जर्मनी में वाइमार गणतंत्र (Weimar Republic in Germany)

वाइमार गणतंत्र जर्मनी की उस प्रतिनिधिक लोकतांत्रिक संसदीय सरकार को कहा जाता है, जिसने प्रथम […]

जर्मनी में वाइमार गणतंत्र (Weimar Republic in Germany)

वाइमार गणतंत्र जर्मनी की उस प्रतिनिधिक लोकतांत्रिक संसदीय सरकार को कहा जाता है, जिसने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी में 1919 से 1933 तक शाही सरकार के स्थान पर कार्यभार संभाला था। यद्यपि उस समय जर्मनी का औपचारिक नाम जर्मन राइख ही था, किंतु 1919 में वाइमार नगर में एक राष्ट्रीय सम्मेलन में इस संवैधानिक सदन (लोकसभा) का गठन हुआ था, इसलिए इसे ‘वाइमार गणतंत्र’ कहा जाता है।

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प्रथम विश्वयुद्ध का अंत और जर्मन राजतंत्र का पतन

प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत में मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ काफी हद तक सफलता प्राप्त करने में कामयाब रहीं, किंतु चार महाशक्तियों के सामने इन राष्ट्रों की सेनाएँ जगह-जगह पराजित होने लगी थीं। 1917 में युद्धजनित आर्थिक कठिनाइयों एवं युद्ध में कई स्थानों पर जर्मन सेनाओं के पराजय की खबरों से जर्मन राजसत्ता और विल्हेल्म द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह होने लगे थे। ऑस्ट्रिया-हंगरी ने हथियार डाल दिए थे, लेकिन जर्मनी ने युद्ध जारी रखा। जब अक्टूबर 1918 को जर्मनी के कील बंदरगाह पर नौसेना ने बड़ी बगावत खड़ी कर दी और उसमें मजदूर भी शामिल हो गए, तो इस विद्रोह को जर्मन सम्राट कैसर दबाने में असमर्थ रहा। तत्कालीन चांसलर प्रिंस मैक्स वॉन बाडेन तथा सेनापति पॉल वॉन हिंडेनबर्ग ने सम्राट को पद-त्याग की सलाह दी, लेकिन सम्राट द्वारा इस सलाह को न मानने के बाद मैक्स ने बिना सम्राट की अनुमति के सम्राट के सिंहासन-परित्याग की घोषणा कर दी। इससे घबड़ाकर 9 नवंबर 1918 को सम्राट नीदरलैंड्स भाग गया। मैक्स ने चांसलर का पद छोड़कर फिलिप शीडेमन को नया चांसलर बनाया। इस प्रकार एक गौरवपूर्ण और एक सबल साम्राज्य, जिसने विश्व की कल्पना में लगभग अर्धशताब्दी तक अपना स्थान बनाए रखा था, सहसा नष्ट हो गया। यह विश्व की एक महान् घटना थी। संभवतः जीवित व्यक्तियों की स्मृति में इतना आश्चर्यजनक परिवर्तन पहले कभी नहीं हुआ था।

जर्मन गणतंत्र की घोषणा

जर्मन सम्राट के पलायन के बाद राजनीतिक अव्यवस्था की स्थिति में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष फ्रेडरिक एबर्ट ने जर्मन गणतंत्र की घोषणा की। चांसलर एबर्ट ने एक अस्थायी सरकार गठित की और 11 नवंबर 1918 को युद्ध-विराम संधि पर हस्ताक्षर कर प्रथम विश्वयुद्ध का अंत किया। अस्थायी सरकार के सामने विकट राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएँ थीं। इससे भी बड़ी समस्या नए गणतंत्र का संविधान तैयार करने की थी। इस समय जर्मन साम्यवादी देश में रूसी साम्यवादी व्यवस्था के अनुरूप शासन व्यवस्था स्थापित करना चाह रहे थे, किंतु वे सफल नहीं हो सके।

फ्रेडरिक एबर्ट की सरकार ने संविधान निर्माण के लिए 19 जनवरी 1919 को राष्ट्रीय संविधान सभा के निर्वाचन की घोषणा की, जिसमें कई राजनीतिक दलों ने भाग लिया, किंतु आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर हुए चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। 6 फरवरी 1919 को 423 सदस्यीय राष्ट्रीय सभा का प्रथम अधिवेशन वाइमार नामक छोटे शहर के शांत वातावरण में शुरू हुआ। एबर्ट की अस्थायी सरकार ने पदत्याग कर दिया। किसी भी दल के बहुमत न मिलने की अवस्था में संविधान सभा ने सर्वाधिक 163 स्थान जीतने वाली सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के फ्रेडरिक एबर्ट को गणतंत्र का प्रथम राष्ट्रपति और फिलिप शीडेमन को चांसलर नियुक्त किया, जिसे ‘वाइमार गठबंधन’ के नाम से जाना जाता है।

गणतंत्र सरकार ने युद्ध-विराम करके वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। यह संधि इतनी घृणित और कठोर शर्तों वाली थी कि अनेक लोगों ने इस पर हस्ताक्षर न करने और पुनः युद्ध करने की बात कही। लेकिन जर्मनी दुबारा युद्ध करने की स्थिति में नहीं था, इसलिए इस संधि पर हस्ताक्षर करने के अलावा जर्मनी के पास कोई अन्य विकल्प नहीं था।

वाइमार संविधान का निर्माण

वाइमार की राष्ट्रीय सभा एवं अंतरिम सरकार के सामने अन्य समस्याओं के अलावा गणतंत्र के लिए एक स्थायी संविधान का निर्माण करना बड़ी समस्या थी। वर्साय की अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद वाइमार सरकार ने कई राष्ट्रीय सभाओं का आयोजन कर एक नवीन संविधान का निर्माण किया, जिसे ‘वाइमार संविधान’ के नाम से जाना जाता है। इस संविधान का मसौदा अस्थायी सरकार के गृहमंत्री ह्यूगो प्रूस ने तैयार किया था। प्रारंभिक आवश्यक संशोधनों के बाद इस वाइमार संविधान को 11 अगस्त 1919 को विधिवत् लागू किया गया।

वाइमार संविधान के प्रावधान

नवीन संविधान ने समस्त जर्मन नागरिकों को बिना रंग, लिंग, भेदभाव के राजनीतिक समानता, धर्म, भाषण, प्रेस की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की। जर्मन जनता को राज्य की प्रभुसत्ता का स्रोत माना गया और 20 वर्ष से अधिक आयु के सभी जर्मन स्त्री-पुरुषों को मताधिकार प्रदान किया गया।

संविधान सभा ने एक अधिकार-पत्र द्वारा नागरिकों के मूल अधिकारों और कर्तव्यों को परिभाषित किया और समस्त नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, भाषण एवं लेखन की स्वतंत्रता तथा धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। नवीन संविधान के अनुसार समस्त जर्मनी को 18 संघीय राज्यों का गणराज्य घोषित किया गया। इस शासन व्यवस्था में अध्यक्षात्मक और संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई। संघ राज्य में शामिल प्रत्येक सदस्य राज्यों को भी गणतांत्रिक संविधान बनाना अनिवार्य किया गया। शासन की वास्तविक सत्ता मंत्रिमंडल में निहित की गई। संसद द्विसदनीय थी। चांसलर और उनके मंत्रिमंडल को राइखस्टाग (निम्न सदन) के प्रति उत्तरदायी बनाया गया।

वाइमार संविधान की एक विशेषता यह भी थी कि इसमें एक राष्ट्रीय आर्थिक परिषद् का गठन किया गया था, जिसका कार्य संसद को आर्थिक एवं सामाजिक कार्यों के लिए सलाह देना था। इस प्रकार वाइमार संविधान के द्वारा जर्मनी में एक संसदीय लोकतंत्र की स्थापना हुई।

कार्यपालिका

वाइमार संविधान में कार्यपालिका का प्रमुख राष्ट्रपति को बनाया गया, जिसकी कार्यावधि 7 वर्ष थी। किंतु संसद सदस्यों द्वारा विशेष बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे समय से पूर्व भी हटाया जा सकता था। उसका चुनाव वहाँ की जनता करती थी। राष्ट्रपति जल, थल, वायुसेना का प्रधान सेनापति भी था। राष्ट्रपति राइखस्टाग को भंग करके 60 दिनों के अंदर उसके पुनर्निर्वाचन को कराने की शक्ति रखता था। राष्ट्रपति को संकटकाल में आपातकाल की घोषणा करने और उस स्थिति में सभी अधिकार प्राप्त करने का अधिकार था।

वाइमार संविधान ने राष्ट्रपति की सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् का निर्माण किया। मंत्रिपरिषद् का प्रमुख चांसलर होगा जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा। इस संविधान में शासन-संबंधी सभी कार्य चांसलर एवं मंत्रिमंडल द्वारा किए जाने का प्रावधान था। मंत्रिमंडल के सदस्य चांसलर की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते थे एवं मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से राइखस्टाग के प्रति उत्तरदायी था। राइखस्टाग को बहुमत के आधार पर मंत्रिमंडल को भंग करने का अधिकार था। व्यावहारिक रूप से इस विषय पर संसदीय पद्धति का पालन नहीं किया जाता था।

व्यवस्थापिका

वाइमार संविधान के अंतर्गत व्यवस्थापिका के दो सदनों की व्यवस्था थी-प्रथम निम्न सदन या लोकसभा (राइखस्टाग), दूसरा राज्य परिषद् (राइखसराट) कहा जाता था।

निम्न सदन या लोकसभा (राइखस्टाग)

निम्न सदन या लोकसभा (राइखस्टाग) के सदस्यों का निर्वाचन 4 वर्ष के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर 20 वर्ष से अधिक आयु के स्त्री-पुरुष गुप्त मतदान द्वारा करते थे। इस व्यवस्था को अपनाने के पीछे संविधान निर्माताओं का उद्देश्य सभी राजनीतिक दलों को उन्हें प्राप्त मतों के अनुपात में प्रतिनिधित्व देना था। इस सदन को ष्महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त थे। इसे कानून बनाने एवं वार्षिक बजट स्वीकार करने का अधिकार था। चांसलर व अन्य मंत्री सभी इसके प्रति उत्तरदायी थे। यदि यह सदन सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर देता था, तो मंत्रिमंडल को इस्तीफा देना पड़ता था।

उच्च सदन या राज्य परिषद् (राइखसराट)

व्यवस्थापिका का दूसरा अंग उच्च सदन या राज्य परिषद् (राइखसराट) कहलाता था। इसमें 18 राज्यों का प्रतिनिधित्व होता था। प्रत्येक राज्य को इसमें कम से कम 1 प्रतिनिधि भेजने का अधिकार था, किंतु बड़े राज्यों को जनसंख्या के आधार पर अतिरिक्त प्रतिनिधि भी भेजने की व्यवस्था थी। राज्य परिषद् की अवधि चार वर्ष होती थी। गणतंत्र के अंतिम वर्षों में इसके सदस्यों की संख्या 60 तक पहुँच गई थी। इसके अधिकार सीमित थे और इसका कार्य राइखस्टाग की जल्दबाजी पर रोक लगाना था। यह राइखस्टाग द्वारा पारित कानूनों को निरस्त नहीं कर सकती थी, यद्यपि वह उन्हें पास करने में कुछ विलंब अवश्य कर सकती थी। राज्यों एवं संघीय सरकार के बीच विवादों के निपटारे के लिए एक संवैधानिक अभिकरण की भी व्यवस्था की गई थी।

राष्ट्रीय आर्थिक परिषद्

वाइमार संविधान की एक अन्य विशेषता यह भी थी कि इसके अंतर्गत एक राष्ट्रीय आर्थिक परिषद् का भी सृजन किया गया था, जिसकी सदस्य संख्या 28 थी, जो इसके आजीवन सदस्य होते थे। आर्थिक मामलों में संसद को परामर्श देना, श्रमिकों, उद्योगपतियों, कृषकों एवं भूमिपतियों से संबंधित सभी विधेयकों पर परामर्श देना इसका कार्य था, किंतु इसे कोई भी अधिनियम बनाने का अधिकार नहीं था।

वाइमार संविधान की सीमाएँ

जर्मन संविधान की 48वीं धारा संकटकालीन स्थिति से संबद्ध थी, जिसके तहत् राष्ट्रपति को आपातकालीन घोषणा और समस्त शासन के अधिकार हाथों में ले लेने की व्यवस्था थी। इस धारा का दुरुपयोग कर जर्मन राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने जनतंत्र की कब्र खोद दी और हिटलर को चांसलर बनने को आमंत्रित किया। इन्हीं संकटकालीन अधिकारों का उपयोग करते हुए हिटलर ने अपने विरोधियों को समाप्त कर दिया। जर्मन राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होता था। अतः वह भी अपने को जनता का सच्चा प्रतिनिधि मानता था और चांसलर से अधिक शक्तिशाली मानता था।

जर्मन संविधान की एक कमी चुनाव की आनुपातिक प्रणाली थी, जिसके कारण देश में राजनीतिक दलों की संख्या में वृद्धि हुई और सदैव मिले-जुले मंत्रिमंडल बने। हिटलर ने भी जब सत्ता प्राप्त की तो उसे जनता का बहुमत प्राप्त नहीं था। अन्य दलों की सहायता से उसने अपना मंत्रिमंडल बनाया। जर्मनी का संविधान संघीय पद्धति का था। अतः राज्य अधिक अधिकारों की माँग करते थे, इससे भी राजनीतिक स्थिति पर बुरा असर पड़ा।

वाइमार गणतंत्र की समस्याएँ

वाइमार गणतंत्र की स्थापना

1919 में प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद हुई थी, जो अनेक विपत्तियों के बावजूद 1933 तक अपना कार्य करती रही। पराजित जर्मनी की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा खराब हो चुकी थी। चारों ओर निराशा और क्षोभ का वातावरण था। वर्साय की अपमानजनक संधि पर इसी सरकार ने हस्ताक्षर किए थे, जिससे इसके विरोधी इसे ‘गद्दार’ कहने से भी नहीं चूकते थे। आरंभ से ही इस गणतांत्रिक सरकार को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था।

जनता का विरोध

युद्ध में भयंकर विनाशलीला एवं निराशा के वातावरण में क्षुब्ध जर्मन नागरिक इस संसदीय प्रणाली के विरोधी थे, जिसका उन्हें पूर्व में कोई अनुभव नहीं था। कुछ उग्रपंथी दल, जिसमें साम्यवादी प्रमुख थे, प्रारंभ से ही गणतंत्र का विरोध कर रहे थे।

राजनीतिक हत्याएँ

गणतंत्र-विरोधियों ने 1921 में केंद्रीय पार्टी के नेता माथियास एर्जबर्गर की हत्या कर दी, जो साम्यवादी दल का प्रमुख सदस्य था। 1922 में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रमुख वाल्टर राथेनौ को भी मौत के घाट उतार दिया गया। वह एक प्रमुख उद्योगपति एवं सरकार में विदेश मंत्री के पद पर था। इसी प्रकार कई उदारवादी राजनीतिज्ञों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। तत्कालीन न्यायाधीशों के पुराने साम्राज्य का समर्थक होने के कारण इन अपराधियों को दंडित भी नहीं किया जा सका।

राजनीतिक हत्याओं के साथ-साथ विद्रोहियों ने लगभग 354 सैनिक अधिकारियों की भी हत्या की, जो जर्मनी की पराजय के लिए जिम्मेदार माने जाते थे। इस अव्यवस्था के वातावरण का लाभ उठाकर एडोल्फ हिटलर ने 1923 में म्यूनिख में अपने को गणतंत्र का चांसलर घोषित कर दिया, यद्यपि वह पकड़ा गया और 5 वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया।

मुद्रास्फीति एवं बेरोजगारी

मुद्रास्फीति एवं बेरोजगारी का बाजार गर्म था। असंतोष के इस वातावरण का लाभ उठाकर मार्च 1920 में वोल्फगैंग काप ने सरकार का तख्ता पलटने का प्रयास किया और जनरल वाल्टर वॉन लुट्टविट्ज ने बर्लिन पर अधिकार कर लिया। सरकार इन विद्रोहियों को दबाने में असमर्थ थी, इसलिए राष्ट्रपति और चांसलर को राजधानी छोड़कर भागना पड़ा। इन्होंने श्रमिकों से देशव्यापी हड़ताल की अपील की ताकि इन विद्रोहियों के षड्यंत्र को विफल किया जा सके। 17 मार्च को श्रमिकों ने हड़ताल कर दी। जनता का असहयोग देखकर विद्रोहियों ने देश छोड़कर अन्यत्र शरण ली। श्रमिक सहयोग से गणतांत्रिक सरकार ने पुनः बर्लिन पर अपना झंडा फहराया, लेकिन साम्यवादियों एवं समाजवादियों ने मजदूरों को संगठित करके उनकी हड़ताल करवा दी। गणतांत्रिक सरकार ने श्रमिकों से निपटने के लिए सेना की मदद ली, जिसने उपद्रवग्रस्त क्षेत्र में पहुँचकर श्रमिक आंदोलन का दमन कर दिया।

फ्रांस का रूर प्रदेश पर अधिकार

फ्रांस द्वारा रूर प्रदेश पर अधिकार करने से गणतंत्र-विरोधियों एवं जर्मन नागरिकों में भयंकर रोषपूर्ण प्रतिक्रिया हुई। गणतंत्र-विरोधियों ने राइनलैंड में एक गणतंत्र की स्थापना का षड्यंत्र रचा, जो सफल नहीं हो सका। उसी समय गणतंत्र सरकार ने साम्यवादियों एवं समाजवादियों द्वारा सैक्सनी एवं थुरिंगिया पर अधिकार की चेष्टा को असफल कर दिया। हिटलर, एरिच ल्यूडेनडार्फ और गुस्ताव वॉन काह ने गणतांत्रिक सरकार का तख्ता पलटने का षड्यंत्र रचा, किंतु सफल नहीं हो सके।

आर्थिक कठिनाइयाँ

युद्ध की समाप्ति पर जर्मनी की अर्थव्यवस्था जीर्ण-शीर्ण हो चुकी थी। उसके सारे औद्योगिक क्षेत्र छीन लिए गए थे और विदेशी व्यापार संकुचित हो गया था, जिससे राष्ट्रीय आय का ह्रास हो चुका था। इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने कागजी मुद्रा प्रचलित की, जिससे कीमतें बढ़ गईं। इस भयंकर स्थिति में जर्मनी को युद्ध का हरजाना चुकाना भी असंभव होता जा रहा था। उस पर मित्र राष्ट्रों ने 132 अरब गोल्ड मार्क (लगभग 33 अरब डॉलर) युद्ध के हरजाने के रूप में थोपे थे, जिसे चुकाने के लिए जर्मनी को प्रतिवर्ष 2 अरब मार्क एवं जर्मन-निर्यात का 26 प्रतिशत देना था। किसी प्रकार जर्मनी ने 1921 में पहली किश्त अदा की, लेकिन उससे जर्मनी की कमर टूट गई। उसकी करेंसी मार्क के मूल्य का ह्रास चरम सीमा पर पहुँच गया। अगली किश्तें चुकाने के लिए जर्मनी के पास पैसा नहीं था, जिससे रुष्ट होकर फ्रांस और बेल्जियम ने जर्मनी के औद्योगिक नगर रूर पर अधिकार कर लिया, जिससे जर्मनी की स्थिति और भी खराब हो गई।

अगस्त 1923 में चांसलर विल्हेल्म कुनो के त्यागपत्र के बाद उसके उत्तराधिकारी गुस्ताव स्ट्रेसमैन ने वित्तमंत्री हांस लूथर और हजलमार शाख्ट को भयंकर आर्थिक अव्यवस्था से देश को संकट से उबारने का कार्य सौंपा। नोटों का प्रचलन बंद कर उसके स्थान पर रेंटेनमार्क नामक मुद्रा प्रचलित की गई। नई मुद्रा प्रचलित करने के साथ-साथ राष्ट्रीय बजट को संतुलित करने के लिए सरकारी खर्चों में भारी कटौती की गई। अनावश्यक कर्मचारियों को हटाकर वेतन कम कर दिए गए और करों में वृद्धि की गई। इन उपायों से बजट संतुलित हो गया और मुद्रास्फीति रुक गई।

डावेस योजना

मित्र राष्ट्रों ने क्षतिपूर्ति के प्रश्न को आर्थिक विशेषज्ञों की एक समिति को सौंपा, जिसका अध्यक्ष चार्ल्स डावेस था। इस समिति ने जर्मनी द्वारा दी जाने वाली क्षतिपूर्ति के विषय में 9 अप्रैल 1924 को कुछ सुझाव प्रस्तुत किए, जिसके अनुसार-

रूर प्रदेश से फ्रांसीसी सेनाएँ हटा ली जाएँ।

50 वर्ष के लिए रीच्सबैंक की स्थापना की जाए तथा नवीन मुद्रा मार्क जारी की जाए।

200 मिलियन डॉलर का विदेशी ऋण जर्मनी को मिलना चाहिए।

जर्मनी अपनी आय के कुछ स्रोत सुरक्षित रखे।

इस प्रकार इस योजना द्वारा जर्मनी की अर्थव्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया गया, जिसे जर्मनी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

वाइमार गणतंत्र की स्थिरता और शांति का काल

1924-1929 तक के काल में वाइमार गणतंत्र की हालत पहले से अधिक स्थिर एवं शांतिपूर्ण रही। इस अवधि में गणतंत्र सरकार ने न केवल मुद्रास्फीति को रोका बल्कि आर्थिक पुनरुद्धार एवं समृद्धि के नवीन युग में प्रवेश किया। आर्थिक समृद्धि एवं बाह्य क्षेत्र में लोकार्नो भावना से प्रेरित होकर शांति एवं अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के वातावरण में गणतंत्र-विरोधियों को सरकार के खिलाफ षड्यंत्र करने का अवसर नहीं मिला।

वाइमार गणतंत्र की विदेश नीति

प्रथम विश्वयुद्ध का सारा आरोप जर्मनी पर मढ़ दिया गया था। अब जर्मनी के प्रति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का दृष्टिकोण अलगावकारी था। विश्वयुद्ध से पूर्व जर्मनी जो विश्व राजनीति में छाया हुआ था, उसका प्रभाव अब नहीं के बराबर हो गया था। उसे राष्ट्रसंघ की सदस्यता से वंचित रखा गया था और अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में भी उसे आमंत्रित नहीं किया जाता था। इतना ही नहीं, फ्रांस और बेल्जियम की सेनाओं ने युद्ध क्षतिपूर्ति वसूली की आड़ में जर्मनी के औद्योगिक क्षेत्र रूर पर अधिकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में वाइमार गणतंत्र की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य जर्मनी को पुनः महान् राष्ट्रों की कतार में सम्मानजनक स्थिति में खड़ा करना था। लेकिन विदेश नीति के संबंध में उसके राजनीतिज्ञों में मतैक्य नहीं था। एक समूह चाहता था कि पूर्वी देश सोवियत रूस से मित्रता की जाए और वर्साय संधि द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की अवहेलना की जाए, जबकि दूसरा पक्ष चाहता था कि वर्साय संधि का अक्षरशः पालन किया जाए और मित्र राष्ट्रों से संबंध बढ़ाया जाए।

गुस्ताव स्ट्रेसमैन

गणतांत्रिक शासन के प्रारंभिक वर्षों में पूर्वी देशों से मित्रता बढ़ाने पर जोर दिया गया। अप्रैल 1922 में रैपैलो संधि में जर्मनी-रूस के प्रतिनिधि गुप्त रूप से मिले और एक संधि कर ली। लेकिन जर्मन विदेश मंत्री गुस्ताव स्ट्रेसमैन ने पश्चिमी देशों से ताल्लुकात बनाने पर जोर दिया। एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के कारण स्ट्रेसमैन इस बात को भलीभाँति समझता था कि मित्र राष्ट्रों से सहयोग एवं मेल-मिलाप से ही जर्मनी को पुनः विश्व के प्रमुख राष्ट्रों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु स्ट्रेसमैन ने सितंबर 1923 में फ्रांस के आधिपत्य के विरुद्ध शांतिपूर्ण प्रतिरोध की नीति को त्याग दिया। इससे वह अन्य मित्र राष्ट्रों की सहानुभूति प्राप्त करने में सफल हो गया। उसके समय में डावेस योजना आई, जिसने न केवल जर्मनी की वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ करने में योगदान दिया बल्कि उसका विदेशों से व्यापार भी बढ़ा। फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मन विदेश मंत्रियों के पारस्परिक सहयोग से अक्टूबर 1925 में लोकार्नो संधियों पर हस्ताक्षर हो गए। 1926 में जर्मनी राष्ट्रसंघ का सदस्य भी बना। लोकार्नो समझौते द्वारा जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों की सहानुभूति पाने के साथ-साथ बर्लिन संधि द्वारा स्ट्रेसमैन ने रूस-जर्मन मित्रता को भी यथावत् बनाए रखा। इससे जर्मनी की प्रतिष्ठा बढ़ी और अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों में उसे अपना पक्ष रखने का मौका मिला।

स्ट्रेसमैन की विदेशनीति के दो प्रमुख लक्ष्य थे- एक तो जर्मनी की जमीन से सहबद्ध राष्ट्र-नियंत्रण आयोग एवं सेनाओं को हटाना और दूसरे क्षतिपूर्ति के भार को कम करना। स्ट्रेसमैन के प्रयास से अंतरमित्र राजकीय नियंत्रण आयोग को जर्मनी से हटा लिया गया। 1928 में उसने केलॉग-ब्रायंड समझौते पर हस्ताक्षर किए। 1928 में जर्मन प्रतिनिधि एवं पाँच राष्ट्रों के सदस्य इस बात पर सहमत हो गए कि क्षतिपूर्ति की समस्या का स्थायी निवारण के लिए अर्थ-विशेषज्ञों की एक बैठक बुलाई जाए और राइनलैंड को खाली कराने हेतु वार्ताएँ कराई जाएँ। ओवेन यंग की अध्यक्षता में एक आयोग बना, जिसे यंग योजना के नाम से जाना जाता है। 1929 में हेग सम्मेलन में यंग योजना के प्रस्तावों को मानकर राइनलैंड से सेनाएँ हटा ली गईं।

अक्टूबर 1929 में स्ट्रेसमैन की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी कर्टियस ने अपने पूर्व साथी की नीति का पालन किया, लेकिन ऑस्ट्रिया-जर्मन सीमा-शुल्क संघ की स्थापना में उसकी योजना विफल हो गई और उसे त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद कट्टर राष्ट्रवादियों के विरोध एवं फ्रांस की जिद के कारण वाइमार गणतंत्र को अपनी विदेशनीति संचालित करने में काफी मुश्किलें आईं।

1929 की आर्थिक मंदी का जर्मनी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा, जिसके कारण उग्र राष्ट्रवाद से नाजीवाद के तत्व जर्मनी में तेजी से फैलने लगे। 1933 में हिटलर के सत्तारूढ़ हो जाने से विदेश नीति में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया।

वाइमार गणतंत्र का पतन

1930 में चांसलर हेनरिक ब्रुनिंग के पदभार सँभालने के बाद गणतंत्र को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस समय भी जर्मनी को भारी आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ रहा था। इसके साथ ही साम्यवादी, सोशल डेमोक्रेटिक व नाजी दलों के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा था। 1930 के बजट को भी विरोधियों ने अस्वीकार कर दिया।

1930 के निर्वाचन में हिटलर के नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी (नाजी पार्टी) को भारी सफलता मिली। इसके साथ ही साम्यवादी दल के सदस्यों में भी भारी वृद्धि हुई। चुनाव में गणतंत्र-विरोधी ताकतों की जीत इस बात का सूचक था कि अब गणतंत्र अधिक दिनों का मेहमान नहीं है। चुनाव के बाद भी चांसलर ब्रूनिंग ने दक्षिणपंथी दलों के समर्थन से मंत्रिमंडल बनाया था, लेकिन उसे राष्ट्रपति की आज्ञापत्रियों के सहारे ही काम चलाना पड़ा। ब्रुनिंग ने दो वर्ष तक अपना कार्य किया, फिर भी संसदीय प्रणाली की असफलता साफ दिखाई पड़ रही थी।

1931 में ऑस्ट्रियन बैंक क्रेडिट-आनस्टाल्ट के दिवालिया होने से जर्मन आर्थिक संकट चरम सीमा पर पहुँच गया। चांसलर ने राष्ट्रीय बजट को संतुलित करने के लिए सरकारी खर्चों में कमी तो की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। बेरोजगारी की समस्या चरम पर थी। गणतंत्र-विरोधी दलों ने इस असंतोष को और हवा दिया। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा जर्मन-ऑस्ट्रिया सीमा-शुल्क संघ को शांति-संधियों के विरुद्ध घोषित कर दिया गया, जो वास्तव में ब्रुनिंग की पराजय थी, जिसका विरोधियों ने पूरा फायदा उठाया। जर्मनी के प्रमुख विरोधी दलों के नेताओं और उद्योगपतियों ने एक समझौता किया कि जिसका उद्देश्य साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकना था। इस गठबंधन से हिटलर को उद्योगपतियों का समर्थन मिल गया। 1931 के आखिर तक हिटलर के भूरी कमीज वाले दल ने जर्मनी के विभिन्न हिस्सों में हिंसक उपद्रव करना शुरू कर दिया।

राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग का कार्यकाल समाप्त होने पर निर्वाचन हुए, जिसमें किसी भी दल को 50 प्रतिशत मत नहीं मिले। दुबारा चुनाव में हिंडेनबर्ग को राष्ट्रपति बनाया गया। चांसलर ब्रुनिंग ने हिटलर के उग्रवादी दल को प्रतिबंधित कर दिया। ब्रुनिंग को अपदस्थ करते हुए राष्ट्रपति के सलाहकारों ने उसके समक्ष उसकी शिकायतें करनी शुरू कर दी। राष्ट्रपति के समर्थन के बिना उसका कार्य करना असंभव था। इसलिए उसने मई 1932 में त्यागपत्र दे दिया। उसके उत्तराधिकारी फ्रांज वॉन पापेन को चांसलर बनाया गया, जिसके मंत्रिमंडल में सामंतों की संख्या अधिक थी। उसने अप्रत्यक्ष रूप से हिटलर का समर्थन प्राप्त करना चाहा क्योंकि उसने उसके प्रतिबंधित दल से प्रतिबंध हटा लिया था। प्रशा की सरकार को बर्खास्त करके उसे केंद्रीय सरकार के अधीन कर लिया।

जुलाई 1932 के चुनावों में हिटलर का दल सर्वाधिक सीटें लेकर सबसे आगे रहा। लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता हिटलर को चांसलर बनाए जाने की माँग की गई, जिसे हिंडेनबर्ग ने स्वीकार नहीं किया। वॉन पापेन पुनः अल्पमत सरकार द्वारा शासन चलाने लगा। उसने आज्ञापत्रियों द्वारा शासन चलाने की कोशिश की, लेकिन विरोधी दलों के डर से उसने राष्ट्रपति की अनुमति से राइखस्टाग भंग कर दिया।

नवंबर 1932 में हुए चुनावों में नाजी दल को कम सीटें मिलीं और साम्यवादियों को अधिक स्थान मिले। इसके बाद पापेन ने इस्तीफा दे दिया। राष्ट्रपति ने हिटलर को सरकार गठित करने हेतु बुलाया, लेकिन वह असीमित अधिकार चाहता था, इसलिए उसने मना कर दिया। अंत में कुर्ट वॉन श्लीचर को चांसलर बनाया गया, जिसे कुछ ही हफ्तों बाद त्यागपत्र देना पड़ा। राष्ट्रपति ने 30 जनवरी 1933 में हिटलर को जर्मनी का चांसलर बनाया। हिटलर ने चांसलर का पद इस उद्देश्य से ग्रहण किया था कि वह इस पद पर आजीवन आरूढ़ रहेगा। कुछ समय बाद उसने अपनी स्थिति मजबूत कर ली और वाइमार गणतंत्र को निरस्त कर दिया। इस प्रकार जर्मनी के वाइमार गणतंत्र का विधिवत् पतन हो गया।

वाइमार गणतंत्र के पतन के कारण

जर्मनी के विशाल प्रांगण में गणतंत्र-रूपी शिशु को पहली बार क्रीड़ा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। उदार लोकतंत्र का वह शिशु अभी चलने-फिरने लायक भी नहीं हुआ था कि उस पर चारों ओर से प्रहार होने लगे। आर्थिक समस्या ने तो उसका भरण-पोषण भी दूभर कर दिया और 14 वर्षों की अल्पावधि में ही हिटलर की अधिनायकवादी सत्ता ने उसका गला घोंट दिया। इस नवस्थापित गणतंत्र के पतन के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार थे-

वर्साय की संधि की स्वीकृति

जर्मनी में ऐसे समय में गणतंत्र की स्थापना हुई थी कि जब जर्मनी सैनिक पराजय और पेरिस शांति-सम्मेलन के निर्णयों के कारण भौतिक और मानसिक रूप से टूट चुका था। गणतंत्र की सरकार को बाध्य होकर वर्साय की कठोर और अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करना पड़ा था। इस संधि के अनुसार अलसास-लोरेन का क्षेत्र फ्रांस को देना पड़ा था, सेना में कमी कर दी गई थी, एक बड़ी राशि युद्ध हर्जाने के रूप में तय की गई थी। इस दृष्टि से गणतंत्र आरंभ से ही लोगों की नजर में जर्मनी के अपमान का प्रतीक था। कट्टर राष्ट्रवादी, भूतपूर्व सैनिक एवं युवा वर्ग गणतंत्रवादी नेताओं की संधि का पालन करने तथा मित्र राष्ट्रों से मेल-मिलाप की नीति को कायरता और देश के प्रति विश्वासघात मानता था और देश की दुर्दशा के लिए गणतंत्र सरकार को ही दोषी समझाता था। इसलिए जब हिटलर ने जर्मनी के विस्तार और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिष्ठा बढ़ाने की बात कही तो जर्मन जनता ने इसे आँखों पर बिठा लिया।

जर्मन नागरिकों का असहयोग

जर्मनी के लिए गणतंत्र का प्रयोग नया था। यह सही है कि 19वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रीयता के विकास के साथ-साथ गणतंत्र प्रणाली भी विकसित हुई थी। जर्मनी में राष्ट्रीयता का विकास तो हुआ था जिसके कारण उसका एकीकरण सफल हो सका था। लेकिन जर्मनी में गणतांत्रिक शासन प्रणाली अपनी जड़ें नहीं बना पाई थी। विल्हेल्म प्रथम और द्वितीय के शासनकाल में राजतंत्र शासन प्रणाली ही प्रचलित रही। उन्होंने गणतंत्र की लहर भी अपने देश में नहीं आने दी। इन्हीं कारणों से जर्मनी के नागरिक गणतंत्र प्रणाली से परिचित नहीं हो सके थे। यह प्रणाली उनकी रुचि के बाहर की चीज थी जो इनके पूर्ण असहयोग के कारण सफल नहीं हो सकी।

जर्मनी की बहुदलीय व्यवस्था

गणतंत्र की असफलता का एक बहुत बड़ा कारण जर्मनी की बहुदलीय व्यवस्था थी। आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाए जाने के कारण वहाँ किसी भी दल को कभी स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाता था, इसलिए मिली-जुली सरकार बनानी पड़ती थी जो अधिक समय तक चल नहीं पाती थी। 1919-1932 के बीच 20 सरकारें अस्तित्व में आईं जो बहुदलीय व्यवस्था में निहित अव्यवस्था की सूचक थीं। ऐसी स्थिति में गणतांत्रिक सरकार जर्मन समस्याओं के निराकरण हेतु कोई दीर्घकालिक कार्यक्रम पूरा नहीं कर सकती थी। बहुमत का समर्थन न होने के कारण प्रायः वहाँ कई बार संकटकालीन धारा 48 के राष्ट्रपति की आज्ञापत्रियों के सहारे सरकार चलाने की नौबत आ जाती थी। इस कारण जर्मन जनता इस गणतंत्र से उब चुकी थी और इसका भरपूर लाभ गणतंत्र-विरोधियों ने उठाया।

प्रशासकीय सेवाओं में परिवर्तन का अभाव

जर्मनी के गणतंत्र की असफलता का एक कारण प्रशासकीय सेवाओं में कोई परिवर्तन न करना भी था। विभिन्न प्रशासकीय विभागों में विल्हेल्म द्वितीय के शासनकाल के अधिकारी, कर्मचारी अपने पदों पर बने हुए थे, जो गणतंत्र के विरोधी और राजतंत्र के समर्थक थे। प्रशासनिक विभागों के असहयोग के कारण गणतंत्र सरकार, जिसके बिना कोई भी सरकार अपना अस्तित्व नहीं रखती थी, अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सकती थी।

विश्वव्यापी आर्थिक मंदी

नवस्थापित वाइमार गणतंत्र के पतन का एक गंभीर कारण विश्वव्यापी आर्थिक मंदी भी थी। आर्थिक मंदी के कारण मुद्रास्फीति की दर काफी बढ़ गई थी जिससे आम नागरिकों को भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आर्थिक मंदी के कारण जर्मनी की अर्थव्यवस्था काफी कमजोर हो चुकी थी, बेरोजगारी सिर चढ़कर बोलने लगी थी, कई उद्योग चौपट हो गए थे और लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए थे। गणतंत्र की सरकार ने इन समस्याओं से निपटने के क्रम में करों में वृद्धि की, विदेशों से ऋण लिया, कागजी मुद्रा का अत्यधिक प्रचलन किया। इससे जर्मन मुद्रा मार्क का अवमूल्यन हो गया, जर्मनी की आर्थिक दशा प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई। 1929 के विश्वव्यापी मंदी के कारण यह आर्थिक असंतोष और ज्यादा गहरा हो गया। जर्मन जनता ने इन आर्थिक कठिनाइयों को वाइमार गणतंत्र से जोड़कर देखा और वह उग्र राष्ट्रवादी दलों का समर्थन करने लगी। साम्यवाद का प्रभाव भी निरंतर बढ़ता जा रहा था जो अन्य दलों के साथ मिलकर गणतांत्रिक सरकार के लिए संकट पैदा कर रहे थे।

गणतंत्र की आंतरिक समस्याएँ

युद्ध-समाप्ति के बाद जर्मन नागरिक अपनी भीषण घरेलू समस्याओं का सामना कर रहे थे। उनके पास खाने को अन्न नहीं, पहनने को कपड़ा नहीं, रहने को घर नहीं और रोजी को काम नहीं था। उन्हें इस बात पर भरोसा ही नहीं था कि गणतांत्रिक सरकार उनकी समस्याओं का समाधान कर सकती है। उन्हें लगता था कि एक शक्तिशाली एवं सुदृढ़ शासन प्रणाली ही जर्मनी में शांति-व्यवस्था स्थापित कर सकती है, उनकी समस्याओं का निराकरण कर सकती है और जर्मनी को पुनः महान् राष्ट्रों की कतार में खड़ा कर सकती है। नाजीवाद, साम्यवाद एवं अन्य दक्षिणपंथी दलों ने जनता में सरकार के प्रति अविश्वास की खाई को और अधिक गहरा किया। उन्होंने जनता को बताया कि यदि इस सरकार का अंत हो जाए तो हम पुनः अपने देश को उसी अवस्था में पहुँचा सकते हैं जहाँ वह 1914 से पूर्व था।

जर्मनी में वाइमार गणतंत्र (Weimar Republic in Germany)
हिटलर का उदय

हिटलर का उदय

हिटलर का उदय भी गणतांत्रिक सरकार के पतन का एक प्रमुख कारण बना। हिटलर ने जर्मन जनता में नवीन आशा का संचार किया और उन्हें विश्वास दिलाया कि तिरस्कृत जर्मनी को पुनः सम्मानजनक स्थान दिलाने में वही सक्षम है। भूखों को रोटी और बेरोजगारों को काम दिलाने की सामर्थ्य उसमें ही निहित है। इस प्रकार ज्यों-ज्यों जर्मनी में चुनाव होते गए, हिटलर के समर्थकों की संख्या में भारी वृद्धि होती गई। आर्थिक अव्यवस्था उसकी उन्नति का महान् कारण बनी और जैसे ही हिटलर ने जर्मनी के चांसलर का पद ग्रहण किया, उसी समय वाइमार गणतांत्रिक सरकार धराशायी हो गई।

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