गुप्तकालीन सामाजिक जीवन (Social Life in Gupta Period)

गुप्तकालीन भारतीय समाज गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित […]

गुप्तकालीन सामाजिक जीवन (Social Life in Gupta Period)

गुप्तकालीन भारतीय समाज

गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित था। पहले की तरह इस काल में भी ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। गुप्तकाल से पहले ब्राह्मणों के छह कार्य थे—अध्ययन, अध्यापन, पूजा-पाठ कराना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना। क्षत्रियों का कर्तव्य शस्त्रों के द्वारा राष्ट्र की रक्षा करना था। वैश्यों का व्यवसाय वाणिज्य था, जबकि शूद्रों का मुख्य कर्तव्य सेवा करना था।

ब्राह्मण

गुप्तकाल में जातिगत व्यवसाय का बंधन शिथिल होने लगा था। इस समय ब्राह्मण भी अन्य वर्णों के व्यवसाय अपनाने लगे थे, जिसे ‘आपद्धर्म’ कहा गया। कुछ ब्राह्मण राजवंशों के उदाहरण भी मिलते हैं। उदाहरण के लिए विंध्यशक्ति नामक ब्राह्मण ने योद्धा का कर्म अपनाया और वाकाटक राजवंश की स्थापना की। मानव्य गोत्र के ब्राह्मण मयूरशर्मन ने वनवासी में कदंब राज्य स्थापित किया और अठारह बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। ब्राह्मण इंद्रविष्णु के पुत्र मातृविष्णु ने भी ‘महाराज’ पद प्राप्त किया, जो गुप्तों का सामंत था। क्षत्रिय कर्म के अतिरिक्त, ब्राह्मण अन्य वर्णों के व्यवसाय भी अपनाने लगे थे। ‘मृच्छकटिकम’ से पता चलता है कि चारुदत्त नामक ब्राह्मण वणिक का कार्य करता था। ब्राह्मणों की पवित्रता पर बहुत बल दिया जाता था और कुछ गुप्तकालीन ग्रंथों में ब्राह्मणों को शूद्रों द्वारा दिए गए अन्न को ग्रहण न करने का निर्देश दिया गया। याज्ञवल्क्य के अनुसार स्नातकों को शूद्रों और पतितों का अन्न नहीं खाना चाहिए, किंतु बृहस्पति ने संकटकाल में ब्राह्मणों को शूद्रों और दासों से अन्न ग्रहण करने की अनुमति दी।

दायविधि में नियम था कि उच्च वर्ण के शूद्रापुत्र को संपत्ति में सबसे कम हिस्सा मिलेगा। विष्णु के अनुसार ब्राह्मण के शूद्रापुत्र को पिता की संपत्ति का आधा हिस्सा मिलेगा। गड़ा खजाना ब्राह्मण को पूर्ण रूप से लेने का अधिकार था, किंतु यदि खजाना क्षत्रिय को मिले, तो एक-चौथाई राजा को, एक-चौथाई ब्राह्मण को और आधा वह स्वयं रखेगा। यदि वैश्य को निखात निधि मिले, तो एक-चौथाई राजा को, आधा ब्राह्मण को और एक-चौथाई वह स्वयं रखेगा। परंतु शूद्र को खजाना बारह भागों में बाँटकर पाँच-पाँच भाग ब्राह्मण और राजा को देना होगा और दो भाग स्वयं रखेगा। इस प्रकार वर्ण-भेदक नियमों के माध्यम से गुप्तकाल में भी ब्राह्मणों का एकाधिकार बनाए रखने का प्रयास किया गया। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में और वराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता’ में चारों वर्णों के लिए अलग-अलग बस्तियों का विधान किया।

क्षत्रिय

गुप्तकाल में ब्राह्मणों और क्षत्रियों को संयुक्त रूप से ‘द्विज’ कहा गया और दोनों के बीच एकता पर बल दिया गया। इससे प्रतीत होता है कि परंपरागत सामाजिक व्यवस्था से असंतुष्ट वैश्यों और शूद्रों की ओर से उन्हें चुनौती मिलने लगी थी। यद्यपि समाज में क्षत्रियों का कर्म—शासन और सैन्य संचालन सर्वाधिक महत्वपूर्ण था और वे देश व समाज की रक्षा करते थे, किंतु उन्हें ब्राह्मणों के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे और समाज में उनका स्थान दूसरा था। ह्वेनसांग ने क्षत्रियों की कर्मनिष्ठा की प्रशंसा की और उन्हें निर्दोष, सरल, पवित्र, सौम्य और मितव्ययी बताया। उनके अनुसार क्षत्रिय राजाओं की जाति थी। हिंदू धर्मशास्त्रों में क्षत्रियों को संकटकाल में निम्न वर्णों के कर्म अपनाने की अनुमति थी। स्कंदगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र अभिलेख से पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय वैश्यों का कार्य भी करते थे।

वैश्य

वैश्यों का मुख्य कार्य कृषि और पशुपालन था। गुप्तकाल में इन्हें ‘वणिक’, ‘श्रेष्ठी’ और ‘सार्थवाह’ कहा गया। ह्वेनसांग ने भी इन्हें व्यवसायी जाति माना। पुराणों के अनुसार इनका कार्य कृषि, पशुपालन और वाणिज्य था। गुप्तकालीन साहित्य से पता चलता है कि वैश्य कर्षक (किसान) थे और ‘अमरकोष’ में भी कर्षकों को वैश्य वर्ग में गिना गया। विष्णु और याज्ञवल्क्य के अनुसार आधी उपज पर खेत शूद्रों को दिए जाते थे, जिससे स्पष्ट है कि शूद्र भी कर्षक बन जाते थे। वैश्यों द्वारा क्षत्रिय व्यवसाय अपनाने के उदाहरण भी मिलते हैं। गुप्त शासक संभवतः स्वयं वैश्य थे। वास्तव में, वैश्य वर्ग में अनेक व्यवसायों के लोग शामिल थे, जैसे कृषक, व्यापारी, लुहार, सोनार, बढ़ई, तेली, बुनकर, पशुपालक और मालाकार। ब्राह्मणों और क्षत्रियों की तरह वैश्यों को भी आपत्तिकाल में अन्य कर्म अपनाने की अनुमति थी।

शूद्र

मनु के अनुसार शूद्र का एकमात्र कर्म ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। किंतु गुप्तकाल में उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए शूद्रों को सैनिक वृत्ति, व्यापारी, कारीगर और कृषक बनने की अनुमति दी गई। याज्ञवल्क्य ने शूद्रों को व्यापारी, कृषक और कारीगर बनने की स्वीकृति दी। ह्वेनसांग के विवरण और ‘नृसिंह पुराण’ से पता चलता है कि शूद्रों ने कृषि कार्य अपनाया था।

इस काल में करदायी किसानों के रूप में शूद्रों का बार-बार उल्लेख मिलता है, जो उनकी बेहतर होती आर्थिक स्थिति का संकेत है। किंतु इस काल में भी अन्य वर्णों की सेवा को शूद्र का धर्म बताया गया। ‘कामसूत्र’ के अनुसार उन्हें भोजन और पेय देने के अलावा मासिक या वार्षिक वेतन मिलना चाहिए। ‘वायु पुराण’ में शिल्प और भृति (सेवा) को उनके दो कर्तव्य बताया गया। अब शिल्पकर्म शूद्रों का सामान्य व्यवसाय बन गया था। ‘अमरकोष’ में शिल्पियों की सूची शूद्र वर्ग में शामिल है, जो इस बात का प्रमाण है कि शूद्र सभी प्रकार के शिल्प और कलाओं का व्यवसाय करने लगे थे।

गुप्तकाल में वाणिज्य भी शूद्रों का व्यवसाय माना जाने लगा। बृहस्पति ने प्रत्येक प्रकार की वस्तुओं की बिक्री को शूद्रों का सामान्य कर्तव्य बताया है और पुराणों में शूद्रों को क्रय-विक्रय और व्यापारिक लाभ से जीवन-निर्वाह करने की अनुमति दी गई। संभवतः समाज में शूद्रों का एक बड़ा वर्ग मजदूरी भी करता था। ‘अमरकोष’ में मजदूरी के सभी ग्यारह पर्याय शूद्र वर्ग में आए हैं। बृहस्पति द्वारा वर्णित पारिश्रमिक की दरों से पता चलता है कि गुप्तकाल के अंतिम भाग में कृषकों की मजदूरी दोगुनी हो गई थी। वे बिना अन्न और वस्त्र के काम करते थे, जिससे प्रतीत होता है कि वे अब अपने भरण-पोषण के लिए नियोजकों पर निर्भर नहीं थे। कुल मिलाकर शूद्रों की स्थिति अपेक्षाकृत संतोषजनक थी, क्योंकि धर्मशास्त्रों में शूद्रों को अछूतों और दासों से स्पष्ट रूप से पृथक बताया गया।

धार्मिक दृष्टि से शूद्रों के लिए सन्यास आश्रम वर्जित था। ‘विष्णु पुराण’ में कहा गया है कि यदि कोई ब्राह्मण शूद्र के यज्ञ में सहायक होगा, तो वह नरकगामी होगा। ‘ब्रह्मांड पुराण’ में कहा गया कि श्राद्ध का अवशिष्ट अन्न शूद्र को देने से श्राद्ध का फल नहीं मिलता। फिर भी, शूद्रों की धार्मिक स्थिति में सुधार के संकेत मिलते हैं। ‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार यदि शूद्र भक्ति में निमग्न रहे, मदिरापान न करे, इंद्रियों को वश में रखे और निर्भय रहे, तो उसे भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है। ‘मारकंडेय पुराण’ में दान देना और यज्ञ करना शूद्र का कर्तव्य बताया गया। याज्ञवल्क्य ने शूद्रों को ‘ओंकार’ के बजाय ‘नमः’ शब्द का प्रयोग कर ‘पंचमहायज्ञ’ करने की अनुमति दी। शूद्रों को ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और कभी-कभी वेद सुनने का अधिकार मिल गया था। सांख्य और योग दर्शन अब शूद्रों के लिए वर्जित नहीं थे और गुप्तकाल में कई शिक्षित शूद्रों के उदाहरण भी मिलते हैं।

नवीन अनुसंधानों से प्रतीत होता है कि शूद्र तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था से असंतुष्ट थे। ग्रंथों में उन्हें राजा का नाशक, विरोधी, हिंसक, अहंकारी, क्रोधी, मिथ्याभाषी, लोभी, नास्तिक, आलसी और अपवित्र कहा गया है। इससे लगता है कि शूद्रों और शासक वर्ग के बीच संबंध मधुर नहीं थे। यही कारण है कि ‘महाभारत’ के शांतिपर्व में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच मेल-मिलाप की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। संभवतः गुप्तकाल में वर्णों के बीच संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था, किंतु शूद्रों की स्थिति में कुछ सुधार अवश्य हुआ था।

मिश्रित जातियाँ

गुप्तकालीन स्मृतियों में अनेक मिश्रित जातियों का उल्लेख मिलता है, जैसे—मूर्धाभिषिक्त, अम्बष्ठ, पारशव, उग्र और करण। इनमें अम्बष्ठ, उग्र, और पारशव की संख्या अधिक थी। ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान को ‘अम्बष्ठ’ कहा गया है। ‘विष्णु पुराण’ में इन्हें नदी तट का निवासी माना गया है और मनु ने इनका मुख्य व्यवसाय चिकित्सा बताया है। पारशव जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से मानी गई है, इन्हें निषाद भी कहा जाता था। गौतम के अनुसार वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री से उत्पन्न जाति ‘उग्र’ थी, किंतु स्मृतियों में इसे क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से उत्पन्न माना गया। इनका मुख्य कार्य बिलों से जानवरों को निकालकर जीवन-यापन करना था।

अस्पृश्यता

फाह्यान के अनुसार गुप्तकालीन समाज में एक अस्पृश्य (अछूत) वर्ग विद्यमान था। पाणिनि ने इसका उल्लेख ‘निरवसित’ शूद्र के रूप में किया। यह जाति सबसे निम्न वृत्तियों का पालन करती थी। गुप्तकाल के ग्रंथों में अछूतों, विशेषकर चांडालों का वर्णन अत्यंत अपमानजनक है,और उन्हें अपवित्र, असत्यवादी, चोर, झगड़ालू, क्रोधी और लोभी कहा गया है। चांडालों का मुख्य पेशा सड़कों या गलियों की सफाई, श्मशान घाट की रखवाली, अपराधियों को फाँसी देना और रात में चोरों को पकड़ना था। संभवतः यह जाति शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री (प्रतिलोम विवाह) से उत्पन्न थी। स्मृतियों में शूद्रों और अस्पृश्यों में अंतर किया गया, किंतु ‘अमरकोष’ में वर्णसंकरों और अस्पृश्यों को शूद्र वर्ग में शामिल किया गया।

वास्तव में, इस काल में ब्राह्मणों की पवित्रता पर जितना बल दिया गया, उतना ही अछूतों की अपवित्रता पर भी। यदि किसी ‘द्विज’ की दृष्टि अस्पृश्य पर पड़ जाती थी, तो वह अपवित्र हो जाता था और उसे शुद्धि के लिए धार्मिक अनुष्ठान करना पड़ता था। फाह्यान के विवरण से पता चलता है कि अछूतों को बस्ती के बाहर रहना पड़ता था और बस्ती में प्रवेश के समय ढोल बजाना पड़ता था, ताकि लोग उनके आगमन की सूचना पाकर उनके स्पर्श से बच सकें।

गुप्तकाल में न केवल अस्पृश्यता विकसित हुई, बल्कि चांडालों की संख्या में भी वृद्धि हुई। विंध्य जंगल में शबर जाति के लोग निवास करते थे, जो अपने देवताओं को मानव मांस चढ़ाते थे। डोम्ब नामक जाति भी संभवतः इस समय एक स्वतंत्र जाति के रूप में उभरी, जिन्हें जैन स्रोतों में भी अछूत माना गया। इस प्रकार अछूत सिद्धांततः शूद्र माने जाते थे, किंतु व्यवहार में वे पृथक थे और उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी।

दास प्रथा

गुप्तकाल में दास प्रथा प्रचलित थी। मनु ने सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया, किंतु नारद के अनुसार पंद्रह प्रकार के दास थे, जिनमें मुख्य थे—(1) उपहार आदि से प्राप्त दास, (2) स्वामी द्वारा प्रदत्त दास, (3) ऋण न चुका पाने के कारण बना दास, (4) दाँव पर हारा हुआ दास (पासा आदि खेलों में), (5) स्वयं दासत्व ग्रहण करने वाला, (6) निश्चित समय के लिए दास बनने वाला, (7) दासी के प्रेम में फँसकर बना दास और (8) आत्म-विक्रयी दास (स्वयं को बेचकर)। ‘मृच्छकटिकम’ से पता चलता है कि दास की कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती थी।

मौर्यकाल में दास उत्पादन कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेते थे, किंतु गुप्तकाल में दासों को उत्पादन कार्यों से अलग रखा गया। नारद और बृहस्पति ने स्पष्ट किया कि दास केवल अपवित्र कार्यों में लगाए जाते थे। इससे प्रतीत होता है कि इस समय दासों की स्थिति दयनीय थी। याज्ञवल्क्य, नारद और कात्यायन ने कहा कि दास स्वामी के वर्ण से नीचे का होना चाहिए। कात्यायन के अनुसार दासता ब्राह्मणों के लिए नहीं थी और कोई ब्राह्मण किसी ब्राह्मण का दास नहीं बन सकता। यदि कोई ब्राह्मण दास बन भी जाए, तो उसे वैदिक अध्ययन जैसे पुण्य कार्य ही करने चाहिए। किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि दासता केवल शूद्रों तक सीमित थी।

दासियों के बारे में भी जानकारी मिलती है। ‘अमरकोष’ में ‘दासी सभम’ का वर्णन है, जिससे प्रतीत होता है कि गुप्तकाल में दासियों का भी अस्तित्व था। जैन ग्रंथों से पता चलता है कि आदिम जातियों से दासियाँ और चेरियाँ ली जाती थीं। जब कोई दासी अपने स्वामी के पुत्र को जन्म देती थी, तो वह स्वतंत्र हो जाती थी। संभवतः दासों को दासत्व से मुक्त करने का प्रथम प्रयास नारद ने किया, क्योंकि उन्होंने दासमुक्ति के अनुष्ठान का विधान किया।

अनेक प्रमाणों से पता चलता है कि गुप्तकाल में दास प्रथा कमजोर हो रही थी। रामशरण शर्मा के अनुसार वर्ण व्यवस्था के कमजोर होने से दास प्रथा में कमी आई। वर्ण प्रथा का नियम था कि शूद्र को दास बनाना चाहिए, किंतु गुप्तकालीन पुराणों से प्रतीत होता है कि वैश्य और शूद्र अपने वर्ण-धर्म का पालन नहीं कर रहे थे, जिससे वर्ण-संकट की स्थिति उत्पन्न हुई।

गुप्तकालीन अनेक पुराणों, बौद्ध जातकों और कुछ जैन ग्रंथों में ‘कलियुग’ का वर्णन है, जो संभवतः उत्पादन पद्धति में आए परिवर्तनों का सूचक है। पता चलता है कि एक ओर अंत्यजों का मध्यम वर्ग में रूपांतरण हो रहा था, तो दूसरी ओर कृषि और व्यापार में लगे वैश्य शूद्रों के निकट आ रहे थे। ‘विष्णु पुराण’ में कहा गया कि वैश्य कृषि और व्यापार का परित्याग कर शूद्रों के व्यवसाय अपनाएँगे और तुच्छ शिल्पी बन जाएँगे। भूमिगत संपत्ति के बँटवारे, धार्मिक भूमिदानों और कुछ विदेशी आक्रमणों से उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता के कारण बड़े पैमाने पर दासों की छँटनी हुई, जिससे दास प्रथा क्षीण होने लगी। लगभग 600 ई. में रचित ‘मनुस्मृति’ पर भारुचि की टीका में दासों के संपत्ति-संबंधी अधिकारों का विस्तृत वर्णन मिलता है।

वास्तव में, शहरीकरण के पतन, मुद्रा व्यवस्था के ह्रास और सीमित ग्राम-अर्थव्यवस्था से जिस नवीन सामंती उत्पादन प्रणाली का विकास हो रहा था, उसमें दासों का रूपांतरण और कृषकों व शिल्पियों का दमन व शोषण बढ़ रहा था। यही कारण है कि अब बाध्य श्रम (बेगार) न केवल राजाओं, बल्कि भूमिगत कुलीन वर्ग और भूमि-अनुदान प्राप्तकर्ताओं द्वारा भी लिया जाने लगा।

कायस्थ

गुप्तकालीन अभिलेखों में कायस्थ जाति का उल्लेख मिलता है, जिसकी गणना किसी उपजाति में नहीं थी। इस काल के अभिलेखों में इनका उल्लेख ‘प्रथम कायस्थ’ या ‘ज्येष्ठ कायस्थ’ के रूप में हुआ है। संभवतः ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जो लेखक या अधिकारी का काम करते थे, कायस्थ कहलाते थे। वास्तव में, भूमि और भू-राजस्व के हस्तांतरण के कारण कायस्थ जाति का उदय हुआ, जिन्होंने ब्राह्मण लेखकों के एकाधिकार को समाप्त किया। यही कारण है कि ब्राह्मण रचनाओं में उनके प्रति अपमानजनक और तिरस्कारपूर्ण विचार व्यक्त किए गए। कायस्थ मूलतः राजकीय सेवाओं से संबद्ध थे, जो लेखाकरण, आय-व्यय और भूमिकर के अधिकारी होते थे। इनका सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य ने किया। गुप्तकाल तक कायस्थ केवल एक वर्ग के रूप में थे, जो कालांतर में एक जाति बन गए।

स्त्री-दशा

गुप्तकालीन साहित्य और कला में नारी का आदर्श रूप दर्शाया गया, किंतु व्यावहारिक दृष्टि से समाज में उनका स्थान गौण था। साहित्य में स्त्रियों के सम्मान और मर्यादा का वर्णन है और पत्नी के बिना जीवन को शून्य माना गया। गुप्तकाल के सिक्कों पर कुमारदेवी और लक्ष्मी के चित्र उच्च वर्ग की स्त्रियों के सम्मान के सूचक हैं। पत्नी को सखी, सचिव और प्रिय शिष्या कहा गया (‘गृहिणी सचिवः सखी मिथः प्रियशिष्या’). पाणिग्रहण के कारण पत्नी को पुरुष की सहधर्मिणी माना जाता था, जो समस्त रोगों और दुखों का निदान थी। किंतु व्यावहारिक जीवन में पत्नी को व्यक्तिगत संपत्ति समझा जाता था, जिसे दान दिया या गिरवी रखा जा सकता था।

गुप्तकाल में बाल विवाह और सती प्रथा प्रचलित थीं। पति की मृत्यु पर पत्नी को सती होने के लिए प्रेरित किया जाता था। उत्तर भारत की कुछ सैनिक जातियों में सती प्रथा का व्यापक उल्लेख मिलता है। ‘मृच्छकटिकम’ में चारुदत्त की पत्नी सती होने के लिए प्रस्तुत दिखाई गई। सती प्रथा का प्रथम प्रमाण 510 ई. के भानुगुप्त के एरण अभिलेख से मिलता है, जिसमें गोपराज (सेनापति) की मृत्यु पर उसकी पत्नी के सती होने का वर्णन है। यद्यपि जनसाधारण में सती प्रथा का व्यापक प्रचलन नहीं था, किंतु विधवाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उच्च वर्ग की विधवाओं का जीवन विशेष रूप से कष्टपूर्ण था। बृहस्पति के अनुसार पति की मृत्यु पर जो पतिव्रता साध्वी निष्ठा का पालन करती है, वह सब पापों से मुक्त होकर पतिलोक प्राप्त करती है।

गुप्तकालीन स्मृतियों में विधवाओं के लिए ब्रह्मचर्य, व्रत और नियमों का विधान किया गया। नारद और पराशर स्मृति में विधवा विवाह का समर्थन किया गया। ‘महाभारत’ में पति की मृत्यु के बाद देवर से विवाह की अनुमति दी गई। वशिष्ठ ने संयोग से पूर्व पति की मृत्यु होने पर बाला को अक्षतयोनि माना और उसके पुनर्विवाह को लोकाचार के अनुकूल बताया:

पाणिग्रहे मृते बाला केवलं मं संस्कृता।

सा चेदक्षतयोनिः स्यात् पुनः संस्कारमर्हति।।

इस काल में उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियाँ विदुषी और कलाकार थीं, जिससे प्रतीत होता है कि उन्हें कुछ शिक्षा दी जाती थी। किंतु याज्ञवल्क्य स्मृति में कन्या के उपनयन और वेदाध्ययन का निषेध किया गया। ‘अमरकोष’ में स्त्री-शिक्षा के लिए आचार्य, उपाध्यायी और उपाध्याया शब्दों का प्रयोग हुआ। महिला दार्शनिकों और विदुषियों के कुछ उदाहरण मिलते हैं। राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ से पता चलता है कि स्त्रियाँ कवियित्री होती थीं। ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ में अनुसूया को इतिहास की ज्ञाता बताया गया। विविध कलाओं में निपुण स्त्रियों का उल्लेख भी मिलता है, जैसे ‘मालती माधव’ की मालती चित्रकला में निपुण थी।

सामान्यतः कन्याओं का विवाह बारह या तेरह वर्ष की आयु में कर दिया जाता था, जिसके कारण उपनयन बंद हो गया। अल्पायु विवाह की प्रथा के विकास से स्त्री-शिक्षा में बाधा पड़ी, जिससे गुप्तकाल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में गिरावट आई। पर्दा प्रथा का अधिक विकास इस काल में नहीं हुआ। फाह्यान और ह्वेनसांग ने इसका उल्लेख नहीं किया। साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि केवल उच्च वर्ग की स्त्रियों में पर्दा प्रथा प्रचलित थी। अजंता और एलोरा की मूर्तियों और चित्रों में स्त्रियों को पर्दे में नहीं दिखाया गया।

गुप्तकाल में स्त्रियों के धन-संबंधी अधिकारों में वृद्धि हुई। विज्ञानेश्वर के अनुसार स्त्रीधन पर प्रथम अधिकार पुत्रियों का होता था। याज्ञवल्क्य और बृहस्पति ने स्त्री को पति की संपत्ति की उत्तराधिकारिणी माना। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार, पुत्र के अभाव में पुरुष की संपत्ति पर पत्नी का प्रथम अधिकार होता था, और उसके बाद पुत्रियों का। बृहस्पति और नारद ने कहा कि कन्या भी पुत्र के समान संतान है, इसलिए पुत्र के अभाव में उसे संपत्ति पर अधिकार होना चाहिए। कात्यायन ने पत्नी को ‘धनहरी’ (संपत्ति प्राप्त करने वाली) कहा, और उसके जीवित न होने पर कन्या को। किंतु नारद जैसे शास्त्रकारों के अनुसार, संतानहीन व्यक्ति की संपत्ति राज्य को अधिग्रहीत कर लेनी चाहिए और राजा का कर्तव्य है कि वह विधवा का पालन-पोषण करे।

गणिकाएँ

गुप्तकालीन समाज में गणिकाएँ नागरिक जीवन का सामान्य अंग थीं। वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों को ‘गणिका’ कहा जाता था। ‘कामसूत्र’ में गणिकाओं को दिए जाने वाले प्रशिक्षण से प्रतीत होता है कि इस व्यवसाय की माँग अधिक थी। कालिदास ने विदिशा की गणिकाओं के साथ साहसी नवयुवकों की क्रीड़ाओं का वर्णन किया। सामान्यतः गणिका-वृत्ति को निंदनीय माना जाता था। कहा गया कि ‘गणिका जूते में पड़ी कंकरी के समान है, जो एक बार घुसने के बाद बड़ी कठिनाई से निकलती है।’

वेश्यागामी को समाज में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। वृद्ध वेश्याओं को ‘कुट्टनी’ कहा जाता था, जो नई वेश्याओं के लिए मार्गदर्शक का काम करती थीं और उनकी आय का हिस्सा लेती थीं। दयनीय स्थिति में पड़ी युवतियों को गणिका-वृत्ति सिखाना और युवकों को पथभ्रष्ट करना उनका कार्य था। ‘कुट्टनीमतम’ के रचयिता दामोदरगुप्त ने लिखा कि जो लोग कुट्टनी और वेश्या के चंगुल में नहीं पड़ेंगे, वे जीवन में सुखी रहेंगे।

‘मेघदूत’ और पुराणों से पता चलता है कि देवदासियों का एक वर्ग मंदिरों से संबद्ध था। सुंदरियाँ जो देव-मंदिरों में नियुक्त की जाती थीं, उनका कार्य देवता के समक्ष नृत्य, गान, और संगीत प्रस्तुत करना था। कालिदास ने ‘मेघदूत’ में उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में देवदासियों के नृत्य-गान का वर्णन किया।

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