गुप्तकालीन कला और स्थापत्य (Art and Architecture in Gupta Period)

गुप्तकालीन कला और स्थापत्य

कला, अभीष्ट दिव्यता की प्राप्ति का और उसके साथ एकाकार हो जाने का पवित्रतम् साधन है। कलाओं ने धर्म की कठोरता को मृदुल बनाने में सहायता की है। गुप्तकाल में कला की विविध विधाओं जैसे वास्तु, मूर्तिकला, चित्रकला, मृद्भांड कला आदि में अभूतपूर्व प्रगति हुई। गुप्तकालीन कला के विकास में अनेक मौलिक तत्व देखे जा सकते हैं, जिसमें विशेष यह है कि ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया गया। कलात्मक विकास की दृष्टि से कुछ इतिहासकार गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का ‘स्वर्णयुग’ मानते हैं।

गुप्तकालीन वास्तुकला

इस काल की वास्तुकला के अंतर्गत राजप्रासाद, भवन, शैलकृत चैत्य एवं विहार तथा मंदिरों का उल्लेख प्रासंगिक है। गुप्तकालीन प्रासादों में पाटलिपुत्र तथा उज्जयिनी जैसे राजधानी नगरों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। चीनी यात्री फाह्यान ने अपने विवरण में गुप्त नरेशों के राजप्रासाद की बहुत प्रशंसा की है। इस समय के घरों में कई कमरे, दालान तथा आँगन होते थे। छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं, जिन्हें ‘सोपान’ कहा जाता था। प्रकाश के लिए रोशनदान बनाये जाते थे, जिन्हें ‘वातायन’ कहा जाता था।

किंतु गुप्तकालीन शासकों द्वारा बनवाये गये किसी राजमहल का कोई भौतिक अवशेष प्राप्त नहीं हुआ है जो इस काल की वास्तुकला के विकास पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है।

गुप्तकालीन शैलकृत गुफा-वास्तु
उदयगिरि की गुफाएँ

गुप्तकालीन शैलकृत गुफा-वास्तु में ब्राह्मण गुहा-मंदिर और बौद्ध गुहा-मंदिर महत्त्वपूर्ण हैं। शैलकृत गुफा-वास्तु में उदयगिरि का नाम प्रमुख है। यहाँ की अधिकांश गुफाएँ वैष्णव और शैव धर्म से संबंधित हैं, जिनका निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय तथा कुमारगुप्त प्रथम के काल में हुआ था। ये गुहाएँ चट्टानें काटकर निर्मित की गई थीं। उदयगिरि की पहाड़ी से चंद्रगुप्त द्वितीय के सेनापति वीरसेन का एक लेख मिला है, जिससे पता चलता है कि उसने यहाँ एक शैव-गुहा का निर्माण करवाया था (भक्त्या भगवता शम्भोः गुहामेकमकारयत्)। उदयगिरि के वैष्णव मत की गुफाओं में विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। प्रसिद्ध वाराह-गुहा का निर्माण भगवान् विष्णु के सम्मान में किया गया था। इन गुहाओं में चौकोर सादे गर्भगृह तथा स्तंभों पर आधारित लघु-मंडप (बरामदा) हैं। कुछ विद्वान् उदयगिरि की गुफाओं कोमिथ्या-गुहा’ की संज्ञा देते हैं।

अजंता गुफाएँ

बौद्ध गुहा-मंदिरों में अजंता एवं बाघ की गुफाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। अजंता में कुल उन्तीस गुफाएँ हैं, जिनमें चार चैत्यगृह तथा शेष विहार हैं। इनका निर्माण ई.पू. दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी ई. तक किया गया था। प्रारंभिक गुफाएँ हीनयान तथा बाद की महायान संप्रदाय से संबंधित हैं।

अजंता की गुफा संख्या 16, 17 एवं 19 (तीन गुफाएँ) गुप्तकालीन मानी जाती हैं। इनमें 16वीं-17वीं गुफाएँ विहार तथा 19वीं चैत्य है। 16वीं-17वीं गुफाओं का निर्माण पाँचवीं शती के अंतिम चरण में वाकाटक नरेश हरिषेण के एक सामंत ने करवाया था। स्तूप-गुफाओं में उपासना के लिए बौद्ध-स्तूप होता था और इसके चारों ओर प्रदक्षिणा मार्ग। 16वीं गुफा का गुहा-मंदिर 65 फुट लंबा और चौड़ा है, जिसमें बीस स्तंभ हैं। इसके आंतरिक भाग में स्तूप है। इस चैत्यगृह में प्रलंबपाद मुद्रा (पैर लटकाये) में बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा है। गुफा संख्या 17 में गवाक्ष, स्तंभ, स्तूप तथा बुद्ध प्रतिमाएँ हैं। इसके बरामदे की दीवार पर चित्रित भाव-चक्र (जीवन-चक्र) के कारण पहले इसे ‘राशि-चक्र गुफा’ कहा जाता था।

19वीं गुफा एक चैत्यगृह है जिसमें गर्भगृह, गलियारा एवं स्तंभ बने हैं। चैत्यगृह में केवल एक प्रवेशद्वार है। मंडप के दोनों ओर प्रदक्षिणा-मार्ग पर 17 पंक्तिबद्ध स्तंभ बनाये गये हैं। इसमें मुख्य भाग को सजाने के लिए काष्ठ का प्रयोग नहीं किया गया है। प्रवेशद्वार की चपटी छत चार स्तंभों पर टिकी है तथा ऊपर बड़े आकर का चैत्य-गवाक्ष बना है। शैलकृत स्तूप में ऊँचा बेलनाकार अंड है जिसके ऊपर गोल गुंबद, हर्मिका तथा तीन छत्र हैं। भिति-स्तंभों के बीच बुद्ध की मूर्ति बनी है। इसके साथ ही यक्ष, नाग-दंपत्ति, शालभंजिका, ऋषियों-मुनियों आदि की आकृतियाँ भी हैं। इस गुफा की गणना पश्चिमी भारत में श्रेष्ठतम् चैत्यगृहों में की जाती है।

बाघ की गुफाएँ

अजंता के समान बाघ पहाड़ी (धार, मध्य प्रदेश) से नौ गुफाएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। इन गुफाओं में भी दीवारों पर बुद्ध के जीवन तथा जातक कथाओं के दृश्य उत्कीर्ण हैं। इसमें पहला विहार नष्ट हो गया है, दूसरा सुरक्षित है, जिसे ‘पांडव गुफा’ कहते हैं। इसके मध्य चौकोर आँगन है और बगल में कमरे हैं। बरामदे के ताखों में मूर्तियाँ रखी गई हैं। तीसरी गुफा ‘हाथीखाना’ और चौथी को ‘रंगमहल’ कहा जाता है, शेष गुफाएँ नष्ट हो चुकी हैं। इन गुप्तकालीन गुहा-गृहों के बाहरी भाग और प्रवेशद्वार पर खड़ी व बैठी प्रतिमाएँ अंकित हैं।

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गुप्तकालीन मंदिर-वास्तु

गुप्तकालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। इस काल की वास्तुकृतियों में मंदिर-निर्माण को ऐतिहासिक बताया जाता है और कहा जाता है कि मंदिर निर्माण कला का जन्म यहीं से हुआ।

गुप्तकालीन मंदिर एक ऊँचे चबूतरे पर निर्मित किये जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। देवता की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा-पथ का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों में पार्श्वों पर गंगा, यमुना तथा चौखट पर शंख व पद्म की आकृतियाँ बनाई जाती थीं। इसके अलावा सिंह-मुख, पुष्प-पत्र, झरोखे आदि के कारण मंदिरों में अद्भुत आकर्षण है। मंदिरों की छतें प्रायः सपाट होती थीं, किंतु शिखरयुक्त मंदिरों का निर्माण भी प्रारंभ हो चुका था। मंदसौर लेख के अनुसार दशपुर के मंदिर में अनेक आकर्षक शिखर थे। प्रधान शिखरों के साथ गौड़ शिखरों का निर्माण भी आरंभ हो चुका था।

गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण मंदिरों में देवगढ़ (ललितपुर, उत्तर प्रदेश) का दशावतार मंदिर, साँची (रायसेन, म.प्र.) का मंदिर संख्या सत्तरह, तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) का विष्णुमंदिर, नचना-कुठारा (मध्य प्रदेश) का पार्वती मंदिर, भूमरा (सतना, मध्य प्रदेश) का शिव मंदिर, भीतरगाँव (कानपुर, उत्तर प्रदेश) का ईंटों द्वारा निर्मित मंदिर, सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, लाड़खान का मंदिर और मुकुंद दर्रा (कोटा, राजस्थान) का मंदिर महत्त्वपूर्ण हैं।

देवगढ़ का दशावतार मंदिर

 गुप्तकालीन मंदिर वास्तु का सर्वोत्तम उदाहरण देवगढ़ (ललितपुर, उत्तर प्रदेश) का दशावतार मंदिर है। इसका ऊपरी भाग नष्ट हो गया है। मंदिर के गर्भगृह का प्रवेशद्वार आकर्षक और कलापूर्ण है। इस मंदिर की प्रमुख विशेषता बारह मीटर ऊँचा शिखर है जो संभवतः मंदिर-निर्माण में शिखर का पहला प्रयोग था। जहाँ अन्य मंदिरों में मात्र एक मंडप होता था, वहीं दशावतार के इस मंदिर में चार मंडपों का प्रयोग हुआ है। यह मंदिर सुंदर मूर्तियों से अलंकृत है जिनमें शेषशायी विष्णु, गजेंद्र मोक्ष, रामावतार एवं कृष्णावतार से संबंधित दृश्य उत्कीर्ण हैं। झाँकती हुई आकृतियाँ, उड़ते हुए पक्षी व हंस, पवित्र वृक्ष, स्वास्तिक, फूल-पत्तियाँ की आकृतियाँ, प्रेमी युगल एवं बौनों आदि की मूर्तियाँ भी आकर्षक हैं।

साँची का मंदिर

साँची (रायसेन, म.प्र.) महास्तूप के दक्षिण-पूरब की ओर निर्मित इस मंदिर को मंदिर संख्या सत्तरह कहा जाता है। यह गुप्तकाल का प्रारंभिक मंदिर है जिसका आकार छोटा है, छत सपाट है, गर्भगृह चौकोर है तथा इसके सामने छोटा स्तंभ-युक्त मंडप है। स्तंभों पर घंटाकृति तथा शीर्ष बने हुए हैं।

तिगवा का विष्णुमंदिर

तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) का विष्णु मंदिर सादा है। इसके गर्भगृह का व्यास लगभग आठ फुट है जिसके सामने चार स्तंभों पर लगभग सात फुट का छोटा मंडप टिका है। स्तंभों के ऊपर सिंह की मूर्तियाँ बनाई गई हैं। प्रवेशद्वार के पार्श्वों पर कूर्मवाहिनी यमुना और मकरवाहिनी गंगा अंकित की गई हैं।

नचना-कुठारा का पार्वती मंदिर

नचना-कुठारा (पन्ना, मध्य प्रदेश) के पार्वती मंदिर का निर्माण वर्गाकार चबूतरे पर किया गया है जिसके चतुर्दिक सीढ़ियाँ बनी हैं। मंदिर की छत सपाट है। गर्भगृह के चारों ओर ढ़का हुआ प्रदक्षिणा-पथ है। गर्भगृह की दीवारें अलंकरणों से सजाई गई हैं। गर्भगृह के सम्मुख स्तंभ-युक्त मंडप है।

भूमरा का शिव मंदिर

भूमरा (सतना, मध्य प्रदेश) के शिव मंदिर का मात्र गर्भगृह अवशिष्ट है। गर्भगृह के भीतर एकमुखी शिवलिंग स्थापित है। प्रवेशद्वार पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की आकृतियाँ अंकित की गई हैं। गर्भगृह के समक्ष मंडप और चतुर्दिक प्रदक्षिणापथ मिलता है।

सतना जिले के ही पिपरिया नामक स्थान से 1968 ई. में कृष्णदत्त वाजपेयी ने एक विष्णु मंदिर और मूर्ति की खोज की थी। यहाँ गर्भगृह का अलंकृत द्वार मिला है। द्वार-स्तंभों तथा सिरदल पर पूर्णघट, पत्रावली, नगरमुख, व्याघ्रमुख आदि अलंकरण मिलते हैं, वाराह, नवग्रह आदि भी द्वार पर अंकित हैं। विष्णु की प्रतिमा मंदिर के पास से मिली है। इसके अलावा एरण (सागर, म.प्र.) में वराह और विष्णु के मंदिर हैं। खोह (सतना, म.प्र.) के शिव मंदिर में शुभ-गणों की भी मूर्तियाँ थीं, जो संप्रति प्रयाग के नगरपालिका संग्रहालय में संरक्षित है।

भीतरगाँव का मंदिर

भीतरगाँव (कानपुर, उत्तर प्रदेश) के मंदिर का निर्माण भगवान् विष्णु के सम्मान में वर्गाकार चबूतरे पर किया गया है। इसके वर्गाकार गर्भगृह के सामने मंडप है। देवगढ़ की भाँति भीतरगाँव का मंदिर भी शिखर-युक्त है जिसकी ऊँचाई लगभग 70 फुट है। शिखर में चैत्याकार मेहराब बनाये गये हैं। बाहरी दीवारों में बने ताखों में गणेश, आदि वराह, दुर्गा, आदि की मृण्डमूर्तियाँ रखी गई हैं। दीवारों को रामायण, महाभारत एवं पुराणों के विविध आख्यानों से सजाया गया है। इस मंदिर में सादगी होते हुए भी अनेक वास्तुगत नवीनताएँ हैं।

सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर

सिरपुर (छत्तीसगढ़) का लक्ष्मण मंदिर भी ईंटों से निर्मित है, जिसका शिखर भीतरगाँव के मंदिर के शिखर से मिलता-जुलता है। इसके तोरण के ऊपर शेषशायी विष्णु की प्रतिमा है जिसकी नाभि से उद्भूत कमल पर ब्रह्मा आसीन हैं और विष्णु के चरणों में लक्ष्मी बैठी हैं। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मण की मूर्ति पाँच फनोंवाले सर्प पर आसीन है जो संभवतः शेषनाग का प्रतीक है। इस मंदिर का मात्र गर्भगृह अवशिष्ट है।

मुकुंद दर्रा मंदिर

राजस्थान के कोटा से मुकुंद दर्रा मंदिर प्राप्त हुआ है जिसका गर्भगृह चार स्तंभों पर टिका है और जिसे प्रारंभिक गुप्त देवालय का उदाहरण माना जा सकता है। इसका निर्माण एक ऊँचे आयताकार चबूतरे पर किया गया है जिस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। लाड़खान मंदिर वर्गाकार, नीची तथा समतल छतवाला है। इसकी दीवारों में ताखे बने हैं, जिनमें मूर्तियों का अंकन किया गया है।

बौद्ध मंदिर एवं स्तूप

बौद्ध मंदिर साँची तथा बोधगया में पाये गये हैं। गुप्तकालीन दो बौद्ध-स्तूपों का अवशेष मिला है, एक सारनाथ का लगभग 128 फीट ऊँचा धमेख स्तूप, जो ईंटों से बनाया गया है और दूसरा राजगृह का ‘जरासंध की बैठक’ है।

धमेख स्तूप का निर्माण समतल भूमि पर किया गया है, इसके चारों कोनों पर बौद्ध-मूर्तियाँ रखने के लिए ताखे बने हैं। स्तूप पर बना लतापत्रक और उस पर बनी ज्यामितीय आकृतियाँ सुंदर हैं।

मीरपुर खास (सिंधु) स्तूप का निर्माण प्रारंभिक गुप्तकाल में हुआ लगता है। इसमें तीन छोटे चैत्य बने हैं। मुख्य चैत्य में ईंट की मेहराब बनाई गई है। इसमें अलंकृत ईंटों का प्रयोग किया गया हैं और मिट्टी की बनी बुद्ध-मर्तियाँ सुंदर हैं।

इसके अलावा, रत्नगिरि (उड़ीसा) से भी स्तूप पाये गये हैं। नरसिंहगुप्त बालादित्य ने नालंदा में एक तीन सौ फीट ऊँचा भव्य बुद्ध-मंदिर का निर्माण करवाया था, किंतु यह मंदिर पूर्णतया नष्ट हो गया है। पाँचवीं शती के मंदिरों में बोधगया का मंदिर भी उल्लेखनीय है जिसके गर्भगृह की विशाल बुद्ध-प्रतिमा भूमि-स्पर्श मुद्रा में है। मुख्य प्रवेश-द्वार पूरब की ओर है जिसके पास सीढ़ियाँ बनी हैं। मंदिर में कोई वातायन या गवाक्ष नहीं है।

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गुप्तकालीन मूर्तिकला

तक्षण कला के विकास की दृष्टि से गुप्तकाल महत्त्वपूर्ण है। इस काल में भारतीय आकारमूलक अभिव्यक्ति के प्रमुख केंद्र मथुरा, सारनाथ और पाटिलपुत्र थे। गुप्तकालीन मूर्तियाँ भद्रता, शालीनता, सरलता, आध्यात्मिकता के भावों की अभिव्यक्ति, आनुपातिक संतुलन आदि गुणों के कारण बड़ी स्वाभाविक हैं। इस काल की अधिकांश मूर्तियाँ हिंदू देवी-देवताओं से संबंधित हैं। इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, स्कंद, कुबेर, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, सप्तमातृकाएँ आदि विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ बुद्ध, बोधिसत्त्व एवं जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों का निर्माण किया गया। इस काल की मूर्तियों में कुषाणकालीन नग्नता एवं कामुकता का पूर्णतः लोप हो गया है।

गुप्तकालीन मूर्तिकारों ने शारीरिक आकर्षण को छिपाने के लिए मोटे उत्तरीय वस्त्रों के प्रयोग को प्रारंभ किया जिससे गुप्त मूर्तियों में आद्योपांत आध्यात्मिकता, भद्रता एवं शालीनता दृष्टिगोचर होती है। सारनाथ केंद्र की मूर्तियों पर गांधार कला का प्रभाव नहीं मिलता। यहाँ की मूर्तियों में सुसज्जित प्रभामंडल बनाये गये हैं, जबकि कुषाणकालीन मूर्तियों में प्रभामंडल सादा था।

वैष्णव मूर्तियाँ

वैष्णव धर्म के विकास के कारण वैष्णव मूर्तियों का निर्माण स्वाभाविक था। देवताओं को मानव आकार दिया गया और विष्णु के अवतारों की प्रतिमाएँ बनाई गईं। जूनागढ़ लेख के अनुसार चक्रपालित ने एक विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था (कारितमवक्रमतिना चक्रभूतः चक्रपालितेन गृहम्)। भितरी स्तंभ लेख के अनुसार स्कंदगुप्त के काल में विष्णु-मूर्ति की स्थापना की गई थी (कर्त्तव्या प्रतिमा काचित्प्रतिमां तस्य शार्डिंगणः)। इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं। मथुरा, एरण तथा देवगढ़ से प्राप्त मूर्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। मथुरा के कलाकारों ने विष्णु की नई सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया। आसन पर विराजमान किरीटधारी एक मूर्ति के बायें हाथों में चक्र तथा शंख, दायें के नीचे के हाथ में गदा है तथा ऊपर का हाथ अभयमुद्रा में उठा हुआ है। प्रलंबबाहु (लटकती भुजाओंवाली) एक मूर्ति का केवल धड़भाग ही अवशिष्ट है। यह चतुर्भजी है, जिसमें अलंकृत मुकुट, कानों में कुंडल, भुजाओं पर लटकती हुई वनमाला आदि का अंकन कलापूर्ण है। इसी प्रकार मथुरा संग्रहालय में रखी दो अन्य त्रिविक्रम स्वरूप की विष्णु मूर्तियों में संभवतः कलाकार ने वामन अवतार विष्णु के पाद-प्रक्षेपों द्वारा पृथ्वी तथा आंतरिक्ष-लोक नापने की कथा को मूर्तरूप देने का प्रयास किया है।

विष्णु की सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिमा देवगढ़ के दशावतार मंदिर में है। इस मंदिर की तीन दीवारों के बीच एक-एक चौकोर मूर्तिपट्ट लगाया गया है। दक्षिण दिशा के पट्ट में अनंतशायी विष्णु को शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते दर्शाया गया है। उनकी नाभि से निकलते हुए कमल पर ब्रह्मा तथा ऊपर आकाश में नंदी पर सवार शिव-पार्वती, मयूर पर कार्तिकेय तथा ऐरावत पर इंद्र दिखाये गये हैं। बैठी लक्ष्मी विष्णु का पैर दबा रही हैं। नीचे अस्त्र लिए पाँच पुरुष एवं एक स्त्री का अंकन है, जिसकी पहचान पांडवों से की जाती है। मधु तथा कैटभ नामक राक्षस आक्रामक मुद्रा में प्रदर्शित हैं। कनिंघम के शब्दों में, ‘मूर्तियों का चित्रांकन सामान्यतः ओजपूर्ण है तथा अनंतशायी विष्णु का रेखांकन न केवल सहज, अपितु मनोहर है और मुद्रा गौरवपूर्ण है।’ पूर्वी पट्ट में नर-नारायण तपस्या का दृश्य तथा उत्तरी पट्ट में गजेंद्र मोक्ष का दृश्य अंकित है। काशी से प्राप्त गोवर्धन पर्वत को गेंद के समान उठाये कृष्ण की मूर्ति भी सुंदर है।

इस समय विष्णु के वराह अवतार की अनेक प्रतिमाएँ भी बनाई गईं। उदयगिरि से प्राप्त विशाल वराह मूर्ति में शरीर मनुष्य का और मुख वराह का है। वराह पृथ्वी को दाँतों से उठाते हुए दिखाया गया है। कंधे पर नारी-रूप में पृथ्वी की आकृति खुदी है। वराहरूपी विष्णु का बायां पैर शेषनाग पर है, पृष्ठभूमि में पाषाण-भित्ति पर देवताओं और ऋषियों की पंक्तिबद्ध आकृतियाँ अंकित हैं। शेषनाग के पास गरुड़ की आकृति है। यह मूर्ति गुप्तकालीन कलाकारों की प्रतिभा का प्रमाण है।

वराह की वास्तविक आकार में निर्मित मूर्ति एरण से प्राप्त हुई है, जिसका निर्माण मातृविष्णु के भाई धान्यविष्णु ने करवाया था। इस पर हूण नरेश तोरमाण का लेख अंकित है। कूर्मवाहिनी यमुना तथा मकरवाहिनी गंगा की मूर्तियों का निर्माण इसी काल में हुआ।

शैव मूर्तियाँ

इस काल की शैव मूर्तियाँ मानवीय और लिंग दोनों रूपों में मिलती हैं। भगवान् शिव के एकमुखी एवं चतुर्मुखी शिवलिंग का निर्माण पहली बार इसी समय हुआ। इन मूर्तियों को मुखलिंग कहा जाता है। इस प्रकार के लिंग मथुरा, भीटा, कोशांबी, करमदंडा, खोह, भूमरा आदि स्थानों से मिले हैं। करमदंडा से चतुर्मुखी शिवलिंग की प्रतिमा का उदाहरण मिला है, जिसका निर्माण कुमारामात्य पृथ्वीषेण ने करवाया था। एकमुखी शिवलिंग की मूर्ति खोह से मिली है। करमदंडा और बिलसद अभिलेख में शिव की प्रतिमाओं के निर्माण का उल्लेख मिलता है। शिव के अर्धनारीश्वर रूप की रचना भी इसी काल में की गई। अर्धनारीश्वर रूप की दो मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में हैं। इनमें दायां भाग पुरुष एवं बायां भाग स्त्री का है। विदिशा से शिव के हरिहर स्वरूप की भी एक प्रतिमा मिली है, जो दिल्ली संग्रहालय में सुरक्षित है।

बौद्ध मूर्तियाँ

गुप्तकालीन बुद्ध की मूर्तियाँ अपनी सजीवता और मौलिकता के कारण उत्कृष्ट हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया तथा मध्य एशिया की कला पर गुप्तकालीन बौद्ध तक्षण कला का प्रभाव परिलक्षित होता है।

इस काल में निर्मित बुद्ध-मूर्तियाँ पाँच मुद्राओं में मिलती हैं- 1. ध्यान मुद्रा, 2. भूमिस्पर्श मुद्रा, 3. अभय मुद्रा, 4. वरद मुद्रा एवं 5. धर्मचक्र मुद्रा। गुप्त काल की बुद्ध-मूर्तियों के बाल घुँघराले हैं, उनका प्रभामंडल अलंकृत है तथा मुद्राओं में विविधता है। इस काल की बुद्ध-मूर्तियों में सारनाथ की बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति, मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की काँसे की बुद्ध-मूर्ति महत्त्वपूर्ण हैं। इन मूर्तियों में बुद्ध को शांत-चिंतन की मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। 448 ई. के मानकुँवर के लेख से पता चलता है कि बुद्धिमित्र नामक भिक्षु ने एक बुद्ध-मूर्ति स्थापित की थी (सम्यक्सम्बुद्धस्य स्वमिताविरुद्धस्य इयं प्रतिष्ठापिता भिक्षु बुद्धिमित्रेण)। 476 ई. के सारनाथ लेख में अभयमित्र नामक बौद्धभिक्षु द्वारा बुद्ध की मूर्ति-स्थापना का उल्लेख मिलता है।

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जैन मूर्तियाँ

गुप्त काल में जैन मूर्तियों की प्राप्ति का क्षेत्र विस्तृत हो गया। कुषाणकालीन कलावशेष जहाँ केवल मथुरा एवं चौसा से मिले हैं, वहीं गुप्तकाल में जैन मूर्तियाँ मथुरा एवं चौसा के अतिरिक्त राजगिरि, विदिशा, पन्ना, उदयगिरि, कहौम, वाराणसी एवं अकोटा (गुजरात) में भी मिली हैं। गुप्तकालीन जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों की मूर्तियों के अतिरिक्त इंद्र-इंद्राणी आदि देवगण, तीर्थंकरों के अनुचर, यक्ष-यक्षिणी, नाग-नागिन, देवी सरस्वती, नवग्रह आदि की प्रतिमाएँ मिली हैं। जिनों के साथ लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों के निरूपण की परंपरा भी गुप्तयुग में ही प्रारंभ हुई। इस काल की तीर्थंकर-प्रतिमाओं में सामान्य विशेषताएँ तो वही हैं जो कुषाणकाल में विकसित थीं, किंतु प्रतिमाओं का उष्णीष कुछ अधिक सांदर्य व घुंघरालेपन को लिये हुए पाया जाता है। प्रभावल में विशेष सजावट दिखाई देती है। आसन में अलंकारिता और साज-सज्जा, धर्मचक्र के आधार में अल्पता, परमेष्ठियों का चित्रण, गंधर्व-युगल का अंकन, नवग्रह तथा प्रभामंडल का प्रतिरूपण इस काल की मूर्तियों की विशेषता है। प्रतिमाओं की हथेली पर चक्र-चिन्ह तथा पैरों के तलुओं में चक्र और त्रिरत्न उकेरा जाता था। छत्र और छत्रावली तथा लांछन का अभाव इस समय की मूर्तियों में स्पष्ट दिखाई देता है।

मथुरा में गुप्तकाल में भगवान् पार्श्वनाथ की अपेक्षा भगवान् ऋषभनाथ की अधिक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हुई। मथुरा संग्रहालय में संरक्षित गुप्तकालीन जैन तीर्थंकर की एक प्रतिमा के सिंहासन पर एक ओर अपनी थैली सहित धनपति कुबेर और दूसरी ओर एक बालक को अपनी बाईं जाँघ पर बैठाये हुए देवी की आकृति उत्कीर्ण है। इनके ऊपर दोनों ओर चार-चार कमलासीन प्रतिमाएँ हैं। अलंकरण के आधार पर यह प्रतिमा गुप्तयुगीन मानी जाती है।

राजगिरि (बिहार) के पर्वत पर ध्वस्त जैन मंदिरों के अवशेष मिले हैं, जिसमें लगभग चौथी शती ई. की चार जिन मूर्तियाँ मिली हैं। इनमें एक वैभार पहाड़ी के ध्वस्त मंदिर से प्राप्त बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा है। राजगिरि के तृतीय पर्वत पर एक अन्य फणयुक्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा का सिंहासन एवं मुख-निर्माण गुप्तकला के अनुरूप है। इन मूर्तियों की शैलीगत विशेषताएँ उन शैलियों को प्रदर्शित करती हैं, जो सारनाथ तथा देवगढ़ में साकार हुई और जिन्होंने पूर्वी भारत में मूर्ति-निर्माण गतिविधि को प्रभावित किया।

चौसा (आरा, बिहार) से प्राप्त गुप्तकालीन जिन मूर्तियाँ पटना संग्रहालय में हैं। लगभग छठी शती ई. की एक ध्यानस्थ महावीर की मूर्ति वाराणसी से भी मिली है। राजगिरि की नेमि मूर्ति के समान ही इसमें भी धर्मचक्र के दोनों ओर महावीर के सिंह-लांछन उत्कीर्ण हैं। दुर्जनपुर गाँव (विदिशा, मध्यप्रदेश) से तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इन पर उत्कीर्ण लेखों की लिपि, मूर्तियों की निर्माण-शैली तथा ‘महाराजाधिराज’ उपाधि के साथ रामगुप्त के नामोल्लेख से स्पष्ट है कि इन मूर्तियों का निर्माण चौथी शती ई. के अंतिम चतुर्थांश में हुआ था। प्रतिमाओं की कला-शैली में कुषाणकालीन तथा पाँचवीं शती ई. की गुप्तकालीन मूर्तिकला के बीच के लक्षण दृष्टिगत होते हैं। दो पीठिका लेखों में तीर्थंकरों का नाम चंद्रप्रभ तथा तीसरे में पुष्पदंत मिलता है। उदयगिरि (विदिशा, मध्य प्रदेश) की एक गुफा (गुफा संख्या 20) में गुप्त संवत् 106 (425 ई.) के कुमारगुप्तकालीन एक शिलालेख में पार्श्वनाथ की प्रतिमा के निर्माण का उल्लेख है जो उनके सिर पर भयंकर नाग-फण के कारण भय-मिश्रित पूज्य भाव को प्रेरित करती है।

गुप्तकालीन जैन-प्रतिमाओं का एक समूह नचना (पन्ना, मध्य प्रदेश) के सीरा पहाड़ी से मिला है, जिनमें तीर्थंकर पद्मासन मुद्रा में अंकित हैं। उनके सिर के पीछे एक विस्तृत प्रभामंडल है जिसके शीर्ष के निकट दोनों ओर उड़ते हुए गंधर्व-युगल अंकित है।

कहौम (देवरिया, उत्तर प्रदेश) के 461 ई. के एक स्तंभलेख में मद्र नामक व्यक्ति द्वारा पाँच जिन मूर्तियों के स्थापित किये जाने का उल्लेख है। इन कायोत्सर्ग एवं दिगंबर जिन मूर्तियों की पहचान ऋषभनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर से की गई है। सीतापुर (उत्तर प्रदेश) से भी एक जिन मूर्ति मिली है। अकोटा (बड़ौदा, गुजरात) से चार गुप्तकालीन काँस्य-मूर्तियाँ मिली हैं। पाँचवीं-छठीं शती ई. की इन श्वेतांबर मूर्तियों में दो ऋषभनाथ की और दो जीवंतस्वामी महावीर की हैं। इन मूर्तियों में एक आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त तीर्थंकर ऋषभनाथ की धोती धारण किये हुए खड्गासन काँस्य प्रतिमा है जो विशुद्ध गुप्तकालीन शैली में है। इसकी तुलना सुलतानगंज से प्राप्त उत्कृष्टतापूर्वक ढाली हुई बुद्ध की ताम्र-प्रतिमा से की जाती है। एक ऋषभमूर्ति में धर्मचक्र के दोनों ओर दो मृग और पीठिका के छोरों पर यक्ष-यक्षिणी निरूपित हैं। यक्ष-यक्षणी के निरूपण का यह प्राचीनतम् ज्ञात उदाहरण है। जीवंतस्वामी की दो काँस्य-मूर्तियाँ (एक अभिलेखांकित पादपीठ सहित तथा दूसरी पादपीठ रहित) जैन कला तथा प्रतिमा विज्ञान के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। जीवंतस्वामी की पहली काँस्य-प्रतिमा का मुकुटसहित शीर्ष पूर्णतः सुरक्षित है। आध्यात्मिक ध्यान एवं आनंद तथा पूर्ण यौवन की आभा से प्रदीप्त मुखमंडलयुक्त महावीर की यह प्रतिमा कदाचित् अब तक प्राप्त मूर्तियों में श्रेष्ठतम् है। जीवंतस्वामी की दूसरी प्रतिमा में उन्हें एक ऊँचे अभिलेखांकित पादपीठ पर खड्गासन ध्यानमुद्रा में दिखाया गया है।

देवगढ़ में भी मूर्तियों का निर्माण प्रचुरता से हुआ। उनकी संख्या और विविधता से प्रतीत होता है कि यहाँ बहुत बड़ा मूर्ति का निर्माण-केंद्र था। मूर्तिकला की दृष्टि से देवगढ़ की अपनी स्वतंत्र शैली थी, जो गुप्तकाल में स्पष्टतर हो उठी। देवगढ़ की बहुसंख्यक मूर्तियों पर लांछन नहीं मिलता है और सभी शिलापट्टों पर उत्कीर्ण है। प्रायः सभी मूर्तियों के साथ भिन्न-भिन्न रूप से कुछ परंपराओं का निर्वाह किया गया है। गुप्तकाल तक आते-आते देवगढ़ का कलाकार मूर्तियों में सजीवता और भावना का संचार करने में पूर्ण सफल हो गया है।

इस प्रकार मथुरा, राजगिरि, विदिशा, नचना (सीरा पहाड़ी), उदयगिरि, कहौम, वाराणसी, अकोटा, चौसा तथा देवगढ़ आदि स्थानों से प्राप्त तीर्थंकर मूर्तियों से लगता है कि गुप्तकाल में तीर्थंकर प्रतिमाओं के कई निर्माण-केंद्र थे।

गुप्त युग का मूल्यांकन 

इसके अलावा इस काल में अन्य अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी बनाई गईं। इस काल की मयूरासनासीन कार्तिकेय की एक सुंदर मूर्ति पटना संग्रहालय में है। महिषासुर का वध करती हुई दुर्गा की एक मूर्ति उदयगिरि गुफा से मिली है।

मृण्डमूर्तियाँ

मिट्टी की मूर्तियों का प्रयोग धार्मिक एवं धर्मेतर दोनों कार्यों में होता था। पहाड़पुर, राजघाट, भीटा, कोशांबी, श्रावस्ती, अहिछत्र, मथुरा आदि स्थानों से विष्णु, कार्तिकेय, दुर्गा, गंगा, यमुना आदि देवी-देवताओं की मृण्डमूर्तियाँ मिली हैं। अहिछत्र से प्राप्त गंगा, यमुना की मूर्तियाँ और पार्वती का सिर सुंदर हैं। मीरपुर खास (सिंधु) स्तूप में मिट्टी की बनी बुद्ध-मर्तियाँ गुप्तकालीन मृद्भांड कला का सुंदर उदाहरण हैं।

कुछ मृण्डमूर्तियों में उच्चकोटि की कारीगरी का प्रदर्शन है। एक गोल फलक पर रथ पर आसीन सूर्य का चित्रण है, जिसमें रथ को सात घोड़े खींच रहे हैं और दो देवियाँ- उषा और प्रत्यूषा प्रकाश बिखेर रही हैं। कुछ मृण्डफलक शिव के जीवन की प्रमुख घटनाओं से संबंधित हैं। पहाड़पुर से कृष्ण की लीलाओं से संबंधित कई मृण्डमूर्तियाँ पाई गई हैं। श्रावस्ती की एक नारी-मृण्डमूर्ति में दो बालक साथ बैठे हुए हैं जिनके सामने लड्डू से भरी थाली का अंकन है। गुप्तकालीन मृद्भांडों में सबसे विशिष्ट लाल मृद्भांड था।

गुप्तकालीन चित्रकला

गुप्तकाल चित्रकला का स्वर्णयुग माना जाता है जब चित्रकला अपनी पूर्णता को प्राप्त हुई। वात्स्यायन के कामसूत्र में चित्रकला की गणना चौंसठ कलाओं में की गई है। विष्णुधर्मेतर पुराण में मूर्ति, चित्र आदि कलाओं के विधान प्राप्त होते हैं। इस युग के नाटकों एवं काव्यों के अनुसार सभी नागरिक चित्रकला का ज्ञान प्राप्त करते थे। कामसूत्र से पता चलता है कि चित्रकला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित थी और उसका वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन-अध्यापन होता था। कालीदास की रचनाओं में चित्रकला के विषय के अनेक प्रसंग हैं। मेघदूत में यक्ष-पत्नी के द्वारा यक्ष के भावगम्य चित्र का उल्लेख है।

बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि चित्रकला का पूर्ण प्रचार बुद्ध के जीवनकाल में ही हो चुका था। विहारों में चित्र-अलंकरण का वर्णन मूल सर्वास्तिवादिन् संप्रदाय के विनय में पाया जाता है। गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्तम दृष्टांत महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद में स्थित अजंता तथा ग्वालियर के समीप स्थित बाघ की गुफाओं से प्राप्त हुए हैं। अजंता तथा बाघ की चित्रकला में ‘मध्यदेश शैली’ अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती है।

किंतु इन क्षेत्रों में चित्रकला के विकास का श्रेय गुप्त शासकों नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि यह क्षेत्र गुप्त शासकों के प्रत्यक्ष नियंत्रण में कभी नहीं रहा।

गुप्तकालीन साहित्यिक एवं वैज्ञानिक प्रगति

अजंता की चित्रकला 

अजंता की चित्रकला में गुप्तकालीन चित्रकला का सर्वोत्कृष्ट रूप दिखाई पड़ता है। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में जलगाँव नामक स्टेशन के निकट अजंता में चट्टान को तराश कर कुल 29 गुफाएँ निर्मित की गईं थीं, जिनमें से मात्र छः (1-2, 9-10, 16-17) ही शेष हैं। गुफा संख्या 1 व 2 गुप्तोत्तर काल (लगभग 628 ई.) की हैं, जबकि गुफा संख्या 9 तथा 10 गुप्तकाल से पूर्व (प्रथम शताब्दी ई.) की हैं। गुफा संख्या 16-17 को गुप्तकालीन माना जाता है।

अजंता के चित्रों के मुख्यतः तीन विषय है- अलंकरण, चित्रण और वर्णन। इन गुफाओं में प्राकृतिक सौंदर्य के फूल-पत्तियाँ, वृक्षों एवं पशु-पक्षियों, अप्सराओं, किन्नरों, नागों, गंधर्वों, यक्षों आदि अलौकिक आकृतियों साथ-साथ बुद्ध एवं बोधिसत्वों के चित्र तथा जातक कहानियों के दृश्यों का चित्रण किया गया है। अजंता में फ्रेस्को तथा टेम्पेरा दोनों ही विधियों से चित्र बनाये गये हैं।

पहले में गीले प्लास्टर पर चित्र बनाये जाते थे तथा चित्रकारी विशुद्ध रंगों द्वारा की जाती थी। दूसरी विधि में सूखे प्लास्टर पर चित्रों का अंकन किया जाता था तथा रंग के साथ अंडे की सफेदी एवं चूना मिलाया जाता था। शेखचूर्ण, शिलाचूर्ण, सिता मिश्री, गोबर, सफेद मिट्टी, चोकर आदि को फेंटकर गाढ़ा लेप तैयार किया जाता था। चित्र बनाने से पूर्व दीवार को भलीभाँति रगड़कर साफ किया जाता था तथा फिर उसके ऊपर लेप चढ़ाया जाता था। चित्र का खाका बनाने के लिए लाल खड़ियाँ का प्रयोग होता था। रंगों में लाल, पीला, नीला, काला तथा सफेद रंग प्रयोग किये जाते थे। अजंता के पूर्व कहीं भी चित्रण में नीले रंग का प्रयोग नहीं मिलता है। लाल एवं पीले रंग का प्रयोग अधिक किया गया है।

गुप्तकालीन कला और स्थापत्य (Gupta Art and Architecture)
अजंता की चित्रकला
गुफा संख्या 16

 तकनीकी दृष्टि से अजंता के चित्रों का विश्व में पहला स्थान है। अजंता की गुफा संख्या सोलह में उत्कीर्ण ‘मरणासन्न राजकुमारी’ का चित्र प्रशंसनीय है जो ‘करुणा, भाव एवं अपनी कथा को स्पष्ट ढ़ंग से व्यक्त करने की दृष्टि से चित्रकला के इतिहास में अनतिक्रमणीय है।’ पति के विरह में मरणासन्न राजकुमारी के चारों ओर परिजन शोकाकुल अवस्था में खड़े हैं। एक सेविका उसे सहारा देकर ऊपर उठाये है और दूसरी पंखा झल रही है। विद्वानों ने इसकी पहचान बुद्ध के सोतेले भाई नंद की पत्नी सुंदरी से किया है।

सोलहवीं गुफा के एक दृश्य में बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का चित्रण है जिसमें वे अपनी पत्नी, पुत्र तथा परिचायिकाओं को छोड़कर जाते हुए दिखाये गये हैं। इसके अलावा सुजाता का खीर-अर्पण, माया का स्वप्न-दर्शन आदि का अंकन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। बुद्ध के जन्म तथा उनके सात पग चलने की कथा को कमल के सात फूलों के प्रतीक के माध्यम से चित्रित किया गया है। इस गुफा में बुद्ध की पाठशाला का भी चित्र है जिसमें क्रीड़ारत बच्चे चित्रित किये गये हैं।

गुफा संख्या 17

गुफा संख्या 17 के चित्र विविध प्रकार के हैं, जिन्हें ‘चित्रशाला’ कहा गया है। विश्व कला के इतिहास में इस चित्रशाला का अद्वितीय महत्त्व है। इसमें बुद्ध के जन्म, जीवन, महाभिनिष्क्रमण एवं महापरिनिर्वाण की घटनाओं से संबंधित चित्र उकेरे गये हैं। समस्त चित्रों में ‘माता और शिशु’ नामक चित्र सर्वोत्कृष्ट है जिसमें संभवतः बुद्ध की पत्नी अपने पुत्र को उन्हें समर्पित कर रही हैं। इसके अलावा पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, बालक के साथ अंधे माता-पिता, मूर्छित रानी, बोधिसत्त्व द्वारा संन्यास की घोषणा, तुषिता स्वर्ग में बुद्ध का स्वागत करने के लिए इंद्र की उड़ान, काले मृग, हाथी एवं सिंह के शिकार के दृश्यों का अंकन आदि सभी सुंदर हैं। इन गुफाओं का निर्माण हरिषेण नामक एक वाकाटक सामंत ने कराया था।

बाघ की चित्रकला

बाघ की गुफाओं के भित्ति-चित्रों को भी गुप्तकालीन माना जाता है यद्यपि इनके निर्माण में गुप्तों की कोई स्पष्ट भूमिका नहीं थी। बाघ मध्य प्रदेश में ग्वालियर के समीप धार में बाघिनी नामक छोटी सी नदी के बायें तट पर और विंध्य पर्वत के दक्षिण ढलान पर स्थित है। बाघ की गुफाएँ विंध्य पहाड़ियाँ को काटकर बनाई गई हैं। स्मिथ का अनुमान है कि अजंता में गुहा-निर्माण का कार्य समाप्त होने के बाद बाघ की गुफाओं का निर्माण किया गया। संभवतः बाघ की गुफाएँ भगवान् बुद्ध की दिव्यवार्ता प्रतिपादित करने हेतु निर्मित एवं चित्रित की गई थीं। 1818 ई. में डेंजरफील्ड ने यहाँ नौ गुफाओं का पता लगाया, जिनमें से पहली, सातवीं, आठवीं और नवीं गुफा नष्टप्राय हैं, चौथी और पाँचवी गुफाओं के भित्ति-चित्र सबसे अधिक सुरक्षित अवस्था में हैं। बाघ की गुफाओं में बुद्ध, बोघिसत्व के चित्रों के अतिरिक्त लौकिक जीवन से संबंधित राजदरबार, संगीत दृश्य, पुष्पमाला दृश्य आदि का चित्रण महत्त्वपूर्ण है।

गुप्तकालीन धर्म और धार्मिक जीवन 

गुफा संख्या दो ‘पांडव गुफा’ के नाम से जानी जाती है, जिसमें सबसे प्रसिद्ध चित्र ‘पद्मपाणि बुद्ध’ का है। तीसरी गुफा को ‘हाथीखाना’ और चौथी-पाँचवीं गुफा को संयुक्त रूप से ‘रंगमहल’ के नाम से जाना जाता है। रंगमहल में नृत्य एवं संगीत के दृश्य की प्रतिकृति है, जिसमें सुंदर अल्पवस्त्र धारण किये घेरा बनाकर नर्तकियों को नृत्य करते हुए चित्रित किया गया है। नवयुवतियों के वस्त्र, केश-विन्यास, वाद्य-यंत्र तत्कालीन वैभव के प्रतीक हैं। इसमें छः दृश्य सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। पहला, दृश्य राजकुमारी और उसकी सेविका का है, दूसरा, दृश्य दो जोड़ों का है जो एक-दूसरे के सम्मुख बैठकर शास्त्रार्थ में लीन लगते हैं। बाईं ओर एक स्त्री-पुरुष हैं जिनके सिर पर मुकुट होने के कारण उन्हें राजा-रानी माना जा सकता है। दूसरा जोड़ा सामान्य है। तीसरा, एक संगीत का दृश्य है जिसमें स्त्री-समूह के बीच एक स्त्री वीणा बजाते हुए चित्रित है। इसमें मुकुटवाली स्त्री नायिका लगती है। चौथा दृश्य एक संगीतयुक्त नृत्य के अभिनय का है, इनके चक्राकार नृत्य को भारतीय परंपरा में ‘हल्लीसक’ कहा गया है, जिसकी उत्पत्ति कृष्ण के रासलीला से मानी जाती है। पाँचवें दृश्य में सामूहिक नृत्य को सम्राट और उसके घुड़सवार सैनिक देखते हुए चित्रित किये गये हैं। छठवाँ दृश्य हाथियों तथा घोड़ों पर सवार स्त्री-पुरुषों का है। हाथी पर एक भीमकाय पुरुष बैठा है तथा तीन स्त्रियाँ बैठी हैं, बीच की स्त्री कंचुकी पहने है, जबकि शेष के ऊपरी भाग नग्न हैं। इसी प्रकार इसके पीछे भी दूसरा हाथी है जिस पर पहले जैसा पुरुष और तीन स्त्रियाँ बैठी हुई हैं।

वस्तुतः यहाँ के प्राकृतिक-सौंदर्य ने चित्रकला के विकास में अप्रतिम् योगदान दिया है। चाहे लता वल्लरी हो अथवा घोड़े व हाथी, राजा हो या संन्यासी, नृत्य-संगीत हो या युद्धक्षेत्र, करुण रस हो या श्रॄंगार, सभी में कलाकार की सहज कुशलता का परिचय मिलता है। मार्शल के शब्दों में ‘बाघ के चित्र जीवन की दैनिक घटनाओं से लिये गये हैं, किंतु वे जीवन की सच्ची घटनाओं को ही चित्रित नहीं करते, वरन् उन अव्यक्त भावों को स्पष्ट कर देते हैं जिनको प्रकट करना उच्च कला का लक्ष्य है।’

संगीत, नृत्य व अभिनय

गुप्त काल में संगीत, नृत्य और अभिनय कला का भी विकास हुआ। वात्स्यायन ने संगीत का ज्ञान प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक बताया है। समुद्रगुप्त स्वयं संगीत का ज्ञाता और कुशल वीणावादक था। ‘वेणु’ नामक वाद्य-यंत्र प्रियतमा को आकर्षित करने का मूलमंत्र था। मालविकाग्निमित्र से पता चलता है कि नगरों में संगीत की शिक्षा के लिए कला-भवन होते थे। गणदास को संगीत व नृत्य का आचार्य बताया गया है। उच्च वर्ग की कन्याओं को नृत्य की शिक्षा दी जाती थी। नाटकों के अभिनय के लिए नाट्यशालायें होती थीं जिन्हें ‘प्रेक्षागृह’ तथा ‘रंगशाला’ कहा जाता था।

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