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अध्ययन के स्रोत: पुरातात्त्विक और साहित्यिक
उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास (550 ई. से 1200 ई.) एक जटिल और गतिशील काल रहा है, जिसमें गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद क्षेत्रीय शक्तियों का उदय, विदेशी आक्रमण और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन हुए। इस काल में प्रतिहार, पाल, चंदेल, सोलंकी, चौहान, परमार, गहड़वाल, पाल, राष्ट्रकूट और राजपूत वंशों ने शासन किया, जबकि अरब और तुर्क आक्रमणों ने नई चुनौतियाँ प्रस्तुत कीं। इस काल इतिहास की जानकारी के लिए पुरातात्त्विक और साहित्यिक स्रोत अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
पुरातात्त्विक स्रोतों में अभिलेख, सिक्के, किले, मंदिर, बावड़ियाँ और पुरातात्त्विक अवशेष उपयोगी हैं, जबकि साहित्यिक स्रोतों में समकालीन ग्रंथ, ऐतिहासिक रचनाएँ, कुछ अरबी एवं फारसी ग्रंथ, धार्मिक एवं विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ और विदेशी यात्रियों के विवरण महत्त्वपूर्ण हैं। इन स्रोतों से इस काल की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिशीलता को समझने में सहायता मिलती है।
पुरातात्त्विक स्रोत
उत्तर भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन के लिए पुरातात्त्विक स्रोत ठोस और प्रत्यक्ष साक्ष्य प्रदान करते हैं। इन स्रोतों से शासकों की उपलब्धियों, प्रशासनिक व्यवस्था, सैन्य शक्ति, धार्मिक संरक्षण और सांस्कृतिक योगदान पर प्रकाश पड़ता है। पुरातात्त्विक स्रोतों के अंतर्गत अभिलेख, सिक्के, दुर्ग, मंदिर, बावड़ियाँ और अन्य पुरातात्त्विक अवशेष सम्मिलित हैं, जो न केवल ऐतिहासिक तथ्यों को प्रमाणित करते हैं, बल्कि इस काल की सांस्कृतिक समृद्धि की भी सूचना देते हैं।
अभिलेख
अभिलेख ताम्रपत्रों, पत्थरों, मंदिरों की दीवारों और स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं, जो शासकों की वंशावलियों, विजयों, दान, धार्मिक संरक्षण और प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तृत विवरण प्रदान करते हैं। अभिलेख मुख्यतः संस्कृत, प्राकृत और कभी-कभी स्थानीय भाषाओें में लिखे गये हैं, जिनमें शासक की उपाधियाँ, उनके युद्ध और धार्मिक कार्यों, जैसे-मंदिर निर्माण, यज्ञ-संपादन आदि का वर्णन मिलता है। कुछ अभिलेखों से प्रशासनिक आदेशों, भूमिदान और कर प्रणाली की भी सूचना मिलती है।
बाँसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्र अभिलेख
हर्षवर्धन (606-647 ई.) का हर्ष संवत् 22 (628 ई.) का बाँसखेड़ा ताम्रफलक अभिलेख उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले के बाँसखेड़ा से और हर्ष संवत् 25 (631 ई.) मधुबन ताम्रपत्र अभिलेख उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के मधुबन से मिला है, जिससे उसके शासनकाल की घटनाओं, प्रशासनिक व्यवस्था और उसके द्वारा दिये गये भूमिदान की जानकारी मिलती है।
ऐहोल लेख
बादामी के चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय (610-642 ई.) के दरबारी कवि रविकीर्ति द्वारा रचित ऐहोल लेख (633-34 ई.) में हर्ष-पुलकेशिन युद्ध का वर्णन है, जिसमें हर्षवर्धन की पराजय का उल्लेख मिलता है।
ग्वालियर प्रशस्ति
गुर्जर-प्रतिहार वंश से संबंधित अभिलेखों में मिहिरभोज की मध्य प्रदेश के ग्वालियर से प्राप्त ग्वालियर प्रशस्ति सबसे उल्लेखनीय है। इस तिथिविहीन लेख में प्रतिहार वंश की वंशावली, शासकों की उपलब्धियों, साम्राज्य-विस्तार, युद्धों और प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन है।
जोधपुर अभिलेख
9वीं शताब्दी का जोधपुर अभिलेख संभवतः नागभट्ट द्वितीय या मिहिरभोज के शासनकाल से संबंधित है, जो राजस्थान के जोधपुर से मिला है। इस अभिलेख में गुर्जर प्रतिहार वंश की वंशावली और उसके शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें प्रतिहारों के साम्राज्य विस्तार, विशेष रूप से कन्नौज पर नियंत्रण और पाल व राष्ट्रकूट वंशों के साथ त्रिपक्षीय संघर्ष का उल्लेख मिलता है। यह अभिलेख प्रतिहार शासकों की सैन्य विजयों, जैसे अरब आक्रमणकारियों के विरूद्ध युद्ध और उनकी प्रशासनिक व्यवस्था की जानकारी का एक प्रमुख स्रोत है।
घटियाला अभिलेख
घटियाला अभिलेख (लगभग 861 ई.) राजस्थान के जोधपुर के निकट घटियाला से मिला है, जो मिहिरभोज के अधीन खेटक मंडल (वर्तमान जोधपुर क्षेत्र) के शासक खेट्टक या स्थानीय प्रतिहार शासक से संबंधित है। इसमें मिहिरभोज की सैन्य शक्ति, विशेष रूप से अरब आक्रमणकारियों के विरूद्ध उसकी सफलता का उल्लेख है। अभिलेख में एक विष्णु मंदिर के निर्माण और भूमिदान का वर्णन है, जो प्रतिहारों की धार्मिक सहिष्णुता और वैष्णव धर्म के प्रति उनके संरक्षण को दर्शाता है। यही नहीं, इस अभिलेख से स्थानीय प्रशासन, सामंत प्रणाली और प्रतिहारों के क्षेत्रीय नियंत्रण की जानकारी भी मिलती है।
खजुराहो अभिलेख
चंदेलों के विक्रम संवत् 1011 (954 ई.) और विक्रम संवत् 1059 (1002 ई.) के खजुराहो अभिलेखों (छतरपुर, मध्य प्रदेश) से चंदेल शासकों- यशोवर्मन और धंग की सैन्य विजयों, मंदिर निर्माण और धार्मिक नीतियों की जानकारी मिलती है। ये अभिलेख न केवल खजुराहो के मंदिरों की वास्तुकला और सांस्कृतिक समृद्धि को जानने में सहायक हैं, बल्कि विशिष्ट मंदिरों, जैसे विश्वनाथ मंदिर के निर्माण और उनके संरक्षण का विवरण भी प्रदान करते हैं। खजुराहो अभिलेखों में देवनागरी लिपि का प्रारंभिक प्रयोग मिलता है।
नन्यौरा अभिलेख
विक्रम संवत् 1055 (998 ई.) का नन्यौरा अभिलेख हमीरपुर (उत्तर प्रदेश) के नन्यौरा से मिला है, जो संभवतः चंदेल शासक धंगदेव (लगभग 950-1002 ई.) के शासनकाल से संबंधित है। इस अभिलेख में चंदेल वंश की वंशावली, चंदेल शासकों की उपलब्धियों और वैष्णव तथा शैव धर्म के प्रति चंदेलों के संरक्षण, विशेष रूप से मंदिर निर्माण की परंपरा का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार नन्यौरा अभिलेख चंदेल वंश के इतिहास, उनकी प्रशासनिक व्यवस्था और सांस्कृतिक योगदान को समझने का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
महोबा अभिलेख
चंदेल वंश के शासनकाल के अंतिम चरण से संबंधित विक्रम संवत् 1240 (1183 ई.) का महोबा अभिलेख उत्तर प्रदेश के महोबा जिले से मिला है। इस अभिलेख में चंदेलों के साम्राज्य-विस्तार, सैन्य अभियानों और धार्मिक कार्यों, जैसे मंदिर निर्माण और दान का उल्लेख है। यह अभिलेख चंदेल वंश की वंशावली और चंदेल शासकों की उपलब्धियों की जानकारी का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है।
जूनागढ़ अभिलेख
गुजरात के 11वीं शताब्दी के जूनागढ़ अभिलेख में सोलंकी शासक भीमदेव प्रथम द्वारा सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का उल्लेख है, जो सोलंकी शासकों की शिवभक्ति और आर्थिक समृद्धि का परिचायक है। इस अभिलेख में सोलंकी शासकों की वंशावली, उपलब्धियों, प्रशासनिक कार्यों, धार्मिक सहिष्णुता और स्थानीय शासन व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार जूनागढ़ अभिलेख सोलंकी वंश के सौराष्ट्र और गुजरात में प्रभाव, उनके प्रशासन और सांस्कृतिक योगदान की जानकारी देने का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
हरसोल अभिलेख
परमारों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण अभिलेख सीयक द्वितीय का हरसोल अभिलेख (948 ई.) है, जो गुजरात के हरसोल से प्राप्त हुआ है। इसमें परमारों की उत्पत्ति, उनकी वंशावली, राष्ट्रकूटों से स्वतंत्रता और प्रारंभिक शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।
उज्जैन अभिलेख
परमार शासक वाक्पति मुंज के उज्जैन अभिलेख (980 ई.) से उसके शासनकाल की घटनाओं, सैन्य विजयों और मालवा में परमार शक्ति के स्थापित होने की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख से तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था और सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी प्रकाश पड़ता है।
उदयपुर प्रशस्ति
परमार शासक उदयादित्य की उदयपुर प्रशस्ति भिलसा (विदिशा, मध्य प्रदेश) के समीप उदयपुर में नीलकंठेश्वर मंदिर के शिलापट्ट पर उत्कीर्ण है, जिसमें परमार वंश की वंशावली, शासकों के नाम और उनकी उपलब्धियों का विस्तृत विवरण दिया गया है। यह प्रशस्ति उदयादित्य के शासनकाल में मालवा की विजय, विदेशी आक्रमणों, जैसे तुर्कों से सुरक्षा, धार्मिक सहिष्णुता और मंदिर निर्माण की परंपरा पर प्रकाश पड़ता है।
खालिमपुर अभिलेख
पाल शासक धर्मपाल से संबंधित खालिमपुर अभिलेख बंगाल के खालिमपुर से मिला है, जिससे धर्मपाल के शासनकाल, उसकी सैन्य विजयों और पाल साम्राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है।
नालंदा शिलालेख
बिहार के नालंदा शिलालेख, विशेष रूप से 9वीं शताब्दी के देवपालदेव के नालंदा ताम्रपत्र में पाल शासक देवपाल द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को दिये गये संरक्षण का उल्लेख है, जो शिक्षा और बौद्ध धर्म के प्रचार में पालों की भूमिका को प्रमाणित करता है। इस ताम्रपत्र से नालंदा के अंतरराष्ट्रीय महत्त्व और श्रीलंका एवं दक्षिण-पूर्व एशिया से संबंध पर भी प्रकाश पड़ता है।
इसके अलावा, देवपाल के मुंगेर अभिलेख, नारायणपाल के बादल स्तंभ लेख और महीपाल प्रथम के बानगढ़ और मुजफ्फरपुर अभिलेख से भी पाल वंश की वंशावली और पाल शासकों की सैन्य उपलब्धियों, प्रशासनिक व्यवस्था, धार्मिक नीतियों और सामाजिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है।
देवपारा शिलालेख
बंगाल का देवपारा शिलालेख सेन राजवंश से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण शिलालेख है, जो 12वीं शताब्दी का है। इस शिलालेख में सेन राजवंश के संस्थापक सामंतसेन और उसके उत्तराधिकारी हेमंतसेन के उदय और पालों से सत्ता हस्तांतरण का विवरण मिलता है। यह शिलालेख सेन वंश की प्रशासनिक, धार्मिक नीतियों और वैष्णव तथा शैव प्रभाव की जानकारी का स्रोत है।
हर्ष प्रस्तर-अभिलेख
चौहान वंश से संबंधित अभिलेखों में विग्रहराज द्वितीय का विक्रम संवत् 1030 (973 ई.) का हर्ष प्रस्तर-अभिलेख राजस्थान के सीकर जिले में स्थित हर्ष नामक स्थान से मिला है। इस अभिलेख से चौहानों के प्रारंभिक इतिहास, उनकी वंशावली और विग्रहराज की उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। यह लेख 10वीं शताब्दी के राजस्थान की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति को समझने में भी सहायक है।
बिजोलिया प्रस्तर-अभिलेख
चौहान शासक सोमेश्वर से संबंधित विक्रम संवत् 1226 (1169 ई.) का बिजोलिया प्रस्तर-अभिलेख राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में स्थित बिजोलिया नामक ऐतिहासिक स्थल से प्राप्त हुआ है। इस प्रस्तर-अभिलेख में चौहानों की उत्पत्ति, वंशावली और सोमेश्वर के शासनकाल की उपलब्धियों का वर्णन है, जिससे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को समझने में सहायता मिलती है।
आसन शिलालेख
राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के किले में स्थित 12वीं शताब्दी के आसन शिलालेख को ‘पृथ्वीराज तृतीय का शिलालेख’ के नाम से भी जाना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक लेख में चौहान वंश के प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज तृतीय (पृथ्वीराज चौहान) के सैन्य अभियानों, प्रशासन और उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का काव्यात्मक शैली में वर्णन मिलता है। लेख में पृथ्वीराज को एक आदर्श राजपूत शासक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार आसन शिलालेख चौहान वंश के गौरव, तत्कालीन समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं, और भारत में तुर्क आक्रमणों के प्रारंभिक चरण की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है।
दिल्ली-शिवालिक स्तंभलेख
चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ का विक्रम संवत् 1220 (1164 ई.) का दिल्ली-शिवालिक स्तंभलेख एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है, जो दिल्ली के पास शिवालिक क्षेत्र में स्थित एक स्तंभ पर उत्कीर्ण है। यह लेख विग्रहराज चतुर्थ के सैन्य अभियानों, विशेष रूप से उसके दिल्ली अभियान और क्षेत्रीय विस्तार के साथ-साथ 12वीं शताब्दी के राजपूत समाज की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को जानने का एक मूल्यवान स्रोत है।
गहड़वाल अभिलेख
गहड़वाल वंश ने 11वीं से 12वीं शताब्दी तक कन्नौज और वाराणसी क्षेत्र पर शासन किया। इस वंश से संबंधित अभिलेखों में चंद्रदेव का चंद्रावली दानपत्र, मदनचंद्र के राहन (1109 ई.) एवं बसही (1104 ई.) अभिलेख, गोविंदचंद्र के कमौली लेख (1168 ई.), लार अभिलेख (1146 ई.) और गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इन अभिलेखों से गहड़वाल शासकों की उपलब्धियों, उनकी प्रशासनिक नीतियों, धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है।
अन्य गहड़वाल अभिलेखों में रतनपुर लेख (1114 ई.), पालि अभिलेख (1114 ई.), ताराचंडी प्रतिमालेख (1168-69 ई.), मछलीशहर दानपत्र (1198 ई.) और बेलखरा स्तंभ अभिलेख (1197 ई.) भी गहड़वाल शासकों के शासनकाल और समकालीन इतिहास की सूचना के प्रमुख स्रोत हैं।
इस प्रकार अभिलेख शासकों के कालक्रम, क्षेत्रीय विस्तार और धार्मिक नीतियों को समझने के प्राथमिक स्रोत हैं। इन अभिलेखों से समकालीन प्रशासनिक व्यवस्था, भूमि स्वामित्व और सामाजिक संरचना के साथ-साथ शासकों के गठबंधन, युद्ध और धार्मिक संरक्षण की भी जानकारी मिलती है। कुछ अभिलेखों से स्थानीय भाषा और संस्कृति के विकास पर भी प्रकाश पड़ता है।
सिक्के
सिक्कों से शासकों की आर्थिक नीतियों, व्यापारिक समृद्धि, राजसी प्रतीकों और धार्मिक प्राथमिकताओं की सूचना मिलती है, जो सोना, चाँदी और ताँबा से बनाये गये हैं। इन सिक्कों पर शासक का नाम, उपाधि और धार्मिक प्रतीकों, जैसे- त्रिशूल, कमल, बुद्ध की आकृति आदि का अंकन मिलता है, जिनसे शासकों की धार्मिक और सांस्कृतिक प्राथमिकता का अनुमान किया जा सकता है। सिक्कों की आकृति और वितरण से व्यापार मार्गों और आर्थिक गतिविधियों को समझने में सहायता मिलती है।
हर्षवर्धन की मिट्टी की एक मुहर नालंदा (बिहार) से प्राप्त हुई है, जिसमें हर्षवर्धन के शासन और बौद्ध धर्म के प्रति उसके योगदान की जानकारी मिलती है। उसकी दूसरी मुहर ताँबे की है, जो दिल्ली के निकट सोनीपत से मिली है। इस मुहर में हर्षवर्धन की वंशावली और उसकी रानियों के नाम अंकित है। इस मुहर में पहली बार हर्ष का पूरा नाम ‘हर्षवर्धन’ मिलता है।
प्रतिहार मिहिरभोज के सिक्कों पर वैष्णव प्रतीक (चक्र) और संस्कृत में लेख अंकित है, जो कन्नौज और मालवा की व्यापारिक समृद्धि का प्रमाण है। 8वीं-10वीं शताब्दी के बंगाल के पाल शासकों- धर्मपाल और देवपाल के सिक्कों पर बौद्ध प्रतीक धर्मचक्र और शासक की उपाधियाँ मिलती हैं, जो बंगाल और बिहार की आर्थिक स्थिरता और बौद्ध धर्म के प्रभाव का सूचक हैं।
गुजरात के सोलंकी शासकों के चाँदी के सिक्कों से, जिन पर शिव और स्थानीय प्रतीक अंकित हैं, पश्चिमी भारत के समुद्री व्यापार और आर्थिक समृद्धि की सूचना मिलती है। परमार सिक्कों पर उत्कीर्ण देवी-देवताओं की आकृतियाँ और संस्कृत लेख उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं को प्रदर्शित करते हैं।
खजुराहो क्षेत्र से प्राप्त चंदेल सिक्कों पर हिंदू प्रतीक और शासकों के नाम अंकित हैं, जिनसे चंदेलों की आर्थिक और धार्मिक नीतियों पर प्रकाश पड़ता है। चाहमान नरेश अजयराज और सोमल्लादेवी के चाँदी एवं ताँबे के सिक्के चौहान वंश के इतिहास-निर्माण के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। गहड़़वाल और कलचुरि शासकों द्वारा प्रचलित ‘बैठी हुई लक्ष्मी’ शैली के सोने, चाँदी, ताँबे और मिश्रित धातुओं के सिक्कों से दोनों राजवंशों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों पर प्रकाश पड़ता है।
इस प्रकार सिक्कों से शासकों के शासनकाल, क्षेत्रीय प्रभाव और आर्थिक नीतियों को समझने में सहायता मिलती हैं। इनसे व्यापारिक मार्गों, जैसे रेशम मार्ग और समुद्री व्यापार की भी जानकारी मिलती है। सिक्कों पर अंकित धार्मिक प्रतीक शासकों की धार्मिक प्राथमिकताओं के परिचायक हैं। यही नहीं, सिक्कों की गुणवत्ता और वितरण से तत्कालीन व्यापार, आर्थिक समृद्धि और मुद्रा प्रणाली का भी ज्ञान होता है।
दुर्ग और मंदिर
दुर्ग सैन्य शक्ति, रक्षा रणनीति और सामंती व्यवस्था के प्रतीक हैं, जबकि मंदिर धार्मिक संरक्षण, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक समृद्धि के सूचक हैं। दुर्ग सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर निर्मित करवाये गये थे। इन दुर्गों की संरचना, जैसे प्रवेश द्वारों, दीवारों और गढ़ों से तत्कालीन स्थापत्य और अभियंत्रिकी का ज्ञान प्राप्त होता है।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग (मेवाड़)
गंभीरी और बेड़च नदियों के संगम पर स्थित मेवाड़ का विशाल चित्तौड़गढ़ दुर्ग सिसोदिया शासकों का प्रमुख सैन्य केंद्र था, जो यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल भी है। चित्तौड़गढ़ दुर्ग को ‘राजस्थान का गौरव’ कहा जाता है। यह दुर्ग सामंती व्यवस्था, रक्षा रणनीति और राजपूत वीरता का प्रतीक है और जौहर तथा शाका की ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा है।
रणथंभौर दुर्ग (सवाई माधोपुर)
राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में स्थित 10वीं-12वीं शताब्दी का रणथंभौर दुर्ग चौहान राजवंश का एक महत्त्वपूर्ण गढ़ था और इसका नाम रणस्तंभपुर था। यह दुर्ग चौहान शासकों की सैन्य शक्ति और क्षेत्रीय प्रभुत्व का केंद्र था। इस दुर्ग में हिंदू और मुस्लिम वास्तुकला के तत्व शामिल हैं। रणथंभौर दुर्ग ऐतिहासिक महत्त्व और सुंदर वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।
कुंभलगढ़ का दुर्ग (मेवाड़)
राजस्थान में अरावली पहाड़ियों पर स्थित कुंभलगढ़ के दुर्ग को ‘मेवाड़ का गढ़’ भी कहा जाता है। इसका निर्माण मेवाड़ शासक महाराणा कुंभा ने 15वीं शताब्दी में करवाया था, जो तत्कालीन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह दुर्ग कई मंदिरों, महलों और जलाशयों से युक्त है और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल भी है। इस दुर्ग की दीवारें और रक्षा संरचनाएँ राजपूतकालीन अभियंत्रिकी का प्रमाण हैं। कुंभलगढ़ में ही महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था।
ग्वालियर दुर्ग (मध्य प्रदेश)
मध्य प्रदेश के ग्वालियर में स्थित इस ऐतिहासिक दुर्ग का निर्माण 8वीं शताब्दी में राजा सूर्यसेन ने करवाया था, जिसे अकसर ‘भारत का जिब्राल्टर’ कहा जाता है। यह मध्यकालीन वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है, जो गोपांचल नामक छोटी पहाड़ी पर लाल बलुआ पत्थर से बना है। यह दुर्ग मध्य भारत में तोमर शासकों का सैन्य और प्रशासनिक केंद्र था, जिसमें हिंदू और जैन तत्वों का समन्वय दिखाई देता है।
मंदिर धार्मिक संरक्षण, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक समृद्धि के प्रतीक हैं। हिंदू, जैन और बौद्ध मंदिरों से नक्काशी, मूर्तिकला और वास्तुशास्त्र के नियमों की जानकारी होती है।
खजुराहो के मंदिर (मध्य प्रदेश)
बुंदेलखंड के खजुराहो में हिंदू और जैन दोनों प्रकार के मंदिर हैं, जो चंदेलों द्वारा 9वीं-11वीं शताब्दी में नागर शैली में बनवाये गये हैं। इन मंदिरों में एक गर्भगृह, शिखर और एक मंडप शामिल है। इन मंदिरों स्थापित देवी-देवताओं मूर्तियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। खजुराहो के मंदिर चंदेल शासकों के धार्मिक विश्वास, कला और स्थापत्य की जानकारी प्रदान करते हैं। खजुराहो के मंदिरों में सबसे प्रसिद्ध कंदरिया महादेव है, जो अपनी कामुक मूर्तियों और शिखर के लिए प्रसिद्ध है।
दिलवाड़ा के जैन मंदिर (राजस्थान)
राजस्थान के जोधपुर के निकट सिरोही जिले के माउंट आबू में सोलंकी राजाओं द्वारा बनवाया गया दिलवाड़ा जैन मंदिर, पाँच मंदिरों का एक समूह है। इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच हुआ था, जो सोलंकी शासकों की जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता और तत्कालीन स्थापत्य कला की उत्कृष्टता का प्रमाण हैं। अपने ऐतिहासिक महत्त्व एवं संगमरमर की बारीक नक्काशी की जादूगरी के लिए पहचाने जाने वाले इन विश्वविख्यात मंदिरों में शिल्प-सौंदर्य का ऐसा अद्वितीय खजाना है, जो दुनिया में और कहीं नहीं है।
सोमनाथ मंदिर (गुजरात)
भारत के गुजरात राज्य में स्थित सोमनाथ मंदिर शिव को समर्पित है और बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर प्राचीन व्यापारिक बंदरगाह वेरावल के पास स्थित है, जो एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक और व्यापारिक केंद्र था। महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद सोलंकी शासक भीमदेव प्रथम ने 11वीं शताब्दी में इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जो सोलंकी शासकों की धार्मिक और राजनीतिक शक्ति का परिचायक है।
लिंगराज मंदिर (उड़ीसा)
उत्तर भारत के सीमावर्ती क्षेत्र में सोमवंशी शासक द्वारा 11वीं शताब्दी में निर्मित उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित लिंगराज मंदिर कलिंग वास्तुकला शैली और शिव भक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। लिंगराज मंदिर को ‘स्वयंभू मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है।
इसके अलावा, परमार कालीन भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर और मांडू का किला परमारों की स्थापत्य कला और तकनीकी कौशल के प्रमाण हैं।
इस प्रकार दुर्ग जहाँ शासकों की सैन्य रणनीति, सामंती संगठन और क्षेत्रीय नियंत्रण के प्रमाण हैं, वहीं मंदिर धार्मिक संरक्षण, स्थापत्य नवाचार और सांस्कृतिक समृद्धि को उजागर करते हैं। इन स्रोतों से शासकों की आर्थिक समृद्धि और कलाकारों की कुशलता का ज्ञान होता है। वास्तव में, दुर्ग और मंदिर राजसी वैभव, धार्मिक भक्ति और सामुदायिक केंद्र के रूप में कार्य करते थे, जिनसे तत्कालीन राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।
बावड़ियाँ और जलाशय
जल प्रबंधन और सामाजिक कल्याण के लिए राजस्थान और गुजरात जैसे शुष्क क्षेत्रों में बनवाये गये बावड़ियों और जलाशयों की नक्काशी, सीढ़ीदार संरचना और धार्मिक प्रतीक ऐतिहासिक सूचना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इनके स्थापत्य में वैदिक और स्थानीय तत्वों का समन्वय मिलता है, जिनसे न केवल जल संरक्षण की तकनीकों की जानकारी मिलती है, बल्कि सामुदायिक और धार्मिक गतिविधियों पर भी प्रकाश पड़ता है।
रानी की बावड़ी (पाटन, गुजरात)
बावड़ियों में 11वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के राजा भीमदेव प्रथम की रानी उदयमती द्वारा गुजरात के पाटन में निर्मित रानी की वाव, जिसे ‘रानी की बावड़ी’ या ‘रानी का सीढ़ीदार कुआँ’ कहा जाता है, यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल में शामिल है। इसमें विष्णु के अवतारों, देवी-देवताओं और अप्सराओं की मूर्तियाँ हैं। यह बावड़ी सोलंकी शासकों की सामाजिक कल्याण की नीतियों और स्थापत्य कौशल का सूचक है।
चाँद बावड़ी (आभानेरी, राजस्थान)
राजस्थान के आभानेरी गाँव में स्थित 9वीं शताब्दी की चाँद बावड़ी अपनी सीढ़ीनुमा संरचना और ज्यामितीय आकृति के लिए प्रसिद्ध है, जो चौहानकालीन अभियंत्रिकी और जल प्रबंधन की प्रगति का प्रमाण है।
अडालज बावड़ी (अहमदाबाद)
गुजरात के अहमदाबाद में सोलंकी शासकों द्वारा 12वीं शताब्दी में निर्मित अदा की बावड़ी, जिसे ‘अडालज बावड़ी’ या ‘रुदाबाई बावड़ी’ भी कहा जाता है, भारत की सबसे खूबसूरत बावड़ियों में से एक है। इस बावड़ी के निर्माण में स्थानीय और इस्लामी स्थापत्य का प्रभाव परिलक्षित होता है। इससे व्यापारिक शहरों में जल प्रबंधन की सूचना मिलती है।
सहस्रलिंग तालाब (पाटन)
गुजरात के पाटन में सरस्वती नदी के किनारे चालुक्य (सोलंकी) शासक जयसिंह सिद्धराज (1092-1142 ई.) के संरक्षण में निर्मित सहस्त्रलिंग तालाब जल संरक्षण, सिंचाई और धार्मिक महत्त्व की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस तालाब के किनारे 1000 से अधिक शिवलिंग स्थापित थे, जो सिद्धराज जयसिंह अमरकंटक से लाए थे।
इस प्रकार बावड़ियों से शासकों की सामाजिक कल्याण की नीतियों और पर्यावरण प्रबंधन पर प्रकाश पड़ता हैं, जो सामुदायिक और धार्मिक केंद्रों के रूप में कार्य करती थीं और सामाजिक एकता को बढ़ावा देती थीं। इनकी नक्काशी और आकृति से स्थानीय कारीगरों की कुशलता और शासकों की सांस्कृतिक प्राथमिकता की जानकारी मिलती है। बावड़ियाँ अकसर शुष्क क्षेत्रों में आर्थिक और सामाजिक स्थिरता का आधार थीं।
पुरातात्त्विक अवशेष
ऐतिहासिक नगरों, शिक्षा संस्थानों और व्यापारिक स्थलों की खुदाई से प्राप्त अवशेषों, मूर्तियों, बर्तनों, औजारों और संरचनाओं से सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। मूर्तियों और संरचनाओं में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक शामिल हैं।
बिहार के नालंदा और विक्रमशिला से पाल शासकों द्वारा संरक्षित बौद्ध शिक्षा केंद्रों के अवशेष मिले हैं। इनके मठों, पुस्तकालयों और मूर्तियों से शिक्षा और बौद्ध धर्म की समृद्धि का ज्ञान होता है। नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष वैश्विक शिक्षा केंद्र के रूप में इसकी प्रसिद्धि के प्रमाण हैं।
प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त मूर्तियाँ, मंदिरों के अवशेष और बर्तन न केवल ऐतिहासिक सूचना की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि कन्नौज की व्यापारिक और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रमाण भी हैं। वर्धन वंश की राजधानी थानेश्वर (हरियाणा) से प्राप्त मूर्तियाँ और अवशेष हिंदू तथा बौद्ध धर्म के समन्वय का सूचक हैं। भितरी से गुप्तोत्तर शासकों की प्राप्त मूर्तियों और ताम्रपत्रों से क्षेत्रीय शासकों के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी मिलती है। सारनाथ से बौद्ध स्तूपों, मठों और मूर्तियों के अवशेष मिले हैं, जिनसे बौद्ध धर्म के संरक्षण और कला के विकास का ज्ञान होता है।
वास्तव में, पुरातात्त्विक अवशेषों से शिक्षा, व्यापार और धार्मिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है। इन अवशेषों से शहरीकरण, कारीगरी और सामाजिक संगठन के स्तर का भी पता लगया जा सकता है। यही नहीं, खुदाई से प्राप्त अवशेष आर्थिक गतिविधियों और व्यापारिक संपर्कों को समझने में भी सहायक हैं।
इस प्रकार उत्तर भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन के लिए पुरातात्त्विक स्रोत सर्वाधिक उपयोगी हैं। जहाँ शिलालेखों से शासकों के कालक्रम, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्था का ज्ञान होता है, वहीं सिक्कों से आर्थिक नीतियों और व्यापारिक समृद्धि की जानकारी मिलती है। दुर्गों से सैन्य रणनीति और सामंती संगठन की सूचना मिलती है और मंदिर तथा बावड़ियाँ धार्मिक संरक्षण, स्थापत्य कला और सामुदायिक जीवन के विविध पक्षों का उद्घाटन करती हैं। पुरातात्त्विक अवशेषों से शिक्षा, व्यापार, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक समन्वय की सूचना मिलती है। खुदाई से प्राप्त बर्तन और औजार आर्थिक गतिविधियों की जानकारी के स्रोत हैं। मूर्तियाँ और नक्काशी धार्मिक और सौंदर्यबोध की सूचना देती हैं। कुल मिलाकर, पुरातात्त्विक साक्ष्य उत्तर भारत के इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत हैं।
साहित्यिक स्रोत
पुरातात्त्विक स्रोतों की भाँति साहित्यिक स्रोत भी उत्तर भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। गुप्तों के पतन के बाद मौखरि, परवर्ती गुप्त, वर्धन, प्रतिहार, पाल, चंदेल, सोलंकी और चौहान जैसे राजवंशों का उदय हुआ। साहित्यिक स्रोतों से इन राजवंशों के शासन, युद्ध, गठबंधन और सांस्कृतिक योगदान को जानने में सहायता मिलती है। साहित्यिक स्रोतों को पुरातात्त्विक स्रोतों के पूरक के रूप में प्रयुक्त कर इस काल के इतिहास का पुननिर्माण किया जा सकता है। इन साहित्यिक स्रोतों को समकालीन ग्रंथ, काव्य और ऐतिहासिक रचनाएँ, अरबी तथा फारसी ग्रंथ, धार्मिक एवं विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ और विदेशी यात्रियों के विवरण में विभाजित किया जा सकता है।
समकालीन ग्रंथ
समकालीन ग्रंथ तत्कालीन शासकों, उनके प्रशासन, सैन्य अभियानों और सांस्कृतिक गतिविधियों को जानने के प्राथमिक स्रोत हैं। इन ग्रंथों की रचना दरबारी लेखकों, विद्वानों या स्वयं शासकों ने संस्कृत, प्राकृत और कभी-कभी स्थानीय भाषाओं में की है। इनमें तत्कालीन समाज, धर्म और राजनीति का प्रत्यक्ष चित्रण मिलता है। कुछ ग्रंथों से स्थापत्य, कला और प्रशासन जैसे विषयों की भी जानकारी मिलती है।
हर्षचरित (बाणभट्ट)
बाणभट्ट की रचना हर्षचरित पुष्यभूति वंश के शासक हर्षवर्धन की जीवनी है। यह बाणभट्ट की पहली रचना थी और इसे संस्कृत में ऐतिहासिक काव्य रचनाओं के लेखन की शुरुआत माना जाता है। हर्षचरित में कन्नौज की राजनीतिक स्थिति, हर्ष के युद्ध और सांस्कृतिक समृद्धि का वर्णन मिलता है। इससे हर्ष के धार्मिक समन्वय और उसकी प्रशासनिक नीतियों का ज्ञान होता है।
गौडवहो (वाक्पतिराज)
गौडवहो (गौड़वध) प्रसिद्ध प्राकृत कवि वाक्पतिराज की रचना है, जो कन्नौज के राजा यशोवर्मन (लगभग 725-752 ई.) के दरबारी कवि थे। इस महाकाव्य में यशोवर्मन के जीवन, विजयों और शासन की प्रशंसा की गई है। यह ग्रंथ न केवल प्राकृत साहित्य की समृद्ध परंपरा का सूचक है, बल्कि 8वीं शताब्दी के उत्तरी भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति को समझने का एक प्राथमिक स्रोत है।
रामपाल चरित (संध्याकरनंदी)
रामपालचरित नामक ऐतिहासिक संस्कृत काव्य की रचना संध्याकरनंदी ने बंगाल के पाल राजाओं के संरक्षण में की थी। इसमें रामायण और बंगाल के पाल शासक रामपाल की कहानी एक साथ लिखी गई है। यद्यपि इसमें पाल नरेश रामपाल (लगभग 1075-1120 ई.) की प्रशंसा की गई है, किंतु यह 1050 ई. से 1150 ई. तक के बंगाल के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। संध्याकरनंदी ने पाल शासकों को ‘समुद्रदेव की संतान’ बताया है और रामपाल के शासनकाल में होने वाले कैवर्त्त विद्रोह का भी वर्णन किया है।
नवसाहसांकचरित (पद्मगुप्त)
साहित्यिक स्रोतों में नवसाहसांकचरित एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक महाकाव्य है, जिसकी रचना ग्यारहवीं शताब्दी में पद्मगुप्त ‘परिमल’ ने की थी, जो मूलतः धारा के परमार नरेश भोज और सिंधुराज का आश्रित कवि था। अठारह सर्गों में प्रणीत इस महाकाव्य में उसने मुख्यतः अपने आश्रयदाताओं के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वर्णन किया है। यद्यपि इस काव्यात्मक रचना में अतिशयोक्ति है, फिर भी, इससे भोज के सैन्य अभियानों, प्रशासन और सांस्कृतिक संरक्षण पर प्रकाश पड़ता है। यह ग्रंथ परमार दरबार की साहित्यिक और बौद्धिक गतिविधियों की भी सूचना देता है। पद्मगुप्त को ‘परिमल कालिदास’ की उपाधि दी गई है।
विक्रमांकदेवचरित (बिल्हण)
विक्रमांकदेवचरित महाकाव्य कश्मीरी कवि बिल्हण की रचना है, जिसका रचनाकाल 1088 ई. माना जाता है। इस महाकाव्य को प्रकाश में लाने का श्रेय व्यूह्लर को है। बिल्हण कश्मीर से भ्रमण करते हुए कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य (षष्ठ) की राजसभा में पहुँचे थे। विक्रमादित्य ने बिल्हण को ‘विद्यापति’ की उपाधि और छत्र प्रदान किया। बिल्हण के अनुसार केसर तथा कविता कश्मीर को छोड़कर अन्यत्र नहीं होती।
बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित में चालुक्यवंशीय नरेश विक्रमादित्य षष्ठ (1076 ई.-1127 ई.) की उपलब्धियों के साथ-साथ उसके पूर्वजों का भी विवरण दिया है। इस प्रकार विक्रमांकदेवचरित मूलतः एक ऐतिहासिक ग्रंथ है, जो आरंभिक मध्यकाल की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
राजतरंगिणी (कल्हण)
ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से राजतरंगिणी सबसे प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ है, जिसकी रचना कश्मीर के ब्राह्मण कवि कल्हण ने संस्कृत भाषा में की थी। कल्हण भारत के पहले वास्तविक इतिहासकार हैं और राजतरंगिणी भारत की पहली ऐतिहासिक कृति है।
राजतरंगिणी का शाब्दिक अर्थ है- राजाओं की नदी। इसमें 8 तरंग (अध्याय) और 7826 श्लोक हैं। कल्हण ने स्वयं को पक्षपात और संकीर्णता से मुक्त रखते हुए समस्त उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोतों का प्रयोग कर कश्मीर के इतिहास, संस्कृति, और सामाजिक जीवन के बारे में जानकारी के साथ-साथ उत्तर भारत के कुछ शासकों, अरबों और तुर्कों के आक्रमणों के राजनैतिक और ऐतिहासिक प्रभावों का वर्णन है।
कल्हण की राजतरंगिणी को आगे बढ़ाने का कार्य विभिन्न कालों में जोनराज (1450 ई.), श्रीवर (1486 ई.) तथा शक (1586 ई.) ने किया। अकबर ने राजतरंगिणी का अनुवाद फारसी में करवाया था।
कुमारपालचरित (हेमचंद्रसूरि)
कुमारपालचरित को ‘द्वयाश्रय’ महाकाव्य के नाम से भी जाना जाता है। इसके प्रणयनकर्ता ‘कलिकालसर्वज्ञ’ आचार्य हेमचंद्रसूरि हैं, जिन्हें गुजरात के चालुक्यवंशी नरेशों- जयसिंह सिद्धराज और उसके पुत्र कुमारपाल का संरक्षण प्राप्त था। कुमारपालचरित की रचना दो भाषाओं में की गई है। इस महाकाव्य में 20 सर्ग हैं, जिसके प्रारंभिक 12 सर्गों में कुमारपाल से पूर्ववर्ती नरेशों का वर्णन संस्कृत भाषा में किया गया है और अंतिम 8 सर्गों में प्राकृत भाषा में कुमारपाल की वंशावली और उसके शासनकाल, जैन धर्म के संरक्षण और गुजरात की समृद्धि का वर्णन है। इस ग्रंथ से सोलंकी शासकों की धार्मिक सहिष्णुता और प्रशासनिक नीतियों का ज्ञान होता है।
समरांगण सूत्रधार (भोज)
परमार शासक भोज की रचना समरांगणसूत्रधार भारतीय वास्तुशास्त्र, कला और प्रशासन पर आधारित एक प्रसिद्ध तकनीकी ग्रंथ है। इस ग्रंथ से भारतीय वास्तुकला, खासकर मंदिर निर्माण, नगर नियोजन, भवन निर्माण, मूर्तिकला और युद्ध रणनीतियों की जानकारी मिलती है।
प्रबंधचिंतामणि (मेरुतुंग)
जैन लेखक मेरुतुंग की रचना प्रबंधचिंतामणि में परमारों और गुजरात के चौलुक्य शासकों के बीच के संबंधों का वर्णन मिलता है। इसमें परमार शासकों की उपलब्धियों, उनके धार्मिक संरक्षण और सामाजिक व्यवस्था का उल्लेख है। यह ग्रंथ जैन समुदाय के प्रति परमारों की सहिष्णुता और संरक्षण को विशेष रूप से रेखांकित करता है।
प्रभावकचरित (प्रभाचंद्र)
प्रभावकचरित एक इतिहास-ग्रंथ है, जिसके रचयिता श्वेतांबर जैन आचार्य प्रभाचंद्र हैं। इसकी रचना 1277-1278 ई. में हुई थी। यह ग्रंथ तत्कालीन सामाजिक जीवन का इतिहास जानने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्रभावकचरित में पैराशूट के उपयोग का भी वर्णन मिलता है।
काव्य और ऐतिहासिक रचनाएँ
वीर काव्य और ऐतिहासिक रचनाओं में राजपूत शासकों की शौर्य गाथाओं, वंशावलियों और नैतिक आदर्शों का वर्णन है। इनकी रचना भाट और चारण कवियों ने की है, जो राजपूतों के दरबारी इतिहासकार और गायक थे। इन कवियों की रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत और डिंगल, पिंगल जैसी स्थानीय भाषाओं में है, जिनमें युद्ध, बलिदान तथा नैतिकता का वर्णन है। ऐसी रचनाएँ मौखिक और लिखित दोनों रूपों में प्रचलित थीं।
पृथ्वीराजविजयमहाकाव्य (जयानकभट्ट)
उत्तर भारत के इतिहास की जानकारी का एक प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत पृथ्वीराजविजयमहाकाव्य है। इसकी रचना पृथ्वीराज के दरबारी कवि जयानकभट्ट (जयरथ) ने संस्कृत में की थी। इस महाकाव्य में तराइन के प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय की विजय का वर्णन है, लेकिन इसमें तराइन के दूसरे युद्ध और पृथ्वीराज तृतीय की पराजय का वर्णन नहीं है। इससे लगता है कि इसकी रचना संभवतः 1191 से 1192 ई. के बीच की गई थी। यद्यपि इस महाकाव्य में पृथ्वीराज चौहान की प्रशंसा की गई है, लेकिन इससे चाहमानों की उत्पत्ति, उनकी वंशावली और अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी मिलती हैं।
पृथ्वीराजरासो (चंदबरदाई)
चंदबरदाई की रचना पृथ्वीराजरासो में चाहमान शासक पृथ्वीराज चौहान की काव्यात्मक शौर्यगाथा और तुर्क आक्रमण का वर्णन है। कहा जाता है कि चंदबरदाई पृथ्वीराज के समकालीन कवि और उसके मित्र भी थे। इस महाकाव्य में पृथ्वीराज-संयोगिता के प्रेम-प्रसंग, शहाबुद्दीन द्वारा उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाने और अंत में शब्दभेदी बाण द्वारा शहाबुद्दीन गोरी को मारने का उल्लेख मिलता है।
यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से पृथ्वीराजरासो की प्रामाणिकता संदिग्ध है, फिर भी, इस ग्रंथ को हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है, जो मूलतः पिंगल भाषा में लिखा गया था। पृथ्वीराजरासो का अंतिम भाग चंदबरदाई के पुत्र जल्हण ने पूरा किया था।
हम्मीर महाकाव्य (नयचंद्रसूरि)
रणथंभौर के चौहान शासक हम्मीरदेव के जीवन-चरित पर आधृत हम्मीर महाकाव नयचंद्रसूरि की रचनाधर्मिता का प्रमाण है, जिसमें अलाउद्दीन खिलजी और हम्मीरदेव के मध्य हुए रणथंभोर के युद्ध (1301 ई.) और हम्मीरदेव के प्राणोत्सर्ग की घटना का विवरण है। चौहानों के इतिहास की जानकारी के लिए यह एक प्रामाणिक और विश्वसनीय स्रोत है।
बिल्वमंगल काव्य (बिल्वमंगल)
बिल्वमंगल काव्य को बिल्वमंगल स्तोत्र भी कहा जाता है क्योंकि इसकी रचना बिल्वमंगल नामक एक संत ने की थी। यद्यपि इस काव्य में कृष्ण की भक्ति और वैराग्य का वर्णन है, लेकिन इसमें चंदेल शासकों की उपलब्धियों का भी काव्यात्मक वर्णन मिलता है। इससे खजुराहो के मंदिर निर्माण और धार्मिक संरक्षण की सूचना मिलती है।
खुमाण रासो (दलपति विजय)
नवीं शताब्दी में दलपति विजय ने खुमाण रासो की रचना की थी, जो ऐतिहासिक और साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस रचना में मेवाड़ के सिसोदिया शासकों, विशेष रूप से खुमाण की शौर्य कथाएँ और सैन्य विजयों का विवरण है। इससे मेवाड़ की सांस्कृतिक और सैन्य शक्ति की जानकारी मिलती है।
हम्मीर रासो (शारंगधर)
हम्मीर रासो के कम से कम तीन संस्करण मिलते हैं, जिनमें शारंगधर, जोधराज और महेश कवि द्वारा रचित ग्रंथ शामिल हैं। शारंगधर द्वारा रचित हम्मीर रासो जोधराजकृत हम्मीर रासो से पहले की मानी जाती है, और इसकी भाषा महेश कवि के हम्मीर रासो के बाद की प्रतीत होती है। इस ग्रंथ की रचना अहीरवाटी बोली में हुई है और यह रासो काव्य परंपरा का हिस्सा है, जो वीरगाथा काल की विशेषता रही है।
शारंगधर द्वारा रचित हम्मीर रासो में 14वीं शताब्दी के रणथंभौर के चौहान शासक हम्मीरदेव की दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के विरूद्ध वीरता और बलिदान की कथा का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। इससे राजपूत शौर्य और शाका (अंतिम युद्ध) की परंपरा पर भी प्रकाश पड़ता है।
राठौड़ री वचनिका (जग्गा खिड़िया)
राजस्थानी साहित्य की वचनिका नामक विशिष्ट शैली (गद्य-पद्य मिश्रित) में लिखी गई राठौड़ री वचनिका जग्गा खिड़िया की रचना है, जिसमें मारवाड़ के राठौड शासकों की वीरता और वंशावली का वर्णन किया गया है। राठौड़ री वचनिका भाट और चारण परंपराओं का हिस्सा है, जो राजस्थानी साहित्य और इतिहास के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
इन साहित्यिक स्रोतों के अलावा, चाहमान शासक विग्रहराज चतुर्थ के दरबारी सोमदेवकृत ललितविग्रहराज और स्वयं विग्रहराज के हरिकेलि नाटक से चौहानों के इतिहास-निर्माण में सहायता मिलती है, जो अजमेर के सरस्वती मंदिर की दीवारों और सीढ़ियों पर उत्कीर्ण करवाये गये थे। आनंदभट्ट की रचना बल्लालचरित में बंगाल के दूसरे सेन शासक बल्लालसेन का विवरण है। इसी प्रकार जयदेव ने गीतगोविंद गीतिकाव्य में धार्मिक उत्साह के साथ श्रृंगारिकता का सुंदर संयोजन प्रस्तुत किया है। बंगाली कवि चंद्रशेखर (चंद्रधर शर्मा) के सुरजनचरित में बूंदी के हाड़ावंशीय राजाओं का ऐतिहासिक विवरण मिलता है। यही नहीं, चाहमान शासक गोविंदचंद्र के मंत्री लक्ष्मीधर द्वारा रचित कृत्यकल्पतरु, मेरुतुंग की प्रबंधचिंतामणि, राजशेखरसूरि विरचित प्रबंधकोश, नयचंद्र की रंभामंजरी, विद्यापति की पुरुषपरीक्षा, कृष्णमिश्र के संस्कृत नाटक प्रबोधचंद्रोदय और मंख कवि की रचना श्रीकंठचरित भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपयोगी रचनाएँ हैं, जिनसे तत्कालीन उत्तर भारत के जन-जीवन और शासकों की वीरता पर प्रकाश पड़ता है। कर्नल जेम्स टॉड की रचना राजस्थान का इतिहास भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी ग्रंथ है, जिसमें पृथ्वीराज तृतीय को भारत का ‘अंतिम हिंदू सम्राट’ बताया गया है।
अरबी और फारसी ग्रंथ
चचनामा (अली अहमद)
अरबी भाषा में लिखे गये चचनामा को ‘फतहनामा सिंध’ तथा ‘तारीख़-अल-हिंद वस-सिंद’ के नाम से भी जाना जाता है। इस ग्रंथ का लेखक संभवतः अली अहमद था, जो मुहम्मद बिन कासिम के साथ सिंध आया था। चचनामा में राजा दाहिर के चच राजवंश का इतिहास और 712 ई. में अरबों की सिंध विजय का विवरण मिलता है। संभवतः नासिरुद्दीन क़ुबाचा के समय में मुहम्मद अली बिन अबू बकर कूफी ने इस ग्रंथ का फारसी में अनुवाद किया और उसी को समर्पित किया है।
अल-कामिल फी अल-तारीख (इब्न उल-अथीर)
11वीं-12वीं शताब्दी के फारसी इतिहासकार अली इब्न उल-अथीर के ग्रंथ अल-कामिल फी अल-तारीख में चंदेल शासक विद्याधर और महमूद गजनवी के बीच संघर्ष का उल्लेख है। अली इब्न उल-अथीर ने चंदेल शासक विद्याधर (1018-1029 ई.) को ‘चंद्र’ या ‘विदा’ के नाम से संबोधित किया है। इस ग्रंथ से चंदेलों की सैन्य शक्ति और उनके क्षेत्रीय प्रभाव की सूचना मिलती है।
किताब-उल-यामिनी (अबु नस्र मुहम्मद उत्बी)
11वीं शताब्दी के फारसी इतिहासकार अबु नस्र मुहम्मद उत्बी की रचना किताब-उल-यामिनी को ‘तारीख-ए-यामिनी’ के नाम से भी जाना जाता है। इस ग्रंथ में गजनी के सुल्तान महमूद गजनवी (998-1030 ई.) के शासनकाल और उसके कन्नौज अभियान (1019 ई.) का वर्णन मिलता है। यह ग्रंथ महमूद के भारत, मध्य एशिया और अन्य क्षेत्रों में आक्रमणों का प्राथमिक स्रोत है। किताब-उल-यामिनी का अंग्रेजी अनुवाद जेम्स रेनॉल्ड्स ने 1858 ई. में किया था।
ताज-उल-मासीर (हसन निजामी)
13वीं शताब्दी के फारसी इतिहासकार हसन निजामी (13वीं शताब्दी) ने अपनी रचना ताज-उल-मासीर में मुहम्मद गोरी मुहम्मद गोरी (मुहम्मद बिन साम) और उसके उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक की सैन्य विजयों का विस्तृत वर्णन किया है। इस ग्रंथ में गहड़वाल शासक जयचंद और मुहम्मद गोरी के बीच होने वाले चंदावर के युद्ध (1194 ई.) का उल्लेख है, जिसमें जयचंद की पराजय हुई थी।
चंदावर के युद्ध का उल्लेख मिनहाज-उस-सिराज के तबकात-ए-नासिरी और फरिश्ता के तारीख-ए-फरिश्ता में भी मिलता है, जो हसन निजामी के विवरण की पुष्टि करते हैं। कुल मिलाकर, ताज-उल-मासीर 12वीं-13वीं शताब्दी के भारत में तुर्क आक्रमणों और सल्तनत की स्थापना का प्राथमिक स्रोत है।
इस प्रकार ऐतिहासिक रचनाएँ उत्तर भारत के इतिहास की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इन रचनाओं से राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक इतिहास की जानकारी के साथ-साथ हिंदी तथा अन्य स्थानीय भाषाओं के विकास की भी सूचना मिलती है। साहित्यिक स्रोतों में कुछ अतिशयोक्ति और पूर्वाग्रहपूर्ण विवरण हैं, इसलिए इनका उपयोग करते समय पुरातात्त्विक स्रोतों से तुलना करना ऐतिहासिक दृष्टि से आवश्यक है।
धार्मिक एवं विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ
पूर्व मध्यकाल के बौद्ध, जैन और हिंदू विद्वानों के ग्रंथों में तत्कालीन धार्मिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का विवरण उपलब्ध है। इन ग्रंथों की रचना शासकों द्वारा संरक्षित विद्वानों या धार्मिक गुरुओं द्वारा संस्कृत, प्राकृत और पालि भाषा में की गई थी। इनमें धर्म, दर्शन, विज्ञान और साहित्य से संबंधित जानकारी मिलती है। कुछ ग्रंथों में शासकों की जीवनी या उनके धार्मिक कार्यों का भी विवरण मिलता है।
जैन ग्रंथ
सोलंकी शासक सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल द्वारा संरक्षित जैन विद्वान हेमचंद्राचार्य के ग्रंथ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और सिद्ध-हेम-शब्दानुशासन जैसे ग्रंथों से जैन धर्म, इतिहास और व्याकरण का ज्ञान होता है। इन ग्रंथों में सोलंकी शासकों की धार्मिक सहिष्णुता और बौद्धिक संरक्षण का भी विवरण मिलता है।
बौद्ध ग्रंथ
पाल शासकों द्वारा संरक्षित नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के बौद्ध विद्वानों जैसे अतिश दीपंकर और धर्मस्वामी के ग्रंथों से बौद्ध दर्शन और शिक्षा की सूचना मिलती है। इन ग्रंथों से पाल शासकों द्वारा बौद्ध धर्म को दिये गये संरक्षण और भारत के वैश्विक शैक्षिक प्रभाव की जानकारी होती है।
वैदिक और पौराणिक ग्रंथ
प्रतिहार और चंदेल शासकों के संरक्षण में ब्राह्मण विद्वानों ने अनेक वैदिक और पौराणिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें यज्ञ, कर्मकांड और पुराणों का वर्णन मिलता है।
नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र के ग्रंथ
परमार भोज और अन्य शासकों के संरक्षण में नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र पर लिखे गये साहित्यिक ग्रंथों से भी तत्कालीन इतिहास की जानकारी मिलती है। भोज की रचना शृंगारप्रकाश साहित्य और काव्यशास्त्र पर आधारित है, जबकि युक्तिकल्पतरु शासन, सैन्य तथा नीति पर और सरस्वतीकंठाभरण व्याकरण और भाषा पर केंद्रित है। इन ग्रंथों से पूर्वमध्यकालीन प्रशासन, समाज और संस्कृति को समझने में सहायता मिलती है।
इस प्रकार धार्मिक ग्रंथों से शासकों की सांस्कृतिक और धार्मिक नीतियों पर प्रकाश पड़ता है। नालंदा और विक्रमशिला जैसे शिक्षा केंद्र दर्शन, विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में भारत की वैश्विक प्रसिद्धि के प्रमाण हैं।
विदेशी यात्रियों के विवरण
समय-समय पर भारत आने वाले भारत आने वाले चीनी, अरब और अन्य विदेशी यात्रियों ने भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति का निष्पक्ष विवरण दिया है, जो यात्रा-वृत्तांत, व्यापारिक पत्र या विद्वत्तापूर्ण ग्रंथों के रूप में हैं। इन यात्रियों ने शासकों की शक्ति, प्रशासन और तत्कालीन सामाजिक प्रथाओं का वर्णन किया है, जिनमें धार्मिक केंद्र, व्यापारिक मार्ग और शहरी जीवन का भी उल्लेख मिलता है।
ह्वेनसांग (7वीं शताब्दी)
7वीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन के शासनकाल का विस्तृत विवरण दिया है, जिसमें कन्नौज, प्रयाग और नालंदा विश्वविद्यालय की समृद्धि और शैक्षिक गतिविधियों का उल्लेख है। ह्वेनसांग को ‘यात्रियों में राजकुमार’, ‘नीति का पंडित’ और ‘वर्तमान शाक्यमुनि’ भी कहा जाता है।
ह्वेनसांग की यात्रा का विवरण 648 ई. में चीनी भाषा में तैयार किया गया, जो संक्षेप में सि-यू-कि के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि ह्वेनसांग की यात्रा का मूल उद्देश्य बौद्धतीर्थों की यात्रा और बौद्धग्रंथों का संग्रह करना था, लेकिन उसके यात्रा-वृत्तांत से हर्षकालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक जीवन के साथ-साथ हर्ष की प्रशासनिक कुशलता की जानकारी मिलती है। उसके विवरण से अन्य क्षेत्रीय शासकों और उनके शासन की भी सूचना मिलती है।
ह्वेनसांग के कागज-पत्रों के आधार पर उसके शिष्य ह्वीली ने उसकी जीवनी लिखी है। यद्यपि सि-यू-कि और जीवनी एक दूसरे की पूरक हैं, किंतु जीवनी से अनेक ऐसी घटनाएँ वर्णित हैं, जो ह्वेनसांग के यात्रा-विवरण में नहीं हैं। जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद बील और वाटर्स ने किया है।
इत्सिंग (679-795 ई.)
चीनी यात्रियों में इत्सिंग अंतिम था, जो ह्वेनसांग की तरह बौद्धतीर्थों की यात्रा करने और बौद्ध-साहित्य का संग्रह करने के उद्देश्य से 679 ई. में चीन से समुद्री मार्ग द्वारा भारत आया और 795 ई. में चीन लौटा। उसने नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों का वर्णन किया है। इत्सिंग का यात्रा-विवरण तत्कालीन इतिहास के अध्ययन के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जिसका अंग्रेजी अनुवाद चीनी बौद्ध विद्वान् तक्कुसु ने ए रिकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट रिलिजन नाम से किया है।
सुलेमान सौदागर (850 ई.)
सुलेमान, जिसे सुलेमान अल-ताजिर (व्यापारी) के नाम से भी जाना जाता है, 9वीं शताब्दी का एक मुस्लिम व्यापारी, यात्री और लेखक था, जिसने भारत और चीन की यात्रा की और 850 ई. के आसपास अपना यात्रा-वृतांत लिखा, जिसके विवरण किताब अल-मसालिक वा अलमामालिक में मिलते हैं।
सुलेमान सौदागर की यात्रा के समय बंगाल में पाल वंश का शासन था। उसने पाल साम्राज्य को ‘रूहमा’ या ‘धर्मा’ कहा है और उसकी समृद्धि तथा सैन्य-शक्ति का उल्लेख किया है। सुलेमान ने महानतम् गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिरभोज को मुसलमानों का ‘कट्टर शत्रु’ बताया है और उसकी सेना, विशेषकर घुड़सवार सेना की प्रशंसा की है। इस प्रकार सुलेमान का यात्रा-विवरण तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक और समुद्री व्यापार तथा आर्थिक गतिविधियों की जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है।
इब्न खोरदादबेह (870 ई.)
इब्न खोरदादबेह 9वीं सदी का एक फारसी भूगोलवेत्ता और लेखक था, जो अब्बासी खलीफा अल-मुताम्मिद (869-885 ई.) के शासनकाल में उत्तर-पश्चिमी ईरान के जिबल प्रांत में डाक और खुफिया विभाग का एक अधिकारी था। खोरदादबेह ने बरादाद से भिन्न-भिन्न देशों की यात्राओं और आने-जाने के मार्गों का विवरण देने के लिए 870 ई. के आसपास किताब अल-मसालिक वा अल-ममालिक (सड़कों और साम्राज्यों की पुस्तक) लिखी, जिसमें उसने भारत के जल और स्थल के व्यापारी मार्गों के विवरण के साथ-साथ यहाँ की जातियों का उल्लेख किया है।
यद्यपि इब्ने खोरदादबेह ने स्वयं भारत की यात्रा नहीं की थी, किंतु उसने विभागीय सूचनाओं और व्यापारियों तथा यात्रियों की निजी जानकारियों के आधार पर अपना विवरण दिया है। उसके विवरण से लगता है कि अरबवाले बलोचिस्तान के बाद से लेकर गुजरात तक के सारे देश को सिंध समझते थे।
इब्न खोरदादबेह ने लिखा है कि भारत में सात जातियाँ थीं- पहली शाकशरी (क्षत्रिय) जाति है, जो इस देश के संपन्न और बड़े लोग हैं। इन्हीं में से बादशाह होते हैं, इनके आगे सभी लोग सिर झुकाते हैं, किंतु ये किसी के आगे सिर नहीं झुकाते। दूसरे, बरामः (ब्राह्मण) लोग शराब और नशे का प्रयोग नहीं करते हैं। तीसरे, कस्तरी (खत्री) तीन प्यालों तक पी जाते हैं। ब्राह्मण इनकी लड़की लेते हैं, किंतु इनको अपनी लड़की नहीं देते हैं। चौथे, शूदर (शूद्र) लोग खेती करनेवाले हैं। पाँचवें, वैश (वैश्य) धंधा करते हैं। छठें शंदाल (चांडाल) खिलाड़ी और कलावंत होते हैं, और सातवें जम्ब (डोम) लोगों का काम गाना बजाना है। भारत में 42 प्रकार के धर्म-संप्रदाय प्रचलित हैं। कोई ईश्वर और रसूल दोनों को मानता है, कोई एक को मानता है; और कोई किसी को नहीं मानता है।
बुज़ुर्ग विन शहरयार (912 ई.)
शहरयार एक जहाजी था, जो अपने जहाज इराक के बंदरगाह से भारत के समुद्रतटों और टापुओं से लेकर चीन और जापान तक जाता-आता था। उसने जो बातें देखी सुनी थीं, उन्हें अरबी भाषा में अजायबुल हिंद नामक पुस्तक में लिखा है, जो 1886 ई. में लीडन में छपी है।
अजायबुल हिंद में दक्षिणी भारत और गुजरात की भिन्न भिन्न घटनाओं का विवरण है। शहरयार ने यहाँ के योगियों, उनकी तपस्याओं और अपने आपको मार डालने और जला डालने की बहुत सी कथाएँ लिखी हैं। उसने व्यापारियों के लिए ‘बनियानिया’ शब्द का प्रयोग किया है, जो स्पष्टतः हिंदी शब्द बनिया है। उसने समुद्री डाकुओं के लिए ‘बवारिज’ शब्द का व्यवहार किया है।
अल इस्तखरी (951 ई.)
इस्तखरी 10वीं शताब्दी का एक यात्री लेखक और इस्लामी भूगोलवेत्ता था, जो संभवतः बरादाद के इस्तखर का रहनेवाला था। उसने अनेक देशों की यात्रा के क्रम में 951 ई. के आसपास भारत की भी यात्रा की। यात्रा के दौरान इस्तखरी की भेंट प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता इब्न हौकल से हुई थी। इस्तखरी द्वारा दी गई सूचना को इब्न हौकल ने अपनी पुस्तक किताब अल-सूरत अल-अर्द में सम्मिलित किया है।
इस्तखरी की दो पुस्तकें मिलती हैं- किताबुल अक्रालीम और किताब अल मसालिक वा-ममालिक। अपने विवरण में इस्तखरी ने अरब और ईरान के बाद मावरा उन् नहर या ट्रांस काकेशिया, काबुलिस्तान, सिंध और भारत का उल्लेख किया है। उसने भारतीय महासागर का, जिसे वह पारस महासागर कहता है, विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
इस्तखरी की यात्रा के समय वल्लभराय के राज्य के कई टुकड़े हो चुके थे। वह लिखता है कि उसके अधीन बहुत से राजा हैं। इसके अलावा, उसने मुल्तान, मंसूरा, समंद, अलोर और सिंधु नदी का भी उल्लेख किया है। इस्तखरी ने न केवल केवल देशों का आँखों देखा हाल लिखा, बल्कि संसार का मानचित्र या नक्शा भी तैयार किया था, जिसमें सिंध का नक्शा भी था। पवन चक्कियों के बारे में सबसे पहली सूचना इस्तखरी के विवरण से ही मिलती है।
अल मसुदी (957 ई.)
अल मसुदी एक अरबी इतिहासकार और जलवायु वैज्ञानिक था। 10वीं शताब्दी ईस्वी में उसने सिंधुघाटी और भारत के अन्य हिस्सों, विशेष रूप से पश्चिमी तट के सूरत, खंभात और मालाबार होते हुए श्रीलंका, इंडोनेशिया और मलक्का का दौरा किया। उसने सिंध और पंजाब में अरब प्रभाव और स्थानीय शासकों के साथ उनके संबंधों का विवरण दिया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।
अल मसुदी के केवल दो ऐतिहासिक विवरण मिलते हैं- मुरुज अल-दहब और किताब अल-तनबीह वा अल-इशराफ। यद्यपि मुरुज अल-दहाब में मुख्यतः इस्लाम का इतिहास वर्णित है, किंतु उसमें भारत की भौगोलिक परिस्थितियों का भी विवरण मिलता है, जिनका संबंध मुख्यतः पश्चिमी भारत से है।
अल मसुदी ने कश्मीर को एक शक्तिशाली राज्य बताया है, जो पहाड़ों, दुर्गम घाटियों, जंगलों और नदियों से सुरक्षित था। उसने लिखा है कि भारत में बहुत सी बोलियाँ बोली जाती हैं और कंधार ‘रहबूतों’ (राजपूतों) का देश है। उसने गुर्जर प्रतिहारों को ‘अल गुर्जर’ तथा उनके राजा को ‘बौरा’ कहा है। अल मसुदी के विवरणों से भारतीय राजाओं के आचरण और उनके धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की भी जानकारी मिलती है। उसने बंगाल की खाड़ी के मानसून का विवरण दिया है और बताया है कि हिंद महासागर अटलांटिक महासागर से जुड़ा हुआ है।
अल-मसुदी को ‘अरबों का हेरोडोटस’ के रूप में जाना जाता है और 14वीं सदी के अरब लेखक इब्न खल्दून ने उसे ‘इतिहासकारों का इमाम’ (नेता) बताया हैं
इब्न हौकल (977 ई.)
इब्न हौकल 10वीं सदी का बगदाद का एक व्यापारी, भूगोलवेत्ता और इतिहासकार था। उसका यात्रा-वृतांत किताब अल-सूरत अल-अर्द (पृथ्वी का चेहरा) मुख्यतः इस्तखरी के मसालिक उल-मामालिक के संशोधन और संवर्द्धन पर आधारित है।
इब्न हौकल पहला अरब यात्री और भूगोल-लेखक है, जिसने अपने विवरण में न केवल सिंध और सिंधु नदी के भूगोल और संस्कृति का विवरण दिया है, बल्कि भारत की पूरी लंबाई-चौड़ाई को भी बताने का प्रयत्न किया है। वह कहता है कि ‘भारत के महादेश में सिंध, काश्मीर और तिब्बत का भाग मिला हुआ है। भारत के पूरब में फारस का सागर है, उसके पश्चिम तथा दक्खिन में मुसलमानों के देश है और उसके उत्तर में चीन है।’ इब्न हौकल का वर्णन त्रुटिपूर्ण होने के बावजूद भी भारत की सीमा निधारित करने का पहला प्रयत्न है।
बुशारी मुकद्दसी (985 ई.)
शम्सुद्दीन मुहम्मद बिन अहमद बुशारी मुकद्दसी जेरूसलम का निवासी था। वह भारत में सिंध से आगे नहीं बढ़ा था। उसने 985 ई. में अपनी पुस्तक अहसनुत तक्कासीम की मारफतिल् अकालीम लिखी थी। उसकी पुस्तक का अंतिम प्रकरण सिंध से संबंधित है। मुकद्दसी ने महादेशों का विभाग देशों या प्रांतों में और देशों या प्रांतों का विभाग नगरों में किया है। फिर हर एक का अलग-अलग वर्णन किया है और हर जगह के व्यापार, उपज, कारीगरी, धर्मों और सिक्कों का विवरण दिया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।
अल्बरूनी (973-1039 ई.)
अरब विद्वान अल्बरूनी ने 11वीं शताब्दी में महमूद गजनवी के साथ भारत की यात्रा की। उसे भूगणित का जनक माना जाता है। उसकी विशेषज्ञता चिकित्सा, तर्कशास्त्र, गणित, दर्शन और धर्मशास्त्र में थी। उसने पंजाब और उत्तर भारत की यात्राएँ कीं और लगभग 12-13 वर्ष भारत में बिताये। संस्कृत सीखकर उसने हिंदू धर्म, दर्शन और ग्रंथों, जैसे ब्रह्म-सिद्धांत, वृहत्तसंहिता, भागवत गीता, पुराण का अध्ययन किया। पुराणों का अध्ययन करने वाला वह पहला मुसलमान था।
अल्बरूनी ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान किया। उन्होंने संस्कृत से अरबी और अरबी से संस्कृत में ग्रंथों का अनुवाद किया। उसकी रचना किताब-उल-हिंद (तारीख-ए-हिंद) 80 अध्यायों में विभाजित एक अरबी ग्रंथ है, जिसमें धर्म, दर्शन, खगोल-विज्ञान, रीति-रिवाज, सामाजिक जीवन, मूर्तिकला, कानून आदि का वैज्ञानिक विवरण मिलता है। इसे ‘11वीं शताब्दी के भारत का दर्पण’ माना जाता है।
अल्बरूनी ने चार वर्णों और अंत्यजों का उल्लेख किया है। ब्राह्मणों को विशेषाधिकार थे, जबकि वैश्य-शूद्रों की स्थिति समान थी। उसने राजपूत शासकों की सैन्य शक्ति, सामंती व्यवस्था और जौहर तथा कुलदेवी पूजा जैसी सांस्कृतिक प्रथाओं का वर्णन किया है। यही नहीं, उसने बालविवाह, सतीप्रथा, विधवा-मुंडन और अंतर्जातीय विवाह की अनुपस्थिति का भी उल्लेख किया है और भारतीयों की जल-संग्रहण प्रणाली की प्रशंसा की है, लेकिन उनकी आत्मकेंद्रित विद्या-धारणा की आलोचना भी की है।
अल्बरूनी ने कन्नौज को मध्य भारत का केंद्र और बनारस को हिंदू विद्याओं का केंद्र बताया है। उसने किताब-उल-हिंद में परमार शासक भोज की विद्वता और उनके दरबार की बौद्धिक गतिविधियों की प्रशंसा की है। किताब-उल-हिंद का अंग्रेजी अनुवाद एडवर्ड सी. सचाऊ ने और हिंदी अनुवाद रजनीकांत शर्मा ने किया।
इस प्रकार अल्बरूनी की रचनाएँ भारत की संस्कृति, विज्ञान और समाज को समझने का अनूठा स्रोत हैं, जिसके कारण 11वीं शताब्दी को ‘अल्बरूनी काल’ भी कहा जाता है।
चाऊ-जु-कुआ (1225-1254 ई.)
चाऊ-जु-कुआ एक चीनी व्यापारी था, जिसने 1225 ई. में अपना विवरण चाऊ फान ची पूरा किया। उसने 12वीं और 13वीं शताब्दी में मालाबार के बंदरगाहों से चीन और अरब के बीच होने वाले व्यापार का विस्तृत विवरण दिया है। चाऊ जू-कुआ के अनुसार मालाबार रेशम और चीनी मिट्टी के बदले में कपास और मसालों, विशेषकर काली मिर्च का निर्यात करता था। उसके विवरण से वहाँ के राजा के रहन-सहन, पहनावे, आहार और उसके छत्र के साथ-साथ वहाँ की मिट्टी, जलवायु, उत्पादों, सोने-चाँदी के सिक्कों की जानकारी मिलती है। उसका विवरण मालाबार के व्यापार, संस्कृति, आर्थिक स्थिति और व्यापारिक संबंधों को जानने का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
मार्को पोलो (1288-1292 ई.)
मार्को पोलो इटली के वेनिस का एक व्यापारी, यात्री और इतिहासकार था, जो तेरहवीं शताब्दी में पांड्य राज्य के कयाल बंदरगाह पर आया था। उसने अपने विवरण में पांड्य साम्राज्य की समृद्धि, विदेश व्यापार एवं सम्राट की न्याय व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वह कुबलाई राजकुमारी की सुरक्षा के लिए उसके साथ ईरान भी गया था।
मार्को पोलो को ‘मध्यकालीन यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है। उसने अपने यात्रा-विवरण में भारत के आर्थिक जीवन, विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों की आर्थिक समृद्धि, विदेशी व्यापार और वाणिज्य का आश्चर्यजनक वर्णन किया है। मार्को पोलो के अनुसार पांड्य राज्य मावर मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। उसने काकतीय वंश की शासिका रुद्रंबादेवी का भी उल्लेख किया है। वह एकमात्र विदेशी यात्री है, जिसके योगदान को इब्नबतूता के समकक्ष माना जाता है।
इब्नबतूता (1333-1347 ई.)
इब्नबतूता 1304 ई. में मोरक्को (अफ्रीका) के तैंजियर में पैदा हुआ था। वह उत्तरी अफ्रीका से यात्रा करते हुए मध्य एशिया के रास्ते 1333 ई. में स्थलमार्ग से सिंध होते हुए मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में पहुँचा था। उसने लगभग आठ वर्ष तक दिल्ली के काजी के पद पर कार्य किया और 1342 ई. में सुलतान के दूत के रूप में चीन गया था।
इब्नबतूता को ‘अरब जगत का मार्को पोलो’ कहा जाता है। उसका यात्रा-वृतांत रेहला के नाम से प्रसिद्ध है, जो अरबी भाषा में है।
रेहला का अर्थ होता है- यात्रा। इब्नबतूता ने रेहला में सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल की घटनाओं, प्रशासन, अर्थव्यवस्था, अदालत, शहर के जीवन, सामाजिक मेलों और त्यौहारों, बाजारों, भोजन और भारतीय कपड़ों, जलवायु आदि का वर्णन किया है। वह भारत की डाक व्यवस्था देखकर बहुत चकित हुआ था।
कुल मिलाकर, रेहला चौदहवीं शताब्दी के भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत है।
इस प्रकार विदेशी विवरण अधिकांशतः निष्पक्ष और प्रमाणिक हैं, जिनसे तत्कालीन भारत की राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक स्थिति की जानकारी मिलती है।
साहित्यिक स्रोतों का महत्त्व
समकालीन ग्रंथ और विदेशी विवरण शासकों के युद्ध, गठजोड़ और प्रशासनिक नीतियों की जानकारी के स्रोत हैं। काव्य रचनाओं से सैन्य अभियानों और सामंती व्यवस्था की सूचना मिलती है। काव्य और धार्मिक ग्रंथ सामाजिक मूल्य, नैतिकता और धार्मिक प्रथाओं की जानकारी के लिए उपयोगी हैं। धार्मिक ग्रंथों से शिक्षा, दर्शन और साहित्य के विकास पर प्रकाश पड़ता है। विदेशी यात्रियों के विवरण प्रायः निष्पक्ष हैं, जिनसे सामाजिक संरचना, शहरी जीवन और सांस्कृतिक प्रथाओं की जानकारी होती हैं। इनके विवरण व्यापारिक मार्ग, समुद्री व्यापार और आर्थिक समृद्धि की सूचना देते हैं।
पृथ्वीराज रासो और हम्मीर रासो जैसी कुछ रचनाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण और परवर्ती होने के कारण ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्णतया विश्वसनीय नहीं हैं। राजतरंगिणी जैसे ग्रंथ क्षेत्रीय इतिहास तक सीमित हैं। दरबारी लेखकों की रचनाओें में स्वाभावतः शासकों की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा हो सकती है। अतः इन स्रोतों का उपयोग करते समय विशेष सावधानी के साथ उनका विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।
इस प्रकार पुरातात्त्विक और साहित्यिक स्रोत मिलकर उत्तर भारत के राजनीतिक इतिहास का व्यापक और संतुलित चित्र प्रस्तुत करते हैं। अभिलेख, सिक्के, दुर्ग, मंदिर और बावड़ियाँ ठोस साक्ष्य प्रदान करते हैं, जबकि साहित्यिक स्रोत समकालीन विवरणों और विदेशी यात्रियों के लेखों के माध्यम से सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिशीलता को उजागर करते हैं। इन स्रोतों का संयुक्त उपयोग इस काल के इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक है, बशर्ते उनकी प्रामाणिकता और संदर्भ का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाए।
महत्त्वपूर्ण प्रष्नावली
(अ) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
- उत्तर भारत के इतिहास-लेखन में पुरातात्त्विक स्रोतों के महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
- उत्तर भारत के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक स्रोतों के महत्त्व का परीक्षण कीजिए।
- उत्तर भारत का इतिहास जानने के ऐतिहासिक स्रोतों का विवरण दीजिए।
(ब) लघु उत्तरीय प्रश्न
- उत्तर भारत के इतिहास के अध्ययन में अभिलेखों का क्या महत्त्व है?
- उत्तर भारत के इतिहास के अध्ययन में सिक्के कैसे सहायक हैं?
- विदेशी यात्रियों के विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से क्यों महत्त्वपूर्ण हैं?
(स) बहुविकल्पीय प्रश्न
1.गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में कौन-से प्रमुख वंशों का उदय हुआ?
(A) मौर्य, शुंग और कुषाण
(B) प्रतिहार, पाल और चंदेल
(C) गुप्त, वाकाटक और मैत्रक
(D) सातवाहन, चेर और चोल
2. हर्षवर्धन के शासनकाल की जानकारी किस अभिलेख से मिलती है?
(A) ग्वालियर प्रशस्ति
(B) बाँसखेड़ा ताम्रपत्र
(C) खजुराहो अभिलेख
(D) जूनागढ़ अभिलेख
3. ‘हर्षचरित’ का लेखक कौन है?
(A) कल्हण
(B) बाणभट्ट
(C) वाक्पति
(D) हेमचंद्राचार्य
4. ‘हर्षचरित’ में किस शासक की जीवनी है?
(A) विक्रमादित्य षष्ठ
(B) हर्षवर्धन
(C) दुर्लभराज
(D) रामपाल
5. ‘राजतरंगिणी’ किसकी रचना है?
(A) बिल्हण
(B) कल्हण
(C) हेमचंद्रसूरि
(D) जयानकभट्ट
6. निम्नलिखित में से कौन सा विदेशी यात्री हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया था?
(A) अल्बरूनी
(B) सुलैमान
(C) ह्वेनसांग
(D) अल-मसूदी
7. ह्वेनसांग के यात्रा-वृत्तांत का नाम क्या है?
(A) किताब-उल-हिंद
(B) सि-यू-कि
(C) रेहला
(D) अजायबुल हिंद
8. ऐहोल लेख में किसकी पराजय का वर्णन है?
(A) शशांक
(B) पुलकेशिन
(C) धर्मपाल
(D) हर्षवर्धन
9. गुर्जर प्रतिहार वंश की वंशावली और उपलब्धियों की जानकारी किस अभिलेख से मिलती है?
(A) नन्यौरा अभिलेख
(B) ग्वालियर प्रशस्ति
(C) महोबा अभिलेख
(D) उदयपुर प्रशस्ति
10. घटियाला अभिलेख में किस शासक की सैन्य शक्ति और अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध सफलता का उल्लेख है?
(A) हर्षवर्धन
(B) मिहिरभोज
(C) यशोवर्मन
(D) धंगदेव
11. प्रतिहार शासक मिहिरभोज के सिक्कों पर कौन सा प्रतीक अंकित था?
(A) धर्मचक्र
(B) त्रिशूल
(C) चक्र
(D) कमल
12. सिक्कों पर अंकित धार्मिक प्रतीकों से क्या जानकारी मिलती है?
(A) केवल शासकों के नाम
(B) शासकों की धार्मिक प्राथमिकताएँ
(C) केवल व्यापारिक मार्ग
(D) केवल सैन्य शक्ति
13. परमार शासक वाक्पति मुंज के शासनकाल की जानकारी किस अभिलेख से मिलती है?
(A) उदयपुर प्रशस्ति
(B) उज्जैन अभिलेख
(C) खालिमपुर अभिलेख
(D) बिजोलिया प्रस्तर-अभिलेख
14. खजुराहो अभिलेख किस वंश से संबंधित है?
(A) पाल वंश
(B) चंदेल वंश
(C) सोलंकी वंश
(D) चौहान वंश
15. खजुराहो के मंदिर किस स्थापत्य शैली में हैं?
(A) द्रविड़ शैली
(B) नागर शैली
(C) वेसर शैली
(D) खजुराहो शैली
16. पाल शासक देवपाल द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को संरक्षण की जानकारी किस स्रोत से मिलती है?
(A) नालंदा शिलालेख
(B) ग्वालियर प्रशस्ति
(C) बाँसखेड़ा ताम्रपत्र
(D) घटियाला अभिलेख
17. चित्तौड़गढ़ दुर्ग अन्य किस नाम से प्रसिद्ध है?
(A) गुजरात का गौरव
(B) राजस्थान का गौरव
(C) मेवाड़ का गढ़
(D) भारत का जिब्राल्टर
18. निम्नलिखित में से कौन सा किला चौहान शासकों से संबंधित है?
(A) चित्तौड़गढ़
(B) रणथंभोर
(C) ग्वालियर
(D) कुंभलगढ़
19. रानी की बावड़ी का निर्माण किसने करवाया?
(A) सोलंकी शासक जयसिंह सिद्धराज
(B) सोलंकी रानी उदयमती
(C) चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय
(D) चंदेल शासक धंगदेव
20. सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का उल्लेख किस अभिलेख में मिलता है?
(A) जोधपुर अभिलेख
(B) जूनागढ़ अभिलेख
(C) हरसोल अभिलेख
(D) नालंदा शिलालेख
21. ‘राजतरंगिणी’ किसके द्वारा लिखी गई है?
(A) बिल्हण
(B) कल्हण
(C) हेमचंद्रसूरि
(D) जयानकभट्ट
22. ‘पृथ्वीराजरासो’ में किस शासक की शौर्यगाथा का वर्णन है?
(A) मिहिरभोज
(B) पृथ्वीराज तृतीय
(C) हम्मीरदेव
(D) यशोवर्मन
23. ‘चचनामा’ में किसके आक्रमण और विजय का वर्णन है?
(A) महमूद गजनवी
(B) मुहम्मद बिन कासिम
(C) मुहम्मद गोरी
(D) अलाउद्दीन खिलजी
24. ‘समरांगणसूत्रधार’ किसकी रचना है?
(A) परमार भोज
(B) पृथ्वीराज तृतीय
(C) हम्मीरदेव
(D) यशोवर्मन
25. किस ग्रंथ को ‘11वीं शताब्दी के भारत का दर्पण’ कहा जाता है?
(A) किताब-उल-यामिनी
(B) किताब-उल-हिंद
(C) तबकात-ए-नासिरी
(D) ताज-उल-मासीर
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