सरयूपार के कलचुरी
कलचुरीयों की सबसे प्राचीन शाखा मध्य भारत में नर्मदा नदी के ऊपरी तट पर शासन करती थी, जिसकी राजधानी महिष्मती (वर्तमान माहेश्वर) थी। महिष्मती के कलचुरी वंश का आदिपुरुष और संस्थापक कृष्णराज था। उसके बाद शंकरगण और बुद्धराज ने शासन किया। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि प्रारंभिक कलचुरी शासकों का अभोना, संखेड़ा, सरसावनी और वडनेर पर अधिकार था, लेकिन छठी शताब्दी के मध्य तक इन कलचुरीयों ने विदर्भ और उत्तरी कोंकण पर भी अधिकार कर लिया। त्रिपुरी के कलचुरीयों से पृथक करने के लिए महिष्मती के कलचुरीयों को ‘आद्य कलचुरी’ या ‘प्रारंभिक कलचुरी’ भी कहा जाता है। पुरालेखीय और मुद्राशास्त्रीय स्रोतों से पता चलता है कि एलीफैंटा और एलोरा गुफाओं के सबसे प्राचीन स्मारक कलचुरी शासन के दौरान ही बनाए गए थे। सातवीं शताब्दी के आरंभ में महिष्मती के अंतिम कलचुरी शासक बुद्धराज को वातापी (बादामी) के चालुक्यों के हाथों पराजित होना पड़ा और संभवतः उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
उत्तर भारत में कलचुरीयों की शाखा
उत्तर भारत में प्रतिहारों की सत्ता के पूर्ण स्थापित होने से पहले, कलचुरीयों की एक शाखा ने सातवीं शताब्दी ईस्वी में उत्तर प्रदेश के सरयूपार में वर्तमान गोरखपुर, देवरिया और कुशीनगर के क्षेत्रों पर शासन करना शुरू किया। 1077 ई. के सोढ़देव के कहला अभिलेख से पता चलता है कि किसी ‘कलचुरीतिलक’ (संभवतः वामराजदेव) ने कालिंजर से आगे बढ़कर अयोमुख (प्रतापगढ़ और रायबरेली) की विजय की और उसके छोटे भाई लक्ष्मणराज ने श्वेतपद पर अधिकार किया। वामराजदेव ने अपने छोटे भाई लक्ष्मणराज को सरयूपार के कलचुरी क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया।
सातवीं शताब्दी ईस्वी से सरयू नदी के किनारे एक कलचुरी शाखा ने शासन करना शुरू किया। आठवीं शताब्दी के अंत में सरयूपार में कलचुरीयों की दो शाखाएँ स्थापित हुईं—पहली गोरखपुर क्षेत्र की कहला शाखा और दूसरी देवरिया-कुशीनगर क्षेत्र की कसया शाखा। इसकी पुष्टि 1077 ई. के सोढ़देव के कहला और कसया के अभिलेखों से होती है।
सरयूपार की कलचुरी शाखा का इतिहास
राजपुत्र (संस्थापक)
कहला अभिलेख के अनुसार सरयूपार की कलचुरी शाखा का संस्थापक राजपुत्र था, जिसकी दसवीं पीढ़ी में सोढ़देव राजा हुआ। राजपुत्र ने शक्तिशाली पाल शासक धर्मपाल के आक्रमण से अपने राज्य की रक्षा की।
शिवराज और शंकरगण
राजपुत्र के उत्तराधिकारी शिवराज की किसी विशेष उपलब्धि की जानकारी नहीं है। इस शाखा के तीसरे शासक शंकरगण प्रथम (845-885 ई.) को त्रिपुरी के कलचुरी शासक कोकल्ल प्रथम ने पराजित करके अभयदान दिया था।
गुणाम्बोधि
शंकरगण प्रथम के उत्तराधिकारी गुणाम्बोधि ने प्रतिहार शासक मिहिरभोज की ओर से गौड़ (बंगाल) के पाल शासक देवपाल को पराजित कर उसकी संपत्ति (लक्ष्मी) का अपहरण कर लिया। इस सहायता के बदले में मिहिरभोज ने गुणाम्बोधि को कुछ भूमि दी थी।
भामान
गुणाम्बोधि का उत्तराधिकारी भामान हुआ, जिसने गुर्जर-प्रतिहार शासक महिपाल प्रथम (913-944 ई.) के सामंत रूप में धारा के परमारों, संभवतः वैरिसिंह द्वितीय से युद्ध कर प्रसिद्धि प्राप्त की। इस प्रकार गुणाम्बोधि और भामान दोनों गुर्जर-प्रतिहारों के अधीनस्थ सामंत थे।
भीम और व्यास
तेरहवें शासक भीम (1010 ई.) को गृहयुद्ध के कारण अपना राज्य खोना पड़ा। 1031 ई. में पूर्व शासक गुणसागर द्वितीय के पुत्र व्यास को सरयूपार की कलचुरी शाखा का राजा बनाया गया।
सोढ़देव (अंतिम शासक)
राजपुत्र की दसवीं पीढ़ी में सोढ़देव सरयूपार की कलचुरी शाखा का शासक हुआ, जिसका 1077 ई. का कहला अभिलेख मिला है। सोढ़देव ने गंगा-यमुना दोआब में होने वाले तुर्क आक्रमणों और प्रतिहार साम्राज्य की अवनति का लाभ उठाकर घाघरा तथा गंडक के किनारे के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, जिसमें वर्तमान बहराइच, गोंडा, बस्ती और गोरखपुर जिले शामिल थे।
संभवतः सोढ़देव त्रिपुरी के कलचुरीयों की अधिसत्ता स्वीकार करता था क्योंकि 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में बनारस तक का क्षेत्र त्रिपुरी के कलचुरी शासक गांगेयदेव के नियंत्रण में था।
सोढ़देव की ‘परममहेश्वर’ की उपाधि से स्पष्ट है कि वह शैव धर्म का अनुयायी था।
सरयूपार की कलचुरी शाखा का अंत
सोढ़देव संभवतः सरयूपार की कलचुरी शाखा का अंतिम शासक था। काशी-कन्नौज में गहड़वाल सत्ता की स्थापना के बाद वाराणसी और प्रयाग से लेकर अयोध्या तक के क्षेत्र गहड़वालों के अधिकार में चले गए और इसी के साथ सरयूपार के कलचुरी सामंतों की शाखाएँ भी समाप्त हो गईं। संभवतः यही कारण है कि 1077 ई. में कहला अभिलेख निर्गत करने वाले सोढ़देव के किसी उत्तराधिकारी के बारे में कोई सूचना नहीं मिलती है।
इस प्रकार सरयूपार के कलचुरी आठवीं-नवीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी तक पहले प्रतिहारों के सामंत और बाद में त्रिपुरी के कलचुरीयों के सामंत के रूप में शासन किए। सोढ़देव के समय में उन्होंने स्वतंत्र रूप से कुछ क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित किया, लेकिन गहड़वालों के उदय के साथ उनकी सत्ता समाप्त हो गई।










