भारत में वामपंथ का उदय और विकास (The Rise and Development of the Left in India)

वामपंथी राजनीति वामपंथी राजनीति उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं जो समाज को बदलकर […]

भारत में वामपंथ का उदय और विकास (The Rise and Development of the Left in India)

वामपंथी राजनीति

वामपंथी राजनीति उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबरी लाना चाहती है। वामपंथी विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जताई जाती है जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या शक्तिहीन हों। राजनीति के संदर्भ में ‘बाएँ’ और ‘दाएँ’ शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम 1789 में फ्रांसीसी क्रांति के समय किया गया था। राजा के समर्थकों को दक्षिणपंथी और विरोधियों को, जो गणतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करते थे, वामपंथी कहा जाने लगा।

आधुनिक काल में साम्यवाद (कम्युनिज्म) और समाजवाद (सोशलिज्म) से संबंधित विचारधाराओं को ‘वामपंथी राजनीति’ कहा जाता है। आधुनिक साम्यवाद और समाजवाद का आधार मार्क्सवाद है। मार्क्सवाद एक विचारधारा है, जो कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के विचारों पर आधारित है।

मार्क्स (1818-1883) एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार, पत्रकार और क्रांतिकारी समाजवादी थ, जिन्होंने वैज्ञानिक समाजवाद का प्रतिपादन किया। मार्क्सवादी दर्शन के अनुसार समाज में मौलिक विभाजन वर्ग आधारित विभाजन है। समाज में वर्ग-विभाजन निजी संपत्ति की संस्था का परिणाम है।

मानव सभ्यता के इतिहास में सदैव दो वर्ग रहे हैं- उत्पादन के साधनों के मालिक (अमीर) और दूसरा श्रमिक (वंचित)। आधुनिक समय में उत्पादन के साधनों के स्वामी को पूँजीपति कहा जाता है। मार्क्सवादी शब्दावली में आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था में दो वर्ग हैं- बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग। पूँजीपति (बुर्जुआ) सदैव श्रमिकों (सर्वहारा) का शोषण करता है और सर्वहारा वर्ग पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी और नैतिक संस्थाओं का उपयोग करता है। मार्क्स का कहना था कि पूँजीवादी व्यवस्था को सिर्फ क्रांति से ही नष्ट किया जा सकता है।

कम्युनिस्ट पार्टी वह पार्टी है जो साम्यवाद के सामाजिक और आर्थिक सिद्धांतों में विश्वास रखती है और उन लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करती है। 1917 की रूसी क्रांति के बाद रूस की बोल्शेविक पार्टी की दुनिया भर में नकल की गई। विभिन्न जगहों की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच तालमेल स्थापित करने के लिए मार्च 1919 में मॉस्को में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कॉमिन्टर्न) की स्थापना की गई।

भारत में वामपंथी विचारधारा

भारत में बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों और तीसरे दशक में वामपंथी राजनीति का उदय हुआ। भारत में साम्यवादी विचारधारा को कम्युनिस्टों ने आगे बढ़ाया, जिन्हें रूस के साम्यवादी संगठन ‘कॉमिन्टर्न’ का समर्थन प्राप्त था, जबकि समाजवादी विचारधारा का वाहक कांग्रेस समाजवादी दल था, जिसके प्रतीक जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस थे।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और श्रमजीवियों के संघर्ष को अविछिन्न और अविभाज्य रूप में प्रस्तुत करना वामपंथियों की प्रमुख उपलब्धि रही है। भारतीयों का वैज्ञानिक समाजवाद से परिचय सोवियत क्रांति से बहुत पहले ही हो चुका था।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर, शशिपद बनर्जी, एस.एस. बंगाली, एन.एम. लोखंडे, शिवनाथ शास्त्री, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, लालबिहारी डे, अधीरचंद्र दास और दादाभाई नौरोजी उन्नीसवीं सदी में उन लोगों में शामिल रहे हैं, जो समाजवादी विचारों से परिचित थे। अगस्त 1907 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल की स्टुटगार्ट कांग्रेस में भारत की तरफ से श्रीमती भीकाजी रुस्तम कामा, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय और सरदार सिंहजी रेवाभाई राणा (एस.आर. राणा) ने भाग लिया था, लेकिन भारत में वामपंथी विचारधारा का उदय प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) के बाद हुआ।

भारत में वामपंथ का उदय और विकास (The Rise and Development of the Left in India)
वामपंथी आंदोलन
रूस की अक्टूबर क्रांति

7 नवंबर 1917 (अक्टूबर क्रांति) को लेनिन के नेतृत्व में रूस की बोल्शेविक पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी) ने जारशाही के शासन को उखाड़ फेंका और पहले समाजवादी राज्य की स्थापना की। रूस की क्रांति के कारण विश्व के कोने-कोने से लोग मार्क्सवाद और समाजवाद की ओर आकर्षित होने लगे, भारतीय युवा इस ओर विशेष रूप से आकर्षित हुए।

भारतीय कम्युनिज्म की जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर से ही फूटी थीं। विख्यात युगांतर क्रांतिकारी नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य उर्फ मानवेंद्रनाथ राय कम्युनिस्ट आंदोलन के संस्थापक थे, जो 1919 में मेक्सिको में बोल्शेविक मिखाइल बोरोदीन के संपर्क में आए।

मानवेंद्रनाथ राय ने बोरोदीन के साथ मिलकर 1919 में मेक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी। मेक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में एम.एन. राय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कॉन्फ्रेंस (जुलाई-अगस्त 1920) में शामिल होने के लिए मॉस्को गए, जिसमें भारत की ओर से अवनि मुखर्जी ने भाग लिया था। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कॉन्फ्रेंस में एम.एन. राय के साथ लेनिन का विवाद हुआ, जो औपनिवेशिक देशों में कम्युनिस्टों की रणनीति को लेकर था।

हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी

मानवेंद्रनाथ राय के नेतृत्व में एलविन ट्रेंट राय, अवनि मुखर्जी, रोजा फिटिगोंफ (अवनि की रूसी पत्नी), मोहम्मद अली उर्फ अहमद हसन, मोहम्मद शफीक सिद्दीकी और मंडयन प्रतिवादी भयंकर तीरूमल आचार्य जैसे लोगों ने 17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद में ‘हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी’ और एक राजनीतिक सैनिक स्कूल ‘इंदुस्की कुर्स’ की स्थापना की।

1921 में मॉस्को में भी हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी बनाई गई। 1921 के आरंभ में नए-नए कम्युनिस्ट बने भारतीय मॉस्को की कम्युनिस्ट यूनिवर्सिटी ऑफ द टॉइलर्स ऑफ द ईस्ट में भर्ती हुए। एम.एन. राय 1922 में अपना मुख्यालय बर्लिन ले गए, जहाँ से ‘वैनगार्ड ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस’ नाम से एक पाक्षिक और अवनि मुखर्जी के सहयोग से ‘इंडिया इन ट्रांजिशन’ प्रकाशित किए।

बर्लिन में वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेंद्रनाथ दत्त और बरकतुल्लाह ने 1922 में ‘इंडिया इंडिपेंडेंस पार्टी’ की स्थापना की थी। 1920 के मध्य दशक तक ‘गदर’ के कई महत्त्वपूर्ण नेता भी कम्युनिस्ट हो चुके थे। हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत में कम्युनिस्ट नेताओं को संगठित करने का प्रयास किया।

कलकत्ता की ‘आत्मशक्ति’ और ‘धूमकेतु’ तथा गुंटूर की ‘नवयुग’ जैसी वामपंथी राष्ट्रवादी पत्रिकाओं में लेनिन और रूस की प्रशंसा में लेख और कभी-कभी वैनगार्ड के उद्धरणों की व्याख्या छपती थी। अगस्त 1922 में श्रीपाद अमृत डांगे बॉम्बे से ‘द सोशलिस्ट’ नाम का साप्ताहिक निकालने लगे थे। ‘द सोशलिस्ट’ भारत में प्रकाशित होने वाली पहली कम्युनिस्ट पत्रिका थी।

बंगाल में ‘नवयुग’ के संपादक मुजफ्फर अहमद, मद्रास में ‘लेबर किसान गजट’ के संपादक सिंगारवेलु चेट्टियार और लाहौर में ‘इंकलाब’ के संपादक गुलाम हुसैन ने भारत में साम्यवादी विचारधारा को प्रसारित करने में सहयोग दिया।

पेशावर षड्यंत्र केस

1917 की बोल्शेविक क्रांति ने समस्त संसार के शासक वर्गों में भय की लहर व्याप्त कर दी थी, जो उन्हें फ्रांसीसी क्रांति की याद दिलाती थी। ब्रिटिश सरकार ने वैध-अवैध तरीकों से अफगानिस्तान के रास्ते भारत में प्रवेश करने वाले कम्युनिस्ट नौजवानों को गिरफ्तार कर उन पर ‘पेशावर षड्यंत्र केस’ के नाम से अलग-अलग पाँच मुकदमे चलाए।

पेशावर षड्यंत्र केस का पहला मुकदमा अकबर कुरैशी उर्फ मोहम्मद अकबरशाह, उनके पिता हफीजुल्ला खाँ और उनके सेवक बहादुर पर चलाया गया। भारत में कम्युनिस्टों पर चलने वाला यह पहला मुकदमा था। पेशावर षड्यंत्र केस का दूसरा मुकदमा मोहम्मद अकबर, मोहम्मद हसन और गुलाम महमूद पर चलाया गया। पेशावर षड्यंत्र केस के तीसरे मुकदमे को ‘मॉस्को-ताशकंद षड्यंत्र केस’ के नाम से चलाया गया। चौथे मुकदमे के एकमात्र अभियुक्त मोहम्मद शफीक थे, जो ताशकंद में हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव थे। पाँचवें मुकदमे के एकमात्र अभियुक्त फजल इलाही कुर्बान थे, जिनको तीन साल की सजा मिली।

कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र केस

पेशावर केस से बाहर के कम्युनिस्टों जैसे एम.एन. राय, मुजफ्फर अहमद, शौकत उस्मानी, गुलाम हुसैन, श्रीपाद अमृत डांगे, मायलापुरम सिंगारवेलु चेट्टियार, रामचरण शर्मा, नलिनी भूषणदास पर 1924 में ‘कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र’ के नाम से मुकदमा चलाया गया। कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र केस ने जनता का ध्यान कम्युनिस्टों की तरफ आकर्षित किया।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी

दिसंबर 1925 में भारत के विभिन्न हिस्सों के कम्युनिस्ट गुटों को संगठित करने के लिए कानपुर में एक खुला कम्युनिस्ट सम्मेलन हुआ, जिसके संयोजक सत्यभक्त थे। इस कम्युनिस्ट सम्मेलन के अध्यक्ष सिंगारवेलु और स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी थे। कानपुर कम्युनिस्ट सम्मेलन में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ (सी.पी.आई.) अर्थात् भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का 1925 में जन्म हुआ।

भारत में वामपंथ का उदय और विकास (The Rise and Development of the Left in India)
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी

आरंभ में कम्युनिस्टों ने अपनी गतिविधियों को चलाने के लिए कांग्रेस के अंदर रहकर कार्य करने वाली किसान-मजदूर पार्टियों को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। नवंबर 1925 में बंगाल में कांग्रेस के अंदर ‘लेबर स्वराज्य पार्टी’ की स्थापना हुई, जिसका नाम 1928 में बदलकर ‘बंगाल किसान-मजदूर पार्टी’ कर दिया गया।

बंगाल किसान-मजदूर पार्टी की स्थापना करने वाले थे मुजफ्फर अहमद, विख्यात कवि नजरूल इस्लाम, कुतुबुद्दीन अहमद, समसुद्दीन हुसैन और जुझारू स्वराजी हेमंत कुमार सरकार। बंगाल किसान-मजदूर पार्टी ने दो बंगला पत्रिकाएँ भी प्रकाशित कीं- ‘लांगल’ और ‘गणवाणी’। पंजाब में 1926 में गदर नेता संतोख सिंह की ‘कीर्ति’ पत्रिका के इर्द-गिर्द सोहन सिंह ने किरती ‘किसान पार्टी’ बनाई। बॉम्बे में जनवरी 1927 में एक मजदूर-किसान पार्टी (कांग्रेस लेबर पार्टी) की स्थापना हुई, जिसके संस्थापक एस.एस. मिराजकर, के.एन. जोगलेकर और एस.वी. घाटे थे। कांग्रेस लेबर पार्टी ‘क्रांति’ नामक एक मराठी पत्रिका निकालती थी।

सोहन सिंह जोश की अध्यक्षता में 21-24 दिसंबर 1928 को ‘ऑल इंडिया वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी’ (अखिल भारतीय कामगार किसान पार्टी) की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य था- कांग्रेस के अंतर्गत काम करना, जिससे इसे ‘आम जनता का संगठन’ बनाया जा सके और भारत में समाजवादी राज्य की स्थापना की जा सके। वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी के माध्यम से कर्मठ और ईमानदार कम्युनिस्ट मजदूर वर्ग के साथ वास्तविक संबंध स्थापित किए।

वी.वी. गिरि और एंड्रयूज के अत्यंत नरमदलीय नेतृत्व में फरवरी और सितंबर 1927 में खड़गपुर रेलवे वर्कशॉप के कर्मचारियों ने हड़ताल की। कम्युनिस्टों ने 1928 में बंगाल के लिलुआ रेल कार्यशाला में गोपन चक्रवर्ती और धरनी गोस्वामी के नेतृत्व में लंबी लड़ाई लड़ी। जुलाई 1928 में दक्षिण भारतीय रेलवे की हड़ताल को तोड़ने के लिए सरकार ने सिंगारवेलु और मुकुंदलाल सरकार को जेल में डाल दिया।

अप्रैल 1928 से अक्टूबर 1928 तक बॉम्बे टेक्सटाइल मिल्स में आम हड़ताल हुई। 1929-30 के बॉम्बे रेल हड़ताल और तेल डिपो हड़ताल में कम्युनिस्टों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1928 में 203 हड़तालें हुईं, जिनमें 5,06,851 मजदूरों ने हिस्सा लिया और 3,16,47,404 कार्य-दिवसों का नुकसान हुआ। जनवरी 1929 में वायसराय लॉर्ड इरविन ने केंद्रीय धारा सभा में भाषण करते हुए स्वीकार किया कि कम्युनिस्ट सिद्धांतों के प्रचार से परेशानी पैदा हो रही है।

मेरठ षड्यंत्र केस

सरकार ने 20 मार्च 1929 को 32 साम्यवादी नेताओं को गिरफ्तार कर भारतीय दंड संहिता की धारा 121ए के तहत मेरठ के सत्र न्यायालय में मेरठ षड्यंत्र केस के नाम से मुकदमा चलाया। इस षड्यंत्र केस के लिए कांग्रेस कार्यकारिणी ने एक केंद्रीय सुरक्षा समिति का गठन कर 1500 रुपये चंदा दिया।

मेरठ षड्यंत्र केस के मुकदमे में जवाहरलाल नेहरू, कैलाशनाथ काटजू और डॉ. एच.एफ. अंसारी जैसे लोग प्रतिवादी की ओर से पेश हुए। इस केस का यह मुकदमा साढ़े तीन साल 1932 तक चला, 300 गवाहों से बहस की गई और लगभग 300 के करीब शहादतें अदालत में पेश की गईं। मेरठ के सत्र न्यायालय ने जनवरी 1933 को 27 लोगों को भिन्न-भिन्न अवधियों के लिए जेल की सजा सुनाई। मेरठ षड्यंत्र केस के कारण देश के लाखों लोग पहली बार साम्यवादी विचारधारा से परिचित हुए।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और कम्युनिस्ट

कम्युनिस्टों का कांग्रेस से प्रेम-नफरतयुक्त संबंध था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कामिन्टर्न) से निर्देशित होती थी, इसलिए कॅामिन्टर्न की नीतियों में आए बदलाव से कम्युनिस्टों का कांग्रेस के प्रति दृष्टिकोण भी बदल जाता था, जिसे वामपंथी शब्दावली में ‘संकीर्ण राजनीति’ या ‘वामपंथी भटकाव’ कहा गया है।

1929 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की छठवीं कांग्रेस से निर्देशित होकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस को पूँजीपति वर्ग की पार्टी घोषित किया।

वामपंथियों ने गांधीजी के नेतृत्व को छोटा बुर्जुआ नेतृत्व कहकर उनकी निंदा की। वामपंथियों ने कांग्रेस के वामपंथी नेताओं, जैसे- जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस को ‘पूँजीपतियों का एजेंट’ और ‘भारतीय राष्ट्रवाद की विजय में एक भयानक रुकावट’ बताया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1931 के गांधी-इरविन समझौते को राष्ट्रवाद के साथ विश्वासघात की संज्ञा दी। सरकार ने 23 जुलाई 1934 को हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी और उससे संबंधित लगभग 29 जन-संगठनों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया।

1931 में अब्दुल हलीम ने ‘बंगाल किसान लीग’ (बंगाल पीजेंट्स लीग) बनाई और फरवरी 1932 में ‘वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया’ (हिंदुस्तान की मजदूर पार्टी) की स्थापना की। अप्रैल 1933 तक लगभग सभी कम्युनिस्ट गुटों ने हलीम की कलकत्ता कमेटी को मान्यता दे दी।

भूपेंद्रनाथ दत्त की ‘आत्मशक्ति ग्रुप’ और उनकी पार्टी ‘बंगाल प्रोलेटेरियन रिवॉल्यूशनरी पार्टी’ हलीम की कलकत्ता कमेटी के साथ मिल गईं। सिख कम्युनिस्टों के ‘बंगाल किरती दल’ ने भी हलीम की पार्टी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। साम्यवादी नेताओं ने दिसंबर 1933 में कोलकाता में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का एक गुप्त सम्मेलन किया, जिसे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने 1934 में अपनी भारतीय शाखा के रूप में मान्यता दी।

साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा

मार्च 1936 में आर.पी. दत्त और जॉन ब्रैडले ने अपना निबंध ‘भारत में साम्राज्यवाद-विरोधी जनता का मोर्चा’ (दत्त-ब्रैडले थीसिस) प्रकाशित किया। दत्त-ब्रैडले थीसिस में साम्यवादियों से कहा गया था कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो जाएँ और कांग्रेस समाजवादी दल को सुदृढ़ बनाएँ।

1936-1937 के दौरान सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों के बीच में आपसी सहयोग के कारण अखिल भारतीय किसान सभा, अखिल भारतीय छात्र संगठन और प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ। 1939 में पी.सी. जोशी ने ‘नेशनल फ्रंट’ में लिखा कि आज हमारा सबसे बड़ा वर्ग-संघर्ष राष्ट्रीय संग्राम है और कांग्रेस इसका मुख्य अंग है।

द्वितीय विश्वयुद्ध और वामपंथी राजनीति

15 सितंबर 1939 को गांधीजी ने द्वितीय विश्वयुद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध घोषित किया। 1939 में रूसी नेता स्टालिन और जर्मनी के हिटलर समझौते के कारण कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश युद्ध-प्रयासों को ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ करार दिया।

1940 में कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘प्रोलेटेरियन पथ’ शीर्षक से एक दस्तावेज जारी किया और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन छेड़ने की घोषणा की। वामपंथियों की सशस्त्र आंदोलन की घोषणा के कारण कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने कम्युनिस्ट सदस्यों को पार्टी से बाहर कर दिया।

ब्रिटिश सरकार ने उचित समय देखकर अधिकांश कम्युनिस्टों को गिरफ्तार कर लिया और साम्यवादियों पर प्रतिबंध लगा दिया। जून 1941 में हिटलर के रूस पर आक्रमण के कारण 12 जुलाई 1941 को सोवियत संघ और ब्रिटेन में समझौता हो गया। रूस और ब्रिटेन में समझौता होने के कारण कम्युनिस्टों ने विश्वयुद्ध को ‘जनता का युद्ध’ घोषित किया।

सोवियत रूस और ब्रिटेन के अच्छे संबंधों के कारण जुलाई 1942 में साम्यवादियों पर लगी पाबंदी हटा दी गई। साम्यवादियों ने कम्युनिस्टों को गांधीजी के अगस्त 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से अलग रहने का निर्देश दिया। साम्यवादियों ने 1946 में कैबिनेट मिशन के सामने भारत को 17 पृथक् प्रभुसत्तापूर्ण राज्यों में बाँटने का प्रस्ताव रखा।

ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने संगठन और जनाधार को मजबूत किया। कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य संख्या, जो 1942 में 400 थी, 1943 में 15,000, 1946 में 53,000 और 1948 में 1,00,000 तक पहुँच गई।

कम्युनिस्टों ने किसानों और श्रमिकों से संबंधित मुद्दों पर देश के विभिन्न भागों में आंदोलन और संघर्ष किए। बंगाल के तेभागा किसान आंदोलन (1946), त्रावणकोर के पुनप्प्रा-वायलार आंदोलन (1945), आंध्र प्रदेश के हैदराबाद रजवाड़े में हुए तेलंगाना किसान आंदोलन (1946-51) और शाही नौसेना के जहाजियों के विद्रोह (1946) के समर्थन में कम्युनिस्टों ने मजदूरों व छात्र-संघर्षों को सशक्त नेतृत्व प्रदान किया।

वामपंथी आंदोलन का महत्त्व

वामपंथियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि जिस समय अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति प्राप्त करना भारतीयों के लिए मुख्य उद्देश्य था, उस समय भारतीय साम्यवादी दल ने राष्ट्रवाद से अधिक साम्यवाद को प्राथमिकता दी।

यद्यपि वामपंथियों का श्रमजीवी अंतरराष्ट्रीयवाद और भारतीय राष्ट्रवाद आपस में मेल नहीं खाते थे, फिर भी, वामपंथियों ने मजदूरों और किसानों के मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर उभारने का कार्य किया; भारतीय समाज के वंचित वर्गों, श्रमिकों, छात्रों, किसानों आदि को साम्राज्यवाद के विरुद्ध चल रही लड़ाई से जोड़ा; कांग्रेस की नीतियों को प्रभावित किया और बहुत सारे जन-संगठनों की स्थापना कर आम जनता की समस्याओं को लेकर आवाज बुलंद करने का सराहनीय कार्य किया।

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