भारत में नवपाषाण काल
नवपाषाण काल में प्रागैतिहासिक मानव ने एक नए युग में प्रवेश किया, जो मानव इतिहास की दृष्टि से ‘नवपाषाण क्रांति’ के रूप में जाना जाता है। इस काल में मानव ने प्रकृति के संसाधनों पर पूर्ण निर्भरता छोड़कर स्वयं खाद्य उत्पादन की ओर कदम बढ़ाया। पुरापाषाण और मध्यपाषाण काल के शिकारी-संग्राहक जीवन से अलग होकर उसने जौ, गेहूँ, चावल तथा अन्य अनाजों को उगाना आरंभ किया। साथ ही, जानवरों को पालतू बनाने की प्रक्रिया ने अर्थव्यवस्था को स्थायी आधार प्रदान किया। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि यह संक्रमण धीरे-धीरे हुआ, लेकिन इसके परिणामस्वरूप मानव ने पर्यावरण पर नियंत्रण स्थापित करना सीखा।
पशुपालन की भूमिका
जानवरों को पालतू बनाना नवपाषाण काल का सबसे महत्त्वपूर्ण आविष्कार सिद्ध हुआ। इससे मानव को न केवल मांस और दूध जैसे पोषण स्रोत प्राप्त हुए, बल्कि पशुओं के श्रम का उपयोग जुताई, परिवहन तथा कृषि कार्यों में भी संभव हो गया। प्रारंभ में जंगली प्रजातियों जैसे भेड़, बकरी, गाय और भैंस को पकड़कर पालतू बनाया गया, जो चयनात्मक प्रजनन से मजबूत नस्लों में विकसित हुईं। मेहरगढ़ जैसे स्थलों से प्राप्त हड्डी अवशेष इसकी पुष्टि करते हैं। पशुपालन ने अर्थव्यवस्था को विविधता प्रदान की, क्योंकि इससे मौसमी शिकार पर निर्भरता कम हुई और वर्ष भर दूध तथा ऊन जैसे उत्पाद उपलब्ध हुए। इससे सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आया, जैसे पशु संपत्ति पर आधारित पदानुक्रम।
स्थायी ग्राम-आधारित जीवन का उदय
पौधों और जानवरों को पालतू बनाने की प्रक्रिया से ग्राम-आधारित स्थायी जीवन का आरंभ हुआ। पहले के खानाबदोश समुदायों के विपरीत, मानव ने नदियों और जलस्रोतों के निकट बस्तियाँ बसाईं, जहाँ मिट्टी की दीवारें, घास-फूस की छतें तथा भंडारण गड्ढे बनाए गए। प्राकृतिक संसाधनों के नियोजित उपयोग से कृषि-अर्थव्यवस्था का उदय हुआ, जिसमें बीज बोना, सिंचाई तथा फसल चक्र शामिल थे। इससे अधिशेष उत्पादन संभव हुआ, जो व्यापार, शिल्पकला तथा सामाजिक विभेदन की नींव रखता था। बुर्जहोम और चोपनी मांडो जैसे स्थलों से मृद्भांड तथा पॉलिशदार उपकरण इस स्थायी जीवन की पुष्टि करते हैं।
नवपाषाणकालीन उपकरणों की पहचान
भारत में नवपाषाण संस्कृति को नए प्रकार के परिष्कृत उपकरणों से पहचाना गया, जिन्हें नवपाषाणकालीन उपकरण कहा जाता है। ये उपकरण पुरापाषाण या मध्यपाषाण काल के कच्चे और असंस्कृत पत्थरों से पूर्णतः भिन्न थे, क्योंकि इनमें विशेष चमकदार पॉलिश, पैना किनारा तथा बहुउद्देशीय डिजाइन की विशेषताएँ होती थीं। पॉलिशदार कुल्हाड़ियाँ, हस्त-कुठार तथा हड्डी के औजार कृषि कार्यों, निर्माण गतिविधियों तथा दैनिक जीवन के लिए आदर्श सिद्ध हुए। 1860 ई. में उत्तर प्रदेश से प्राप्त प्रथम उपकरणों ने इस संस्कृति की वैज्ञानिक पहचान स्थापित की। ये उपकरण न केवल तकनीकी उन्नति को सूचक हैं, बल्कि मानव की बढ़ती बौद्धिक क्षमता तथा पर्यावरण के अनुकूलन को भी प्रतिबिंबित करते हैं, जो नवपाषाण काल को सभ्यता के प्रारंभिक चरण के रूप में स्थापित करता है।

नवपाषाणकालीन उपकरणों की खोज
भारत में सर्वप्रथम 1860 ई. में ब्रिटिश अधिकारी ली मेसुरियर ने उत्तर प्रदेश की टौंस नदी घाटी से नवपाषाण काल के प्रारंभिक प्रस्तर उपकरण प्राप्त किए। इसके पश्चात् 1872 ई. में निबलियन फ्रेजर ने कर्नाटक के बेलारी क्षेत्र को दक्षिण भारत का प्रमुख नवपाषाणकालीन स्थल घोषित किया। भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण काल का कालक्रम सामान्यतः 7000 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व तक माना जाता है, जिसमें क्षेत्रीय भिन्नताएँ विद्यमान हैं।
‘नवपाषाण’ शब्द की उत्पत्ति और परिभाषा
नवपाषाण काल को अंग्रेजी में ‘नियोलिथिक’ कहा जाता है, जो यूनानी भाषा के ‘नियो’ (नया) तथा ‘लिथोस’ (पत्थर) शब्दों से संयुक्त है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1865 ई. में सर जान लुब्बॉक ने अपनी पत्रिका ‘प्रीहिस्टोरिक टाइम्स’ में किया। बाद में पुरातत्त्वविद् गॉर्डन चाइल्ड ने इसे आत्मनिर्भर खाद्य-उत्पादक अर्थव्यवस्था के रूप में परिभाषित करते हुए ‘नवपाषाण क्रांति’ नाम दिया। ग्राहम क्लार्क को ‘क्रांति’ शब्द पर आपत्ति थी और वे इसे प्राक्-धातुकालीन चरण का प्रतिनिधित्व मानते थे। माइल्स बर्किट के अनुसार कृषि का आरंभ, पशुपालन, पत्थर उपकरणों पर पॉलिश का विकास तथा मृद्भांड निर्माण नवपाषाण संस्कृति के मूल लक्षण हैं।
विश्व संदर्भ में नवपाषाण संस्कृति
विश्व की प्रारंभिक नवपाषाण संस्कृतियों के साक्ष्य फिलिस्तीन, इज़राइल तथा उत्तरी इराक से प्राप्त हुए हैं। प्राचीनतम फसल के प्रमाण नील नदी घाटी से मिले हैं। जैरिको को विश्व की सबसे पुरानी नवपाषाण बस्ती माना जाता है, जहाँ स्थायी कृषि और मृद्भांड निर्माण के प्रमाण मिले हैं। इस वैश्विक विकास को भारत के नवपाषाण स्थलों जैसे मेहरगढ़ से जोड़ा जा सकता है।
नवपाषाणकालीन उपकरण एवं उनका प्रसार
भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण काल के प्रस्तर उपकरण पुरापाषाण या मध्यपाषाण काल के कच्चे उपकरणों की अपेक्षा कहीं अधिक परिष्कृत, पैने तथा टिकाऊ थे, जो मुख्य रूप से गहरे ट्रैप चट्टानों (बेसाल्ट) से निर्मित होते थे और जिन पर विशेष चमकदार पॉलिश लगाई जाती थी। यह पॉलिश चमकदार पदार्थों या बार-बार घिसाई से प्राप्त की जाती थी, जिससे उपकरणों की धार लंबे समय तक बनी रहती और वे कृषि, निर्माण तथा शिल्प कार्यों में प्रभावी सिद्ध होते। पुरातात्त्विक उत्खननों से पता चलता है कि इनकी निर्माण तकनीक में ब्लेड-कोर विधि का उन्नत रूप तथा बहु-चरणीय पॉलिशिंग शामिल था, जो मानव की बढ़ते शिल्प कौशल का प्रमाण है।
इस काल की सबसे अनिवार्य विशेषता पॉलिशदार कुल्हाड़ी है, जो नवपाषाण संस्कृति का प्रतीक मानी जाती है। ये कुल्हाड़ियाँ आयताकार या अंडाकार आकार की होती थीं, जिनका एक सिरा चौड़ा (काटने के लिए) तथा दूसरा पैना होता था। इन्हें पेड़ काटने, खेत जोतने तथा घर निर्माण में प्रयुक्त किया जाता था। पॉलिशदार हस्त-कुठार (हाथ में पकड़ने योग्य कुल्हाड़ियाँ) के अतिरिक्त अन्य उपकरणों में हथौड़े, वसूली (फावड़ा जैसी), छेनी, कुदाल तथा गदा-शीर्ष शामिल थे। हड्डी तथा सींग से बने उपकरण जैसे सुई, बरमा तथा बाण भी प्रचलित थे, जो वस्त्र निर्माण तथा शिकार में सहायक सिद्ध हुए।

नवपाषाणकालीन अवशेषों का प्रसार उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र से प्रायद्वीपीय भारत तक विस्तृत है। पॉलिशदार हस्त-कुठारों को छोड़कर ये अवशेष पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश), अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान के मेहरगढ़ जैसे स्थलों से लेकर दक्षिण भारत के संगनकल्लू तथा ब्रह्मगिरि तक पाए गए हैं। उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान की गुफाओं से प्राप्त उपकरण जंगली पशुओं के शिकार तथा प्रारंभिक पशुपालन से संबंधित हैं, जबकि प्रायद्वीपीय क्षेत्र में विंध्य, दक्कन तथा पूर्वी घाटों में पाए गए उपकरण कृषि-आधारित बस्तियों के प्रमाण हैं। इस व्यापक प्रसार से स्थानीय संसाधनों के अनुकूलन तथा संभवतः व्यापारिक संपर्कों का संकेत मिलता है, जो नवपाषाण क्रांति के क्षेत्रीय विविधता को रेखांकित करता है।
उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र
अफगानिस्तान और पाकिस्तान में शिकारी गुफाओं से जंगली भेड़, भैंस, बकरी की हड्डियाँ मिली हैं। 7000 ईसा पूर्व में अफगानिस्तान में बकरी-भेड़ पालतू बनाने की शुरुआत हुई। बलूचिस्तान में कृषि-पशुपालन के संकेत मिले हैं। काची मैदान कृषि के लिए उपयुक्त था। मेहरगढ़ में प्रारंभिक कृषि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। सांभर (राजस्थान) से 7000 ईसा पूर्व पुराना पौधा बोने का प्रमाण प्राप्तु हुआ है। मेहरगढ़ से गेहूँ का साक्ष्य 7000 ईसा पूर्व का है, जिसमें जौ की दो और गेहूँ की तीन किस्में के प्रमाण मिले हैं। प्राचीनतम फसल गेहूँ मानी जाती है।
मेहरगढ़ के नवपाषाण स्तर दो चरणों में हैं- मृद्भांडरहित प्रारंभिक चरण और मृद्भांड सहित परवर्ती चरण। मेहरगढ़ जौ-गेहूँ कृषि तथा भेड़-पशु पालतू बनाने का स्वतंत्र केंद्र था। दूसरा चरण ताम्र-पाषाण काल का है, जिसमें कपास-अंगूर की खेती के प्रमाण मिले हैं। प्रारंभिक स्तरों से जंगली चिंकारा, बारहसिंगा आदि ऊपरी स्तरों से पालतू भेड़-बकरी के अवशेष मिले हैं। अर्थव्यवस्था मिश्रित थी, जिसमें कृषि, पशुपालन और शिकार मुख्य थे। लोग चतुर्भुजाकार मिट्टी के घरों में रहते थे, कुछ में घरों में भंडारण कक्ष के प्रमाण मिले हैं। ब्लेड उद्योग से पत्थर के वसूले, घिसने वाले पत्थर और मूसली मिली हैं।
उत्तरी भारत
कश्मीर घाटी में लगभग 2500 ईसा पूर्व में कृषि-आधारित बस्तियाँ विकसित हुईं। बुर्जहोम और गुफकराल जैसे स्थलों से नवपाषाण संस्कृति के स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए हैं। बुर्जहोम स्थल की खोज 1935 ई. में डी. टेरा और एच. डी. पैटरसन द्वारा की गई थी। वहीं, गुफकराल स्थल का उत्खनन 1981 ई. में ए.के. शर्मा ने करवाया था। इन स्थलों की कार्बन-14 तिथियों से पता चलता है कि नवपाषाण संस्कृति का कालक्रम 2500 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व तक रहा था। इस संस्कृति की प्रमुख विशेषता गर्त-निवास (पिट ड्वेलिंग) है, जिनमें लाल-भूरे रंग का चिकना फर्श पाया गया है। गर्त-निवासों के अतिरिक्त भूमि सतह पर बने ऊपरी निवास-गृहों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। उत्खननों से प्राप्त हड्डी के उपकरण शिकार-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर संकेत करते हैं। प्रारंभिक चरण में जंगली भेड़, बकरी, हिरन की हड्डियाँ तथा मसूर, मटर, गेहूँ और जौ जैसे जंगली खाद्यान्नों के अवशेष मिले हैं। बाद के चरणों में पालतू पशुओं और पौधों के प्रमाण सामने आए।
इस काल के अन्य महत्त्वपूर्ण अवशेषों में तक्षणी, हड्डी के तीर की नोकें, मछली पकड़ने की काँटे, सिलबट्टा, हड्डी की सूइयाँ तथा फसल काटने के छेददार यंत्र शामिल हैं। कुछ मानव शवों के साथ कुत्तों के शव भी दफनाए गए थे। इन सभी साक्ष्यों से खाद्य-संग्रहक अर्थव्यवस्था से स्थायी कृषि-अर्थव्यवस्था में संक्रमण की सूचना मिलती है। बुर्जहोम की संस्कृति स्वात घाटी के सरायखोला और घालीगई स्थलों से मेल खाती है। इसके गर्त-निवास और कुत्तों के दफन जैसी विशेषताएँ उत्तरी चीन की नवपाषाण संस्कृति से भी समानता रखती हैं।
विंध्य क्षेत्र
विंध्य पठार अपने घने जंगलों से आच्छादित होने के कारण उच्च पुरापाषाण काल के शिकारियों के लिए अत्यंत उपयुक्त क्षेत्र सिद्ध हुआ। यहाँ की प्राकृतिक समृद्धि ने मानव को स्थायी बस्तियों की ओर संक्रमण करने में सहायता प्रदान की। खाद्य-संग्रहक से खाद्य-उत्पादक अर्थव्यवस्था में संक्रमण के प्रमुख साक्ष्य बेलन घाटी के चोपनी मांडो, कोल्डिहवा तथा महगड़ा स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इन स्थलों ने नवपाषाण काल की स्थायी जीवन-शैली को स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया है। चोपनी मांडो स्थल से साझे चूल्हे या अंगीठियाँ, निहाई उपकरण, ज्यामितीय माइक्रोलिथ, वृत्ताकार पत्थर, हाथ से निर्मित मृद्भांड तथा जंगली चावल के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये अवशेष प्रारंभिक कृषि गतिविधियों और मृद्भांड निर्माण की शुरुआत के सूचक हैं। कोल्डिहवा उत्खनन से तीन सांस्कृतिक स्तर सामने आए हैं-नवपाषाण, ताम्र-पाषाण तथा लौह युग। वहीं महगड़ा स्थल शुद्ध नवपाषाण काल का प्रतिनिधित्व करता है। ये सभी स्थल स्थायी जीवन-शैली, चावल के परिष्करण तथा भेड़-बकरी जैसे पशुओं को पालतू बनाने की प्रक्रिया को प्रमाणित करते हैं। इन स्थलों से संगठित पारिवारिक इकाइयों, मानक प्रकार के मृद्भांडों, भोजन तैयार करने के उपकरणों जैसे हल्की चक्की और मुसली, विशेषीकृत उपकरणों जैसे छेनी तथा वसूला, परिष्कृत चावल की किस्मों तथा पालतू पशुओं के प्रमाण मिले हैं, जो विकसित और अपेक्षाकृत स्थायी जीवन-शैली की ओर संकेत करते हैं।
बेलन घाटी को भारत की प्रथम चावल उगाने वाली बस्ती माना जाता है, जिसका कालक्रम लगभग 6000 ईसा पूर्व है। चोपनी मांडो से प्राप्त प्राक्-नवपाषाणकालीन मृद्भांड विश्व के प्राचीनतम मृद्भांड निर्माण के साक्ष्य के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं।
मध्य गंगा घाटी
मध्य गंगा घाटी के चिराँद, चेचर, सेनानी तथा तारादीह स्थलों के उत्खननों से नवपाषाण काल की जीवन-शैली पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। इन स्थलों से कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था और सामाजिक संगठन की झलक मिलती है।
सेनानी स्थल (रोहतास जिला, बिहार) में चावल, जौ, मटर, मसूर तथा कुछ तिलहन जैसी फसलें उगाई जाती थीं। ये अवशेष स्थानीय जलवायु के अनुकूल विविध फसल प्रणाली के सूचक हैं।
चिराँद स्थल (सारण जिला, बिहार) से मिट्टी की फर्श के अवशेष, मृद्भांड, माइक्रोलिथ उपकरण, हड्डी के औजार, अर्द्ध-कीमती पत्थरों के मनके तथा मानव-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इस स्थल पर गेहूँ, जौ, चावल और मसूर जैसी फसलें उगाई जाती थीं, जो स्थायी कृषि की पुष्टि करती हैं।
पूर्वी भारत
पूर्वी भारत में नवपाषाण संस्कृति असम की पहाड़ियों के अतिरिक्त उत्तरी कछार, गारो तथा नागा पहाड़ियों में फैली हुई पाई जाती है। इस क्षेत्र के नवपाषाण स्तरों में पॉलिशदार गोल और छोटे आकार के हस्त-कुठार तथा रस्सी के चिह्न वाले मृद्भांड प्रमुख रूप से मिले हैं। असम में नवपाषाण संस्कृति का कालक्रम मोटे तौर पर 2000 ईसा पूर्व माना जाता है, जो स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल कृषि और पशुपालन की शुरुआत का सूचक है।
दक्षिणी भारत
दक्षिण भारत में नवपाषाण काल की बस्तियाँ मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों और दक्कन के शुष्क पठार पर स्थित पाई गई हैं। ये बस्तियाँ भीम, कृष्णा, तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के निकट विकसित हुईं, जहाँ औसत वर्षा 25 सेमी से कम होती है। प्रमुख स्थलों में संगनकल्लू, मास्की, ब्रह्मगिरि, तेक्कलकोट, पिकलीहल, कुपगल, हलूर, पलावोई, हेम्मिगे तथा टी. नरसिपुर शामिल हैं।
दक्षिण भारत के प्रारंभिक कृषकों द्वारा उगाई जाने वाली मुख्य फसल रागी थी, जो संभवतः पूर्वी अफ्रीका से आई थी। अन्य फसलें गेहूँ, मसूर, मूँग तथा ताड़ शामिल थीं। सीढ़ीदार कृषि इस काल की प्रचलित कृषि-तकनीक थी, जो ढलान वाले क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए उपयोगी सिद्ध हुई।
कुछ नवपाषाण बस्तियों, जैसे उन्नूर, कोडेकल तथा कुपगल के पास हड्डियों के टीले प्राप्त हुए हैं, जो संभवतः पालतू पशुओं के बाड़ों के रूप में प्रयुक्त होते थे। कृष्णा-गोदावरी के मध्य और ऊपरी भाग में शुद्ध नवपाषाण चरण नहीं मिलता, किंतु कृष्णा की सहायक नदी भीम पर स्थित चंदोली तथा गोदावरी की सहायक नदी प्रवरा पर स्थित नेवासा और दायमाबाद से प्राप्त साक्ष्य ताम्र-पाषाण काल तक के संक्रमण के सूचक हैं।
ताप्ती-नर्मदा घाटी, मध्य प्रदेश तथा गुजरात में नवपाषाण स्तर सीमित रूप से पाए गए हैं। बीना घाटी में एरण तथा दक्षिण गुजरात में जोरवाह से दक्षिण भारतीय प्रकार की तिकोनी कुठार प्राप्त हुई है। चंबल, बनास तथा काली सिंधु नदियों के क्षेत्र में मुश्किल से ही कुछ पॉलिशदार पत्थर के उपकरण मिले हैं। इस क्षेत्र में स्थायी जीवन-शैली ताँबा और काँसे के प्रयोग के बाद ही आरंभ हुई।
नवपाषाणकालीन संस्कृति की विशेषताएँ
नवपाषाण काल की सबसे अनिवार्य विशेषता पॉलिशदार कुल्हाड़ी है, जो गहरे ट्रैप चट्टानों (बेसाल्टिक रॉक) से बनाए जाते थे और जिन पर विशेष प्रकार की चमकदार पॉलिश लगाई जाती थी। पुरापाषाण या मध्यपाषाण काल के कच्चे, असंस्कृत पत्थर उपकरणों के विपरीत, ये पॉलिशदार औजार कृषि कार्यों जैसे पेड़ काटना, खेत जोतना और लकड़ी का काम करने में उपयोगी सिद्ध हुए। हस्त-कुठार, वसूली, कुदाल, गदा-शीर्ष युद्ध, हड्डी छेनी, बरमा, बाण और सुई जैसे उपकरणों से मानव की बढ़ती बौद्धिक क्षमता और तकनीकी प्रगति की सूचना मिलती है, जो शिकार से कृषि की ओर संक्रमण का प्रमाण हैं।

नवपाषाणकालीन मानव आखेटक-पशुपालक से खाद्य उत्पादक-उपभोक्ता बन गय। कृषि का प्रारंभिक प्रमाण लगभग 7000 ई.पू. का मेहरगढ़ (बलूचिस्तान) से गेहूँ का मिला है। 6000 ई.पू. में चावल की खेती के प्रमाण बेलन घाटी के कोल्डिहवा, लहुरादेवा (संत कबीरनगर, उत्तर प्रदेश) तथा महगढ़ा से प्राप्त हुए हैं। बलूचिस्तान में बोलन दर्रे के निकट मेहरगढ़ सबसे प्रारंभिक कृषि बस्ती है, जो 7000 ई.पू. में अस्तित्व में आई। यहाँ कृषि की ओर क्रमिक स्थानीय संक्रमण के स्पष्ट साक्ष्य नहीं हैं; बल्कि खेती-योग्य परिष्कृत अनाज और दालें अचानक सामने आती हैं। संभवतः कृषि की जानकारी पड़ोसी ईरान और इराक से प्राप्त हुई, जहाँ नवपाषाण संस्कृति पहले विकसित थी। बलूचिस्तान में 5000 ई.पू. तक किला गुल मुहम्मद, कलात (क्वेटा घाटी), मुंडिगाक (कंधार के निकट), सरायखोला (तक्षशिला के निकट) तथा शेरीखान तरकाई जैसे कृषि-ग्राम बस्तियों के साक्ष्य मिले है। 4000 ई.पू. में बालाकोट बस्ती अस्तित्व में आई और गिरिपद क्षेत्र (कम ढलान वाले पहाड़ी क्षेत्र) में कृषि विकसित हुई। यही समय था जब यह ज्ञान सिंधु घाटी के आमरी तक पहुँचा, जहाँ कृषि-कर्मकारों का सिंधु मैदान की ओर संचरण हुआ। सिंधु की उपजाऊ कछारी भूमि में अधिशेष उत्पादन हुआ, जिससे हड़प्पा जैसी नगरीय सभ्यता का उदय संभव हो सका।










