गुप्त राजवंश भारतीय इतिहास में सर्वांगीण विकास और समृद्धि के लिए गौरवपूर्ण स्थान रखता है। इस राजवंश के शासकों ने अपने अदम्य उत्साह, संगठन-कौशल, निष्ठा, प्रखर बुद्धि और निरंतर प्रयासों के द्वारा एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो अपने उत्कर्ष काल में पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक विस्तृत था। अव्यवस्था और अशांति को समाप्त कर गुप्त युग में एक सुदृढ़ एकछत्र शासन की स्थापना हुई, जिसे उनके अभिलेखों में ‘धरणिबंध’, ‘कृत्स्नपृथिवीजय’ और ‘निखिलभुवनविजय’ जैसी मनोहर पदावलियों द्वारा अभिव्यक्त किया गया। ‘पराक्रमाांक’ समुद्रगुप्त, ‘विक्रमांक’ चंद्रगुप्त द्वितीय, ‘महेंद्रादित्य’ कुमारगुप्त और ‘क्रमादित्य’ स्कंदगुप्त जैसे प्रतिभाशाली गुप्त नरेशों ने अपने दिग्विजय और व्यावहारिक जीवन की विशेषताओं के माध्यम से नवीन आदर्श स्थापित किए, जो भावी पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय रहे। उन्होंने कुषाणों, शकों और कुख्यात हूणों का दमन कर भारतभूमि को विदेशी शक्तियों से मुक्त किया, जो उनकी असाधारण सैन्य सफलताओं का प्रमाण है।
विदेशी लेखकों द्वारा प्रशंसित सुखी और समृद्ध समाज की स्थापना, बृहत्तर भारत की अवधारणा का कार्यान्वयन, गुणग्राहकता, धार्मिक सहिष्णुता और आर्थिक संसाधनों का विकास उनकी चिरस्मरणीय उपलब्धियाँ हैं। कला, साहित्य और राष्ट्रीय जीवन के विविध क्षेत्रों में गुप्तकालीन प्रगति से प्रभावित होकर अनेक इतिहासकारों ने इस युग की तुलना पेरीक्लीज, ऑगस्टस और तांग युग जैसे विश्व के स्वर्णिम कालों से की है।
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Toggleऐतिहासिक स्रोत
गुप्त राजवंश के इतिहास के पुनर्निर्माण में साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्रोतों से महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त, विदेशी यात्रियों के विवरण भी गुप्त शासकों के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। गुप्तकाल में अनेक धार्मिक और लौकिक ग्रंथ रचे गए, जो तत्कालीन इतिहास-निर्माण की दृष्टि से उपयोगी हैं। यद्यपि इन ग्रंथों में गुप्त नरेशों की राजनीतिक उपलब्धियों से संबंधित सामग्री सीमित है, फिर भी इनकी ऐतिहासिक महत्ता निर्विवाद है।
साहित्यिक स्रोत
धार्मिक साहित्य
पुराण
पुराण धार्मिक ग्रंथों में उल्लेखनीय हैं, जो भविष्यवाणी की शैली में लिखे गए हैं। इनके वंशानुचरित खंड ऐतिहासिक सूचनाओं की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। गुप्तकालीन इतिहास की रचना में मत्स्य, वायु और विष्णु पुराण विशेष रूप से उपयोगी हैं। इन पुराणों से गुप्तों के प्रारंभिक इतिहास और उनके आदि-राज्य की सीमाओं के निर्धारण में सहायता मिलती है, साथ ही तत्कालीन समाज और संस्कृति के विविध पक्षों पर भी प्रकाश पड़ता है। ‘कलियुगराजवृत्तांत’ में कलियुग के वंशों का इतिहास वर्णित है और कुछ इतिहासकार इसे गुप्त इतिहास का मूल मानते हैं।
स्मृतियाँ
अधिकांश स्मृतियों ने गुप्तकाल में ही अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त किया। ये ग्रंथ तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था की जानकारी प्रदान करते हैं। नारद, पराशर, कात्यायन और बृहस्पति स्मृतियों से गुप्तकाल के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक इतिहास की सूचनाएँ मिलती हैं।
महाकाव्य
रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों ने गुप्तकाल में अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त किया, जो इतिहास-निर्माण के लिए महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करते हैं।
बौद्ध ग्रंथ
बौद्ध भिक्षु यति वृषभ के ‘तिल्स्यपन्नति’ से गुप्तकाल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता पर प्रकाश पड़ता है। महायान बौद्ध धर्म से संबंधित ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ भी महत्त्वपूर्ण है, जिसमें 700 ई.पू. से 750 ई. तक के भारतीय इतिहास के राजवंशों का वर्णन है। इसमें गुप्त शासकों से संबंधित कई छंद यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जो अन्य वंशों के छंदों में मिश्रित हैं। इसके अतिरिक्त, ‘वसुबंधुचरित’ और ‘चंद्रगर्भ-परिपृच्छा’ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।
जैन ग्रंथ
जैन ग्रंथों में जिनसेनसूरी का ‘हरिवंश पुराण’ यद्यपि बाद की रचना है, गुप्त शासकों का उल्लेख करता है। अन्य जैन ग्रंथों में ‘कुवलयमाला’ और विमलकृत ‘जैन धर्म का रामायण’ भी महत्त्वपूर्ण हैं।
लौकिक साहित्य
गुप्तकाल में रचे गए लौकिक ग्रंथ तत्कालीन समाज, शासन-व्यवस्था और नगर-जीवन की जानकारी प्रदान करते हैं।
कामंदक का नीतिसार
कामंदक का ‘नीतिसार’ चंद्रगुप्त प्रथम के काल की रचना मानी जाती है। यह ग्रंथ गुप्तकालीन राजनीति और प्रशासन की सूचना देता है और इसकी तुलना कौटिल्य के अर्थशास्त्र से की जाती है।
वात्स्यायन का कामसूत्र
वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ भी प्रायः गुप्तकालीन रचना माना जाता है। इसमें तत्कालीन समाज में प्रचलित वेशभूषा, आभूषण, सुगंधित द्रव्य, वाहन, प्रासाद, नागरिकशाला, वाटिका, सरोवर, उद्यान, वाद्य और संगीत आदि का रोचक वर्णन है।
कालिदास की रचनाएँ
अनेक इतिहासकार कालिदास को गुप्तकालीन विभूति मानते हैं। उन्होंने ‘ऋतुसंहार’, ‘कुमारसंभव’, ‘मेघदूत’, ‘रघुवंश’, ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ और ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ जैसे उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में यद्यपि विषय-वस्तु प्रेम, प्रकृति, और सौंदर्य है, किंतु ये गुप्तकालीन प्रशासन, समाज, और धर्म पर भी प्रकाश डालते हैं। अनुमान है कि ‘कुमारसंभव’ की रचना कुमारगुप्त प्रथम के जन्म के अवसर पर की गई थी।
‘मेघदूत’ संस्कृत साहित्य का सर्वोत्तम गीतिकाव्य है। इसमें गुप्तकालीन नगर उज्जयिनी के वैभव, महाकाल मंदिर और वहाँ के सामाजिक जीवन का सजीव चित्रण है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ‘विक्रमोर्वशीयम्’ में चंद्रगुप्त द्वितीय की ओर संकेत किया गया है। ‘रघुवंश’ में प्रजा-रक्षक सम्राट के गुणों का वर्णन है, जबकि ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ में राजत्व के आदर्श, मृगया, मनोरंजन के साधन, लोकप्रिय विश्वास, त्योहार, वाहन, आभूषण और चित्रकला का विशिष्ट उल्लेख है। ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में ग्राम-नगर भेद का वर्णन मिलता है।
विशाखदत्तकृत देवीचंद्रगुप्तम्
विशाखदत्त की रचना ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ (राजनीतिक नाटक) अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है, किंतु इसके कुछ अंश भोज-प्रणीत ‘शृंगारप्रकाश’ और गुणचंद्र व रामचंद्रकृत ‘नाट्यदर्पण’ में उद्धरण के रूप में मिलते हैं। इन उद्धरणों से पता चलता है कि शक शासक ने रामगुप्त को पराजित किया था, और चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकराज को मारकर अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या की तथा उनकी पत्नी ध्रुवदेवी से विवाह कर राज्याभिषेक करवाया।
शूद्रककृत मृच्छकटिकम्
‘मृच्छकटिकम्’ गुप्तकालीन इतिहास के पुनर्निर्माण में महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है ‘माटी की गाड़ी’। इसमें ब्राह्मण चारुदत्त और गणिका वसंतसेना की प्रेम-कहानी है। यह ग्रंथ गणिकाओं के जीवन और कुट्टनियों के काले कारनामों का वर्णन करता है, और कहता है कि “गणिका जूते में पड़ी कंकरी के समान है, जो एक बार घुसने के बाद बड़ी कठिनाई से निकलती है।” इससे तत्कालीन नगर-शासन पद्धति और नगर-न्यायालय की जानकारी मिलती है।
अन्य ग्रंथ
वज्जिका विरचित ‘कौमुदीमहोत्सव’, अमरसिंह का ‘अमरकोष’, चंद्रगोमिन का ‘व्याकरण’, सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’, भास की ‘स्वप्नवासवदत्ता’, राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’, ‘सेतुबंध’ (रावणवध) और ‘आयुर्वेद दीपिका’ जैसे ग्रंथ भी गुप्तकालीन इतिहास के निर्माण में उपयोगी हैं।
पुरातात्त्विक स्रोत
अभिलेख और प्रशस्तियाँ
गुप्तकालीन अभिलेख भारत के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं, जो स्तंभ-लेख, शिलाफलक-लेख, और ताम्रपत्र-लेख के रूप में हैं। ये अभिलेख गुप्तवंश के इतिहास-लेखन में महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान करते हैं। यदि ये अभिलेख न होते, तो हरिषेण, वीरसेन, और वत्सभट्टि जैसे कवियों की जानकारी नहीं मिल पाती।
गुप्तकालीन अभिलेखों की भाषा संस्कृत है और ये राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ अलंकार, छंद, और रस की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन अभिलेखों को विभिन्न उद्देश्यों के लिए उत्कीर्ण करवाया गया था। इनके प्राप्ति-स्थानों से गुप्त शासकों की साम्राज्य-सीमा का निर्धारण करने में सहायता मिलती है। कुछ अभिलेखों में वंशावली, ऐतिहासिक घटनाएँ और शासकों की उपलब्धियों का काव्यात्मक विवरण मिलता है।
हरिषेण-विरचित प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त के राज्याभिषेक, दिग्विजय, और व्यक्तित्व पर सुंदर प्रकाश डालती है। यह गद्य-पद्य मिश्रित (चंपू शैली) संस्कृत का उत्कृष्ट उदाहरण है। चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि शैव गुहालेख में उनकी दिग्विजय-यात्रा (कृत्स्नपृथ्वीविजय) का वर्णन है। स्कंदगुप्त के भितरी स्तंभलेख में विष्णु प्रतिमा की स्थापना का काव्यात्मक विवरण है, जबकि जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील के जीर्णोद्धार का गेय वर्णन है। भानुगुप्त के 510 ई. के एरण लेख में सैनिक गोपराज की मृत्यु और उनकी पत्नी के सती होने का उल्लेख है, जो सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण है।
कुछ गुप्तकालीन अभिलेख दानपत्र के रूप में भी मिले हैं, जो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण हैं और अधिकांशतः बंगाल क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। इन लेखों से तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक जीवन और दान-संबंधी नियमों की जानकारी मिलती है। गुप्त अभिलेखों में तिथियाँ गुप्त संवत् में उत्कीर्ण हैं और स्कंदगुप्त के जूनागढ़ लेख में पहली बार गुप्त संवत् का उल्लेख मिलता है।
मुद्राएँ
गुप्त सम्राटों की सोने, चाँदी, और ताँबे की मुद्राएँ पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक के विभिन्न केंद्रों से प्राप्त हुई हैं। स्वर्ण सिक्कों को ‘दीनार’, रजत सिक्कों को ‘रूपक’ और ताम्र सिक्कों को ‘माषक’ कहा जाता था। गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों का सबसे बड़ा ढेर राजस्थान के बयाना से मिला है।
मुद्राओं के प्राप्ति-स्थानों से गुप्त शासकों की साम्राज्य-सीमा का निर्धारण करने में सहायता मिलती है। अनेक सिक्कों पर तिथियाँ उत्कीर्ण हैं, जो शासकों के काल-निर्धारण में उपयोगी हैं। इन मुद्राओं से विशिष्ट घटनाओं की जानकारी भी मिलती है। उदाहरण के लिए एक स्वर्ण मुद्रा के मुख भाग पर चंद्रगुप्त प्रथम और रानी कुमारदेवी का चित्र और पृष्ठ भाग पर ‘लिच्छवयः’ शब्द उत्कीर्ण है, जो गुप्तों और लिच्छवियों के बीच वैवाहिक संबंध और गुप्त सत्ता के उत्थान में लिच्छवियों के योगदान को दर्शाता है। समुद्रगुप्त की एक मुद्रा पर अश्वमेध घोड़े का चित्र है, जो उनके अश्वमेध यज्ञ का प्रमाण है। चंद्रगुप्त द्वितीय की शक-मुद्राओं के आदर्श पर ढाली गई रजत मुद्राएँ उनके शक-विजय का प्रमाण हैं।
गुप्त शासकों की मुद्राओं पर उनके चित्र भी अंकित हैं, जो उनके शारीरिक बनावट और व्यक्तित्व की प्रामाणिक जानकारी देते हैं। समुद्रगुप्त की वीणावादन मुद्राएँ उनके संगीत-प्रेमी स्वभाव का प्रमाण हैं। कुछ सिक्कों पर गुप्त शासकों को व्याघ्र और सिंह का आखेट करते दिखाया गया है, जो उनके मृगया-प्रेम को दर्शाता है। मुद्राओं की शुद्धता और तौल से तत्कालीन आर्थिक समृद्धि का ज्ञान होता है। कुषाणकालीन स्वर्ण मुद्राओं की तुलना में उत्तरकालीन गुप्त शासकों की स्वर्ण मुद्राओं में सोने की मात्रा में कमी व्यापार-वाणिज्य के पतन का संकेत देती है।
स्मारक
गुप्तकालीन अनेक स्मारक, जैसे मंदिर, स्तंभ, मूर्तियाँ और गुफाएँ, विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं, जो तत्कालीन धर्म, समाज और कला के अध्ययन के लिए उपयोगी हैं। गुप्तकाल के मंदिरों में भूमरा का शिव मंदिर, तिगवा का विष्णु मंदिर, नचना-कुठारा का पार्वती मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मंदिर, भीतरगाँव का ईंटों का मंदिर, लड़खान का मंदिर और दर्रा मंदिर महत्त्वपूर्ण हैं, जो तत्कालीन वास्तुकला, मूर्तिकला, और धार्मिक विश्वासों को दर्शाते हैं।
मंदिरों में शिखर-निर्माण की परंपरा गुप्तकाल में ही प्रारंभ हुई। देवगढ़ का दशावतार मंदिर शिखरयुक्त मंदिर का प्राचीनतम पुरातात्त्विक उदाहरण है। अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि गुप्तकाल में शिखरयुक्त मंदिरों का निर्माण लोकप्रिय हो रहा था। कुमारगुप्त द्वितीय के मालव संवत् 529 (472-73 ई.) के मंदसौर लेख से पता चलता है कि मालवा के दशपुर में एक भव्य सूर्य मंदिर था, जिसके ऊँचे और विस्तृत शिखर रात्रि में चंद्रमा की श्वेत किरणों से शोभायमान होते थे, जिससे नगर की शोभा दुगुनी हो जाती थी।
मौर्यकालीन स्तंभों की तरह गुप्तकालीन स्तंभ भी प्रायः एक ही विशाल प्रस्तर खंड को तराशकर बनाए गए थे, जैसे स्कंदगुप्तकालीन भितरी स्तंभ और बुद्धगुप्तकालीन एरण का गरुड़ स्तंभ। मेहरौली का लौह स्तंभ गुप्तकालीन विकसित तकनीक और कला का अनुपम उदाहरण है।
मूर्तियाँ
गुप्तकाल की वैष्णव, शैव, बौद्ध, और जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो भारतीय मूर्तिकला के विकास को दर्शाती हैं। ये मूर्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि गुप्तकाल में सभी धर्म अपने स्वाभाविक रूप में विकसित हो रहे थे। कुछ मूर्तियों के पादमूल पर लेख भी मिलते हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। कुमारगुप्त द्वितीय के काल की सारनाथ की बौद्ध मूर्ति के अधोभाग में गुप्त संवत् 154 का लेख है, जिसमें अभयमित्र नामक भिक्षु द्वारा पुण्यार्जन के लिए मूर्ति स्थापना का उल्लेख है। बुद्धगुप्तकालीन सारनाथ मूर्ति के नीचे गुप्त संवत् 157 का लेख है, जिसमें अभयमित्र द्वारा धर्मार्जन के लिए मूर्ति स्थापना का उल्लेख है।
गुप्तकालीन गुहा लेख
गुहा गृहों से भी गुप्त इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है। गुप्तकालीन तक्षणकारों ने शिलाखंडों को तराशकर गुफाओं के निर्माण में अद्भुत निपुणता प्राप्त की थी। ब्राह्मण गुहा का उत्कृष्ट उदाहरण उदयगिरि गुफा है, जिसकी दीवार पर चंद्रगुप्त द्वितीय के संधि-विग्रहिक सचिव वीरसेन शैव द्वारा शिव के प्रति भक्ति के कारण निर्मित लेख है (भक्त्या भगवतः शंभोः गुहामेतामकारयत्)। यह ब्राह्मण गुहा मंदिर का प्राचीनतम उदाहरण है, जिसमें प्रतिमा स्थापना के लिए गर्भगृह और स्तंभयुक्त मंडप है।
बौद्ध गुफाओं के उदाहरण अजंता और बाघ से मिलते हैं। अजंता की गुफा संख्या 16, 17 और 19 गुप्तकालीन मानी जाती हैं, जो कला और स्थापत्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इन गुफाओं में बौद्ध श्रमण निवास करते थे, और इनमें गौतम बुद्ध और बोधिसत्त्व की प्रतिमाएँ अधिकता में हैं। इन चित्रों से गुप्तकालीन चित्रकला के सिद्धांतों और निर्माण-विधि को समझने में सहायता मिलती है।
विदेशी यात्रियों के विवरण
विदेशी यात्रियों के विवरण गुप्तकालीन राज्य और प्रशासन की जानकारी प्रदान करते हैं।
फाह्यान
चीनी यात्री फाह्यान चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में भारत आया था। उसने पश्चिम में पुष्कलावती से लेकर पूर्व में ताम्रलिप्ति तक के ऐतिहासिक केंद्रों में रुककर स्थानीय प्रथाओं, धार्मिक विश्वासों, परंपराओं, जलवायु और वनस्पतियों का वर्णन किया। मध्य देश की जनता के बारे में उसने लिखा कि यहाँ की जनता सुखी और समृद्ध थी, और चोर-डाकुओं का भय नहीं था। लोग मदिरा, मांस, लहसुन और प्याज का सेवन नहीं करते थे। उसने भारतीयों की दानशीलता और अतिथि-सत्कार की प्रशंसा की।
ह्वेनसांग
सातवीं शताब्दी ई. में सम्राट हर्षवर्धन के काल में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से गुप्त शासकों की जानकारी मिलती है। उसने बुद्धगुप्त, कुमारगुप्त प्रथम, शक्रादित्य और बालादित्य जैसे शासकों का उल्लेख किया। उसके विवरण से पता चलता है कि शक्रादित्य (कुमारगुप्त) ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, और बालादित्य हूणों का विजेता था।
इत्सिंग
सातवीं शताब्दी के अंत में आए चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा कि नालंदा विश्वविद्यालय के भवन गगनस्पर्शी थे और यह अंतरराष्ट्रीय शिक्षा का केंद्र था। उनके विवरण सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में उपयोगी हैं।
अल्बरूनी
महमूद गजनवी के साथ भारत आए अल्बरूनी गणित, ज्योतिष, खगोलशास्त्र और अनेक शास्त्रों के विद्वान थे। उनका पूरा नाम ‘अबू रेहान मुहम्मद अहमद अल्बरूनी’ था। वे भारतीय छंदशास्त्र और संस्कृत व्याकरण के प्रशंसक थे। उनके अनुसार हिंदू उत्कृष्ट दार्शनिक, ज्योतिषी, खगोलशास्त्री और गणितज्ञ थे। वे भगवद्गीता से विशेष रूप से प्रभावित थे।
साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्रोतों से गुप्तकालीन इतिहास का पुनर्निर्माण संभव होता है। कालिदास और विशाखदत्त की कृतियाँ, हरिषेण, वीरसेन और वत्सभट्टि की शिलालेखों पर उत्कीर्ण अमर पंक्तियाँ तथा तत्कालीन देवालय और गुफाएँ गुप्तकाल का मनोरम चित्र प्रस्तुत करती हैं।










