माउंटबेटन ने 3 जून 1947 ई. को रेडियो के माध्यम से भारत-विभाजन की अपनी योजना को देश के सम्मुख प्रस्तुत किया, जो इतिहास में ‘3 जून योजना’ या ‘माउंटबेटन योजना’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस योजना के द्वारा मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों को संतुष्ट करने का प्रयास किया गया था, जिसमें स्वतंत्रता, विभाजन, संप्रभुता और दोनों देशों के अपने-अपने संविधान बनाने के अधिकार के सिद्धांत शामिल थे।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग की स्वीकृति के बाद माउंटबेटन योजना बिना किसी विलंब के लागू कर दी गई। ब्रिटिश सरकार के नीति-निर्माताओं ने भारत के भविष्य का निर्णय वायसरॉय और वी.पी. मेनन जैसे सहयोगियों की सलाह के अनुसार किया। वायसरॉय माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरित करने की पूर्व निर्धारित तिथि 30 जून 1948 ई. को बदलकर यह निर्णय किया कि सत्ता-हस्तांतरण की पूरी प्रक्रिया पहले की घोषित तिथि के दस महीने पहले 15 अगस्त, 1947 ई. तक पूरी कर ली जाय। इसके पीछे माउंटबेटन का तर्क था कि सत्ता-हस्तांतरण और भारत-विभाजन में विलंब करने से स्थिति अनियंत्रित हो सकती थी। इसलिए वह भारतीय राजनीतिक दलों को कम-से-कम समय देने के पक्ष में था।
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भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ब्रिटिश संसद का भारत को दिया गया एक अभूतपूर्व उपहार था। स्वतंत्रता का यह महान् ऐतिहासिक उपहार असंख्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों एवं क्रांतिकारियों के बलिदान और त्याग का परिणाम था। इसका निर्णायक महत्त्व इस दृष्टि है कि इस अधिनियम ने भारत में एक नवीन युग की शुरुआत की।
माउंटबेटन की योजना पर आधारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 4 जुलाई 1947 ई. को ब्रिटिश संसद में पेश किया गया और वह 15 जुलाई को बिना किसी संशोधन के हाउस ऑफ कामन्स द्वारा पास कर दिया गया। 18 जुलाई 1947 ई. को ब्रिटिश सम्राट की संस्तुति मिलने पर यह अधिनियम बन गया। वस्तुतः इस अधिनियम द्वारा 3 जून 1947 ई. की माउंटबेटन योजना को ही वैधानिक रूप प्रदान किया गया था। इस अधिनियम ने 14-15 अगस्त 1947 ई. को पाकिस्तान तथा भारत नामक दो नवगठित राष्ट्रों को पूर्ण संप्रभुता प्रदान करके ब्रिटिश भारत में औपनिवेशिक शासन को समाप्त कर दिया। इस अधिनियम की प्रमुख धाराएँ इस प्रकार थीं-
- भारत तथा पाकिस्तान नामक दो डोमिनियनों की स्थापना के लिए 15 अगस्त 1947 ई. की तिथि निश्चित की गई और उस तिथि के पश्चात् इंग्लैंड को भारत पर से अपना आधिपत्य छोड़ देना था।
- भारत का विभाजन कर उसके स्थान पर भारत तथा पाकिस्तान नामक दो अधिराज्यों की स्थापना की गई। जब तक दोनों अधिराज्यों में नये संविधान का निर्माण नहीं हो जाता, तब तक राज्यों की संविधान सभाओं को अपने लिए कानून बनाने का अधिकार होगा।
- नया संविधान निर्मित होने तक दोनों राज्यों का शासन भारत सरकार अधिनियम 1935 के अधिनियम द्वारा ही चलाया जायेगा। दोनों अधिराज्यों के पास यह अधिकार सुरक्षित होगा कि वह अपनी इच्छानुसार राष्ट्रमंडल में बने रहें या उससे अलग हो जायें।
- भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में भारत का क्षेत्रीय विभाजन भारत तथा पाकिस्तान के रूप में करने तथा बंगाल एवं पंजाब में दो-दो प्रांत बनाने का प्रस्ताव किया गया। पाकिस्तान को मिलने वाले क्षेत्रों को छोड़कर ब्रिटिश भारत में सम्मिलित सभी प्रांत भारत में सम्मिलित माने गये।
- पूर्वी बंगाल, पश्चिमी बंगाल और असम के सिलहट जिले को पाकिस्तान में सम्मिलित किया जाना था।
- भारतीय रियासतों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में रहने का निर्णय ले सकती हैं।
- भारत में महामहिम की सरकार का उत्तरदायित्व तथा भारतीय रियासतों पर महामहिम का अधिराजत्व 15 अगस्त 1947 ई. को समाप्त हो जायेगा। ब्रिटेन में भारतमंत्री के पद को खत्म कर दिया जायेगा। 15 अगस्त 1947 ई. से भारत और पाकिस्तान के लिए अलग-अलग गवर्नर जनरल कार्य करेंगे, जो महामहिम द्वारा नियुक्त किये जायेंगे। गवर्नर जनरल डोमिनियन की सरकार के प्रयोजनों के लिए महामहिम का प्रतिनिधित्व करेंगे।
- प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक् विधानमंडल होगा, जिसे विधियाँ बनाने का पूरा प्राधिकार होगा तथा ब्रिटिश संसद उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगी। डोमिनियन की सरकार के लिए अस्थायी उपबंध के द्वारा दोनों संविधान सभाओं को संसद का दर्जा तथा डोमिनियन विधानमंडल की पूर्ण शक्तियाँ प्रदान की गईं।
- इस अधिनियम में गवर्नर जनरल को एक्ट के प्रभावी प्रवर्तन के लिए ऐसी व्यवस्था करने हेतु, जो उसे आवश्यक तथा समीचीन प्रतीत हो, अस्थायी आदेश जारी करने का प्राधिकार दिया गया।
- अधिनियम में सेक्रेटरी ऑफ द स्टेट की सेवाओं तथा भारतीय सशस्त्र बल, ब्रिटिश थलसेना, नौसेना और वायुसेना पर महामहिम की सरकार का अधिकार-क्षेत्र अथवा प्राधिकार जारी रहने की शर्तें निर्दिष्ट की गई थीं।
- जब तक प्रांतों में नये चुनाव नहीं कराये जाते, तब तक प्रांतों में पुराने विधानमंडल कार्य कर सकेंगे। इस अधिनियम के अनुसार ब्रिटिश क्राउन का भारतीय रियासतों पर प्रभुत्व समाप्त हो गया और 15 अगस्त 1947 ई. को सभी संधियाँ एवं समझौते समाप्त माने जाने की घोषणा की गई।
इस प्रकार 1947 का भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम भारत की स्वतंत्रता संग्राम और विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय़ था। यद्यपि इस अधिनियम का उद्देश्य सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण करना था, लेकिन इसके कारण सांप्रदायिक हिंसा, भारी मानवीय पीड़ा, बड़े पैमाने पर पलायन और अंततः भारत और पाकिस्तान नामक दो स्वतंत्र देश अस्तित्व में आये। 14 अगस्त को मोहम्मद अली जिन्ना नवगठित पाकिस्तान के गवर्नर जनरल और लियाकत अली प्रधानमंत्री बने और 15 अगस्त को लॉर्ड माउंटबेटन को स्वतंत्र भारत का गवर्नर जनरल और पं. जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने।
भारत का प्रथम स्वाधीनता-दिवस
विभाजन के बाद 14 अगस्त 1947 ई. की आधी रात को भारत में स्वतंत्रता का शुभारंभ हुआ। देशभक्तों की कई पीढ़ियों के बलिदान और अनगिनत शहीदों की याद में पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा: ‘‘वर्षों पहले हमने नियति के साथ बाजी लगाई थी। अब समय आ गया है कि हम अपनी प्रतिज्ञा को पूरी तरह न सही, काफी हद तक पूरा करें। मध्यरात्रि में जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत नई जीवन स्वतंत्रता लेकर जागेगा। एक क्षण, जो इतिहास में बिरले ही आता है, ऐसा होता है, जब हम पुरातन से नूतन की ओर जाते हैं। जब एक युग समाप्त होता है, जब राष्ट्र की बहुत दिनों से दबी आत्मा को वाणी मिल जाती है। यह उपयुक्त है कि हम इस पवित्र क्षण में भारत तथा उसकी जनता की सेवा में और उससे भी अधिक बड़े मानवता के उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने आप को अर्पित करें। आज हम एक दुर्भाग्यपूर्ण अवधि को समाप्त कर रहे हैं और भारत को अपने महत्त्व का एक बार फिर एहसास हो रहा है। आज हम जिस उपलब्धि को मना रहे हैं, वह निरंतर प्रयास की उपलब्धि है, जिसके परिणामस्वरूप हम उन प्रतिज्ञाओं को पूरा कर सके, जिन्हें हमने कितनी बार लिया है।’’
इस प्रकार 15 अगस्त 1947 ई. को भारत ने बड़े हर्ष और उल्लास के साथ अपना पहला स्वाधीनता-दिवस मनाया। देशभक्तों की कई पीढ़ियों के बलिदान और अनगिनत शहीदों के खून का सुफल मिला। अब उनका सपना एक हकीकत बन चुका था।
स्वाधीनता का यह उल्लास दुःख और उदासी से भरा हुआ था। भारत की एकता का सपना चकनाचूर हो चुका था। स्वतंत्रता के इस क्षण में भी सांप्रदायिकता का दानव अवर्णनीय बर्बरता के साथ भारत और पाकिस्तान, दोनों में लाखों लोगों की बलि दे रहा था। राष्ट्रीय हर्ष के इन दिनों में भी गांधीजी घृणा से चूर बंगाल के गाँवों का चक्कर लगा रहे थे और लोगों को राहत पहुँचाने का काम कर रहे थे। खुशियों की गूँज अभी थमी भी नहीं थी कि 30 जनवरी 1948 ई. को एक हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने उस चिराग को बुझा दिया, जो पिछले 70 वर्षों से देश में उजाला फैलाता आ रहा था। इस तरह गांधी एकता के जिस उद्देश्य के प्रति हमेशा समर्पित रहे, उसी के लिए शहीद हो गये। गांधीजी की मृत्यु पर पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था: ‘हमारे जीवन से प्रकाश चला गया।’
अंगेजों के भारत छोड़ने के कारण
यह प्रश्न अकसर उठाया जाता है कि अंग्रेजों ने भारत क्यों छोड़ा? अंग्रेजों के भारत छोड़ने के संबंध में साम्राज्यवादी इतिहासकारों का सीधा-सा उत्तर है कि ब्रिटेन चाहता था कि भारतीय अपना शासन खुद चलायें और स्वतंत्रता उनकी इसी इच्छा का परिणाम थी। किंतु जिस भारत पर अपने अधिकार को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए अंग्रेजों ने साम, दाम, दंड और भेद की सभी नीतियों का सहारा लिया था, ब्रिटिश सरकार ने उस भारत को छोड़ने का निर्णय निश्चित रूप से किसी खुशी या उत्साह में नहीं लिया होगा। सच तो यह है कि भारत की स्वतंत्रता और अंग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे अनेक महत्त्वपूर्ण कारण थे, जिनमें से कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
यूरोपीय साम्राज्यवाद का पतन
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कई कारणों से यूरोपीय साम्राज्यवाद के पतन की गति तेज हो गई थी और तमाम नवोदित राष्ट्र अस्तित्व में आ गये थे। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में दासता को समाप्त कर एक नये युग का आरंभ हो गया था। साम्यवादी दलों के नेतृत्व में पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी सरकारों की स्थापना से यूरोप के साम्राज्यवादी देशों की शक्ति क्षीण हो गई थी। अब वे लंबी औपनिवेशिक लड़ाई लड़ते रहने की स्थिति में नहीं थे।
विभिन्न देशों के स्वतंत्रता आंदोलन के बीच एकजुटता बढ़ने लगी थी। प्रत्येक देश के स्वतंत्रता आंदोलन ने दूसरे देश के स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देना आरंभ कर दिया था, जैसे- जब 1946 ई. में इंडोनेशिया में डच शासन और हिंद-चीन में फ्रांसीसी शासन को पुनः प्रतिष्ठित करने में सहायता देने के लिए भारत की ब्रिटिश हुकूमत उन देशों में भारतीय सैनिकों को भेज रही थी, तो भारत में इस कार्रवाई के खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनकारियों ने इंडोनेशिया और हिंद-चीन की स्वतंत्रता के प्रति अपना जोरदार समर्थन व्यक्त किया था।
संयुक्त राष्ट्र संघ का घोषणा-पत्र
संयुक्त राष्ट्र संघ भी साम्राज्यवाद को समाप्त करने में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में सामने आया। संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र में अधिकारों की ‘विश्वजनित घोषणा’ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की विश्वव्यापी आकांक्षाओं का प्रतीक था। बदले हुए राजनीतिक वातावरण ने साम्राज्यवाद को श्रेष्ठ सभ्यता की निशानी नहीं माना जा रहा था। इसके विपरीत, अब हर जगह, यहाँ तक भी स्वयं औपनिवेशवादी देशों में भी, साम्राज्यवाद को पशुता, अन्याय और शोषण का पर्याय माना जाने लगा था। 1945 ई. के बाद विश्व में आत्म-निर्णय, राष्ट्रीय संप्रभुता और समानता तथा राष्ट्रों के बीच सहयोग जैसे विचारों का व्यापक प्रसार हुआ और अन्य साम्राज्यवादी देशों में भी औपनिवेशिक शासन का विरोध किया जाने लगा था।
राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता
द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत होते-होते भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता भी निर्णायक स्थिति में पहुँच चुकी थी। राष्ट्रवाद समाज के उन वर्गों और क्षेत्रों तक पहुँच चुका था, जो अभी तक इस प्रक्रिया से अछूते थे। 1942 ई. के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में राजनीतिक रूप से जाग्रत समूहों का लड़ाकूपन स्पष्ट हो चुका था और आजाद हिंद फौज ने न केवल भारतीय जनता की बहादुरी और दृढ़ता को उजागर कर दिया था, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ भारतीय सेना में भी फैल चुकी थीं जो भारत में ब्रिटिश शासन का प्रमुख आधार रही थी। अब ब्रिटिश सरकार को राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए यहाँ के नागरिक प्रशासन के भारतीय सदस्यों और सशस्त्र सेनाओं पर विश्वास नहीं रह गया था।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 1956 ई. में कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस पीवी चक्रवर्ती को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा था कि 1946 ई. में आजाद हिंद फौज के तीन अफसरों पर लाल किले में चला मुकदमा और उन्हें सुनाई गई फाँसी की सजा ही अंग्रेजों के भारत छोड़ने के असली कारण थे। यही नहीं, 1976 ई. में लॉर्ड माउंटबेटन ने भी अंग्रेजों के भारत छोड़ने का तीन करण बताया था- नेताजी, इंडियन नेशनल आर्मी और तीन अफसरों को सुनाई गई फाँसी की सजा। इस कारण 1946 ई. में भारत में शाही नौसैनिकों ने विद्रोह कर दिया और पूरी ब्रितानी फौज को लगने लगा कि हम अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ रहे हैं। ऐसे में ब्रिटिश सरकार के सामने देश छोड़ने के सिवाय और कोई चारा नहीं था।
नौकरशाही में यूरोपियन वर्चस्व की समाप्ति
राष्ट्रीय आंदोलन के तीव्र प्रवाह से ब्रिटिश नौकरशाही तथा सरकार-भक्त तबके का आत्मविश्वास टूटने लगा था। भारतीय सिविल सेवा में यूरोपियनों की सर्वोच्चता धीरे-धीरे समाप्त हो रही थी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक आई.सी.एस. में ब्रिटिश वर्चस्व समाप्त हो चुका था। 1939 ई. तक इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित सेवा में ब्रिटिश और भारतीय हिस्सेदारी लगभग बराबर-बराबर हो चुकी थी। संतुलन बनाये रखने के लिए पहले भर्ती में कटौती की गई, फिर 1943 ई. में भर्ती एकदम बंद कर दी गई। 1946 ई. तक बंगाल में 65 पदों के लिए मात्र 19 ब्रिटिश आई.ए.एस. अधिकारी ही उपलब्ध थे। यही नहीं, अब जो ब्रिटिश अधिकारी आये थे, वे ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज के पढ़े-लिखे अभिजात परिवारों से नहीं थे, बल्कि ग्रामर स्कूल और पालीटेक्निक के सामान्य छात्र थे। उनके लिए ‘राज’ की सेवा मिशन नहीं, जीविका का साधन मात्र थी।
ब्रिटिश सरकार की अंतर्विरोधी रणनीतियाँ
ब्रिटिश सत्ता ने भारतीय राष्ट्रवाद का मुकाबला करने के लिए जो रणनीति अपनाई थी, उसके अंतर्विरोधों ने अधिकारियों के आत्मविश्वास को कमजोर कर दिया था। अंग्रेज समझौता और दमन, दोनों ही रास्तों पर चल रहे थे। 1942 ई. के दमन ने उदारपंथियों और सरकार-समर्थकों दोनों की संवेदना को आहत किया था। फरवरी-मार्च 1943 ई. में 21 दिन की हड़ताल के दौरान गांधीजी मरने के करीब थे, किंतु सरकार ने उन्हें रिहा करने से इनकार कर दिया था। इससे भी जनता में व्यापक असंतोष था। आजाद हिंद फौज के अधिकारियों को रिहा करने की अपील उदारपंथियों और सरकार-समर्थकों, दोनों ने की थी, लेकिन सरकार मुकदमा चलाने के अपने फैसले पर अड़ी रही। ब्रिटिश राज के समर्थक 1945-46 ई. में यह देखकर परेशान और हैरान थे कि सरकार अपने शत्रु कांग्रेस के साथ समझौता करने और सत्ता में हिस्सेदारी देने को उत्सुक है। जिनके हाथों में सत्ता थी, वे कितने असहाय थे, यह बात सरकार-समर्थकों को परेशान कर रही थी। जब कांग्रेस नेता उत्तेजक भाषण दे रहे थे, तो अधिकारी पास ही खड़े होकर टुकुर-टुकुर मुँह ताक रहे थे। इससे ‘राज’ के समर्थकों की आस्था हिल गई।
नौकरशाही के मनोबल का गिरना
ब्रिटिश सरकार की दमन और समझौते की नीति ने नौकरशाही का मनोबल तोड़ दिया क्योंकि एक ही अधिकारी वर्ग को दोनों ही काम करने थे। यह संकट पहले 1930 के दशक में आया था, जब प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें बनने वाली थीं। अधिकरी चिंतित थे कि जिन नेताओं का उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान दमन किया था, अब उन्हीं का आदेश मानकर चलना होगा। 1942 ई. में भी दमन की नीति अपनाई गई थी, लेकिन जब वे नेता रिहा हुए, तो उन्हें आशा थी कि वे प्रांतीय सरकारें सँभालेंगे। उन नेताओं ने दमन करने वाले अधिकारियों की जाँच की माँग उठाई, उनका नाम लेकर बदला लेने की धमकी दी और सरकार खड़ी देखती रही। इससे अधिकारियों का आत्मबल गिरना स्वाभाविक था।
नौकरशाही और सेना में राष्ट्रवाद विस्तार
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत तक ब्रिटिश अधिकारियों और नीति-निर्माताओं को भविष्य की दिशा स्पष्ट हो चुकी थी। सेना के लोगों द्वारा आजाद हिंद फौज के सैनिकों के प्रति नरमी की माँग और नौसेना के विद्रोह की घटनाओं से समझदार अधिकारी समझ गये थे कि इस बार जो तूफान उठा है, वह बिना किसी बड़ी उथल-पुथल के थमने वाला नहीं है। शासन का ढाँचा तो अब भी बना हुआ था, किंतु यह भय पैदा हो गया था कि यदि कांग्रेस ने चुनाव के बाद 1942 ई. की तरह आंदोलन की पुनरावृत्ति की, तो नौकरशाही और फौज भी भरोसेमंद साबित नहीं हो सकती है और प्रांतीय सरकारें इस आंदोलन को रोकंेगी नहीं, बल्कि उसमें मदद ही करेंगी।
जब स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश सत्ता पुराने तरीके से ज्यादा दिन तक नहीं कायम रह सकती है, तो ब्रिटिश नीति-निर्माताओं ने फैसला किया कि समझौता करके सम्मानपूर्वक भारत छोड़ दिया जाना चाहिए। एक विकल्प यह भी था कि ब्रिटिश राज के तौर-तरीके बदले जायं, तो सख्ती और स्वेच्छाचारिता से कुछ समय तक और शासन किया जा सकता था, किंतु तब 10-20 साल बाद बेआबरू होकर भारत छोड़ना पड़ता और यह भारत व ब्रिटेन दोनों के लिए अच्छा नहीं होता। इस प्रकार ब्रिटेन की मजदूर दल की सरकार समझ गई थी कि शक्ति के बल पर भारत में ब्रिटिश राज को अधिक समय तक बनाये रखना संभव नहीं है और अंग्रेजों की सम्मानपूर्वक वापसी का यही एकमात्र रास्ता यही है कि भारतीयों से समझौता करके शांतिपूर्ण ढंग से उन्हें सत्ता सौंप दी जाय।
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