभवतः उसने 467 से 473 ई. तक शासन किया। अभिलेखों के अनुसार पुरुगुप्त के दो पुत्र थे—बुधगुप्त और नरसिंहगुप्त।
कुमारगुप्त द्वितीय
पुरुगुप्त के उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय का नाम गुप्त वंशावली में और जटिलता उत्पन्न करता है। संभवतः यह पुरुगुप्त का पुत्र था। सारनाथ से गुप्त संवत् 154 (473 ई.) का एक बौद्ध प्रतिमा लेख प्राप्त हुआ है, जिसमें भूमिं रक्षति कुमारगुप्ते उत्कीर्ण है। कुछ इतिहासकार इसे स्वतंत्र शासक न मानकर पुरुगुप्त का प्रांतीय शासक (गोप्ता) मानते हैं। कुमारगुप्त द्वितीय ने वाकाटकों से युद्ध कर मालवा को जीतकर पुनः गुप्त साम्राज्य में शामिल किया और ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। वैष्णव धर्मानुयायी इस नरेश ने ‘परमभागवत’ की उपाधि भी ग्रहण की थी। संभवतः इसने 473 से 476 ई. तक चार वर्ष शासन किया।
बुधगुप्त
कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना, जो नालंदा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माता का नाम चंद्रदेवी था। गुप्त संवत् 157 (477 ई.) का एक अभिलेख सारनाथ से मिला है, जिससे प्रतीत होता है कि वह 477 ई. में शासन कर रहा था। बुधगुप्त के शिलालेख एरण (मध्य प्रदेश) से लेकर दामोदरपुर और पहाड़पुर (बंगाल) तक प्राप्त हुए हैं, जिनमें गुप्त संवत् की तिथियाँ अंकित हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि बुधगुप्त एक शक्तिशाली शासक था। उसके द्वारा नियुक्त प्रांतीय शासक बंगाल से मालवा तक शासन करते थे। दामोदरपुर ताम्रलेख से पता चलता है कि पुण्ड्रवर्धन भुक्ति का शासक ब्रह्मदत्त था। एरण लेख के अनुसार पूर्वी मालवा में मातृविष्णु और अंतर्वेदी (गंगा-यमुना दोआब) में सुरश्मिचंद्र उसके सामंत थे। दामोदरपुर ताम्रलेख में उसे ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ कहा गया है। उसकी स्वर्ण मुद्राओं पर ‘श्रीविक्रम’ उपाधि मिलती है। उसकी रजत मुद्राओं पर मुद्रालेख मिलता है: विजितवनिरवनिपति श्रीबुधगुप्त दिवं जयति (पृथ्वी को जीतने के बाद राजा बुधगुप्त स्वर्ग की विजय करता है)।
बुधगुप्त के शासनकाल में अधीनस्थ राज्यों के साम्राज्य से अलग होने के कारण गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया था। काठियावाड़ प्रायद्वीप में वल्लभी के मैत्रक और बुंदेलखंड के परिव्राजक शासकों ने गुप्त शासक का अस्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया, जो उनकी अधीनता अस्वीकार करने का संकेत देता है। इसी प्रकार बुधगुप्त के समकालीन महाराज सुबंधु ने प्राचीन नगर महिष्मती से निर्गत एक अभिलेख में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। बुधगुप्त की स्वर्ण मुद्राएँ अत्यंत कम हैं, जिससे लगता है कि स्कंदगुप्त के बाद आंतरिक कमजोरियों और उत्तराधिकार युद्धों के कारण साम्राज्य दुर्बल हो गया था।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार बुधगुप्त बौद्ध धर्मानुयायी था और उसने नालंदा बौद्ध महाविहार को धन दान दिया था। सारनाथ लेख के अनुसार अभयमित्र नामक भिक्षु ने 477 ई. में गौतम बुद्ध की प्रतिमा स्थापित करवाई थी (कारिताभयमित्रेण प्रतिमा शाक्यभिक्षुणा)। उसकी कुछ रजत मुद्राओं पर गुप्त संवत् 175 (495 ई.) की तिथि मिलती है, जिससे प्रतीत होता है कि उसने 476 से 495 ई. तक शासन किया।
नरसिंहगुप्त ‘बालादित्य’
बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई पुरुगुप्त का पुत्र नरसिंहगुप्त शासक बना। भितरी मुद्रालेख में उसकी माता का नाम महादेवी चंद्रदेवी मिलता है। नरसिंहगुप्त ने ‘बालादित्य’ उपाधि धारण की। उसकी मुद्राओं पर एक ओर उसका चित्र और ‘नर’ लिखा है, जबकि दूसरी ओर पुरोभाग पर धनुष-बाण लिए राजा, गरुड़ध्वज और जयति नरसिंहगुप्तः मुद्रालेख उत्कीर्ण है। पृष्ठभाग पर कमलासन पर विराजमान लक्ष्मी और बालादित्य मुद्रालेख अंकित है।
नरसिंहगुप्त की सबसे बड़ी उपलब्धि संभवतः हूण विजय थी। ह्वेनसांग के अनुसार बालादित्य नामक गुप्त नरेश ने हूण नरेश मिहिरकुल को पराजित कर बंदी बनाया, किंतु राजमाता के अनुरोध पर उसे मुक्त कर दिया। संभवतः इस हूण विजय में उसके सामंतों (मौखरि आदित्यवर्मन और परवर्ती गुप्त शासक हर्षगुप्त) ने सहयोग किया था।
नालंदा मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त को ‘परमभागवत’ कहा गया है, किंतु वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने बौद्ध विद्वान वसुबंधु की शिष्यता ग्रहण की थी। उसने नालंदा में ईंटों का एक भव्य मंदिर बनवाया, जिसमें 80 फुट ऊँची बुद्ध की ताम्र प्रतिमा स्थापित की गई थी।
वैन्यगुप्त
वैन्यगुप्त के संबंध में गुप्त संवत् 188 (507 ई.) का गुणैधर (कोमिल्ला, बांग्लादेश) ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है। इसमें महादेव के चरणों में श्रद्धारत महाराज वैन्यगुप्त द्वारा एक बौद्ध भिक्षु को पड़ोस की कुछ भूमि दान देने का उल्लेख है। यह दान सामंत महाराज रुद्रदत्त की प्रेरणा पर और असम के सेनापति महाराज विजयसेन के दूतकत्व में किया गया था। नालंदा से उसकी एक मुहर मिली है, जिस पर उसकी उपाधि ‘महाराजाधिराज’ अंकित है। संभवतः उसने ‘द्वादशादित्य’ उपाधि भी धारण की थी।
भानुगुप्त
भानुगुप्त का एक प्रस्तर-स्तंभ लेख एरण से प्राप्त हुआ है, जो 510 ई. का है। इसमें उसे वीर और महान राजा कहा गया है। इस लेख में उसके सेनापति गोपराज का उल्लेख है, जो हूणों के विरुद्ध युद्ध में मारा गया और उसकी पत्नी सती हो गई:
श्री भानुगुप्तो जगति प्रवीरो, राजा महान्पार्थसमोऽति शूरः।
तेनाथ सार्द्धन्त्विह गोपराजो, मित्रानुगत्येन किलानुयातः।
कृत्वा च प्रिया युद्धं सुमहत्प्रकाशं, स्वर्ग गतो दिव्य नरेन्द्रकल्प।
भक्तानुरक्ता च प्रिया च कांता, भार्यावलग्नानुगताग्निराशिम्।।
यह सती प्रथा का प्राचीनतम प्रमाण है। हेमचंद्र रायचौधरी का अनुमान है कि बुधगुप्त के बाद पूर्वी मालवा में स्थापित हूण सत्ता का अंत करने के लिए भानुगुप्त ने युद्ध किया और हूणों का आधिपत्य समाप्त किया। किंतु इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। एरण की वराह-प्रतिमा लेख से पता चलता है कि बुधगुप्त के सामंत मातृविष्णु का छोटा भाई धान्यविष्णु हूण नरेश तोरमाण की अधीनता में शासन करता था। कुछ इतिहासकार भानुगुप्त की ‘राजा’ उपाधि के आधार पर उसे गुप्तों के अधीन स्थानीय शासक मानते हैं। संभवतः भानुगुप्त भी हूणों के विरुद्ध युद्ध में मारा गया।
कुमारगुप्त तृतीय
नरसिंहगुप्त के बाद उनका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। पहले इसे भ्रमवश सारनाथ अभिलेख में उल्लिखित कुमारगुप्त द्वितीय माना जाता था। भितरी और नालंदा से प्राप्त मुहरों के अनुसार कुमारगुप्त तृतीय नरसिंहगुप्त का पुत्र और विष्णुगुप्त का पिता था। उसने स्वर्ण मुद्राएँ प्रचलित कीं और ‘क्रमादित्य’ उपाधि धारण की। उसकी स्वर्ण मुद्राओं में मिलावट की अधिक मात्रा से प्रतीत होता है कि उसके काल में गुप्त साम्राज्य तीव्र गति से पतन की ओर बढ़ रहा था।
विष्णुगुप्त
कुमारगुप्त तृतीय के बाद उनका पुत्र विष्णुगुप्त अंतिम गुप्त शासक सिद्ध हुआ, जिसका उल्लेख नालंदा से प्राप्त एक लेख में मिलता है। उसकी मुद्राओं पर ‘चंद्रादित्य’ उपाधि अंकित है। विष्णुगुप्त अयोग्य और दुर्बल शासक था। तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने ग्वालियर और मालवा के एक बड़े भूभाग पर अधिकार कर लिया। संभवतः उसने 550 ई. तक शासन किया, किंतु इसके बाद गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण
स्थापना काल से लगभग दो शताब्दियों तक गुप्त साम्राज्य प्रतिभाशाली शासकों के संरक्षण में पल्लवित-पुष्पित होता रहा, किंतु 467 ई. में स्कंदगुप्त की मृत्यु के साथ इसका उत्कर्षकाल समाप्त हो गया। इसके बाद विघटन और ह्रास की प्रवृत्तियाँ सक्रिय हो गईं और गुप्त साम्राज्य के खंडहरों पर अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित होने लगे।
गुप्त साम्राज्य का पतन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। रमेशचंद्र मजूमदार का विचार है कि इसके पतन में वही परिस्थितियाँ सक्रिय थीं, जो मौर्य और मुगल साम्राज्यों के ह्रास में थीं। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे:
बाह्य आक्रमण
गुप्त अभिलेखों से पता चलता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अंतिम समय में बाह्य आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। भितरी स्तंभलेख से स्पष्ट है कि पुष्यमित्रों का आक्रमण विपत्तिजनक था। लगभग उसी समय हूणों के आक्रमण भी शुरू हुए। स्कंदगुप्त ने हूणों और पुष्यमित्रों को सफलतापूर्वक पराजित किया, जैसा कि जूनागढ़ और भितरी लेखों से पता चलता है। किंतु गुप्त शासकों ने उत्तर-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने का कोई ठोस प्रबंध नहीं किया। स्कंदगुप्त के बाद हूण पुनः आक्रामक हुए। जैन लेखक सोमदेव के अनुसार वे चित्रकूट तक पहुँच गए थे। रायचौधरी को कोशांबी से हूण शासक तोरमाण की एक मुद्रा प्राप्त हुई। ह्वेनसांग के अनुसार नरसिंहगुप्त बालादित्य ने हूण नरेश मिहिरकुल को पराजित कर बंदी बनाया, किंतु राजमाता के अनुरोध पर उसे मुक्त कर दिया। अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि बुधगुप्त के बाद हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में एरण पर कब्जा कर लिया। भानुगुप्त के काल में हूणों को खदेड़ने का प्रयास किया गया, जिसमें उसका सेनापति गोपराज मारा गया।
हूण आक्रमण गुप्त साम्राज्य को कमजोर करने में महत्त्वपूर्ण थे, किंतु इन्हें पतन का एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता।
अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी
गुप्त साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता और दुर्बलता थी। प्रारंभिक गुप्त शासक दूरदर्शी और शक्तिशाली थे, किंतु परवर्ती शासकों में वीरता और कार्यकुशलता का अभाव था। जब साम्राज्य पर बाह्य और आंतरिक संकट मंडरा रहे थे, तब केवल पराक्रमी शासक ही इसे बचा सकते थे। किंतु परवर्ती गुप्त शासक अयोग्य सिद्ध हुए, जिससे पतन अवश्यंभावी हो गया।
गुप्त वंश में प्रारंभ से ही आंतरिक कलह के प्रमाण मिलते हैं। उत्तराधिकार के निश्चित नियमों के अभाव में राजकुमारों में कटुता बनी रहती थी। आंतरिक झगड़ों से कई बार विपत्तिजनक स्थिति उत्पन्न हुई। जब हूणों के आक्रमण और सामंतों के विद्रोह से साम्राज्य कमजोर हो रहा था, तब राजकुमारों ने एकजुटता न दिखाकर कलह का वातावरण पैदा किया, जो साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुआ।
सामंत-संघीय संगठन
गुप्त प्रशासन का स्वरूप सामंती-संघात्मक था। अभिलेखों से पता चलता है कि गुप्तकाल में सामंतवाद विकसित हो चुका था। सामंत शासक अपने क्षेत्रों में स्वायत्तता के साथ शासन करते थे। उन्हें सेना रखने, भूमिकर वसूलने और भूमिदान देने का अधिकार था। बदले में उन्हें सम्राट को निश्चित राशि और सैनिक सहायता प्रदान करनी होती थी।
सामंतवाद की यह प्रथा गुप्त साम्राज्य की स्थिरता के लिए घातक सिद्ध हुई। स्कंदगुप्त तक सामंत नियंत्रण में रहे, किंतु गुप्त शक्ति के कमजोर होते ही उन्होंने स्वतंत्र शासकों जैसा व्यवहार शुरू कर दिया। कई सामंतों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए, जिससे गुप्त साम्राज्य का पतन हुआ।
वंशानुगत नियुक्तियाँ
गुप्त प्रशासन में उच्च पद प्रायः वंशानुगत थे। उदाहरणतः, हरिषेण महादंडनायक का पिता ध्रुवभूति भी इसी पद पर था। उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय का सचिव वीरसेन आनुवंशिक रूप से सांधिविग्रहिक था (अन्वयप्राप्त साचिव्यो व्यापृतसान्धिविग्रहः)। करमदंडा लेख से स्पष्ट है कि कुमारगुप्त का मंत्री पृथ्वीसेन अपने पिता के बाद इस पद पर नियुक्त हुआ था। आनुवंशिक नियुक्तियों के कारण कभी-कभी अयोग्य व्यक्ति भी उच्च पदों पर आसीन हो जाते थे, जिससे प्रशासनिक शिथिलता आई। इन पदाधिकारियों की सफलता सम्राट की योग्यता पर निर्भर थी। सम्राट के दुर्बल होने पर उनकी अयोग्यता साम्राज्य की एकता के लिए घातक सिद्ध हुई।
प्रांतपतियों के विशेषाधिकार
गुप्त अभिलेखों से पता चलता है कि राजकुमारों के अलावा सुयोग्य और विश्वस्त कर्मचारी भी प्रांतपतियों और सामंतों के रूप में नियुक्त किए जाते थे। ये प्रांतपति अपने क्षेत्रों में सम्राट की तरह ठाट-बाट से रहते थे और ‘नृप’, ‘महाराज’, ‘उपरिक महाराज’ जैसी उपाधियाँ धारण करते थे। वे कर वसूल करते और अपनी सेना रखते थे। केंद्रीय शक्ति के कमजोर होते ही इनका आचरण राज्य-विरोधी हो जाता था।
अग्रहार दान की प्रथा से भी गुप्तों को हानि हुई। अग्रहार भूमिदान में दानग्राही को राजनैतिक और प्रशासनिक अधिकार प्राप्त हो जाते थे, जिससे राज्य के भीतर राज्य की स्थिति उत्पन्न हुई। गया जिले के अमौना से प्राप्त एक ताम्रपत्र में कुमारामात्य महाराजनंदन ने गुप्त संवत् 232 (551 ई.) में बिना गुप्त सम्राट का उल्लेख किए दानपत्र जारी किया था, जिससे स्पष्ट है कि इस तिथि से पूर्व गुप्त साम्राज्य का पतन हो चुका था। यदि सामंती प्रथा और अग्रहार प्रथा को समाप्त कर सभी भुक्तियों और विषयों पर सीधा नियंत्रण स्थापित किया जाता, तो यह साम्राज्य के हित में होता।
आर्थिक कारण
गुप्त साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण परवर्ती काल की जर्जर अर्थव्यवस्था थी। हूण आक्रमणों और अत्यधिक भूमिदानों के कारण आर्थिक स्थिति डगमगा गई थी। राजनीतिक अशांति से व्यापार-वाणिज्य को भी हानि हुई। सामंती प्रथा के कारण केंद्रीय राजस्व में भारी कमी आई, जिससे राजकोष खाली हो गया। गुप्त सम्राट सैन्यशक्ति के लिए सामंतों की सेना पर निर्भर थे, जिसके कारण उन पर नियंत्रण नहीं रहता था। सामंतों की सेनाएँ आपस में तालमेल की कमी के कारण प्रभावी नहीं थीं और सैनिकों की निष्ठा अपने सामंत स्वामी के प्रति होती थी।
बौद्ध धर्म का प्रभाव
कुछ इतिहासकारों का मत है कि परवर्ती गुप्त शासकों द्वारा बौद्ध धर्म के आलिंगन से साम्राज्य का पतन हुआ। उनका मानना है कि प्रारंभिक गुप्त शासक वैष्णव धर्मानुयायी होने के कारण धरणिबंध और कृत्स्नपृथ्वीजय के आदर्श से प्रेरित थे। बौद्ध धर्म के अनुयायी होने के कारण परवर्ती शासकों ने बौद्ध संस्थाओं और विहारों को अत्यधिक धन दान दिया, जिससे राजकोष खाली हो गया। उनकी शांति और अहिंसा की नीति से सैनिक शक्ति कुंठित हुई।
किंतु यह मत पूर्वाग्रहपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि इसी काल में बड़े पैमाने पर मंदिर निर्माण के प्रमाण मिलते हैं। वास्तव में, इस काल में ब्राह्मणों को सबसे अधिक भूमिदान दिए गए, किंतु इनकी चर्चा कम होती है।
नवीन शक्तियों का उदय
गुप्त साम्राज्य आंतरिक विघटन और बाह्य आक्रमणों से कमजोर हो चुका था। प्रांतीय क्षत्रप और सामंत स्वतंत्र शासकों की तरह व्यवहार करने लगे थे। यशोधर्मन ने सम्राट के विरुद्ध विद्रोह कर विजयों का सिलसिला शुरू किया। मंदसौर के स्तंभलेख से पता चलता है कि उसने उन प्रदेशों पर भी आधिपत्य स्थापित किया, जहाँ गुप्त शासकों का शासन नहीं था। नरसिंहगुप्त बालादित्य ने मिहिरकुल को पराजित कर साम्राज्य की साख बचाने का प्रयास किया। किंतु, मौखरियों, परवर्ती गुप्तों और बंगाल व गौड़ की उभरती शक्तियों का उदय गुप्त साम्राज्य के पतन में महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हुआ।
लगभग तीन शताब्दियों तक शासन करने वाले गुप्त वंश के पतन में अनेक कारकों ने भूमिका निभाई। उत्तराधिकारियों की दुर्बलता, आंतरिक झगड़े, सामंती संगठन, बाह्य आक्रमण, राजनीतिक भूलें और नवीन शक्तियों का उदय इसके प्रमुख कारण थे। इन कारकों ने मिलकर गुप्त साम्राज्य को अतीत की वस्तु बना दिया।










