मुस्लिम सुधार आंदोलन
उन्नीसवीं शताब्दी में न केवल हिंदू समाज में जागरण लाने के लिए सुधार आंदोलन शुरू हुए, बल्कि मुस्लिम समाज में भी सुधार के लिए आंदोलनों का सूत्रपात हुआ। यह शताब्दी हिंदू समाज के लिए उत्साहवर्धक थी, किंतु मुस्लिम समाज के लिए उतनी प्रभावी सिद्ध नहीं हुई। जहाँ हिंदू समाज में सुधार के लिए ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसाइटी और अन्य सनातनी संस्थाओं ने विभिन्न आंदोलन शुरू किए, वहीं मुस्लिम समाज में सुधार के लिए बहावी आंदोलन, फरायजी आंदोलन, अलीगढ़ आंदोलन, अहमदिया आंदोलन और देवबंद आंदोलन शुरू हुए। इनमें केवल ‘अलीगढ़ आंदोलन’ ही व्यापक रूप से लोकप्रिय हो सका। चूंकि इन मुस्लिम आंदोलनों के उद्देश्य सीमित थे, इसलिए ये हिंदू आंदोलनों की तरह मुस्लिम जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करने में असफल रहे।
अठारहवीं शताब्दी में मुस्लिम समाज की स्थिति
अठारहवीं शताब्दी में मुसलमान निराशाजनक स्थिति में थे, क्योंकि औरंगजेब के दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय में मुगल साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई थी और मुस्लिम समाज की प्रभा धूमिल होने लगी थी। देश में न तो राजनीतिक एकता थी और न ही पतनोन्मुख साम्राज्य को सँभालने के लिए बादशाहों के पास शक्ति थी। इस समय राजपूत और मराठों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर मुगलों को चुनौती देनी शुरू कर दी थी, किंतु इन भारतीय शक्तियों की सफलता क्षणिक सिद्ध हुई।
अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही भारत में व्यापार के उद्देश्य से यूरोपीय जातियों का आगमन शुरू हो गया था। सदी के उत्तरार्ध में इन यूरोपीय व्यापारियों ने केंद्रीय सत्ता की कमजोरी का लाभ उठाकर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के प्रयास शुरू किए और उनमें आपसी प्रतिद्वंद्विता शुरू हो गई। इस प्रतिद्वंद्विता में डच और पुर्तगाली पीछे छूट गए और बाजी अंग्रेजों के हाथ लगी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में प्लासी और 1764 में बक्सर के युद्धों में भारत की प्रमुख शक्तियों को हराकर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इससे मुसलमानों की शेष आशाएँ भी समाप्त हो गईं।
1857 की क्रांति के दौरान बहादुरशाह ‘जफर’ को गद्दी से हटाए जाने के बाद मुगलों के राजनीतिक गौरव का अंत हो गया। इससे मुसलमानों की राजनीतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा, धर्म और आर्थिक संपन्नता खतरे में पड़ गई। कंपनी सरकार ने उनकी संपत्ति जब्त की, उन्हें राजनीतिक पदों से हटाया और काफी हद तक उनका दमन कर उनके मनोबल को तोड़ दिया, जिससे मुस्लिम समाज में सर्वत्र निराशा व्याप्त हो गई।
उन्नीसवीं शताब्दी में मुस्लिम सुधार आंदोलन
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों से विभिन्न इस्लामी सुधार आंदोलनों के माध्यम से आम जनता के स्तर पर एक सुस्पष्ट मुस्लिम पहचान विकसित होने लगी। इन आंदोलनों ने पहले के समन्वयवाद को अस्वीकार किया और मुसलमानों की संस्कृति, भाषा और रोजमर्रा के तौर-तरीकों के इस्लामीकरण और अरबीकरण के प्रयास में उन चीजों को हटा दिया, जिन्हें वे ‘गैर-इस्लामी’ मानते थे। जहाँ हिंदुओं की पश्चिम के प्रति प्रारंभिक प्रतिक्रिया जिज्ञासा से भरी थी, वहीं मुसलमानों की पहली प्रतिक्रिया अपने आपको बाहरी प्रभावों से बचाने और एक संकीर्ण ढाँचे में बंद रखने की थी।
1860 के दशक में धार्मिक सुधार की दो सुस्पष्ट धाराएँ विकसित हुईं। एक ओर अब्दुल लतीफ खाँ और उनकी ‘मोहम्मडन लिटरेरी सोसाइटी’ (1863) ने इस्लामी शिक्षा की परंपरागत व्यवस्था के अंतर्गत आधुनिक विचारों के आलोक में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया और उच्च तथा मध्यवर्गीय मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए प्रेरित किया। दूसरी ओर सैयद अमीर अली और उनके ‘सेंट्रल नेशनल मुहम्मडन एसोसिएशन’ (1877-1878) ने पश्चिमी और धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण पुनर्गठन का समर्थन किया। इस प्रकार धार्मिक कट्टरता के स्थान पर मुसलमानों ने आधुनिकीकरण पर बल देना शुरू किया।
मोहम्मडन लिटरेरी सोसाइटी
‘मोहम्मडन लिटरेरी सोसाइटी’ की स्थापना 1863 में कलकत्ता में नवाब अब्दुल लतीफ (1828-1893) ने की थी। इसका प्रमुख उद्देश्य शोषित, वंचित और पिछड़े मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार करना और उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाना था। अब्दुल लतीफ ने विशेष रूप से बंगाल के मुसलमानों में शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ हिंदू-मुस्लिम एकता को भी बढ़ावा दिया। यही कारण है कि उन्हें ‘बंगाल के मुस्लिम पुनर्जागरण का पिता’ कहा जाता है।
सर सैयद अहमद खाँ और अलीगढ़ आंदोलन
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुस्लिम समाज में सुधार आंदोलन के प्रणेता सर सैयद अहमद खाँ (1817-1898) थे। वह आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे और जीवन भर इस्लाम को आधुनिकता के साथ समन्वित करने के लिए प्रयासरत रहे। सैयद अहमद खाँ जानते थे कि भारत के मुसलमान तभी प्रगति कर सकते हैं, जब वे आधुनिक शिक्षा को अपनाएँ। उन्होंने ब्रिटिश सरकार और अंग्रेजी शिक्षा के सहयोग से मुसलमानों की बेहतरी और सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए आधुनिकता का जो आंदोलन शुरू किया, उसे ‘अलीगढ़ आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। सर सैयद अहमद खाँ को आधुनिक भारत में ‘मुसलमानों का राजनीतिक पथ-प्रदर्शक’ कहा जाता है। उनके अलीगढ़ समूह में चिराग अली, उर्दू शायर अल्ताफ हुसैन हाली और नजीर अहमद जैसे प्रमुख नेता भी शामिल थे।
सर सैयद अहमद खाँ का प्रारंभिक जीवन
सर सैयद अहमद खाँ का जन्म 17 अक्टूबर,1817 को दिल्ली के एक सैयद परिवार में हुआ। उनका खानदान धार्मिक विचारों से प्रभावित था। उनके पिता मीर मुत्तकी नक्शबंदी संप्रदाय से संबंधित थे। पिता की ओर से उनका परिवार मुगल साम्राज्य की सेवा में था, जिसके कारण सैयद अहमद का मुगल दरबार से निकट संपर्क था।
उन्होंने प्राचीन शिक्षा के आधार पर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। अठारह-उन्नीस वर्ष की आयु तक उन्होंने कुरान शरीफ, अरबी और फारसी का अध्ययन कर लिया और गणित का भी कुछ ज्ञान अर्जित किया। किंतु उनकी शिक्षा नियमित ढंग से नहीं हुई थी, जिसके कारण उनके इस्लामी विषयों का ज्ञान अधूरा रहा। फिर भी, उनकी विद्या के प्रति रुचि जीवन भर बनी रही। 1857 के बाद उन्होंने पश्चिमी विचारों का अध्ययन किया और अंग्रेजी का कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त किया। इंग्लैंड की यात्रा (1869-1870) और पश्चिमी विचारों के अध्ययन ने सैयद अहमद को अंग्रेजों और उनकी सभ्यता का प्रशंसक बना दिया।
सरकारी सेवा (1839-1876)
जब सैयद अहमद इक्कीस वर्ष के थे, उनके पिता का देहावसान हो गया, और परिवार का सारा भार उनके कंधों पर आ पड़ा। परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्होंने अपने चाचा के साथ अदालती काम सीखना शुरू किया। दिल्ली में काम सीखने के दौरान उनका परिचय हैमिल्टन नामक एक अंग्रेज जज से हुआ, जिसने उन्हें आगरा बुलाकर 1839 में कमिश्नरी के दफ्तर में नायब मुंशी के पद पर नियुक्त किया। 1841 में उन्होंने मुंसिफी की परीक्षा उत्तीर्ण की और मुंसिफ बनकर मैनपुरी आ गए। 1846 में उनका स्थानांतरण दिल्ली हो गया। आगरा और दिल्ली में सरकारी सेवा के दौरान उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। 1855 में वे सदर अमीन बनकर बिजनौर आ गए। 1857 की सिपाही क्रांति के समय वे बिजनौर में थे, जहाँ उन्होंने क्रांति पर एक ऐतिहासिक पुस्तिका ‘असबाब-ए-बगावत-ए-हिंद’ लिखी।
एक अधिकारी के रूप में सैयद अहमद ने कई विद्यालय स्थापित किए, कई पश्चिमी ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद करवाया और अनेक पुस्तकों व पत्रिकाओं को प्रकाशित कर मुस्लिम जागरण का कार्य किया। उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा की और वहाँ लगभग डेढ़ वर्ष (1869-1870) रहकर अंग्रेजों के विचारों और सभ्यता का अध्ययन किया। भारत लौटकर उन्होंने अलीगढ़ आंदोलन शुरू किया और 1875 में ‘अलीगढ़ मुस्लिम स्कूल’ की स्थापना की। 1876 में वे सरकारी सेवा से मुक्त हुए और स्थायी रूप से अलीगढ़ में रहने लगे। 1878 में उन्हें ‘इंडियन लेजिस्लेटिव कौंसिल’ का सदस्य बनने का अवसर मिला। अब वे एक नेता के रूप में सुधार और जागरण का कार्य करने लगे। 1898 में 81 वर्ष की आयु में हृदयगति रुकने से उनका निधन हो गया।
अलीगढ़ आंदोलन
सर सैयद अहमद खाँ पश्चिमी शिक्षा के माध्यम से मुसलमानों का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे, क्योंकि उनका विष्वास था कि मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक जीवन पश्चिमी वैज्ञानिक ज्ञान और संस्कृति को अपनाकर ही सुधर सकता है। उन्होंने पारंपरिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अंग्रेजी सीखने और पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए मुस्लिम शिक्षा के आधुनिकीकरण का प्रयास किया।
साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना (1864)
अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सैयद अहमद ने 1864 में गाजीपुर में ‘साइंटिफिक सोसाइटी’ (वैज्ञानिक समाज) की स्थापना की, ताकि पश्चिमी कार्यों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जा सके, मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जाए और उनमें वैज्ञानिक प्रवृत्ति पैदा की जाए। यह सोसाइटी उर्दू और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पत्रिकाएँ प्रकाशित करती थी। बाद में इसे अलीगढ़ स्थानांतरित कर दिया गया।
सैयद अहमद पश्चिमी वैज्ञानिक शिक्षा को कुरान की शिक्षाओं के साथ समन्वित करना चाहते थे। उन्होंने कुरान पर लिखी अपनी महत्त्वपूर्ण टीका में परंपरागत टीकाकारों की आलोचना की और आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के अनुसार अपना मत व्यक्त किया। उन्होंने घोषणा की कि इस्लाम की एकमात्र प्रमाणिक पुस्तक ‘कुरान’ है और अन्य सभी इस्लामी लेखन गौण महत्त्व के हैं। उनके अनुसार यदि कुरान की कोई व्याख्या मानव बुद्धि, विज्ञान या प्रकृति से टकराती है, तो वह गलत है। उनका कहना था कि सांसारिक मामलों में हदीस का हुक्म मानना आवश्यक नहीं है, किंतु धार्मिक मामलों में हदीस के अनुसार आचरण करना अनिवार्य है। 1870 में उन्होंने फारसी भाषा में ‘तहज़ीब-उल-अखलाक’ (सभ्यता और नैतिकता) पत्रिका प्रकाशित की और मुसलमानों की परंपरागत मान्यताओं पर प्रहार किया।
सैयद अहमद ने लोगों से आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचार की स्वतंत्रता अपनाने का आग्रह किया और कहा: “जब तक विचार की स्वतंत्रता विकसित नहीं होती, तब तक सभ्य जीवन संभव नहीं है।” उनका मानना था कि बंद दिमाग सामाजिक-बौद्धिक पिछड़ेपन की निशानी है। इस प्रकार उन्होंने आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचार की स्वतंत्रता की वकालत की।
मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (1877)
सर सैयद ने ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विष्वविद्यालयों की तर्ज पर एक विष्वविद्यालय स्थापित करने के लिए 24 मई 1875 को महारानी विक्टोरिया की 56वीं जयंती पर अलीगढ़ में ‘मदरसतुल उलूम मुसलमान-ए-हिंद’ (अलीगढ़ स्कूल) की स्थापना की। 8 जनवरी 1877 को लॉर्ड लिटन ने इसका शिलान्यास ‘मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज’ के नाम से किया। रूढ़िवादियों के विरोध के बावजूद यह कॉलेज प्रगति करता गया और 1920 में ‘अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय’ के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। सर सैयद के शैक्षिक कार्य में मुहसिन-उल-मुल्क, बकरूल मुल्क, डॉ. नज़ीर अहमद और शायर अल्ताफ हुसैन हाली जैसे विद्वानों ने सहयोग किया। इस प्रकार सर सैयद भारतीय मुसलमानों के पहले समाज सुधारक थे, जिन्होंने अज्ञानता की काली चादर को हटाकर मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना जागृत की।
यद्यपि अलीगढ़ कॉलेज एक राजनीतिक उद्यम था, जिसका उद्देश्य मुस्लिम छात्रों में एक कौम की सदस्यता की भावना पैदा करना और उनके माध्यम से उत्तर भारत की मुस्लिम आबादी में सामाजिक पहुँच बढ़ाना था, किंतु इसके कोष में हिंदुओं, पारसियों और ईसाइयों ने भी उदारतापूर्वक दान दिया। इसके दरवाजे सभी भारतीयों के लिए खुले थे। उदाहरण के लिए 1898 में इस कॉलेज में 64 हिंदू और 285 मुस्लिम छात्र थे। सात भारतीय अध्यापकों में दो हिंदू थे, जिनमें एक संस्कृत के प्रोफेसर थे।
सामाजिक सुधार और राजनीतिक दृष्टिकोण
सर सैयद सामाजिक सुधारों के प्रबल पक्षधर और लोकतांत्रिक आदर्शों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक थे। वह जीवन भर परंपराओं के अंधानुकरण, रूढ़ियों पर भरोसे, अज्ञान और तर्कहीनता के खिलाफ संघर्ष करते रहे। उन्होंने मुसलमानों से मध्यकालीन रीति-रिवाजों और विचारों को त्यागने का आग्रह किया। उन्होंने पर्दा प्रथा समाप्त करने और स्त्रियों में शिक्षा के प्रसार का समर्थन किया। वह सामान्य परिस्थितियों में बहुविवाह और छोटी-छोटी बातों पर तलाक के रिवाज के भी विरुद्ध थे। उन्होंने ‘जिहाद’ का समर्थन नहीं किया, किंतु कहा कि यदि कोई गैर-मुस्लिम शक्ति इस्लाम या मुस्लिम समुदाय पर आक्रमण करती है, तब मुसलमान ‘जिहाद’ कर सकते हैं।
सैयद अहमद न केवल मुस्लिम समाज की कुरीतियों को दूर कर उनके दृष्टिकोण को आधुनिक बनाना चाहते थे, बल्कि उनका विष्वास था कि अंग्रेजों के शासन के अधीन रहकर ही मुसलमानों की स्थिति को उन्नत बनाया जा सकता है। वह चाहते थे कि अंग्रेजों और मुसलमानों के बीच संदेह और द्वेष की भावना को दूर किया जाए। उनका कहना था कि मुसलमान अंग्रेजों के शासन के सहयोगी हैं, शत्रु नहीं।
सैयद अहमद ने कुरान और हदीस से कुछ आयतों का हवाला देकर यह सिद्ध किया कि मुसलमानों और ईसाइयों के बीच सदा मैत्रीपूर्ण संबंध रहे हैं। यद्यपि उन्होंने कुरान में कोई हस्तक्षेप नहीं किया, किंतु धर्म की नई व्याख्या कर भारतीय मुसलमानों और ईसाइयों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। 1873 में लाहौर में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था: “मुसलमानों का अंग्रेजों से शत्रुता रखना वैसा ही है, जैसे नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर रखना। इसलिए उनके लिए यह आवश्यक है कि वे उनसे मैत्री रखें।” इसके बदले में वह चाहते थे कि अंग्रेज सरकार मुसलमानों के हितों की रक्षा करे और उनके धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप न करे।
वास्तव में, सर सैयद का राजनीतिक दर्शन इस विचार के इर्द-गिर्द घूमता था कि भारतीय समाज विभिन्न प्रतियोगी समूहों (कौमों) का महासंघ है, जिनमें से प्रत्येक की एक साझी वंश-परंपरा है। भूतपूर्व शासक वर्ग के रूप में मुसलमानों को शक्ति और सत्ता में विशेष प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और राजनीतिक व्यवस्था के साथ उनका विशेष संबंध होना चाहिए।
धार्मिक सहिष्णुता और राष्ट्रीय एकता
सर सैयद धार्मिक सहिष्णुता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अपने कई व्याख्यानों और निबंधों में राष्ट्रीय एकता पर बल दिया। उनका विष्वास था कि सभी धर्मों में एक बुनियादी एकता मौजूद है, जिसे व्यवहारिक नैतिकता कहा जा सकता है। वह मानते थे कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और इसलिए वैयक्तिक संबंधों में धार्मिक कट्टरता की निंदा करते थे। वे सांप्रदायिक टकराव के भी विरोधी थे। हिंदुओं और मुसलमानों से एकता का आग्रह करते हुए उन्होंने 27 जनवरी 1883 को पटना में कहा था:
“हम दोनों भारत की हवा में साँस लेते हैं और गंगा-यमुना का पवित्र जल पीते हैं। हम भारत की जमीन की उपज से अपनी भूख मिटाते हैं। जीवन और मृत्यु, दोनों में हम एक साथ हैं। भारत में हमारे निवास ने हमारा खून बदल दिया है, हमारे शरीरों के रंग एक हो चुके हैं, हमारे हुलिए समान हो चुके हैं। निःसंदेह इस आधार पर कि हम दोनों एक ही देश में रहते हैं, हमारा एक राष्ट्र और देश है। हम दोनों की प्रगति और कल्याण हमारी एकता, पारस्परिक सहानुभूति, और प्रेम पर निर्भर है, जबकि हमारे पारस्परिक मतभेद, अकड़, विरोध और फूट निश्चित रूप से हमें नष्ट कर देंगे।”
आर्य समाज के सदस्यों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने शिकायत भरे शब्दों में कहा था: “मैं हिंदू क्यों नहीं माना जाता?” उनके शब्द थे: “मेरे विचार में हिंदू किसी धर्म का नाम नहीं है, बल्कि हर वह व्यक्ति जो हिंदुस्तान का रहने वाला है, अपने आपको हिंदू कहता है। इसलिए मुझे खेद है कि आप मुझे हिंदू नहीं समझते, यद्यपि मैं हिंदुस्तान का निवासी हूँ।” उन्होंने आगे कहा कि भारत की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि हिंदू और इस्लाम धर्म के अनुयायी आपस में मिलकर कार्य करें। वह चाहते थे कि धर्म के भेद पर ध्यान न देकर हिंदुओं और मुसलमानों में दोस्ती, मुहब्बत, एकता और हमदर्दी हो, जैसे राजनीतिक मतभेद भूलकर सामाजिक व्यवहार में मुहब्बत, हमदर्दी और भाईचारा रहे।
अलीगढ़ आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन
अकसर कहा जाता है कि सर सैयद अहमद खाँ और अलीगढ़ आंदोलन का विकास कांग्रेसी नेतृत्व वाले राष्ट्रवाद के विरोध में और अंग्रेजी राज के प्रति वफादारी के रूप में हुआ। दरअसल, सर सैयद जीवन के प्रारंभिक दौर में राष्ट्रवादी थे, किंतु अंतिम वर्षों में वह मुस्लिम हितों की पैरवी करते हुए इससे दूर चले गए। जब 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ, तब सैयद अहमद ने इसे हिंदुओं के वर्चस्व वाला संगठन बताया और अपने अनुयायियों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए 1888 में ‘शिक्षा सम्मेलन कॉन्फ्रेंस’ के मंच से ‘इंडियन पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ की स्थापना की। इस संगठन का मुख्य लक्ष्य मुस्लिम जनमत को संगठित करना और सामंती व रूढ़िवादी तत्वों का राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध समर्थन प्राप्त करना था। बाद में इस एसोसिएशन के नाम में ‘यूनाइटेड’ शब्द जोड़ा गया। कांग्रेस का विरोध करने के लिए उन्होंने 1890 में ‘मुहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस’ और दिसंबर 1893 में ‘मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल डिफेंस एसोसिएशन’ की स्थापना की।
फिर भी, सैयद अहमद बुनियादी तौर पर सांप्रदायिक नहीं थे। वे उच्च और मध्यवर्गीय मुसलमानों का पिछड़ापन समाप्त करना चाहते थे। चूंकि उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार को आसानी से हटाया जाना संभव नहीं है और अंग्रेजों से शत्रुता शिक्षा प्रसार के लिए घातक हो सकती है, इसलिए उन्होंने भारतीयों, विशेषकर पिछड़े मुसलमानों से अपील की कि वे कुछ समय के लिए राजनीति से दूर रहें।
उत्तर भारत के मुस्लिम समुदाय ने सर सैयद के नेतृत्व को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। देवबंद के उलेमाओं ने 1888 में उनके विरुद्ध फतवा जारी किया, क्योंकि वे उनकी पश्चिमीकरण की मुहिम को पसंद नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यह मुस्लिम समाज में उनकी प्रधानता के लिए खतरा है। जमालुद्दीन अल-अफगानी जैसे लोग भी थे, जो कट्टर उपनिवेशवाद विरोधी थे और सैयद अहमद की अंग्रेजों के प्रति वफादारी को स्वीकार नहीं करते थे।
1880 के दशक के अंत तक उत्तर भारत के कई मुसलमान कांग्रेस की ओर झुकने लगे थे। 1887 में बंबई के बदरुद्दीन तय्यबजी इसके पहले मुस्लिम अध्यक्ष बने। 1890 के दशक के अंत तक पंजाब के कई उर्दू अखबार यह कहने लगे थे कि अलीगढ़ संप्रदाय भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। 1898 में सर सैयद की मृत्यु के बाद अलीगढ़ की युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इसकी मौजूदा राजनीतिक परंपरा से दूर होने लगी।

अलीगढ़ आंदोलन का मूल्यांकन
कई इतिहासकारों ने अलीगढ़ आंदोलन और सर सैयद अहमद खाँ की आलोचना की है कि इस आंदोलन के परिणामस्वरूप देश में सांप्रदायिकता की शुरुआत हुई। दरअसल, यह आंदोलन उतना हिंदू-विरोधी नहीं था, जितना मुस्लिम-समर्थक था। भारत के मुसलमानों के लिए इस आंदोलन का वही महत्त्व था, जो हिंदुओं के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण का था। इसने मुस्लिम समुदाय को मध्ययुगीन वातावरण से बाहर निकाला और आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर किया। राममोहन रॉय की तरह सैयद अहमद अपने समाज को अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी ज्ञान के माध्यम से उन्नत और आधुनिक बनाने के लिए कृतसंकल्प थे। वह अपने अलीगढ़ कॉलेज और शिक्षा के प्रसार के लिए इतने कटिबद्ध थे कि इसके लिए अन्य सभी हितों का बलिदान करने को तैयार थे। रूढ़िवादी मुसलमानों को कॉलेज का विरोध करने से रोकने के लिए उन्होंने धार्मिक सुधार के आंदोलन को भी लगभग त्याग दिया था। किंतु सांप्रदायिकता और अलगाववाद को प्रोत्साहन देना एक गंभीर राजनीतिक भूल साबित हुई।
सैयद अहमद खाँ भारत में मुस्लिम समाज के जागरण के अग्रदूत थे। उन्होंने मुस्लिम समाज की प्रगति और विकास के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। उनके प्रयासों से अखिल भारतीय मुस्लिम महिलाओं की सभाएँ होने लगीं। भोपाल की बेगम साहिबा ने 1914 और 1918 के दौरान अखिल भारतीय नारी सभा का सभापतित्व किया और स्त्रियों के लिए कई सामाजिक व शैक्षिक सुधार आंदोलन चलाए। कुलीन और शिक्षित क्षेत्रों की प्रमुख महिलाएँ उच्च शिक्षा ग्रहण करने लगीं, उन्होंने पर्दा छोड़ दिया और राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं। ताराचंद लिखते है: “उन्होंने अपने गौरवमय नेतृत्व से मुस्लिम समाज को निराशा के कीचड़ से उबार लिया। उन्होंने उनके मन को दकियानूसी ज्ञान से हटाकर आधुनिक शिक्षा की ओर प्रवृत्त किया, जिससे वे अपने देश के मामलों में सही भाग लेने में समर्थ हुए। उन्होंने अंग्रेज शासकों के संदेह और शत्रुता को विष्वास और प्रेम में बदल दिया।”
देवबंद स्कूल और नदवत-उल-उलेमा
देवबंद स्कूल एक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। इसकी शुरुआत उदारवादी आंदोलन के विरोध में रूढ़िवादी मुस्लिम उलेमा मुहम्मद कासिम नानौतवी और राशिद अहमद गंगोही के नेतृत्व में 1866 में सहारनपुर (संयुक्त प्रांत) के देवबंद में ‘दारुल उलूम’ मदरसे की स्थापना के साथ हुई।
इस आंदोलन के दो मुख्य उद्देश्य थे: पहला, मुसलमानों में कुरान और हदीस की शुद्ध शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए भावी नेताओं को तैयार करना और दूसरा, विदेशी शासकों के विरुद्ध जिहाद की भावना को जीवित रखना।
जहाँ अलीगढ़ आंदोलन का उद्देश्य पश्चिमी शिक्षा के प्रसार और ब्रिटिश सरकार के समर्थन से मुसलमानों की बेहतरी था, वहीं देवबंद आंदोलन का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय का नैतिक और धार्मिक उत्थान करना था।
राजनीतिक क्षेत्र में देवबंद स्कूल ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन का स्वागत किया, किंतु 1888 में सैयद अहमद खाँ के संगठनोंकृ‘यूनाइटेड पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ और ‘मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल डिफेंस एसोसिएशन’कृके विरुद्ध फतवा जारी किया।
इस संस्था के मौलाना महमूद-उल-हसन, जिन्हें ‘शैखुल हिंद’ की उपाधि प्राप्त थी, ने इस संस्था के धार्मिक विचारों को राजनीतिक और बौद्धिक आयाम प्रदान किए। उन्होंने इस्लामी सिद्धांतों और राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के संश्लेषण पर काम किया। ‘जमीयत-उल-उलेमा’ ने हसन के विचारों को भारतीय एकता और राष्ट्रीय उद्देश्यों के संदर्भ में मुसलमानों के धार्मिक व राजनीतिक अधिकारों के संरक्षण के लिए ठोस आकार दिया।
देवबंद स्कूल के समर्थकों में शिबली नोमानी, फारसी और अरबी के प्रसिद्ध विद्वान और लेखक थे। उन्होंने परंपरागत मुस्लिम शिक्षा में सुधार के लिए औपचारिक शिक्षा के स्थान पर अंग्रेजी भाषा और यूरोपीय विज्ञान को शामिल करने का समर्थन किया। वह कांग्रेस के आदर्शवाद में विष्वास करते थे और भारत के मुसलमानों व हिंदुओं के बीच एक ऐसे राज्य की स्थापना की वकालत करते थे, जिसमें दोनों सौहार्दपूर्ण ढंग से रह सकें।
मुस्लिम समाज के विभिन्न समूहों के बीच सामंजस्य और सहयोग के लिए 1893 में कानपुर में ‘नदवत-उल-उलेमा’ की स्थापना की गई, जिसे 1898 में लखनऊ स्थानांतरित कर दिया गया। इसने अप्रैल 1894 में अपना पहला सम्मेलन किया, जिसमें मौलाना अब्दुल्ला अंसारी और मौलाना शिबली नोमानी सहित अरबी और फारसी के विद्वानों ने भाग लिया। नदवत-उल-उलेमा के पहले नाज़िम सैयद मुहम्मद अली थे। ‘नदवा’ का अर्थ है विधानसभा या समूह और इसका नाम इसलिए रखा गया क्योंकि इसका गठन विभिन्न इस्लामिक स्कूलों के भारतीय इस्लामी विद्वानों के एक समूह द्वारा किया गया था।
प्रारंभ में दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक, जैसे राशिद अहमद गंगोही और कासिम नानौतवी नदवा आंदोलन के खिलाफ थे, किंतु बाद में वे इसमें शामिल हो गए। अब नदवा ‘दारुल उलूम’ देवबंद का ही एक संस्थान है, जो इसके उपदेशों का प्रचार करता है।
अहमदिया आंदोलन
अहमदिया इस्लाम का एक संप्रदाय है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई। इसकी स्थापना मिर्ज़ा गुलाम अहमद (1835-1908) ने 23 मार्च 1889 को गुरदासपुर (पंजाब) के कादियान में की थी। इस संप्रदाय का उद्देश्य भारत में शुद्ध इस्लाम की स्थापना करना और मुसलमानों की आधुनिक औद्योगिक व तकनीकी प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। मिर्ज़ा गुलाम अहमद के शिष्य ‘कादियानी’ कहलाए, जिसके कारण इस आंदोलन को ‘कादियानी आंदोलन’ भी कहा जाता है।
मिर्ज़ा गुलाम अहमद का जन्म 1835 में गुरदासपुर जिले (पंजाब) के कादियान में हुआ था। उन्हें मुस्लिम धर्मशास्त्र के साथ-साथ अरबी और फारसी भाषा का भी ज्ञान था।
मिर्जा गुलाम अहमद पश्चिमी उदारवाद, ब्रह्मविद्या, और हिंदुओं के धार्मिक सुधार आंदोलनों से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने 1890 में अपनी पुस्तक ‘बराहीन-ए-अहमदिया’ में अपने सिद्धांतों की व्याख्या की। उन्होंने मुसलमानों को मौलवियों की बुराइयों से बचने और पीरों व कब्रों की इबादत न करने की अपील की। उन्होंने पर्दा प्रथा और तलाक का समर्थन किया।
मिर्ज़ा गुलाम ने ‘जिहाद’ का विरोध किया, 1891 में स्वयं को हजरत मुहम्मद की बराबरी का इस्लाम का ‘पैगंबर’ (मसीहा) घोषित किया और स्वयं को ‘पुनर्जागरण का वाहक’ बताया। बाद में उन्होंने अपने आपको कृष्ण और विष्णु के अंतिम अवतार के रूप में भी माना।
अहमदिया समुदाय एकमात्र इस्लामी संप्रदाय है, जो मानता है कि मसीहा मिर्ज़ा गुलाम अहमद का जन्म धार्मिक युद्धों और रक्तपात को समाप्त करने तथा नैतिकता, शांति और न्याय को बहाल करने के लिए हुआ था। वह मस्जिद (धर्म) को राज्य से अलग करने और मानवाधिकार व सहिष्णुता में विष्वास करते थे।
1908 में मिर्ज़ा गुलाम अहमद की मृत्यु के बाद अहमदिया आंदोलन की बागडोर एक खलीफा ने सँभाली। किंतु प्रथम विष्वयुद्ध के दौरान इस संप्रदाय में फूट पड़ गई। कादियानी दल से अलग होकर ख्वाजा कमरुद्दीन और मोहम्मद अहमद अली ने ‘लाहौरी दल’ का गठन किया। कादियानी दल का कहना था कि संप्रदाय के प्रवर्तक को ‘नबी’ समझना चाहिए, जबकि लाहौरी दल के अनुयायी उन्हें इस्लाम में केवल ‘मुजाहिद’ या ‘सुधारक’ मानते थे।
अन्य मुस्लिम आंदोलन
पंजाब में अन्य मुस्लिम आंदोलन भी शुरू हुए। 1885 में ‘अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम’ का आंदोलन शुरू हुआ, जिसके सदस्यों ने मुस्लिम समाज के सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक स्तर को उन्नत करने का प्रयास किया।
पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने ‘खुदाई खिदमतगार आंदोलन’ शुरू किया और भ्रातृत्व की भावना का प्रसार किया। इसी प्रकार इनायतुल्लाह खाँ ने ‘खाकसार आंदोलन’ को जन्म दिया, जिसने अनुशासन और सैनिक शिक्षा पर बल दिया।
मुहम्मद इकबाल
आधुनिक भारत के महानतम कवियों में से एक मुहम्मद इकबाल (1877-1938) ने अपनी कविता के माध्यम से युवा मुसलमानों और हिंदुओं के दार्शनिक व धार्मिक दृष्टिकोण पर गहरा प्रभाव डाला। स्वामी विवेकानंद की तरह उन्होंने निरंतर परिवर्तन और अबाध कर्म पर बल दिया और विराग, ध्यान,और एकांतवास की निंदा की। उन्होंने गतिमान दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह किया, जो दुनिया को बदलने में सहायक हो। वह मूलतः मानवतावादी थे और मानव कर्म को प्रमुख धर्म मानते थे। उनका मानना था कि निरंतर कर्म द्वारा इस विष्व को नियंत्रित करना चाहिए, क्योंकि स्थिति को निष्क्रिय रूप से स्वीकारना सबसे बड़ा पाप है। कर्मकांड, विराग और दूसरी दुनिया में विष्वास की प्रवृत्ति की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि मानव को इसी चलायमान दुनिया में सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अपनी प्रारंभिक कविताओं में उन्होंने देशभक्ति के गीत गाए, यद्यपि बाद में वे मुस्लिम अलगाववाद के समर्थक हो गए।
पारसियों में धार्मिक सुधार
सुधारवादी वातावरण में पारसी धर्म और समाज में भी सुधार की शुरुआत हुई। 1851 में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नौरोजी फरदूनजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली और कुछ अन्य लोगों ने बंबई में ‘रहनुमाए मज्दायासन सभा’ (रिलीजस रिफॉर्म एसोसिएशन) का गठन किया। इसका उद्देश्य पारसियों की सामाजिक स्थिति का पुनरुद्धार करना और पारसी धर्म को प्राचीन शुद्धता प्रदान करना था। सभा के संदेशों को प्रसारित करने के लिए गुजराती भाषा में ‘रास्त गोफ्तार’ (सत्यवादी) पत्रिका शुरू की गई। दादाभाई नौरोजी (1825-1917) पारसी कानून संघ के जन्मदाताओं में से थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा के प्रसार के लिए ‘ज्ञान प्रसारक मंडली’ नामक एक महिला हाईस्कूल की स्थापना की। पारसी धर्म में व्याप्त रूढ़ियों और कर्मकांडों को दूर कर उनके सामाजिक रीति-रिवाजों के आधुनिकीकरण का प्रयास किया गया। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार कर पर्दा प्रथा समाप्त की गई, विवाह की आयु बढ़ाई गई और स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर दिया गया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप पारसी भारतीय समाज के सबसे विकसित अंग बन गए।
सिखों में धार्मिक सुधार
कूका आंदोलन
पश्चिम के विकासशील और तर्कसंगत विचारों ने सिख संप्रदाय को भी प्रभावित किया। सिख सुधार आंदोलन के अगुआ दयालदास थे, जिन्होंने निरंकारी आंदोलन शुरू किया था। पंजाब में पहला सामाजिक-धार्मिक आंदोलन कूका आंदोलन था, जिसकी शुरुआत 1840 में भगत जवाहर मल (सियेन साहब) ने की थी। इसने सिख धर्म में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों, जाति-भेद, और अस्पृश्यता को दूर करने तथा अंतर्जातीय विवाहों पर बल दिया। इन सुधारकों ने सभी प्रकार की सामाजिक कुरीतियों और मूर्तिपूजा को बंद करवाया और केवल गुरुबानी व उसके शब्दों के तेज आवाज में उच्चारण पर जोर दिया। इस प्रकार के उच्चारण को पंजाब में ‘कूका’ कहा जाता है। इस आंदोलन ने ब्राह्मणों के प्रभाव को कम किया, जिससे बड़ी संख्या में दलित भी इसमें शामिल हुए।
नामधारी आंदोलन
नामधारी आंदोलन के संस्थापक बालक सिंह (1799-1862) माने जाते हैं। उन्होंने सिख समाज में व्याप्त दिखावे और आडंबरों को दूर करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की। बालक सिंह के एक कारीगर (शिल्पकार) जाति के शिष्य राम सिंह ने इस आंदोलन को नई दिशा दी और समाज सुधार के साथ-साथ देश की स्वतंत्रता के लिए भी संघर्ष किया। बाद में ब्रिटिश सरकार ने राम सिंह को गिरफ्तार कर देशद्रोह के आरोप में अंडमान (कालापानी) भेज दिया।
अकाली आंदोलन
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अमृतसर में ‘सिंह सभा’ द्वारा खालसा कॉलेज की स्थापना के साथ सिख सुधार आंदोलन शुरू हुआ। ‘मुख्य खालसा दीवान’ के नाम से प्रसिद्ध इस संस्था ने पंजाब में कई गुरुद्वारों और स्कूल-कॉलेजों की स्थापना की। किंतु सुधार के प्रयासों को अधिक बल 1920 के बाद अकाली आंदोलन के शुरू होने से मिला। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों के प्रबंध का शुद्धिकरण करना था। ये गुरुद्वारे भक्तों से भूमि और धन दानस्वरूप प्राप्त करते थे, किंतु इनका प्रबंध भ्रष्ट और स्वार्थी महंतों द्वारा मनमाने ढंग से किया जा रहा था। इन महंतों को सरकार का भी समर्थन प्राप्त था। 1921 में अकालियों के नेतृत्व में सिख जनता ने भ्रष्ट महंतों और सरकार के विरुद्ध एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया। पहले सरकार ने इस आंदोलन को बलपूर्वक दबाने की कोशिश की, किंतु आंदोलन की प्रचंडता के कारण अंततः सरकार को झुकना पड़ा। 1922 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित हुआ, जिसे 1925 में संशोधित किया गया। इस कानून की सहायता से और अधिकतर सीधी कार्रवाई द्वारा सिखों ने गुरुद्वारों से भ्रष्ट महंतों को धीरे-धीरे बाहर खदेड़ दिया, यद्यपि इस आंदोलन में सैकड़ों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी।










