गुप्तों का आदि-स्थान और आरंभिक गुप्त शासक (The Early Place of the Guptas and the Early Gupta Ruler)

गुप्तों का आदि-स्थान और आरंभिक गुप्त शासक

गुप्तों का आदि-स्थान

गुप्तों की जाति की तरह उनके आदि-स्थान के विषय में भी इतिहासकारों में पर्याप्त मतभेद है। स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में गुप्तों के आदि-राज्य का निर्धारण भारतीय इतिहास की एक जटिल समस्या है। इतिहासकारों ने पश्चिमी बंगाल से लेकर कोशांबी, मगध, वाराणसी और प्रयाग तक को गुप्तों का आदि-स्थान सिद्ध करने का प्रयास किया है।

पश्चिमी बंगाल

डी.सी. गांगुली, रमेशचंद्र मजूमदार व सुधाकर चट्टोपाध्याय जैसे इतिहासकार गुप्तों का आदि-स्थान बंगाल मानते हैं। इत्सिंग के यात्रा-वृतांत के आधार पर गांगुली का मानना है कि आरंभिक गुप्त नरेश पश्चिम बंगाल में आधुनिक मुर्शिदाबाद के निकट शासन करते थे। इत्सिंग के यात्रा-विवरण के अनुसार उसके भारत-आगमन (671-695 ई.) के पाँच सौ वर्ष पूर्व ‘हुई-लुन’ नामक एक चीनी यात्री भारतवर्ष आया था। उस समय चि-लि-कि-तो नामक शासक राज्य कर रहा था जिसने चीनी यात्रियों की सुविधा के लिए’ मि-लि-किआ-सि-किआ-पो-नो’ (मृगशिखावन) नामक बौद्ध-विहार के समीप एक बौद्ध-मंदिर का निर्माण करवाया था। यह बौद्ध-मंदिर चीन-मंदिर के नाम से विख्यात था। इसकी दूरी नालंदा के पूरब में गंगा के किनारे 40 योजन (240 मील) थी। इस मंदिर की आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त उस नरेश ने 24 गाँव दान में दिया था।

एलन ने ‘चि-लि-कि-तो’ का समीकरण गुप्तवंश के संस्थापक महाराज ‘श्रीगुप्त’ से किया है। गांगुली के अनुसार इत्सिंग ने जिस दिशा और दूरी का उल्लेख किया है, उसके अनुसार नालंदा से पूरब में 240 मील पर मुर्शिदाबाद स्थित है, इसलिए गुप्तवंश का संस्थापक इसी क्षेत्र के आसपास शासन करता रहा होगा। रमेशचंद्र मजूमदार के अनुसार एक संभावित परिकल्पना के रूप में गुप्तों का आदि-स्थान ‘मुर्शिदाबाद’ को मान लेना चाहिए।

सुधाकर चट्टोपाध्याय का मानना है कि गुप्तों का आदि-स्थान पश्चिमी बंगाल के आधुनिक ‘माल्दह’ जिले में था। फूशे के अनुसार ‘मि-लि-किआ-सि-किआ-पो-नो’ का भारतीय नाम ‘मृगस्थापन’ था, न कि ‘मृगशिखावन’। रमेशचंद्र मजूमदार के अनुसार ग्यारहवीं शताब्दी के एक नेपाली पांडुलिपि में किसी स्तूप के नीचे ‘वरेंद्रि का मृगस्थापन स्तूप’ लिखा मिला है और संध्याकरनंदिन् के अनुसार ‘वरेंद्रि’ का भूभाग गंगा एवं करतोया के बीच स्थित था जो आधुनिक माल्दह जिले के विषय में अधिक तर्कसंगत है। आधुनिक माल्दह मंडल प्राचीन ‘वरेंद्रि’ में आता था।

किंतु इन मतों से सहमत होना कठिन है। ‘चि-लि-कि-तो’ और ‘श्रीगुप्त’ को एक ही व्यक्ति नहीं माना जा सकता है, क्योंकि दोनों के समय में लगभग एक शताब्दी का अंतर है। गुप्तवंश का आदि-शासक इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह किसी संस्था को ‘चौबीस’ गाँव दान में देता।

लगता है कि चीनी यात्री के दिशा-उल्लेख में कुछ त्रुटि है क्योंकि ‘मि-लि-किआ-सि-किआ-पो-नो’ से तात्पर्य ‘सारनाथ’ से हो सकता है जो नालंदा के पश्चिम वाराणसी के आसपास बसा हुआ था। इसे ‘ऋषिपत्तन’ भी कहा जाता था जो बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। ‘ऋषिपत्तन’ का एक नाम ‘सारंगनाथ’ भी था और सारंग मृग का पर्यायवाची है। कई इतिहासकारों के अनुसार इसका भारतीय नाम ‘मृगशिखावन’ ही रहा होगा। इस प्रकार ‘चि-लि-कि-तो’ को प्रथम गुप्त शासक मानकर बंगाल के किसी भाग को गुप्तों का आदि-स्थान मानना समीचीन नहीं लगता है।

विभिन्न स्रोतों से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त प्रथम के समय तक बंगाल पर गुप्तों का अधिकार नहीं था। वस्तुतः बंगाल में गुप्त-सत्ता की स्थापना समुद्रगुप्त के काल में स्थापित हुई। सुसुनिया पहाड़ी के लेख एवं समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने चंद्रवर्मा नामक नरेश को आर्यावर्त्त के अभियान में पराजित कर पश्चिमी बंगाल का बांकुड़ा क्षेत्र जीता था। समतट समुद्रगुप्त का प्रत्यंत राज्य था और चंद्रगुप्त द्वितीय ने बंग में शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त प्रथम के समय में बंगाल गुप्तों के अधिकार-क्षेत्र में सम्मिलित नहीं था।

सारनाथ (वाराणसी)

प्रो. जगन्नाथ का अनुमान है कि गुप्तों का आदि-स्थान ‘वाराणसी’ एवं उसके आसपास के क्षेत्र में था। चीनी भाषा के विद्वान् सैमुअल बील द्वारा इत्सिंग के यात्रा-वृतांत के प्रमाणिक अनुवाद के आधार पर प्रो. जगन्नाथ ने निष्कर्ष निकाला कि ‘मृगशिखावन’ नालंदा के पूरब में नहीं, पश्चिम में 40 योजन की दूरी पर था और नालंदा के पश्चिम में 40 योजन की दूरी पर सारनाथ है, जहाँ ‘मृगदाँव’ नामक मंदिर भी है। उसी मंदिर के समीप ‘चि-लि-कि-तो’ ने ‘मृगशिखावन’ नामक चीनी-मंदिर बनवाया रहा होगा और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों के गाँव की भूमि उसकी आर्थिक सहायता के निमित्त दान दिया होगा। इस प्रकार ‘चि-लि-कि-तो’ वाराणसी और उसके आसपास के क्षेत्रों का शासक था। ‘चि-लि-कि-तो’ को गुप्तवंश का संस्थापक ‘महाराज श्रीगुप्त’ माना जा सकता है जो सारनाथ के समीपवर्ती क्षेत्रों पर राज्य करता रहा होगा।

किंतु ‘चि-लि-कि-तो’ की पहचान ‘श्रीगुप्त’ से करना संदिग्ध है क्योंकि दोनों के शासनकाल में पर्याप्त अंतर है। ‘चि-लि-कि-तो’ बौद्ध मतावलंबी था, जबकि ‘श्रीगुप्त’ वैष्णव धर्मानुयायी था। श्रीगुप्त एक मांडलिक राजा था जो संभवतः चौबीस गाँवों का दान करने में समर्थ नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार ‘चि-लि-कि-तो’ और ‘श्रीगुप्त’ एक नहीं हो सकते हैं और ‘सारनाथ’ के आसपास गुप्तों का आदि-राज्य नहीं माना जा सकता है।

कोशांबी

चंद्रगर्भ-परिपृच्छा और ‘कौमुदीमहोत्सव’ के आधार पर काशीप्रसाद जायसवाल जैसे कुछ विद्वान् गुप्तों का मूल-स्थान कोशांबी मानते हैं। ‘चंद्रगर्भ-परिपृच्छा’ के अनुसार महेंद्रसेन (कुमारगुप्त महेंद्रादित्य) का जन्म कोशांबी में हुआ था, किंतु अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं। कुछ इतिहासकार समुद्रगुप्त के गया ताम्रपत्र (गुप्त संवत् 9) के आधार पर अयोध्या को गुप्तों का मूल-राज्य बताते हैं, किंतु यह ताम्रपत्र इतिहासकारों द्वारा ‘कूटरचित’ लेख घोषित कर दिया गया है।

गंगा-यमुना का दोआब

कुछ इतिहासकारों के अनुसार तुलनात्मक दृष्टि से गुप्तों के अभिलेख बिहार की अपेक्षा उत्तर प्रदेश से अधिक मिले हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश को गुप्तों का आदि-स्थान मानना अधिक उपयुक्त होगा। उनके अनुसार गुप्तों का आदि-राज्य पूर्वी उत्तर प्रदेश में विद्यमान था। इस क्षेत्र से गुप्तों के चौदह लेख करमदंडा (फैजाबाद), मानकुँवर और गढ़वा (इलाहाबाद), सारनाथ, वाराणसी, भितरी, प्रयाग, कहौम, राजघाट आदि स्थानों से मिले हैं। गुप्तों की मुद्रा-निधियाँ भी गाजीपुर, वाराणसी, गोरखपुर, बलिया, रायबरेली, जौनपुर, मिर्जापुर, इलाहाबाद, बस्ती आदि स्थानों से पाई गई हैं। यही नहीं, पुराणों के एक श्लोक में भी कहा गया है कि ‘गुप्त वंश के लोग गंगा नदी के किनारे स्थित साकेत (कोसल), प्रयाग और मगध आदि जनपदों का भोग करेंगे’-

‘अनुगंगा प्रयागं च साकेतं मगधांस्तथा।

एतान् जनपदान् सर्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजः।।’

इस आधार पर पांथरी महोदय मानते हैं कि अनुगंगा, प्रयाग और साकेत के बाद मगध का उल्लेख आया है, इसलिए गंगा-यमुना का दोआब ही गुप्तों का आदि-स्थान रहा होगा।

किंतु पूर्वी उत्तर प्रदेश से गुप्त अभिलेखों का मिलना चंद्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त के समय से आरंभ होता है। गुप्तों के आरंभिक अभिलेख उत्तर प्रदेश से नहीं मिलते हैं। प्रयाग से मिलनेवाली प्रशस्ति भी पहले कोशांबी में थी, जो बाद में इलाहाबाद के किले में लाई गई। इस क्षेत्र से अधिक आरंभिक लेख पूर्वी मालवा से मिलते हैं। इस प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश भी गुप्तों का आदि-राज्य नहीं माना जा सकता है।

मगध

विष्णु पुराण की कुछ पांडुलिपियों में उल्लिखित है कि ‘प्रयाग तथा गंगा के किनारे के प्रदेश पर मगध के गुप्त लोग शासन करेंगे’ (अनुगंगा प्रयागं मागधाः गुप्ताश्च भोक्ष्यंति)। वायु पुराण में भी किसी गुप्त-शासक की साम्राज्य-सीमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ‘गुप्तवंश के लोग गंगा के किनारे स्थित कोशल, प्रयाग और मगध आदि जनपदों का उपभोग करेंगे’-

अनुगंगा (अनुगंग) प्रयागश्च साकेतम् मगधानस्तथा।
एतान् जनपदान् सर्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजाः।।

वायु पुराण की यह साम्राज्य सीमा चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य का निर्देश करती है क्योंकि प्रयाग तथा कोशल के प्रदेश चंद्रगुप्त प्रथम ने ही विजित कर गुप्त-साम्राज्य में मिलाया था, और लिच्छवियों से वैवाहिक संबंध के द्वारा उत्तरी बिहार का वैशाली जनपद प्राप्त किया था। इस प्रकार गुप्तों का आदि-स्थान मगध क्षेत्र ही रहा होगा।

साहित्य और अभिलेखों में ‘पुष्पपुर’ या ‘कुसुमपुर’ के रूप में ‘पाटलिपुत्र’ नगर का उल्लेख मिलता है। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि अपने प्रथम आर्यावर्त अभियान के बाद समुद्रगुप्त पुष्पपुर (पाटलिपुत्र) में समारोह मना रहा था। इससे लगता है कि समुद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र ही रही होगी। उदयगिरि के गुहा-लेख से भी पता चलता है कि संधिविग्रहिक वीरसेन शैव अपने आश्रयदाता चंद्रगुप्त के साथ पाटलिपुत्र में निवास करता था, जो उसकी राजधानी रही होगी। गुप्त संवत् 88 के गढ़वा लेख से भी पता चलता है कि पाटलिपुत्र की कोई महिला गढ़वा आई थी। चीनी यात्री फाह्यान गुप्तकाल में ही भारत आया था और उसके वर्णन से लगता है कि पाटलिपुत्र में ही गुप्तों की राजधानी थी।

इस प्रकार स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में गुप्तों के आदि-राज्य का निर्धारण भी सर्वमान्य रूप से नहीं किया जा सकता है। हो सकता है कि मगध गुप्तों का आदि-राज्य रहा हो क्योंकि पुराणों में गुप्तों को ‘मागधगुप्त’ कहा गया है।

आरंभिक गुप्त शासक

श्रीगुप्त ‘महाराज’ ( 275-280 ई.)

गुप्तवंश के आरंभ के बारे में अधिक सूचना नहीं मिलती है। गुप्त नरेश अपनी वंशावली ‘श्रीगुप्त’ से प्रारंभ करते हैं, किंतु यह निश्चित नहीं है कि इसका नाम ‘श्रीगुप्त’ था अथवा गुप्त। एलन व काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार इसका नाम केवल गुप्त था जो प्रायः सभी गुप्त नरेशों के नाम के साथ मिलता है। पुराणों में भी इस वंश को ‘गुप्तवंशजाः’ कहकर इसका समर्थन किया गया है।

इस नरेश का कोई स्वतंत्र लेख नहीं मिला है और न ही इसके उत्तराधिकारियों के लेखों से ही इसकी उपलब्धियों पर कोई प्रकाश पड़ता है। प्रभावतीगुप्ता के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में ‘श्रीगुप्त’ का उल्लेख गुप्तवंश के आदिराजा के रूप में किया गया है। इस नाम की दो मुद्राएँ मिली हैं, जिनमें से एक पर संस्कृत तथा प्राकृत मिश्रित ‘गुप्तस्य’ और दूसरी पर संस्कृत में ‘श्रीगुप्तस्य’ लिखा है, जो संभवतः इसी महाराज गुप्त की हैं। श्रीगुप्त नामांकित एक अन्य मुहर राजघाट से मिली है और लुधियाना से एक मिट्टी की मुहर मिली है जिस पर ‘श्रीगुप्तस्य’ उत्कीर्ण है, किंतु इन्हें गुप्तवंशी श्रीगुप्त से समीकृत करना करना संदिग्ध है।

अपनी शक्ति को स्थापित कर लेने के कारण श्रीगुप्त ने ‘महाराज’ की उपाधि धारण की। इत्सिंग के अनुसार चीनी बौद्ध यात्रियों के निवास के लिए उसने मृगशिखावन के समीप एक विहार का निर्माण कराया था और उसका व्यय वहन करने के लिए चौबीस गाँव प्रदान किये थे। बौद्ध तीर्थ-स्थानों का दर्शन करने के लिए बहुत से चीनी यात्री इस समय भारत में आने लगे थे। अतः महाराज श्रीगुप्त ने उनके विश्राम के लिए यह महत्त्वपूर्ण दान दिया था।

गुप्त अभिलेखों से पता चलता है कि ‘श्रीगुप्त’ ने ‘महाराज’ की उपाधि धारण की थी और यह उपाधि उस समय अधीनस्थ सामंतों (मांडलिकों) द्वारा धारण की जाती थी। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि श्रीगुप्त किसी शासक के अधीन शासन करता था।

सिलवाँ लेवी और सुधाकर चट्टोपाध्याय जैसे इतिहासकार पुराणों, चीनी ग्रंथों तथा जैन स्रोतों के आधार पर इसे ‘मुरुण्डों’ का अधीनस्थ मानते हैं। किंतु गंगाघाटी के किसी भाग पर इस समय मुरुण्डों का शासन नहीं था और प्रयाग की प्रशस्ति से पता चलता है कि मुरुण्ड पश्चिमोत्तर भारत में कहीं शासन कर रहे थे। इसलिए ‘श्रीगुप्त’ को मुरुण्डों का सामंत नहीं माना जा सकता है।

फ्लीट व राखालदास बनर्जी के अनुसार वह ‘शकों’ का सामंत था, किंतु मुद्रा-साक्ष्यों से स्पष्ट है कि तीसरी-चौथी शताब्दी के मध्य तक शक गुजरात, काठियावाड़ एवं पश्चिमी मालवा में शासन कर रहे थे।

विंसेंट स्मिथ एवं काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार महाराज ‘श्रीगुप्त’ लिच्छवियों का सामंत था। जयदेव द्वितीय के नेपाल लेख (संवत्सर 153) के अनुसार उसके पूर्वज जयदेव प्रथम के तेईस पीढ़ी पहले ‘सुपुष्प लिच्छवि’ पाटलिपुत्र में रहता था। जायसवाल के अनुसार ‘सुपुष्प लिच्छवि’ मगध में ईसा की प्रथम शताब्दी में राज्य करता था और तब से गुप्तों के उदय तक वे मगध के सार्वभौम शासक थे।

स्मिथ के अनुसार चंद्रगुप्त की राजारानी प्रकार की मुद्राएँ इस बात का प्रमाण हैं कि आदि गुप्त नरेश लिच्छवियों की अधीनता स्वीकार करता था। प्रयाग-प्रशस्ति में समुद्रगुप्त स्वयं को ‘लिच्छिवि-दौहित्र’ कहने में गर्व का अनुभव करता है, इसलिए इस बात की अधिक संभावना है कि आरंभिक गुप्त लिच्छवियों के ही सामंत थे और गुप्तों का अभ्युत्थान लिच्छवियों की ही कीमत पर हुआ था।

घटोत्कच ‘महाराज’ (280-319 ई.)

लगभग 280 ई. में महाराज गुप्त ने अपने पुत्र घटोत्कच को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया जो इस वंश का दूसरा शासक था। ‘मधुमती’ नामक कन्या से उसका पाणिग्रहण (विवाह) हुआ था। प्रभावतीगुप्ता के पूना-ताम्रलेख में इसे ‘गुप्तादिराज’ एवं प्रवरसेन द्वितीय के रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेख में ‘गुप्तानामादिराजा’ कहा गया है। किंतु इस आधार पर घटोत्कच को प्रथम गुप्त नरेश नहीं माना जा सकता है। संभवतः वाकाटक प्रशस्तिकारों को गुप्त-वंशावली का यथार्थ ज्ञान नहीं था क्योंकि गुप्त वंशावलियों में समुद्रगुप्त को स्पष्ट रूप से महाराज गुप्त का प्रपौत्र एवं घटोत्कच का पौत्र कहा गया है।

महाराज घटोत्कच ने लगभग 319 ई. तक शासन किया था। अपने पिता की भाँति इसने भी ‘महाराज’ की उपाधि धारण की थी। संभवतः यह भी लिच्छवियों की अधीनता में शासन करता था। घटोत्कच की पहचान वैशाली की मुद्रा के ‘श्रीघटोत्कचगुप्तस्य’ से नहीं की जा सकती है। वैशाली की मुद्रा का घटोत्कचगुप्त संभवतः कोई गुप्तवंशीय राजकुमार था, जिसका उल्लेख पाँचवीं शताब्दी के तुमैन (पूर्वी मालवा) लेख में मिलता है। संभव है कि यह राजकुमार कुछ समय तक वैशाली और कुछ समय तक पूर्वी मालवा का राज्यपाल रहा हो।

प्रिंसेप एवं टॉमस जैसे इतिहासकार ‘काच’ नामधारी मुद्राओं को भी घटोत्कच से संबंधित करते हैं, जो इतिहासकारों को स्वीकार्य नहीं है क्योंकि इस मुद्रा के पृष्ठभाग पर राजा की उपाधि ‘सर्वराजोच्छेता’ मिलती है जो घटोत्कच जैसे अधीनस्थ शासक की उपाधि नहीं हो सकती है। यह तुमैन लेख के घटोत्कचगुप्त की मुद्रा हो सकती है।

मजूमदार के अनुसार घटोत्कच अपने पिता से अधिक शक्तिशाली था क्योंकि गुप्त संवत् 151 के सुपिया लेख में गुप्तवंश को ‘घटोत्कच वंश’ कहा गया है (श्रीघटोत्कचः तद्वंशे प्रवर्त्तमाने महाराजश्रीसमुद्रगुप्तः)। इससे लगता है कि यह अपने कुल का प्रथम नरेश था जिसने अपने वंश को विशेष प्रसिद्धि दिलवाई थी। संभवतः घटोत्कचगुप्त ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम का विवाह लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ कर दिया जिससे दोनों राजकुलों में मधुर संबंध स्थापित हो गया और जिसकी पृष्ठभूमि पर ही कालांतर में गुप्त राजसत्ता का उत्थान हुआ।

चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)

गुप्त अभिलेखों में घटोत्कच के उपरांत उसके उत्तराधिकरी पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम का नाम मिलता है जो गुप्त राजवंश का तीसरा शासक था। वस्तुतः गुप्त साम्राज्य के उत्थान का युग इसी समय से आरंभ होता है और इसी सम्राट के काल में गुप्त राजवंश ने उत्तर भारत में सार्वभौम सत्ता के रूप में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की। यह पहला गुप्त शासक था जिसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण किया और पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया। किंतु इस प्रतापी नरेश का कोई लेख उपलब्ध नहीं है।

लिच्छवियों से वैवाहिक संबंध

चंद्रगुप्त प्रथम के जीवनकाल की महत्त्वपूर्ण घटना उसका लिच्छवियों के साथ वैवाहिक-संबंध है। मगध के उत्तर में सबसे प्रबल भारतीय शक्ति लिच्छवियों की ही थी। लिच्छवियों का सहयोग प्राप्त किये बिना चंद्रगुप्त के लिए अपने राज्य का विस्तार करना संभव नहीं था। दूरदर्शी चंद्रगुप्त ने लिच्छवियों का सहयोग और समर्थन प्राप्त करने के लिए लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया।

इस वैवाहिक संबंध की सूचना एक विशेष प्रकार के स्वर्ण सिक्कों से मिलती है जिन्हें ‘चंद्रगुप्त-कुमारदेवी प्रकार’, ‘लिच्छवि प्रकार’, ‘राजा-रानी प्रकार’, ‘विवाह प्रकार’ आदि नामों से जाना जाता है। इस प्रकार के लगभग पच्चीस सिक्के गाजीपुर, टांडा (अंबेडकरनगर), मथुरा, वाराणसी, सीतापुर तथा बयाना (भरतपुर, राजस्थान) से पाये गये हैं। इस सिक्के के मुख भाग पर ‘चंद्रगुप्त और कुमारदेवी का चित्र’ नाम सहित अंकित है और पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी की आकृति के साथ ‘लिच्छवयः’ लेख उत्कीर्ण है। इसकी पुष्टि समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति से भी होती है जिसमें समुद्रगुप्त को ‘महादेवी कुमारदेवी के गर्भ से उत्पन्न’ तथा ‘लिच्छवि-दौहित्र’ कहा गया है।

लिच्छवियों के साथ संबंध स्थापित कर चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। इतिहासकार स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक-संबंध के परिणामस्वरूप चंद्रगुप्त प्रथम को समस्त लिच्छवि राज्य प्राप्त हो गया और वह मगध तथा उसके सीमावर्ती क्षेत्रों का चक्रवर्ती नरेश बन बैठा। एलन के अनुसार इस घटना का सामाजिक महत्त्व अधिक था। लिच्छवि रक्त पर समुद्रगुप्त के दर्प का यथार्थ कारण लिच्छवियों की कुलीनता थी। यद्यपि कुछ इतिहासकार मनुस्मृति जैसे ग्रंथों के आधार पर लिच्छवियों को किसी उत्तम जाति का नहीं मानते हैं, किंतु यह सर्वविदित तथ्य है कि लिच्छवि बुद्ध के समय से ही एक प्रबल शक्ति के रूप में विद्यमान थे और गुप्तों को इस वैवाहिक संबंध से राजनीतिक लाभ के साथ-साथ सामाजिक लाभ अवश्य मिला होगा।

संभवतः इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे- एक वैशाली का राज्य और दूसरा नेपाल का राज्य। चंद्रगुप्त प्रथम ने वैवाहिक-संबंध द्वारा वैशाली का लिच्छवि राज्य प्राप्त कर लिया और नेपाल का राज्य समुद्रगुप्त के काल में गुप्तों की अधीनता में आया। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि नेपाल समुद्रगुप्त का प्रत्यंत राज्य था।

लगता है कि इस समय लिच्छविगण के राजा वंशक्रमानुगत होने लगे थे। इतिहास में गणतंत्रों का राजतंत्र में परिवर्तन कोई नई घटना नहीं है। लिच्छवि नरेश की पुत्री कुमारदेवी लिच्छवि राज्य की उत्तराधिकारिणी थी। लिच्छविगण और गुप्तवंश में पारस्परिक विवाह-संबंध होने के कारण दोनों राज्य मिलकर एक हो गये थे और इन प्रदेशों पर चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी का संयुक्त शासन स्थापित हो गया। हेमचंद्र रायचौधरी ने सही लिखा है कि ‘अपने महान् पूववर्ती शासक बिंबिसार की भाँति चंद्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की। अल्तेकर का विचार है कि लिच्छवि राज्य के गुप्त साम्राज्य में मिल जाने के कारण लिच्छवियों का प्रभाव गुप्त-शासन में कुछ समय तक बना रहा। एक संभावना यह भी है कि लिच्छवियों से संबंध के कारण ही चंद्रगुप्त को सम्राट पद मिला हो और उसी समय उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की हो।

चंद्रगुप्त की विजयें एवं साम्राज्य-विस्तार

चंद्रगुप्त की विजयों के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। गुप्त साम्राज्य के विस्तार में गुप्त-लिच्छवि संबंध से सर्वाधिक सहायता मिली। राखालदास बनर्जी के अनुसार चंद्रगुप्त प्रथम ने मगध शकों से जीता होगा। किंतु मगध गुप्तों का आदि-राज्य था और शक उस समय पश्चिमी मालवा तथा गुजरात में शासन कर रहे थे।

सुधाकर चट्टोपाध्याय का मानना है कि चंद्रगुप्त ने मुरुण्डों को पराजित किया था। किंतु प्रयाग-प्रशस्ति से स्पष्ट है कि मृरुण्डों के मानमर्दन का श्रेय समुद्रगुप्त को प्राप्त है। वायु पुराण में किसी गुप्त शासक की साम्राज्य-सीमा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि ‘गुप्तवंश के लोग गंगा के किनारे प्रयाग तक तथा साकेत और मगध के प्रदेशों पर शासन करेंगे।’ स्पष्ट है कि यह साम्राज्य-सीमा चंद्रगुप्त प्रथम की है जिसका विस्तार प्रयाग (इलाहाबाद) से लेकर मगध तक था क्योंकि उसके पुत्र समुद्रगुप्त का साम्राज्य निश्चित रूप से इससे अधिक विस्तृत था।

रायचौधरी के अनुसार चंद्रगुप्त प्रथम ने कोशांबी तथा कोशल के राजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की। मगध तथा उत्तर प्रदेश के बहुत से प्रदेशों को जीत लेने के कारण चंद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था। इन्हीं विजयों और राज्य-विस्तार की स्मृति में चंद्रगुप्त ने एक नया संवत् प्रचलित किया था।

गुप्त संवत् का प्रचलन

चंद्रगुप्त ने अपने सिंहासनारोहण के अवसर पर एक नवीन संवत् का प्रचलन किया, जिसे गुप्त संवत् (गुप्त-प्रकाल) कहा गया है। फ्लीट की गणना के अनुसार इस संवत् का आरंभ 319 ई. में किया गया था। संभवतः इसी वर्ष चंद्रगुप्त प्रथम का राज्याभिषेक हुआ था। यह संवत् गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा। गुप्त संवत् तथा शक संवत् (78 ई.) के बीच 240 वर्षों का अंतर है। अल्बरूनी भी लिखता है कि गुप्त संवत् शक संवत् की तरह 241 वर्ष उपरान्त प्रारंभ होता है।

गुप्त-मुद्रा का प्रवर्तक

राजा-रानी प्रकार की स्वर्ण-मुद्राएँ गुप्तकाल की प्रथम मुद्राएँ मानी जाती हैं। इन मुद्राओं के मुख भाग पर चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी की आकृति नाम सहित अंकित है और पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी की आकृति के साथ ब्राह्मी लिपि में मुद्रालेख ‘लिच्छवयः’ उत्कीर्ण है। स्मिथ और अल्तेकर ने इन मुद्राओं के प्रचलन का श्रेय चंद्रगुप्त प्रथम को दिया है। वासुदेवशरण अग्रवाल का विचार है कि राजारानी प्रकार के सिक्के वस्तुतः लिच्छवियों के हैं जिन्हें उन्होंने अपनी राजकुमारी के विवाह की स्मृति में खुदवाया था।

एलन के अनुसार इन स्मारक-मुद्राओं का प्रवर्तक समुद्रगुप्त था और उसी ने अपने माता-पिता के विवाह की स्मृति में इन सिक्कों को ढ़लवाया होगा।

संभवतः इस समय तक लिच्छवियों ने राजतंत्रात्मक व्यवस्था को स्वीकार लिया था और कुमारदेवी लिच्छवि शासक की इकलौती संतान होने के कारण राज्य की उत्तराधिकारिणी भी थी। उसके साथ विवाह होने पर चंद्रगुप्त को लिच्छवि राज्य भी प्राप्त हो गया था। संभव है कि चंद्रगुप्त और कुमारदेवी ने कुछ समय तक संयुक्त रूप से शासन किया हो और गुप्त तथा लिच्छवि दोनों राज्यों में प्रचलन के निमित्त इस प्रकार की स्वर्ण मुद्राएँ प्रचलित की गई हों। किंतु मुद्रा पर जिस प्रकार कुमारदेवी और लिच्छवियों को महत्ता प्रदान की गई है, उससे लगता है कि लिच्छवि अधिक महत्त्वपूर्ण थे। अधिकांश विद्वान् मानते हैं कि राजारानी वर्ग की मुद्राएँ चंद्रगुप्त ने ही प्रचलित करवाया था।

चंद्रगुप्त ने अपने शासन के अंतिम काल में अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर संन्यास ग्रहण कर लिया। इस प्रतापी गुप्त सम्राट का संभावित शासनकाल 319 से 335 ई. तक माना जा सकता है।

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