19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों के प्रभाव और प्रमुख प्रवृत्तियाँ (Influences and Major Trends of 19th Century Reform Movements)

9वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों के प्रभाव सामाजिक सुधार उन्नीसवीं सदी के सांस्कृतिक जागरण का […]

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों के प्रभाव और प्रमुख प्रवृत्तियाँ (Influences and Major Trends of 19th Century Reform Movements)

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9वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों के प्रभाव

सामाजिक सुधार

उन्नीसवीं सदी के सांस्कृतिक जागरण का प्रमुख प्रभाव सामाजिक सुधार के क्षेत्र में देखने को मिला। इसका कारण यह था कि भारतीय समाज के पिछड़ेपन की तमाम निशानियाँ, जैसे जातिप्रथा और स्त्रियों की असमानता, अतीत में धार्मिक मान्यताओं से समर्थित रही थीं। सामाजिक समानता तथा सभी व्यक्तियों की समान क्षमता के मानवतावादी आदर्शों से प्रेरित प्रायः सभी नवशिक्षित धर्म सुधारकों ने समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं का विरोध किया। अब वे बुद्धिविरोधी और अमानवीय सामाजिक व्यवहारों को सहन करने को तैयार नहीं थे। शीघ्र ही समाज सुधार, धार्मिक सुधार आंदोलन का एक आवश्यक अंग बन गया।

उन्नीसवीं सदी में समाज सुधार का कार्य धर्म सुधार से जुड़ा था, किंतु बाद के वर्षों में यह अधिकाधिक धर्मनिरपेक्ष होता गया और रूढ़िवादी धार्मिक दृष्टिकोण वाले अनेक व्यक्तियों ने भी इसमें भाग लिया। आरंभ में समाज सुधार बहुत कुछ ऊँची जातियों के नवशिक्षित भारतीयों द्वारा अपने सामाजिक व्यवहार को आधुनिक पश्चिमी संस्कृति व मूल्यों के साथ तालमेल बिठाने के प्रयासों का परिणाम था। किंतु धीरे-धीरे इसका क्षेत्र व्यापक होकर समाज के निचले वर्गों तक फैल गया और यह सामाजिक क्षेत्र की पुनर्रचना करने लगा। 1919 के बाद राष्ट्रीय आंदोलन समाज सुधार का प्रचारक बन गया। सुधारकों ने जनता तक पहुँचने के लिए भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक प्रयोग किया। उन्होंने अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए उपन्यासों, नाटकों, कहानियों, कविताओं, लघुकथाओं, प्रेस और 1930 के दशक में फिल्मों का भी उपयोग किया। कालांतर में सुधारकों के विचारों व आदर्शों को लगभग सार्वभौमिक मान्यता मिली और आज वे भारतीय समाज का अभिन्न अंग हैं। समाज सुधार आंदोलनों ने मुख्यतः दो लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास किया: पहला, स्त्रियों की मुक्ति और उन्हें समान अधिकार प्रदान करना और दूसरा, जातिप्रथा की जड़ताओं, विशेषकर अस्पृश्यता को समाप्त करना।

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों के प्रभाव और प्रमुख प्रवृत्तियाँ (Influences and Major Trends of 19th Century Reform Movements)
राममोहन रॉय, ईश्वरचंद विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद
स्त्रियों की मुक्ति

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियाँ सदियों से पुरुषों की अधीनता और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार रही हैं। पारंपरिक विचारधारा में पत्नी और माँ के रूप में स्त्री की प्रशंसा तो की गई, किंतु एक मानव के रूप में उसे अत्यंत निम्न सामाजिक स्थान दिया गया। लड़की का जन्म अपशकुन, उसका विवाह बोझ और वैधव्य शाप समझा जाता था। कई क्षेत्रों में लड़की के जन्म के साथ ही उसकी हत्या कर दी जाती थी। यदि लड़की बच भी जाती, तो उसे बाल विवाह की यातना झेलनी पड़ती थी। सामाजिक अपयश से बचने के लिए उसे जैसे-तैसे विवाह के नाम पर किसी के साथ बाँध दिया जाता था। उदाहरण के लिए, बंगाल में एक 80 वर्षीय ब्राह्मण के पास लगभग दो सौ पत्नियाँ थीं, जिनमें सबसे छोटी पत्नी केवल आठ वर्ष की थी। इसके बावजूद, यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती, तो उसे बलपूर्वक पति की चिता में जलने के लिए मजबूर किया जाता था। राममोहन रॉय ने इसे “शास्त्र की आड़ में हत्या” की संज्ञा दी। यदि कोई महिला सती होने से बच भी जाती या बचा ली जाती, तो उसे जीवन भर वैधव्य की यातनाएँ सहनी पड़ती थीं—अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा और मुसीबतों से भरी जिंदगी।

हिंदू स्त्री को उत्तराधिकार में संपत्ति प्राप्त करने का अधिकार नहीं था और न ही वह अपने दुखमय वैवाहिक जीवन से छुटकारा पा सकती थी। मुस्लिम स्त्री को संपत्ति में अधिकार तो मिलता था, किंतु पुरुषों के अधिकार का केवल आधा और तलाक के मामले में स्त्री-पुरुष के बीच सैद्धांतिक समानता नहीं थी। हिंदू और मुस्लिम स्त्रियों की सामाजिक स्थिति और सम्मान में भी समानता थी। इसके अलावा, दोनों ही सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पुरुषों पर पूरी तरह निर्भर थीं। अंतिम बात यह कि शिक्षा का लाभ उनमें से अधिकांश को प्राप्त नहीं था। साथ ही, स्त्री को अपनी दासता को स्वीकार करने, बल्कि इसे सम्मान का प्रतीक मानने का पाठ भी पढ़ाया जाता था। कभी-कभार रजिया सुल्तान, चाँद बीबी और अहिल्याबाई होल्कर जैसी स्त्रियाँ भी हुईं, किंतु इन्हें अपवाद ही माना जाना चाहिए और इससे स्त्रियों की सामान्य स्थिति में कोई अंतर नहीं आया।

उन्नीसवीं सदी के समाज सुधारकों ने मानवतावादी और समानतावादी विचारों से प्रेरित होकर स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए एक शक्तिशाली आंदोलन शुरू किया। अनेक व्यक्तियों, धार्मिक संगठनों और सुधार समितियों ने स्त्रियों में शिक्षा के प्रसार, विधवाओं की स्थिति में सुधार, उनके पुनर्विवाह को प्रोत्साहन, कन्या वध और बाल विवाह को रोकने, स्त्रियों को पर्दे से बाहर लाने, एकपत्नी प्रथा को प्रचलित करने और मध्यमवर्गीय स्त्रियों को व्यवसाय या सरकारी सेवा में जाने के योग्य बनाने के लिए कड़ा परिश्रम किया। 1880 के दशक में तत्कालीन वायसराय डफरिन की पत्नी लेडी डफरिन के नाम पर जब अस्पताल खोले गए, तो आधुनिक औषधियों और प्रसव की आधुनिक तकनीकों का लाभ भारतीय स्त्रियों को उपलब्ध कराने के प्रयास किए गए।

सतीप्रथा की समाप्ति

भारतीय समाज में सतीप्रथा का उद्भव प्राचीन काल से माना जाता है, और इसका पहला अभिलेखीय साक्ष्य 510 ईस्वी के एरण अभिलेख में मिलता है। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रथा हमेशा हिंदू जीवन के नियम की अपेक्षा एक अपवाद ही रही। मुगल काल में केवल मध्य भारत और राजस्थान के राजपूत राजघरानों में इस प्रथा का पालन होता था और दक्षिण में विजयनगर राज्य में इसका अनुसरण किया जाता था। ब्रिटिश काल में अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में इस प्रथा को उन क्षेत्रों में पुनः प्रारंभ किया गया, जहाँ ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत विकास की दर सबसे अधिक थी, जैसे राजधानी कलकत्ता और आसपास के जिलों में। वहाँ यह प्रथा न केवल सवर्ण जातियों में, बल्कि निचली और मझोली जातियों के उन किसान परिवारों में भी लोकप्रिय हुई, जो सामाजिक गतिशीलता प्राप्त कर चुके थे और श्रेष्ठतर जातियों की नकल करके अपनी सामाजिक स्थिति को वैध बनाना चाहते थे।

इसके पूर्व 15वीं शताब्दी में कश्मीर के शासक सिकंदर ने इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाया था। भारत में मुगल बादशाह अकबर और औरंगज़ेब, पेशवाओं, जयपुर के राजा जयसिंह, पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क और ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ गवर्नर-जनरलों, जैसे लॉर्ड कॉर्नवॉलिस और लॉर्ड हेस्टिंग्स ने इस कुप्रथा को समाप्त करने की दिशा में कुछ प्रयास किए थे।

राजा राममोहन रॉय ने अपने पत्र ‘संवाद कौमुदी’ के माध्यम से इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाया। अंततः गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने 1829 के 17वें नियम के अनुसार बंगाल में विधवाओं को जीवित जलाने को अपराध घोषित कर दिया, जिसे उन्मूलन-विरोधी धर्मसभा द्वारा 1830 में प्रीवी कौंसिल में दायर एक हिंदू याचिका भी रद्द नहीं कर सकी। बाद में इसे बंबई और मद्रास में भी लागू किया गया। यद्यपि इस प्रतिबंध के बाद सतीप्रथा में कमी आई, किंतु लोकमानस में सती के विचार और मिथक की जगह बनी रही, जिसे काव्यों, लोकगीतों और लोककथाओं के कारण बल मिलता रहा। अंततः 1987 में राजस्थान के देवराला गाँव में रूपकुँवर के बहुचर्चित सतीकांड के रूप में यह प्रथा एक बार फिर सामने आई।

कन्या वध की समाप्ति

पैदा होते ही लड़कियों की हत्या (कन्या वध) की कुप्रथा पर रोक लगाने के लिए 1803 में लॉर्ड वेलेजली ने बंगाल की खाड़ी के सागर द्वीप में शिशुबलि की धार्मिक प्रथा पर प्रतिबंध लगाया था। किंतु पश्चिमी और उत्तर भारत में नन्हीं बालिकाओं की हत्या की अल्पगोचर सामाजिक प्रथा अबाध गति से जारी रही। इन क्षेत्रों में अनुलोम विवाह के नियम का पालन करने वाले सवर्ण भूस्वामी परिवारों को अपनी बेटियों के लिए अच्छे वर ढूँढना या उनके लिए भारी दहेज देना कठिन लगता था, इसलिए वे जन्म के समय ही बेटियों की हत्या कर देते थे। अंग्रेज अधिकारी इस प्रथा को समाप्त करना चाहते थे, लेकिन राजनीतिक कारणों से इसे 1870 तक टाला गया। अंततः वायसराय की कौंसिल ने बालिका हत्या पर एक कानून पारित किया, जिसके अनुसार माता-पिता के लिए पुत्र या पुत्री के जन्म के तुरंत बाद नगरपालिकाओं के कार्यालय में उनके नाम का पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया गया। किंतु इसके बाद भी जनगणना अधिकारी बालिकाओं की घोर उपेक्षा की खबरें देते रहे। इसका परिणाम उनकी उच्च मृत्युदर था, जिसे न कानून पकड़ सकता था, न रोक सकता था।

स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन

समाज सुधारकों ने भारतीय समाज में फैली इस भ्रांति को दूर किया कि हिंदू शास्त्रों के अनुसार स्त्रियों को पढ़ने का अधिकार नहीं है और शिक्षित स्त्री को देवता वैधव्य का दंड देते हैं। यद्यपि हिंदू बालिकाओं के लिए पहली पाठशाला 1818 में ईसाई मिशनरियों द्वारा कलकत्ता में ‘तरुणस्त्री सभा’ के रूप में शुरू की गई थी, किंतु बंबई में एलफिंस्टन संस्थान (1834) के विद्यार्थी स्त्री शिक्षा के अग्रदूत थे। उन्होंने पुस्तकालय और वैज्ञानिक सभा की स्थापना की। 1849 में लड़कियों की उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता में बेथुन स्कूल के सचिव के रूप में ईश्वरचंद विद्यासागर ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे लगभग 35 बालिका विद्यालयों से जुड़े थे। महात्मा ज्योतिबा फुले निचली जातियों की लड़कियों के लिए बालिका विद्यालय स्थापित करने वाले पहले भारतीय थे। उन्होंने 1848 में, फिर 1851 में अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ पूना में एक बालिका स्कूल खोला। 1855 में ज्योतिबा ने रात्रि पाठशालाएँ खोलीं, जिनमें दिनभर काम करने वाले मजदूर, किसान और गृहणियाँ पढ़ने आती थीं। ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई फुले आधुनिक भारत की प्रथम भारतीय महिला अध्यापिका बनीं, जो फुले के विद्यालय की पहली छात्रा थीं।

बाल विवाह पर प्रतिबंध

विद्यासागर के प्रयासों से बंगाल में 1860 में आयु-संबंधी एक कानून पारित किया गया, जिसमें स्त्रियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 10 वर्ष निर्धारित की गई। बी. एम. मालाबारी और एस. एस. बंगाली के सहयोग से ब्रिटिश सरकार ने 1891 में सम्मति आयु अधिनियम (एज ऑफ कंसेंट ऐक्ट) पारित किया। इस अधिनियम के अनुसार 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई। बाद में 1929 में ‘शारदा अधिनियम’ द्वारा विवाह के लिए कन्या की न्यूनतम आयु 14 वर्ष और लड़के की 18 वर्ष निर्धारित की गई और बहुपत्नी प्रथा को समाप्त कर दिया गया। किंतु बाद के जनगणना आँकड़ों से पता चलता है कि ऊँची और निचली दोनों जातियों में बीसवीं सदी में भी बाल विवाह की प्रथा व्यापक स्तर पर प्रचलित रही।

विधवा पुनर्विवाह

कलकत्ता के ईश्वरचंद विद्यासागर ने प्राचीन संस्कृत और वैदिक उद्धरणों से सिद्ध किया कि वेदों में विधवाओं के पुनर्विवाह की अनुमति दी गई है। उनके प्रयासों से 1856 में ‘हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ द्वारा विधवा विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त हुई। ईश्वरचंद की देखरेख में कलकत्ता में पहला विधवा पुनर्विवाह 7 दिसंबर 1856 को संपन्न हुआ। किंतु यह कानून रूढ़िवादी था, क्योंकि पुनर्विवाह के बाद विधवा अपने स्वर्गीय पति की संपत्ति में हिस्सेदार नहीं रहती थी। इस प्रकार इस कानून ने ब्राह्मणवादी नियमों का समर्थन किया, जो केवल पवित्र और साध्वी विधवाओं को पुरस्कृत करता था। 1866 में विष्णुशास्त्री पंडित ने विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा देने के लिए एक संगठन बनाया। शशिपद बनर्जी ने 1887 में कलकत्ता में विधवाओं की सहायता के लिए एक संस्था स्थापित की। सर गंगाराम ने लाहौर में ‘विधवा विवाह सहायक सभा’ की स्थापना की। डॉ. धोंडो केशव कर्वे ने 1893 में स्वयं एक विधवा से विवाह किया और उच्च वर्ग की विधवाओं को समाज में पुनर्स्थापित करने तथा आत्मनिर्भर बनाने के लिए 1899 में पूना में एक विधवा आश्रम और अनाथ बालिका आश्रम स्थापित किया। कर्वे के प्रयासों से 1916 में बंबई में भारतीय महिला विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। किंतु विधवा पुनर्विवाह आंदोलन का प्रभाव सीमित रहा, क्योंकि सदी के अंत तक केवल 48 विधवाओं ने पुनर्विवाह किया और इनमें से भी दंपतियों को सामाजिक दबाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। फिर भी, कुछ यशस्वी विधवाएँ जैसे रमाबाई पंडिता ने ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध किया और बंबई में विधवाओं के लिए ‘शारदा सदन’ की स्थापना की, जिसने महाराष्ट्र के सार्वजनिक जीवन पर अमिट छाप छोड़ी।

दास प्रथा का अंत

भारत में यूनानी, रोमन, या अमेरिकी नीग्रो प्रकार की दासता कभी नहीं थी। भारतीय दास बंधुआ मजदूरों जैसे थे, और उनसे अपेक्षाकृत अधिक मानवतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। उत्तर भारत में वे प्रायः घरों में और दक्षिण भारत में खेतों में काम करते थे। किंतु यूरोपीय लोग भारतीय दासों के साथ यूरोप की तरह निर्दयता का व्यवहार करते थे। ब्रिटेन में दास प्रथा का उन्मूलन 1833 में हो चुका था, और भारत में उपनिवेशी प्रशासकों को इसके विभिन्न रूपों का पता चलता रहा। इसलिए 1833 के चार्टर अधिनियम में भारत सरकार को दास प्रथा के उन्मूलन का निर्देश दिया गया और उसी वर्ष एक धारा जोड़ी गई कि भारत में दासता को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त किया जाए। अंततः 1843 में समस्त भारत में दासता को अवैध घोषित कर दिया गया और मालिकों को बिना किसी प्रतिकर के सभी दासों को स्वतंत्र कर दिया गया। किंतु भारत में दासता के वास्तविक रूप भिन्न-भिन्न थे, इसलिए कानूनी प्रतिबंधों का प्रभाव सीमित रहा। जातिप्रथा, रीति-रिवाजों, और कर्जदारी ने खेत मजदूरों को लंबे समय तक भूस्वामियों से बंधन में रखा।

स्त्री उद्धार आंदोलन

बीसवीं सदी में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के साथ स्त्री उद्धार आंदोलन को भी पर्याप्त बल मिला। भारतीय स्त्रियों की जागृति और मुक्ति के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने सक्रिय और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंग-भंग विरोधी आंदोलन और होमरूल आंदोलन में स्त्रियों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। 1918 के बाद वे राजनीतिक जुलूसों में शामिल होने लगीं, विदेशी वस्त्रों और शराब की दुकानों पर धरना देने लगीं और खादी बुनने तथा उसके प्रचार का कार्य करने लगीं। ट्रेड यूनियनों और किसान आंदोलनों के दौरान स्त्रियाँ पहली पंक्ति में दिखाई दीं और क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलनों में भी उनकी सक्रिय उपस्थिति रही। इसके अलावा, वे विधानमंडलों के चुनाव में मतदान करने और उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरने लगीं। 1937 में गठित कांग्रेसी सरकारों में कई स्त्रियाँ मंत्री या संसदीय सचिव बनीं और सैकड़ों महिलाएँ स्थानीय स्वशासन संस्थाओं में सदस्य चुनी गईं। अब जेल जाने या गोली खाने वाली स्त्रियों को ‘दासी’ या ‘गुड़िया’ कहकर घरों में कैद करना संभव नहीं था।

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों के प्रभाव और प्रमुख प्रवृत्तियाँ (Influences and Major Trends of 19th Century Reform Movements)
महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले

भारतीय रेडक्रॉस सोसाइटी के ‘मैटरनिटी एंड चाइल्ड वेलफेयर ब्यूरो’, ‘इंडियन विमेन्स एसोसिएशन’ (1917), और दिल्ली में ‘लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज’ (1916) की स्थापना स्त्रियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक थी। 1920 के बाद आत्म-चेतन और आत्म-विश्वास प्राप्त स्त्रियों ने स्वयं कई संस्थाएँ और संगठन स्थापित किए। 1927 में स्थापित ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ (ऑल इंडिया वुमेन्स कॉन्फ्रेंस) इसी जागरूकता का परिणाम था।

स्त्री और पुरुष की समानता की गारंटी

स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के समानता के संघर्ष में तेजी आई। भारतीय संविधान (1950) की धारा 14 और 15 में स्त्री और पुरुष की पूर्ण समानता की गारंटी दी गई। 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम में कुछ विशिष्ट आधारों पर विवाह संबंध भंग करने की छूट दी गई। स्त्री और पुरुष दोनों के लिए एक विवाह अनिवार्य किया गया। 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में पिता की संपत्ति में पुत्री को पुत्रों के बराबर अधिकार दिया गया। इसके साथ ही बहुविवाह और दहेज प्रथा को भी प्रतिबंधित किया गया। यद्यपि दहेज लेने और देने पर प्रतिबंध है, किंतु दहेज प्रथा आज भी प्रचलित है। संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत शामिल किया गया। इन सबके बावजूद, समानता के सिद्धांत को व्यवहार में लागू करने में अनेक बाधाएँ हैं।

जातिप्रथा का विरोध और अस्पृश्यता निवारण

समाज सुधार आंदोलन का एक प्रमुख निशाना जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता थी। वैदिक काल से ही भारतीय समाज चार मुख्य वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित रहा है। व्यावसायिक समूहों के रूप में जातियाँ, जिनकी संख्या आधुनिक भारत में 3,000 से अधिक है, वर्णों के साथ-साथ उभरीं और अक्सर पेशेवर विशेषीकरण के आधार पर और विभाजित हुईं। जातियों को चतुराई से पदानुक्रम में ऊँचे-नीचे दर्जे में रखा गया, ताकि शोषित जातियाँ कभी संगठित न हो सकें। इस सामाजिक व्यवस्था में सबसे नीचे अछूत (अस्पृश्य) थे। इन अछूतों पर कई कठोर निर्योग्यताएँ और प्रतिबंध थोपे गए, जो विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थे। इस सामाजिक वर्गीकरण की सफलता मुख्यतः इसकी संरचना और आंशिक रूप से दैवी स्वीकृति में निहित थी।

देश के कुछ भागों, विशेषकर दक्षिण में लोग अछूतों की छाया से बचते थे। उनके खाने, पहनने और रहने के स्थान पर भी कड़े प्रतिबंध थे। वे ऊँची जातियों के कुओं और तालाबों से पानी नहीं ले सकते थे। अछूतों के लिए कुछ तालाब और कुएँ निश्चित थे और जहाँ ऐसे कुएँ और तालाब नहीं थे, वहाँ उन्हें पोखरों और सिंचाई की नालियों का गंदा पानी पीना पड़ता था। उनके लिए हिंदू मंदिरों में प्रवेश और शास्त्रों का अध्ययन प्रतिबंधित था। उनके बच्चे ऊँची जातियों के स्कूलों में नहीं जा सकते थे। पुलिस और सेना जैसी सरकारी नौकरियाँ उनके लिए नहीं थीं। अछूतों को अपवित्र माने जाने वाले कार्य, जैसे झाड़ू-बुहारी, जूते बनाना, मृत पशुओं की खाल निकालना और चमड़ा कमाना आदि करने पड़ते थे। वे जमीन के मालिक नहीं हो सकते थे और उनमें से कई को बँटाईदारी या खेत मजदूरी करनी पड़ती थी।

चूँकि जातिप्रथा और अस्पृश्यता दोनों ही अपमानजनक, अमानवीय और जन्मजात असमानता के जनविरोधी सिद्धांतों पर आधारित थीं, इसलिए आधुनिक शिक्षित समाज सुधारकों ने अनुभव किया कि राष्ट्रीय एकता और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में प्रगति तब तक संभव नहीं है, जब तक लाखों लोग सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार से वंचित हैं। यद्यपि कुछ ने चातुर्वर्ण व्यवस्था की वकालत की, किंतु उन्होंने भी जातिप्रथा, विशेषकर अस्पृश्यता की निंदा की।

छुआछूत विरोधी संघर्ष

अनेक सुधारकों और संगठनों ने अछूतों के लिए स्कूलों और मंदिरों के दरवाजे खुलवाने, सार्वजनिक कुओं और तालाबों से पानी भरने का अधिकार दिलाने, और उन्हें उत्पीड़ित करने वाली सामाजिक निर्योग्यताओं और भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किए। नवजागरण और आधुनिक शिक्षा के व्यापक प्रसार के फलस्वरूप शूद्रों और हाशिये पर रहने वाले अछूतों में अपने मूल मानव अधिकारों के प्रति चेतना जागी, और वे स्वयं ऊँची जातियों के परंपरागत उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होने लगे।

20वीं सदी के प्रारंभ में ज्योतिबा फुले से प्रभावित कोल्हापुर के शाहूजी महाराज (1874-1922) ने मराठों, मातंगों, महारों और चमारों के उत्थान के लिए 26 जुलाई, 1902 को कोल्हापुर राज्य की सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत स्थान अछूतों के लिए आरक्षित कर सामाजिक क्रांति की शुरुआत की। उन्होंने अपने राज्य में ‘महार वतन समाप्ति अधिनियम’ (1918) पारित किया और अक्टूबर 1919 में एक कानून द्वारा स्कूलों में अछूतों के भेदभाव को समाप्त किया। महाराष्ट्र में एस. एम. माटे ने 1917 में पूना में अछूतों के उद्धार के लिए कई विद्यालय खोले और उनके जीवन स्तर में सुधार लाने के प्रयास किए। 1903 में ‘बंबई समाज सुधारक सभा’ की स्थापना हुई और मद्रास में एनी बेसेंट ने एक ‘हिंदू सम्मेलन’ स्थापित किया।

किंतु समाज सुधार के एक मुद्दे के रूप में छुआछूत का प्रश्न बीसवीं सदी में, प्रथम विश्व युद्ध के बाद महात्मा गांधी के उदय के साथ ही प्रमुखता से उठा। 1928 में कांग्रेस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया कि जातिप्रथा हिंदू समाज के एकीकरण में बहुत बड़ी बाधा है, इसलिए इसे समाप्त किया जाना चाहिए। गांधीजी ने 1932 में हरिजनोद्धार के लिए ‘अखिल भारतीय हरिजन संघ’ की स्थापना की और पूरे देश में अस्पृश्यता के विरुद्ध प्रचार किया। उनका अस्पृश्यता उन्मूलन का आंदोलन मानवतावाद और बुद्धिवाद पर आधारित था।

डॉ. भीमराव आंबेडकर, जो स्वयं महाराष्ट्र की एक अछूत महार जाति से थे, ने अपना पूरा जीवन जातिगत अत्याचार विरोधी संघर्ष को समर्पित कर दिया। दक्षिण भारत में ई. वी. रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ जैसे गैर-ब्राह्मणों ने ब्राह्मणों द्वारा थोपी गई निर्योग्यताओं के विरुद्ध 1920 के दशक में ‘आत्म-सम्मान आंदोलन’ चलाया और पूरे भारत में मंदिरों में अछूतों के प्रवेश और अन्य प्रतिबंधों के खिलाफ कई सत्याग्रह आंदोलन चलाए।

फिर भी, छुआछूत विरोधी संघर्ष विदेशी शासन में पूरी तरह सफल नहीं हो सका। अंततः भारतीय संविधान ने छुआछूत की समाप्ति के लिए एक कानूनी आधार तैयार किया और घोषणा की कि अस्पृश्यता समाप्त कर दी गई है, और किसी भी रूप में इसका पालन निषिद्ध है। छुआछूत के आधार पर किसी पर कोई निर्योग्यता थोपना अपराध होगा, जिसके लिए कानून के अनुसार दंड दिया जाएगा।

सुधार आंदोलन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

सकारात्मक प्रवृत्तियाँ
बुद्धिवाद और मानवतावाद

आधुनिक युग के प्रायः सभी सुधार आंदोलन बुद्धिवाद और मानवतावाद के सिद्धांतों पर आधारित थे, यद्यपि कभी-कभी वे जनमानस को आकर्षित करने के लिए आस्था और प्राचीन ग्रंथों का सहारा लेते थे। इन आंदोलनों ने उभरते मध्यम वर्ग और आधुनिक शिक्षित प्रबुद्ध लोगों को अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित किया। इस आंदोलन ने बुद्धिविरोधी धार्मिक अंधश्रद्धा से मानव बुद्धि की तर्क-विचार क्षमता को मुक्त करने का प्रयास किया और भारतीय धर्मों के कर्मकांडी, अंधविश्वासी, बुद्धिविरोधी, और पुराणपंथी पक्षों का विरोध किया। सुधारकों ने धर्म को अंतिम सत्य का भंडार मानने से इनकार किया और किसी भी धर्म या उसके ग्रंथों में मौजूद सत्य को तर्क, बुद्धि और विज्ञान की कसौटी पर परखा।

कुछ सुधारकों ने परंपरा का सहारा लिया और दावा किया कि वे केवल अतीत के वास्तविक सिद्धांतों, मान्यताओं और व्यवहारों को पुनरुत्थान कर रहे हैं, किंतु यथार्थ में अतीत को पुनरुत्थान नहीं किया जा सका। अतीत के बारे में सबकी समझ एक जैसी नहीं थी। अतीत का सहारा लेने से जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, उनका वर्णन रानाडे ने किया है, यद्यपि वे स्वयं कभी-कभी जनता से आग्रह करते थे कि वह अतीत की श्रेष्ठ परंपराओं को पुनरुत्थान करे। वे लिखते हैं:

“पुनरुत्थान हम करें तो क्या? क्या हम जनता की पुरानी आदतों को पुनरुत्थान करें, जब हमारी जातियों में सबसे पवित्र जाति भी पशु के माँस और नशीली शराब का सेवन करती थी, जिन्हें हम आज घृणित समझते हैं? क्या हम पुत्रों की बारह श्रेणियों या आठ प्रकार के विवाहों को पुनरुत्थान करें, जिसमें राक्षस विवाह भी शामिल था और जो मुक्त तथा अवैध यौन संबंध को मान्यता देता था? क्या हम प्रतिवर्ष होने वाले शतमेध को पुनरुत्थान करें, जिसमें मनुष्यों तक का देवताओं के समक्ष बलिदान दिया जाता था? क्या हम सती या शिशुहत्या की प्रथाओं को पुनरुत्थान करें?”

अंततः रानाडे मानते हैं कि समाज एक निरंतर परिवर्तनशील जीवित सत्ता है और कभी अतीत की ओर नहीं लौट सकता। उन्होंने लिखा : “मृत तथा दफनाए या जलाए जा चुके लोग हमेशा के लिए मृत, दफनाए, या जलाए जा चुके हैं और इसलिए मुर्दा अतीत को पुनरुत्थान नहीं किया जा सकता।” अतीत का नाम लेने वाले प्रत्येक सुधारक ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की कि वह उनके द्वारा सुझाए गए सुधारों के अनुरूप लगे। सुधार और उनके दृष्टिकोण प्रायः नवीन थे, और अतीत के आधार पर उन्हें केवल उचित ठहराया जाता था। अनेक विचार, जो आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान से मेल खाते थे, प्रक्षिप्तांश या गलत व्याख्या का परिणाम बताए गए। परिणामस्वरूप, रूढ़िवादी वर्ग का सुधारकों से टकराव स्वाभाविक था। यही कारण है कि आरंभिक चरण के सुधारक धार्मिक और सामाजिक विद्रोहियों के रूप में सामने आए। उदाहरण के लिए, स्वामी दयानंद की हत्या के लिए हत्यारे भाड़े पर लिए गए, उनके भाषणों और वाद-विवादों के दौरान उन पर निषिद्ध वस्तुएँ फेंकी गईं और उन्हें ‘ईसाइयों का भाड़े का प्रचारक’, ‘धर्मविरोधी’, ‘नास्तिक’ आदि कहा गया। इसी तरह, सैयद अहमद खाँ को भी परंपरावादियों के गुस्से का शिकार होना पड़ा। उन्हें गालियाँ दी गईं, उनके विरुद्ध फतवे जारी किए गए और जान से मारने की धमकियाँ दी गईं।

धार्मिक सुधार आंदोलनों के मानवतावादी चरित्र की अभिव्यक्ति पुरोहितवाद और कर्मकांड पर उनके हमलों में, और मानव कल्याण और बुद्धि की दृष्टि से धर्मग्रंथों की व्याख्या के व्यक्ति के अधिकार पर दिए गए जोर में हुई। सुधार आंदोलनों के मानवतावाद की एक विशेषता नई मानवतावादी नैतिकता थी, जिसमें यह धारणा शामिल थी कि मानवता प्रगति कर सकती है और करती रही है और वे ही मूल्य नैतिक हैं जो मानव प्रगति में सहायक हों।

यद्यपि सुधारकों ने अपने-अपने धर्मों में सुधार लाने का प्रयास किया, किंतु उनका सामान्य दृष्टिकोण सर्वधर्मवादी था। राममोहन रॉय विभिन्न धर्मों को एक ही सर्वव्यापी ईश्वर और धार्मिक सत्य के विशिष्ट रूप मानते थे। सैयद अहमद खाँ के अनुसार सभी पैगंबरों का एक ही धर्म या दीन था और अल्लाह ने हर कौम को अपना एक पैगंबर भेजा है। इसी बात को केशवचंद्र सेन इस प्रकार कहते हैं: “हमारा मत यह नहीं है कि सत्य सभी धर्मों में पाए जाते हैं, बल्कि यह है कि सभी स्थापित धर्म सत्य हैं।”

भारतीयों के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में वृद्धि

इन सुधार आंदोलनों ने शुद्ध रूप से धार्मिक विचारों के अलावा भारतीयों के आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और अपने देश पर गर्व को बढ़ाया। धार्मिक अतीत की आधुनिक बुद्धिवादी व्याख्या करके सुधारकों ने भारतीयों को अंग्रेजों के इस व्यंग्य का जवाब देने के योग्य बनाया कि ‘यहाँ के धर्म और समाज पतनशील और हीन हैं।’ इन सुधार आंदोलनों ने अनेक भारतीयों को आधुनिक विश्व से सामंजस्य बिठाने के योग्य बनाया। सुधारकों ने पुराने धर्मों को एक नए आधुनिक साँचे में ढालकर उन्हें समाज के नए वर्गों की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया, जिससे वे अतीत पर गर्व करते हुए भी आधुनिक विश्व और विज्ञान की श्रेष्ठता को स्वीकार कर सकें।

धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय दृष्टिकोण

कुछ सुधारकों ने दावा किया कि वे केवल मूल और प्राचीनतम धर्मग्रंथों का सहारा ले रहे हैं और इन ग्रंथों की उन्होंने समुचित व्याख्या की। सुधारमूलक दृष्टिकोण के फलस्वरूप अनेक भारतीय जाति-धर्म के संकुचित दृष्टिकोण के स्थान पर एक आधुनिक, इहलौकिक, धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाने लगे, किंतु पहले के संकुचित दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हुए। इसके अलावा, अब अधिक संख्या में लोग भाग्यवादिता और अगले जन्म में सुधार की आशा को छोड़कर इस जीवन में भौतिक और सांस्कृतिक कल्याण की बात सोचने लगे। इन आंदोलनों ने शेष विश्व से भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक अलगाव को कुछ हद तक समाप्त किया और विश्वव्यापी विचारों में भारतीयों को भागीदार बनाया। लेकिन साथ ही, हर बात पर आँख मूँदकर पश्चिम की नकल करने वालों की खुलकर आलोचना भी की गई।

उपनिवेशीकरण के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष

परंपरागत धर्मों और संस्कृति के पिछड़े तत्त्वों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने और आधुनिक संस्कृति के सकारात्मक तत्त्वों का स्वागत करने के बावजूद, अधिकांश सुधारकों ने पश्चिम की अंधी नकल का विरोध किया और भारतीय संस्कृति व विचार परंपरा के उपनिवेशीकरण के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष चलाया। कुछ लोग आधुनिकीकरण की दिशा में बहुत आगे निकल गए और संस्कृति-संबंधी उपनिवेशवाद को प्रोत्साहित करने लगे। एक ऐसा वर्ग भी था जो परंपरागत विचारों, संस्कृति और संस्थाओं का पक्षधर था और उनका गौरवगान करता था, किंतु आधुनिक विचारों और संस्कृति के समावेश का विरोधी था। कुछ श्रेष्ठ सुधारक भी थे, जिन्होंने हिंदू परंपरा के मूल को सुरक्षित रखते हुए उसे पश्चिमी आधुनिकता के अनुसार ढालने का कार्य किया।

नकारात्मक प्रवृत्तियाँ
नगरीय उच्च और मध्य वर्ग तक सीमित

आधुनिक भारत का यह सुधारवादी आंदोलन अपनी व्यापकता के बावजूद कुछ निश्चित सीमाओं में ही रहा। ये आंदोलन समाज के एक छोटे से हिस्से, अर्थात् नगरीय उच्च और मध्य वर्ग तक सीमित थे, क्योंकि सुधार की भावना केवल एक छोटे कुलीन समूह को प्रभावित करती थी, जो मुख्यतः उपनिवेशी शासन के आर्थिक और सामाजिक लाभार्थियों का समूह था। बंगाल का सुधार आंदोलन पश्चिमी शिक्षा प्राप्त कुलीनों की एक छोटी संख्या तक सीमित था, जिन्हें ‘भद्रलोक’ कहा जाता था। सामाजिक दृष्टि से वे अधिकतर हिंदू थे और यद्यपि जाति इस कुलीन समूह की सदस्यता का प्रमुख आधार नहीं थी, फिर भी वे अधिकतर तीन ऊँची जातियों—ब्राह्मण, कायस्थ, और वैश्य—के सदस्य थे। ब्रह्म समाज को लगभग पूरी तरह इन्हीं समूहों का संरक्षण प्राप्त था और यद्यपि यह कलकत्ता के छोटे कस्बों और अन्य प्रांतों तक फैला, फिर भी यह जनता से कटा रहा।

रहस्यवाद और अवैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा

सुधारकों ने सुधार को कभी जनता तक ले जाने की कोशिश नहीं की और सुधार की भाषा, जैसे राममोहन रॉय का गद्य जो ठेठ संस्कृतनिष्ठ बंगला था, अशिक्षित किसानों और दस्तकारों की समझ से परे थी। इसी तरह पश्चिमी भारत में प्रार्थना समाज के सदस्य पश्चिमी शिक्षा प्राप्त चितपावन और सारस्वत ब्राह्मण, कुछ गुजराती सौदागर और पारसी समुदाय के लोग थे। 1872 में इस समाज के केवल 68 सदस्य और लगभग 150-200 समर्थक थे। मद्रास प्रेसीडेंसी में, जहाँ अंग्रेजी शिक्षा की प्रगति बहुत धीमी थी और ब्राह्मणों का जातिगत वर्चस्व अप्रभावित रहा, सुधार के विचार और भी देर से पहुँचे। इस प्रकार, सुधार आंदोलन बहुसंख्यक किसानों और नगरों की गरीब जनता तक नहीं पहुँच सके, जिसके कारण वे परंपरागत रीति-रिवाजों में जकड़े रहे। दूसरी ओर अतीत की महानता का गुणगान करने और धर्मग्रंथों को आधार बनाने की प्रवृत्ति ने मानव बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की श्रेष्ठता को हानि पहुँचाई। अतीत की महानता के गुणगान ने एक झूठा गर्व और दंभ पैदा किया, जिससे नए रूपों में रहस्यवाद और अवैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा मिला। अतीत में ‘स्वर्णयुग’ की खोज की इच्छा के कारण आधुनिक विज्ञान को पूरी तरह अपनाया नहीं जा सका और वर्तमान को सुधारने के कार्य में बाधा उत्पन्न हुई।

अलगाववादी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन

इन सुधार आंदोलनों का सबसे प्रतिगामी तथ्य यह रहा कि इससे हिंदू, मुसलमान, सिख और पारसी अलगाव के शिकार होने लगे। ऊँची और निचली जातियों के हिंदुओं में भी दरार पड़ने लगी। विविध धर्मों वाले इस देश में धर्म पर अधिक जोर देने से अलगाव की प्रवृत्ति बढ़ना स्वाभाविक था। अनेक सुधारकों ने भारतीय संस्कृति के उन धार्मिक-दार्शनिक पक्षों पर एकतरफा जोर दिया, जो सभी लोगों की साझी संपत्ति नहीं थे। दूसरी ओर, कला, साहित्य, संगीत, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे पक्षों पर जोर नहीं दिया गया, जिनके विकास में जनता के सभी वर्गों की बराबर भूमिका थी। प्रायः हर हिंदू सुधारक ने भारतीय अतीत के गुणगान को प्राचीनकाल तक सीमित रखा और मध्यकाल को ‘पतन का काल’ बताया। यह विचार न केवल अनैतिहासिक था, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से हानिकारक भी था। इससे दो कौमों की धारणा पैदा हुई। इसी तरह, प्राचीनकाल और प्राचीन धर्मों की अनौपचारिक प्रशंसा को निचली जातियों के लोग भी पचा नहीं सके, जो सदियों से उसी विध्वंसक जातिप्रथा के दमन के शिकार थे, जो ठीक उसी प्राचीन काल की उपज थी।

अतीत को देखने और उसकी उत्कृष्टता की दुहाई देने का परिणाम यह हुआ कि भारतीय अतीत की सभी भौतिक-सांस्कृतिक उपलब्धियाँ कुछ लोगों की संपत्ति बनकर रह गईं। अतीत में ‘स्वर्णयुग’ खोजने की इस लालसा ने हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों, और ईसाइयों को आपस में बाँट दिया। यही नहीं, ऊँची जाति के हिंदू निम्न जाति के हिंदुओं से अलग-थलग पड़ गए, जिससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को भारी क्षति उठानी पड़ी। जब अतीत भी अनेक खंडों में विभाजित होने लगा, तो मुस्लिम मध्यवर्ग ने अपनी परंपरा और धरोहर को पश्चिमी एशिया के इतिहास में खोजना शुरू कर दिया। हिंदू, मुस्लिम, सिख और पारसी, तथा बाद में निचली जाति के हिंदू, सभी सुधार आंदोलनों से प्रभावित हुए थे, किंतु अब वे एक-दूसरे से कटने लगे। इन सबसे अलग परंपरागत रीति-रिवाजों को मानने वाले हिंदुओं और मुसलमानों में आपसी भाईचारा बना रहा, और वे अपने-अपने कर्मकांडों का पालन करते रहे।

समन्वित संस्कृति के विकास में व्यवधान

इस प्रकार, सदियों से चली आ रही एक समन्वित संस्कृति के विकास की प्रक्रिया में कुछ व्यवधान पड़ा, यद्यपि अन्य क्षेत्रों में भारतीय जनता के राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। इस प्रवृत्ति का दुष्परिणाम तब सामने आया, जब मध्यम वर्गों में राष्ट्रीय चेतना के तीव्र विकास के साथ-साथ सांप्रदायिक चेतना भी विकसित होने लगी। आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता के विकास के अन्य कारण भी थे, परंतु अपनी प्रकृति के कारण धर्म सुधार आंदोलनों ने निश्चित रूप से इसमें कुछ योगदान दिया।

सुधार आंदोलनों का मूल्यांकन

कुछ इतिहासकारों ने राष्ट्रीय जागरण और सुधार आंदोलनों को ‘भारतीय पुनर्जागरण’ कहा है। उनके अनुसार इन आंदोलनों में बुद्धिवाद, विज्ञान, और मानवतावाद जैसे कई तत्त्व मौजूद थे, जो यूरोपीय पुनर्जागरण में विद्यमान थे। किंतु इन आंदोलनों का दृष्टिकोण छद्मवैज्ञानिकता पर आधारित था और मानवतावाद का व्यावहारिक पक्ष बहुत संकुचित था। इसके अलावा, इसमें यूरोपीय पुनर्जागरण के कई तत्त्व, जैसे भौगोलिक खोजें, वैज्ञानिक आविष्कार और कला व साहित्य में अभूतपूर्व प्रगति, का अभाव था। इसलिए इसे पुनर्जागरण नहीं माना जा सकता। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में इसे ‘सांस्कृतिक जागरण’ कहा जा सकता है।

यह भारत का आधुनिकीकरण भी नहीं था, जैसा कि कुछ लोग दावा करते हैं। यद्यपि इसके मूल में बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसे आधुनिक विचार थे, जो हर जगह आधुनिकता के वाहक रहे हैं, किंतु भारत में यह पश्चिमीकरण से अधिक कुछ नहीं था। संपूर्ण समाज के स्तर पर सुधारों के परिणामस्वरूप कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया। आंदोलन का स्वरूप मध्यमवर्गीय बना रहा और इसका कार्यक्षेत्र मुख्यतः शहरों के शिक्षित मध्यम वर्ग तक सीमित रहा। कुल मिलाकर यह सांस्कृतिक जागरण छद्मवैज्ञानिकता का पोषक और बहुत हद तक रूढ़िवादी था।

इस कथित पुनर्जागरण काल का कोई भी आंदोलन धर्म से ऊपर नहीं उठ सका। प्रायः सभी आंदोलनों की समस्याएँ अलग-अलग थीं, और सुधारक स्वयं अपने-अपने धर्म की परंपरागत मान्यताओं से पूरी तरह मुक्त नहीं थे। इन आंदोलनों का सबसे बड़ा दोष यह था कि वे अतीत, वेद, या कुरान से प्रेरणा ले रहे थे। यह न केवल गैर-वैज्ञानिक था, बल्कि गैर-ऐतिहासिक भी था। इस अतीत में मध्यकाल की उपलब्धियाँ शामिल नहीं थीं, फलतः अतीत के इस गौरवगान में देश के मुसलमान शामिल नहीं हुए। मुसलमानों में सुधार आंदोलनों का आदर्श कुरान था, जो गैर-मुसलमान भारतीयों को प्रेरणा नहीं दे सकता था। इन आंदोलनों की धर्म पर निर्भरता से समाज में संकीर्णता और कट्टरता आई, जो बाद में हानिकारक साबित हुई। इस प्रकार यह आंदोलन अपनी संकीर्णता, धर्मसापेक्ष दृष्टिकोण, सैद्धांतिक अंतर्विरोध और ऐतिहासिक संदर्भ में सामाजिक पृष्ठभूमि की यथोचित समझ के अभाव में अपने उद्देश्यों में अपेक्षित सफलता नहीं पा सका।

फिर भी, इन सुधार आंदोलनों के कारण भारत पश्चिम के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और विचारों के संपर्क में आया, जिससे भारतीयों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। पाश्चात्य सभ्यता, विचारधारा और अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय समाज की जड़ता को समाप्त किया और धर्म, राजनीति, तथा सामाजिक सिद्धांतों को बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसना सिखाया। यह सांस्कृतिक जागरण का ही परिणाम था कि स्वामी विवेकानंद जैसे विचारकों ने भारतीय आध्यात्मवाद को अमेरिका और यूरोप तक पहुँचाया। इन सुधारवादी आंदोलनों द्वारा तैयार की गई पृष्ठभूमि पर ही भारत में राष्ट्रीयता की भावना का उदय और विकास हुआ। प्रायः सभी सुधारक राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत थे और उनका मानना था कि स्वतंत्रता से श्रेष्ठ कुछ नहीं है। एक प्रकार से ये आंदोलन कम, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष अधिक थे, और इनका चरम लक्ष्य राष्ट्रवाद था।

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