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असोक का प्रशासन
असोक के शासन-संगठन का प्रारूप लगभग वही था, जो चंद्रगुप्त मौर्य के समय में था। किंतु धम्मप्रिय असोक ने कलिंग-विजय के बाद अपने शासन को अधिक मानवीय बनाने के लिए प्रशासन में कई सुधार किया। वह अपने धम्म के माध्यम से अपनी प्रजा का नैतिक एवं भौतिक उत्थान करना चाहता था। उसके अभिलेखों में कई अधिकारियों का उल्लेख मिलता है, जैसे- धम्म-महामात्र, राजुक, प्रादेशिक, युक्त आदि। इनमें अधिकांश राज्याधिकारी चंद्रगुप्त मौर्य के समय से चले आ रहे थे। असोक ने अपनी धार्मिक नीति तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उनके कर्तव्यों में विस्तार किया। असोक ने पहला प्रशासनिक सुधार यह किया कि प्रादेशिक, राजुक से लेकर युक्त तक सभी अधिकारी प्रति पाँचवें वर्ष (उज्जयिनी और तक्षशिला में प्रति तीसरे वर्ष) राज्य में निरीक्षाटन के लिए जाते थे जो प्रशासनिक कार्य के अतिरिक्त धम्म का प्रचार भी करते थे।
असोक का केंद्रीय प्रशासन
असोक एक विस्तृत साम्राज्य का एकछत्र शासक था। उसके धम्म लेखों से पता चलता है कि शासन-तंत्र की धुरी शासक स्वयं था। उसने ‘देवानांप्रिय’ की उपाधि धारण की थी। अपने छठें शिलालेख में असोक कहता है कि ‘सर्वलोकहित मेरा कर्तव्य है, ऐसा मेरा मत है, सर्वलोकहित से बढ़कर दूसरा काम नहीं है, मैं जो भी पराक्रम करता हूँ वह इसलिए कि भूतों के ऋण से मुक्त हो जाऊँ। मैं उनको इस लोक में सुखी बनाऊँ और वे दूसरे लोक में स्वर्ग प्राप्त कर सकें।’ इस प्रकार एक शासक के रूप में असोक आदर्श लोकसेवक एवं प्रजापालक था।
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परिषा या परिषद्
असोक के लेखों में ‘परिषा’ या परिषद् का उल्लेख मिलता है। परिषा का तादात्म्य अर्थशास्त्र के ‘परिषद्’ से किया जा सकता है। तीसरे तथा छठे शिलालेख से परिषद् के कार्य पर प्रकाश पड़ता है। तीसरे शिलालेख से पता चलता है कि परिषद् के आदेश विधिवत् लिखे जाते थे, जिन्हें स्थानीय अधिकारी जनता तक पहुँचाते थे। छठें शिलालेख से पता चलता है कि सम्राट के मौलिक आदेशों तथा विभागीय अध्यक्षों द्वारा आवश्यक विषयों पर लिए गये निर्णयों के ऊपर परिषद् विचार करती थी। असोक कहता है कि यदि परिषद् में किसी प्रकार का विवाद हो तो इसकी सूचना तत्काल शासक को दी जाए। इस प्रकार परिषद् एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी। दिव्यावदान की एक कथा से पता चलता है कि कभी-कभी शासक को परिषद् के विरोध का भी सामना करना पड़ता था। परिषद् के विरोध के कारण ही असोक को बौद्ध संघ को दिया जानेवाला अनुदान रोकना पड़ा था।
असोक का प्रांतीय प्रशासन
प्रशासनिक सुविधा के लिए असोक का विस्तृत साम्राजय अनेक प्रांतों में विभक्त था। उसके अभिलेखों में पाँच प्रांतों के नाम मिलते हैं- 1. उत्तरापथ, 2. अवन्तिरट्ठ (अवंति), 3. कलिंग, 4. दक्षिणापथ और 5. प्राच्य अथवा पूर्वी प्रदेश।
उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला तथा अवंति की राजधानी उज्जयिनी थी। कलिंग तथा दक्षिणापथ की राजधानियाँ क्रमशः तोसाली तथा सुवर्णगिरि थी। प्राच्य का शासन पाटलिपुत्र से संपादित होता था। संभव है कि इनके अतिरिक्त और भी प्रांत रहे हों।
राजनीतिक महत्त्व के प्रांतों में राजपरिवार से संबंधित व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था। उन्हें ‘कुमार’ तथा ‘आर्यपुत्र’ कहा जाता था। तक्षशिला, सुवर्णगिरि, कलिंग तथा उज्जयिनी में इस प्रकार के कुमारों की नियुक्ति की गई थी। दिव्यावदान से पता चलता है कि असोक का पुत्र कुणाल तक्षशिला का राज्यपाल था। गैर-राजनीतिक महत्त्व के प्रांतों में राजवंशेतर व्यक्तियों को राज्यपाल नियुक्त किया जाता था।
रुद्रदामन् प्रथम के गिरनार अभिलेख से पता चलता है कि यवनजातीय तुषास्प काठियावाड़ प्रांत में असोक का राज्यपाल था। लगता है कि प्रांतीय प्रशासन में स्थानीय व्यक्तियों को प्राथमिकता दी जाती थी जो असोक की राजनीतिमत्ता का परिचायक है।
प्रांतीय शासन में राज्यपाल की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद् होती थी, जो प्रांतीय शासकों की निरंकुशता पर नियंत्रण करती थी।
प्रांतों का विभाजन विषयों अथवा जिलों में किया गया था। जिले के प्रशासकों की नियुक्ति सम्राट द्वारा न होकर संबंधित प्रांत के प्रांतपति द्वारा की जाती थी। कोशांबी तथा सारनाथ के महामात्यों को असोक सीधे संबोधित करता था। सिद्धपुर लघुशिलालेख में असोक द्वारा महामात्यों को कुमार के माध्यम से संबोधित किया गया है। इसमें असोक इसला के महामात्यों को सीधे आदेश न देकर दक्षिणी प्रांत के कुमार के माध्यम से ही आदेश प्रेषित करता है। स्पष्ट है कि महामात्यों की नियुक्ति का अधिकार कुमार को भी था।
असोक के प्रशासनिक सुधार
बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात् असोक ने धर्म-प्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। किंतु शासन के प्रति वह कतई उदासीन नहीं हुआ। धर्म-परायणता ने उसमें प्रजा के ऐहिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिए लगन पैदा की। उसने राजा और प्रजा के बीच पैतृक-संबंध को बढ़ाने पर अधिक बल दिया। कलिंग लेख में असोक प्रजा के प्रति अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए कहता है, ‘सारी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान के ऐहिक और पारलौकिक कल्याण की कामना करता हूँ, उसी प्रकार अपनी प्रजा के ऐहिक और पारलौकिक कल्याण और सुख के लिए भी। जैसे एक माँ एक शिशु को एक कुशल धाय को सौंपकर निश्चिंत हो जाती है कि कुशल धाय संतान का पालन-पोषण करने में समर्थ है, उसी प्रकार मैंने भी अपनी प्रजा के सुख और कल्याण के लिए राजुकों की नियुक्ति की है।’ इस प्रकार असोक अपनी प्रजा को पुत्रवत् स्वीकार करता था तथा उनके कल्याण के लिए सदैव सजग रहता था।
असोक एक आदर्श शासक था जो जन-कल्याण एवं लोकहित की भावना से ओत-प्रोत था। वह प्रजा का कार्य करने के लिए सदैव उद्यत रहता था। अपने छठे शिलालेख में वह घोषणा करता है, ‘हर क्षण और हर स्थान पर, चाहे वह रसोईघर में हो, अंतःपुर में हो अथवा उद्यान में, मेरे प्रतिवेदक मुझे प्रजा के कार्यों के संबंध में सूचित करें।’ उसी लेख में असोक आगे कहता है, ‘मैं जितना भी कार्य करता हूँ मुझे संतोष नहीं होता, क्योंकि प्रजा के हित के लिए कार्य करना ही मैं अपना प्रधान कर्तव्य समझता हूँ।’ इस प्रकार असोक ने राजा के उत्थानव्रत और प्रजाहित के आदर्श पर अत्यधिक बल दिया। यही नहीं, असोक ने राजा के कर्तव्य का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। राजा प्रजा का ऋणी है, प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करके वह प्रजा का ऋण चुकाता है। असोक के आठवें शिलालेख में तथा मास्की के लघुशिलालेख से यह अनुमान लगाया जाताा है कि असोक राज्य के विभिन्न भागों में स्वयं भी निरीक्षाटन करता था ताकि उसे जनता के सुख-दुःख का ज्ञान हो सके।
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दंड-समता एवं व्यवहार-समता
असोक के प्रशासनिक नीति की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में दंड-समता एवं व्यवहार-समता। उसने अपनी धम्मनीति के अनुसार न्याय-प्रशासन में दंड-समता और व्यवहार-समता को स्थापित करने का क्रांतिकारी कार्य किया। अभिषेक के छब्बीसवें वर्ष उसने राजुकों को स्वतंत्रता प्रदान की कि वे बिना किसी हस्तक्षेप के आत्मविश्वास के साथ प्रजा का हित कर सकें। चौथे स्तंभलेख में असोक स्वयं कहता है कि ‘मैंने राजुकों को न्यायिक अनुसंधान तथा दंड में स्वतंत्र कर दिया है जिससे वे निर्भय होकर आत्मविश्वास के साथ न्याय कर सकें।’ इस प्रकार असोक ने दंड-समता और व्यवहार-समता के लिए राजुकों को न्याय-प्रशासन का सर्वेसर्वा बना दिया।
संभव है कि इससे विशेषाधिकार संपन्न वर्ग में कुछ असंतोष उत्पन्न हुआ हो क्योंकि इसके पूर्व एक ही प्रकार के अपराध के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के लिए भिन्न-भिन्न दंड दिये जाने का विधान था।
असोक व्यवहारिक था, उसने मृत्यदंड को समाप्त नहीं किया, किंतु यह व्यवस्था की कि किसी भी निरपराधी को दंड न मिले। धौली लेख में वह स्पष्ट कहता है कि यह लेख इसलिए लिखवाया गया है कि नगर-व्यावहारिक सदैव इस बात का प्रयत्न करें कि नागरिकों को अकारण बंधन या दंड न मिले। चतुर्थ शिलालेख में वह कहता है कि जिन अपराधियों को मृत्यदंड दिया गया हो, उन्हें तीन दिन का समय दिया जाये ताकि इस बीच उनके संबंधी उनके जीवनदान के लिए (राजुकों से) प्रार्थना कर सकें, और (यदि यह संभव न हो सके तो) वे दान-व्रत, प्रार्थना आदि के द्वारा परलोक की तैयारी कर सकें। यदि समुचित कारण उपस्थित हों, तो धम्म-महामात्र न्यायाधिकारियों से दंड कम करवाने का प्रयत्न करें।
इस प्रकार आधुनिक भारतीय दंड संहिता के अनुरूप असोक चाहता था कि एक भी निरपराधी को दंड न मिले और यदि किसी को मृत्यदंड मिल गया हो तो अपराधी व्रतोपवास द्वारा परलोक बनाने प्रयत्न करे।
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धम्म-महामात्र
असोक ने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष के बाद एक सर्वथा नवीन प्रकार के उच्चाधिकारियों की नियुक्ति की। इन्हें ‘धम्म-महामात्र’ कहा गया है। यद्यपि इनका प्रमुख कार्य जनता में धर्म का प्रसार करना तथा दानशीलता को उत्साहित करना था, किंतु प्रशासनिक दृष्टि से इनका कार्य यह था कि जिन्हें कारावास का दंड दिया गया हो, उनके परिवारों को आर्थिक सहायता दें, अपराधियों के संबंधियों से संपर्क कर उन्हें सांत्वना दें। उनका एक कार्य यह भी था कि वे न्यायाधीशों के कार्यों का निरीक्षण करें कि नगर-न्यायाधीश सम्राट के आदेश का समुचित पालन करें। इस प्रकार असोक ने न्याय और दंड में मानवीयता लाने का प्रयास किया। उसने न्याय को दया से मिश्रित करके मृदु बना दिया।
असोक के लेखों में प्रशासन के कुछ महत्त्वपूर्ण पदाधिकारियों का नामोल्लेख मिलता है, जैसे- युक्त, राजुक, प्रादेशिक, धम्म-महामात्र, स्त्रयाध्यक्ष-महामात्र, ब्रजभूमिक-महामात्र, अंत-महामात्र, नगर-व्यवहारिक आदि। युक्त, राजुक तथा प्रादेशिक का उल्लेख असोक के तृतीय शिलालेख में मिलता है।
युक्त
युक्त नामक अधिकारी निर्विवादतः अर्थशास्त्र में उल्लिखित युक्त ही है। इनका मुख्य कार्य राजकीय संपत्ति का प्रबंध, लगान की वसूली तथा राजस्व की वृद्धि से संबंधित था। तृतीय लेख में इन्हें व्यय एवं संचय के लेखा-जोखा से संबंधित किया गया है तथा अमात्यों की परिषद् के अधीन बताया गया है। ये राजुक तथा प्रादेशिक के साथ दौरे पर जाते थे।
राजुक
ब्यूलर के अनुसार जातक ग्रंथों में उल्लिखित ‘रज्जुक’ तथा ‘रज्जुग्राहक’ नामक अधिकारी ही असोक के लेखों में ‘राजुक’ नाम से उल्लिखित है जो भूमि की पैमाइश करनेवाला अधिकारी था। अपने चौथे स्तंभलेख में असोक कहता है, ‘जिस प्रकार माता-पिता योग्य धात्री के हाथों में बच्चे को सौंपकर आश्वस्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मैंने ग्रामीण जनता के सुख के लिए राजुकों की नियुक्ति की है।’ राजुक पहले राजस्व विभाग का ही कार्य करते थे, किंतु असोक ने उन्हें न्यायिक अधिकार भी प्रदान कर दिया। इस प्रकार राजुक की स्थिति आधुनिक जिलाधीश के समान थी, जिसे राजस्व व न्याय दोनों का ही कार्य देखना पड़ता है। स्ट्रैबो के अनुसार मौर्य प्रशासन में मजिस्ट्रेटों का एक ऐसा वर्ग था जो भूमि की पैमाइश, नदियों की देखरेख करता था तथा शिकारियों पर निगरानी रखता था और अपराध के अनुसार लोगों को दंडित करता था। असोक स्पष्ट शब्दों में कहता है, ‘मैंने राजुक नामक अधिकारी की नियुक्ति लाखों मनुष्यों के ऊपर की है। इनका मुख्य कार्य जनहित तथा निर्भय एवं निश्चिंत होकर निष्पक्ष न्याय संपादित करना है।’ संभवतः कर-निर्धारण, करों में छूट, जल-संबंधी विवाद, कृषकों तथा पशुपालकों के बीच चारागाह-संबंधी विवाद तथा ग्रामीण शिल्पियों के विवादों का निर्णय उन्हीं को करना पड़ता था।
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प्रादेशिक
प्रादेशिक अर्थशास्त्र को ‘प्रदेष्ट्री’ प्रतीत होता है। इसका कार्य मुख्यतः कर-संगह, मुकदमों की सुनवाई तथा विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के कार्यों की निगरानी करना था। अपने तीसरे शिलालेख में असोक ने युक्त और राजुक के साथ प्रादेशिकों को भी पंचवर्षीय दौरे पर जाने का आदेश दिया है जो प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ धर्म प्रचार का भी कार्य करते थे।
बारहवें शिलालेख में धम्म-महामात्र, स्त्रयाध्यक्ष-महामात्र तथा ब्रजभूमिक-महामात्र नामक तीन पदाधिकरियों का नाम मिलता है-
धम्म-महामात्र
अपने राज्याभिषेक के तेरहवें वर्ष में असोक ने धम्म-महामात्र नामक नवीन पदाधिकारियों की नियुक्ति की थी। इनका कार्य विभिन्न संप्रदायों के बीच सामंजस्य बनाये रखना, धर्म का प्रसार करना तथा दानशीलता को उत्साहित करना था, किंतु प्रशासनिक दृष्टि से इनका कार्य यह था कि जिन्हें कारावास का दंड दिया गया हो, उनके परिवारों को आर्थिक सहायता दें, अपराधियों के संबंधियों से संपर्क कर उन्हें सान्त्वना दें। उनका एक कार्य यह भी देखना था कि किसी को अनावश्यक दंड अथवा यातना न दी जाए।
स्त्रयाध्यक्ष-महामात्र
कुछ विद्वानों के अनुसार स्त्रयाध्यक्ष-महामात्र संभवतः अर्थशास्त्र में उल्लिखित ‘गणिकाध्यक्ष’ है, किंतु रोमिला थापर के अनुसार इनका मुख्य कार्य स्त्रियों से संबंधित था तथा इनका अधिकांश समय अंतःपुर में व्यतीत होता था।
ब्रजभूमिक-महामात्र
यह गोचर-भूमि (ब्रज) में बसनेवाले गोपों की देख-रेख करनेवाला अधिकारी था। अर्थशास्त्र में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, घोड़े, ऊँट आदि पशुओं को ‘ब्रज’ कहा गया है। संभवतः ब्रजभूमिक पशुओं के रक्षण एवं उनकी वृद्धि की निगरानी करनेवाला अधिकारी था।
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अंत-महामात्र और नगर-व्यवहारिक
असोक के अभिलेखों में ‘अंत-महामात्र’ तथा ‘नगर-व्यवहारिक’ (नगरवियोहालक) नामक पदाधिकारियों का भी उल्लेख है। अंत-महामात्र की पहचान रायचौधरी अर्थशास्त्र के अंतःपाल तथा स्कंदगुप्तकालीन गोप्त से करते हैं। इनका कार्य सीमा-प्रांतों में धर्म का प्रचार करना था। रोमिला थापर के अनुसार अंत-महामात्र सीमांत जातियों तथा अर्द्धसभ्य जनजातियों के बीच कार्य करते थे और उन लोगों तक सम्राट की नीति को पहुँचाने के लिए उत्तरदायी होते थे। नगर-व्यवहारिक नगर का न्यायाधीश होता था जिसकी पहचान अर्थशास्त्र में उल्लिखित ‘पौर-व्यवहारक’ से किया जाता है। असोक के लेखों में उसे महामात्र कहा गया है, इससे लगता है कि उसका पद कुमार के समकक्ष होता था। रोमिला थापर के अनुसार नगर-व्यवहारिक न्यायिक अधिकारी थे जो नागरक के अधीन कार्य करते थे। विशेष परिस्थितियों में नागरक उनके कार्यों में हस्तक्षेप भी कर सकता था।
आयुक्त
असोक के द्वितीय कलिंग लेख में ‘आयुक्त’ नामक एक अधिकारी का उल्लेख मिलता है, जिसकी नियुक्ति असोक ने अपनी नीतियों के क्रियान्वयन के लिए की थी। राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार यह प्रांतीय अधिकारी था, जो कुमारों की देख-रेख में कार्य करता था। प्रथम स्तंभलेख में ‘पुरुष’ नामक एक अन्य अधिकारी का उल्लेख है। अपने चतुर्थ लेख में असोक कहता है कि राजुक पुरुषों के आदेश का भी पालन करेंगे। नीलकंठ शास्त्री का विचार है कि पुरुष राजुक तथा सम्राट के बीच संपर्क-अधिकारी के रूप में कार्य करते थे। रोमिला थापर इन्हें जन-संपर्क अधिकारी मानती हैं। असोक के लेखों में ‘प्रतिवेदक’ नामक एक अन्य अधिकारी का भी उल्लेख मिलता है। प्रतिवेदक गुप्तचर लगते हैं जिनकी समता अर्थशास्त्र के ‘गूढ़ पुरुष’ से की जा सकती है। प्रतिवेदक प्रजा की सूचना के साथ-साथ मंत्रिपरिषद् में उपस्थित विवाद की भी सूचना शासक को देते थे।
तेरहवें लेख में ‘दूत’ नामक एक अधिकारी का उल्लेख हुआ है, जो दूरस्थ प्रांतों में धर्म-प्रचार का कार्य करते थे। इन अधिकारियों के साथ-साथ असोक के येर्रागुडी लेख में ‘कारणक’ शब्द का उल्लेख मिलता है जो संभवतः तत्कालीन न्यायाधिकारी, अध्यापक अथवा क्लर्क के लिए प्रयुक्त होता था। परवर्ती ‘कायस्थ’ शब्द इसी कारणक का संवादी लगता है। ‘लिपिकर’ नामक अधिकारी शिलाखंडों पर लेखों को उत्कीर्ण करवाते थे।
असोक ने मानव एवं पशु दोनों के कल्याण के लिए कार्य किया। सातवें स्तंभ-लेख से पता चलता है कि उसने मानव और पशुओं को छाया देने के लिए सड़कों के किनारे बरगद के वृक्ष लगवाये तथा आम्रवाटिकाएँ लगवाई, आधे-आधे कोस की दूरी पर कुएं खुदवाये और विश्रामगृह बनवाये। मानव तथा पशुओं के लिए अनेक प्याऊ स्थापित किये गये। उसने अपने राज्य में मानव एवं पशुओं की चिकित्सा के लिए अलग-अलग चिकित्सालय खुलवाये। जहाँ मनुष्यों और पशुओं के लिए उपयोगी औषधियाँ उपलब्ध नहीं थीं, वहाँ बाहर से दवाएँ मँगाई गईं। इस प्रकार असोक की धर्मपरायणता ने उसे अनेक प्रकार के कल्याणकारी कार्यों के लिए प्रेरित किया, जिससे उसका शासन केंद्रित होते हुए भी मानवीय था।
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