बौद्धिक आंदोलन
ई.पू. छठी शताब्दी प्राचीन भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण सीमा-चिह्न है। इस काल में उत्तर भारत में विशाल साम्राज्यों की नींव पड़ रही थी, तो दूसरी ओर उत्तर-पूर्वी भारत के मध्य गंगा क्षेत्र में पुरातन जीवन-दर्शन के विरोध में अनेक नवीन धार्मिक संप्रदायों और दर्शनों का उदय हुआ। जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार इस काल में लगभग 62 मतों और संप्रदायों के संन्यासी और बौद्धिक लोग घूम-घूमकर अपने जीवन-दर्शन का प्रचार करते थे और एक-दूसरे के दर्शन का मंडन-खंडन करते थे। इस बौद्धिक आंदोलन का केंद्र मगध था। इस आंदोलन की तीव्रता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कई संप्रदायों ने ईश्वर की सत्ता को ही अस्वीकार कर दिया था। उल्लेखनीय है कि इस काल में प्राचीन विश्व के अन्य क्षेत्रों, जैसे चीन में कन्फ्यूशियस और लाओत्से, ईरान में जरथुस्त्र, जूडिया में जेरेमिया और यूनान में पाइथागोरस जैसे विचारकों का उदय हुआ, जिन्होंने पुरातन मान्यताओं को चुनौती दी।
बौद्धिक आंदोलन के कारण
भारत में इस धार्मिक आंदोलन के कई प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण थे, जो तत्कालीन आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों में निहित थे। प्रवृत्तिमूलक वैदिक संस्कृति की धार्मिक और सामाजिक मान्यताएँ सामाजिक और आर्थिक विकास में बाधक बन रही थीं। जब कर्मकांड-प्रधान वैदिक संस्कृति का गणों और श्रमणों के पूर्वी प्रदेशों में प्रसार हुआ, तो निवृत्तिमूलक अनार्य सभ्यता के पक्षधर कई धर्मों और संप्रदायों का उदय हुआ। विशेषकर जैन और बौद्ध संप्रदायों ने वैदिक-ब्राह्मण धर्म की बुराइयों पर प्रहार किया। इसे कभी-कभी सुधारवादी आंदोलन कहा जाता है, लेकिन उत्तर-पूर्वी भारत में यह वैदिक धर्म का आंतरिक सुधार न होकर श्रमण परंपरा का विस्तार था, जिसमें प्रादेशिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारण सहायक बने। पश्चिमी भारत में वैदिक धर्म के अंतर्गत सुधार की प्रवृत्तियाँ विभिन्न रूपों में विकसित हुईं।

लौह-तकनीक और कृषिमूलक अर्थव्यवस्था
उत्तर-पूर्वी भारत में नई कृषि-अर्थव्यवस्था का विकास इस बौद्धिक आंदोलन का एक प्रमुख कारण था। छठी शताब्दी ई.पू. में यज्ञ-प्रधान वैदिक धर्म अपने मूल कुरु-पांचाल क्षेत्र से उत्तर-पूर्व की ओर फैला। यह केवल धर्म का प्रसार नहीं, बल्कि एक नई उत्पादन-तकनीक का विकास भी था।
शतपथ ब्राह्मण में विदेह माधव और अग्नि वैश्वानर (यज्ञ-अग्नि) की कथा से पता चलता है कि वैदिक लोग जंगलों को जलाकर और पेड़ों को काटकर भूमि को कृषि-योग्य बनाते हुए आगे बढ़े। इस प्रक्रिया में लोहे के उपयोग ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। उत्तरी भारत में लौह-युग का आगमन हो चुका था और यह सदी लोहे के उपकरणों के कृषि में उपयोग की सदी थी। पहले लोहे का उपयोग मुख्यतः युद्धास्त्रों के लिए होता था, लेकिन अब इसे खेती के उपकरणों में भी प्रयोग किया जाने लगा, जिससे जंगलों को साफ करना और कृषि-योग्य भूमि तैयार करना आसान हो गया। युद्ध और कृषि दोनों में लोहे के उपयोग से मूलभूत परिवर्तन हुए। शक्तिशाली क्षत्रिय वर्ग कमजोर वर्गों को अपने अधीन कर युद्ध और खेती में लगा सकता था, जबकि लोहे के फाल से गहरी जुताई ने उत्पादन क्षमता बढ़ाई। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम ने बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। उत्पादक वैश्य वर्ग को खाद्य-सामग्री की चिंता से मुक्ति मिली, और वे व्यापार-वाणिज्य और शिल्पकलाओं में संलग्न हो गए।
लोहे के फाल और नई कृषि-प्रणाली ने उत्पादन-अधिशेष को बढ़ाया, जो बड़ी बस्तियों के उदय और विकास में सहायक हुआ। उत्तर-पूर्वी भारत के जनजातीय लोगों की उत्पादन-प्रणाली और जीवन-पद्धति वैदिक आर्यों की तुलना में बहुत पिछड़ी थी। ये लोग छिटपुट आबादी वाले ऊँचे स्थानों पर कुदाल से खेती करते थे और चावल व छोटे दानों वाली फसलों का उत्पादन करते थे। पशुपालन केवल मांसाहार के लिए था, न कि दूध या खेती के लिए। नई उत्पादन-तकनीक ने उनकी जीवन-प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन किए।
नई कृषि-प्रणाली में अधिक पशुओं की आवश्यकता पड़ी। पशुबध, चाहे वैदिक यज्ञों में हो या जनजातीय समुदायों में एक अनावश्यक रूढ़ि बन गई थी। कृषि में पशुओं की उपयोगिता के कारण पशुधन को संरक्षित करना आवश्यक हो गया। यही कारण है कि इस काल के अधिकांश धार्मिक संप्रदायों, विशेषकर जैन और बौद्ध ने पशुबध और हिंसा का तीव्र विरोध किया। उपनिषदों में भी पशुबध की निंदा और अहिंसा का उपदेश है, लेकिन बौद्ध ग्रंथों में पशुओं को ‘सुखदा’और ‘अन्नदा’ कहकर अधिक प्रभावशाली ढंग से अहिंसा का प्रचार किया गया।
नगरीकरण की प्रक्रिया
नई कृषि-प्रणाली और लौह-प्रौद्योगिकी ने शिल्पों और उद्योग-धंधों में प्रगति को बढ़ावा दिया, जिससे व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला और नगरीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। पालि ग्रंथों में मध्य गंगा घाटी के नगरों जैसे चंपा, राजगृह, वैशाली, वाराणसी, कोशांबी, कुशीनगर, श्रावस्ती और पाटलिपुत्र का वर्णन मिलता है। ई.पू. 600 से 300 के बीच भारत में 60 नगरों के अस्तित्व के प्रमाण हैं। कुशलकर्मी और शिल्पी गाँवों से इन नगरों में बसने लगे।
विनिमय के साधन के रूप में ‘मुद्रा’ (आहत मुद्राएँ) का उदय इस काल की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इससे व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार हुआ और धन-संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी। विभिन्न कलाओं और शिल्पों ने व्यापार को मौद्रिक अर्थव्यवस्था से जोड़ा। शिल्पी और व्यापारी अपने हितों के लिए संघों और श्रेणियों में संगठित हुए। सार्थवाहों के प्रयासों ने स्थल और जलमार्गों के माध्यम से नगरों को समृद्ध बनाया। व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा मजबूत हुई और सामाजिक मान्यता प्राप्त हुई, जिससे गंगा घाटी में नए वर्गों का उदय हुआ। नगरों में मेंडक (अंग), अनाथपिंडक (कोशल) और घोषित (कोशांबी) जैसे श्रेष्ठी और गाँवों में ‘गहपति’ नामक भू-संपन्न कृषक वर्ग उभरा।
उन्नत कृषि, शिल्प-व्यवसाय, और व्यापार ने प्राचीन जनजातीय सामाजिक संरचना को विघटित किया और कबायली जीवन की मान्यताएँ टूटने लगीं। कृषि-भूमि धन-संपत्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा की इकाई बन गई। इसके विपरीत, समाज में भूमिहीन और श्रमिक वर्ग भी उभरे। बुद्ध का उपदेश था कि ‘कृषकों को बीज, श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक और व्यवसायियों को धन देना चाहिए।’ वैश्य वर्ग ने व्यापार से अपार संपत्ति अर्जित की और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को स्वीकार करने को तैयार नहीं था।
वैदिक कर्मकांड
धार्मिक आंदोलन का एक प्रमुख कारण वैदिककालीन जटिल यज्ञीय विधि-विधान थे। वेदों को ईश्वरप्रदत्त या स्वयंभू माना जाता था। वैदिक धर्म में अनेक देवी-देवताओं की कल्पना थी, जिनकी कृपा मानव की भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक मानी जाती थी। इन देवताओं को जटिल मंत्रों और खर्चीले यज्ञों द्वारा प्रसन्न किया जाता था। वैदिक मंत्रों को देववाक्य माना जाता था, और उनमें कोई परिवर्तन संभव नहीं था। मंत्रोच्चार में त्रुटि होने पर भयंकर परिणाम होने का विश्वास था। ऐसे परिवेश में पुरोहितों का महत्त्व बढ़ना स्वाभाविक था। यज्ञों को स्वर्ग प्राप्ति की नौका माना जाता था। अश्वमेध, राजसूय जैसे वर्षभर चलने वाले यज्ञों में पशुबध और पुरोहितों को दी जाने वाली बहुमूल्य दक्षिणा से धन और पशुओं की हानि होती थी। दक्षिणा की उगाही अब केवल राजकीय यज्ञों तक सीमित नहीं थी, बल्कि सामान्य जन को भी कर्मकांड में शामिल करने की कोशिश की गई।
शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि वैदिक यज्ञ-विधान उत्तर-पूर्वी भारत में फैल रहा था, लेकिन कर्मप्रधान वैदिक संस्कृति इस क्षेत्र में स्वीकार्य नहीं हो सकी, क्योंकि यह उपनिषदों के ज्ञान मार्ग और श्रमण परंपरा के निवृत्तिमार्गी संन्यास-प्रधान धर्म के विपरीत थी। वेदवाद, यज्ञवाद और पुरोहितवाद सामाजिक-आर्थिक विकास में बाधक बन रहे थे। इसीलिए छठी शताब्दी ई.पू. के अधिकांश नास्तिक संप्रदायों ने इन कर्मकांडों का विरोध किया। भारत सरकार के एक प्रकाशन के अनुसार ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध उठी आवाज जैन और बौद्ध धर्म के रूप में फलीभूत हुई।
सामाजिक असमानता
वैदिक संस्कृति में समाज का वर्गीकरण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में था। प्रारंभ में वर्ण कर्म के आधार पर निर्धारित होता था, लेकिन इस काल में जन्म के आधार पर वर्ण निर्धारण होने लगा। ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों अनुत्पादक वर्ग थे, जबकि वैश्य और शूद्र उत्पादन के लिए उत्तरदायी थे। ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों की श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी थी और अपने निर्धारित कर्मों से च्युत होने पर भी वे समाज में सम्मान की अपेक्षा करते थे। उन्हें कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। उत्पादक होने के बावजूद वैश्यों और शूद्रों को उचित सम्मान नहीं मिलता था, जिससे वर्णों में असंतोष व्याप्त था। शूद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। गौतम और आपस्तंब जैसे सूत्रकारों ने ब्राह्मणों के लिए घोर अपराधों में भी न्यूनतम दंड का विधान किया। शूद्र-वध का दंड कौवे या उल्लू की हत्या के समान था। मातंग और चित्तसंभूत जातकों में शूद्रों पर होने वाले अत्याचारों का वर्णन है। स्त्रियाँ भी समाज में अधिकारविहीन थीं। नास्तिक संप्रदायों ने इन सामाजिक विषमताओं का तीव्र विरोध किया और वैश्यों को ऋण, महाजनी, और दास-संबंधी अधिकार प्रदान कर अपने धर्म का द्वार सभी वर्णों के लिए खोल दिया।
वर्ण-संबंधी अव्यवस्था भी इस काल में फैल रही थी। उत्तर-पूर्व के जनजातीय क्षेत्रों में वर्णव्यवस्था और नई उत्पादन-प्रणाली के प्रसार से जनजातीय लोग अपनी क्षमता के आधार पर किसी न किसी वर्ण में स्थान पाने लगे। नई उत्पादन-तकनीक से जनसंख्या बढ़ी, जिससे वर्ण-आधारित सामाजिक स्तरीकरण तीव्र हुआ। ब्राह्मणों की महत्ता इतनी बढ़ गई कि उन्हें देवतुल्य माना जाने लगा। कहा गया कि ब्राह्मण बिना राजा के रह सकता है, लेकिन राजा बिना ब्राह्मण के नहीं। क्षत्रिय वर्ग को ही शस्त्र धारण का अधिकार माना जाने लगा और यह वर्ग कर और अधिशेष वसूलता था। शासकों और नए क्षत्रिय वर्ग का अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति सजग होना स्वाभाविक था।
राजनीतिक परिस्थितियाँ
धार्मिक आंदोलन के उदय में राजनीतिक कारणों ने दो प्रकार से योगदान दिया: ब्राह्मण-राजन्य द्वंद्व और गणराज्यों का स्वतंत्र वातावरण। कई इतिहासकारों ने क्षत्रियों को इस युग के ब्राह्मण-विरोधी धार्मिक आंदोलन का अगुआ माना है। वैदिककालीन सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों अधिशेष-उत्पादन पर निर्भर थे। विजय, कृषि और व्यापार-वाणिज्य के कारण अधिशेष पर नियंत्रण के लिए दोनों वर्गों में द्वंद्व स्वाभाविक था। विश्वामित्र और वशिष्ठ की शत्रुता, और जामदग्न्य द्वारा क्षत्रिय-संहार की कथा से पता चलता है कि क्षत्रिय ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का विरोध कर रहे थे। शतपथ ब्राह्मण में सामाजिक स्थिति के क्रम में क्षत्रिय को पहले स्थान पर रखा गया है।
हालांकि वैदिक साहित्य में इन अनुत्पादक वर्गों के बीच सहयोग के दृष्टांत मिलते हैं, लेकिन क्षत्रिय याज्ञिक कृत्यों और पौरोहित्य की ओर बढ़ रहे थे। समर्थ राजन्यों ने दार्शनिक विजय प्राप्त की और उपनिषदों की रचना की। पांचालराज प्रवाहण जाबालि, विदेह शासक जनक, अश्वपति कैकय और काशिराज अजातशत्रु जैसे क्षत्रिय शासकों ने ब्राह्मणों के आचार्यत्व को चुनौती दी और उन्हें दीक्षा दी। उत्तर-पूर्वी भारत में लिच्छवि, शाक्य आदि क्षत्रिय-प्रधान गणों की अधिकता थी, जहाँ जैन और बौद्ध जैसे बुद्धिवादी संप्रदायों का विकास हुआ। आर्थिक लाभ, सामाजिक प्रतिष्ठा और राजकीय शक्ति के लिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों की प्रतिद्वंद्विता इस आंदोलन में सहायक थी।
छठी शताब्दी ई.पू. तक जनों का युग समाप्त हो चुका था, और जनपद गणाधीन या राज्याधीन हो चुके थे। शासन-सत्ता पर क्षत्रियों का अधिकार था। राज्य के संगठन में देश-तत्त्व सजात्य से अधिक शक्तिशाली हो गया था। बौद्ध और जैन साहित्य से पता चलता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के जनपदों में क्षत्रिय-प्रधान गणों और निर्ग्रंथ जैसे श्रमणों का प्रभुत्व था, जो बुद्धिवादी धार्मिक आंदोलन के उदय की भूमि बने। गणराज्यों का जनतांत्रिक वातावरण नवीन संप्रदायों के उदय में सहायक था।
संशय और व्याकुलता का वातावरण
वैदिक यज्ञवाद और कर्मप्रधान प्रवृत्तिमार्ग का श्रमण संस्कृति के निवृत्तिमार्ग से टकराव स्वाभाविक था। इस काल में वैदिक धर्म का विरोध करने वाले पाराजिक, वैरागी, तपस्वी और संन्यासी जनसाधारण में अपने मतों का प्रचार कर रहे थे और नैतिक मूल्यों की प्रासंगिकता पर सवाल उठा रहे थे। इससे समाज में धार्मिक अराजकता फैल गई। जैन-बौद्ध ग्रंथों में 62 नास्तिक दार्शनिक संप्रदायों का उल्लेख है, जैसे आजीवक, निर्ग्रंथ, मुंडश्राव, जटिलक, पाराजिक, मार्गांधक, त्रैदंडिक, अविरुद्धक, गौतमक, देवधार्मिक, उच्छेदवादी, पुब्बेकतावादी, खग्विज्जवादी, इस्सरकारणवादी, अहेतुवादी, विनयवादी, क्रियावादी और अक्रियावादी। इनमें छह विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थे: पूरण कश्यप, मख्खलि गोशाल, अजित केशकंबलिन, पकुध कात्यायन, संजय वेलट्ठिपुत्र और निगंठ नाथपुत्त (महावीर)।
पूरण कश्यप
ब्राह्मण पूरण कश्यप घोर अक्रियावादी था। उसका मत था कि कर्मों का कोई फल नहीं होता। उसने अक्रियावाद का प्रचार कर पाप और पुण्य की अवधारणा को नकारा, जिससे अनाचार और हिंसा को बढ़ावा मिला। उसका तर्क था कि आत्मा और शरीर भिन्न हैं; आत्मा क्रिया नहीं करती, शरीर करता है। इसलिए कोई भी क्रिया, चाहे वह हत्या, चोरी या असत्य भाषण हो, पाप या पुण्य नहीं देती।
मख्खलि गोशाल
महावीर के समकालीन मख्खलि गोशाल ने नियतिवाद का प्रचार कर आजीवक संप्रदाय की स्थापना की। इसका उल्लेख अशोक के सातवें स्तंभ लेख में है। गोशाल का जन्म गोशाला में हुआ और उसने अपने पिता के तस्वीरों के लेन-देन के व्यवसाय को अपनाया। भगवतीसूत्र के अनुसार, वह कुछ समय तक महावीर का शिष्य रहा। कट्टर नियतिवादी गोशाल का मानना था कि समस्त प्राणी नियति के अधीन हैं और उनकी अपनी कोई शक्ति या पराक्रम नहीं है। वे नियति और स्वभाव के कारण सुख-दुख भोगते हैं। बौद्ध और जैन ग्रंथ इसे अनैतिक मानते थे।
अजित केशकंबलिन
अजित केशकंबलिन भारतीय भौतिकवाद का ऐतिहासिक संस्थापक माना जाता है। वह केशों से बने कंबल के कारण केशकंबलिन कहलाया। उसने उच्छेदवाद का प्रचार किया, जिसके अनुसार मृत्यु के बाद पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि जैसे चार भूत अपने मूल में विलीन हो जाते हैं, और आत्मा की कोई सत्ता नहीं रहती। उसने पाप-पुण्य, यज्ञ, होम और दान को झूठा बताया। उसका चिंतन लोकायत परंपरा को पुष्ट करता है।
पकुध कात्यायन
बुद्ध के समकालीन पकुध कात्यायन ने अन्योन्यवाद का प्रचार किया। उसका मानना था कि सात पदार्थ—पृथ्वी, जल, तेज, वायु, सुख, दुख, और जीवन—अकृत, अनिर्मित, और अबध्य हैं, जो एक-दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकते। इससे उसने पुनर्जन्म और कर्मफल को नकारा। यह सत्तकार्यवाद का उदाहरण है, जो वैशेषिक दर्शन से मिलता-जुलता है।
संजय वेलट्ठिपुत्र
संजय वेलट्ठिपुत्र राजगृह में धार्मिक संघ का संस्थापक था। उसका सिद्धांत अनिश्चयवाद या अज्ञेयवाद था, जो लोक, परलोक, पुनर्जन्म और कर्मफल जैसे प्रश्नों पर अनिश्चितता व्यक्त करता था। इसके अनुयायी ‘अमराविक्खेपिक’ कहलाए। संजय को महावीर के स्याद्वाद और बुद्ध के विभाज्यवाद का पूर्ववर्ती माना जाता है।
निगंठ नाथपुत्त
निगंठ नाथपुत्त यानी स्वामी महावीर जैन आंदोलन के जनक थे। वे बंधनमुक्त होने के कारण ‘निगंठ’ कहलाए।
इनके अतिरिक्त अन्य आचार्यों जैसे रावरी, पटतपाद, संदूक, सरभ, सभिय, अलार कलाम और उद्दक रामपुत्त का भी उल्लेख मिलता है।
बौद्धिक आंदोलन का स्वरूप
छठी शताब्दी ई.पू. के इस विषम वातावरण में महावीर और गौतम बुद्ध जैसे मानवतावादी महापुरुषों का उदय हुआ। इन्हें वैदिक धर्म की कुरीतियों और समकालीन परिव्राजकों के अतिवादी मतों का विरोध करने की दोहरी चुनौती थी। जैन और बौद्ध धर्म ने वैदिक यज्ञों का विरोध किया, परिव्राजकों के अव्यवस्थामूलक मतों का खंडन किया और नई उत्पादन-तकनीक पर आधारित समाज को वैचारिक और धार्मिक समर्थन दिया।
बुद्ध और महावीर ने वेदवाद, ब्राह्मणों की सर्वोच्चता और जातिप्रथा का विरोध किया। इन्होंने अहिंसा और संन्यास-प्रधान जीवन को बढ़ावा दिया। वेदों को देववाक्य मानने से इंकार करते हुए बुद्ध ने कहा कि ‘वेदमंत्र जलविहीन मरुस्थल और पंथहीन जंगल हैं।‘ बुद्ध ने पुरोहितों के दक्षिणा-लालच और पशुबध की निंदा की। जैन और बौद्ध ग्रंथों में जन्म-आधारित जातिप्रथा का विरोध हुआ, और कर्म को जाति का आधार बताया गया। दोनों ने सभी वर्णों और स्त्रियों के लिए अपने धर्म का द्वार खोला।
बौद्धिक आंदोलन का परिणाम
इस बौद्धिक आंदोलन ने भारतीय इतिहास को दीर्घकाल तक प्रभावित किया। इसने अहिंसा, दया, करुणा, शांति और सेवा-भावना पर आधारित समतावादी युग की शुरुआत की। स्वतंत्र विचारकों ने उच्च वर्गों के एकाधिकार, सामाजिक कुप्रथाओं और असमानता का विरोध किया। इन्होंने ईश्वर की सत्ता को नकारकर उचित आचार-विचार को मुक्ति का साधन बताया। वैदिक वर्ण-विभाजन से उत्पीड़ित कृषक, शिल्पकार और व्यापारी इन धर्मों की ओर आकर्षित हुए।
ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रतिद्वंद्विता ने भारतीय इतिहास को प्रभावित किया। भागवत धर्म और भक्ति संप्रदाय के उदय ने ब्राह्मणों का निम्नवर्गीयों के साथ संघर्ष शुरू किया, लेकिन निम्नवर्गीयों के विरुद्ध ब्राह्मण और क्षत्रिय एकजुट हो जाते थे। बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मणों को ‘पथभ्रष्ट’ कहा गया, क्योंकि सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के कारण कई ब्राह्मण वैद्य, कृषक, व्यापारी और अन्य पेशों में लग गए। संन्यासियों ने पालि और प्राकृत जैसी लोकभाषाओं में उपदेश और ग्रंथ रचे, जिससे सर्वश्रेष्ठ धर्मग्रंथों की रचना संभव हुई।










