आस्ट्रिया और हैब्सबर्ग राजवंश (Austria and Habsburg Dynasty)

आस्ट्रिया और हैब्सबर्ग राजवंश

यूरोप में डेन्यूब नदी के दोनों ओर का भू-भाग, जो कि आस्ट्रिया के नाम से जाना जाता था, तेरहवीं शताब्दी में हैब्सबर्ग वंश द्वारा शासित हुआ। पवित्र रोमन सामाज्य के अधीन ही प्रारंभ में हैब्सबर्ग वंश ने अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास किया। ऑस्ट्रिया के महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 1914 में ऑस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या हुई, तो पूरे यूरोप में खलबली मच गई और प्रथम महायुद्ध आरंभ हो गया।

आधुनिक युग के आरंभ में आस्ट्रिया पर चार्ल्स पंचम का शासन था। तीसवर्षीय युद्ध में आस्ट्रिया ने जर्मन साम्राज्य के प्रति उदासीनता प्रकट की और अपना पूर्ण ध्यान वंशानुगत राज्य के विकास की ओर लगाया।

सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आस्ट्रिया, बोहेमिया और हंगरी आस्ट्रियन साम्राज्य में आ गये। 1713 की यूट्रैक्ट की संधि के अनुसार हैब्सबर्ग सम्राट को मिलान, नेपल्स, सिसली एवं स्पेनी नीदरलैंड्स प्राप्त हो गये। यही स्पेनी नीदरलैंड्स अब आस्ट्रियन नीदरलैंड्स के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार विस्तृत आस्ट्रियन साम्राज्य का शासक तो एक था, किंतु वहाँ के पाँच भू-भागों (आस्ट्रिया, हंगरी, बोहेमिया, मिलान एवं बेल्जियम) का शासन एक-दूसरे से सर्वथा पृथक् व भिन्न था।

आस्ट्रिया और हैब्सबर्ग राजवंश (Austria and Habsburg Dynasty)
आस्ट्रियन साम्राज्य

सांस्कृतिक विभिन्नता आस्ट्रियन साम्राज्य की एकता में हमेशा कठिनाई बनी रही, किंतु हैब्सबर्ग वंश ने अपना प्रभुत्व कायम रखा। आस्ट्रियन साम्राज्य के शासक चार्ल्स षष्ठ के पुत्रविहीन होने के कारण हैब्सबर्ग वंश को 1740 से 1748 तक उत्तराधिकार के युद्ध से निपटना पड़ा।

आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध (1740–17480)

आस्ट्रिया के शासक चार्ल्स षष्ठ (1711-1740) के कोई पुत्र नहीं था। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के नियम के अनुसार पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी हो सकता था, पुत्री नहीं। चार्ल्स षष्ठ आस्ट्रिया के विस्तृत साम्राज्य पर हैप्सबर्ग वंश को बनाये रखना चाहता था तथा साथ ही साम्राज्य को विघटित भी नहीं होने देना चाहता था। अतः चार्ल्स षष्ठ ने अपनी पुत्री मारिया थेरेसा को अपने पश्चात् संपूर्ण आस्ट्रियन साम्राज्य की शासिका बनाने के उद्देश्य से ‘प्राग्मैटिक सैन्सन’ नामक एक अध्यादेश जारी किया। इस अध्यादेश के अनुसार मारिया थेरेसा को संपूर्ण आस्ट्रियन साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। अध्यादेश को मान्यता प्रदान करने के लिए उसने आस्ट्रियन साम्राज्य की संसदों से इसे मान्य करवाया और यूरोप के विभिन्न देशों से भी मान्यता प्राप्त कर ली। केवल बवेरिया ने इस अध्यादेश को मान्यता नहीं प्रदान की।

मारिया थेरेसा (1740-1765)

1740 में चार्ल्स षष्ठ की मृत्यु के पश्चात् अब संपूर्ण आस्ट्रियन साम्राज्य की शासिका मारिया थेरेसा (Maria Theresa) हुई। चार्ल्स षष्ठ ने पुत्री के लिए विरासत में मात्र साम्राज्य ही छोड़ा था। यह साम्राज्य न तो सुसंगठित था, न ही भरपूर राजकोष था और न ही कोई शक्तिशाली सेना थी। प्रशा के शासक फ्रेडरिक ने इस समय टिप्पणी करते हुए कहा भी था: ‘प्राग्मैटिक अध्यादेश की स्वीकृति की अपेक्षा यदि चार्ल्स षष्ठ अपनी पुत्री के लिए दो लाख सैनिकों की प्रबल सेना छोड़ जाता तो वह शासिका के लिए अधिक लाभप्रद होती।’ यह कथन अत्यंत सत्य के निकट था।

आस्ट्रिया और हैब्सबर्ग राजवंश (Austria and Habsburg Dynasty)
मारिया थेरेसा

यह सही है कि प्राग्मैटिक अध्यादेश की स्वीकृति मिल चुकी थी, किंतु चार्ल्स षष्ठ की मृत्यु होते ही साम्राज्य की दुर्बलता का लाभ उठाकर पड़ोसी राज्यों ने आस्ट्रियन साम्राज्य में अपने-अपने हितों की पूर्ति के लिए हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। प्रशा का शासक फ्रेडरिक महान बवेरिया के राजकुमार को आस्ट्रिया का सम्राट बनाना चाहता था। उसने फ्रांस को बेल्जियम तथा स्पेन को मिलान देने का वादा किया और 1740 में फ्रांस, स्पेन, बवेरिया, सेवाय, सैक्सनी व प्रशा के राज्यों का एक गुट बना लिया। इस गुट ने मारिया थेरेसा के उत्तराधिकार को अमान्य कर दिया और 1740 में साइलेशिया पर आक्रमण कर युद्ध आरंभ कर दिया। इस प्रकार 1740 में आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया, जो आठ वर्षों तक चलता रहा।

1740 में फ्रेडरिक महान् ने आसानी से साइलेशिया की राजधानी ब्रेसला पर अधिकार कर लिया। फ्रांस व बबेरिया की सेनाओं ने आस्ट्रिया एवं बोहेमिया पर आक्रमण किया। भयभीत होकर मारिया थेरेसा हंगरी भाग गई। मारिया थेरेसा ने मग्यार की जनता से सहायता प्राप्त कर अपना अभियान शुरू किया। 1742 तक फ्रेडरिक महान् ने संपूर्ण साइलेशिया पर अधिकार कर बवेरिया के शासक को जर्मन सम्राट घोषित कर दिया।

अब इंग्लैंड व हॉलैंड युद्ध में तटस्थ न रह सके। वास्तव में आस्ट्रियन नीदरलैंड्स में इंग्लैंड को व्यापारिक सुविधाएँ मिली थीं और फ्रांस का बेल्जियम की ओर विस्तार इंग्लैंड के हित में नहीं था। मारिया ने सेवाय को भी गुट से अलग कर दिया और शत्रु पक्ष को बोहेमिया से भगाने में सफल रही। मारिया ने 1742 में फ्रेडरिक महान् से ब्रेसला की संधि कर ली और उसे साइलेशिया का प्रदेश देने का वचन दिया। शीघ्र ही आगे बढ़कर मारिया ने बवेरिया पर अधिकार कर लिया और फ्रांसीसी सेना को राइन नदी की ओर खदेड़ दिया।

मारिया की सफलताओं से आतंकित होकर फ्रेडरिक ने पुनः 1744 में आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। मारिया ने 1745 में फ्रेडरिक के साथ संधि कर उसे साइलेशिया का संपूर्ण प्रांत सौप दिया, जिससे प्रशा युद्ध से अलग हो गया। आस्ट्रिया एवं सार्डीनिया की संयुक्त सेना ने फ्रांस व स्पेन की सेनाओं को पराजित करने में सफलता प्राप्त की। फ्रांस किसी प्रकार आल्सास, लारेन एवं आस्ट्रियन नीदरलैंड्स को बचा पाया। किंतु अब हॉलैंड व फ्रांस के मध्य युद्ध आरंभ हो गया। अंततः 1748 में ‘एक्सला-शैपल की संधि’ ने आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध को समाप्त किया।

एक्सला-शैपल की संधि (1748)

एक्सला-शैपल की संधि के अनुसार आस्ट्रियन साम्राज्य पर मारिया थेरेसा के अधिकार को मान लिया गया। साइलेशिया पर प्रशा का प्रभुत्व स्थापित हो गया। मारिया का पति फ्रांसिस ड्यूक ऑफ लारेन को जर्मन सम्राट मान लिया गया। बवेरिया के विटेलवास परिवार को उसका राज्य मिल गया।

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सप्तवर्षीय युद्ध (1756-1763)

एक्सला-शैपल की संधि (1748) से मारिया को आस्ट्रिया के साम्राज्य की शासिका अवश्य मान लिया गया, किंतु वह साइलेशिया का प्रदेश छिन जाने के कारण संतुष्ट नहीं थी। फ्रांस को कोई लाभ नहीं मिला, लेकिन इंग्लैंड व फ्रांस के मध्य औपनिवेशिक विस्तार के लिए प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गई। यही नहीं, प्रशा एवं आस्ट्रिया के मध्य जर्मन नेतृत्व के लिए संघर्ष का भी श्रीगणेश हो गया। इस प्रकार 1748 की एक्सला-शैपल की संधि स्थायी रूप से शांति का सूत्रपात नहीं कर सकी। महत्त्वाकांक्षी एवं साम्राज्यवादी देशों की पिपासा ने शीघ्र ही ‘सप्तवर्षीय युद्ध’ को जन्म दे दिया।

आस्ट्रिया और हैब्सबर्ग राजवंश (Austria and Habsburg Dynasty)
सप्तवर्षीय युद्ध (1756-1763)

सप्तवर्षीय युद्ध के कई कारण थे। साइलेशिया का प्रदेश मारिया थेरेसा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था। दूसरी ओर प्रशा भी साइलेशिया पर अपने अधिकार को कायम रखने के लिए कटिबद्ध था। इसलिए प्रशा व आस्ट्रिया आंतरिक रूप से एक-दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण भाव रखते थे।

मारिया थेरेसा ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए फ्रांस व रूस के साथ वर्साय की संधि कर ली। इस संधि के अनुसार यदि इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य युद्ध होता है, तो आस्ट्रिया तटस्थ रहेगा। इसके बदले फ्रांस ने आस्ट्रिया के किसी भी क्षेत्र पर आक्रमण न करने का वादा किया। दोनों देशों ने आपसी सुरक्षा का भी वचन दिया। इस प्रकार इस संधि ने प्रशा के आस्ट्रिया पर आक्रमण करने की स्थिति में फ्रांस की सहायता का वचन ले लिया, परंतु इंग्लैंड द्वारा फ्रांस पर आक्रमण करने की स्थिति में आस्ट्रिया फ्रांस की सहायता के लिए वचनबद्ध नहीं था। 1757 में रूस की शासिका एलिजाबेथ ने भी इस संधि को स्वीकार कर लिया।

कूटनीतिक क्रांति

इंग्लैंड ने प्रशा के साथ वेस्टमिनिस्टर की रक्षात्मक एवं आक्रमणात्मक संधि की। वेस्टमिनिस्टर की संधि के अनुसार दोनों देशों ने जर्मनी की तटस्थता की रक्षा तथा किसी भी बाहरी आक्रमण का मिलकर विरोध करने का फैसला किया। इस प्रकार इस गुटबंदी ने यूरोप को दो खेमों में बाँट दिया। एक ओर फ्रांस, आस्ट्रिया व रूस थे, तो दूसरी ओर इंग्लैंड और प्रशा। यह गुटबंदी इतिहास के ‘कूटनीतिक क्रांति’ के नाम से जानी जाती है।

सप्तवर्षीय युद्ध का एक परोक्ष कारण आंग्ल-फ्रांसीसी औपनिवेशिक प्रतिद्वंद्विता भी थी। 1740 से 1748 तक दोनों देशों के बीच भारत में कर्नाटक के युद्ध हुए थे। अमरीका में भी दोनों की यही स्थिति थी। 1754 से दोनों देशों के बीच प्रतिस्पर्धा पुनः आरंभ हो गई। इसके अलावा, फ्रेडरिक महान् ने आस्ट्रिया, रूस एवं फ्रांस की महिला शासिकाओं के विरुद्ध जो समय-समय पर अनर्गल वक्तव्य दिये, उससे मारिया थेरेसा, एलिजाबेथ एवं प्रेमिका मदाम पोम्पादू अत्यंत रुष्ट थीं।

जब प्रशा ने युद्ध की बिना घोषणा किये अगस्त, 1757 में सेक्सनी पर आक्रमण कर दिया तो फ्रेडरिक की विस्तारवादी नीति से आतंकित होकर रूस और स्वीडेन आस्ट्रिया के पक्ष में युद्ध में कूद पड़े। फ्रेडरिक महान् के कुशल नेतृत्व में प्रशा की सेना ने सेक्सनी पर अधिकार कर प्राग की ओर प्रस्थान किया, किंतु रूस, आस्ट्रिया, फ्रांस और स्वीडेन की सेनाओं ने प्रशा को चारों ओर से घेर लिया। फलतः विवश होकर फ्रेडरिक को प्राग का घेरा उठाना पड़ा। फ्रेडरिक के लिए यह संकट का समय था क्योंकि उसकी सैन्य शक्ति भी क्षीण हो गई थी। फिर भी, फ्रेडरिक अपने साहस से अगले पाँच वर्ष तक रक्षात्मक युद्ध करता रहा।

1761 में रूस की जरीना एलिजाबेथ की मृत्यु हो गई। रूस का नया जार पीटर तृतीय फ्रेडरिक का समर्थक था। इसलिए रूस युद्ध से हट गया। पीटर के बाद कैथरीन द्वितीय ने भी प्रशा के प्रति उदार नीति अपनाई, जिससे आस्ट्रिया और रूस की मित्रता समाप्त हो गई। इधर स्वीडेन ने प्रशा से मित्रता कर ली। फ्रांस भी आस्ट्रिया का सहायता करने में असमर्थ था। अतः विवश होकर मारिया थेरेसा को प्रशा के साथ 15 फरवरी, 1763 को ह्यूबर्ट्सबर्ग की संधि करनी पड़ी।

ह्यूबर्ट्सबर्ग की संधि (1763)

ह्यूबर्ट्सबर्ग की संधि के अनुसार मारिया ने साइलेशिया पर प्रशा के अधिकार को मान लिया। इसके बदले में फ्रेडरिक ने आर्च ड्यूक जोसेफ के जर्मन सम्राट के चुनाव में समर्थन देने का वादा किया। इस प्रकार 1763 की ह्यूबर्ट्सबर्ग संधि से सप्तवर्षीय युद्ध का अंत तो हो गया, किंतु इससे संपूर्ण यूरोप में प्रशा की प्रधानता स्पष्ट हो गई। उत्तरी जर्मनी प्रशा के अधीन हो गया। आस्ट्रिया के हैब्सबर्ग परिवार की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। फ्रांस की बड़ी क्षति हुई और वह सैन्य व आर्थिक दृष्टि से निर्बल हो गया। विवश होकर उसे इंग्लैंड के साथ पेरिस की संधि करनी पड़ी। अब इंग्लैंड का समुद्र पर एकाधिकार हो गया और उसके विश्वव्यापी औपनिवेशिक साम्राज्य निष्कंटक हो गये।

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मारिया थेरेसा के आंतरिक सुधार

मारिया थेरेसा ने अपने पति फ्रांसिस प्रथम (1745-1765) के शासनकाल में तथा अपने पुत्र जोसेफ द्वितीय के शासनकाल के पूर्वार्द्ध (1765 ई. से 1780) तक आस्ट्रिया के शासन का संचालन किया। यद्यपि अपनी विदेश नीति में मारिया प्रायः असफल ही रही, किंतु आंतरिक प्रशासन के क्षेत्र में उसने प्रजा के उत्थान के लिए भरसक प्रयास किया।

मारिया थेरेसा ने निरंकुश राजतंत्र का समर्थन करते हुए केंद्रीकरण की नीति अपनाई और वियेना मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया। उसने प्रांतीय परिषदों के अधिकार समाप्त कर उन्हें केंद्रीय प्रशासन के अधीन कर दिया और साम्राज्य के विभिन्न प्रांतों के लिए विभिन्न संस्थाएँ स्थापित की। वियेना में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई और एक विधि संकलन आयोग का गठन किया गया।

मारिया थेरेसा ने युद्ध विभाग का पुनर्गठन किया, एक आस्ट्रियन सेना का निर्माण किया और सैनिकों के लिए प्रशिक्षण-केंद्रों की स्थापना की। अब सैन्य विभाग में जर्मन भाषा प्रयोग में लाई जाने लगी और सेना में अनुशासन पर विशेष बल दिया गया।

शिक्षा व्यवस्था में भी सुधार के प्रयास किये गये। आस्ट्रिया में प्राइमरी, माध्यमिक एवं विश्वविद्यालयों को सुसंगठित किया गया। संगीत एवं चित्रकला को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। मारिया थेरेसा ने कृषकों की स्थिति में भी सुधार लाने का प्रयत्न किया, किंतु सामंतों की स्वार्थपरता के कारण उसके प्रयास सफल नहीं हो सके।

मारिया थेरेसा कट्टर कैथोलिक थी। कैथोलिक धर्म के प्रति अपनी अपार निष्ठा के कारण वह धार्मिक सहिष्णुता की नीति नहीं अपना सकी। उसने जेसुएटों के दमन की नीति अपनाई तथा अन्य धार्मिक समुदायों पर भयंकर प्रतिबंध लगाये। परिणामतः उसके सुधार पूर्णतः सफल नहीं हो सके।

जोसेफ द्वितीय (1765–1790)

फ्रांसिस प्रथम की मृत्यु के पश्चात् 1765 में जोसेफ द्वितीय जर्मन सम्राट के पद पर आसीन हुआ, किंतु 1780 तक उसने अपनी माता मारिया थेरेसा के साथ शासन किया। कुल मिलाकर वास्तविक शक्ति मारिया थेरेसा के हाथों में केंद्रित थी, किंतु 1780 में मेरिया की मृत्यु के उपरांत वह संपूर्ण आस्ट्रियन साम्राज्य का शासक बना और उसने 1790 तक आस्ट्रियन साम्राज्य पर शासन किया।

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जोसेफ द्वितीय के आंतरिक सुधार

जोसेफ द्वितीय एक प्रबुद्ध निरंकुश शासक था। वह रूसो एवं वाल्तेयर के विचारों से प्रभावित था। उसने स्वयं कहा था: ‘मैंने दर्शनशास्त्र को अपने साम्राज्य का विधायक बनाया है।’ अपने उच्च आदर्शों एवं विचारों के कारण ही उसने अनेक सुधार कार्यक्रम आरंभ किय।

क्रांतिकारी धार्मिक परिवर्तन

जोसेफ द्वितीय एक धर्मसहिष्णु शासक था। उसने कैथोलिक चर्च को राज्य के अधीन करने, पोप के अधिकारों एवं अंधविश्वासों का अंत करने के लिए यह विज्ञप्ति जारी की कि आस्ट्रियन साम्राज्य में बिना राजाज्ञा के पोप के आदेश लागू नहीं होंगे। चर्च की संपत्ति राज्य के अधीन कर ली गई। बिशपों की नियुक्ति वह स्वयं करने लगा। पारस्परिक पूजा विधि का खंडन कर मठों को नष्ट कर दिया गया। पुरोहितों के लिए राजकीय विद्यालयों में शिक्षा लेना अनिवार्य कर दिया गया। उसने कैथोलिकों, प्रोटेस्टेंटों एवं यहूदियों को समान अधिकार दिये।

किंतु जोसेफ के क्रांतिकारी धार्मिक परिवर्तनों को तत्कालीन कैथोलिक समुदाय सहन नहीं कर सका और कैथोलिक जनता में असंतोष व्याप्त हो गया।

राजनीतिक सुधार

जोसेफ द्वितीय ने सत्ता के केंद्रीकरण के लिए संपूर्ण आस्ट्रियन साम्राज्य में एक जैसी शासन-व्यवस्था लागू की। हंगरी की संसद को भंग कर दिया गया। संपूर्ण साम्राज्य को 13 प्रांतों में बाँट दिया गया। प्रांतों को मंडलों में, मंडलों को जिलों में और जिलों को नगरों में विभक्त किया गया। समस्त स्थानीय अधिकार समाप्त कर दिये गये और वियेना शासन-संचालन का केंद्र हो गया।

एक आस्ट्रियन सेना का गठन किया गया और तोपखाने पर विशेष बल दिया गया। अनिवार्य सैनिक-सेवा लागू कर दी गई और एक निश्चित अवधि के लिए कृषकों को भी सैन्य-प्रशिक्षण लेना अनिवार्य कर दिया गया। जर्मन भाषा संपूर्ण साम्राज्य की भाषा घोषित किया गया। जोसेफ ने देश की आर्थिक समृद्धि के लिए व्यापार व वाणिज्य पर राजकीय नियंत्रण की नीति लागू की।

जोसेफ द्वितीय को अपने क्रांतिकारी परिवर्तनों के कारण विरोध का सामना करना पडा। उसकी केंद्रीकरण की नीति के विरोध में नीदरलैंड्स, हंगरी एवं टायरोल में विद्रोह हाने लगे। बेल्जियम तथा टायरोल से आस्ट्रियन अधिकारी भगा दिये गये। बेल्जियम ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इन विद्रोहों के कारण ही जोसेफ तुर्की के विरुद्ध अपनी पूर्ण सैन्य-शक्ति का उपयोग नहीं कर सका।

सामाजिक सुधार

जोसेफ द्वितीय समानता का पक्षधर था। अतः उसने सभी अर्द्धदासों की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अभी तक सामंतों की आज्ञा के बिना अर्द्धदास विवाह तक नहीं कर सकते थे, न अपनी संपत्ति का क्रय-विक्रय कर सकते थे और न ही स्वतंत्रतापूर्वक टहल सकते थे। बेगार से मुक्ति के लिए उन्हें धन देना पड़ता था।

जोसेफ की अर्द्धदासों की स्वतंत्रता की घोषणा से अर्द्धदास सामंतों के प्रभुत्व से मुक्त हो गये। उसने सभी वर्ग के लोगों के लिए निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की योजना बनाई। किंतु जोसेफ के इन सुधारों ने सामंतों को विद्रोही बना दिया।

सुधार योजना की विफलता

जोसेफ की सुधार योजनाएँ प्रबद्ध होकर भी विफल हो गईं और उसको जनता के प्रायः सभी वर्गों के असंतोष का सामना करना पड़ा। उसकी धार्मिक सुधार की नीति से कैथोलिक वर्ग असंतुष्ट था तो अनिवार्य सैन्य-शिक्षा की नीति ने कृषकों को असंतुष्ट कर दिया। अर्द्धदासों की स्वतंत्रता की घोषणा से सामंत वर्ग नाराज हो गया, जबकि उसकी राजकीय नियंत्रण की नीति ने मध्यम वर्ग को रुष्ट कर दिया। इससे जोसेफ को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और वह अपनी विदेश नीति को सफलतापूर्वक कार्यान्वित नहीं कर सका।

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जोसेफ द्वितीय की विदेश नीति

वैदेशिक मामलों में जोसेफ द्वितीय ने अग्रगामी और आक्रामक नीति का अनुसरण किया। वह पूर्व में काला सागर एवं दक्षिण में एड्रियाटिक सागर की ओर आस्ट्रियन साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना चाहता था। इसके लिए उसे तुर्की के सीमावर्ती क्षेत्रों को जीतना आवश्यक था। यदि वह बवेरिया पर अधिकार करने में सफल हो जाता तो टायरोल व बोहेमिया से आस्ट्रिया का सीधा संबंध स्थापित हो जाता। यही नहीं, वह जर्मन राजकुमारों पर भी अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था। अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसने यूरोपीय देशों से अपने संबंधों को निर्धारित किया।

रूस, फ्रांस एव पालैंड के प्रति रुख

जोसेफ द्वितीय की सीमा-विस्तार की नीति की सबसे प्रबल बाधा फ्रांस व प्रशा थे। उसने प्रशा के विरोध से बचने के लिए उसके साथ मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। उसने अपनी माता मारिया थेरेसा पर पालैंड के विभाजन में हस्तक्षेप करने के लिए इसलिए दबाव डाला ताकि साइलेशिया की क्षति को पूरा किया जा सके। पालैंड के प्रथम विभाजन में उसने सक्रिय रूप से भाग भी लिया और आस्ट्रिया को क्राको नगर को छोड़कर समस्त गैलेशिया का प्रांत मिला भी था।

बवेरिया में प्रथम हस्तक्षेप

जोसेफ द्वितीय ने राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए बवेरिया में हस्तक्षेप किया। जब 1777 में बवेरिया के शासक मैक्सीमिलियन की मृत्यु हो गई तो उसने बवेरिया के सीमावर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। प्रशा ने उसकी इस कार्यवाही का विरोध किया जिससे प्रशा व आस्ट्रिया के बीच युद्ध आरंभ हो गया। अंततः 1779 में प्रशा व आस्ट्रिया में टेशेन की संधि हुई जिसके अनुसार आस्ट्रिया को बवेरिया का छोटा-सा भाग मिल गया और पैलेटाइन के चार्ल्स थियोडोर को बवेरिया का शासक मान लिया गया।

नीदरलैंड्स के मामले में असफलता

हॉलैंड एवं इंग्लैंड के पारस्परिक तनाव का लाभ उठाते हुए जोसेफ द्वितीय ने हॉलैंड के सीमांत अवरोधक दुर्गों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया। फ्रांस ने आस्ट्रिया का विरोध किया। अतः विवश होकर जोसेफ ने 1785 में फ्रांस से संधि कर ली।इस संधि से जोसेफ ने हॉलैंड के मामलों को फ्रांस के ऊपर छोड़ दिया और शेल्ट नदी में फ्रांसीसी जहाजों के आने-जाने को भी स्वीकार करना पड़ा। यद्यपि इसके बदले में उसे फ्रांस से पर्याप्त मुआवजा मिला, किंतु यह संधि आस्ट्रिया की पराजय का संकेत थी।

बवेरिया में द्वितीय हस्तक्षेप

जोसेफ द्वितीय आस्ट्रियन नीदरलैंड्स के स्थान पर बवेरिया पर अधिकार करना चाहता था। उसकी इस योजना को बवेरिया के शासक ने स्वीकार भी कर लिया था, किंतु फ्रांस व प्रशा के भय से बवेरिया के शासक ने इस योजना को मानने से इनकार कर दिया।

तुर्की से युद्ध

 जोसेफ द्वितीय डेन्यूब क्षेत्र एवं बाल्कन क्षेत्र को हथियाने के लिए तुर्की से युद्ध करना चाहता था। उधर रूस की जरीना के हित भी तुर्की में थे। इसलिए दोनों ने आपस में समझौता कर लिया। अब आस्ट्रिया ने 1788 में तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 1790 में जोसेफ की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी लियोपोल्ड द्वितीय ने तुर्की के साथ सिस्टीवा की संधि कर ली। इस प्रकार जोसफ का यह प्रयास भी विफल रहा।

जोसेफ द्वितीय का मूल्यांकन

जोसेफ द्वितीय एक ऐसा शासक था जिसने अपनी प्रजा के हित के लिए भरसक प्रयत्न किया। किंतु वह प्रजा का दिल जीतने में असफल रहा। विदेश नीति के क्षेत्र में भी जोसेफ को सफलता नहीं मिली। उसने राष्ट्रीय एकता और धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाने का प्रयास किया, ताकि संपूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधा जा सके। उसने विशेषाधिकार वर्ग से भी कर वसूलने का असफल प्रयास किया। उसे अपनी मृत्यु के पहले ही अपने अनेक सुधारों को समाप्त करने का आदेश देना पड़ा। उसने अपनी समाधि पर यह पंक्ति अंकित करवाने का आदेश था कि ‘‘यह उस व्यक्ति की समाधि है जो अपने सुंदर उद्देश्यों के होते हुए भी कभी किसी क्षेत्र में सफल न हो सका।’’

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