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मुगल सम्राट जहाँगीर (1605-1627)
जहाँगीर भारत में मुगल साम्राज्य का चौथा प्रमुख बादशाह था। वह अपने पिता सम्राट अकबर की मृत्यु के बाद 1605 ई. में सिंहासन पर बैठा और 1627 ई. में अपनी मृत्यु तक शासन किया। जहाँगीर को अपने पिता से एक विशाल साम्राज्य उत्तराधिकार में मिला था।
जहाँगीर एक कुशल प्रशासक था और उसके शासनकाल में साम्राज्य में अपेक्षाकृत स्थिरता और सुव्यवस्था बनी रही, जिससे व्यापार-वाणिज्य के विकास को प्रोत्साहन मिला। उसने अपने पिता की धार्मिक सहिष्णुता की नीति को जारी रखा और हिंदुओं-मुसलमानों के साथ-साथ विभिन्न धर्मों के बीच सह-अस्तित्व को बढ़ावा दिया। उसके शासनकाल में मुगल साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई और वह अपनी सांस्कृतिक एवं आर्थिक समृद्धि के शिखर पर पहुँच गया। जहाँगीर के काल में चित्रकला का विकास अपने चरर्मोत्कर्ष पर पहुँच गया, जिसके कारण इतिहासकारों ने उसके काल को ‘चित्रकला का स्वर्णयुग’ की संज्ञा दी है।
जहाँगीर का आरंभिक जीवन
जहाँगीर का वास्तविक नाम ‘सुल्तान सलीम मिर्जा’ था। उसका जन्म अकबर के शासन के 13वें वर्ष अर्थात् 30 अगस्त, 1569 ई. को बृहस्पतिवार के दिन फतेहपुर सीकरी में संत शेख सलीम चिश्ती की कुटिया में हुआ था। उसकी माता हरकाबाई (मरियम उज्जमानी) आमेर के राजपूत नरेश बिहारीमल (भारमल) की पुत्री थी। सलीम के पूर्व अकबर के सभी पुत्र अपने शैशवकाल में ही काल-कवलित हो जाते थे, इसलिए अकबर ने फतेहपुर सीकरी के सूफी संत शेख सलीम चिश्ती से पुत्र प्राप्त करने के लिए अनेक प्रार्थनाएँ और दुआएँ की थी। सलीम का जन्म शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से हुआ था, इसलिए उसे प्रायः ‘सहस्रों दुआओं वाला शिशु’ कहा जाता है। अकबर ने इस सूफी संत शेख सलीम चिश्ती के नाम पर अपने पुत्र का नाम ‘सलीम’ रखा। संत के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करने के लिए अकबर सलीम को प्रायः ‘शेखू बाबा’ भी कहा करता था।
22 अक्टूबर, 1573 ई. को सलीम के खतना, शाही उत्सव, दावतों और बधाइयों के संपन्न हो जाने के बाद अकबर ने उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया। सलीम को अरबी, फारसी, तुर्की, गणित, भूगोल, इतिहास, हिंदी तथा अन्य शास्त्रों का ज्ञान देने के लिए अनेक योग्य आचार्य नियुक्त किये गये। जब सलीम लगभग पाँच वर्ष का हो गया, तब अकबर ने 18 नवंबर, 1573 ई. को मौलाना मीर कलां हरवी को सलीम को इस्लाम धर्म और कुरान की शिक्षा देने के लिए अध्यापक नियुक्त किया। इसके बाद, अकबर ने कुतुबुद्दीन मुहम्मद अतका को, जो बड़े ऊँचे पद का अमीर था, सलीम का दूसरा अध्यापक नियुक्त किया। किंतु सलीम का प्रमुख शिक्षक बैरम खाँ का पुत्र अब्दुर्रहीम ‘खानेखाना’ था, जो स्वयं एक बड़ा विद्वान, कवि और लेखक था। अब्दुर्रहीम ने सलीम को तुर्की, फारसी, अरबी, संस्कृत और हिंदी की शिक्षा दी थी। जहाँगीर की आत्मकथा ‘तुजुक ए-जहाँगीरी’ (जहाँगीरनामा) से स्पष्ट है कि उसका फारसी भाषा पर पूर्ण अधिकार था। साहित्यिक और धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त सलीम को ललित कलाओं की भी शिक्षा दी गई थी, जिसके कारण विभिन्न कलाओं, विशेषकर चित्रकला के प्रति उसकी अभिरुचि अधिक बढ़ गई थी।
अकबर ने सलीम की सैनिक शिक्षा पर भी ध्यान दिया और उसे 8-9 वर्ष की अल्पायु में ही युद्धक्षेत्र में भेजा जाने लगा, जिसके कारण शहजादा अल्पकाल में ही युद्धकला में प्रवीण हो गया। अकबर ने सलीम को 1577 ई. में 10,000 का मनसबदार नियुक्त किया। 1581 ई. में मिर्जा हकीम के विद्रोह का दमन के लिए अकबर शहज़ादा सलीम को भी अपने साथ ले गया था। सलीम के प्रशासनिक अनुभव के लिए अकबर ने उसे 1582 ई. में फौजदारी न्याय विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया था। राणा प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान के लिए भी अकबर ने सलीम को भेजा था। फरवरी, 1585 ई. में मानबाई (शाह बेगम) से विवाह के बाद अकबर ने सलीम को पदोन्नति देकर 12000 का मनसब प्रदान किया था।
सलीम (जहाँगीर) के वैवाहिक संबंध
सलीम (जहाँगीर) ने कम से कम 20 विवाह किया था, जिनमें से कई विवाह कई राजनीतिक कारणों से हुए थे और कई अन्य व्यक्तिगत रूप से। जहाँगीर का पहला विवाह 16 वर्ष की उम्र में 13 फरवरी, 1585 ई. को उसके मामा आमेर (जयपुर) के कछवाहा राजा भगवंतदास (भगवानदास) की पुत्री तथा मानसिंह की बहन मानबाई से हुआ। इस विवाह में हिंदू और मुसलमान दोनों ही प्रथाओं का पालन किया गया था। ‘अकबरनामा’ में अबुल फजल ने मानबाई को ‘पवित्रता के आभूषण’ के रूप में चित्रित किया है। मानबाई ने 16 अगस्त, 1587 ई. को जहाँगीर के सबसे बड़े पुत्र खुसरो को जन्म दिया था, जिसके कारण जहाँगीर ने मानबाई को ‘शाह बेगम’ (रॉयल लेडी) की उपाधि से सम्मानित किया था। ‘शाह बेगम ने जहाँगीर के प्रति अपने पुत्र खुसरो और भाई माधोसिंह के दुर्व्यवहार से ऊबकर 5 मई, 1605 ई. को अधिक अफीम का सेवन कर आत्महत्या कर ली।
जहाँगीर का एक विवाह 11 जनवरी, 1586 ई. को जोधपुर (मारवाड़) के ‘मोटा राजा’ उदयसिंह राठौर की पुत्री ‘जगत गोसाईं’ (मानवतीबाई या मानबाई या जोधबाई) से संपन्न हुआ। जगत गोसाईं ने 5 जनवरी, 1592 ई. को जहाँगीर के तीसरे पुत्र शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को जन्म दिया और इस अवसर पर जगत गोसाईं को ‘ताजबीबी’ की उपाधि दी गई थी। संभवतः जगत गोसाईं से ही 6 जनवरी, 1605 ई. को शहरयार मिर्जा का भी जन्म हुआ था। जगत गोसाईं की मृत्यु (18 अप्रैल, 1618 ई.) के बाद उसे ‘बिलकिस मकानी बेगम’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
जहाँगीर ने 26 जून, 1586 ई. को बीकानेर के महाराजा रायसिंह की पुत्री से, जुलाई, 1586 ई. में अबू सईदखान चगताई की पुत्री ‘मलिका शिकार बेगम’ से और अक्टूबर, 1586 ई. में हेरात के ख्वाजा हसन की पुत्री ‘साहिब-ए-जमाल’ (सौंदर्य की मालकिन या प्रतिमान) से विवाह किया। साहिब-ए-जमाल से ही 2 अक्टूबर, 1589 ई. को जहाँगीर के दूसरे पुत्र शहजादा परवेज मिर्जा का जन्म हुआ था।
1587 ई. में जहाँगीर ने जैसलमेर के महाराजा भीमसिंह की पुत्री मलिकाजहाँ से, अक्टूबर, 1590 ई. में मिर्जा संजर हजारा की पुत्री जोहरा बेगम से, 1591 ई. में मेड़ता के राजा केशोदास राठौड़ की पुत्री करमसी से और 11 जनवरी, 1592 ई. को अली शेरखान की पुत्री कंवल रानी से विवाह किया। अक्टूबर, 1592 ई. में उसने कश्मीर के हुसैनचक की पुत्री से, जनवरी या मार्च, 1593 ई. में इब्राहिम हुसैन मिर्ज़ा की पुत्री ‘नूर-उन-निसा बेगम’ से और सितंबर, 1593 ई. में खानदेश के राजा अलीखान फारूकी की पुत्री से विवाह किया। उसने अब्दुल्ला खान बलूच की पुत्री से भी विवाह किया था। जहाँगीर का एक विवाह 28 जून, 1596 ई. को ख्वाजा हसन के भतीजे ज़ैन खाँ कोका की पुत्री ‘खासमहल बेगम’ से हुआ था, जो जहाँगीर की प्रमुख पत्नियों में से एक थी।
जहाँगीर की एक प्रमुख पत्नी कईम (कासिम खान) खान की पुत्री ‘सलीहाबानो बेगम’ भी थी, जिससे जहाँगीर ने अपने शासनकाल के तीसरे वर्ष 1608 ई. में विवाह किया था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि विलियम हॉकिंस अनुसार वह जहाँगीर की प्रमुख पत्नियों में प्रथम और ‘पादशाह बेगम’ थी। कहा जाता है कि सलीहाबानो बेगम हिंदी कविता में पारंगत थीं। इसके बाद, जहाँगीर ने आमेर (अंबर) के युवराज जगतसिंह की 26 साल की विधवा पुत्री कोकाकुमारी से 17 जून, 1608 ई. को और 11 जनवरी, 1610 ई. को रामचंद बुंदेला की पुत्री से विवाह किया था।
किंतु जहाँगीर का सबसे महत्त्वपूर्ण विवाह 25 मई, 1611 ई. को शेर अफगन (अलीकुली खाँ) की विधवा मेहरुन्निसा (नूरजहाँ) से हुआ, जिसे उसने पहले ‘नूरमहल’, फिर ’नूरजहाँ’ की उपाधि दी थी। नूरजहाँ जहाँगीर की बीसवीं और आखिरी पत्नी थी। इन पत्नियों के अतिरिक्त, जहाँगीर के हरम में लगभग तीन सौ उपपत्नियाँ या रखैलें भी थीं। कुल मिलाकर जहाँगीर के पाँच पुत्र थे- मानबाई (शाह बेगम) से शहजादा खुसरो, साहिब-ए-जमाल से सुल्तान परवेज मिर्जा, जगत गोसाईं से खुर्रम और शहरयार मिर्जा तथा एक रखैल से शहजादा जहाँदार मिर्जा।
सलीम का विद्रोह
शहजादे सलीम ने किशोरावस्था में ही मद्यपान करना आरंभ कर दिया था, जिसके कारण बादशाह अकबर खिन्न रहने लगा था। फिर भी, जब 1598 ई. में बादशाह अकबर ने दक्षिण के लिए प्रस्थान किया, तो वह राजधानी सलीम को सौंप गया, किंतु इसके बाद पिता-पुत्र के संबंधों में दरार आने लगी। 1600 ई. में बादशाह ने सलीम को बंगाल में उस्मान खाँ के विद्रोह को दबाने का आदेश दिया, किंतु सलीम ने पिता के आदेश का उल्लंघन कर इलाहाबाद में रुका रहा और अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित कर दी। उसने बिहार के कोष का तीस हजार रुपया लूटकर अपने समर्थकों को जागीरें प्रदान की। सलीम के इस दुर्व्यवहार के कारण अकबर को अपनी दक्षिण विजय को शीघ्र समाप्त कर 1601 ई. में आगरा लौटना पड़ा। 1602 ई. में सलीम ने बादशाह अकबर के पास एक पत्र भेजा, जिसमें उसने बादशाह के समक्ष उपस्थित होने की अनुमति माँगी और अपने सहायकों की जागीरों को स्थायी करने के लिए कहा। इस बीच बादशाह अकबर ने सलीम को क्षमा करते हुए उसे बंगाल और बिहार की सूबेदारी प्रदान की, किंतु सलीम ने पुनः विद्रोही कार्य करने प्रारंभ कर दिये और अपने नाम के सिक्के जारी किये। सलीम के इस कार्य से अकबर को बहुत दुख हुआ, इसलिए उसने अपने विश्वासपात्र वजीर अबुल फजल को आदेश भेजा कि वह सलीम को दरबार में उपस्थित करे। सलीम का विश्वास था कि अबुल फजल के कारण ही दरबार में उसे उचित मान-सम्मान नहीं मिलता है, इसलिए सलीम ने अबुल फजल के दक्षिण से लौटते समय 12 अगस्त, 1602 ई. को वीरसिंह बुंदेला के हाथों हत्या करवा दी। जहाँगीर के इस कुकृत्य से बादशाह का दुःख और बढ़ गया और उसने अपने विद्रोही पुत्र को दंडित देने का निश्चय किया। किंतु अप्रैल, 1603 ई. में सलीमा बेगम ने मध्यस्थता करके पिता-पुत्र के बीच समझौता करवा दिया। अकबर की माता मरियम मकानी और बुआ गुलबदन बेगम ने भी इस समझौते में सहायता की। फलतः अकबर ने भी सलीम को क्षमा कर दिया था।
1603 ई. में अकबर ने सलीम को दूसरी बार मेवाड़ पर आक्रमण करने का आदेश दिया, किंतु सलीम ने मेवाड़ अभियान के प्रति उदासीनता दिखाई और पुनः इलाहाबाद जाकर विद्रोही गतिविधियों में संलग्न हो गया। अब अकबर सलीम के स्थान पर उसके पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने के संबंध में विचार करने लगा। खुसरो आमेर के राजा मानसिंह का भांजा और मिर्जा अजीज कोका का दामाद था। खुसरो जहाँगीर की अपेक्षा अधिक संयमी स्वभाव का भी था। इस प्रकार खुसरो और जहाँगीर में प्रतिद्वंद्विता आरंभ हो गई।
सलीम के विरुद्ध असफल षड्यंत्र
1605 ई. में अकबर गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। अकबर की मृत्यु की संभावना को देखते हुए राजा मानसिंह और मिर्जा अजीज कोका ने सलीम के पुत्र खुसरो को बादशाह बनाने का निश्चय किया। उन्होंने योजना बनाई कि जब सलीम बादशाह अकबर से भेंट करने आये तो उसे बंदी बना लिया जाए और शाहजादा खुसरो को राजसिंहासन पर बिठाया जाए। किंतु अमीरों के दूसरे गुट के नेता जियाउल मुल्क काजवीनी, शेख फरीद खाँ (मुर्तजा खाँ) तथा रामदास कछवाहा ने इस योजना का विरोध किया। उन्होंने यह तर्क दिया कि सलीम का अधिकार छीनकर खुसरो को बादशाह बनाना चगताई तातारियों के कानून, प्रथा और परंपरा के विरुद्ध है। इसी समय सलीम मृत्युशय्या पर पड़े अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। अकबर ने 21 अक्टूबर, 1605 ई. को सलीम के अपराधों को क्षमा करते हुए उसे अपनी पगड़ी एवं कटार से सुशोभित कर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और अपने अधिकारियों को सलीम की आज्ञा का पालन करने का आदेश दिया। इस प्रकार खुसरो को बादशाह बनाने के मिर्जा अजीज कोका और मानसिंह के प्रयत्न असफल हो गये।
जहाँगीर का राज्याभिषेक (3 नवंबर, 1605 ई.)
अकबर की मृत्यु (27 अक्टूबर, 1605 ई.) के बाद आठवें दिन 3 नवंबर, 1605 ई. को आगरा के किले में शहजादा सलीम का ‘नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाह गाजी’ की उपाधि के साथ राज्याभिषेक हुआ। राज्याभिषेक के बाद जहाँगीर ने अपने पिता के समान उदार एवं सहिष्णु नीति अपनाई और जनता, अमीरों तथा अधिकारियों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया। उसने आदेश दिया कि पुराने जागीरदार अपनी जागीरों का उपयोग करते रहेंगे। उनके जागीरों के पट्टों पर स्वर्ण की मुहर लगाई गई। जहाँगीर ने हिंदुओं का सहयोग, सहायता और समर्थन प्राप्त करने के लिए हिंदू अधिकारियों के पदों में भी कोई परिवर्तन नहीं किया, बल्कि कुछ प्रमुख विश्वसनीय हिंदू अधिकारियों की पदोन्नति की। उसने हरदास राय को शाही तोपखाने का मुख्य अधिकारी बनाया और ‘राजा विक्रमाजीत’ की उपाधि दी।
जहाँगीर ने उन सभी व्यक्तियों को क्षमा कर दिया, जिन्होंने उसके विरुद्ध षड्यंत्र में भाग लिया था। राजा मानसिंह अपने पद और मनसब के साथ-साथ बंगाल का सूबेदार बना रहा। मानसिंह के पुत्र भाऊसिंह को 1500 का मनसब प्रदान किया गया और उसे अपने पद पर भी बना रहने दिया गया। मिर्जा अजीज कोका को भी उसके अपराध के लिए क्षमा कर दिया गया। अबुल फजल के पुत्र अब्दुर्रहीम (अब्दुर्रहमान) को उच्च पद प्रदान किया गया। नूरजहाँ के पिता गयासबेग को दीवान (राजस्व मंत्री) का ऊँचा पद प्रदान किया गया और उसे ‘एत्मादुद्दौला’ की उपाधि दी गई। दूसरा महत्त्वपूर्ण पद शेख फरीद बुखारी को मिला और वह मीरबख्शी के पद पर नियुक्त हुआ। काबुल निवासी गयूरबेग के पुत्र जमानबेग को, जिसने अहदी के रूप में जहाँगीर की व्यक्तिगत सेवा की थी, पदोन्नति देकर 1500 का मनसब दिया गया और ‘महावत खाँ’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
न्याय की जंजीर
बादशाह बनने के बाद जहाँगीर के हृदय में न्यायी शासक बनने के तीव्र लालसा थी। बादशाह बनने के बाद उसने प्रथम आदेश न्याय की जंजीर लगवाने के लिए दिया। इसके अनुसार आगरा दुर्ग में शाहबुर्ज से यमुना तट तक एक सोने की जंजीर (जंजीर-ए-अदली) लगवाई गई, जिसमें 60 घंटियाँ लगी हुई थीं। न्याय के इच्छुक पीड़ित और दुखी लोग इस जंजीर को खींचकर बादशाह तक अपनी फरियाद पहुँचा सकते थे। दिल्ली के राजपूत राजा अनंगपाल ने भी ऐसी ही न्याय की जंजीर दिल्ली में लगवाई थी। यद्यपि यह जंजीर जहाँगीर की उदारता और न्यायप्रियता की द्योतक थी, किंतु संभवतः इस जंजीर को खींचने का प्रयास किसी ने नहीं किया था।
जहाँगीर के बारह अध्यादेश
जहाँगीर ने अपने राज्यारोहण के बाद बारह फरमान या अध्यादेश प्रसारित किये। जहाँगीर ने स्वयं लिखा है कि उसने इन बारह अध्यादेशों को जनसाधारण द्वारा समस्त राज्य में पालन करने के लिए प्रसारित किया था। इन अध्यादेशों को ‘दस्तूर-उल-अमल’ कहा गया और इन्हें संपूर्ण साम्राज्य में लागू किया गया। ये बारह अध्यादेश निम्नलिखित हैं-
- अनावश्यक करों की समाप्ति: जहाँगीर ने जकात पर प्रतिबंध लगा दिया और मीर-बहरी तथा तमगा जैसे अलोकप्रिय करों की वसूली बंद करवा दी। जागीरदारों द्वारा लगाये जाने वाले कर भी समाप्त कर दिये गये।
- मार्गों में चोरी-डकैती के रोकने संबंधी नियम: ऐसे राजमार्गों और सड़कों पर, जो आबादी से दूर थे या निर्जन क्षेत्रों में से गुजरते थे, और जहाँ चोरी-डकैती का भय था, वहाँ के जागीरदारों को आदेश दिया गया कि वे ऐसे सड़कों एवं मार्गों के किनारे सराय और मस्जिद बनवायें, कुएं खुदवायें, खेती को बढ़ावा दें और वहाँ लोगों को बसायें। यदि ऐसे स्थान खालसा भूमि के निकट हों, तो यह कार्य शासकीय अधिकारी और कर्मचारी करें।
- मृतकों की संपत्ति का करमुक्त उत्तराधिकार: किसी भी मृत व्यक्ति की संपति उसके उत्तराधिकारी को प्रदान करने की व्यवस्था की गई और उसका उपभोग करने का अधिकार दिया गया। यदि किसी मृत व्यक्ति का कोई भी उत्तराधिकारी न हो तो उसकी संपत्ति को राज्य पदाधिकारियों के सरक्षण में जमा कराकर उसका प्रयोग सार्वजनिक भवनों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार करने की व्यवस्था की गई।
- मादक द्रव्यों का निषेध: जहाँगीर ने शराब तथा अन्य मादक वस्तुओं व द्रव्यों को बनाने व बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया, यद्यपि वह स्वयं मद्यपान का आदी था।
- दूसरे के मकान पर अधिकार करने तथा नाक-कान काटने के दंड का निषेध: जहाँगीर ने आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के मकान पर अधिकार न करे और किसी अपराधी को नाक-कान काटने का दंड न दिया जाए। जहाँगीर ने स्वयं लिखा है कि, ‘मैंने ईश्वर के सामने शपथ ली है कि मैं इस प्रकार (नाक-कान काटने) का दंड किसी को नहीं दूँगा।’
- गस्बी अथवा घसवी का निषेध: जहाँगीर ने खालसा का भूमि के पदाधिकारियों और जागीरदारों को आदेश दिया कि किसानों की भूमि बलपूर्वक छीनकर उस पर स्वयं खेती न करें। उसने खालसा के अधिकारियों और जागीरदारों को बिना सम्राट की आज्ञा के वैवाहिक संबंध स्थापित करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया।
- चिकित्सालयों एवं वैद्यों की व्यवस्था: जहाँगीर ने बड़े-बड़े नगरों में गरीबों और असहायों की चिकित्सा के लिए शाही कोष के धन से सरकारी चिकित्सालयों और वैद्यों की व्यवस्था करने का फरमान जारी किया।
- विशेष दिनों में पशुवध का निषेध: अपने पिता अकबर की भाँति जहाँगीर ने भी कुछ निश्चित दिनों के लिए पशुओं का वध निषिद्ध कर दिया। प्रत्येक सप्ताह में दो दिन- बृहस्पतिवार को, जो उसके राज्यारोहण का दिन था और रविवार को, जो उसके पिता अकबर का जन्मदिन था, पशुवध का निषेध कर दिया गया।
- रविवार को सम्माननीय दिवस घोषित करना: अकबर की भाँति जहाँगीर भी रविवार को पवित्र और शुभ दिन मानता था। अकबर की धारणा थी कि रविवार सूर्य का दिन है और उसी दिन सृष्टि का प्रारंभ हुआ था। जहाँगीर ने भी अकबर के विचारों का समर्थन करते हुए रविवार के प्रति आदर सम्मान प्रदर्शित किया और आदेश दिया कि इस दिन पशु वध न किया जाए।
- मनसबदारों और जागीरदारों के पदों की पुष्टि: जहाँगीर ने अपने पिता के समय के समस्त कर्मचारियों, जागीरदारों तथा मनसबदारों को उनकी योग्यता के अनुसार उनके पदों पर पुनः प्रतिष्टित करने का आदेश दिया।
- धार्मिक संस्थाओं को दी गयी जागीरों की पुष्टि: सम्राट ने प्रार्थना और पूजा के लिए संतों, मौलवियों, मुल्लाओं, शेखों, धार्मिक संस्थाओं आदि को जागीर में कुछ भूमि अनुदान दी थी। इस अनुदानित भूमि को आईमी (ऐमा) या ‘मद्दमाश’ कहते थे। ऐसी भूमि को अनुदान की पुरानी शर्तों के अनुसार स्थायी कर दिया गया और ‘सद्र-ए-जहाँ’ को प्रत्येक दीन-दुःखी की सहायता करने का आदेश दिया गया।
- बंदियों की मुक्ति: जहाँगीर ने अपने राज्यारोहण के उपलक्ष्य में उन सभी कैदियों को मुक्त कर दिया, जो दीर्घकाल से किलों अथवा बंदीगृहों में बंद थे। इस प्रकार उपर्युक्त अध्यादेश (फरमान) जारी करके जहाँगीर ने अपने पिता अकबर की सहिष्णुता एवं उदारतापूर्ण नीति का अनुसरण किया।
खुसरो का विद्रोह (1606 ई. )
जहाँगीर के बादशाह बनने के बाद की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है- शहजादा खुसरो का विद्रोह। खुसरो जहाँगीर का ज्येष्ठ पुत्र और सबसे लोकप्रिय शहजादा था। यद्यपि खुसरो में व्यक्तिगत आकर्षण था, स्वाभाविक बुद्धि थी, अच्छी शिक्षा थी और उसका जीवन निर्दोष था, किंतु वह आवेश में भड़क उठने वाला एक अनुभवहीन युवक था। इस प्रकार के मस्तिष्क वाले नवयुवक को यदि ऊँचे पद तथा लोकप्रियता के लाभ प्राप्त हो जायें तो वह सहज ही षड्यंत्रों तथा कूटनीति का केंद्र बन जाता है। जब अकबर मृत्युशय्या पर था, तब राजा मानसिंह और अजीज कोका ने खुसरो को मुगल सिंहासन पर आसीन करने का असफल षड्यंत्र किया था।
जहाँगीर के राज्यारोहण के बाद भी खुसरो की बादशाह बनने की महत्त्वाकांक्षा समाप्त नहीं हुई और वह मुगल सिंहासन प्राप्त करने के लिए लालायित था। जहाँगीर ने खुसरो की अवांछनीय गतिविधियों से असंतुष्ट होकर उसे आगरा के दुर्ग में पहरा लगाकर कैदी की तरह रख दिया था। किंतु खुसरो 6 अप्रैल, 1606 ई. को 350 घुड़सवारों के साथ अपने दादा (अकबर) की कब्र पर फातिहा पढ़ने के बहाने पिता की निगरानी से निकल भागा। आगरा से खुसरो मथुरा की ओर भागा, जहाँ हुसैनबेग खाँ बदख्शाँ अपने 3000 अश्वारोहियों के साथ उससे आकर मिल गया। मथुरा से खुसरो दिल्ली होता हुआ पानीपत पहुँच गया, जहाँ लाहौर का दीवान अब्दुर्रहीम उससे (खुसरो) आकर मिल गया। खुसरो ने अब्दुर्रहीम को अपना वजीर नियुक्त किया और लाहौर की ओर प्रस्थान किया। तरनतारन में खुसरो ने सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव से भेंट की। गुरु अर्जुनदेव ने उसे दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता और अपना आशीर्वाद दिया। किंतु लाहौर के गवर्नर दिलावर खाँ ने लाहौर नगर के दरवाजे बंद करवा दिये और खुसरो को नगर में घुसने से रोक दिया। खुसरो ने असंतुष्ट होकर लाहौर नगर के एक प्रमुख दरवाजे को जला दिया और नगर का घेरा डाल दिया।
जहाँगीर को खुसरो के पलायन का संदेश मिला, तो उसने शेख फरीद बुखारी को खुसरो को पकड़ने के लिए रवाना किया और स्वयं भी दिल्ली की ओर चल पड़ा। दरअसल, जहाँगीर नहीं चाहता था कि खुसरो उसके शत्रुओं से मिलकर उसके विरुद्ध खुला विद्रोह कर दे। जहाँगीर को भय था कि वह उजबेगों या फारस के शाह से सहायता प्राप्त कर मुगल सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयत्न कर सकता है।
भैरोवाल का युद्ध और खुसरो की पराजय
जब खुसरो लाहौर का घेरा डाले हुए था, तब जहाँगीर भी पानीपत से लाहौर की ओर बढ़ता हुआ सुलतानपुर पहुँच गया। जहाँगीर ने खुसरो को समझाने के लिए मीर जमालुद्दीन को भेजा, किंतु बात नहीं बनी। अंत में, भैरोवाल स्थान पर खुसरो और शाही सेना के बीच एक संक्षिप्त, किंतु भयानक युद्ध हुआ, जिसमें खुसरो को पराजित होकर भागना पड़ा। युद्धक्षेत्र से भागते समय अब्दुर्रहीम, हुसैन बेग और कुछ विश्वसनीय मित्र उसके साथ थे। इसी बीच जहाँगीर ने लाहौर से महाबत खाँ और अलीबेग अकबरशाही को खुसरो को पकड़ने का आदेश दिया। मुगल सेनानायक सईद खाँ ने चिनाब नदी पार करते समय सुधरना के नावघाट पर खुसरो को बंदी बना लिया और लाहौर में जहाँगीर के सामने पेश किया। जहाँगीर ने खुसरो के समर्थकों को कठोर दंड दिया। हुसैनबेग को गाय की और अब्दुर्रहीम को गधे की खाल में सिलवाकर गधे पर बैठाकर लाहौर की सड़कों पर घुमाया गया। हुसैनबेग बारह घंटे जीवित रहकर मर गया, किंतु अब्दुर्रहीम बच गया और उसे चौबीस घंटे बाद मुक्त कर दिया गया। खुसरो के अन्य साथियों को, जिन्होंने उसके साथ विद्रोह में भाग लिया था, कामरान बाग के पास निर्दयतापूर्वक फाँसी दे दी गई। इस प्रकार कुछ ही सप्ताह में खुसरो का विद्रोह समाप्त हो गया।
बंदीगृह में डाल देने के बाद भी खुसरो की लोकप्रियता कम नहीं हुई। जून, 1607 ई. में जब जहाँगीर लाहौर से काबुल गया, उस समय खुसरो और उसके समर्थकों ने पुनः बादशाह को मारने की योजना बनाई। जहाँगीर ने स्वयं लिखा है कि खुसरो ने कई अधर्मी और चालाक व्यक्तियों के पास अपने आदमी भेजकर उनको कई प्रकार के प्रलोभन देकर जहाँगीर के विरुद्ध पड्यंत्र करने और उसकी हत्या करने के लिए प्रेरित किया। किंतु इस षड्यंत्र की खबर शहजादे खुर्रम को मिल गई और उसने जहाँगीर को सचेत कर दिया। फलतः जहाँगीर ने प्रमुख विद्रोहियों को पकड़वा कर मृत्युदंड दिया और खुसरो को अंधा करवा कर कारागार में डलवा दिया।
जहाँगीर 1 मार्च, 1608 ई. को काबुल से आगरा लौट आया। खुसरो भी बंदी बनाकर आगरा के दुर्ग में लाया गया। कुछ समय बाद जहाँगीर का वात्सल्य प्रेम जागृत हो गया और उसने शहजादे खुसरो की आँखों का इलाज करवाया, जिससे छः माह बाद उसकी एक आँख में रोशनी आ गई।
खुसरो के स्वस्थ हो जाने पर जहाँगीर के आदेशानुसार वह प्रतिदिन राजसभा में उपस्थित होने लगा। खुसरो अपनी शिष्टता, सद्व्यवहार, चारित्रिक श्रेष्ठता आदि गुणों के कारण अमीरों, अधिकारियों और जनता में लोकप्रिय था। जहाँगीर के पुत्रों में वह ज्येष्ठ भी था, इससे लोग उसे जहाँगीर का उत्तराधिकारी समझने लगे। अब खुसरो के प्रतिद्वंद्वी और अन्य भाई उसके प्रति शंकित रहने लगे। शहजादा खुर्रम और उसकी बीसवीं पत्नी नूरजहाँ, दोनों ने मिलकर सम्राट जहाँगीर को खुसरो की ओर से उदासीन कर दिया। फलतः 1616 ई. में जहाँगीर ने खुसरो को खुर्रम की हिरासत में दे दिया। चार वर्ष बाद 1620 ई. में खुसरो को खुर्रम के ससुर आसफ खाँ की हिरासत में रख दिया गया। इस प्रकार खुसरो पूर्ण रूप से कभी स्वतंत्र नहीं रह सका। खुर्रम 1622 ई. में शहजादा खुसरो को अपने साथ बुरहानपुर ले गया। कहा जाता है कि बुरहानपुर दुर्ग में उदर पीड़ा से खुसरो की मृत्यु हो गई। किंतु कुछ विद्वानों का अनुमान है कि खुर्रम ने गला घोंटकर खुसरो की हत्या करवा दी और उसे बुरहानपुर में दफना दिया। जहाँगीर ने जून, 1622 ई. में बुरहानपुर से खुसरो के शव को कब्र से खुदवाकर मँगवाया और इलाहाबाद के खुसरो बाग में उसकी माँ मानबाई (शाह बेगम) की कब्र के पास दफना दिया गया।
सिक्ख गुरु अर्जुनदेव को मृत्युदंड (1605 ई.)
जहाँगीर ने सिक्खों के प्रसिद्ध गुरु अर्जुनदेव को खुसरो के विद्रोह के संबंध में दंडित किया। लगता है कि जहाँगीर सिक्ख गुरु अर्जुनदेव से रुष्ट था। गुरु अर्जुनदेवसिंह ने विद्रोही खुसरो को आशीर्वाद और आर्थिक सहायता दी थी। जहाँगीर ने अर्जुनदेव पर दो लाख रुपये का अर्थदंड लगाया और यह आदेश दिया कि ‘ग्रंथ साहिब में से ऐसे प्रकरण निकाल दिये जायें जो हिंदुओं और मुसलमानों के विरुद्ध हैं।’ अर्जुनदेव ने कहा कि ग्रंथ साहिब के भजन न किसी हिंदू अवतार के विरोधी हैं और न मुसलमानों के पैगम्बर के। यह अवश्य कहा गया है कि पैगम्बर, पुरोहित और अवतार ईश्वर के बनाये हुए हैं और उसका पार कोई नहीं पा सकता। मेरे जीवन का उद्देश्य सत्य का प्रचार और असत्य का विरोध करना है, और यदि इस उद्देश्य की पूर्ति करते हुए यह नाशवान शरीर नष्ट हो जाता है, तो हो जाए, मैं इसे बड़ा सौभाग्य मानूँगा।’ इस प्रकार गुरु ने अर्थदंड के रूप में दो लाख रुपये देने से इनकार कर दिया। अंततः जहाँगीर ने गुरु पर राजद्रोह का अपराध लगाकर 30 मई, 1606 ई. को प्राणदंड दे दिया और उसके मठ तथा संपत्ति को जब्त कर लिया। सिख संप्रदाय में गुरु अर्जुनदेव को ‘प्रथम शहीद’ और ‘शहीदों का सरताज’ कहा गया है। जहाँगीर के इस कृत्य के संबंध में विन्सेंट स्मिथ का मानना है कि ‘यह दंड घोर राज्यद्रोह के अपराध में दिया गया था और मुख्यतः धार्मिक अत्याचार का परिणाम था।’ संभवतः गुरु अर्जुनदेव को दंड देने का कारण राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही थे। फिर भी, जहाँगीर के इस अमानवीय कृत्य ने सिखों और मुगलों को एक-दूसरे का कट्टर शत्रु बना दिया।
छिट-पुट विद्रोह और उनका दमन
बिहार विद्रोह का दमन
शाहजादा खुसरो के विद्रोह के असफल हो जाने के बाद भी बहुत से लोगों की उसके साथ सहानुभूति बनी रही। 1610 ई. में बिहार में कुतुबुद्दीन नामक एक नवयुवक ने स्वयं को शहजादा खुसरो घोषित करके पटना पर अधिकार कर लिया। उस समय बिहार का गर्वनर अफजल खाँ गोरखपुर में था। विद्रोह की सूचना मिलते ही उसने पटना पहुँचकर कुतुबुद्दीन को परास्त किया तथा उसका और उसके साथियों का वध करवा दिया।
बंगाल विद्रोह का दमन
सल्तनत काल से ही बंगाल के सूबेदार दिल्ली के विरुद्ध विद्रोह करने को तत्पर रहते थे। यद्यपि अकबर ने बंगाल को जीत लिया था, किंतु वह वहाँ की अफगान शक्ति का पूर्णरूपेण दमन नहीं कर सका था। बंगाल में उस्मान खाँ (ख्वाजा उथमान खाँ लोहानी) की अध्यक्षता में अफगान उपद्रव मचा रखे थे और मुगलों को बंगाल से बाहर निकालने का प्रयत्न कर रहे थे। उस्मान खाँ और उसके भाई मूसा खाँ ‘बारहभुईयाँ’ के नाम से जाने जाते थे।
जहाँगीर ने 1608 ई. में बिहार के गवर्नर इस्लाम खाँ को पूर्वी प्रदेशों का सूबेदार बनाकर भेजा। उसने विद्रोहियों का दमन करने के लिए अपनी प्रांतीय राजधानी राजमहल से पूर्वी बंगाल में ढाका स्थानान्तरित कर अफगानों का दमन करना आरंभ किया। इसके बाद शुजात खाँ के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर अफगान विद्रोहियों के विरुद्ध सैनिक अभियान किये गये। 12 मार्च, 1612 ई. को मुगलों-अफगानों के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें उस्मान खाँ पराजित हुआ और मारा गया।
जहाँगीर ने पराजित अफगानों के साथ उदारता का व्यवहार किया और योग्य अफगानों को मुगल सेना में ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। इस प्रकार बंगाल में फिर से मुगल सत्ता स्थापित हो गई और मुगलों तथा अफगानों में शताब्दियों से चली आ रही शत्रुता समाप्त हो गई। इस्लाम खाँ ने 1613 ई. में कामरूप को जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ के अनुसार बिहार में संग्रामसिंह नामक एक जागीरदार ने अराजकता उत्पन्न की, जिसे बिहार के सूबेदार ने पराजित कर मार डाला।1610 ई. में दिल्ली के आस-पास विद्रोह हुए। 1611 ई. में कन्नौज और कालपी में भी विद्रोह हुये, जिनको वहाँ के जागीरदार खानेखाना ने कुचल दिया। 1613 ई. में दलपत ने विद्रोह किया, किंतु उसे पकड़कर मृत्युदंड दे दिया गया। 1611 ई. में सिंधु के पास रोशनिया संप्रदाय के लोगों ने अहमद के नेतृत्व में विद्रोह किया। जहाँगीर ने इस विद्रोह को भी कुचल दिया।
जहाँगीर के विरुद्ध उड़ीसा में खुर्दा के राजा पुरुषोत्तमदेव ने विद्रोह किया। 1611 ई. में टोडरमल के पुत्र कल्याणमल को उड़ीसा का गवर्नर बनाया गया। कल्याणमल ने पुरुषोत्तमदेव को पराजित कर न केवल मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया, बल्कि उसे अपनी पुत्री को भी मुगल हरम में भेजना पड़ा। किंतु 1617 ई. में पुरुषोत्तमदेव ने पुनः विद्रोह किया। उड़ीसा के तत्कालीन सूबेदार मुकर्रम खाँ ने पुरुषोत्तमदेव पर आक्रमण करने की योजना बनाई, किंतु पुरुषोत्तमदेव खुर्दा से भाग गया और उसका राज्य मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
बिहार में 1615 ई. में राजा दुर्जनसाल ने उपद्रव किया और बहुमूल्य हीरों की खानों वाला स्थान ‘खोखर’ जीत लिया। नूरजहाँ के भाई इब्राहीम ने उसे पराजित किया और खोखर क्षेत्र मुगल राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
इसके अलावा, पश्चिमी भारत में कच्छ के क्षेत्र की लड़ाकू जातियों ने उपद्रव किया, जिन्हें मुगल सेनानायक राजा ‘विक्रमाजीत’ ने परास्त कर मुगलों के अधीन कर लिया। गुजरात में मुजफ्फर गुजराती ने भी विद्रोह किया, किंतु उसे शीघ्र ही कुचल दिया गया। 1617 ई. में काठियावाड़ में जैनपुर नामक स्थान पर एक सामंत ने विद्रोह किया, किंतु शाही सेना द्वारा कार्यवाही किये जाने पर उसने आत्मसमर्पण कर दिया।
जहाँगीर के विजय अभियान
जहाँगीर को उत्तराधिकार में एक विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था। बादशाह अकबर ने संपूर्ण उत्तरी भारत को विजित कर दक्षिणी भारत के खानदेश और अहमदनगर राज्य पर भी अधिकार कर लिया था। अकबर के समान जहाँगीर भी साम्राज्यवादी और महत्त्वाकांक्षी था और उसने भी युद्धों और विजयों के बल पर अपने साम्राज्य का विस्तार करने का प्रयत्न किया।
मेवाड़ के साथ संघर्ष (1606-1615 ई.)
जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटना मेवाड़ की विजय है। अकबर जीवनभर मेवाड़ से संघर्ष करता रहा, किंतु उसकी मेवाड़ विजय की कामना कभी पूरी नहीं हो सकी थी। हल्दीघाटी के युद्ध (1876 ई.) के कुछ समय बाद राणा प्रताप ने चित्तौड़ को छोड़कर मेवाड़ के सभी प्रदेश अकबर से छीन लिये थे।
राणा प्रताप की मृत्यु (1597 ई.) के बाद उसका पुत्र अमरसिंह गद्दी पर बैठा। 1599 ई. में अकबर ने अमरसिंह के विरुद्ध सलीम को नियुक्ति किया था, किंतु सलीम का यह अभियान प्रायः निष्फल ही रहा। इस विफलता के बाद बादशाह अकबर ने 1603 ई. में सलीम को पुनः मेवाड़ अभियान पर भेजा, किंतु शहजादे सलीम ने इस अभियान में भी कोई रुचि नहीं दिखाई।
मेवाड़ के विरुद्ध प्रथम अभियान (1605 ई.)
जहाँगीर ने अपने सिंहासनारोहण के कुछ माह बाद 1605 ई. में अपने दूसरे पुत्र शाहजादे परवेज को एक विशाल सेना के साथ मेवाड़ अभियान पर भेजा। जहाँगीर ने परवेज की सहायता के लिए अमरसिंह के चाचा सागरसिंह को भी भेजा, जो अपने भतीजे अमरसिंह का साथ छोड़कर मुगल दरबार में वेतनभोगी बन गया था। जहाँगीर ने सागरसिंह को चित्तौड़ दुर्ग तथा मेवाड़ के मुगल प्रदेशों का राणा घोषित कर दिया। मुगल सेना और अमरसिंह की राजपूत सेना के बीच देवार की घाटी में भीषण युद्ध हुआ, किंतु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। इसी बीच शहजादा खुसरो ने जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिसके कारण जहाँगीर ने परवेज को वापस बुला लिया और मेवाड़ अभियान का कार्य जगन्नाथ कछवाहा को सौंपा गया, किंतु उसे भी कोई विशेष सफलता नहीं मिली।
मेवाड़ के विरुद्ध द्वितीय अभियान (1608-1609 ई.)
जहाँगीर ने 1608 ई. में मेवाड़-विजय का कार्य महाबत खाँ को सौंपा। महाबत खाँ ने अपनी विशाल सेना के साथ मेवाड़ पर आक्रमण किया और विजयी होता हुआ ‘गिरवा’ तक पहुँच गया, किंतु राजपूतों के आकस्मिक हमलों, विशेषकर राजपूत सेनापति बाघसिंह के रात्रि आक्रमणों से महाबत खाँ के प्रयत्न निष्फल हो गये। फलतः जहाँगीर ने उसे वापस बुला लिया।
जून, 1609 ई. में महाबत खाँ के स्थान पर जहाँगीर ने अब्दुल्ला खाँ को ‘फिरोजजंग’ की उपाधि देकर बख्शी अब्दुर्रजाक के साथ मेवाड़ के विरुद्ध भेजा। यद्यपि अब्दुल्ला खाँ ने बड़ी तीव्र गति से मेवाड़ पर आक्रमण किया और अमरसिंह को पहाड़ियों में शरण लेने के लिए बाध्य कर दिया, किंतु वह अमरसिंह को पराजित नहीं कर सका। यही नहीं, राजपूतों ने राणापुर की घाटी के युद्ध में अब्दुल्ला खाँ को पराजित करके गोडवाड़ परगने का क्षेत्र मुगलों से छीन लिया।
अब्दुल्ला खाँ की पराजय के बाद जहाँगीर ने 1611 ई. में मऊ और पठानकोट क्षेत्र के तंवर अथवा तोमर वंश के राजपूत राजा बासु को मेवाड़ के विरुद्ध नियुक्त किया। राजा बासु की सहायता के लिए मालवा के दो जागीरदार सफदर खाँ और बदोक उजजमा भी भेजे गये। किंतु राजा बासु को भी राणा के विरुद्ध कोई विशेष सफलता नहीं मिली। मेवाड़ अभियान के दौरान ही राजा बासु की शाहाबाद में मृत्यु (1613 ई.) हो गई और इस प्रकार जहाँगीर का यह दूसरा अभियान भी असफल हो गया।
तृतीय अभियान और मेवाड़ विजय (1613-1615 ई.)
जहाँगीर ने 1614 ई. में अजीज कोका (खुसरो का ससुर) और शाहजादे खुर्रम को एक साथ मेवाड़ के विरुद्ध अभियान पर भेजा, किंतु अजीज कोका और खुर्रम के बीच मतभेद हो गया। अतः अजीज कोका को वापस बुलाकर ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया, जहाँ से बाद में उसे मुक्त कर दिया गया।
अब जहाँगीर ने शहजादे खुर्रम के नेतृत्व में एक विशाल सेना मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजी। खुर्रम अपनी विशाल सेना के साथ दिसंबर, 1613 ई. अजमेर से मॉडलगढ़ होता हुआ उदयपुर पहुँच गया। उसने मेवाड़ को चारों ओर से घेर लिया और उत्तरी क्षेत्र को रौंदकर अपने अधीन कर लिया। राणा को चांवड से भागकर आंतरिक पर्वतीय उपत्यकाओं में शरण लेनी पड़ी। अमरसिंह के पुत्र कुंवर भीम के नेतृत्व में हजारों राजपूतों ने मुगल सेना का प्रतिरोध किया। अंत में, मेवाड़ के सामंतों और राजकुमार कर्ण ने राणा को मुगलों से शांति और संधि करने की सलाह दी।
मुगल-मेवाड़ संधि (1615 ई.)
प्रतिकूल परिस्थिति और राजकुमार कर्ण तथा अन्य राजपूत अमीरों के आग्रह पर राणा अमरसिंह ने अपने मामा शुभकर्ण तथा विश्वासपात्र सरदार हरदास झाला को संधि-प्रस्ताव के साथ शहजादा खुर्रम के पास भेजा। खुर्रम ने राणा के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया और राय सुंदरदास के माध्यम से जहाँगीर की भी स्वीकृति प्राप्त कर ली। अंततः 5 फरवरी, 1615 ई. को राणा अमरसिंह ने अपने दो भाइयों, तीन पुत्रों तथा कई सरदारों और अधिकारियों सहित गोगुंदा में शाहजादा खुर्रम से भेंट की। शाहजादा ने भी अब्दुल्ला खाँ, राजा सूरसिंह, राजा वीरसिंह बुंदेला, सैयद सैफख आरा आदि को राणा के स्वागत के लिए भेजा। राणा ने खुर्रम को श्रेष्ठतम वस्तुएँ उपहार में दी। बदले में खुर्रम ने भी राणा, उसके बंधुओं, पुत्रों, सामंतों आदि को भी बहुमूल्य भेटें प्रदान की और उनका अभिनंदन किया। इस प्रकार 1615 ई. में मुगलों और राजपूतों के बीच संधि हो गई। इस संधि के संबंध में जहाँगीर अपनी आत्मकथा ‘तुजुके जहाँगीरी’ में लिखता है, ‘राणा अमरसिंह तथा उसके पूर्वजों ने कभी भी न तो किसी सम्राट से भेंट की थी और न अधीनता ही स्वीकार की थी, किंतु मेरे भाग्यशाली शासन में वह अधीनता स्वीकार करने को तैयार हो गया।’
मुगल-मेवाड़ संधि की शर्तें
1615 ई. की मुगल-मेवाड़ संधि की शर्तों के अनुसार राणा अमरसिंह ने मुगल बादशाह जहाँगीर की अधीनता स्वीकार कर ली। दूसरे, चित्तौड़ के किले सहित मेवाड़ के समस्त क्षेत्र राणा अमरसिंह को इस शर्त पर लौटा दिये गये कि चित्तौड़ के किले की न तो कभी मरम्मत की जायेगी और न कभी उसकी किलेबंदी की जायेगी। तीसरे, राणा अमरसिंह शाही दरबार में उपस्थित नहीं होगा, किंतु उसका पुत्र युवराज कर्णसिंह अपनी एक हजार घुड़सवार सेना के साथ मुगल सम्राट की सेवा में उपस्थित रहेगा। चौथे, अन्य राजपूत राजाओं की भाँति राणा को मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा। इस प्रकार 1615 ई. की इस संधि से मेवाड़ और मुगलों के बीच लंबे समय से चले आ रहे पुराने वैमनस्य का अंत हो गया।
कुछ विद्वान इस संधि के लिए अमरसिंह की आलोचना करते हैं और चित्तौड़ की मरम्मत में लगे प्रतिबंध को अपमानजनक मानते हैं। परंतु यह आलोचना उचित नहीं है। मेवाड़ जैसे छोटे से राज्य का शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के विरुद्ध लगातार संघर्ष करते रहना संभव नहीं था। राणा अमरसिंह ने मुगलों के साथ संधि की जिन शर्तों को स्वीकार किया, वह सम्मानजनक थीं। इसमें राणा को न तो किसी शाही राजकुमारी का मुगलों से विवाह करना था और न ही शाही दरबार में उपस्थित होना था। इस प्रकार मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार करके राणा ने न केवल चित्तौड़ के किले सहित मेवाड़ के सभी क्षेत्रों को पुनः प्राप्त कर लिया, बल्कि अपनी प्रजा को भी शांति प्रदान की।
जहाँगीर ने भी राणा के प्रति उदारतापूर्ण नीति का अनुसरण कर अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। मार्च, 1615 ई. में नौरोज के अवसर पर कर्णसिंह को 5000 जात और 5000 सवार का मनसब देकर दरबार में सम्मानित किया गया। इसके बाद जहाँगीर ने राणा अमरसिंह और कर्णसिंह की घोड़े पर आसीन प्रतिमाएँ बनवाकर आगरा के दुर्ग में झरोखे के नीचे एक उद्यान में स्थापित करवाई। इस प्रकार जहाँगीर ने एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ और उदार सम्राट के रूप में राणा के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया और उसके राज्य के आंतरिक मामलों में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। कुल मिलाकर, मेवाड़-मुगल संधि जहाँगीर की राजनीतिक विजय और खुर्रम की व्यक्तिगत सफलता थी। मेवाड़ अभियान की सफलता से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने शहजादे खुर्रम को पंद्रह हजार का मनसब और ‘शाह खुर्रम’ की उपाधि से सम्मानित किया।
जहाँगीर की दक्षिण नीति
अकबर की मृत्यु के समय (1605 ई.) मुगल साम्राज्य में संपूर्ण खानदेश तथा अहमदनगर राज्य के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे। जहाँगीर ने अपनी दक्षिण नीति के अंतर्गत अहमदनगर के शेष भाग तथा बीजापुर और गोलकुंडा को जीतने की योजना बनाई।
अहमदनगर विजय (1608-1610 ई.)
जहाँगीर के समय में अहमदनगर राज्य का प्रधानमंत्री मलिक अंबर था, जिसका जन्म संभवतः 1549 ई. में अबीसीनिया के एक हब्शी परिवार में हुआ था। बाल्यकाल में ही उसे दास बनाकर बगदाद के बाजार में ख्वाजा पीर बगदाद के हाथों बेच दिया गया। मलिक अंबर को लेकर ख्वाजा दक्षिण भारत आया, जहाँ उसे मुर्तजा निजामशाह प्रथम के मंत्री चंगेज खाँ ने खरीद लिया था। कालांतर में, दास मलिक अंबर अपनी असाधारण प्रशासन क्षमता, सैन्य-कुशलता और राजनीतिक दूरदर्शिता से अहमदनगर का प्रधानमंत्री बन गया था। उसने टोडरमल की लगान व्यवस्था से प्रेरणा ग्रहण कर अहमदनगर में भूमि सुधार किया, इसलिए उसे ‘दक्षिण का टोडरमल’ भी कहा जाता है। मलिक अंबर ने निजामशाही सेना में मराठों की भर्ती कर ‘गुरिल्ला-युद्ध पद्धति’ की शुरुआत की और जंजीरा द्वीप पर निजामशाही ‘नौसेना’ का गठन किया था। अकबर की मृत्यु के बाद मलिक अंबर अहमदनगर के उन समस्त प्रदेशों पर पुनः अधिकार करने का प्रयास करने लगा था, जिन्हें अकबर के समय में मुगलों ने अधिकृत कर लिया था।
जहाँगीर ने 1608 ई. में अहमदनगर की विजय करने के लिए अब्दुर्रहीम खानेखाना को 12 हजार घुड़सवारों के साथ दक्षिण भेजा। किंतु मलिक अंबर के वीरतापूर्ण विरोध के कारण खानेखाना को कोई सफलता नहीं मिली। इसके बाद, जहाँगीर ने 1610 ई. में शहजादा परवेज, खान-ए-जहाँ लोदी और अब्दुल्ला खाँ को दक्षिण-विजय के लिए नियुक्त किया। मुगल सेनापतियों ने 1611 ई. में अहमदनगर पर एक संयुक्त आक्रमण की योजना बनाई गई, जिसके अनुसार शहजादा परवेज तथा खान-ए-जहाँ लोदी को खानदेश की ओर से और अब्दुल्ला खाँ को गुजरात की ओर से अहमदनगर पर आक्रमण करना था। किंतु अब्दुल्ला खाँ ने निश्चित समय से पहले ही अहमदनगर पर आक्रमण कर दिया, जिसके कारण उसे मलिक अंबर से पराजित होना पड़ा और मुगलों को पीछे हटना पड़ा।
इस संयुक्त अभियान की विफलता के बाद जहाँगीर ने एक बार पुन अब्दुर्रहीम खानेखाना को दक्षिण अभियान का नेतृत्व सौंपा। 1612 ई. में खानेखाना को दक्षिण में कुछ सफलता अवश्य मिली, किंतु उसके विरोधियों ने उस पर घूस लेने का आरोप लगाया, जिसके कारण जहाँगीर ने नूरजहाँ की सलाह पर 1616 ई. में शहजादे खुर्रम को ‘शाह सुल्तान’ का पद प्रदान कर दक्षिण का सेनापति नियुक्त किया।
दक्षिण में खुर्रम की विजय और संधि (1617 ई.)
मार्च, 1617 ई. में एक ओर खुर्रम सेना सहित बुरहानपुर पहुँचा, तो दूसरी ओर जहाँगीर ने भी मांडू में अपना शिविर स्थापित कर लिया, जिससे दक्षिण के शासक हतोत्साहित हो गये। खुर्रम ने कूटनीति के बल पर बीजापुर के सुल्तान अली आदिलशाह से मित्रता कर ली और उससे अहमदनगर को सहायता देना बंद करवा दिया। खुर्रम की विशाल सेना और जहाँगीर की उपस्थिति से भयभीत होकर मलिक अंबर ने बीजापुर के सुल्तान की मध्यस्थता से 1617 ई. में खुर्रम से संधि कर ली। इस संधि के अनुसार मलिक अंबर ने बालाघाट का प्रदेश और अहमदनगर का दुर्ग मुगलों को सौंप दिया। इसके अतिरिक्त, उसने कर के रूप में भारी धनराशि भी देना स्वीकार किया। अहमदनगर का सुल्तान आदिलशाह स्वयं सोलह लाख के मूल्य की संपत्ति और माल-असबाब उपहारस्वरूप लेकर शाहजादा खुर्रम की सेवा में उपस्थित हुआ। जहाँगीर ने संधि की शर्तें स्वीकार कर ली और खुर्रम की कूटनीतिक सफलता से प्रसन्न उसे तीस हजार ‘जात’ और बीस हजार ‘सवार’ के मनसब के साथ ‘शाहजहाँ’ (संसार का राजा) की उपाधि से विभूषित किया। जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को दक्षिण के सूबे का, जिसमें अब बरार, खानदेश और अहमदनगर सम्मिलित थे, सूबेदार और उसके ज्येष्ठ पुत्र शाहनवाज को बारह हजार का मनसब देकर उसका सहायक नियुक्त कर दिया।
दक्षिण में खुर्रम की दूसरी विजय और संधि
किंतु शहजादे खुर्रम के वापस लौटते ही अहमदनगर में पुनः उपद्रव होने लगे। मलिक अंबर ने संधि की अवहेलना कर मुगलों के विरुद्ध बीजापुर तथा गोलकुंडा के सुल्तानों के साथ समझौता कर लिया। 1620 ई. तक उसने लगभग उन सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, जो 1617 ई. की संधि द्वारा मुगलों को दिये गये थे। यही नहीं, उसने अब्दुर्रहीम खानेखाना पर भी आक्रमण किया और उसे अहमदनगर के किले में घेर लिया। फलतः खानेखाना ने बादशाह जहाँगीर से पुनः खुर्रम को दक्षिण भेजने की प्रार्थना की।
खानेखाना की सहायता और मलिक अंबर का दमन करने के लिए जहाँगीर ने 1621 ई. में शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को पुनः एक विशाल सेना के साथ दक्षिण भेजा। शाहजहाँ ने बड़ी कुशलता से अहमदनगर की मराठा सेना को पराजित कर बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया। शाही सेना के आगमन से भयभीत होकर मलिक अंबर ने पुनः शाहजहाँ से संधि कर ली और मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। शाहजहाँ भी शीघ्रतिशीघ्र दक्षिण की समस्या को निपटाना चाहता था क्योंकि इस समय उसके प्रति नूरजहाँ के व्यवहार में परिवर्तन आ रहा था। संधि के अनुसार मलिक अंबर ने मुगलों से छीने हुए भू-भाग के अतिरिक्त अहमदनगर राज्य का कुछ और क्षेत्र तथा अठारह लाख रुपया भी मुगलों को दिया। मलिक अंबर के सहायक बीजापुर और गोलकुंडा को भी क्रमशः दस और बीस लाख रुपया आर्थिक दंड देना पड़ा। दक्षिण की इस विजय से शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के सम्मान में काफी वृद्धि हो गई।
काँगड़ा विजय (1615-1620 ई.)
प्राचीन काल में काँगड़ा का नाम ‘नगरकोट’ या ‘भीमकोट’ था। काँगड़ा का प्रसिद्ध दुर्ग पंजाब के उत्तर-पश्चिम में स्थित है, जिस पर राजपूतों का अधिकार था। काँगड़ा दुर्ग अपने सामारिक अवस्थति, वैभव और अभेद्यता के लिए जाना जाता है। पंजाब के इस पर्वतीय दुर्ग पर अधिकार करना मुगल साम्राज्य के लिए चुनौती थी। अकबर ने इस दुर्ग पर अधिकार करने का प्रयत्न किया था, किंतु उसे सफलता नहीं मिल सकी थी।
जहाँगीर ने मार्च, 1615 ई. में पंजाब के सूबेदार मुर्तजा खाँ को काँगड़ा के दुर्ग को जीतने के लिए भेजा, किंतु मुर्तजा खाँ दुर्ग को नहीं जीत सका और उसकी मृत्यु हो गई। मेवाड़ विजय से उत्साहित होकर जहाँगीर ने 1619 ई. में शहजादा खुर्रम को काँगड़ा विजय की जिम्मेदारी सौंपी और उसकी सहायता के लिए सुंदरदास (राजा विक्रमाजीत) को नियुक्त किया।
शहजादा खुर्रम और राजा विक्रमाजीत ने अक्टूबर 1620 ई. में काँगड़ा के दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और दुर्ग में रसद पहुँचने के सभी रास्तों को बंद कर दिया। यही नहीं, दुर्ग के चारों ओर खाइयाँ खोदकर सुरंगें बनवाई गईं और दुर्ग की रक्षा-प्राचीर को तोड़कर भीतर प्रवेश का मार्ग बनाया गया। दुर्ग में प्रवेश के समय भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें शाही सेना की विजय हुई और राजपूतों ने 16 नवंबर, 1620 ई. को आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार काँगड़ा के दुर्ग पर जहाँगीर का अधिकार हो गया।
काँगड़ा विजय के बाद जहाँगीर स्वयं 1621 ई. में काँगड़ा गया और अपने साथ काजी और कुछ विद्वान भी ले गया। काँगड़ा पहुँचने पर जहाँगीर के आदेश से वहाँ नमाज और ‘खुतबा’ पढ़ा गया और संभवतः एक गाय की बलि भी दी गई
किश्तवार विजय (1622 ई.)
कश्मीर में दक्षिण क्षेत्र में किश्तवार एक छोटी-सी रियासत थी। यद्यपि कश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग था, किंतु किश्तवार में स्वतंत्र हिंदू राजा शासन कर रहा था। जहाँगीर ने कश्मीर के मुगल सूबेदार दिलावर खाँ को किश्तवार की विजय करने का आदेश दिया। दिलावर खाँ ने किश्तवार पर सैनिक आक्रमण किया और वहाँ के हिंदू राजा को पराजित कर दिया। 1622 ई. में किश्तवार को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
कंधार का हाथ से निकलना
‘भारत का भारत का सिंहद्वार’ कहा जाने वाला कंधार का दुर्ग भारत और ईरान के बीच स्थित था, जो व्यापारिक एवं सामरिक दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। सबसे पहले 1522 ई. में बाबर ने इसे जीता था, किंतु 1558 ई. में यह मुगलों के हाथ से निकल गया था। 1594 ई में अकबर ने पुनः इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया था।
जहाँगीर के शासन के प्रारंभ में 1607 ई. में खुसरो के विद्रोह के कारण ईरान के शासक शाह अब्बास (1587-1629 ई.) ने खुरासानी तथा अन्य अमीरों को कंधार को जीतने के लिए प्रोत्साहित किया था, किंतु कंधार के मुगल दुर्गपति शाहबेग और जहाँगीर द्वारा मिर्जा गाजी के नेतृत्व में भेजी गई सहायक सेना ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया था। तुर्की के विरुद्ध युद्ध में संलग्न होने से शाह अब्बास अभी मुगलों से संघर्ष मोल लेना नहीं चाहता था, इसलिए उसने अपने राजदूतों को बहुमूल्य भेटों के साथ मुगल दरबार में भेजकर अपनी सद्भावना प्रकट की और मुगल बादशाह जहाँगीर को यह भरोसा दिलाया कि कंदहार जीतने की उसकी कोई इच्छा नहीं है। जहाँगीर उसकी कूटनीतिक चाल को समझ नहीं सका और कंदहार की सुरक्षा के प्रति उदासीन हो गया।
शाह अब्बास ने 1622 ई. में कंधार दुर्ग पर आक्रमण किया और उसका घेरा डाल दिया। कंधार का मुगल किलेदार 45 दिन तक आक्रमणकारी का सामना करने के बाद पराजित हो गया। जहाँगीर ने कंदहार की रक्षा के लिए शहजादा खुर्रम को नियुक्त किया, किंतु मुगल दरबार के षड्यंत्रों और कुचक्रों के कारण खुर्रम ने कंधार जाने से इनकार कर दिया। फलतः मुगल राजदरबार के षड्यंत्रों का लाभ उठाकर शाह अब्बास ने 1622 ई. में बिना किसी विशेष युद्ध के कंधार पर अधिकार कर लिया। इसके बाद, जहाँगीर ने शाहजादा परवेज को कंधार जीतने का आदेश दिया, किंतु खुर्रम के विद्रोह के कारण उसे भी सफलता नहीं मिली। इस प्रकार कंदहार जहाँगीर के हाथ से निकल गया, जिससे मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा।
यद्यपि कंधार जहाँगीर के हाथ से निकल गया था, फिर भी उसकी प्रमुख विजयें मेवाड़, काँगड़ा और किश्तवार थीं। इसके द्वारा उसने अपने पिता अकबर से उत्तराधिकार में प्राप्त विशाल साम्राज्य की सीमाओं में और अधिक वृद्धि की।
खुर्रम (शाहजहाँ) का विद्रोह (1622-1626 ई.)
बादशाह जहाँगीर के पाँच पुत्र थे- खुसरो, परवेज, खुर्रम, जहाँदार और शहरयार, किंतु इनमें खुसरो सबसे योग्य और मिलनसार था। जहाँगीर के शासनकाल में प्रारंभ में खुसरो ने मुगल सिंहासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह किया था, जिससे असंतुष्ट होकर जहाँगीर ने उसे कैद करवा लिया और 1622 ई. में नूरजहाँ के सहयोग से खुर्रम ने उसकी हत्या करवा दी थी।
खुसरो के बाद मुगल शाहजादों में खुर्रम ही सर्वाधिक योग्य और यशस्वी था। अधिकांश अमीर उसको जहाँगीर का उत्तराधिकारी भी बनाना चाहते थे और वह स्वयं भी महत्त्वाकांक्षी था। परवेज और जहाँदार अयोग्य और विलासी थे, इसलिए उनके उत्तराधिकार का सवाल ही नहीं था।
जहाँगीर का पाँचवाँ पुत्र शहरयार था। नूरजहाँ जैसी महत्त्वाकांक्षी महिला को पता था कि विलासी और बीमार जहाँगीर की मृत्यु के बाद यदि खुर्रम (शाहजहाँ) बादशाह बन गया, तो वह अपने प्रभुत्व और अधिकारों से वंचित हो जायेगी। नूरजहाँ ने शेर अफगान से उत्पन्न अपनी पुत्री लाड़ली बेगम (मिहिर-उन्-निसा बेगम) का विवाह 1621 ई. में शहरयार से करवा दिया और उसे 8000 जात और 4000 सवार का मनसबदार बनवा दिया। अब वह जहाँगीर के बाद अपने दामाद शहरयार को बादशाह बनाने का षड्यंत्र करने लगी और खुर्रम को राजधानी से दूर रखने के लिए षड्यंत्र करने लगी।
जब 1622 ई. में ईरान के शाह अब्बास ने कंधार पर आक्रमण कर उसे घेर लिया, तो नूरजहाँ ने जहाँगीर से खुर्रम को सेना सहित कंधार जाने का आदेश जारी करवा दिया। इस समय खुर्रम दक्षिण में था और नूरजहाँ की चाल को समझता था। अतः उसने बादशाह के आदेश की अवहेलना की और कंधार जाने से इनकार कर दिया। नूरजहाँ के प्रभाव में बादशाह ने खुर्रम को धमकी भरा आदेश भेजा कि वह अपने अधीनस्थ सभी सैनिकों एवं सेनापतियों को राजधानी में भेज दे, किंतु शाहजहाँ ने बादशाह की इस आज्ञा का भी पालन नहीं किया। इस बीच नूरजहाँ ने धौलपुर की जागीर अपने दामाद शहरयार को दिलवा दी और उसके मनसब में बढोत्तरी कर उसे कंधार जाने वाली मुगल सेना का सेनापति भी नियुक्त करवा दिया। यही नहीं, पंजाब में शाहजहाँ की हिसार-फिरोजा की जागीर भी शहरयार को दे दी गई। ऐसी स्थिति में खुर्रम (शाहजहाँ) के पास जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।
शाहजहाँ ने 1623 ई. में एक बड़ी सेना के साथ दक्षिण से उत्तर की ओर प्रस्थान किया और मांडू व सीकरी होते हुए आगरे पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ा। इस समय बैरम खाँ का पुत्र अब्दुर्रहीम खानेखाना भी खुर्रम के साथ था, जो जहाँगीर का शिक्षक रह चुका था। शाही सेना ने, जिसका नाममात्र का नेतृत्व शाहजादा परवेज के हाथ में था, किंतु वास्तविक नेतृत्व महाबत खाँ कर रहा था, 1623 ई. में दिल्ली के दक्षिण बलोचपुर विलोचपुर में खुर्रम को बुरी तरह पराजित कर दिया। महाबत खाँ से पराजित होकर खुर्रम मांडू होते हुए बुरहानपुर पहुँचा और अहमदनगर के प्रधानमंत्री मलिक अंबर से सहायता माँगी, किंतु सफलता नहीं मिली। महाबत खाँ और परवेज अभी भी खुर्रम का पीछा कर रहे थे। खुर्रम ने गोलकुंडा के सुलतान के यहाँ शरण लेने का प्रयास किया, किंतु शाही सेना के भय से उसने खुर्रम की कोई सहायता नहीं की।
दक्षिण से शाहजहाँ उड़़ीसा की ओर भागा। वहाँ का मुगल शासक अहमद बेग खाँ शाहजहाँ के आक्रमण से भयभीत होकर भाग गया और शाहजहाँ ने उड़ीसा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने बंगाल के मुगल सुबेदार इब्राहिम खाँ और उड़ीसा के सूबेदार अहमद बेग खाँ दोनों को परास्त कर दिया। इस विजय के बाद शाहजहाँ ने पटना के शासक को हराकर रोहतास के दुर्ग और जौनपुर पर अधिकार कर लिया। अब शाहजहाँ बंगाल, उड़ीसा और बिहार का स्वामी बन गया।
इसके बाद, शाहजहाँ आगरा और अवध पर आक्रमण करने के लिए इलाहाबाद की ओर बढ़ा, किंतु परवेज और महाबत खाँ के नेतृत्व में शाही सेना ने इलाहाबाद के पास उसे पुनः पराजित कर दिया। निराश और पराजित शाहजहाँ उड़ीसा व तेलंगाना होता हुआ दक्षिण की ओर भागा और मलिक अंबर से पुनः सहायता की याचना की। इस बार मलिक अंबर विद्रोही मुगल शहजादे को सहायता देने को तैयार हो गया। खुर्रम और मलिक अंबर ने संयुक्त रूप से बुहरानपुर के दुर्ग पर आक्रमण किया, किंतु शाही सेना ने उन्हें बुरी तरह पराजित कर दिया। निरंतर पराजयों से खुर्रम का धैर्य समाप्त हो गया और उसने बादशाह जहाँगीर से क्षमा-याचना की।
शाहजहाँ को क्षमादान
1626 ई में बादशाह जहाँगीर ने शाहजहाँ को आदेश भेजा कि यदि वह असीरगढ़ और रोहतास के दुर्गों को समर्पित कर दे और जमानत के तौर पर अपने पुत्रों- दाराशिकोह और औरंगजेब को, जो उस समय क्रमशः दस और आठ वर्ष के थे, मुगल दरबार में एक लाख रुपयों के साथ भेज दे, तो उसे क्षमा कर दिया जायेगा। खुर्रम ने बादशाह की शर्तें स्वीकार कर ली और 1626 ई. में अपने दोनों पुत्रों को मुगल दरबार में भेज दिया। बादशाह ने खुर्रम को उसके अपराधों के लिए क्षमा कर दिया और उसे जीवन-निर्वाह के लिए बालाघाट (मध्यप्रदेश) की जागीर प्रदान की। इस प्रकार खुर्रम के निष्फल विद्रोह का अंत हो गया, जिसमें जन-धन की बड़ी हानि हुई और मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा।
महाबत खाँ का विद्रोह
शाहजहाँ के बाद मुगल साम्राज्य में दूसरा महत्त्वशाली मुगल सेनापति महाबत खाँ था। महाबत खाँ और शहजादा परवेज बुरहानपुर में साथ-साथ थे। महाबत खाँ की बढ़ती शक्ति से नूरजहाँ का सशंकित होना स्वाभाविक था क्योंकि महाबत खाँ जहाँगीर के दूसरे पुत्र परवेज को जहाँगीर का पक्षधर था, जबकि नूरजहाँ अपने दामाद शहरयार को बादशाह के रूप में देखना चाहती थी। महाबत खाँ की शक्ति को कम करने के लिए ही नूरजहाँ ने शाहजहाँ को क्षमा दिलवाया था। अब नूरजहाँ ने परवेज को महाबत खाँ से अलग करने का निश्चय किया। उसने 1625 ई. में एक राज्यादेश द्वारा महाबत खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त करवा दिया और उसके स्थान पर खानेजहाँ लोदी को परवेज का वकील और प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त करवा दिया। शहजादा परवेज महाबत खाँ को अपनी शक्ति का स्तंभ मानता था और वह उससे अलग नहीं होना चाहता था। आसफ खाँ भी महाबत खाँ की बढ़ती हुई शक्ति और सम्मान से ईर्ष्या करता था और महाबत खाँ के पतन में अपनी बहन नूरजहाँ की बराबर सहायता कर रहा था। महाबत खाँ जानता था कि उसकी अनुपस्थिति में नूरजहाँ तथा आसफ खाँ दोनों बहन-भाई उसके विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे हैं।
महाबत खाँ विवश होकर बंगाल चला गया। इसी समय महावत खाँ पर कई गंभीर आरोप लगाये गये। पहला आरोप यह था कि उसने बंगाल से छीने हुए हाथी अभी दरबार में नहीं भेजे थे और जागीर की एक बड़ी धनराशि का हिसाब नहीं दिया था। दूसरा आरोप यह था कि उसने बिना शाही अनुमति के अपनी पुत्री का विवाह ख्वाजा उमर नक्शबंदी के पुत्र बरखुरदार के साथ कर दिया था। समकालीन इतिहासकार मोतमिद खाँ के ‘इकबालनामा-ए-जहाँगीरी’ से पता चलता है कि बरखुरदार को दरबार में बुलाकर उसके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया था। इसी समय यह खबर भी फैल गई कि आसफ खाँ महावत खाँ को बंदी बनाना चाहता है। अब महाबत खाँ के पास विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
इस समय बादशाह जहाँगीर और नूरजहाँ लाहौर से काबुल जाने वाले मार्ग में झेलम नदी के किनारे शाही शिविर में थे। महाबत खाँ ने बड़ी तत्परता से अपने चार-पाँच हजार राजपूत सैनिकों के साथ शाही शिविर को घेर लिया, किंतु उस समय नूरजहाँ और आसफ खाँ अधिकांश शाही सैनिकों के साथ झेलम नदी पार कर चुके थे। नदी के इस ओर शाही शिविर में केवल बादशाह रह गया था। महाबत खाँ की राजपूत सेना ने जहाँगीर को बंदी बना लिया और अपने शिविर में ले जाकर नजरबंद कर दिया।
नदी के दूसरी ओर पहुँच चुके नूरजहाँ और आसफ खाँ को महाबत खाँ के विद्रोह और जहाँगीर के बंदी बनाये जाने की सूचना से बड़ा दुख हुआ। नूरजहाँ ने आसफ खाँ और अपने विश्वासपात्र सैनिकों के साथ बादशाह को मुक्त कराने के लिए प्रस्थान किया, किंतु सफलता नहीं मिली। नूरजहाँ ने पराजित होकर आत्मसमर्पण कर दिया और उसे बादशाह के साथ रहने की अनुमति मिल गई। आसफ खाँ ने भागकर अटक के दुर्ग में शरण ली और फिदई खाँ रोहतासगढ़ भाग गया। महाबत खाँ ने अपने पुत्र बहरोज को अटक भेजा, जहाँ आसफ खाँ ने भी उसकी अधीनत स्वीकार कर ली। इस प्रकार प्रशासन पर महाबत खाँ का प्रभुत्व स्थापित हो गया और जहाँगीर, नूरजहाँ तथा आसफ खाँ तीनों ही उसके बंदी थे।
जहाँगीर की मुक्ति और महाबत खाँ का पतन
महाबत खाँ के प्रभुत्व से अन्य मुगल अमीरों को ईर्ष्या होने लगी। इसी समय बादशाह जहाँगीर को सूचना मिली कि खुर्रम दक्षिण से राजधानी की ओर आ रहा है। अतः शाही शिविर काबुल से राजधानी की ओर चल पड़ा और सैनिक भर्ती के लिए आदेश जारी किये गये। रास्ते में शाही सैनिकों की बढ़ती संख्या, जहाँगीर के अहदी सैनिकों और महाबत खाँ के राजपूत सैनिकों के विवादों से महाबत खाँ की स्थिति खराब हो गई, जिसका लाभ उठाकर नूरजहाँ ने अनेक पदाधिकारियों को लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया। रोहतास के निकट पहुँचने पर बादशाह जहाँगीर और नूरजहाँ ने सैनिक निरीक्षण के बहाने शाही सेना की कमान अपने हाथों में ले ली। इस प्रकार नूरजहाँ ने अपने राजनीतिक दाँव-पेंच से जहाँगीर को महाबत खाँ की कैद से मुक्त कर लिया। महाबत खाँ ने लाहौर की ओर प्रस्थान किया, किंतु बंधक के रूप में आसफ खाँ, शहजादा दानियाल के पुत्रों तथा एक-दो उच्च मनसबदारों को भी अपने साथ लेता गया।
महाबत खाँ के पतन के बाद जहाँगीर ने रोहतास में दरबार किया और शाही पदों का वितरण किया। उसने महाबत खाँ को आदेश दिया गया कि वह बंधकों को मुक्त कर खुर्रम के विरुद्ध थट्टा के लिए प्रस्थान करे। महावत खाँ ने शाही आदेश का पालन किया क्योंकि उसे अब अपनी शक्ति का सही अनुमान हो गया था। समकालीन इतिहासकार मोतमिद खाँ लिखता है कि ‘कुछ समय तक वह राजा के देश (मेवाड़) की पहाड़ियों में छिपा रहा और फिर शाहजहाँ के पास अपने आदमी भेजकर पश्चाताप प्रकट किया। शाहजहाँ ने कृपापूर्वक उसकी क्षमा-याचना को स्वीकार कर लिया और उसे अपने पास बुलाकर उसके साथ कृपापूर्ण व्यवहार किया।’ महाबत खाँ ने दक्षिण की ओर भागकर खुर्रम की सहायता करना प्रारंभ कर दिया, क्योंकि 28 अक्टूबर, 1626 ई. को शहजादे परवेज की मृत्यु हो चुकी थी। इस प्रकार महाबत खाँ के विद्रोह का भी अंत हो गया।
मुगल राजनीति पर नूरजहाँ का प्रभाव
जहाँगीर के शासनकाल की एक महत्त्वपूर्ण घटना नूरजहाँ से उसका विवाह है। नूरजहाँ वास्तविक नाम मेहरुन्निसा (प्रेम करने योग्य स्त्री) था, जो ईरान के निवासी मिर्जा गयासबेग और असमत बेगम की पुत्री थी। मिर्जा गयासबेग अपने पिता ख्वाजा मोहम्मद, जो खुरासान के सूबेदार मुहम्मद खाँ तकलू का वजीर था, की मृत्यु के बाद नौकरी की खोज में अपनी गर्भवती पत्नी, दो पुत्र और एक पुत्री के साथ 1577 ई. में ईरान से हिंदुस्तान की ओर चल़ा। रास्ते में कंधार में उसकी पत्नी असमत बेगम ने 1577 ई. में एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम ‘मेहरुन्निसा’ रखा गया। मिर्जा गयासबेग पेशावर होते हुए लाहौर पहुँचा, जहाँ उसके एक पूर्व परिचित की सहायता से उसे बादशाह अकबर के दरबार में एक साधारण पद पर नौकरी मिल गई, किंतु अपनी योग्यता के कारण गयासबेग 1595 ई. में काबुल का दीवान नियुक्त हो गया। इसके बाद उसकी नियुक्ति शाही कारखाने के ‘दीवान व्यूतात’ के पद पर हुई।
कहा जाता है कि शहजादा सलीम मेहरुन्निसा के सौंदर्य पर मुग्ध होकर उससे विवाह की इच्छा करने लगा था, किंतु बादशाह अकबर के विरोध के कारण 1594 ई. में मेहरुन्निसा का विवाह अलीकुली बेग नामक एक ईरानी के साथ हो गया। अलीकुली की वीरता से प्रभावित होकर सलीम ने उसे ‘शेर अफगन’ की उपाधि दी थी। जहाँगीर के बादशाह बनने के बाद एक घटनाचक्र में अलीकुली बेग बंगाल में मारा गया और मेहरुन्निसा अपनी पुत्री लाडली बेगम के साथ मुगल हरम में राजमाता सलीमा बेगम की सेवा में रख दी गई। मार्च, 1611 ई. में नौरोज के अवसर पर जहाँगीर ने मीना बाजार में मेहरुन्निसा को देखा और 25 मई, 1611 ई. को उससे विवाह कर लिया। जहाँगीर ने मेहरुन्निसा को पहले ‘नूरमहल’ की उपाधि दी, फिर पाँच वर्ष बाद उसे ‘नूरजहाँ’ की उपाधि से विभूषित किया। भारत के इतिहास में वह नूरजहाँ के नाम से ही प्रसिद्ध है।
नूरजहाँ के रानी बनते ही उसके संबंधियों के पद और प्रतिष्ठा में वृद्धि होने लगी। नूरजहाँ के पिता गयासबेग को ‘एत्माद्दौला’ की उपाधि के साथ संयुक्त वजीर का पद मिल गया और उसके पुत्र आसफ खाँ की पदोन्नति हो गई। वास्तव में, जहाँगीर की बढ़ती हुई उम्र और गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण राजशक्ति नूरजहाँ के हाथों में आ गई और “अब राज्य की मुख्य शक्तियाँ नूरजहाँ बेगम में निहित हो गईं। जहाँगीर प्रायः कहता था कि, ‘उसने बादशाहत बेगम नूरजहाँ को दे दी है और उसे केवल सेर भर शराब तथा आधा सेर कबाब चाहिए।’
नूरजहाँ के राजनीतिक प्रभुत्व का प्रथम काल 1611 ई. से 1622 ई. तक माना जाता है, जब नूरजहाँ गुट का मुगल प्रशासन में बोलबाला रहा। नूरजहाँ गुट (जुनटा) में उसकी माँ असमत बेगम, पिता एत्मादुद्दौला, भाई आसफ खाँ और आसफ खाँ का दामाद शहजादा खुर्रम सम्मिलित थे। इस काल में नूरजहाँ झरोखा दर्शन देती थी और सिक्कों पर भी उसका नाम अंकित होता था। इस समय नूरजहाँ और खुर्रम के बीच किसी प्रकार का मतभेद नहीं था और दरबार में इस गुट का प्रभुत्व बना रहा।
नूरजहाँ के राजनीतिक प्रभुत्व का दूसरा काल 1622 ई. से 1627 ई. (जहाँगीर की मृत्यु) तक माना जा सकता है। इस समय नूरजहाँ का शक्तिशाली गुट भंग हो गया और उसके परामर्शदाता माता-पिता भी नहीं रहे। 1620 ई. में नूरजहाँ ने अपनी पुत्री लाडली बेगम, जो शेर अफगन से पैदा हुई थी, का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार से कर दिया था, जिससे नूरजहाँ और खुर्रम के बीच दूरी पैदा हो गई थी। अब नूरजहाँ अपने दामाद शहरयार को मुगल बादशाह बनाने का प्रयत्न करने लगी थी, जबकि उसका भाई आसफ खाँ अपने दामाद खुर्रम का समर्थन करने लगा था। इस प्रकार नूरजहाँ का गुट भंग हो गया और नूरजहाँ और खुर्रम एक दूसरे के घोर प्रतिद्वंद्वी बन गये।
नूरजहाँ का मूल्यांकन
नूरजहाँ को उसके असाधारण गुणों के कारण ही साम्राज्य में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई और 1622 ई. में उसे ‘पादशाह बेगम’ की उपाधि मिली। नूरजहाँ व्यावहारिक बुद्धि वाली एक प्रतिभावान और उदार हृदय महिला थी। उसने न केवल अनेक नये फैशन चलाये, बल्कि अनेक नये प्रलेपों और आलंकारिक पदार्थों का आविष्कार भी किया। गुलाब के इत्र के निर्माण का श्रेय उसकी माता अस्मत बेगम को प्राप्त है।
नूरजहाँ की स्थापत्य कला में विशेष अभिरुचि थी। उसने 1626 ई. में आगरा में यमुना तट पर अपने पिता गयासबेग (एत्मादुद्दौला) का मकबरा बनवाया। इसकी दीवारों पर कुरान की आयतें ‘तुगरालिपि’ में उत्कीर्ण हैं। इसकी दीवारों में संगमरमर की कलापूर्ण जालियाँ लगाई गई हैं। इसकी फर्श व दीवारों पर विभिन्न रंग के पत्थरों से आश्चर्यजनक आकृतियाँ बनाई गई हैं, जिसे ‘पच्चीकारी की कला’ या ‘पेटो ड्यूरा’ कहते हैं। इस प्रकार मुगल भवनों में पच्चीकारी का सबसे पहला अलंकरण ‘एत्मादुद्दौला के मकबरे’ में मिलता है। यही कारण है कि इस मकबरे को ‘ताजमहल का प्रतिरूप’ भी कहा जाता है।
नूरजहाँ द्वारा बनवाया गया दूसरा भवन लाहौर के समीप शाहदरा में जहाँगीर का मकबरा है, जिसे नूरजहाँ ने जहाँगीर की मृत्यु के बाद 1627 ई. में बनवाया था। इस मकबरे की विशेषता यह है कि इसमें टाइल्स और सफेद संगमरमर का विशेष प्रयोग हुआ है। नूरजहाँ की उद्यानों में भी विशेष रूचि थी। उसने एतमादुद्दौला और जहाँगीर दोनों के मकबरों में सुंदर बाग लगवाये, जिनमें स्वच्छ जल से ओत-प्रोत हौज, फब्बारे, चबूतरे आदि हैं।
जहाँगीर की मृत्यु (29 अक्टूबर, 1627 ई.)
जहाँगीर का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा था। लाहौर की गर्मी उससे सहन नहीं हुई, इसलिए वह स्वास्थ्य लाभ के लिए नूरजहाँ के साथ कश्मीर गया, किंतु वहाँ भी उसके स्वास्थ्य में कोई विशेष सुधार नहीं हो सका। कश्मीर से लाहौर लौटते समय 28 अक्टूबर, 1627 ई. को भीमवार (राजौरी) नामक स्थान पर जहाँगीर की मृत्यु हो गई। जहाँगीर के शरीर को अस्थायी रूप से भीमवार के बागसर किले में दफनाया गया और बाद में उसके शव को पालकी से लाहौर लाया गया और रावी नदी के किनारे शाहदरा बाग में दफना दिया गया।
जहाँगीर की मृत्यु के बाद ही उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए खींचतान आरंभ हो गया। खुसरो और परवेज की मृत्यु हो जाने के कारण सिहासन के लिए खुर्रम और शहरयार दो ही दावेदार बचे थे। जहाँगीर की मृत्यु के समय खुर्रम जुन्नार में था और शहरयार लाहौर में। खुर्रम ने महाबत खाँ के साथ गठबंधन कर लिया था और आसफ खाँ ससुर होने के कारण पहले से ही खुर्रम के पक्ष में था।
खुर्रम का राज्यारोहण
आसफ खाँ ने खुर्रम के पास बादशाह की मृत्यु की सूचना भेजते हुये उसे शीघ्रातिशीघ्र राजधानी आने के लिए कहा और सिंहासन को सुरक्षित रखने के लिए खुसरो के पुत्र दावरबख्श को तुरंत बादशाह घोषित कर दिया। दूसरी ओर, नूरजहाँ ने अपने दामाद शहरयार को लाहौर में बादशाह घोषित कर दिया। आसफ खाँ ने लाहौर पर आक्रमण कर शहरयार को पराजित कर उसे अंधा करवा दिया। आसफ खाँ ने महाबत खाँ को भी शाहजहाँ का साथ देने के लिए कहा, जो इस समय मेवाड़ के रास्ते से आगरा आ रहा था।
शाहजहाँ ने अहमदाबाद पहुँचकर शेर खाँ को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया, किंतु दक्षिण के सूबेदार खानजहाँ लादी ने उसे समर्थन नहीं दिया। मार्ग में शाहजहाँ को शहरयार के पराजित होने की सूचना मिली। उसने आसफ खाँ को आदेश भेजा कि शहरयार, उसके पुत्र और दानियाल के पुत्रों को मार डाला जाये। आसफ खाँ ने सभी संभावित प्रतिद्वंद्वियों को मरवा डाला। आगरा पहुँचने पर शाहजहाँ का फरवरी, 1628 ई. को ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन, मुहम्मद साहिब किरन-ए-सानी’ की उपाधि के साथ भव्य राज्याभिषेक संपन्न हुआ।
शाहजहाँ के राज्यारोहण के बाद नूरजहाँ ने स्वयं को राजनीति से अलग कर लिया। शाहजहाँ ने नूरजहाँ को दो लाख रुपये वार्षिक पेंशन प्रदान की और उसके साथ किसी प्रकार का अपमानजनक व्यवहार नहीं किया। अंततः 18 वर्ष तक एकाकी जीवन व्यतीत करने के बाद 8 फरवरी, 1654 ई. को नूरजहाँ की मृत्यु हो गई।
जहाँगीर की धार्मिक नीति
जहाँगीर उदार प्रवृत्ति का व्यक्ति था, जिसके कारण कुछ लोगों ने उसे ‘नास्तिक’ समझा, कुछ ने उसे मुसलमान बताया और कुछ ने उसे ईसाई धर्म का मतावलंबी कहा है। किंतु वास्तविकता यह है कि जहाँगीर का पालन-पोषण एक उदार वातावरण में हुआ था। वह एक ईश्वर में विश्वास करता था और एक सच्चे मुसलमान की भाँति नमाज पढ़ा करता था, यद्यपि सूफीवाद एवं वेदांत में भी उसकी गहरी रुचि थी। सामान्यतः उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया और ‘सुलहकुल’ की नीति को जारी रखा। उसने गैर-मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की और उन्हें अपने धर्म के पालन एवं प्रचार करने का अवसर दिया। उसने हिंदुओं पर न तो जज़िया लगाया और न ही तीर्थयात्रा कर। वह गैर-मुस्लिम त्योहारों में स्वयं सम्मिलित होता था। परंतु उसमें अकबर की भाँति धार्मिक सत्य के अन्वेषण की जिज्ञासा नहीं थी। उसका धार्मिक दृष्टिकोण राजनीतिक था। विदेशी यात्री टेरी लिखता है कि साम्राज्य में सभी धर्मों के साथ सहिष्णुतापूर्ण व्यवहार किया जाता था और सभी धर्मों के पुरोहितों का सम्मान होता था, किंतु कुछ उपदेशक एवं कट्टरपंथी लोग सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के लिए खतरनाक समझे गये, इस कारण उनके साथ बादशाह ने कठोरतापूर्ण व्यवहार किया। उसने सिक्खों के गुरु अर्जुनदेव को दंडित किया, जिसका कारण राजनीतिक था। उसने गुजरात के श्वेतांबर जैनियों के दमन तथा उन्हें निर्वासित करने का आदेश दिया था क्योंकि उनके नेता मानसिंह ने खुसरो के विद्रोह के समय यह भविष्यवाणी की थी कि दो वर्ष के अंतर्गत उसके साम्राज्य का अंत हो जायेगा, किंतु कुछ समय पश्चात उसने यह आदेश वापस ले लिया। इसी प्रकार पुर्तगालियों की हठधर्मिता के कारण उसने ईसाइयों की धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा दिया था, किंतु कुछ समय बाद उसने उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक अपने धर्म-पालन एवं धर्म के प्रचार करने की आज्ञा दे दी।
यद्यपि जहाँगीर सूफियों एवं संतों के प्रति विशेष श्रद्धा रखता था, किंतु उसे यदि यह ज्ञात हो जाता था कि किसी सूफी अथवा संत से साम्राज्य की शांति को हानि पहुँच सकती है, तो वह उसके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने में संकोच नही करता था। उसने लाहौर के अफगान शेख इब्राहीम बाबा को चुनार में इसलिए बंदी बना लिया था कि उसके कार्य साम्राज्य के लिए अहितकर थे। इसी प्रकार 1619 ई. में प्रसिद्ध सूफी शेख अहमद सरहिंदी को भी ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बनाया गया था। शेख ने ‘महदी’ होने का दावा किया था और अनेक ऐसे उपदेश दिये थे, जिससे लोग राजद्रोही एवं धर्मद्रोही बन सकते थे। किंतु लगभग दो वर्ष बाद जब शेख ने अपना मत वापस ले लिया तो बादशाह जहाँगीर अहमद को बंदीगृह से मुक्त कर उन्हें उपहार के साथ सरहिंद भेज दिया। इससे स्पष्ट है कि जहाँगीर ने धर्म की अपेक्षा साम्राज्य के हित को विशेष महत्त्व दिया। विस्तृत अध्ययन के लिए देखें- मुगलकालीन धार्मिक नीति।
जहाँगीरकालीन चित्रकला
मुगल सम्राट जहाँगीर के काल को ‘चित्रकला का स्वर्णकाल’ कहा जाता है। उसने अपने शहजादा काल में आका रिजा नामक एक हेराती प्रवासी चित्रकार के नेतृत्व में आगरा में एक चित्रशाला की स्थापना की थी, जिसमें ‘अनवरे-सुहाइली’ की पांडुलिपि को तैयार किया गया था।
बादशाह जहाँगीर के काल में सचित्रित ग्रंथों के अलावा बादशाह द्वारा चयनित विषयों के चित्र भी बड़ी संख्या में बनाये जाने लगे और ऐतिहासिक कथाओं का स्थान प्राकृतिक चित्रों ने ले लिया। इसके अतिरिक्त, इस समय दरबारी जीवन के दृश्यों और घटनाओं को भी व्यापक रूप में चित्रित किया गया। जहाँगीरकालीन प्रमुख चित्रकारों में आका रिजा, फारुख बेग, उस्ताद मंसूर, अबुल हसन, दौलत, बिसनदास, मनोहर, मुराद, गोवर्धन आदि थे। फारुख बेग ने बीजापुर के शासक सुल्तान आदिलशाह का चित्र बनाया था। उस्ताद मंसूर पक्षी-चित्र विशेषज्ञ और अबुल हसन व्यक्ति-चित्र विशेषज्ञ थे। उस्ताद मंसूर की महत्त्वपूर्ण कृतियों में साइबेरियन सारस एवं बंगाल का एक पुष्प है। बादशाह ने उस्ताद मंसूर को ‘नादिर-उल-अस्र’ (युग का आश्चर्य) एवं अबुल हसन को ‘नादिरुज्जमाँ’ (युग शिरोमणि) की उपाधि प्रदान की थी। अबुल हसन ने ‘तुजुके जहाँगीर’ में मुख्य पृष्ठ के लिए चित्र बनाया था। जहाँगीर के निर्देश पर चित्रकार दौलत ने अपने साथी चित्रकारों का चित्र बनाया था। जहाँगीर ने चित्रकार बिसनदास को फारस के शाह, उसके अमीरों तथा परिजनों का छवि-चित्र बनाकर लाने के लिए फारस भेजा था। जहाँगीर के विश्वसनीय चित्रकार मनोहर ने भी उस समय के कई छवि चित्रों का निर्माण किया था।
जहाँगीर चित्रकला का बड़ा कुशल पारखी था। उसने अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ (जहाँगीरनामा) में दावा किया है कि, “वह कोई भी चित्र देखकर बता सकता है कि अमुक चित्र किसने बनाया है। यदि एक ही चित्र में अलग-अलग चित्रकारों ने कार्य किया है, तो भी बता देता कि चित्र में किसने कौन-सा भाग चित्रित किया है।’ इंग्लैंड के राजदूत सर टामस रो ने भी जहाँगीरकालीन चित्रकला की बड़ी प्रशंसा की है।
जहाँगीर का यूरोपवासियों से संबंध
पुर्तगालियों से संबंध
जहाँगीर ने उत्तराधिकार के युद्ध में सुन्नी वर्ग का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से पुर्तगालियों के साथ अपना संबंध-विच्छेद कर लिया था, किंतु सिंहासन की प्राप्ति के बाद उसने उनके साथ पुनः संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। इस उद्देश्य से जहाँगीर ने जेसुइट पादरियों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार किया और उन्हें अनेक सुविधाएँ भी प्रदान की। अब वे स्वतंत्रतापूर्वक आगरा और लाहौर में कैथोलिक धर्म का संचालन कर सकते थे।
किंतु 1613 ई. में पुर्तगालियों ने सूरत के निकट चार शाही जहाजों को लूट लिया, तो सूरत के मुगल सूबेदार मुकर्रब खाँ ने पुर्तगाली वायसराय से इसकी शिकायत की। घटना के संबंध में कोई स्पष्ट उत्तर न मिलने के कारण मुकर्रब ने अंग्रेजों की सहायता से पुर्तगालियों को एक सामुद्रिक युद्ध में पराजित किया। मुगल बादशाह ने पुर्तगालियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करते हुए साम्राज्य में दी गई सुविधाएँ वापस ले ली और आगरा तथा लाहौर के गिरजाघरों को बंद करवा दिया। बाद में, 1615 ई. में जेसुइट पादरियों की मध्यस्थता से मुगलों और पुर्तगालियों में समझौता हो गया।
अंग्रेजों से संबंध
यूरोप के अन्य राष्ट्रों की व्यापारिक प्रगति देखकर अंग्रेजों ने भी भारत से व्यापार करने के लिए 1600 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की। कंपनी को व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से अनेक ब्रिटिश राजदूत भारत आये और मुगल बादशाह से व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने का प्रयास किया।
सर्वप्रथम कप्तान विलियम हॉकिंस ‘हेक्टर’ नामक जहाज से 24 अगस्त, 1608 ई. को सूरत पहुँचा। हॉकिंस ने 1609 ई. में इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम के एक निजी पत्र और बहुमूल्य भेंट के साथ मुगल सम्राट जहाँगीर से भेंट की। विलियम हॉकिंस तुर्की और फारसी भाषाएँ जानता था, इसलिए उसने बिना दुभाषिए की सहायता से जहाँगीर से बातचीत की। जहाँगीर ने प्रसनन होकर हॉकिंस को 400 का मनसब, एक जागीर और ‘अंग्रेजी खाँ’ की उपाधि से समानित किया। किंतु पुर्तगालियों के विरोध के कारण हॉकिंस को अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिल सकी। अंततः नवंबर, 1611 ई. में विलियम हॉकिंस ने आगरा छोड़ दिया और इंग्लैंड वापस लौट गया। इस प्रकार ब्रिटिश कंपनी को सूरत में फैक्टरी स्थापित करने में सफलता नहीं मिली, लेकिन उसने 1611 ई. में ही दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट पर मसुलीपट्टम में एक अस्थाई व्यापारिक कोठी स्थापित कर ली।
1611 ई. में कैप्टन मिडल्टन सूरत के समीप स्थित स्वाली पहुँचा और वहाँ मुगल गवर्नर से स्वाली में व्यापार करने की अनुमति पाने में सफल रहा। 1612 ई. में कैप्टन बेस्ट ने स्वाली की लड़ाई में पुर्तगालियों को पराजित किया, जिससे प्रसन्न होकर जहाँगीर ने 1613 ई. में एक फरमान द्वारा अंग्रेजों को सूरत में एक स्थायी कोठी स्थापित करने की अनुमति दे दी। इस प्रकार 1613 में अंग्रेजों ने सूरत में अपनी पहली स्थायी व्यापारिक कोठी खोली।
1615 ई. में सर टॉमस रो इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम के राजदूत के रूप में पादरी एडवर्ड टेरी के साथ आगरा में मुगल दरबार में आया। टॉमस रो का एकमात्र उद्देश्य था- व्यापारिक संधि करना। उसने नूरजहाँ, आसफ खाँ और खुर्रम को बहुमूल्य उपहार देकर अपने पक्ष में कर लिया। 1618 ई. में बादशाह जहाँगीर ने एक शाही फरमान जारी कर अंग्रेजों को कुछ व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान की तथा पुर्तगालियों के विरुद्ध सैनिक सहायता का भी आश्वासन दिया। फरवरी, 1619 ई. में टॉमस रो वापस इंग्लैंड चला गया। यद्यपि टॉमस रो जहाँगीर से वाणिज्यिक संधि करने में विफल रहा, किंतु उसने 1618 ई. में भड़ौच, अहमदाबाद, आगरा, अजमेर में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने के लिए एक शाही फरमान प्राप्त कर लिया।
जहाँगीर का मूल्यांकन
जहाँगीर के व्यक्तित्व और चरित्र के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं। एक ओर जहाँगीर को न्यायप्रिय, कुलीन, प्रजावत्सल और कलाप्रेमी शासक बताया जाता है, तो दूसरी ओर उसे क्रूर, निर्दयी, प्रजापीड़क और इंद्रिय-लोलुप सम्राट कहा गया है। कुछ इतिहासकार उसे इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम की भाँति विरोधी तत्त्वों का संमिश्रण’ बताते हैं। विन्सेंट स्मिथ के अनुसार जहाँगीर में गुण-दोषों का विचित्र संमिश्रण था। उसके अनुसार जहाँगीर के व्यक्तित्व में कोमलता तथा क्रूरता, न्यायप्रियता तथा झक्कीपन, शिष्टता तथा वर्बरता एवं विवेक तथा छिछोरेपन का अद्भुत संमिश्रण था। यूरोपीय यात्री टेरी भी लिखता है कि ‘उस शासक के स्वभाव के संबंध में मुझे सदैव ऐसा प्रतीत हुआ कि उसमें विरोधी तत्वों की अधिकता थी क्योंकि कभी-कभी वह अत्यंत क्रूर तथा कभी-कभी अत्यंत प्रिय तथा उदार हो जाता था।’ वास्तव में, जहाँगीर में अच्छे तथा बुरे, दोनों प्रकार के गुणों-अवगुणों का समावेश था। कभी वह अत्यधिक क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता था, तो दूसरे अवसरों पर वह न्यायप्रिय तथा निष्पक्ष हो जाता था। परंतु जहाँगीर की नृशंसता तभी प्रदर्शित होती थी, जब कोई शक्ति अथवा मनुष्य उसकी राजनीतिक आकांक्षाओं में बाधक होता था, अन्यथा अपने सामान्य जीवन में वह एक उच्च, सुसंस्कृत तथा बुद्धिमान पुरुष के समान व्यवहार करता था।
जहाँगीर एक न्यायप्रिय और प्रजावत्सल शासक था। राज्यारोहण के बाद प्रसारित किये गये उसके बारह अध्यादेश, उसके नीति-निर्देशक सिद्धांत हैं। जहाँगीर प्रायः कहा करता था कि, ‘प्रजा को प्रतिदिन न्याय देना मेरे पवित्र कर्त्तव्यों में से एक है।’ उसके शासनकाल में एक साधारण व्यक्ति भी न्याय के लिए बादशाह तक पहुँच सकता था। आगरा दुर्ग में शाहबुर्ज से लटकी स्वर्ण की न्याय-जंजीर उसकी न्यायप्रियता की प्रतीक है। विलियम हॉकिंस के अनुसार वह दरबार-ए-आम में दो घंटे तक प्रजा की फरियादें सुनता था। न्याय करते समय वह तत्कालीन प्रचलित न्याय प्रणाली के अनुसार निष्पक्ष होकर दंड देता था। यद्यपि उसकी दंड व्यवस्था कठोर और एक सीमा तक क्रूर भी थी, किंतु वह सबके लिए समान थी। मृत्युदंड देने का अधिकार केवल सम्राट को ही था। जहाँ तक प्रशासन का संबंध है, जहाँगीर ने अपने पिता के काल की शासन व्यवस्था को चलने दिया और मुगल साम्राज्य को सुसंगठित बनाये रखा। उसके शासनकाल में जितने भी विद्रोह हुए, वह उनका दमन कर साम्राज्य में शांति स्थापित करने में सफल रहा।
जहाँगीर स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान था और साहित्य एवं कला में उसकी विशेष रुचि थी। यद्यपि उसे तुर्की, अरबी, फारसी, संस्कृत, हिंदी तथा कुछ अन्य भाषाओं का अच्छा ज्ञान था, किंतु फारसी साहित्य में विशेष रुचि होने के कारण उसने फारसी साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। विलियम हॉकिंस के अनुसार जहाँगीर तुर्की भाषा में भी प्रवीण था। अपने प्रपितामह बाबर की तुर्की में लिखी आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ का अध्ययन करके उसमें जहाँगीर ने अनेक टिप्पणियाँ जोड़ी थी। बाबर का अनुकरण करते हुए उसने स्वयं अपनी आत्मकथा ‘तुजुके जहाँगीरी’ (जहाँगीरनामा) के नाम से लिखा है। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा में अपने गुणों के साथ अपने व्यक्तिगत दोषों को भी लेखबद्ध किया है। वह अपने कविहृदय गुरु अब्दुर्रहीम खानेखाना के प्रभाव से फारसी में पद्य-रचना भी करता था। वह अपनी राज्यसभा में विभिन्न भाषाओं और विषयों के विद्वानों और साहित्यकारों का स्वागत-सम्मान करता था। उसने नियामतुल्लाह, मिर्ज़ा गयासबेग, अब्दुलहक देहली नजीमुनिमा आदि अनेक विद्वानों को अपने दरबार में राज्याश्रय दिया था। वह शुक्रवार की संध्या साहित्यकारों और विद्वानों के सत्संग और विचार-गोष्ठियों में व्यतीत करता था। उसने हिंदी भाषा के कवियों को भी प्रोत्साहन दिया और उन्हें पुरस्कृत किया।
यद्यपि जहाँगीर को स्थापत्यकला या भवन निर्माणकला से उतना प्रेम नहीं था जितना चित्रकला से, तथापि उसके शासनकाल में दो सुंदर भवनों का निर्माण हुआ था। आगरा के समीप सिकंदरा में अकबर का मकबरा जहाँगीर के शासनकाल में ही पूर्ण हुआ था। इसके अतिरिक्त, आगरा में नूरजहाँ के पिता मिर्जा गयासबेग (एतमादुद्दौला) का मकबरा भी जहाँगीर के शासनकाल में नूरजहाँ बनवाया था। जहाँगीर ने लाहौर में एक भव्य मस्जिद और कांगड़ा दुर्ग में भी एक मस्जिद का निर्माण करवाया था।
किंतु प्रकृति-प्रेमी होने के कारण जहाँगीर को बाग-बगीचे और उद्यान लगवाने का बहुत शौक था। उसके द्वारा लगाये गये बागों में लाहौर का ‘दिलशाद बाग’ और कश्मीर के ‘निशातबाग’ तथा ‘शालीमार बाग’ बहुत प्रसिद्ध हैं।
जहाँगीर को चित्रकला से विशेष लगाव था। उसने अपने शासनकाल में अनेक प्रसिद्ध चित्रकारों को आश्रय दिया, जिसके फलस्वरूप मुगल चित्रकला चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई और उसके काल को ‘मुगल चित्रकता का स्वर्णयुग’ कहा गया है। उसके शासनकाल की चित्रकारी में व्यक्ति-चित्रों के साथ-साथ पशु-पक्षियों एवं फूल-पत्तियों का भी बड़ी संख्या में चित्रण किया गया, जो आज विभिन्न संग्रहालयों की शोभा हैं।
जहाँगीर ने अपने शासनकाल में शिक्षा का भी प्रसार किया। तत्कालीन लेखकों के अनुसार जहाँगीर ने कई नवीन मदरसे स्थापित किये और उन मदरसों का भी पुनर्निर्माण करवाया, जो पिछले तीस वर्षों से पशु-पक्षियों का निवास-स्थान बने हुए थे। इन संस्थाओं के संचालन के लिए सम्राट ने अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति भी की थी।
किंतु जहाँगीर में अनेक चारित्रिक दुर्बलताएँ भी थीं। वह मद्यपान और अफीम का सेवन करता था। अपनी आत्मकथा में वह स्वयं स्वीकार करता है कि 18 वर्ष की अवस्था से ही वह मद्यपान के दुर्व्यसन में फँस गया था। यद्यपि जहाँगीर स्वयं मदिरापान करता था, किंतु उसने प्रजा को इसके लिए निरुत्साहित किया। इतिहासकार एलफिंस्टन के अनुसार ‘वह मद्यपान के लिए बदनाम था, किंतु उसने इसका कठोरतापूर्वक निषेध किया और अफीम का सेवन भी नियमित कर दिया। उसके चरित्र की एक अन्य दुर्बलता उसका एकदम विश्वास कर लेना था, जिसके कारण वह अपने विवेक से कार्य नहीं कर पाता था। यही कारण है कि ‘उसकी ख्याति उसके पिता के महान गौरव तथा उसके पुत्र की चमत्कारपूर्ण शान के सामने मंद पड़ गई है। संक्षेप में, जहाँगीर ने पिता की नीति की रक्षा करने का प्रयत्न किया। उसने हिंदू, मुसलमान तथा ईसाई प्रजा अथवा अधिकारियों के मध्य कोई भेदभाव नहीं किया। वह दशहरा, दीवाली, शिवरात्रि तथा रक्षाबंधन जैसे हिंदू त्योहारों में भी भाग लेता था। उसके शासनकाल में ही चित्रकला सर्वोच्च शिखर पर पहुँची, स्थापत्य कला में नये तत्त्व सम्मिलित हुए और साहित्य सजीव रहा, यद्यपि उसके पिता के समय की अपेक्षा उसकी गति कुछ मंद पड़ गई थी।
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