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बादामी (वातापी) का चालुक्य राजवंश
छठीं शताब्दी ईस्वी के मध्यकाल में संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप में राजनीतिक विकेंद्रीकरण का एक महत्त्वपूर्ण सिलसिला शुरू हुआ। जिस समय उत्तरी भारत में गुप्त-साम्राज्य के पतन के पश्चात् अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ, ठीक उसी समय दक्षिण में भी कई नये स्वतंत्र राज्यों का उत्थान हुआ। चालुक्य राजवंश भी इनमें से एक था। चालुक्यों ने छठीं से बारहवीं शताब्दी ईस्वी के बीच दक्षिणी और मध्य भारत के एक बड़े भू-भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इनकी कई शाखाएँ थीं- जैसे वातापी (बादामी) के चालुक्य, वेंगी के चालुक्य, कल्याणी के चालुक्य तथा गुजरात के चालुक्य। बादामी के चालुक्यों ने दक्षिण के पल्लव शासकों तथा उत्तर भारत के यशस्वी सम्राट हर्ष के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद (अल्पकालिक अंतराल को छोड़कर) लगभग दो सौ वर्षों तक दक्षिण भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में आबद्ध कर दकन पर अपनी विजय पताका फहराया।
ईसा की छठीं शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर चालुक्य राजवंश की जिस मूल शाखा का आधिपत्य रहा, उसका उदय और विकास वर्तमान कर्नाटक में बागलकोट जिले के बादामी (वातापी) में हुआ था। इसलिए चालुक्यों की इस शाखा को पूर्वकालीन चालुक्य या वातापी (बादामी) का चालुक्य कहा जाता है। इस राजवंश के प्रतिभाशाली नरेशों ने संपूर्ण दक्षिणापथ को राजनैतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया और उत्तर भारत के प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन तथा दक्षिण के पल्लव शासकों के प्रबल विरोध के बावजूद लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिण भारत पर अपना आधिपत्य बनाये रखा।
ऐतिहासकि स्रोत
साहित्यिक स्रोत
चालुक्यों के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों ही स्रोतों से सहायता मिलती है। साहित्यिक स्रोतों में विद्यापति बिल्हण रचित ‘विक्रमांकदेवचरित’ तथा कन्नड़ कवि रन्न द्वारा विरचित ‘गदायुद्ध’ विशेष उल्लेखनीय हैं। बिल्हण मूलतः काश्मीर के निवासी थे, जिन्हें चालुक्य शासक विक्रमादित्य पष्ठ ने ‘विद्यापति’ की उपाधि दी थी। यद्यपि इन्होंने तीन काव्यों- ‘विक्रमांकदेवचरित’, ‘कर्णसुंदरी’ तथा ‘चौरपंचाशिका’ (गीति काव्य) की रचना की थी, किंतु इनमें ‘विक्रमांकदेवचरित’ ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, जिसमें चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के चरित का निरूपण किया गया है। इसमें चालुक्यों की उत्पत्ति, उनके वंशक्रम, आहवमल्ल के तीन पुत्रों- सोमेश्वर, विक्रमादित्य तथा जयसिंह के आविर्भाव, उनके सत्ता-संघर्ष तथा विक्रमादित्य के राज्यारोहण का वर्णन मिलता है। यद्यपि काव्य की दृष्टि से यह ग्रंथ अद्वितीय है, किंतु इसमें अनेक ऐतिहासिक त्रुटियाँ हैं। फिर भी, इससे चालुक्यकालीन राजनीतिक इतिहास एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के संबंध में महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। रन्न नामक कन्नड़ कवि ने लगभग 993 ई. में ‘गदायुद्ध’ की रचना की थी। यद्यपि इसमें मूलरूप से भीम और दुर्योधन के द्वंद्व का वर्णन मिलता है, किंतु इस ग्रंथ से समकालीन राष्ट्रकूट-चोल संबंधों पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। इनके अलावा, कन्नड़ साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि पम्प (941 ई.) की रचनाओं- भारत अथवा विक्रमार्जुन एवं आदि पुराण से भी तत्कालीन इतिहास तथा संस्कृति के विविध पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।
विदेशी यात्रियों के विवरणों में चीनी यात्री युवान चुआंग (ह्वेनसांग) के यात्रा-वृतांत के वे अंश, जिनमें महाराष्ट्र एवं उसके निवासियों का वर्णन है, विशेष रूप से उपयोगी हैं। यह चीनी यात्री पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में गया था। ईरानी इतिहासकार तबरी के विवरणों से पता चलता है कि ईरानी सम्राट खुसरो द्वितीय ने पुलकेशिन द्वितीय के साथ राजदूतों का आदान-प्रदान किया था। तबरी के विवरणों से ही यह प्रमाणित होता है कि अजंता की पहली गुफा के चित्रों में ईरान के शाह खुसरो द्वितीय, उसकी पत्नी शीरी और पुलकेशिन द्वितीय का ईरान के राजदूत से भेंट का चित्रण है।
पुरातात्त्विक स्रोत
चालुक्यों के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक साक्ष्यों की अपेक्षा पुरातात्त्विक साक्ष्य- अभिलेख, मुद्राएँ एवं स्मारक- अधिक प्रामाणिक और उपयोगी हैं। चालुक्यों के इतिहास निर्माण में अभिलेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जो शिलापट्टों, स्तंभों तथा ताम्रफलकों पर उत्कीर्ण हैं तथा संस्कृत, तेलगु एवं कन्नड़ भाषाओं में हैं। बादामी के चालुक्य इतिहास के संबंध में जानकारी के मुख्य स्रोत संस्कृत और कन्नड़ में लिखे गये शिलालेख हैं, जिनमें पुलकेशिन प्रथम के बादामी प्रस्तर लेख, पुलकेशिन द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति, महाकूट स्तंभ-लेख, हैदराबाद दानपत्राभिलेख आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। पुलकेशिन प्रथम का बादामी प्रस्तर शिलालेख शक संवत 465 (543 ई.) का है, जो बादामी दुर्ग के एक प्रस्तर खंड पर खुदा हुआ है। इसकी खोज 1941 ई. में हुई थी। इस लेख में ‘वल्लभेश्वर’ (संभवतः पुलकेशिन प्रथम) नामक चालुक्य शासक का उल्लेख मिलता है, जिसने बादामी के किले का निर्माण करवाया था तथा अश्वमेध आदि यज्ञ किये थे। पुलकेशिन द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति पर शक संवत 556 (634 ई.) की तिथि अंकित है। ऐहोल आधुनिक कर्नाटक प्रांत के बीजापुर जिले में स्थित है। इस लेख की रचना पुरानी कन्नड़ लिपि एवं संस्कृत भाषा में रविकीर्ति ने की है। इस लेख में मुख्यतः पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है, फिर भी, इससे पुलकेशिन के पूर्व के चालुक्य इतिहास तथा उसके समकालीन लाट, मालव, गुर्जर आदि शासकों के विषय में भी कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। हर्षवर्धन के साथ पुलकेशिन के युद्ध पर भी इस लेख से प्रकाश पड़ता है। इस प्रशस्ति की रचना कालिदास तथा भारवि की काव्य शैली पर की गई हैं। हैदराबाद दानपत्राभिलेख पुलकेशिन द्वितीय के तीसरे शासन वर्ष का है। इसकी तिथि शक संवत 534 (612 ई.) है। इससे ज्ञात होता है कि पुलकेशिन द्वितीय ने युद्ध में सैकड़ों योद्धाओं को जीता था और ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण किया था। बीजापुर के महाकूट नामक स्थान से महाकूट स्तंभ-लेख मिला है, जिस पर 602 ई. की तिथि अंकित है। इस लेख में चालुक्य वंश के शासकों की बुद्धि, बल, साहस तथा दानशीलता की प्रशंसा की गई है। इससे चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन प्रथम की विजयों का भी ज्ञान होता है। इनके अतिरिक्त कर्नूल, तलमंचि, नौसारी, गढ़वाल, रायगढ़, पट्टदकल आदि स्थानों से बहुसंख्यक ताम्रपत्र एवं लेख मिले हैं, जिनसे चालुक्यों का काँची के पल्लवों के साथ संघर्ष तथा पुलकेशिन द्वितीय के बाद के शासकों की उपलब्धियों का ज्ञान होता है।
पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में सिक्के भी बहुत उपयोगी हैं। इन पर अंकित लांक्षनों, प्रतीकों और उपाधिसूचक लेखों से समकालीन राजवंशों की ऐतिहासिकता और उनकी राजनीतिक गतिविधियों की कुछ जानकारी मिलती है। कदंबों के पद्मटका सिक्कों का अनुकरण चालुक्यों ने भी किया था। परवर्ती चालुक्यों की कुछ सिक्के भारत के बाहर स्याम से भी मिले हैं, जो संभवतः मंगलेश के हैं जिसने रेवती द्वीप पर अधिकार स्थापित किया था। कुछ चोल सिक्कों (एक विशेष सिक्का जिस पर दो द्वीप-स्तंभों के बीच एक व्याघ्र बना है और ऊपर छत्र अंकित है) से चोलों की कल्याणी के चालुक्यों पर विजय का संकेत मिलता है। चालुक्य सिक्कों पर सूकर लांक्षन मिलता है।
स्मारक, मंदिर तथा भित्तिचित्र: चालुक्यों के स्मारक, मंदिर तथा भित्तिचित्र न केवल चालुक्य राजाओं के वैभव एवं कलात्मक अभिरुचि के द्योतक हैं, बल्कि इनसे तत्कालीन धार्मिक स्थिति और राजनीतिक घटनाओं का भी संकेत मिलता है। गुफा मंदिरों में अनेक पौराणिक कथाएँ अंकित हैं। विरुपाक्ष के मंदिर में अंकित रामकथा के अनेक दृश्य, जैसे- बालि-सुग्रीव युद्ध, सीताहरण आदि शैव तथा वैष्णव संप्रदायों के सामंजस्य के सूचक हैं। अजंता के भित्तिचित्रों में से एक में ईरान के शाह और उनकी रानी तथा एक में चालुक्य सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय का ईरानी राजदूत से भेंट का प्रदर्शन अत्यंत सजीवता से किया गया है। इसकी पुष्टि तबरी के विवरणों से भी हो जाती है।
चालुक्यों का नामकरण और उत्पत्ति
चालुक्य राजवंश के नामकरण और उत्पत्ति के विषय में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। चालुक्यों के लेखों में इन्हें चलुक्य, चल्का, चलुक्की, चलेक्य, चलिक्य, चलुक्कि इत्यादि अनेक नामों से संबोधित किया गया है। इन्हीं अभिधानों से बाद में इस वंश के लिए चालुक्य तथा चौलुक्य नाम प्रचलित हुए। एस.सी. नंदिमथ इसका प्रारंभिक वंश-नाम चल्कि, शल्कि अथवा चलुकी मानते हैं, जो कन्नडभाषा में कृषि के उपकरण के नाम हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि चालुक्य वंश के मूल संस्थापक संभवतः मूलतः कर्नाटक प्रदेश के कृषक थे, जो अपनी प्रतिभा एवं पौरुष के बल पर कदंब-नरेशों की कृपा प्राप्त करके उनके सामंत शासक बन गये। अपने लोकप्रिय शासन के कारण अवांतर काल में इन्हीं चालुक्यों ने वातापि को केंद्र बनाकर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
यद्यपि वातापि (बादामी) के चालुक्य नरेशों के किसी भी अभिलेख में उनकी उत्पत्ति एवं जाति का उल्लेख नहीं मिलता है, तथापि परवर्ती कल्याणी तथा वेंगी की पूर्वी शाखा के चालुक्य शासकों के कतिपय अभिलेखों में उन्हें मानव्यगोत्रीय हारित का पुत्र एवं चंद्रवंशी क्षत्रिय उद्घोषित किया गया है। चालुक्यों की जाति के संबंध में ह्वेनसांग का विवरण विशेष महत्त्वपूर्ण है, जिसने पुलकेशिन द्वितीय को स्पष्ट रूप से क्षत्रिय बताया है। अतः चालुक्यों शासकों को क्षत्रिय जाति से संबंधित माना जा सकता है।
वातापी (बादामी) के चालुक्य राजवंश का राजनीतिक इतिहास
जयसिंह वातापी (बादामी) के चालुक्य वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था, जो 602 ई. के महाकूट के स्तंभ-लेख से स्पष्ट है। 472-73 ई. के कैरा ताम्रपत्रों में उसकी उपाधि वल्लभ, श्रीवल्लभ तथा वल्लभेंद्र मिलती है और उसकी तुलना कुबेर तथा इंद्र से की गई है।
चालुक्य वंश के प्रारंभिक लेखों में जयसिंह की किसी भी उपलब्धि का उल्लेख नहीं है, किंतु बाद के कुछ लेख उसके बारे में अतिरंजित विवरण देते हैं। जगदेकमल्ल के दौलताबाद अभिलेख में कहा गया है कि जयसिंह ने कदंबों के ऐश्वर्य को नष्ट कर दिया। कल्याणी के चालुक्यों के कौथेम लेख के अनुसार उसने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय एवं उसके पुत्र इंद्र तृतीय को पराजित किया था। किंतु ये सारे विवरण अनैतिहासिक और अलंकारिक हैं। जयसिंह बनवासी के कदंबों का सामंत था। उसने संभवतः छठी शताब्दी के प्रथम चरण में शासन किया था।
जयसिंह उत्तराधिकारी उसका पुत्र और रणराग (520-540 ई.) हुआ, किंतु उसके संबंध में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। उसका कोई अभिलेख भी नहीं मिला है। येवूर अभिलेख में उसे एक वीर शासक बताया गया है। संभवतः रणराग भी अपने पिता के समान कदंबों के अधीन स्थानीय सामंत रहा था।
पुलकेशिन प्रथम (540-567 ई.)
वातापी (बादामी) के चालुक्य वंश का वास्तविक संस्थापक रणराग का पुत्र और उत्तराधिकारी पुलकेशिन प्रथम (540-567 ई.) था। उसके राज्यकाल से ही चालुक्य वंश की महानता का युग प्रारंभ होता है। उसको पोलेकेशिन, पोलिकैशिन् तथा पुलिकैशिन् आदि अभिधानों से संबोधित किया गया है। फ्लीट एवं डी.सी. सरकार ‘पुलकेशिन’ शब्द को संस्कृत एवं कन्नड़ भाषाओं का मिश्रित शब्द मानते हैं, जिसका अर्थ है- बाघ के जैसे बालों वाला। इसके विपरीत, नीलकंठ शास्त्री का विचार है कि यह शुद्ध संस्कृत का शब्द है, जिसमें ‘पुल’ का अर्थ महान होता है और ‘केशिन’ का अर्थ सिंह। इस प्रकार पुलकेशिन का अर्थ होता है-महान व्याघ्र। अभिलेखों में पुलकेशिन के लिए मात्र महाराज की उपाधि का प्रयोग किया है, जिससे लगता है कि उसके शासनकाल में ही चालुक्यों की स्वतंत्र सत्ता की स्थापना हुई थी।
पुलकेशिन प्रथम की उपलब्धियाँ
यद्यपि पुलकेशिन प्रथम का उल्लेख कई अभिलेखों में मिलता है, किंतु उनमें मात्र उसके शौर्य की प्रशंसा करते हुए उसके निर्माण एवं धार्मिक कार्यों का ही वृतांत दिया गया है। शक संवत 465 (543 ई.) के बादामी शिलालेख से पता चलता है कि चालुक्य वल्लभेश्वर ने बादामी के दुर्ग का निर्माण करवाया था। इस वल्लभेश्वर की पहचान पुलकेशिन प्रथम से की जाती है। पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख से भी उसने बादामी के दुर्ग का निर्माण करवाया और उसे अपनी राजधानी बनाई। संभवतः पुलकेशिन प्रथम ने बादामी का दुर्गीकरण करवाकर तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को जीतकर स्वयं को कदंबों की अधीनता से मुक्त लिया और अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा अपनी प्रभुसत्ता को घोषित किया।
अपनी महानता के अनुरूप पुलकेशिन प्रथम ने सत्याश्रय, रणविक्रम, श्रीपृथ्वीवल्लभ अथवा श्रीवल्लभ जैसी उपाधियाँ धारण की। वह वैदिक धर्म का अनुयायी था, जो उसकी उपाधियों से स्पष्ट है। बादामी लेख तथा मंगलेश के महाकूट स्तंभलेख में उसे अश्वमेघ एवं वाजपेय के अतिरिक्त अग्निष्टोम, अग्निचयन, पौंडरिक, बहुसुवर्ण तथा हिरण्यगर्भ जैसे यज्ञों का अनुष्ठानकर्त्ता बताया गया है। कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर तृतीय विरचित विक्रमांकाभ्युदय के अनुसार उसने अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर 13,000 गाँव पुरोहितों को दान में दिये और उसके विजयी घोड़े ने चारों समुद्रों से घिरी पृथ्वी की परिक्रमा की थी। कुछ चालुक्य लेखों में उसकी तुलना ययाति, दिलीप आदि पौराणिक वीरों से की गई है। महाकूट अभिलेख में उसकी तुलना विष्णु से करते हुए रणविक्रम की उपाधि दी गई है। मंगलेश के नेरूर के दानलेख में उसकी मंत्र-बुद्धि की प्रशंसा करते हुए उसे धर्मज्ञ, मनु के समान धर्मशास्त्रविद् तथा पुराण, रामायण, महाभारत एवं इतिहास का ज्ञाता बताया गया है।
पुलकेशिन प्रथम का विवाह बापुर (बटपुर) वंश की राजकुमारी दुर्लभादेवी के साथ हुआ था। उसके दो पुत्र थे- कीर्तिवर्मन प्रथम और मंगलेश। किंतु मुधोलि अभिलेख में पूगवर्मन नामक शासक का उल्लेख मिलता है, जिसे श्रीपृथ्वीवल्लभ महाराज का पुत्र बताया गया है। कुछ विद्वान श्रीपृथ्वीवल्लभ की पहचान पुलकेशिन प्रथम से करते हुए पूगवर्मन को पुलकेशिन प्रथम का बड़ा पुत्र मानते हैं। किंतु किसी अन्य साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं होती है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर उसका शासनकाल 540 ई. से 567 ई. तक माना जा सकता है।
कीर्तिवर्मन प्रथम (567-592 ई.)
पुलकेशिन प्रथम की मृत्यु के बाद कीर्तिवर्मन प्रथम (567-592 ई.) चालुक्य वंश का शासक बना। बादामी गुफालेख शक संवत 500 (578 ई.) कीर्तिवर्मन के बारहवें वर्ष का है, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि वह 567 ई. के लगभग राजगद्दी पर बैठा था।
कीर्तिवर्मन प्रथम की उपलब्धियाँ
कीर्तिवर्मन की उपलब्धियों एवं विजयों के संबंध में पुलकेशिन द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति तथा मंगलेश के महाकूट स्तंभलेख से पर्याप्त सूचनाएँ मिलती हैं। मंगलेश के महाकूट अभिलेख में कीर्तिवर्मन को कलिंग, मगध, अंग, बंग, मद्रक, केरल, गंग, मूषक, पांड्य, द्रमिल, चोलिय, आलुप तथा बैजयंती के शासकों का विजेता बतलाया गया है। किंतु इतिहासकारों के अनुसार यह विवरण अतिरंजित और अनैतिहासिक है।
ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि कीर्तिवर्मन ने नलों, मौर्यों तथा कदंबों का विनाश किया था। प्रशस्ति के अनुसार ‘कीर्तिवर्मन नल, मौर्य और कदंब राजाओं के लिए कालरात्रि था। यद्यपि उसने परस्त्री से चित हटा लिया था, फिर भी, राजलक्ष्मी ने उसे आकर्षित किया था। उसने अपने पराक्रम से विजयलक्ष्मी प्राप्त की और राजाओं के मदमत्त हाथी के समान कदंब वंश को कदंब वृक्ष के सदृश उखाड़ दिया’-
नलमौर्य कदम्बकालरात्रिस्तनयस्तस्य बभूव कीत्तिवर्मा।
परदारनिवृत्तचिद्धवृत्तेरपिधीर्यस्य रिपुश्रीयानुकृष्टा।।
रणपराक्रमलब्धजयश्रिया सपदि येन विरुग्णमशेषतः।
नृपति गन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम्।।‘
नल वंश के लोग संभवतः नलवाड़ी में शासन करते थे, जो आधुनिक बेल्लारी तथा कर्नूल जिलों में फैला था। मौर्य कोंकण प्रदेश के शासक थे और उनकी राजधानी पुरी (एलीफैंटा द्वीप की धारपुरी) को पश्चिमी समुद्र की लक्ष्मी कहा गया है। कोंकण विजय के फलस्वरूप कीर्तिवर्मन का गोवा पर अधिकार हो गया, जिसे उस समय रेवती द्वीप कहा जाता था। फ्लीट के अनुसार कोंकण पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने ध्रुवराज इंद्र को वहाँ का शासक नियुक्त किया।
किंतु कीर्तिवर्मन द्वारा पराजित इन तीनों शक्तियों में कदंब मुख्य थे, जो कर्नाटक राज्य के उत्तरी कनारा, बेलगाँव, धारवाड़ तथा उसके समीपवर्ती भू-भाग पर शासन करते थे। कीर्तिवर्मन ने कदंबों की राजधानी बनवासी (वैजयंती) पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया।
महाकूट स्तंभ और ऐहोल लेख दोनों में कीर्तिवर्मन को कदंबों की विजय का श्रेय दिया गया है। ऐहोल प्रशस्ति बताती है कि कीर्तिवर्मन ने कदंबों के संघ को भंग कर दिया था। संभवतः इस संघ में कदंबों के प्रधान राजवंश के साथ-साथ इस कुल के कतिपय अन्य कदंब (गंग), सेंद्रक एवं आलुप भी शामिल थे, जिन्हें कीर्तिवर्मन ने पराजित किया था। संभवतः कीर्तिवर्मन के द्वारा जीता गया कदंब (गंग) शासक कृष्णवर्मा द्वितीय का पुत्र अजयवर्मा था। पुलकेशिन द्वितीय के चिपलुन लेख से पता चलता है कि सेंद्रक वंश के श्रीवल्लभसेनानंद की बहन का विवाह कीर्तिवर्मन से हुआ था, जो बनवासी प्रांत के नागरखंड मंडल का शासक था और पहले कदंबों की अधीनता में था। आलुप दक्षिणी कनारा में शासन कर रहे थे। विनयादित्य के कोल्हापुर लेख में उन्हें चालुक्यों का परंपरागत ‘भृत्य सामंत’ कहा गया है।
इस प्रकार नलों, मौर्यों, आलुपों तथा कदंबों को जीतकर कीर्तिवर्मन ने चालुक्य सत्ता का चतुर्दिक विस्तार किया, जिसमें कर्नाटक के धारवाड़, बेलगाँव, बीजापुर, बेल्लारी तथा शिमोगा जिले, महाराष्ट्र के सीमांत प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश के करनूल एवं गुंटूर जिले सम्मिलित थे।
अपनी महानता के अनुरूप कीर्तिवर्मन प्रथम ने भी सत्याश्रय, श्रीपृथ्वीवल्लभ, महाराज, पुरुरणपराक्रम तथा परमभागवत आदि उपाधियाँ धारण की और अग्निष्टोम तथा बहुसुवर्ण यज्ञों का संपादन किया था। शक संवत 500 (578 ई.) के एक अभिलेख, जो बादामी की एक वैष्णव गुफा के बरामदे के भित्ति-स्तंभ पर उत्कीर्ण है, में कीर्तिवर्मन द्वारा एक विष्णुमंदिर के बनवाये जाने का उल्लेख है, किंतु इसका निर्माण-कार्य संभवतः उसकी मृत्यु के बाद मंगलेश ने पूरा करवाया और मंदिर में विष्णु-प्रतिमा की स्थापना के अवसर पर लंजीश्वर ग्राम (नंदीकेश्वर ग्राम) दान किया था। कीर्तिवर्मन का शासनकाल मोटेतौर पर 567 ई. से 592 ई. माना जाना चाहिए।
मंगलेश (592-610 ई.)
कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के समय उसके पुत्र- पुलकेशिन द्वितीय, विष्णवर्धन, धराश्रय जयसिंह तथा बुद्धवर्ष अल्पवयस्क थे, इसलिए उसके छोटे भाई (संभवतः सौतेला भाई) मंगलेश ने चालुक्य शासन का भार सँभाला। बादामी के चालुक्य अभिलेखों में कीर्तिवर्मन के पश्चात् पुलकेशिन द्वितीय के शासनकाल का उल्लेख मिलता है। इसका कारण संभवतः मंगलेश द्वारा पुलकेशिन द्वितीय के वयस्क होने पर उसके पैतृक राज्य को वापस न करना तथा पुलकेशिन द्वितीय द्वारा अपने राज्याधिकार के लिए किया गया विद्रोह था। किंतु परवर्ती लेखों, खासकर कल्याणी के चालुक्यों के लेखों में कीर्तिवर्मन के बाद मंगलेश का ससम्मान उल्लेख मिलता है।
शक संवत 532 (610 ई.) का गोवा अभिलेख मंगलेश के शासनकाल के 20वें वर्ष का है। इससे स्पष्ट है कि मंगलेश का राज्यारोहण शक-संवत 512 (590 ई.) में हुआ था। मंगलेश को मंगलराज, मंगलीश, मंगलीश्वर, मंगलार्णव, रणविक्रांत, पृथ्वीवल्लभ, श्रीपृथ्वीवल्लभ, उरुरणविक्रांत आदि नामों और उपाधियों से जाना जाता था।
मंगलेश की उपलब्धियाँ
मंगलेश अपने पूर्ववर्ती चालुक्य शासकों से अधिक महत्त्वाकांक्षी था। उसने कीर्तिवर्मन की भाँति विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया। उसकी उपलब्धियों का उल्लेख उसके महाकूट स्तंभलेख, ऐहोल लेख, कौथेम लेख, नेरूर लेख तथा गोवा अनुदानपत्र में मिलता है।
कलचुरियों के विरूद्ध अभियान
महाकूट स्तंभलेख से पता चलता है कि मंगलेश ने उत्तर भारत की विजय की इच्छा से सबसे पहले कलचुरि नरेश बुद्धराज को पराजित कर उसकी संपूर्ण संपत्ति का अधिग्रहण कर लिया। इसके बाद, उसने अपनी माँ की अनुमति से महाकूटेश्वरनाथ मंदिर के समक्ष धर्मविजय स्तंभ स्थापित करवाया और मंदिर को बहुत-सा दान दिया। मंगलेश की इस सफलता की पुष्टि तिथि-रहित नेरूर दानपत्र और ऐहोल लेख से भी होती है। नेरुर दानपत्र लेख के अनुसार गज-अश्व-पदाति और कोश का स्वामी शंकरगण का पुत्र बुद्धराज मंगलेश से पराजित होकर भाग गया था। ऐहोल लेख के अनुसार ‘मंगलेश ने कलचुरियों पर विजय प्राप्त की, उनकी स्त्रियों के साथ विहार किया उसके अश्वसेना के चलने से उठी धूल पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रों तक फैल गई’-
तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे राजाभवत्तदनुजः किल मंगलीशः।
पूर्वपश्चिमसमुद्रतटोषिताश्व, सेनारजः पटविनिर्मित द्विग्वितानः।।
स्फुरन्मयूखैरसि दीपिकाशतैः व्युदस्यमातंगतमिस्र संजयम्।
अवाप्तवान्यो रणरंग मंदिरे, कलचुरि श्रीललना-परिग्रहम्।।
किंतु ऐसा लगता है कि कलचुरियों के विरूद्ध मंगलेश का आक्रमण एक धावा मात्र था। इस विजय में उसे लूट में बहुत-सा धन तो मिला, किंतु चालुक्य राज्य की सीमा में कोई वृद्धि नहीं हुई। बुद्धराज ने पुनः अपनी खोई हुई शक्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली क्योंकि बुद्धराज के 609-610 ई. के लेखों से पता चलता है कि वह इस समय पूर्ण राजकीय ऐश्वर्य एवं वैभव के साथ शासन कर रहा था। वदनेर अनुदानपत्र ये भी ज्ञात होता है कि 608 ई. में नासिक पर कलचुरियों का अधिकार था। संभवतः 609 ई. के बाद मंगलेश कलुचुरियों के कुछ प्रदेशों पर अधिकार करने में सफल हो गया था क्योंकि सरसनवी लेख से पता चलता है कि मंगलेश का गुजरात पर अधिकार था।
रेवती द्वीप की विजय
मंगलेश की दूसरी महत्त्वपूर्ण सामरिक उपलब्धि कोंकण प्रदेश में रेवती द्वीप की विजय थी। रेवती द्वीप संभवतः कोंकण प्रदेश की राजधानी थी, जो पश्चिमी समृद्रतट के निकट कहीं स्थित था। मंगलेश की रेवतीद्वीप के विरूद्ध सफलता की पुष्टि पुलकेशिन द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति तथा परवर्ती चालुक्य लेखों से भी होती है। पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि मंगलेश ने रेवती द्वीप पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। प्रशस्ति में काव्यात्मक ढ़ंग से कहा गया है कि, ‘मंगलेश ने पताकाओं से युक्त अपनी सेना द्वारा रेवती द्वीप को विजय की इच्छा से घेर लिया। समुद्र में उसकी सेना की चमकती हुई परछाई ऐसी लगती थी कि मानो उसकी आज्ञा पाकर वरुण की सेना चली आई हो’-
पुनरपि च जिघृक्षोस्सैन्याक्रान्त-सालम्।
रुचिर-बहुपताकं रेवती द्वीपमाशु।।
सपदिमहदुदन्वत्तोयसंक्क्रान्तबिम्बम्।
वरुणवलमिवाभूदागतं यस्यवाचा।।
परवर्ती चालुक्य लेखों से पता चलता है कि मंगलेश की सेना अत्यंत विशाल थी और वह समस्त द्वीपों पर अधिकार कर सकने में समर्थ था। उसकी सेना ने नावों का एक पुल बनाकर रेवती द्वीप पर आक्रमण किया था। इससे स्पष्ट है कि मंगलेश के राज्यकाल तक चालुक्यों ने एक सुदृढ़ नौ सेना संगठित कर ली थी।
इसके पूर्व कीर्तिवर्मन प्रथम ने कोंकण प्रदेश के मौर्यों को पराजित कर इस क्षेत्र को चालुक्य राज्य में मिलाया था। नेरुर दानपत्र से ज्ञात होता है कि मंगलेश ने चालुक्यवंश के किसी स्वामिराज को, जो अठारह युद्धों का विजेता था, पराजित कर मार डाला। लगता है कि इस स्वामीराज को कीर्तिवर्मन ने रेवतीद्वीप का उपराजा (गवर्नर) नियुक्त किया था, जिसने मंगलेश के राजा बनने पर विद्रोह कर दिया था। फलतः मंगलेश ने कोंकण पर आक्रमण कर विद्रोही शासक स्वामीराज को मार डाला और पुनः ध्रुवराज इंद्रवर्मा को रेवतीद्वीप का उपराजा नियुक्त किया। इस प्रकार मंगलेश के शासनकाल में चालुक्य साम्राज्य में गुजरात, काठियावाड़ तथा महाराष्ट्र के नासिक तथा उत्तरी कोंकण प्रदेश सम्मिलित थे। दक्षिण में उसने उत्तराधिकार मे प्राप्त उत्तरी कर्नाटक एवं आंध्र के कार्नूल क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व बनाये रखा।
मंगलेश वैष्णव धर्मानुयायी था और उसकी एक उपाधि परमभागवत थी। एक महान निर्माता के रूप में उसने कीर्तिवर्मन के समय में आरंभ किये गये बादामी के गुहा-मंदिर के निर्माण-कार्य को पूर्ण करवाया और उसमें भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की थी। लेखों में मंगलेश की दानशीलता, विद्वता एवं चरित्र की बड़ी प्रशंसा की गई है और उसे परदारनिवृत्तचित्तवृत्ति वाला कहा गया है। इस प्रकार मंगलेश के शासनकाल में चालुक्यों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
गृहयुद्ध और मंगलेश का अंत
मंगलेश के जीवन का अंत गृहयुद्ध में हुआ। ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि, ‘पुलकेशिन नहषु के समान उदार तथा राजलक्ष्मी का प्रिय था, इसलिए मंगलेश उससे ईर्ष्या करता था। फलतः पुलकेशिन ने देश छोड़ देने का निश्चय किया। किंतु पुलकेशिन द्वितीय ने अपने मंत्र और उत्साह शक्ति से मंगलेश को दुर्बल कर दिया और मंगलेश को अपने पुत्र को राज्य सौंपने के प्रयत्न, विशाल राज्य तथा अपने जीवन, तीनों से हाथ धोना पड़ा’-
तस्याग्रजस्य तनयो नहुषानुभागे, लक्ष्म्या किलाभिलषिते पोलिके शिनाम्नि।
सासूयमात्मनि भवन्तमत पितृव्यम्, ज्ञात्वापरुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ।।
स यदुपचितमंत्रोत्साहशक्तिप्रयोग, क्षपितबलविशेषो मंगलेशस्समन्तात्।
स्वतनयगतराज्यारम्भयत्नेन सार्द्ध, निजमतनु च राज्यञ्जीवितञ्चोज्झति स्म।।
ऐहोल प्रशस्ति से स्पष्ट है कि पुलकेशिन के वयस्क होने पर भी उसका चाचा मंगलेश उसे शासन-सत्ता सौंपने को तैयार नहीं था और अपने पुत्र को वातापी के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित करना चाहता था। पुलकेशिन ने अपने चाचा का राज्य छोड़कर अन्यत्र शरण ली और कुछ समय पश्चात् अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर उसने मंगलेश पर आक्रमण कर दिया। इस गृहयुद्ध में मंगलेश मारा गया और पुलकेशिन द्वितीय ने अपने सभी विरोधियों को पराजित कर 610 ई. के लगभग चालुक्य राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।
पुलकेशिन द्वितीय (610-642 ई.)
पुलकेशिन द्वितीय बादामी के चालुक्य वंश का महानतम् शासक था। वह कीर्तिवर्मन प्रथम का पुत्र था, जिसने अपने चाचा मंगलेश तथा उसके समर्थकों की हत्याकर वातापी के चालुक्य वंश की गद्दी पर अधिकार किया। लोहनेर अभिलेख में उसे परमभागवत कहा गया है। लगभग 32 वर्ष के शासन के बाद 642 ई. में इस महान चालुक्य सम्राट के जीवन का अंत हुआ था।
अपने लगभग 32 वर्षीय दीर्घकालीन शासनकाल में यद्यपि पुलकेशिन द्वितीय अधिकतर सामरिक अभियानों में ही व्यस्त रहा तथापि उसने देशांतरों के साथ मैत्रीपूर्ण राजनयिक तथा व्यापारिक संबंध स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। भारत के बाहर ईरान में खुसरो द्वितीय के दरबार में भी उनका सम्मान हुआ। ह्वेनसांग ने अपने भारत-प्रवास के समय चालुक्यों की राजधानी वातापी तक के दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में भ्रमण किया था। उसके विवरणों में पुलकेशिन द्वितीय कालीन चालुक्य-प्रशासन, आर्थिक समृद्धि, धार्मिक स्थिति तथा कलात्मक निर्माणादि का विशद उल्लेख मिलता है। पुलकेशिन द्वितीय के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें-
चालुक्य इतिहास के अंधकार-काल
642-43 ई. के लगभग पुलकेशिन द्वितीय की पराजय और उसकी मृत्यु के उपरांत लगभग तेरह वर्ष तक वातापि (बादामी) के चालुक्य राजवंश का इतिहास अस्पष्टता एवं अनिश्चिता के अंधकार से आच्छादित है। इस अतंराल में वातापी से सिर्फ एक अभिलेख मिला है, जो पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन प्रथम के शासन के 13वें वर्ष (642-43 ई.) का है। वास्तव में, पुलकेशिन द्वितीय के बाद चालुक्य राज्य में राजनैतिक अव्यवस्था उत्पन्न हो गई और वातापी सहित कुछ अन्य दक्षिणी प्रांतों पर पल्लवों का अधिकार हो गया था। चालुक्य राज्य की इस अराजकता का लाभ उठाकर बेल्लारी, नेल्लोर, कुडप्पा और अनंतपुर के क्षेत्र चालुक्य राज्य से अलग हो गये। लाट का चालुक्य सामंत विजयराज की स्वतंत्र हो गया। इसकी पुष्टि उसके द्वारा जारी 643 ई. के कैरा दानपत्र से होती है, जिसमें कलचुरि संवत का प्रयोग किया गया है और चालुक्य सम्राट का कोई उल्लेख नहीं है। विजयराज को पुलकेशिन ने ही लाट का सामंत नियुक्त किया था। इसी प्रकार सेंद्रक राजकुमार पृथ्वीवल्लभ निकुंभल्लशक्ति ने भी अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी, जबकि सेंद्रक, कीर्त्तिवर्मा के समय से ही चालुक्यों के स्वामिभक्त रहे थे।
चालुक्य इतिहास के अंधकार-काल का एक कारण संभवतः पुलकेशिन द्वितीय के पुत्रों के बीच सत्ता के लिए होने वाला पारस्परिक संघर्ष भी था। अभिलेखों तथा कुछ साहित्यिक स्रोतों में पुलकेशिन द्वितीय के छः पुत्रों की सूचना मिलती है- आदित्यवर्मन, विक्रमादित्य प्रथम, चंद्रादित्य, जयसिंहवर्मन, नेऽमरि तथा रणरागवर्मन।
अभिलेखों से ज्ञात होता है कि पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के उपरांत चालुक्य राज्य में राजनीतिक अस्थिरता एवं अशांति का वातावरण व्याप्त हो गया। ऐहोल से प्राप्त एक अतिथित लेख से संकेत मिलता है कि पुलकेशिन द्वितीय ने अपनी मृत्यु के पूर्व विक्रमादित्य प्रथम को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। किंतु कुछ अभिलेखों से पुलकेशिन के दो अन्य पुत्रों- आदित्यवर्मन तथा चंद्रादित्य का राजाओं के रूप में उल्लेख मिलता है। कर्लूर से प्राप्त आदित्यवर्मन के लेख में उसकी स्वतंत्र उपाधियाँ-महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि मिलती हैं, जबकि नेरुर ताम्रपत्र में चंद्रादित्य को पृथ्वीवल्लभ तथा महाराज कहा गया है। किंतु अंत में, विक्रमादित्य प्रथम ने अपने नाना गंग नरेश दुर्विनीति की सहायता से न केवल पल्लव शासक नरसिंहवर्मन को पराजित कर अपनी राजधानी बादामी को पल्लव आधिपत्य से मुक्त कराया, बल्कि बादामी के सिंहासन पर अधिकार कर राजसत्ता के लिए होने वाले संघर्ष का भी अंत किया।
विक्रमादित्य प्रथम (655-681 ई.)
विक्रमादित्य प्रथम पुलकेशिन द्वितीय का पुत्र था, जिसे उसके पिता ने अपनी मृत्यु के पूर्व ही अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था (तत्पादपद्योपाश्रयप्रसादो पातश्रीमहीमान्भागी)। किंतु पुलकेशिन द्वितीय की पराजय तथा मृत्यु के बाद चालुक्य राज्य में अराजकता और अव्यवस्था फैली रही। विक्रमादित्य प्रथम अपने नाना गंगनरेश दुर्विनीत की सहायता से 655 ई. में बादामी के राजसिंहासन पर अधिकार करने में सफल हो सका।
लगता है कि विक्रमादित्य प्रथम ने पहले पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन को हराकर वातापी (बादामी) से बाहर भगाया। इसके बाद उसने अपने विद्रोही भाइयों एवं सामंतों को पराजित कर अपने नियंत्रण में किया। विक्रमादित्य की इस प्रारंभिक सफलता का संकेत उसके शासनकाल के तीसरे वर्ष में अंकित कर्नूल लेख में मिलता है, जिसके अनुसार उसने अपने पिता की उस राजलक्ष्मी को पुनः प्राप्त किया, जिसे तीन राजाओं ने छिपा लिया था। इन तीन राजाओं से तात्पर्य संभवतः उसके दो भाइयों- आदित्यवर्मन, चंद्रादित्य तथा पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन से है, जिनके कारण चालुक्य राज्य की स्थिति संकटग्रस्त हो गई थी। यह भी बताया गया है कि उसने मंदिरों तथा ब्राह्मणों को पहले से मिले हुए दानों, जिन्हें तीन राजाओं के समय में निरस्त कर दिया गया था, पुनः प्रतिष्ठित किया और प्रत्येक जिले के राजाओं को जीतकर पुनः अपने वंशलक्ष्मी को प्राप्त कर लिया तथा परमेश्वर की उपाधि ग्रहण की।
यद्यपि विक्रमादित्य की विजयों का क्रमबद्ध विवरण नहीं मिलता, किंतु कर्नूल अभिलेख से पता चलता है कि अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों में ही विक्रमादित्य ने नेल्लोर, बेलारी, अनंतपुर तथा कडप्पा (कुद्रहपह) जिलों पर पुनः अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। मालेपाडु अभिलेख भी सूचित करता है कि तेलूगचोड, जो पल्लवों के अधीन कार्य कर रहे थे, वह पुनः चालुक्यों के अधीन हो गये थे।
इसके अलावा, विक्रमादित्य प्रथम ने चोल, पांड्य एवं केरल प्रदेशों के शासकों की स्वतंत्रता का अंतकर उन्हें अपने अधीन रहने को विवश किया। अपने संपूर्ण राज्य में एकता स्थापित करने के बाद उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। उसके इस कार्य में सहयोगी सामंतों, उसके दो पुत्रों- विनयादित्य और विजयादित्य और छोटे भाई जयसिंहवर्मन ने उसकी सहायता की। उसने जयसिंहवर्मन को लाट प्रदेश (दक्षिणी गुजरात) का वायसराय बना दिया।
पल्लव-चालुक्य संघर्ष
पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन द्वारा किये गये चालुक्यों के मान-मर्दन तथा पिता पुलकेशिन द्वितीय की हत्या के कारण विक्रमादित्य के मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी। फलतः राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ करने के उपरांत विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। गुजरात के चालुक्य शासक धराश्रय जयसिंहवर्मन के 671 ई. के नौसारी ताम्रपत्रों में कहा गया है कि विक्रमादित्य ने पल्लव राजवंश को जीता था। विक्रमादित्य की पल्लवों के विरूद्ध अभियान की पुष्टि गदवल, सुवणूर तथा होन्नूर लेख (970-71 ई.) से भी होती है। गदवल ताम्रपट्ट लेख चार श्लोकों में पल्लवों के विरुद्ध विक्रमादित्य की सफलता का उल्लेख मिलता है-
मुदित नरसिंहा यशसा विहितमहेन्द्रप्रताप विलयेन।
नयन विजितेश्वरेण प्रभुण श्रीवल्लभजितम्।।
कृतपल्लवमर्द्ध दक्षिणदिग्युतिमान्त कांचीकः।
यो भृशमभिरभयन्नपि सुतरां श्रीवल्लभत्वभितः।।
वहति स्वमर्थवन्तं रणक्षिकः श्रीमदुरुबलस्कन्धः।
यो राजमल्ल शब्द विहित महामल्ल कुलनाशः।।
दुर्लध्य दुष्कर विभेद विशालशाला दुश्गधिदुस्तर बृहत्परिखा परिता।
अग्राहियेन जयतेश्वर पोतराज कांचीवपिनदिराः विदितेन कांची।।
प्रथम श्लोक के अनुसार श्रीवल्लभ ने नरसिंह की सेनाओं का मानमर्दन किया, महेंद्र के शौर्य का विनाश किया तथा ईश्वर को अपने अधीन कर लिया। दूसरे श्लोक में वर्णन है कि उसने काँची पर अधिकार कर लिया। तीसरे श्लोक में वर्णित है कि रणरसिक ने राजमल्ल की उपाधि धारण की क्योंकि उसने महामल्ल अर्थात् नरसिंहवर्मन के वंश को समाप्त कर दिया। इस प्रकार विक्रमादित्य को पल्लवों के क्रमशः तीन प्रमुख शासकों- नरसिंहवर्मन प्रथम, महेंद्रवर्मन द्वितीय तथा परमेश्वरवर्मन प्रथम से संघर्ष करना पड़ा था।
विक्रमादित्य प्रथम के अलम (आंध्र प्रदेश) से प्राप्त अभिलेख से पता चलता है कि उसने पल्लव नरेश से काँची में अपनी वंदना करवाई तथा उन्हें आत्मसमर्पण करने को विवश कर दिया। उसने काँची से आगे धुर दक्षिण में स्थित केरल, पांड्य तथा चोल के राजाओं को भी अपनी प्रभुता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया था।
विक्रमादित्य प्रथम ने काँची तक विजय कर पुलकेशिन द्वितीय की पराजय का प्रतिशोध लिया। उसकी इस सफलता में उसके भाई जयसिंहवर्मन ने विशेष सहयोग दिया, फलतः उसने उसे लाट प्रदेश का शासन नियुक्त किया। जयसिंहवर्मन ने वल्लभी नरेश शीलादित्य तृतीय को पराजित करके उसे लाट राज्य में मिला लिया। उसने गुजरात में चालुक्यों की एक पृथक् वंश की नींव डाली, जिसे गुजरात की चालुक्य शाखा के नाम से जाना जाता है।
विक्रमादित्य ने मैसूर प्रदेश के गंग एवं पांड्य राज्यों के नरेशों के साथ मैत्री-संबंध स्थापित करके शक्तिशाली चालुक्य साम्राज्य की स्थापना की। उसने श्रीपृथ्वीवल्लभ, सत्याश्रय, भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, अनिवादित, राजमल्ल तथा रणरसिक आदि उपाधियाँ धारण की। उसे परममाहेश्वर भी कहा गया है, जिससे उसकी शिवभक्ति प्रमाणित होती है। उसने गुरुजनों, ब्राह्मणों तथा मंदिरों को दान दिये एवं देवताओं एवं ब्राह्मणों को दिये गये उन दानों का पुनः नवीनीकरण किया, जो उसके राजा होने के पहले अराजकता के काल में स्थगित कर दिये गये थे।
विक्रमादित्य के साम्राज्य की सीमा उत्तर में गुजरात, लाट, मालवा तथा नर्मदा नदी तक विस्तृत थी। पश्चिम में अधिकांश समुद्रतटीय क्षेत्र उसके अधीन थे और दक्षिण में उसने पल्लवों की राजधानी काँची तक दिग्विजय की थी। कहा जाता है कि चित्रकंठ नामक घोड़े ने उसकी विजयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उसने लगभग 27 वर्ष तक शासन किया और उसके शासन का अंत लगभग 682 ई. में हुआ।
अपने शासन के अंतिम चरण में विक्रमादित्य प्रथम को संभवतः महेंद्रवर्मन के पुत्र पल्लव नरेश परमेश्वरवर्मन से पेरुवलनल्लूर के युद्ध में पराजित होना पड़ा। पल्लव अभिलेखों के अनुसार इस युद्ध में परमेश्वरवर्मन की विजय हुई। इसके विपरीत, चालुक्य अभिलेखों में विक्रमादित्य प्रथम की जीत की सूचना मिलती है। ऐसा लगता है कि संभवतः दोनों राजवंशों के बीच हुए प्रारंभिक युद्धों में पहले चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम को सफलता प्राप्त हुई। किंतु दोनों राज्यों के बीच सतत चल रहे संघर्षों के क्रम में अंततः उसे परमेश्वरवर्मन द्वारा पराजित होना पड़ा। इस ऐतिहासिक घटना की पुष्टि विनयादित्य द्वारा किये गये विजयाभियानों से होती है क्योंकि उसने विक्रमादित्य के उत्तराधिकारी के रूप में पल्लवों को पराजित करके चालुक्यों की पराजय का बदला चुकाया था।
विनयादित्य (680-696 ई.)
विक्रमादित्य प्रथम के बाद 680 ई. में विनयादित्य वातापी (बादामी) के राजसिंहासन पर बैठा और लगभग 696 ई. तक शासन किया। जेजुरि तथा तोगचेंडु अभिलेखों के अनुसार विनयादित्य के राज्यकाल का प्रारंभ 678-679 ई. के बीच हुआ था। किंतु इन दो-तीन वर्ष के अंतर का कारण ज्ञात नहीं है। लेखों से पता चलता है कि विनयादित्य अपने पिता के शासनकाल में युवराज नियुक्त किया गया था (सकलभुवनसाम्राज्य लक्ष्मीस्वयंवराभिषेक समयानन्तर समुपजात महोत्साहः)। हैदराबाद अभिलेख के आधार पर नीलकंठ शास्त्री का अनुमान है कि विक्रमादित्य ने उसे 678-79 ई. में युवराज नियुक्त किया था।
परवर्ती चालुक्य राजाओं के लेखों में विनयादित्य का उल्लेख त्रैराज्यपल्लवपति के रूप में किया गया है। संभवतः त्रैराज्यपल्लकपति से आशय चोल, पांड्य तथा केरल राज्यों है, जो पल्लवनरेश परमेश्वरवर्मन प्रथम के अधीन थे और जिन्हें विनयादित्य ने अंततः जीत लिया था। परवर्ती चालुक्य अभिलेखों (जेजुरी ताम्रपत्र) में उसे पल्लव, कलभ्र, मूसक, हैहय, विल, मालव, चोल, पांड्य तथा कमेर (कवेर) राज्यों का विजेता कहा गया है। उसने युद्धमल्ल, भट्टारक, महाराजाधिराज, राजाश्रय जैसी उपाधियाँ भी धारण की थीं।
विनयादित्य के शासनकाल में चतुर्दिक शांति थी और उसका राज्य समृद्धि और वैभव से युक्त था। उसके पुत्र युवराज विजयादित्य ने उसके उत्तर भारतीय सैन्य-अभियानों में भाग लिया था तथा वहाँ से गंगा-यमुना की आकृतियाँ, पालिध्वज तथा पद्मरागमणि आदि प्रभुतासूचक चिन्हों को लाकर अपने पिता को भेंट किया था। इसकी पुष्टि विजयादित्य के रायगढ़ अभिलेख (730 ई.) से होती है। इसके अतिरिक्त, उसके द्वारा दिये गये भूमिदानों के विवरण तथा विभिन्न जैन एवं हिंदू मूर्तियों एवं मंदिरों के निर्माण आदि से उसके पराक्रम एवं राजत्व की गरिमा की पुष्टि होती है। विनयादित्य की रानी विनयवती, जो विजयादित्य की माता थी, अपने पति की मृत्यु के बाद भी जीवित रहीं और 696 ई. में उसने वातापी में ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की प्रतिमाओं की स्थापना की थी।
विजयादित्य (696-733 ई.)
विनयादित्य के शासन के उपरांत जुलाई, 696 ई. में उसका योग्य पुत्र युवराज विजयादित्य सिंहासन पर बैठा। चालुक्य नरेशों में विजयादित्य ने सबसे अधिक काल तक शासन किया। कर्नूल अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसे 691 ई. में विनयादित्य ने युवराज नियुक्त किया था। इस प्रकार विजयादित्य ने अपने पितामह (विक्रमादित्य) के शासनकाल में ही राजकीय कार्यों को भली-भाँति सीख लिया था।
येवूर अभिलेख के अनुसार विजयादित्य भी अपने पिता विनयादित्य के समान वीर एवं साहसी था। रायगढ़ अभिलेख (730 ई.) से पता चलता है कि युवराज के रुप में उसने अपने पिता विनयादित्य के उत्तर भारतीय सैन्य-अभियानों में भाग लिया था और वहाँ से गंगा-यमुना की आकृतियाँ, पालिध्वज तथा पद्मरागमणि आदि प्रभुतासूचक चिन्हों को प्राप्त कर अपने पिता को भेंट किया था। उसके सामंत शासकों में गंग, सेंद्रक, आलुप, बाण, रैनाडु के तेलगु, चोल आदि की गणना की गई है।
विजयादित्य ने 710 ई. के आसपास अपने पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय को युवराज नियुक्त किया। उसके शासनकाल के 35वें वर्ष के उलचला प्रस्तर अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसके पुत्र युवराज विक्रमादित्य द्वितीय ने परंपरागत शत्रु पल्लवों की राजधानी काँची पर आक्रमण किया और तत्कालीन पल्लवनरेश परमेश्वरवर्मन द्वितीय को पराजित कर उससे कर एवं बहुमूल्य रत्नादि वसूल कर लौटा। अपने पिता की भाँति विजयादित्य ने भी श्रीपृथ्वीवल्लभ, महाराजाधिराज, परमेश्वर, सत्याश्रय, भट्टारक तथा समस्तभुवनाश्रय आदि विरुद् धारण किया था।
विजयादित्य धर्मसहिष्णु, महान निर्माता, स्थापत्य एवं ललित कलाओं का संरक्षक एवं दानी शासक था। उसने पट्टदकल के एक विशाल विजयेश्वर शिवमंदिर का निर्माण करवाया था (स्थापितो महाशैल प्रासदो श्रीविजयेष्वर परमभट्टारक)। अलमपुर अभिलेख से पता चलता है कि विजयादित्य की आज्ञा से ईशानाचार्य ने अलमपुर में एक शिवमंदिर का निर्माण कराया था। उसकी माता विनयवती ने वातापी में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की मूर्तियाँ स्थापित कराई थी और उनकी बहन कुमकुमदेवी ने लक्ष्मेश्वर में एक भव्य जैनमंदिर का निर्माण कराया था। पट्टदकल से प्राप्त उलचला प्रस्तर अभिलेख में लोकपालेश्वर मंदिर (अनंतगुण की प्रतिमा) को दान देने का उल्लेख है, जिसमें पिता और पुत्र दोनों का वर्णन है। इसी प्रकार नेरूर के ताम्रपत्र में भी पिता और पुत्र के सम्मिलित होने का उल्लेख है।
विक्रमादित्य द्वितीय (733-745 ई.)
विजयादित्य के पश्चात् लगभग 733-34 ई. में उसका साहसी पुत्र युवराज विक्रमादित्य द्वितीय चालुक्य सिंहासन पर बैठा। विजयादित्य के 710 ई. के सतारा लेख में विक्रमादित्य द्वितीय को युवराज कहा गया है अर्थात् इस तिथि के पूर्व ही युवराज बना दिया गया था। विक्रमादित्य द्वितीय ने न केवल पिता से प्राप्त साम्राज्य को सुरक्षित रखा, बल्कि उसमें अभिवृद्धि भी की। वह पल्लवों के साथ अपनी वंशगत शत्रुता को कभी नहीं भुला सका था।
पल्लवों के विरुद्ध अभियान
चालुक्य महारानी लोकमहादेवी के पट्टदकल अभिलेख में विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा काँची को तीन बार रौंदने का उल्लेख मिलता है। पहली बार विक्रमादित्य ने युवराजकाल में चालुक्य सेना का नेतृत्व करते हुए पल्लव सेना को पराजित किया था। नरवण (रत्नागिरि) से प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि राज्यारोहण के उपरांत विक्रमादित्य ने तुंडाक प्रदेश से होते हुये पल्लव राज्य पर आक्रमण किया और नंदिपोतवर्मन (नंदिवर्मन) को पराजित किया (प्रकृत्यामित्रस्य पल्लवस्य समूलोन्मूलनायं कृतमतिरतिरथातुंडाक विषयप्राप्याभिमखागतन्नंदिपोतवर्मा)। विक्रमादित्य का पल्लवों पर यह दूसरा आक्रमण था। इस दूसरे आक्रमण की पुष्टि नरवण (रत्नगिर), केंदूर, वक्कलेरि तथा विक्रमादित्य की रानी लोकमहादेवी के पट्टदकल अभिलेखों से भी होती है।
केंदूर अभिलेख से पता चलता है कि उसने काँची के वैभव को कोई क्षति नहीं पहुँचाई, बल्कि वहाँ के राजसिंहश्वेर मंदिर को बहूमूल्य रत्नादि भेंट किया (काँचीमविनश्य प्रविश्य दानांदित द्विजदीनानाथजनः नरसिंहपोतवर्मणानिर्मित शिलामय राजसिंहश्वेरदि देवकुलसुवर्णराशि प्रत्यर्पणीपार्जितपुणः)। उसने पल्लवनरेश नरसिंहवर्मन प्रथम की वातापी-विजय को याद करते हुये राजसिंहेश्वर (कैलाशनाथ) मंदिर की दीवार पर एक अभिलेख उत्कीर्ण करवाया और नरसिंहवर्मन के वातापिकोंड के प्रतिकार में स्वयं काँचिनकोंड (काँची विजय करने वाला) की उपाधि धारण की।
संभवतः अपने शासनकाल के अंतिम चरण में विक्रमादित्य द्वितीय ने तीसरी बार काँची की विजय करने के लिए युवराज कीर्तिवर्मन के नेतृत्व में सेना भेजी, जिसमें कीर्तिवर्मन पल्लवों को पदाक्रांत कर वहाँ से बहुसंख्यक हाथी एवं रत्न अपहृत कर वातापी लौट आया।
कीर्तिवर्मन के वक्कलेरि, केंदूर तथा नरवण अभिलेखों से पता चलता है कि विक्रमादित्य ने पराजित सुदूर दक्षिण के चोल, पांड्य, केरल तथा कलभ्र आदि राज्यों को पराजित किया था और इन प्रदेशों पर विजय प्राप्त करके उसने दक्षिणी समुद्रतट पर अपना एक विजय-स्तंभ स्थापित करवाया था (दक्ष्णार्णवे शरदमल शशधर विशद यशोराशिमय जयस्तम्भमतिष्ठिपत्)। उसकी प्रभुता पश्चिमी, गंग, बाण तथा आलुप के नरेश भी स्वीकार करते थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने वल्लभदुर्नय, काँचिनकोंडु, महाराजाधिराज, श्रीपृथ्वीवल्लभ, परमेश्वर आदि अनेक उपाधियाँ धारण की थी।
अरबों का आक्रमण
विक्रमादित्य के शासनकाल में अरबों के आक्रमण हुए, जिसका उल्लेख लाट प्राप्त प्रांत के शासक पुलकेशिराज के कलचुरि संवत 490 (738 ई.) के नौसारी अभिलेख में मिलता है। नौसारी लेख में अरबों को ‘ताज्जिक’ कहा गया है और उन पर विजय प्राप्त करने का श्रेय जयसिंहवर्मन के पुत्र पुलकेशिराज को दिया गया है।
विक्रमादित्य द्वितीय का विवाह हैहयवंशी लोकमहादेवी एवं उनकी सहोदरी त्रैलोक्यमहादेवी नामक राजकुमारियों के साथ हुआ था। उसकी ज्येष्ठ रानी लोकमहादेवी ने पट्टदकल में एक विशाल शिवमंदिर का निर्माण कराया था, जो आज विरुपाक्ष महादेव मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर के प्रधान शिल्पी आचार्य गुंड को त्रिभुवनाचारि, अनिवारिताचारि तथा तेंकणदिशासूत्रधारि आदि उपाधियों से विभूषित किया गया था। उसकी कनिष्ठ राजमहिषी त्रैलोक्यमहादेवी ने लोकेश्वर शिवमंदिर का निर्माण कराया था। इनके अलावा, विक्रमादित्य ने अनेक शैव एवं जैन मंदिरों का भी निर्माण करवाया था। उसके रचनात्मक व्यक्तित्व का विशद् विवरण लक्ष्मेश्वर एवं ऐहोल अभिलेखों में मिलता है।
कीर्तिवर्मन द्वितीय (745-753 ई.)
विक्रमादित्य द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका त्रैलोक्यदेवी से उत्पत्र पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय बादामी के चालुक्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। धारवाड़ से प्राप्त एक भूमि-अनुदान लेख से पता चलता है कि विक्रमादित्य द्वितीय ने उसको अपना युवराज नियुक्त किया था। केंदूर अभिलेख के अनुसार उसने युवराज काल में ही पल्लव नरेश नंदिवर्मन को पराजित कर बहुमूल्य रत्न, हाथी एवं सुवर्ण प्राप्त किया था (प्रभूतगजसुवर्णमाणिक्यकोटिरादाय पित्रे समर्पितवान् कीर्तिवर्मा)। कीर्तिवर्मन द्वितीय ने सार्वभौम, लक्ष्मी, पृथ्वी का प्रिय, राजाओं का राजा एवं‘महाराज आदि अनेक उपाधियाँ धारण की थी।
राष्ट्रकूटों का उत्थान
चालुक्यों के शासनकाल के अंतिम चरण में उनके राष्ट्रकूट सामंत इंद्रराज और दंतिदुर्ग ने क्रमशः अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली थी। संजन दानपत्र से पता चलता है कि राष्ट्रकूट इंद्रराज ने चालुक्य राजकुमारी भावनागा के साथ कैरा में बलात् राक्षस विवाह कर लिया था और लाट तथा वातापी के चालुक्य शासक उसकी शक्ति से डरकर इस सामाजिक अपमान का प्रतिरोध नहीं कर सके तथा शांत बैठ गये थे-
राजस्ततो ग्रहात् यश्चालुक्यनृपात्मजाम्।
राक्षसेन विवाहेन रणे खेटकमण्डपे।।
इंद्रराज का पुत्र एवं उसका उत्तराधिकारी दंतिदुर्ग उससे भी अधिक शक्तिशाली था। उसने मही, नर्मदा तथा महानदी के निकटवर्ती क्षेत्रों में राष्ट्रकूट-शक्ति का विस्तार किया। फिर भी, वह चालुक्य नरेश विक्रमादित्य द्वितीय के समय तक चालुक्यों से सीधा युद्ध करने से बचता रहा।
बादामी (वातापी) के चालुक्यों की मूल शाखा का पतन
कीर्तिवर्मन द्वितीय बादामी (वातापी) के चालुक्य शासकों की श्रृंखला का अंतिम शासक था। उसके राज्यारोहण के कुछ ही समय बाद राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग ने चालुक्य शासन के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। दंतिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन पर आक्रमण करने से पूर्व पूरी तरह से सैनिक और कूटनीतिक तैयारियाँ की थी। फलतः युद्ध में कीर्तिवर्मन पराजित हुआ और गुजरात, उत्तरी महाराष्ट्र तथा आसपास के प्रदेशों पर दंतिदुर्ग का स्वतंत्र शासन स्थापित हो गया। दंतिदुर्ग के इस विजय की सूचना 753-54 ई. के समनगढ़ (कोल्हापुर) अभिलेख से मिलती है। दंतिदुर्ग ने इस विजय के उपलक्ष में परमेश्वर तथा राजाधिराज की उपाधियाँ धारण की (यो वल्लभ सपदि दंडकलेन (बलेन) जित्वा राजाधिराजपरमेश्वरतामुपैति) और मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजवंश की स्थापना की।
इस प्रकार दंतिदुर्ग की विजय के फलस्वरुप चालुक्यों की मूल शाखा का पतन प्रारंभ हो गया। संभवतः दंतिदुर्ग की मृत्यु के बाद 756 ई. में कीर्तिवर्मन ने पुनः चालुक्य-शक्ति को संगठित करने का प्रयास किया, जिसका संकेत कीर्तिवर्मन के शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष के वक्कलेरि अभिलेख में मिलता है। अभिलेख के अनुसार उसने धारवाड़ के हंगल क्षेत्र की कुछ भूमि ब्राह्मणों को दान में दिया था। किंतु गोविंद तृतीय के वणीगाँव अभिलेख से पता चलता है कि दंतिदुर्ग के उत्तराधिकारी राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम ने चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन पराजित करके वातापी के चालुक्य-राज्य को अपहृत कर लिया। अपनी सत्ता-स्थापना के साथ ही कृष्ण प्रथम ने चालुक्यों के राजकीय चिन्ह वराह के स्थान पर हिरण को अपना राजकीय चिन्ह घोषित किया (तश्चालुक्यकुलादनूनविबुधवाताश्रयोवारिधे………….लक्ष्मीम्मन्दरवतस्सीललमचिरादाकृष्टवान वल्लभः)।
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