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कुमारगुप्त प्रथम ‘महेंद्रादित्य’
चंद्रगुप्त द्वितीय के बाद कुमारगुप्त 415 ई. में सत्तारूढ़ हुआ जो बिलसद स्तंभलेख के अनुसार उसकी पट्टमहादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न सबसे बड़ा पुत्र था (महाराजाधिराज श्रीचंद्र्रगुप्तस्य महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराजकुमारगुप्तस्य…)। कुमारगुप्त का छोटा भाई गोविंदगुप्त बसाढ़ का राज्यपाल था।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि गोविंदगुप्त और कुमारगुप्त के बीच उत्तराधिकार का युद्ध हुआ था और कुमारगुप्त ने गोविंदगुप्त को पदच्युत् कर सिंहासन पर बलात् अधिकार कर लिया था, किंतु इसका समर्थन किसी स्रोत से नहीं होता है।
कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक शांति और सुव्यवस्था का वातावरण था। गुप्त वंश की शक्ति इस समय अपनी पराकाष्ठा पर थी। कुमारगुप्त की महत्ता इस बात में है कि उसने उत्तराधिकार में प्राप्त विशाल साम्राज्य की रक्षा की, जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था। उसे विद्रोही राजाओं को वश में करने के लिए कोई युद्ध नहीं करना पड़ा। सभी राजा, सामंत, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती राज्य उसके वशवर्ती थे।
ऐतिहासिक स्रोत
गुप्तवंशीय राजाओं में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के काल के मिले हैं। इस नरेश के शासनकाल के लगभग अठारह अभिलेख भारत के विभिन्न स्थानों से प्रकाश में आये हैं जिनसे इस नरेश के शासनकाल की घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।
बिलसद स्तंभलेख
गुप्त संवत् 96 (415 ई.) का बिलसद स्तंभलेख (एटा, उत्तर प्रदेश) इसके काल का प्रथम अभिलेख है, जिसमें कुमारगुप्त तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है। इस लेख से पता चलता है कि ध्रुवशर्मा नामक ब्राह्मण ने स्वामी महासेन (कार्तिकेय) का मंदिर और धर्मसंघ बनवाया था।
गढ़वा शिलालेख
इलाहाबाद के गढ़वा नामक स्थान से इसके दो शिलालेख मिले हैं जिन पर गुप्त संवत् 98 (417 ई.) की तिथि उत्कीर्ण है।
मंदसौर (मालवा) अभिलेख
कुमारगुप्त के काल का एक प्रमुख अभिलेख मंदसौर (मालवा) से प्राप्त हुआ है जिसकी रचना वत्सभट्टि ने की थी। लेख में कुमारगुप्त के राज्यपाल बंधुवर्मा का उल्लेख है। इस लेख में सूर्य मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है।
करमदंडा लेख
कुमारगुप्त के समय का एक लेख करमदंडा (फैजाबाद, उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुआ है। इस लेख में गुप्त संवत् 117 (436 ई.) की तिथि अंकित है। यह लेख शिव प्रतिमा के अधोभाग में उत्कीर्ण है जिसकी स्थापना कुमारगुप्त के कुमारामात्य पृथ्वीसेन ने की थी।
मानकुँवर बुद्धमूर्ति लेख
इलाहाबाद से प्राप्त मानकुँवर बुद्धमूर्ति लेख की तिथि गुप्त संवत् 129 (448 ई.) है जो बुद्ध प्रतिमा के निचले भाग में उत्कीर्ण है। इस मूर्ति की स्थापना बुद्धमित्र नामक बौद्धभिक्षु ने करवाई थी।
मथुरा लेख
यह लेख मूर्ति के अधोभाग पर उत्कीर्ण है जिस पर गुप्त संवत् 135 (454 ई.) की तिथि उत्कीर्ण है। लेख के निकट ‘धर्म-चक्र’ उत्कीर्ण होने के कारण अनुमान किया जाता है कि यह कोई बौद्ध-प्रतिमा रही होगी।
साँची अभिलेख
गुप्त संवत् 131 (450 ई.) के साँची लेख से पता चलता है कि हरिस्वामिनी ने साँची के आर्य संघ को धन दान में दिया था।
उदयगिरि गुहालेख
उदयगिरि से गुप्त संवत् 106 (425 ई.) का एक जैन लेख मिला है, जिससे पता चलता है कि शंकर नामक व्यक्ति ने यहाँ पार्श्वनाथ की मूर्ति को स्थापित किया था।
तुमैन लेख
मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित तुमैन नामक स्थान से गुप्त संवत् 116 (435 ई.) का एक लेख मिला है, जिसमें कुमारगुप्त को ‘शरद्कालीन सूर्य’ बताया गया है।
बंगाल से प्राप्त अभिलेख
कुमारगुप्तकालीन कुछ ताम्रलेख बंगाल से पाये गये हैं। गुप्त संवत् 113 (432 ई.) के धनदैह ताम्रलेख (राजशाही, बंग्लादेश) में वाराहस्वामिन् नामक ब्राह्मण को भूमि दान देने का वर्णन है। इसमें कुमारगुप्त को परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमदैवत कहा गया है। गुप्त संवत् 128 (447 ई.) के बैग्राम ताम्रलेख (बोगरा, बंगलादेश) में गोविंदस्वामिन् के मंदिर की व्यवस्था के लिए भूमि दान दिये जाने का उल्लेख है।
दामोदरपुर से गुप्त संवत् 124 तथा 129 (443 तथा 448 ई.) के दो लेख मिले हैं। इन लेखों से पता चलता है कि इस प्रदेश का नाम पुंड्रवर्धन (उत्तरी बंगाल) था और यहाँ का शासक चिरादत्त था। इसके अलावा किताईकुटी का ताम्रलेख भी महत्त्वपूर्ण है।
मुद्राएँ
कुमारगुप्त ने स्वर्ण, रजत और ताम्र-मुद्राओं का प्रचलन करवाया था जो भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त हुई हैं। उसने कई नवीन प्रकार की स्वर्ण मुद्राओं का भी प्रचलन करवाया। उसकी एक मुद्रा पर मयूर को खिलाते हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मयूर पर आसीन कार्तिकेय का अंकन है। मध्य भारत में रजत मुद्राओं के प्रचलन का श्रेय कुमारगुप्त प्रथम को ही है। इन मुद्राओं पर गरुड़ के स्थान पर मयूर का अंकन किया गया है। ये मुद्राएँ अश्वमेध, व्याघ्रनिहंता, अश्वारोही, धनुर्धारी, गजारोही, कार्तिकेय आदि विविध प्रकार की हैं जिन पर कुमारगुप्त की उपाधियां ‘महेंद्रादित्य’, ‘श्रीमहेंद्र’, ‘श्रीमहेंद्रसिंह’, ‘अश्वमेधमहेंद्र’ आदि उत्कीर्ण मिलती हैं।
कुमारगुप्त का दक्षिणी विजय अभियान
कुमारगुप्त के लेखों अथवा मुद्राओं से उसकी किसी सैनिक उपलब्धि की सूचना नहीं है। उसकी कुछ मुद्राओं पर उसकी उपाधि ‘व्याघ्रबलपराक्रम’ अंकित मिलती है, जिसके आधार पर रायचौधरी ने अनुमान लगाया कि कुमारगुप्त ने समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत में विजय-अभियान किया था।
महाराष्ट्र से इस नरेश की 1395 और एलिचपुर (बरार) से 13 मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, किंतु सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों या अन्य किसी साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं होती है। इसी प्रकार खंग-निहंता प्रकार की मुद्राओं के आधार पर कुछ इतिहासकार उसे असम विजय का श्रेय देते हैं, जो काल्पनिक प्रतीत होता है।
कुमारगुप्त का पुष्यमित्रों से युद्ध
भितरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अंतिम काल में साम्राज्य में शांति नहीं थी। स्रोतों से पता चलता है कि उसके राज्यकाल के अंतिम चरण में पुष्यमित्रों ने गुप्त साम्राज्य के विरुद्ध एक भयंकर विद्रोह खड़ा कर दिया। पुष्यमित्र एक प्राचीन जाति थी, जिसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। स्कंदगुप्त के भितरी लेख से पता चलता है कि इस आक्रमण से गुप्तवंश की कुललक्ष्मी विचलित हो उठीं तथा स्कंदगुप्त को कई रात पृथ्वी पर ही जागकर बितानी पड़ी थी।
विचलित कुललक्ष्मी स्तंभनायोद्यतेत, क्षितितलशयनीये येन नीता त्रियामा।
समुदितबलकोशान् पुष्यमित्रांश्चजित्वा, क्षितिपचरणपीठे स्थापितो वामपादः।।
इससे स्पष्ट है कि पुष्यमित्रों के विरुद्ध इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कंदगुप्त ने किया था और उसने पुष्यमित्रों को युद्ध में पराजित किया था।
कुमारगुप्त के शासन की प्रथम ज्ञात तिथि उसके बिलसद लेख में गुप्त संवत् 96 (415 ई.) मिलती है, जिससे स्पष्ट है कि वह 415 ई. में गद्दी पर बैठा। उसकी अंतिम तिथि गुप्त संवत् 136 (455 ई.) उसकी रजत मुद्राओं पर मिलती है। इसके उत्तराधिकारी स्कंदगुप्त के शासन की प्रथम ज्ञात-तिथि भी यही है जो जूनागढ़ अभिलेख में मिलती है। इससे स्पष्ट है कि कुमारगुप्त ने 415 से 455 ई. तक शासन किया था।
धर्म और धार्मिक नीति
कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था। गढ़वा लेख में उसे ‘परमभागवत’ कहा गया है। उसके विभिन्न लेखों से पता चलता है कि उसके शासनकाल में बुद्ध, शिव, सूर्य आदि देवताओं की उपासना की जाती थी। मानकुँवर लेख से पता चलता है कि बुद्धमित्र नामक बौद्धभिक्षु ने गौतम बुद्ध की मूर्ति स्थापित किया था। करमदंडा लेख में उसके राज्यपाल के शैवमतानुयायी होने का प्रमाण मिलता है।
अश्वमेध यज्ञ
कुमारगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों पर यज्ञयूप में बंधे हुए घोड़े की आकृति तथा पृष्ठभाग पर ‘श्रीअश्वमेधमहेन्द्रः’ मुद्रालेख अंकित है। इससे स्पष्ट है कि उसने कम से कम एक अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था।
मंदसौर लेख के अनुसार उसके प्रांतपति बंधुवर्मा ने पश्चिमी मालवा में सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था। कुमारगुप्त के शासनकाल में ही नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि नालंदा बौद्ध महाविहार का संस्थापक ‘शक्रादित्य’ था, जिसका तात्पर्य कुमारगुप्त से ही है, जिसकी एक उपाधि ‘महेंद्रादित्य’ थी।
इस प्रकार कुमारगुप्त प्रथम के चालीस वर्षीय शासनकाल में गुप्त साम्राज्य में शांति और सुव्यवस्था बनी रही। उसने अपनी बुद्धिमत्ता और संगठन-क्षमता के बल पर गुप्त साम्राज्य की एकता, अखंडता और गौरव को अक्षुण्ण रखा और विद्रोही पुष्यमित्रों को पराजित कर अपनी सैनिक शक्ति की सर्वोच्चता को सिद्ध किया। निःसंदेह, वह ‘गुप्तकुलव्योमशशी’ तथा ‘गुप्तकुलामलचंद्र’ था।
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