भारत में दलित आंदोलन
उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दलितों की बेहतरी और सामाजिक समानता के लिए स्थानीय स्तर पर दलितों के आंदोलन होने लगे थे। जब ईसाई मिशनरी दलितों के बीच काम करने लगे और उपनिवेशी सरकार ने उनमें शिक्षा के प्रसार के लिए विशेष संस्थाएँ खड़ी कीं, तो न केवल इन वर्गों में एक छोटा-सा शिक्षित कुलीन समूह पैदा हुआ, बल्कि आम तौर पर इन जन समूहों में एक नई चेतना भी आई। यह सही है कि उपनिवेशी नौकरशाही दलित शिक्षा की घोषित सार्वजनिक नीतियों के क्रियान्वयन में अकसर लड़खड़ाती रही और दलित समूहों को अपने शिक्षा के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिरोधों का सहारा लेना पड़ा। इसी प्रकार ईसाई मिशनरी भी सदैव दलितों की बेहतरी के उग्र निमित्त नहीं रहे, क्योंकि वे भी अकसर एक असहिष्णु परंपरावादी समाज और एक दोमुँही नौकरशाही के दबावों के आगे झुक जाते थे।
प्रायः माना जाता है कि ईसाइयत स्वीकार करना जातिप्रथा के प्रतिरोध का एक ढंग था और दक्षिण भारत के कुछ भागों में दलितों ने बड़ी संख्या में इस तरीके का सहारा लिया। लेकिन स्वयं में धर्मांतरण मुक्ति का सूचक नहीं था, क्योंकि धर्म बदलने वाले दलित अकसर स्थानीय समाज के मौजूदा ढाँचों में ही फिर से खपा लिए जाते थे। फिर भी, मिशनरियों ने और नई शिक्षा ने इन समूहों में आत्मसम्मान का भाव पैदा किया। इन समूहों के कुछ मुखर तत्त्वों ने जातिप्रथा की पतित विशेषताओं के विरुद्ध प्रतिरोध की एक विचारधारा तैयार की और इसके साथ पूरे भारत में विभिन्न दलित समूहों के बीच संगठित जातिगत आंदोलनों का जन्म हुआ।
भारत में ‘दलित’ (डिप्रेस्ड क्लासेस) शब्द के अनेक अर्थ लगाए जाते हैं, किंतु मोटे तौर पर उन वर्गों को दलित कहा जाता है, जो वर्तमान में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आते हैं। वर्तमान समय में जिन्हें दलित समझा जाता है, उनमें से अनेक वर्गों को पहले ‘अछूत’ या ‘अस्पृश्य’ माना जाता था। डॉ. भीमराव आंबेडकर के आंदोलन के बाद ‘दलित’ शब्द हिंदू सामाजिक व्यवस्था में सबसे नीचे स्थित सैकड़ों वर्षों से अस्पृश्य समझी जाने वाली तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयोग किया जाने लगा है। औपनिवेशिक शासन के दौरान स्थानीय स्तर पर होने वाले कुछ प्रमुख दलित आंदोलनों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
सतनामी आंदोलन
जातिगत संगठन की दिशा में छत्तीसगढ़ का सतनामी आंदोलन एक अनूठा प्रयास था। इस आंदोलन के जन्मदाता अठारहवीं सदी के गुरु घासीदास (1756-1800) बताए जाते हैं, जो चमार जाति के थे। लगभग डेढ़ सौ साल से भी अधिक समय तक चलने वाला यह सतनामी आंदोलन चमार जाति की सामूहिक प्रगति एवं कुरीतियों पर विजय पाने वाला आंदोलन था।
सतनामी संप्रदाय ने संभवतः कबीरपंथी मत से एक संप्रदाय का आदर्श रूप ग्रहण किया था। कहते हैं कि इसके पहले जगजीवनदास ने उत्तर भारत में इसी प्रकार का मत चलाया था। गुरु घासीदास ने कई वर्णों में बाँटने वाली जाति-व्यवस्था का विरोध किया और अपने अनुयायियों को शराब, तंबाकू, मांस और लाल रंग की सब्जियों का प्रयोग निषिद्ध कर दिया। उन्होंने संदेश दिया: ‘‘मानव की एक ही जाति, मानव जाति है और मानव का एक ही धर्म, सतधर्म है।’’ आज भी उनके उपदेश और धार्मिक अनुष्ठान चमार जाति की कुछ सीधी-सादी धार्मिक परंपराओं में प्रचलित हैं।
इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के माधौपुर गाँव के चमार, जो अधिकांशतः काश्तकार या भूमिहीन श्रमिक होते थे, शिवनारायण संप्रदाय के उपदेशों से शांति पाते थे और ब्राह्मणों के आचारों, जैसे गोमांस न खाना, का अनुसरण करके अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयास कर रहे थे।
महार आंदोलन
महाराष्ट्र के महार जाति के लोग भी, जो कालांतर में डॉ. भीमराव आंबेडकर के आंदोलन का आधार बने, गोपालबाबा वलंगकर और शिवराम जानबा कामले जैसे सुधारकों के नेतृत्व में संगठित होने लगे थे। इनका मानना था कि महारों की स्थिति सुधारने के लिए उन्हें पुलिस और सेना में भर्ती किया जाना चाहिए। वलंगकर ने 1894 में एक याचिका के माध्यम से महाराष्ट्र के महारों को ‘क्षत्रिय’ घोषित करने और सेना में भर्ती करने की माँग की।
शिवराम जानबा कामले ने महारों को जागरूक और संगठित करने के लिए 1904 में ‘सोमवंशीय हित-चिंतक मित्र समाज’ नामक संस्था की स्थापना की। उन्होंने अपनी मासिक पत्रिका ‘सोमवंशीय मित्र’ (1908-1910) में एक देवदासी शिबूबाई लक्ष्मण जाधव का पत्र प्रकाशित कर देवदासियों के अंधकार भरे जीवन और धर्म के नाम पर उनके होने वाले भयंकर यौन-शोषण से लोगों को परिचित कराया। महारों की स्थिति सुधारने के लिए कामले ने भी महारों को पुलिस और सेना में भर्ती किए जाने की माँग की। अंततः वलंगकर और कामले की मेहनत रंग लाई और 6 फरवरी 1917 से ब्रिटिश सेना में महारों की भर्ती होने लगी।
नामशूद्र आंदोलन
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में बंगाल के ‘चंडाल’ जाति में पैदा हुए चाँद गुरु (1850-1930) ने विद्यालय खोलकर अछूतों को शिक्षित किया। 1899 में बंगाल में जाति-निर्धारण सभा की स्थापना की गई और चंडालों को ‘नामशूद्र’ नाम दिया गया। नामशूद्र गरीब अछूत किसान थे, जो दूरस्थ अंग्रेज स्वामी की अपेक्षा अपना शोषण करने वाले उच्चवर्गीय भद्रलोक को ही अपना शत्रु समझते थे।
1901 के पश्चात् पढ़े-लिखे लोगों के एक छोटे-से समूह के आह्वान पर एवं कुछ मिशनरियों के प्रोत्साहन से नामशूद्रों की जातिगत समितियाँ गठित की जाने लगीं और ‘नामशूद्र’, ‘पताका’ और ‘नामशूद्र हितैषी’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगीं।
नाडार आंदोलन
दक्षिणी तमिलनाडु में ‘शनार’ अछूत माने जाते थे, जो ताड़ी निकालने का काम करते थे। उन्नीसवीं सदी के अंत में रामनाड जिले के कस्बों में इस जाति के समृद्ध व्यापारियों के एक समूह का उदय हुआ, जिसने शैक्षिक एवं समाज-कल्याण की गतिविधियाँ चलाने के लिए धन एकत्रित किया और अपने-आपको नाडार (क्षत्रिय) घोषित कर ऊँची जाति के रीति-रिवाजों और आचार-व्यवहार को अपना लिया। इस समूह ने 1910 में ‘नाडार महाजन संगम’ की स्थापना की।
किंतु इस उर्ध्वगामी गतिशीलता (संस्कृतिकरण) से तिरुनेलवेली के नीची जाति के गछवाहे प्रभावित नहीं हुए और अभी तक उन्हें उनके पुराने जाति नाम शनार द्वारा ही संबोधित किया जाता रहा, जबकि रामनाड जिले में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं ने ‘नाडार’ कहलाने का अधिकार प्राप्त कर लिया था।
इसी प्रकार उत्तर तमिलनाडु में निम्न जाति के पल्ली अय्याकली के नेतृत्व में अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आंदोलन किए और 1871 में अपने-आपको क्षत्रिय जाति में रखना आरंभ किया। वे अपने को ‘बनियाकुल क्षत्रिय’ कहने लगे और उच्च जातियों के रीति-रिवाजों, जैसे विधवा पुनर्विवाह का निषेध आदि का आचरण करने लगे। पल्लियों ने अपना उद्गम आर्यपूर्व काल में बताया और अपने को इस देश का मूल निवासी सिद्ध किया।
इझवा जागरण
मलाबार, कोचीन और ट्रावणकोर में इझवा या इलवान (इलवाज) एक पारंपरिक अछूत जाति थी जो नारियल की खेती करते थे। नारियल उत्पादों के बाजार के विस्तार के साथ इस जाति में एक अपेक्षाकृत समृद्ध वर्ग का उदय हुआ। इझवा जागरण के नेता श्री नारायण गुरु (1854-1928) थे। बीसवीं सदी में केरल के इझवा लोग श्री नारायण गुरु (नानु असन) से प्रेरित होकर ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष करने लगे थे। वे मंदिरों में प्रवेश करने और अपने कुछेक रिवाजों के ‘संस्कृतिकरण’ की माँग कर रहे थे। श्री नारायण गुरु का तत्त्वज्ञान था: ‘मनुष्य के लिए एक जाति, एक धर्म तथा एक ईश्वर’।
इझवा जाति के उत्थान के लिए श्री नारायण गुरु ने 1902 में प्रथम इझवा स्नातक डॉ. पल्पू और महान् मलयाली कवि एन. कुमारन आशान के साथ श्री नारायण धर्म परिपालन योगम (एस.एन.डी.पी.योगम) की स्थापना की। इस संगठन के दो प्रमुख उद्देश्य थे-एक तो अस्पृश्यता को समाप्त करना और दूसरे पूजा, विवाह आदि को सरल बनाना। नारायण गुरु ने चंगाराम कुमारथ कृष्णन जैसे लोगों के सहयोग से अवर्णों के लिए अरविपुरम जैसे कई मंदिरों का निर्माण करवाया और दैत्य-पूजा सहित विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा को बंद करवा दिया। उन्होंने इझवा लोगों को ताड़ी का व्यवसाय बंद करने, साफ-सफाई से रहने और गंदे कामों को छोड़कर उच्च जातियों के रीति-रिवाजों को अपनाने का आह्वान किया। सांस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया के द्वारा वह अस्पृश्य जातियों को पिछड़ी जातियों में परिवर्तित करने में सफल रहे। नारायण गुरु की सलाह पर ही गांधीजी ने अपने अखबार ‘नवजीवन’ का नाम बदलकर ‘हरिजन’ किया था और दलित जातियों को ‘हरिजन’ नाम दिया था।
नारायण गुरु के अनुयायी डॉ. पल्पू और टी.के. माधवन 1920 में ‘श्री नारायण धर्म परिपालन योगम’ को गांधीवाद के प्रभाव में लाने में सफल रहे, जिससे इझवा समाज के लोग राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ गए और उनके सामाजिक-राजनीतिक उन्नयन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
पंजाब का आदि-धर्म आंदोलन
दक्षिण भारत की तरह बीसवीं सदी के तीसरे दशक में विभाजनपूर्व पंजाब की निचली और अछूत जातियों में आदि-धर्म आंदोलन अच्छी तरह फैल चुका था। इस आंदोलन में पंजाब की दो बड़ी अछूत जातियाँ-चमार (चर्मकार) और चूहड़ा (सफाई कर्मचारी) शामिल थीं। आदि-धर्म आंदोलन के नेता मंगूराम ने दक्षिण के आदि-आंदोलनों की तरह प्रचारित किया कि वे ही भारत के आदि मूलनिवासी हैं और उनकी अपनी धार्मिक मान्यताएँ हैं; बाद में ब्राह्मणों ने उन पर हिंदू धर्म बलात् थोप दिया है।
आदि-धर्म आंदोलन आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों का बहुआयामी आंदोलन था। इस आंदोलन के कार्यकर्ता प्रायः बैठकों के बाद एक साथ गाँव या नगर के तालाब पर जाते थे और स्नान करके उच्च हिंदू जातियों द्वारा उस परंपरागत प्रतिबंध को तोड़ते थे कि अछूत वहाँ पानी नहीं भर सकते। यह एक ठोस कार्रवाई थी, जिससे न केवल अछूत जातियों में परस्पर अलगाव की प्रवृत्ति दूर हुई, बल्कि उनमें जातीय एकता भी बढ़ी। इस प्रकार आदि-धर्मियों ने सार्वजनिक कुओं व तालाबों के पानी का उपयोग करने, हिंदू जमींदारों की तरह समान भूमि अधिकार दिए जाने, सार्वजनिक जातीय संपत्तियों का उपयोग करने, ऊँची जातियों के अत्याचारों से बचाए जाने और साथ ही अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ एवं अधिकार दिए जाने की माँग की। इन्होंने 1931 की जनगणना में अपने को हिंदू की जगह ‘आदि-धर्मी’ लिखवाया, जिससे पंजाब में अछूतों की संख्या में कमी आ गई। इसके कारण सवर्ण हिंदुओं और अछूतों में कई स्थानों पर संघर्ष भी हुए और कुछ स्थानों पर अछूतों को अपनी पुरानी जाति लिखवाने के लिए दबाव भी डाला गया।
पंजाब के आदि-धर्म आंदोलन से उत्तर-पश्चिमी भारत के सभी अछूतों में जोश की एक लहर-सी दौड़ गई और वे अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए सजग होने लगे। आर्य समाज ने पंजाब के चमारों और वाल्मीकि समुदाय के लोगों को क्रमशः रविदासिया सिख और मजहबी सिख के नाम पर सिख समुदाय में शामिल कर अपनी जनसंख्या बढ़ा ली थी। जाति सोपान में रविदासिया और मजहबी सिखों का दर्जा बहुत नीचे था। 1932 के आसपास लाहौर में ‘अखिल भारतीय हरिजन लीग’ की स्थापना की गई जो समाज-सुधार, अंतर्जातीय विवाह, शिक्षा और सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता के लिए काम करती थी।
आगरा का जाटव आंदोलन
बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही उत्तर प्रदेश के आगरा के जाटवों में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी। 1887 में स्वामी आत्माराम ने ‘ज्ञान समुद्र’ पुस्तक में यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि लोमश रामायण के आधार पर जाटव वंश शिव के गोत्र से संबंधित हैं, इसलिए वे क्षत्रिय हैं, अछूत नहीं। आत्माराम की प्रेरणा से जाटवों में संस्कृतिकरण की भावना का उदय हुआ और जाटव समाज के समृद्ध लोगों ने जाटवों को मांस न खाने और अपने बच्चों को ईसाई स्कूलों, आर्य समाज की पाठशालाओं और सरकारी विद्यालयों में शिक्षा दिलाने का निश्चय किया।
जाटवों ने अपनी पहचान में परिवर्तन लाने के लिए 1917 में ‘जाटव वीर महासभा’ और फिर ‘अखिल भारतीय जाटव सभा’ का गठन किया। 1920 में जाटवों ने एक बड़ा प्रदर्शन किया, जिसमें करनसिंह नामक जाटव को ऊँची जाति के लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला। करनसिंह को जाटव उत्तर भारत का पहला शहीद मानते हैं।
1924 में गठित जाटव प्रचारक मंडल ने जाटवों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दिया और 1926 में पहला जाटव स्नातक हुआ। इसके बाद ‘जाटव परिषद्’ और ‘जाटव जनशिक्षा संस्थान’ ने विद्यालयों और पुस्तकालयों की स्थापना कर जाटवों में शिक्षा का प्रकाश फैलाया और अपने समाज के शिक्षित युवकों के लिए नौकरियों की माँग की।
जाटवों ने जातीय सोपान में अपना दर्जा ऊँचा उठाने के लिए सरकार से माँग की कि उन्हें चमारों से अलग सूची में रखा जाए और जाटव जाति की गणना अलग की जाए। किंतु 1930 में ‘जाटव युवक परिषद्’ ने आंबेडकर को अछूत समाज का नेता मान लिया। 1944-45 में ‘आगरा परिगणित जाति संघ’ स्थापित हुआ और उसे आंबेडकर के संघ से संबद्ध कर दिया गया, जिससे जाटवों में एक नई धारा तथा नई चेतना का उदय हुआ। अब नव-जाटवों ने क्षत्रियत्व का मोह त्यागकर अनुसूचित जातियों में अपनी पहचान बनाई। इस प्रकार आर्य समाज, शुद्धि आंदोलन और अन्य सामाजिक अनुकरण की प्रक्रिया से उर्ध्वगामी गतिशीलता की जो हवा अछूत जातियों में बह रही थी, वह थम-सी गई।
आदि-हिंदू आंदोलन
अछूतों के समग्र-विकास के लिए फर्रुखाबाद के छिबरामऊ में चमार जाति के स्वामी अछूतानंद (हीरालाल) ने आदि-हिंदू आंदोलन चलाया। उन्होंने 1910 में अछूतों में सामाजिक-राजनीतिक चेतना का मंत्र फूँकने के लिए नगरों और गाँवों में संगठन बनाने का प्रयास किया। उन्होंने भेदभावमूलक जातिप्रथा, सामंतवाद, अस्पृश्यता जैसी रूढ़ियों को नष्ट करने का आह्वान किया और केंद्र व राज्य में अछूतों को संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिए जाने की माँग की। स्वामी का मानना था कि कांग्रेस पर शोषक वर्ग, अस्पृश्यता के परिपोषक सवर्ण हिंदू, दलितों को सताने वाले मुस्लिम नवाब और हिंदू जमींदार, राजा-महाराजा तथा ब्राह्मणों का आधिपत्य है; गांधी का अस्पृश्यता-विरोधी आंदोलन भी एक दिखावा है, क्योंकि वे वर्ण-व्यवस्था के प्रबल पक्षधर हैं।
अछूतानंद ने गाँवों में प्रचलित बेगार और बंधुआ मजदूरी का विरोध किया; समाज सुधार की दिशा में मृत्युभोज, विवाहों और नाच-तमाशों पर होने वाले अपव्यय को रोकने, मद्यपान को बंद करने एवं देवी-देवताओं की पूजा का तिरस्कार करने की अपील की और निम्न जातियों के साथ अंतर्जातीय विवाह की सलाह दी।
कोली-कोरी आंदोलन
पूरे भारत में गुजरात को छोड़कर कोली एक अछूत जाति है। कोलियों में सुधार के लिए 1910 में लाहौर में ‘भारतवर्षीय कोली सुधार सभा’ स्थापित की गई थी। सुधार सभा ने शिक्षा और समाज-सुधार पर विशेष बल दिया; बाल-विवाह, दहेज, शराब-मांस के सेवन तथा विवाह, जन्म जैसे उत्सवों पर फिजूलखर्ची को रोकने का प्रयास किया। यह संस्कृतिकरण के साथ सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन भी था क्योंकि कोली समाज के लोग अपना दर्जा ऊँचा करने के लिए आर्य, वर्मा, चौधरी आदि उपनाम लगाने लगे थे।
1935 में लखनऊ में ‘कोरी महासभा’ और कानपुर में ‘कोरी महापंचायत’ की स्थापना हुई। इन सभाओं ने कोरी जाति की उपजातियों को संगठित करने का प्रयास किया और सरकार से कोरी जाति को प्रतिनिधित्व देने, शिक्षा में रियायत देने और गाँव के जमींदारों के अत्याचारों को रोकने की माँग की। बंबई के मेयर रहे बर्लीकर ने पूरे भारत में कोली-कोरी संगठनों को मिलाकर एक राष्ट्रीय गैर-राजनीतिक संगठन अखिल भारतीय कोली समाज संगठित किया।
गढ़वाल-कुमाऊँ की पहाड़ियों में कोली (शिल्पकार) जाति के बलवंत सिंह ‘आर्य’ ने अस्पृश्यता तथा जातिवाद के विरुद्ध आवाज उठाई। उनके अहिंसात्मक आंदोलन के कारण गांधीजी ने उन्हें ‘पहाड़ का गांधी’ कहा था।
दलित आंदोलन की विशेषताएँ
ब्रिटिश भारत में अछूतों ने अपने हीन जातीय स्थिति से ऊपर उठने और मूल मानव अधिकारों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के आंदोलनों का सहारा लिया। प्रायः सभी अछूत जातियों ने उच्च कर्मकांडी स्थिति के कुछ गोचर प्रतीकों को सामूहिक रूप से ग्रहण किया, जैसे जनेऊ धारण करना, सामुदायिक पूजा जैसे अनुष्ठानों में भाग लेना और प्रतिबंधित मंदिरों में प्रवेश करना। मंदिर-प्रवेश के अनेक संगठित आंदोलनों में मलाबार में 1924-25 का वैकम सत्याग्रह और 1931-33 का गुरुवायूर सत्याग्रह, बंगाल में 1929 का मुंशीगंज काली मंदिर सत्याग्रह और नासिक (पश्चिमी भारत) में 1930-35 का कालाराम मंदिर सत्याग्रह सबसे महत्त्वपूर्ण थे।
इन धार्मिक अधिकारों के अलावा संगठित दलित समूहों ने सवर्ण हिंदुओं से सामाजिक अधिकारों की भी माँग की और मना किए जाने पर विभिन्न प्रकार की सीधी कार्रवाइयों का सहारा लिया, जैसे जब ऊँची जातियों ने नाडार स्त्रियों के वक्षस्थल ढँकने के प्रयासों का विरोध किया, तो त्रावणकोर में दंगा हो गया या बंगाल में जब सवर्ण कायस्थों ने 1872 में एक नामशूद्र के दाह-संस्कार में भाग लेने से मना किया, तो नामशूद्रों ने छह माह तक कायस्थों की जमीनों पर काम नहीं किया।
संभवतः इस काल में अछूतों के बीच सामाजिक एकजुटता और प्रतिरोध की यह भावना एक बड़ी सीमा तक भक्ति आंदोलन के पुनरोदय की उपज थी। इझवों में श्री नारायण धर्म परिपालन योगम ने और नामशूद्रों में मातुआ पंथ जैसे अनेक प्रतिरोधक धार्मिक पंथों ने शुद्ध भक्ति और सामाजिक समता के संदेश का प्रचार किया और इस तरह हिंदू सामाजिक सोपानक्रम की बुनियादी जड़ को नष्ट करने का प्रयास किया।
कुछ दलित आंदोलनों ने इस बात पर भी जोर दिया कि उपनिवेशकारी आक्रांता आर्यों द्वारा अधीन बनाए गए दलित ही इस देश के मूल निवासी हैं। इस आधार पर अछूत जातियों ने अपने अतीत की हानियों की भरपाई करने और अपने सभी सामाजिक अधिकारों को वापस किए जाने की माँग की। अपनी ताकत जताने और खोई हुई सामाजिक प्रतिष्ठा को वापस पाने का यह प्रयास पंजाब और संयुक्त प्रांत के चमारों के आंदोलनों में दिखाई देता है। कुछ दलित आंदोलन तो इससे भी आगे निकल गए। छत्तीसगढ़ में चमारों के सतनाम पंथ ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए कर्मकांडी प्रतीकों में बदलाव किए, तो बंगाल के अछूत हादियों के बलहारी पंथ ने एक विपरीत (इनवर्टेड) कर्मकांडी सोपानक्रम की कल्पना तक कर डाली, जिसमें अछूत सबसे ऊपर थे और ब्राह्मण सबसे नीचे।
यद्यपि इनमें से अनेक आंदोलन बहुत दिनों तक नहीं चल सके, किंतु उन्होंने न केवल एक भाईचारे के संदेश के आधार पर दलितों को एकजुट किया, बल्कि सोपानक्रम और छुआछूत की हिंदू धारणाओं की अवज्ञा भी की। बाद में, 1920 के दशक में महाराष्ट्र के अछूत महारों ने अपनी बिरादरी के पहले स्नातक डॉ. भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व में एक स्वतंत्र आंदोलन विकसित किया। दलितों के हितों और मूल अधिकारों की सुरक्षा के लिए डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा किए गए आंदोलन का विवेचन अलग से किया गया है।










