भारत में ‘सती’ की अवधारणा
भारत में सती प्रथा के उद्भव एवं विकास को प्रायः मध्य एशिया के साथ जोड़कर देखा जाता रहा है। अनेक इतिहासकार इस तथ्य से सहमत हैं कि भारोपीय-आर्य भारत में आगमन से पहले ही विधवाओं के अपने मृत पति के साथ जलकर मरने की प्रथा से अवगत थे। मध्य एशिया के देश इससे पहले ही से परिचित थे और मिस्र, ग्रीक, स्लाव एवं स्कैंडेनेविया आदि में इस प्रथा के प्रचलित होने के कई साक्ष्य मिलते हैं। प्राचीन मिस्र में फराओ की मृत्यु के बाद उसके शव के साथ उसके दैनिक जीवन में उपयोग में आनेवाली लगभग सभी वस्तुओं को दफनाया जाता था। पारलौकिक जीवन के बारे में इस प्रकार की धारणा ने कई बार दासों को भी फराओ के साथ जिंदा गाड़ देने को विवश किया। उपभोग की इन वस्तुओं के साथ-साथ पत्नी को भी पति की शव के साथ गाड़ अथवा जला दिया जाता था। संभवतः इसी अंधविश्वास ने पत्नी को पति के साथ गाड़ने अथवा जलाने की प्रथा को जन्म दिया। इसी प्रकार कुछ विशेष स्थानों पर, जहाँ महिलाओं की स्थिति पुरुषों से अपेक्षाकृत अच्छी थी, उसके पति अथवा प्रेमी को भी जिन्दा जला अथवा गाड़ दिया जाता था ताकि उनकी आत्मा का मृतात्मा के साथ मिलन हो सके।
भारत में अपने पति के साथ विधवाओं के जलकर मरने की बात विवादों के घेरे में है। इस तथ्य को मान लेने पर कि भारत-आगमन से पूर्व आर्य इस प्रथा से परिचित थे, कई तरह की समस्याएँ पैदा होती हैं। कुछ ने तो यह भी सवाल उठाया है कि यदि आर्य विधवाओं के जलकर मरने की प्रथा से अवगत होते, तो वैदिक ग्रंथों में इस तथ्य उल्लेख अवश्य मिलता। किंतु ऋग्वेद में तो ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी, सती प्रथा का ऋग्वेद में उल्लेख न मिलना इस बात का प्रमाण नहीं माना जा सकता कि भारतीय उपमहाद्वीप पर आने से पहले आर्य इससे अनभिज्ञ थे। ऋग्वेद के इस ‘मौन’ को वैदिककालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों में खोजा जाना चाहिए।
यह सही है कि ऋग्वेद में विधवाओं के पति के साथ जलकर मरने की प्रथा का उल्लेख नहीं है, एकाध स्थानों पर सिर्फ प्रतीकात्मक रूप में इसका उल्लेख किया गया लगता है। प्रतीक रूप में इसका उल्लेख इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि आर्य विधवाओं के पति के साथ जलकर मरने की प्रथा से अनभिज्ञ नहीं थे। उन्होंने इसका उल्लेख अगर निर्विकार एवं निस्पृह भाव से किया है, तो इसके अपने कारण हैं। पहला कारण तो यह कि भारत में आर्यों के आगमन के क्रम में, जलवायु में अंतर पड़ने की वजह से औरतों की अधिकांश आबादी मृत्यु को प्राप्त हो गई, जिसके कारण स्त्रियों की संख्या में प्रत्यक्ष कमी आई। वैदिक ग्रंथों में स्त्रियों को ‘उत्पादकों का भी उत्पादक’ कहा गया है। चूंकि भारत में आर्य विभिन्न कबीलों में एवं विभिन्न चरणों में आये, आर्यों के बीच स्त्रियों की कमी थी, इसलिए उन्हें घृणित अनार्य कन्याओं से विवाह करना पड़ा। आर्यों एवं अनार्यों के बीच जो युद्ध हुआ करते थे, उसके मूल में दो बातें प्रमुख भूमिका निभा रही थीं। एक तो यह कि आर्य, अनार्य कन्याओं को चुरा या उठा लाते थे, और दूसरा गायों की चोरी। इतिहासकार कोसम्बी का मानना है कि ऋग्वेद में देवियों की संख्या में अपेक्षाकृत कमी इस बात का प्रमाण है कि इस काल में आर्य महिलाओं की वास्तव में कमी थी।
बहुपति विवाह से भी इसी दिशा की ओर संकेत मिलता है। युद्ध वैदिक अर्थतंत्र का एक प्रमुख आधार था। पुरुषों की उत्पत्ति के लिए स्त्रियों की आबादी में निरंतर वृद्धि एक अनिवार्य शर्त थी। संभवतः यही कारण है कि आर्य सती प्रथा से अवगत होते हुए भी इसे महत्त्व नहीं देना चाहते थे। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि पूर्ववैदिक काल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति भी पर्याप्त अच्छी थी और विधवाओं के पुनर्विवाह की चर्चा भी मिलती है। ऐसा लगता है कि पूर्ववैदिक काल का जो आर्थिक ढाँचा था, उसमें महिलाओं को प्रमुख स्थान प्राप्त था। इसी तथ्य को इंगित करने के लिए आर्य कन्याओं के लिए ‘दुहिता’ शब्द का प्रयोग किया है। संभवतः संपत्ति, जिसमें मूलतः पशुधन सम्मिलित था, का हस्तांतरण स्त्री से स्त्री के हाथों में ही होता था। ऐसे संकटकाल में जहाँ स्त्रियों की कमी रही हो, सती जैसी प्रथाओं पर बल देना तत्कालीन आर्य समाज के लिए अलाभकारी सिद्ध हो सकता था। यही कारण है कि ऋग्वेद में सती का उल्लेख सिर्फ प्रतीकात्मक रूप में मिलता है। वैदिक काल से लेकर मध्यकाल तक ऐसा कोई भी कालखंड नहीं है जिसके प्रतिनिधि साहित्य में सती का उल्लेख न मिलता हो।
रामायण-महाभारत, जो कि भारतीय साहित्य के विकास के आरंभिक काल के बताये जाते हैं, स्पष्टता के साथ सती का उल्लेख कर पाने में असमर्थ हैं। रामायण के आरंभिक अंशों में सती की कहीं कोई चर्चा नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि रामायण के आरंभिक अंशों के रचनाकाल तक सती प्रथा मुख्यधारा का अंग नहीं बन पाई थी, किंतु इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि इस प्रथा से इक्के-दुक्के लोग भी परिचित नहीं रहे होंगे। रामायण में सीता ने एक स्थान पर अपने पति के साथ जलकर मरने की इच्छा व्यक्त की है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि सती का प्रचलन था। महाभारत में एक-दो स्थानों पर प्रमाणस्वरूप इसके उल्लेख हुए हैं। इस काल तक सती प्रथा का चलन व्यापक रूप में संभव नहीं हो सका था क्योंकि मातृसत्तात्मक समाज के अवशेष अब भी मौजूद थे। वस्तुओं को बराबर-बराबर भागों में बाँटने की कबीलाई परंपरा के चिह्न महाभारत में लक्षित होते हैं।
महाभारत एवं रामायण की कथाओं के विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि रामायण, महाभारत की तुलना में एक विकसित समाज का चित्रण प्रस्तुत करती है। महाभारत में जहाँ कबीलाई समाज से वर्ग विभाजित समाज में परिवर्तन के क्रम का विवरण है, वहीं रामायण में अपेक्षाकृत एक विकसित समाज की संरचना मिलती है। महाभारत के शांतिपर्व में कर एवं सेना पर आधारित राज्य की संकल्पना का साकार रूप देखते हैं, जो निश्चित रूप से बाद का विकास है। जहाँ तक इन दोनों में नारियों की सामाजिक हैसियत का सवाल है, महाभारत की तुलना में रामायण में वह दयनीय हो जाती है एवं नारी की अस्मिता खतरे में पड़ जाती है। द्रौपदी के चरित्र में आत्मविश्वास की कमी नहीं है, बल्कि कई बार तो उसके वीर पति ही निराश एवं हताश लगते हैं, तब वह स्वयं उन्हे उत्साहित करती है और अपने वास्तविक अधिकारों हेतु युद्ध के लिए प्रोत्साहित करती है। इसके विपरीत रामायण की सीता का जो चरित्र है, उसमें आत्मविश्वास का पर्याप्त अभाव परिलक्षित होता है। वह अपने पति की दया पर जीवित रहनेवाली स्त्री बनकर रह जाती है। रामायण की सीता प्रारंभ से ही निरंकुशता की तरफ बढ़ रहे पितृसत्तात्मक समाज की मान्यताओं की शिकार होती है। लगभग इसी काल से शुरू होने वाली सामाजिक कुरीति बाल-विवाह की भी वह शिकार होती है। इतिहासकारों का अनुमान है कि सीता की शादी मात्र छः वर्ष की बाल्यावस्था में ही संपन्न कर दी गई थी। भवभूति ने भी इस कथन की पुष्टि की है।
रामायण की तुलना में महाभारत की स्त्रियों को कई तरह की सुविधाएँ व योग्यताएँ प्राप्त हैं। रामायण में स्त्रियों से नियोग के अधिकार को संभवतः छीन लिया गया था क्योंकि राजा दशरथ, जो कि निःसंतान थे, को नियोग की बजाय जादू-टोना का आश्रय लेना पड़ा था। चूंकि महाभारत में रामायण की तुलना में कबीलाई समाज के अधिक अवशेष प्राप्त होते हैं, इसलिए विभिन्न कबीलों के बीच युद्ध की संभावना भी अधिक रही होगी। स्वयं महाभारत के युद्ध में लगभग सारा भारत सम्मिलित हुआ प्रतीत होता है। इसलिए महाभारत में विधवा पुनर्विवाह एवं नियोग दोनों ही प्रथाओं का उल्लेख पाते हैं। इस ग्रंथ में संतानोत्पत्ति की शक्ति प्राप्त करने के पहले ही लड़कियों का विवाह कर देने पर जोर दिया जाने लगा जिसके पीछे उनकी मानसिकता अधिक से अधिक संतानोत्पत्ति की ही रही होगी। तत्कालीन धारणा थी कि मासिक काल में नारियों में संतानोत्पत्ति की अपार शक्ति होती है। अतः इसका वे एक भी अवसर हाथ से निकल जाने देना नहीं चाहते थे। इस संदर्भ में महाभारत की दो घटनाओं का उल्लेख प्रासंगिक है। पहली घटना उत्तक नामक शिष्य से संबंधित है, जो अपने गुरु के घर रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहा था। एक दिन गुरु किसी कारणवश बाहर गये हुए थे और गुरुमाता का ऋतुस्राव प्रारंभ हो गया। गुरुजी का वहाँ तत्काल लौट आना असंभव प्रतीत हुआ तब गुरु के स्वजनों ने गुरुपत्नी के साथ शिष्य से सहवास करने का आग्रह किया। दूसरी प्रचलित कहानी यह है कि राजा उपरिचर जंगल में शिकार करने चले गये और उपयुक्त समय पर नहीं आ सके, तब राजा ने अपना वीर्य अपनी पत्नी के पास भेजना चाहा। किसी तरह राजा का वीर्य तालाब के पानी में गिर गया और उसे एक मछली ने तत्काल निगल लिया। उस मछली को एक मछुआरे ने पकड़कर राजा के रसोइये के हाथों बेंच दिया। उस मछली को काटने पर मनुष्य की दो संतानें निकलीं। पुरुष संतति को राजा ने ले लिया जो बाद में मत्स्य का राजा घोषित हुआ और लड़की उस मछुआरे को सौंप दी गई जो बाद में सत्यवती के नाम से जानी गई। यही कारण है कि महाभारत सती प्रथा के मामले में उदासीन है।
रामायण की कथा भी कई दृष्टियों से स्त्री के दुर्भाग्य की भी कथा है। यह अकारण नहीं है कि पुरुष प्रधान भारतीय समाज की परंपरा को इतने दिनों के लंबे इतिहास में एक आदर्श नारी का उदाहरण सीता ही मिलती रही है। कारण यह है कि पहली बार सीता अपने को पति के चरणों में अर्पित कर देती है, और सदा के लिए पुरुष की इच्छाओं की दासी हो जाती है और तब बार-बार दासी को अपने स्वामी के प्रति आस्थावान होने अथवा अपनी निष्ठा को सिद्ध करने के लिए ‘अग्नि-परीक्षा’ से गुजरना पड़ता है। इस प्रकार सीता और द्रौपदी दो भिन्न समाज की मान्यताओं को अभिव्यक्त करती हैं। सीता में आदर्श की प्रस्थापना कहीं ज्यादा है, जिसमें द्रौपदी के सामान्य मानवीय चरित्र का अभाव है।
गुप्तकाल तक आते-आते आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों में असामान्य परिवर्तन हो आता है। समाज में नारियों की स्थिति दयनीय हो जाती है। उसकी श्रेणी शूद्रों की श्रेणी के साथ मिला दी जाती है, उसे स्वयं एक संपत्ति का दर्जा दे दिया जाता है, नियोग की प्रथा समाप्त हो चुकी होती है। बाल विवाह का चलन व्यापक होता है और विधवाओं के लिए आचरण के कठोर नियम बनते हैं। गुप्तकालीन स्मृतियों में विधवा के जीवन के दो मार्ग बतलाये गये हैं- ब्रह्मचारिणी अथवा सती। विष्णु (35.14) तथा बृहस्पति (35.11) ने इन दो मार्गों का वर्णन किया है। छठी सदी के एरण (मध्य प्रदेश) लेख में भानुगुप्त के सेनापति गोपराज की पत्नी के सती होने का उल्लेख मिलता है। भारतीय इतिहास में यह सामंतवाद का काल है जिसमें कई बदली हुई समाजार्थिक परिस्थितियों का सृजन होता है। स्त्री की पुरानी गरिमा जाती रही। दास अपने सामंत के प्रति निष्ठावान था, तो छोटे सामंत अपने बड़े सामंत के प्रति। निष्ठा के इस नये युग में पत्नी अपने पति के प्रति निष्ठावान बनी।
इस काल में दक्षिण भारत के राजघरानों में एक नई प्रथा जन्म लेती है जिसमें राजा गद्दी पर बैठने के दौरान लगभग चार-पाँच सौ आदमियों का एक दल बनाता था, जो राजा द्वारा बनाये गये भात को ग्रहण करता था, और ऐसे लोगों को राजा की मृत्यु के बाद आग में जलकर अपना जीवन नष्ट करना होता था, साथ ही राजा की पत्नी भी जलाई जाती थी। चेदि राजा गांगेयदेव की सौ रानियाँ थीं जो उसके साथ अग्नि में जलकर स्वर्गलोक सिधारीं। इस प्रथा के दो महत्वपूर्ण लाभ हुए- एक तो राजा के प्रति लोगों की निष्ठा का प्रमाण मिलता था और दूसरे, राजा के निकट संपर्क में रहने वाले लोग उसकी हत्या करने से डरते थे। राजघरानों में सती के कारणों में शायद इस बात का भी महत्व रहा हो कि राजमहल, जहाँ से राजा के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाने का सदैव खतरा बना रहता था, सारी स्त्रियों के राजा के साथ जलकर सती जाने से यह भय समाप्त हो जाता था।
बाण ने लिखा है कि राज्यश्री स्वेच्छा से सती होने को तैयार थी। मध्ययुग के मुसलमान लेखक सुलेमान तथा अल्बरूनी ने रानियों के सती होने का वर्णन किया है। राजतरंगिणी में कल्हण ने रानियों के सती होने का उल्लेख किया है। जोधपुर के एक लेख में राजपूत रानी के सती होने का विवरण मिलता है। इस प्रकार मध्य प्रदेश तथा राजपूताना में सती होने या सहमरण का उदाहरण मिलते हैं। राजपूताना के इतिहास में हजारों स्त्रियों के अग्नि में जलने का उल्लेख है, किंतु उसे ‘जौहर’ का नाम दिया जाता है।
भक्ति का दर्शन ‘सामंतवाद’ की इन्हीं बदली हुई समाजार्थिक परिस्थितियों की देन था जिसमें प्रत्येक मनुष्य ईश्वर के प्रति निष्ठावान है। इस तरह के दर्शनों ने स्त्रियों के लिए उनके पति से अलग जो उनका स्वतंत्र अस्तित्व होता था, उसको समाप्त कर दिया। पति की मृत्यु के बाद उसका जीवन बेकार और निरर्थक हो गया। स्वर्ग की प्राप्ति के रास्ते में कई तरह की बाधाएँ उपस्थित की गईं। सबसे सुगम रास्ता बताया गया कि मृत पति के साथ स्वयं को जलाकर वहाँ वह अपने लिए जगह सुरक्षित करवा लें। इस चेतना ने सती प्रथा को गति प्रदान किया।
गुप्तकाल में सती एक मान्य प्रथा के रूप में स्थापित होती है, इसके भी कई कारण हैं। एक तो, मध्य एशिया से जितने भी आक्रमणकारी आये थे वे इस काल तक भारतीय समाज द्वारा लगभग आत्मसात कर किये जा चुके थे। अतएव उनकी मान्यताओं, उनके रीति-रिवाजों का हमारे समाज पर असर होना भी प्रारंभ हो चुका था। दूसरे, आक्रमण के समय राजपूत वीरों की मृत्यु के बाद अपने सतीत्व की रक्षा न कर पाने के भय के कारण या फिर एक विधवा के कठोर जीवन बिताने से पति के शव के साथ जलकर मर जाना ही बेहतर समझती थीं। वैसे भी सामंतवाद ने राजपूतों के बीच युद्व को जीवन का एक अनिवार्य अंग बना दिया था। तीसरे, इस काल तक समाज के स्वरूप में काफी बदलाव भी आ चुका था। पुरुष की निरंकुशता बढ़ चली थी।
गुप्तकालीन धर्म और धार्मिक जीवन
इस प्रकार सती का संबंध समाज में महिलाओं एवं पुरुषों के पारस्परिक संबंध तथा उसकी आर्थिक संरचना के विविध समीकरणों से जुड़ा है। किंतु मात्र संपत्ति की अवधारणा स्त्री की दलित अवस्था के आधारों को स्पष्ट नहीं करती। मात्र इसी आधार पर स्त्री के दमन को व्याख्यायित करना अपर्याप्त होगा क्योंकि श्रम के विभाजन से दो लिगों में एक मैत्रीपूर्ण संबंध भी तो स्थापित हो सकता था। पौरुषीय चेतना की निरंकुशता ने सदैव वस्तुपरक ढंग से अपनी प्रभुता स्थापित की। मनुष्य की मौलिक चाह दूसरों पर शासन करने की रहती है, अतः ताँबे के औजारों की खोज के कारण ही स्त्री दलित नहीं हुई, बल्कि उसके दमन का एक प्रमुख कारण मानवीय चेतना की अंतर्वर्ती संरचना है।
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